________________
"धर्म के प्रवर्तक सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और विधियाँ प्रयुक्त कर अशुद्धियों को दूर कर सकता है सम्यक्चारित्र को धर्म कहते हैं, जिनके उलटे और खरा स्वर्ण पिंड प्राप्त कर सकता है । उसी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार प्रकार आत्मा का शुद्ध रूप क्या है और इसके साथ के मार्ग हैं 11
लगे रहने वाले विकार क्या हैं ? यह जाने बिना इन संसारी मार्गों से छूटकर, दृढ़तापूर्वक धर्म व्यक्ति आत्मा को विकारमुक्त, शुद्ध नहीं कर में प्रवृत्त होना मुमुक्षु के लिए अत्यावश्यक है । इस सकता। धर्माचरण का प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन है। इस एक और भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । मुमुक्षु के सिद्धि के बिना आगामी दो सोपानों को अपनाना लिए इस तथ्य में अचल और अमर आस्था, पक्का असंभव सा रहता है।
विश्वास होना आवश्यक है कि- सम्यग्दर्शन का भाव है आत्मज्ञान-स्वयं को, "ज्ञान-दर्शनमय एक अविनाशी आत्मा ही मेरा
आत्मा को पहचानना। मोक्ष तो आत्मा का सुख है। शुभाशुभ कर्मों के संयोग से उत्पन्न शेष समस्त है और वह किसी बाहरी पदार्थ की अपेक्षा नहीं पदार्थ बाह्य हैं--- मुझसे भिन्न हैं और वे मेरे नहीं रखता। ऐसी स्थिति में प्रथमतः उस आत्मा के हैं।" स्वरूप से परिचय स्थापित कर लेना अत्यावश्यक शुभाशुभ कर्मों द्वारा जनित उन पदार्थों से रहता है। सत्य और मिथ्या में भेद करने की ममत्व त्यागना आवश्यक है जो हमारी आत्मा से क्षमता का विकास आवश्यक है। अन्यथा हमारी जुड़ गये हैं। ममत्व को त्यागे बिना उनसे उबरना साधना मिथ्या की ओर ही उन्मुख रह जाय, सत्य संभव नहीं है। आत्मा का इनसे छुटकारा करने
की ओर हमारा ध्यान जाये ही नहीं-ऐसा होने की की दिशा में यह अत्यावश्यक है कि जहाँ हम all आशंका बनी रहती है। हम क्या हैं ? संसार की आत्मा और इन शुभाशुभ (त्याज्य) कर्मों को पह
जिन परिस्थितियों और पदार्थों के मध्य हम हैं- चाने वहाँ यह भी परमावश्यक है कि हमें इस
वे क्या हैं ? जब तक इसका विवेक विकसित न हो, सिद्धान्त में पक्की आस्था हो कि केवल आत्मा ही है। हम त्याज्य और ग्राह्य में अन्तर नहीं कर सकते हमारी है, शेष बाह्य पदार्थ हमारे नहीं हैं और
हैं । आत्मा का बाह्य पदार्थों से छुटकारा मोक्ष- इनसे छुटकारा पाना है। जब तक यह आस्था न प्राप्ति के लिए आवश्यक है। यह तभी संभव है,
। छुटकारे के प्रयत्नों में दृढ़ता के साथ जब हम यह स्पष्टतापूर्वक समझ लें कि जिसका प्रवत्त नहीं हो सकेंगे । यदि अधूरी .आस्था में हम
छुटकारा कराना है वह आत्मा है क्या ? और इसी प्रयत्न आरम्भ करेंगे भी, तो वह मात्र दिखावा 3 प्रकार यह जानना भी आवश्यक है कि जिनसे छट- होगा और वे प्रभावी नहीं हो सके
कारा पाना है, वे पदार्थ कैसे हैं, क्या हैं ? स्वर्ण में जो शंकाएँ मन में आये उन्हें पहले ही दूरकर RT की खान से निकला पिंड शुद्ध स्वर्ण नहीं होता। वृद्ध आस्था विकसित करना ही वास्तव में सम्यग
उसमें अशुद्धियाँ मिश्रित होती हैं। शोधन करने दर्शन है। इसी के अनन्तर मुक्तिपथ पर अग्रसर वाले के लिए यह आवश्यक होता है कि वह स्वर्ण हुआ जा सकता है। आत्मा के स्वरूप की वास्तक्या होता है, इसे भली-भाँति पहचान सके । साथ विकता को पहचानना और उस पर दृढ़ हो जाना
ही स्वर्ण के साथ मिली रहने वाली अशुद्धियों का आवश्यक है। शरीर और आत्मा में अभेद स्थिति B ज्ञान भी उसे होना चाहिए। तभी वह उपयुक्त को मानना अर्थात् जो यह शरीर है वही आत्मा
हागी
१ सदृष्टिज्ञानव्रत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।
यदीय प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धति: ।।
२ एगो मे सस्सदो अप्पा णाण-दसणलक्खणो ।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।।
कूसूम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
3 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
Jain Education International
Farabrivate & Personalise Only
www.jainelibrary.org