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क्या हम बदल गये हैं ?
-डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' साहित्यश्री एम० ए० (स्वर्ण पदक प्राप्त), पी-एच० डी०, डी० लिट प्राध्यापक : हिन्दी विभाग : दयालबाग एजूकेशनल इन्स्टीट्यूट
(गेम्ड विश्वविद्यालय), क्यालबाग आगरा
आप सोच रहे होंगे कि शायद यह वाक्य किसी कवि की कविता-पंक्ति है । जनाब, ऐसा नहीं 15 है। यह प्रश्न है मेरे जहन का। जो सायं की टहल के क्षणों में कौंध गया था। कई क्षण इस प्रश्न के। आपरेशन में बीत गये। सोच के गलियारों में कई बार चक्कर लगा आया। प्रश्न था कि जो बार-बार खिल-खिलाते हुए व्यवस्था-वातायन से झांक जाता-क्या हम बदल गये हैं ?
प्रश्न सुनकर आपके चेहरे पर नाराजगी की रंगत क्यों आ रही है ? क्या मैंने कोई अनुचित । बात कह दी है ? जी नहीं, जनाब ! हमारे रहन-सहन में, वेष-परिवेश में, खाँसने-विखारने में, खाने-पीने में, बोलने-चलने में क्या बदलाव नहीं आया है। सचमुच, हमारी प्रत्येक क्रिया में बदल के बादल छा ! गये हैं । शायद, हम अक्ल से ज्यादा अन्धता का भरोसा कर बैठे हैं। आज व्यक्ति का अपने ऊपर से विश्वास जो उठ गया है तभी तो वह बाहरी विश्वास के आकर्षण में लिपटा फँसा है। यह आत्मविश्वास-हीनता का कारवां श्रम, साधना और सृजन से हाथ धो बैठा है। शॉर्ट कट के लिए, छोटे रास्ते । के लिए, सुविधा के लिए, जल्दी लक्ष्य पर पहुँचने के लिए, कम प्रयत्न में अधिक पाने के लिए और कम ८ देकर ज्यादा कीमत वसूल करने के लिए आदमी आज का दौड़ रहा है। साधारण के लिए असाधारण को खोया जा रहा है। कितनी अबोधता है कि छोटे रास्ते से जल्दी मंजिल पाने की धुन में व्यक्ति अपने L को बरबाद कर रहा है। लोक को उचित चलना सडक का, चाहे फेर क्यों न हो कितनी सार्थक है। हम सही दिशा में गमन करें, सही राह पर चलें, भले ही वह राह लम्बो हो, ऊबड़-खाबड़ हो, देरी ही क्यों न हो?
आज व्यक्ति की दिमागी हालत पर विस्मय होता है कि वह अपने पिता पर, पत्र पर, पत्नी पर, मित्र पर विश्वास ही नहीं करता । वह बाहरी ताकतों पर, चमत्कारों पर भरोसा किया करता है। उसने अपना विश्वास, अपना ज्ञान बलाये ताक पर रख दिया है। वह किसी बहम के वशीभूत संयोग से प्राप्त सफलताओं में मस्त हो रहा है । "जितना करोगे उतना पाओगे" यह मन्त्र उसकी संकीर्ण समझ से उतर गया है । सचमुच वह भटक गया है। आज का समय और व्यक्ति का मानस युद्ध और संघर्ष से क्लान्त और दुष्कर्मों से उन्मन एवं उद्भ्रान्त है। तनाव का तांडव नृत्य चल रहा है । मन उलझनों की भूल-भुलैया में भटक रहा है। जीवन दुःखमय हो रहा है । क्यों न हो ? उसकी निष्ठा चमत्कारों की धार्मिक सट्ट'बाजी में रच-रम गई है। हाथों से श्रम की पतवार छूट गई है। सागर की गहराई के क्या ४५६
षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा को परिलब्धियाँ :
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40 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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