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और बुराई का समर्थन नहीं करना चाहिए। को अपने सहधर्मी सहयोगियों के प्रति अतिशय ऊपरी मन से अथवा किसी दबाब के कारण भी स्नेह रलना चाहिए। यह पारस्परिक स्नेह सभी
यदि वह अवगुणों अथवा कुमार्ग का प्रशंसक हो के मन में धर्म के प्रति रुचि को प्रगाढ़ बनाता है हैजाता है, तो धीरे-धीरे वह ऐसा अभ्यस्त हो जाता और अन्य जन इस मृदुल व्यवहार एवं स्नेहसिक्त
है कि दबाव न होने की स्थिति में भी वह बुरे की वातावरण से प्रभावित होकर प्रेरणा ग्रहण करते प्रशंसा ही करने लग जाता है। वस्तुतः उसे तब हैं। धर्मानुयायियों के साथ-साथ धर्म के प्रति भी बुरे में कोई बुराई दिखाई ही नहीं देगी । परिणा- श्रद्धा और स्नेह का भाव होना अनिवार्य है। मतः स्वयं उसका आचरण भी वैसा ही (बुरा) होने
इसी प्रकार सम्यग्दर्शन का आठवाँ और लग जाता है। बुराई का समर्थन इस प्रकार
अन्तिम अंग धर्म के विकास और उसकी विशेषमनष्य के पतन का कारण बन जाता है। बुराई के झूठे समर्थन से भी संसार में उसका प्रसार और
__ताओं के प्रचार-प्रसार से भी सम्बन्धित है और शक्ति बढ़ती है। कुमार्ग भी क्षणिक आकर्षण तो
और अन्य जनों को मिथ्यात्व से मुक्त कर सुधर्म रखते ही हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह
__ में प्रवृत्त करने की प्रेरणा देता है। व्यक्ति को
जनसाधारण में व्याप्त अज्ञानान्धकार को दूर कर इस चेटक से स्वयं को अप्रभावित रखे और किसी बुराई को अपने पर हावी नहीं होने दे।
" पवित्र, अहिंसामय धर्म का अधिकाधिक प्रसार जहाँ चौथा अंग बुराई के प्रसार पर रोक
करने में व्यस्त रहना चाहिए। लगाता है, वहाँ सम्यग्दर्शन का पांचवाँ अंग सम्यग्दृष्टि जन धर्म के विकास में अपना सन्मार्ग के अधिकाधिक प्रसार की प्रेरणा देता विनीत योगदान करते रहते हैं। ऐसे जन धर्म है । मनुष्य को चाहिए कि सन्मार्ग की खूब प्रशंसा और धर्मानुयायियों में अन्तर नहीं करते । धर्मकरे । उसे स्वयं भी सन्मार्गी होना चाहिए और प्रेम और धार्मिकों के प्रति प्रेम दोनों परस्पर उसे दूसरों को भी ऐसा बनने की प्रेरणा देनी पर्यायरूप में होते हैं। धार्मिकों का सम्मान करने IINK चाहिए । जब कभी सन्मार्ग या अच्छाइयों की से ही धर्म का सम्मान किया जा सकता है । धर्म निन्दा हो तो उसे उसका प्रतिकार करना चाहिए। तो सूक्ष्म रूपधारी होता है। उसका यत्किचित् अबोधजन अथवा दुर्जन ऐसा व्यवहार कर सकते हैं व्यक्त स्वरूप धर्मानुयायियों के रूप में ही हमारे किन्तु सम्यक्दृष्टि जन सदा निर्भीकता के साथ समक्ष आ पाता है। सम्यक् दृष्टि जन अत्यन्त उनका विरोध करते हैं। इस प्रकार लोक में कोमल व्यवहार वाले और विनम्र होते हैं । उन्हें सन्मार्ग का रक्षण करना सम्यग्दर्शन का एक अपने तप, साधना, अजित क्षमता, उच्चता, वंश, महत्त्वपूर्ण अंग है।
__ यश आदि का कोई अहं नहीं होता । अहं तो तब इसी से सम्बद्ध छठा अंग है कि जब कभी आता है, जब व्यक्ति अपने को उच्च और अन्य मनुष्य स्वयं अथवा कोई अन्य जन सन्मार्ग से च्युत जनों को इस अपेक्षा में निम्न मानने लगता है। हो रहा हो, तो उसे चाहिए कि उसे दृढ़ बनावे। सम्यक्दृष्टि जन ऐसा व्यवहार नहीं करते। सन्मार्ग न छोड़ने को प्रेरणा देना और स्वयं भी यह सम्यग्दर्शन स्वतः मोक्ष नहीं है। मोक्ष के सन्मार्गी बने रहना इस अंग के अन्तर्गत मनुष्य का मार्ग का अनुसरण करने के लिए यह आवश्यक कर्तव्य है।
तैयारी मात्र है। यह वह भूमिका है, जिसके सम्यग्दर्शन का सातवाँ अंग धर्म के आन्तरिक पश्चात् धर्माकुरण सम्भव हो पाता है । यह व्यवपक्ष की दृढ़ता के लिए है। इसके अनुसार व्यक्ति हार व्यक्ति को मोक्ष-मार्ग का पथिक बनने की
कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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