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श्रद्धा के दो बोल
है और नर के बिना नारी। इसके अतिरिक्त माता
के रूप में नारी के जो उपकार समाज पर हैं, उनसे -उपप्रवर्तक राजेन्द्र मनिजी कभी भी उऋण नहीं हो सकते । नारी ही पुरुष की
प्रथम शिक्षिका है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति
नहीं है कि प्रत्येक महापुरुष के निर्माण के पीछे एक प्राचीन भारतीय इतिहास के पृष्ठों का जब नारी का ही हाथ होता है। नारी नर की सच्ची अध्ययन करते हैं और उसमें जब नारी की स्थिति मित्र, वफादार साथी, मार्गदर्शक और प्रेरक होती का अवलोकन करते है, तो पाते हैं कि उस समय है। उस नारी के सम्बन्ध में हेय विचार शोभा नहीं नारी की स्थिति काफी सम्मानजनक थी। कई देते।
मामलों में वह स्वतन्त्र थी । उस पर कोई विशेष नारी त्याग की साक्षात प्रतिमा है, उसके मुकार प्रतिबन्ध लगे हुए नहीं थे। शिक्षा के क्षेत्र में भी बले साधना और सेवा-समर्पण पुरुष नहीं जानता। nा उसका विशेष स्थान था । इसका प्रमाण ऋग्वेद में नारी जितनी कोमल होती है, वह उससे कहीं
रचित कुछ विदुषी महिलाओं की ऋचायें हैं । इतना अधिक दृढ व कठोर भी होती है। एक बार किसी होते हुए भी नारी को उस समय बाल्यकाल में पिता विषय पर जो निर्णय कर लिया, उस पर नारी अथवा भाई के संरक्षण में और विवाह होने के उप- सुमेरु की भांति अडिग-अटल रहती है। पुरुष को रान्त पति के संरक्षण में रहना पड़ता था। बिधवा तो एक बार अपने संकल्प से डिगाया जा सकता है। होने की स्थिति में उसे अपने पुत्रों के संरक्षण में किंतु नारी को उसके पथ से अलग करना, उसके रहना पड़ता था। किन्तु नारी को आध्यात्मिक संकल्प से च्युत करना संभव नहीं है। साधना की स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की।
इसके अतिरिक्त नारी में शील, सदाचार,लज्जा, समय के प्रवाह के साथ समाज में भी परिवर्तन दया, क्षमा आदि अनेक सद्गुण हैं जो उसकी कीर्ति
आए और उसी के साथ नारी की स्थिति में भी में चार चाँद लगा देते हैं। प्राचीन काल से लेकर ( परिवर्तन आने लगा। मातृस्वरूपा नारी जिसके आज तक का नारी-जगत का इतिहास देखे तो हमें
लिए कहा जाता था-यत्रनार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते अनेक ऐसे नाम मिल जाएंगे जिनके कारण हमारा तत्र देवताः-जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ इतिहास गौरवशाली बन गया है। उन सब महान देवताओं का वास रहता है। जैसे उदघोषों के स्थान सन्नारियों की नामावलो गिनाना यहाँ प्रासंगिक
पर नारी पर अनेक प्रतिबन्ध लगने लगे। ज्ञान प्राप्त प्रतीत नहीं होता। 2. करने के लिए प्रतिबन्धित कर दिया गया और नारी जहाँ तक जैनधर्म का प्रश्न है, जैनधर्म में नारी CAL को नरक की खान तक बता दिया गया।
को समान स्थान प्राप्त है। जैनधर्म में साधना की पर यह एक विडम्बना ही है कि जो नारी एक ओर दृष्टि से कोई भेदभाव नहीं किया गया है। यही
लक्ष्मी और सरस्वती के रूप में तथा दूसरी ओर कारण है कि जैनधर्म में अनेकानेक महासतियाँ हुई शक्ति के प्रतीक रूप में सम्मानित थी वही नरक की हैं, जिन्होंने साधना के पथ पर बढ़ते हुए न केवल खान जैसे शब्दों से प्रताडित की जाने लगी। उसकी आत्मोकर्ष किया वरन् अनेक भव्य प्राणियों को भो गौरव गरिमा की किमी को चिन्ता नहीं रही। आत्मकल्याण करने के लिए प्रेरित किया। अधिक जबकि नारी नर से किसी भी स्थिति में कम नहीं विस्तार में न जाते हुए इतना ही कहना पर्याप्त है । नारी हर क्षेत्र में नर के साथ कन्धे से कन्धा होगा कि ब्राह्मी सुन्दरी ने बाहुबली, राजीमती ने मिलाकर कार्य करती है। नारी के बिना नर अधूरा रथनेमि को प्रतिबोधित किया। श्रेणिक को सत्य
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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