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दिल्ली-तोपरा अशोक-स्तंभ विशाल लिंग समझकर उसकी मनौती कर
और इसके निर्माण का श्रेय दिया जाता है गदा- 12 यह स्तंभ अंबाला और सरसावा (जिला सहा- धारी भीमराज को ! रनपुर) के बीच अवस्थित है जिसे लोग भीम-स्तंभ,
वैशाली की खुदाई सुवर्ण-स्तंभ, फीरोजशाह-स्तंभ आदि नामों से पूका
प्राचीनकाल में वैशाली वज्जि गणतंत्र की रते हैं । सुलतान फीरोजशाह (१३५१-१३८८ ई.) राजधानी रही है, जिस गणतंत्र को भगवान महाइस स्तंभ की गरिमा देखकर अत्यन्त प्रभावित वीर ने अपने जन्म से पवित्र किया था। विशाल d ) हआ। उसने सोचा कि अवश्य ही यह स्तंभ उसके गुणयुक्त होने के कारण इसको वैशाली कहा जाना इस महल की शोभा में चार चांद लगा सकेगा। स्वाभाविक है। सुप्रसिद्ध उज्जैनी नगरी को भी उसने इस विशाल स्तंभ को पहले दिल्ली मंगवाया, विशाला कहा गया है। संभवतः नाम सादृश्य के वहाँ से ४२ पहियों वाली बड़ी ट्रक से जमना नदी
कारण वैशाली को भगवान महावीर का जन्मस्थल के किनारे लाया गया। फिर बड़े-बड़े बजरों पर
न मानकर, उज्जैनी को उनकी जन्मभूमि कहा जाने लादकर नदी के बीचों बीच प्रवाहित कर दिया ।
लगा। कुछ लोग कुण्डलपुर (कुण्डग्गाम अथवा गया। और इसके फीरोजाबाद पहुँचने पर, पहले कण्डपर-वैशाली का एक भाग-के नाम सादृश्य से तैनात मल्लाहों ने इसे नदी में से निकालकर के कारण) को महावीर की जन्मभमि कहने लगे । शाही कर्मचारियों के सुपुर्द कर दिया। लोजिये, इससे यही पता चलता है कि प्राचीनकाल में भो सुलतान का शाही महल इस स्तंभ के लगने से जग- हम इतिहास और भूगोल के सही ज्ञान से वंचित मगा उठा।
थे । आचार्य अभयदेव जैसे विद्वान से भी इस तरह बिहार का चंपारण जिला महात्मा गांधी के की भूलें हुई हैं । अस्तु, अब तो यह निश्चय हो गया सत्याग्रह के कारण सुप्रसिद्ध है । यहाँ के लौडिया है कि महावीर का जन्म वैशाली में ही हुआ था | (लकुट का अपभ्रंश) अरेराज और लौडिया नंदनगढ़ और इसीलिये उन्हें वैशालीय कहा गया है। नामक अशोक-स्तंभ सर्वविदित है। यहाँ के निवासी वैशाली नगरी की खोज के लिए हम में इन स्तंभों को विशाल शिवलिग समझकर इनकी जनरल एलेक्जैण्डर कनिंघम के सदा ऋणी रहेंगे पूजा-उपासना करने लगे और दोनों को लौड़ कहने जिन्होंने अपनी सूझ-बूझ से यह पता लगाने का लगे-दोनों गाँव ही लौडिया कहे जाने लगे। आगे साहस किया कि वसाढ़ नामक गाँव ही प्राचीन का चलकर जब सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता मेजर-जनरल वैशाली के रूप में मौजूद है। उनकी प्रेरणा से ही एलेक्जेण्डर कनिंघम का यहाँ आगमन हुआ तो भारत की ब्रिटिश सरकार ने भारत के पुरातत्व के उन्होंने दोनों को जुदा करने के लिए पहले को उद्धार के लिये आर्कियोलोजीकल सर्वे नामक लौडिया अरेराज (गांव के पडौस के शिवमंदिर के विभाग की स्थापना को, और इसके सर्वप्रथम डाइनाम पर) और दूसरे को लौडिया नंदनगढ़ नाम से रैक्टर बनने का सौभाग्य डा. कनिंघम को प्राप्त कहना शुरू किया। दोनों ही सुन्दर स्तंभ पालिश आ। सन १८६२ से १८८४ के बीच कनिंघम ने 45 किये हुए बलुआ पत्थर के एक ही खण्ड से निर्मित यहाँ आकर कई बार डेरा लगाया तथा आजकल किये गये हैं, जो भारत की उत्कृष्ट कला का अनु- के राजा विशाल का गढ और अशोक स्तंभ के (0 पम नमूना है । लेकिन हमें भूलना न चाहिये कि आसपास खुदाई का काम शुरू कर दिया। कहने इस उत्कृष्ट कला-सौन्दर्य से अनभिज्ञ हमारी की आवश्यकता नहीं कि इस खुदाई में उन्हें बहुत सामान्य अनपढ़ जनता इन्हें शिवजी · महाराज का सी महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हुई, यद्यपि फिर भी
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पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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6.863 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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