________________
वर्षावास मेड़ता शहर
वि.सं. २००१ का आपका चातुर्मास मेड़ता शहर में हुआ। मेड़ता अध्यात्मयोगी श्री आनन्दघनजी की साधनाभूमि है तो भक्तिमती मीराबाई की जन्मभूमि भी है । चार माह तक मेड़ता में आपकी प्रवचन गंगा प्रवाहित होती रही और जिनवाणी की प्रभावना होती रही। आपके प्रवचनों से मेड़ता की जनता मन्त्रमुग्ध हो गई । घर-घर में आपके प्रवचनों की. विषय प्रतिपादन की प्रशंसात्मक चर्चा होती रही । चातुर्मास समाप्त होने पर आपने अपनी शिष्याओं / प्रशिष्याओं के साथ मेड़ता शहर से विहार कर दिया ।
शेष काल में ग्राम-ग्राम, नगर-नगर, जैनधर्म की ध्वजा फहराती रहीं और गुरुगच्छ का नाम उज्ज्वल करती रहीं । श्रीसंघ जयपुर के आग्रह से वि. सं. २०४२ के चातुर्मास की स्वीकृति प्रदान की। वर्षावास जयपुर
विहार क्रम में आपका पदार्पण पूर्व में जयपुर हो चुका था । अपनी शिष्याओं की शिक्षा के निमित्त दीर्घकाल तक यहाँ स्थिरता भी रहो थी, किन्तु अभी तक यहाँ चातुर्मास नहीं किया था । वि. सं. २०४२ का चातुर्मास जयपुर में प्रथम बार ही हो रहा था । जयपुर राजस्थान को राजधानी है और सर्वत्र गुलाबी नगर के नाम से विख्यात है। जयपुर नगर की स्थापना महाराजा सवाई जयसिंह ने सन् १७२८ में की थी । अनेक यूरोपीय नगरों के नक्शों का अध्ययन करवाने के पश्चात् इस नगर की बसावट की योजना को स्वीकृत कर मूर्त रूप प्रदान किया गया था। यह नगर चारों ओर से लगभग २० फीट ऊँचे और ६ फीट चौड़े परकोटे से घिरा हुआ है, जिसके एक समान आठ प्रवेश द्वार हैं । इस नगर में अनेक ऐतिहासिक महत्व के दर्शनीय स्थल भी हैं, जो पर्यटकों के आकर्षण के केन्द्र हैं । आमेर का सुप्रसिद्ध किला यहाँ से उत्तर-पूर्व में आठ-नौ किलोमीटर है। यह जयपुर रियासत की राजधानी था । जयगढ़ का सुप्रसिद्ध किला भी यहीं है ।
इस चातुर्मास में मासखमण अठाइयाँ आदि अनेक तपस्याएँ हुईं । सकारण सन्तरत्न भी यहाँ विराजमान थे । प्रतिदिन लाल भवन में साथ-साथ ही प्रवचन होते थे । परस्पर अच्छा स्नेहभाव रहा । सम्पूर्ण चातुर्मास काल में जयपुर की धर्मप्रेमी जनता में उल्लेखनीय धार्मिक उत्साह बना रहा। धर्मध्यान के मामले में जयपुर का श्रावक-श्राविका वर्ग वैसे भी सदैव अग्रणी रहता है । पूर्ण हर्षोल्लासमय वातावरण में यह चातुर्मास समाप्त हुआ । चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् जयपुर से विहार हो गया । गुरुदेव के सान्निध्य में - वि. सं. २०४३ का वर्षावास पाली में गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्करमुनि की म० सा० के पावन सान्निध्य में हुआ । इस चातुर्मास में ब्यावर निवासी वैरागिन शांताकुमारी की दीक्षा सम्पन्न हुई और साध्वी निरूपमा नाम रखा । स्मरण रहे वि. सं. २०४० में किशनगढ़ में इनकी संसारपक्षीय बहिन ने भी संयम व्रत अंगीकार किया था। जो वर्तमान में साध्वी श्री अनुपमाजी म. सा. के नाम से विद्यमान हैं ।
अमरगच्छ की वर्तमान साध्वी- समुदाय में माता, पुत्री, भुआ, भतीजी आदि तो कई हैं किन्तु सहोदरा बहिनों की यह प्रथम जोड़ी है ।
मेवाड़ में
इस चातुर्मास में सभी सतियाँ जी को अध्ययन का अच्छा सुअवसर प्राप्त हुआ । चातुर्मास समाप्त होने पर महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. ने अपने धर्म परिवार के साथ गढ़सिवाना, समदड़ी, जालोर, फालना, सादड़ी आदि क्षेत्रों में धर्म प्रचारार्थ भ्रमण किया। उधर धर्मध्वजा फहराकर आपका
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
१६१
Jain Education International
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ अन
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org