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उदार व दीर्घदर्शी दृष्टि
राजस्थान प्रांत में रहने के बावजूद आपका मस्तिष्क संकुचित विचारों से ऊपर उठा हुआ था। यही कारण है कि सर्वप्रथम राजस्थान में साध्वियों को संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी भाषा के उच्चतम अध्ययन करने के लिए आपके अन्तर्मानस में भावनाएँ जाग्रत हुईं। आपने अपनी सुशिष्या महासती कुसुमवती जी, महासती पुष्पवती जी महासती चन्द्रावती जी आदि को किंग्स कॉलेज, बनारस की संस्कृत, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की साहित्यरत्न प्रभति उच्चतम परीक्षाएँ दिलवाईं । उस समय प्राचीन विचारधारा के व्यक्तियों ने आपश्री का डटकर विरोध किया कि साध्वियों को संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी का उच्च अध्ययन न कराया जाय और न परीक्षा ही दिलवाई जाएँ । तब आपने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की - 'साधुओं की तरह साध्वियों को भी अध्ययन करने का अधिकार है । आगम साहित्य में साध्वियों के अध्ययन का उल्लेख है । युग के अनुसार यदि साध्वियां संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का अध्ययन नहीं करेंगी तो आगम और उसके उत्तरकालीन साहित्य को पढ़ नहीं सकतीं और बिना पढ़े आगमों के रहस्य समझ में नहीं आ सकते ।' इसका विरोधियों के पास कोई उत्तर नहीं था । आप विरोध को विनोद मानकर अध्ययन करवाती रहीं । उसके पश्चात् स्थानकवासी परम्परा में अनेक मूर्धन्य साध्वियां हुईं। आज अनेक साध्वियां एम० ए०, पी-एच० डी० भी हो गई हैं । यह था आपका शिक्षा के प्रति
अनुराग ।
आपने अनेक व्यक्तियों को प्रतिबोध दिया । जब अन्य सन्त व सतीजन अपनी शिष्या बनाने के लिये उत्सुक रहती हैं तब आपकी यह विशेषता थी कि प्रतिबोध देकर दूसरों के शिष्य - शिष्याएँ बनाती थीं । आपने अपने हाथों से तीस पैंतीस बालिकाओं और महिलाओं को दीक्षाएँ दीं पर सभी को अन्य नामों से ही घोषित किया । अपनी ज्येष्ठ गुरु बहन महासती मदनकु वरजी के आग्रह पर उनकी आज्ञा के पालनार्थ तीन शिष्याओं महासती कुसुमवती जी, महासती श्री पुष्पवती जी महासती श्री प्रभावती जी को अपनी नेश्राय में रखा । यह थी आप में अपूर्वं निस्पृहता ।
आपके जीवन में अनेक सद्गुण थे जिसके कारण आप जहां भी गयीं, वहां जनता जनार्दन के हृदय को जीता । आपने अहमदाबाद, पालनपुर, इन्दौर, जयपुर, अजमेर, जोधपुर, ब्यावर, पाली, उदयपुर, नाथद्वारा प्रभृति अनेक क्षेत्रों में वर्षावास किये। सेवाभावना से प्रेरित होकर अपनी गुरु बहनों की तथा अन्य साध्वियों की वृद्धावस्था के कारण दीर्घकाल तक आप उदयपुर में स्थानापन्न रहीं !
सन् १९६६ में आपका वर्षावास पाली ( मारवाड़) में था । कुछ समय से आपको रक्तचाप की शिकायत थी, पर आपश्री का आत्मतेज अत्यधिक था जिसके कारण आप कहीं पर भी स्थिरवास नहीं विराज । सन् १९६६ (वि० सं० २०३३ ) में भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी को संथारे के साथ रात्रि में आपका स्वर्गवास हुआ। आप महान प्रतिभासम्पन्न साध्वीरत्न थीं । आपके स्वर्गवास से एक तेजस्वी महासती
क्षति हुई। आपका तेजस्वी जीवन जन-जन को सदा प्रेरणा देता रहेगा ।
ऐसी तेजस्वी, मनस्वी, तपस्वी महान आराधिका महासती की सुशिष्या होने का गौरव प्राप्त हुआ ज्ञानाराधिका, जपसाधिका, बालब्रह्मचारिणी, परम विदुषी महासती कुसुमवती जी म० को । जिनका विस्तृत जीवन परिचय प्रस्तुत करने जा रही हूँ ।
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द्वितीय खण्ड : जीवन दर्शन
साध्वीरत्न ग्रन्थ
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