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संस्तव । इन दूषणों से साधक को प्रतिपल प्रतिक्षण है, अभौतिक है । शरीर में ज्ञान नहीं, पर आत्मा बचते रहना है । ज्ञानमय है दर्शनमय है वह ज्ञाता द्रष्टा है । पर शरीर अनित्य है, विनाशी है, सड़न गलन स्वभाव वाला पुद्गल है । जबकि आत्मा नित्य है, अविनाशी है । वह न पानी से गलता है, न हवा से सूखता है, न शस्त्र उसे काट सकता है, न अग्नि उसे जला सकती है । वह न सड़ता है और उसका न विध्वंस ही होता है ।
व्यवहार सम्यक्त्व को पाँच रूप से देखा जा सकता है, जिसे सम्यक्त्व के पाँच लक्षण कहे हैंसम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य । इस सम्बन्ध में इस समय विवेचन नहीं करूँगी |
समयाभाव
अब हमें समझना है कि निश्चयदृष्टि से सम्यग्दर्शन क्या है ? निश्चयदृष्टि से आत्मा ही देव है, आत्मा ही गुरु है और आत्मभाव में रमण करना ही धर्म है । आत्मा अकाम निर्जरा के द्वारा सात कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को कम करते-करते जब प्रदेश न्यून कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति वाला बन जाता है । तब आत्मा में सहज उल्लास समुत्पन्न होता है । यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनि वृत्तिकरण से रागद्व ेष की ग्रन्थी का जब भेदन करता है, तब निश्चयसम्यग्दर्शन प्राप्त होता है । निश्चय सम्यग्दृष्टि साधक भेदविज्ञान के हथौड़े से आत्मा पर लगे हुए कर्मबन्धनों को तोड़ डालता है, जन्म-मरणरूपी संसार का उच्छेद कर देता है । भेद विज्ञान के प्रथम प्रहार में ही कषाय चेतना चूर चूर होने लगती | जन्म-मरण के चक्र मिटने लगते हैं । भेदविज्ञान से आत्मा अपने स्वभाव में अवस्थित हो जाता है ।
आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में भेदविज्ञान का तात्पर्य समझाते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है
अन्नमिमं सरीरं अन्नो जीवुत्ति एवं कयबुद्धी | दुक्ख परिकिलेसकरं छिन्द ममत्तं सरीरओ ।। यह शरीर अन्य है और आत्मा अन्य है । इस प्रकार तत्त्व- बुद्धि से दुःखोत्पादक और क्लेशजनक शरीर के प्रति ममत्व का परित्याग करता है ।
यह स्पष्ट है कि आत्मा और शरीर इन दोनों का स्वभाव, धर्म, गुण, प्रभृति भिन्न-भिन्न है । दोनों में आत्मीयता और तादात्म्य कभी हो नहीं सकता । शरीर जड़ है, भौतिक है, पुद्गल है । आत्मा चेतन
सप्तम खण्ड : विचार मन्थन
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इसीलिए सम्यग्दृष्टि के अन्तर्मानस का स्वरूप इस प्रकार प्रस्तुत किया है
सम्यग्दृष्टि जीवडा करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर थी न्यारो रहे ज्यों धाय खिलावे बाल ॥ धाय पन्ना ने अपने पुत्र का बलिदान करके भी महाराणा उदयसिंह की रक्षा की थी । वह अन्तर्मन में समझती थी, उदयसिंह मेरा पुत्र नहीं है तथापि वह कर्तव्य से विमुख नहीं हुई वैसे ही सम्यग्दृष्टि संसार में रहकर भी संसार से अलग-थलग रहता में रहता है । वह सदा निजभाव और परमात्मभाव है । उसका तन संसार में रहता है किन्तु मन मोक्ष में रमण करता है । इसीलिए शास्त्रकारों ने यह उद्घोषणा की कि
"समत्तदंसी न करेइ पावं । "
निश्चय और व्यवहार दोनों ही दृष्टियों से हमने सम्यग्दर्शन पर चिन्तन किया है । निश्चय सम्यग्दर्शन एक अनुभूति है और व्यवहार सम्यग्दर्शन उसकी अभिव्यक्ति है । दोनों का मधुर सम न्वय ही परिपूर्णता का प्रतीक है इसीलिए मैंने अपने प्रवचन के प्रारम्भ में सम्राट श्रेणिक का उदाहरण देकर यह तथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया कि वे क्षायिक सम्यक्त्व के धारी थे । वे आत्मभाव में रमण करते थे तथापि देव, गुरु और धर्म के प्रति उनके अन्तर्मन में कितनी अपार श्रद्धा थी ? आज का साधक उस आदर्श को अपनाएगा तो उसका इहलोक और परलोक दोनों ही सुखी होंगे ।
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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