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________________ LOCAS पर पुनः अपना प्रभाव प्रदर्शित करती हैं। जिससे वचनयोग को रोकते हैं । अनन्तर सूक्ष्म काययोग से पतन होने पर पहले मिथ्यात्व गुणस्थान तक की उक्त बादरयोग को रोकते हैं । इसी सूक्ष्म काययोग प्राप्ति शक्य है । लेकिन क्षपक-श्रेणी में मोहनीय से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग और वचनयोग को रोकते कर्म का तो सर्वथा क्षय होता ही है, उसके साथ हैं । अन्त में, सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यान के उन कुछ प्रकृतियों का भी क्षय हो जाता है जो बल से उस सूक्ष्म काययोग को भी रोक देते हैं। अशुभ वर्ग की हैं । जिससे चतुर्थ गुणस्थान में देखे इस प्रकार से, योगों का निरोध होने से, 'सयोगिगये परमात्मस्वरूप की स्पष्ट प्रतीति-दर्शन होने केवली' भगवान् 'अयोगिकेवली' बन जाते हैं। लगते हैं । शेष रह गये 'छद्म'-घातिकर्म, इतने साथ ही उसी सूक्ष्म क्रियाऽनिवत्ति शुक्लध्यान की निःशेष हो जाते हैं कि क्षणमात्र में उनका क्षय सहायता से अपने शरीर के भीतरी खाली भागॐ होने पर, आत्मा स्वयं परमात्म दशा को मुख, उदर आदि भाग को, आत्मप्रदेशों से पूर्ण कर के प्राप्त कर जीवन्मुक्त-अवस्था में स्थित हो जाती देते हैं। उनके आत्मप्रदेश इतने सघन हो जाते हैं कि वे शरीर के दो तिहाई हिस्से में समा जाते हैं। । १३. सयोगिकेवली गुणस्थान-मोहनीय कर्म इसके बाद, समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाती शुक्लध्यान के माथ शेष-'ज्ञानावरण'- 'दर्शनावरण' और को प्राप्त करते हैं और 'पाँच ह्रस्व-अक्षर' (अ-इ'अन्तराय' इन तीन घाति-कर्मों का क्षय करके उ-ऋ-ल) के उच्चारण काल का 'शैलेशीकरण' 'केवलज्ञान', 'केवलदर्शन' प्राप्त कर चुकने से पदार्थों करके चारों अघाति कर्मो-वेदनीय, नाम, गोत्र को जानने-देखने में 'इन्द्रिय'-'आलोक' आदि की और आयु कर्मों-का सर्वथा क्षय करने पर, समय अपेक्षा जो नहीं रखते, तथा योग-सहित हैं, मात्र की ऋजूगति से ऊर्ध्वगमन करके 'लोक' के डाउन्हें 'सयोगि-केवली' कहते हैं, और उनके स्वरूप- अग्रभाग में स्थित 'सिद्धक्षेत्र' में चले जाते हैं। विशेष को 'सयोगि केवली' गुणस्थान कहते हैं। लोक के अग्रभाग में विराजमान ये 'सिद्ध' भग सयोगिकेवली भगवान् 'मनोयोग' का उपयोग वन्त, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों, राग-द्वेष आदि मन द्वारा पूछे गये प्रश्न का उत्तर मन द्वारा देने में भावकों से रहित होकर, अनन्त शांति सहित ज्ञान, करते हैं । उपदेश देने के लिए 'वचन' योग का, दर्शन, सुख, वीर्य, अव्याबाध-अवगाहनत्व, नित्य, तथा हलन-चलन आदि क्रियाओं में 'काय' योग का कृतकृत्य अवस्था में अनन्तकाल तक रमण करते उपयोग करते हैं। रहते हैं। सर्वथा कर्मबन्ध का अभाव हो जाने से पुनः संसार-परिभ्रमण के चक्कर में उनका आगमन सयोगिकेवली यदि 'तीर्थङ्कर' हों, तो 'तीर्थ' नहीं होता है। की स्थापना' एवं 'देशना' द्वारा तीर्थ का प्रवर्तन कार करते हैं। यदि किसी सयोगिकेवली भगवान् की आयु कर्म की स्थिति दलिक कम हो, और उसकी अपेक्षा १४. अयोगिकेवली गणस्थान-जो केवली वेदनीय, नाम तथा गोत्र, इन तीन कर्मों की स्थिति भगवान् मन, वचन, काय के योगों का निरोध कर, , एवं पुद्गलपरमाण अधिक होते हैं, वे आठ समय 5 योगरहित हो शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते वाले केवली-समुदघात' के द्वारा आयकर्म की स्थिति हैं, वे 'अयोगिकेवली' कहलाते हैं। इन्हीं के स्वरूप एवं पुद्गलपरमाणओं के बराबर वेदनीय, नाम और विशेष को 'अयोगिकेवली' गुणस्थान कहते हैं। गोत्रकर्म की स्थिति व पुद्गलपरमाणुओं को कर ___ योग-निरोध का क्रम इस प्रकार है-सर्वप्रथम लेते हैं। परन्तु, जिन केवलियों के वेदनीय आदि बादर (स्थूल) काययोग से बादर मनोयोग और तीनों अघाति-कर्मों की स्थिति और पुद्गल परमाणु तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन २६३ C MO साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 09 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org A
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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