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जैन दर्शन- सम्मत
आत्मा का स्वरूपविवेचन
संस्कृत विभाग एस. डी. डिग्री कालेज मठलार
(देवरिया)
'सर्वे गत्यर्थाः ज्ञानार्थाः ' इस वचन के अनुसार 'गमन' का अर्थ - डॉ. एम० पी० पटेरिया 'ज्ञान' होता है । इस आधार पर 'अतति - गच्छति जानाति इति आत्मा' - यह व्युत्पत्ति 'आत्मा' की की गई है अर्थात्, शुभ-अशुभरूप कायिक, वाचिक एवं मानसिक व्यापार यथासम्भव तीव्र-मन्द आदि रूपों में, समग्रतः ज्ञान आदि गुणों में रहते हैं। ज्ञानादिगुण जीव/आत्मा द्रव्य के हैं । अतः उक्त व्युत्पत्ति, इन्हीं गुणों के आधार पर की गई मानी जा सकती है । अथवा, 'उत्पाद व्यय - ध्रौव्य का त्रिक जिसमें है, वह आत्मा है ।" 'जीव' वह है, 'जो चार-प्राणों से जीवित है, जीवित था, और जीवित रहेगा ।' अर्थात, 'जीवित रहने का गुण जिसमें कालिक / सार्वकालिक है, वह जीव है । प्राणों के यद्यपि दश प्रकार हैं । किन्तु वे मूलतः चार ही माने गये हैं । ये हैं -बाल प्राण, इन्द्रिय-प्राण, आयु प्राण और श्वासोच्छ्वास । इनमें से बल प्राण के तीन प्रकार हैंकायबल, मनोबल और वाक्-बल । स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्ष और श्रोत्र भेदों से इन्द्रिय-प्राण के पाँच प्रकार होते हैं । इन आठों के
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तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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भारत के दार्शनिक चिन्तन-क्षितिज में आत्म-विचारण के द्योतक दो मौलिक सिद्धान्त, सर्वप्रथम प्रकाश्यमान दिखलाई पड़ते हैं। ये हैं(१) भूतचैतन्यवाद, और (२) स्वतन्त्र जीव / आत्म-वाद ! इनमें प्रथम भूत चैतन्यवादी चिन्तन का विकास विस्तार, कई प्रकार के अवान्तर सिद्धान्तों में परिस्फुरित हुआ, तो दूसरे स्वतन्त्र जीव / आत्मवादी चिन्तन ने विविध चिन्तनपरक स्वतन्त्र विचारणाओं की कई पपपराएँ विकसित कीं । इन सबकी सैद्धान्तिक चर्चा और समीक्षात्मकविचारणा के लिए साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रंथ में प्रकाशित मेरे लेख को देखा जा सकता है । उन्हीं चर्चाओं के सन्दर्भ में, जैन दार्शनिक आत्म- सिद्धान्तों के अन्तर्गत जीव आत्मा का स्वरूप- अस्तित्वविवेचन इस लेख का लक्ष्य है । जैनदर्शन में छः द्रव्य माने गये हैं-जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल । इनमें 'जीव' प्रमुख द्रव्य है । शेष पाँचों द्रव्य 'अजीव' हैं । इन अजीव द्रव्यों के साथ जब जीव का सम्बन्ध जुड़ता है, तब, विश्व का विस्तार होता है; और इस जगत् की समग्र प्रक्रिया सतत् गतिमान बनी रहती है। जैन दार्शनिकों ने 'जीव' द्रव्य के लिये 'आत्मा' शब्द का भी प्रयोग किया है । अतः जहाँ-जहाँ भी 'जीव' की विवेचना की गई है, उसे 'आत्मा' की भी विवेचना मानना चाहिए । तथापि, 'जीव' और 'आत्मा' दो अलग-अलग शब्द हैं । इन दोनों शब्दों का अर्थवोध एक ही द्रव्य में कैसे होता है ? यह जानने के लिये दोनों शब्दों की व्युत्पत्ति, लक्षण और व्याख्या भी अपेक्षित है ।
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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