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________________ एक पारदर्शी व्यक्तित्व -उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि परमविदुषो महासती श्री कुसुमवती जी के माँ के साथ गुरुणीजी के पास आहती दीक्षा ग्रहण सम्बन्ध में लिखना बहुत कठिन कार्य है। क्योंकि की। उसके पश्चात् मेरी ज्येष्ठ भगिनी सुन्दर मेरी यह कमजोरी रही कि जिनके साथ अत्यधिक कुमारी ने भी दीक्षा ली । और वे पुष्पवती के नाम आत्मीयता हो जाती है उनके सम्बन्ध में लिखना से विश्र त हईं। तीन वर्ष के पश्चात् १ मार्च सन् इसीलिए कठिन हो जाता है कि क्या लिखा जाय, १९४१ में मैंने भी महास्थविर श्री ताराचन्द जी और क्या छोड़ा जाय ? आत्मीय जनों की प्रशंसा म० सा०, उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि करना ऐसा लगता है कि स्वयं की प्रशंसा जी म. के पास आर्हती दीक्षा ग्रहण की । मेरी दीक्षा करना है। के पश्चात् पूजनीया मातेश्वरी तीजबाई ने भी __ जहाँ तक मुझे स्मरण है बहिन कुसूमवती जी चार महीने के पश्चात् दीक्षा ग्रहण की और वे जो गृहस्थाश्रम में नजरबाई के नाम से जानी-पह- प्रभावती के नाम से विश्र त हुई। चानी जाती थी, उनसे प्रथम परिचय आज से ५० दीक्षा लेने के पश्चात् पूज्य गुरुदेव श्री का वर्ष पूर्व हुआ था। वे उस समय एक नन्ही-सी विचरण मारवाड़ में विशेष रूप से रहा और वे बालिका थी। जिनके चेहरे पर स्निग्ध मधुर मेवाड़ में । अतः अनेक वर्षों के बाद पुनः आपसे मुस्कान अठखेलियाँ करती थी। वे मितभाषी थीं। मिलना हुआ। उस समय आप श्रद्धेय गुरुदेव श्री उनकी सरलता-गम्भीरता और आन्तरिक शुचिता की पावन प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर संस्कृत-व्याकने मुझे प्रभावित किया। वे जिन सद्गुरुणी जी श्री रण और संस्कृत साहित्य का अध्ययन कर रही सोहन कुंवरजी म. के चरणों में बैठकर धार्मिक थीं। गुरुदेव श्री मेवाड़ से मालव धरती को पावन अध्ययन करती थीं, तो मैं भी उन्हीं के चरणों में करते हुए महाराष्ट्र में पधारे । बम्बई, सौराष्ट्र बैठकर धार्मिक और आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त कर आदि में वर्षावास सम्पन्न कर पुनः सन् १९५० में रहा था। अतः गुरुबहिन और गुरुभाई के रूप में उदयपुर पधारे। तब आपसे पुनः मिलने का अवएक-दूसरे को हम सम्बोधित करते थे । मैंने उनमें एक सर मिला। इस बीच बहिन म. के साथ आपने ऐसा चुम्बकीय व्यक्तित्व पाया जिसका भीतर और ब्यावर जैन गुरुकुल में रहकर जैनन्याय का अध्यबाहर एक रूप था । बाल सुलभ स्वभाव के कारण यन किया और हिन्दी साहित्य की भी साहित्यरत्न हम एक-दूसरे को प्यार से पुकारते थे। मैं उन्हें आदि परीक्षाएँ समुत्तीर्ण की। कीड़ी भर (चींटी भर) महाराज कहकर सम्बोधित गुरुणीजी म. ने तपोमूर्ति विदुषी महासती श्री करता तो वे मुझे कुन्थू भर (जन्तु विशेष) सम्बो- मदनकुंवरजी म. के स्वर्गस्थ हो जाने से उदयपुर से धित करतीं। उम्र में वे मेरे से काफी बड़ी थीं। विहार मालव प्रान्त की ओर किया । इन्दौर, पर तन उनका बहुत ही नाटा था। उन्होंने अपनी कोटा, बूदी आदि क्षेत्रों में वर्षावास सम्पन्न कर प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Elution International Sate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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