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महासती हुकुमकुंवरजी की चौथी शिष्या सज्जन कुवर थीं । आपका जन्म उदयपुर के बाफना परिवार में और पाणिग्रहण दूगड़ परिवार में हुआ था । आपको एक शिष्या मोहन कुवरजो हुई । उदयपुर में आपका स्वर्गवास में हुआ।
महासती हुकुमकुवर जी की पांचवीं शिष्या छोटे राजकुवरजी थीं जो उदयपुर के माहेश्वरी वंश की थी।
महासती हुकमकुवरजी की छठी शिष्या देवकुवरजी थीं, जो उदयपुर के निकट कर्णपुर ग्राम की थीं और पोरवाड़ वंश की थीं । सातवीं शिष्या महासती गेंदकुंवर थीं जिनका जन्म उदयपुर के निकट Nil भुआना के पगारिया परिवार में हुआ था। चन्देसरा गाँव के बोकड़िया परिवार में आपका विवाह हुआ था । आप सेवापरायणा थीं और सं. २०१० में व्यावर में आपका स्वर्गवास हुआ।
महासती मदनकुंवर जी-आपकी जन्म स्थली उदयपुर थी। दीक्षोपरान्त आपने आगम साहित्य का गहन अध्ययन किया । आचार्य श्री मन्नालालजी म० ने, जो स्वयं भी आगम साहित्य के मूर्धन्य विद्वान थे, उदयपुर में महासतीजी से एक प्रवचन सभा में आगमों से सम्बन्धित उन्नीस प्रश्न किए थे। सभी प्रश्नों का महासती मदनकुवरजी ने सटीक और सप्रमाण उत्तर देकर अपने वैदुण्य का परिचय दिया था। आचार्यश्री ने तब कहा था- “मैंने कई सन्त-सतियाँ देखीं, पर इनके जैसी प्रतिमा सम्पन्न साध्वी नहीं वेखी।"
महासती मदनकुवरजी गुप्त तपस्विनी भी थीं। उनमें सेवा गुण भी गजब का था । सन् १९४६ में तीन दिन के संथारे के साथ उदयपुर में स्वर्गवास हुआ।
महासती सल्लेकुवरजी और महासती सज्जनकुवरजी दोनों संसार पथ से माता और पुत्री थीं। उदयपुर जन्मस्थली थी और मेहता परिवार से सम्बन्धित थीं।
महासती तीजवर जी-आपका जन्म उदयपुर के तिरपाल गाँव में हआ था। आपका जन्मनाम गुलाबदेवी था। आपका विवाह तिरपाल के ही सेठ रोडमल जी भोगर के साथ हुआ था। आपके N दो पुत्र और एक पुत्री थी। पति की मृत्यु के उपरान्त आपने दोनों पुत्र प्यारेलाल, भेरूलाल और पुत्री
खमाकुवर के साथ दीक्षा ग्रहण की थी। आप उग्र तपस्विनी थीं । सोलह वर्ष तक आपने एक घी के अतिरिक्त दूध, दही, तेल और मिष्ठान्न इन चार विगयों का त्याग किया। एक दिन के संथारे के साथ आपका स्वर्गवास हुआ।
परमविदुषी महासती श्री सोहन वरजी म.
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आपका जन्म उदयपुर के निकट तिरपाल निवासी रोडमलजी की धर्मपत्नी गुलावदेवी की in कुक्षि से वि० सं० १९४६ (ई० सन् १८९२) में हुआ था। आपका जन्मनाम खमाकुंवर था। नौ वर्ष
की लघुवय में आपका वाग्दान डुलावतों के गुड़े के तकतमलजी के साथ हो गया। किन्तु परमविदुषी महासती रायकुँवरजी और कविवर्य पं० मुनि नेमीचन्दजी महाराज के त्याग-वैराग्ययुक्त उपदेश श्रवण कर आप में वैराग्य भावना जागृत हुई और जिनके साथ वाग्दान किया गया था, उनका सम्बन्ध छोड़ कर अपनी मातेश्वरी और अपने ज्येष्ठ भ्राता प्यारेलाल एवं भेरूलाल के साथ क्रमशः महासती रायकुंवरजी और कविवर्य पं. मुनि नेमीचन्दजी महाराज के पास जैन भागवती दीक्षा ग्रहण की। आपकी
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द्वितीय खण्ड : जीबन-दर्शन
200 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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