________________
ना ही इस ग्रन्थ में स्थानों के नाम में 'कोटि-कोटि' तक आरोपित करने की एक अनोखी रीति का विश्लेषण SI की चर्चा है जिससे यह प्रमाणित होता है कि उस है जिसे वर्गित संवर्गित की संज्ञा दी गयी है । अनंत
समय तक संख्याओं की दशमलव पद्धति की जान- शब्द को परिभाषित कर उसके भेदों-प्रभेदों का कारी हो गयी थी। जैनाचार्यों की परम्परा में निर्धारण किया गया है तथा ११ प्रकार के अनन्तों का स्थान पाने वाले आचार्य कुन्दकुन्द (५२ ई० पू० से उल्लेख किया गया है । विभिन्न प्रकार के परिमित, ४४ ई० तक) ने अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें अपरिमित एवं एकल समुच्चयों के उदाहरण भी समय-सार, प्रवचन-सार, नियम-सार, पंचास्तिकाय उपलब्ध हैं। साथ ही पाई (ग) का मान ३५५/११३ ॥ सार एवं अष्ट पाहुड आदि प्रमुख हैं । पंचास्तिकाय स्वीकार किया गया है जिसे चीनी मान कहा जाता सार में समय एवं निमिष की परिभाषा दी गयी है. पर ऐसा अनुमान है कि चीन में प्रयोग होने से है, एक संख्य, असंख्य, अनन्त आदि का प्रयोग पूर्व ही जैनाचार्यों ने इसका प्रयोग किया है। किया गया है । प्रवचन-सार में तो प्रायिकता का आध्यात्मिक संत एवं जैन दार्शनिक विद्वान | मूल सिद्धान्त भी निहित है जिसके आविष्कार एवं यतिवषभ ने प्राकृत भाष में लोकानुयोग का सर्वाविकास का श्रेय गेलिलियो, फरमेटे, पास्कल, बर- धिक प्राचीन एवं महत्वपूर्ण उपलब्ध ग्रन्थ तिलोयनौली आदि पाश्चात्य गणितज्ञों को दिया जाता पण्णत्ती (त्रिलोक-प्रज्ञप्ति) की रचना की। साथ
ही उन्होंने कसायपाहुड पर चूणि सूत्रों की टीका की दो प्रमख रचनाओं आ० आर्य भी लिखी। कछ विद्वानों के मतानुसार वे आर्यभट र मुख एवं आ० नागहस्ति द्वारा रचित कषायप्राभूत (४०६ ई०) के समकालीन अथवा समीपर्वी थे, पर (कसाय पाहुड) एवं आ० पुष्पदंत एवं भूतवली नेमिचन्द शास्त्री ने पर्याप्त प्रमाणों के आधार पर द्वारा रचित षट् खंडागम (प्रथम अथवा द्वितीय उनका समय १७६ ई० के आस-पास निर्धारित किया शताब्दी) में भी गणितीय सामग्री की बहुलता है। है। जो भी हो, इतना निश्चित है, कि जैन साहित्य षट् खंडागम पर वीरसेनाचार्य (९ वीं शताब्दी) के अन्तर्गत तिलोयपण्णत्ती का विशिष्ट स्थान है। द्वारा लिखी गयी धवला नाम की एक महत्वपूर्ण नौ महाधिकारों में विभक्त यह एक विशाल ग्रन्थ है टीका में प्राकृत में रचित अनेक ग्रन्थों के गणितीय जिसमें अनेक प्राचीन ग्रन्थों के उल्लेख एवं उद्धरण उद्धहरण पाए जाते हैं । आठों परिकर्मों-संकलन प्राप्त होते हैं । इसमें विश्व रचना के कर्म-सिद्धान्त व्यकलन, गुणन, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन एवं धन- एवं अध्यात्म-सिद्धान्त का विशेष विवेचन तो है मूल, भिन्नों, वितत भिन्नों, घातांक एवं लघुगणक ही, साथ ही अनेक गणितीय सिद्धान्तों का भी के नियमों, विभिन्न प्रकार के समुच्चयों पर संक्रि- विश्लेषण है। काल-माप एवं लोक माप बताने याओं आदि गणितीय विषयों का विस्तृत रूप से हेतु विशाल संख्याओं एवं इकाइयों को परिभाषित विवेचन किया गया है। दीर्घ संख्याओं को व्यक्त किया गया है जहाँ काल की सूक्ष्मतम इकाई समय करने की प्रक्रिया में संख्या पर स्वसंख्या का वर्ग है तथा सबसे बड़ी संख्यात इकाई अचलात्म है ।
१ एच. आर. कपाडिया (सं.). गणित तिलक, बरोदा, १९३७, इन्ट्रो., पृ. २२ २ अनुपम जैन, आ. कुन्दकुन्द के साहित्य में विद्यमान गणितीय तत्व, अर्हत् वचन इन्दौर, अंक १,१९८८, पृ. ४७-५२ ३ लक्ष्मीचन्द जैन, बेसिक मैथमैटिक्स, भाग-१, जयपुर, १९८२, पृ. २८-३४ तथा ए. एन. सिंह, हिस्टरी आफन
मैथमैटिक्स इन इण्डिया फोम जैन सोसेंज, जैन एंटिक्वरि, आरा, खंड १५, १६४६, प.४६-५३ एवं अनुपम जैन, दाशनिक गणितज्ञ आ० वीरसेन, अर्हत वचन, अंक २, इन्दौर, १९८८, ५.२५-३७
३७२
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास |
COMSRO साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
Jain Location International
Sor Bivate & Personal Use Only