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उनमें से पाँच 'ओरंभागीय' और पाँच 'उड्ढंभा- ५. सेख-शिल्प-कला आदि के अध्ययन के
गोय' कही जाती है। प्रथम तीन संयोजनाओं का समय की शिष्य-भूमिका । अक्षय हो जाने पर सोतापन्न अवस्था प्राप्त होती है। ६. समण-गृह-त्याग कर संन्यास ग्रहण
इसके बाद राग-द्वेष-मोह शिथिल होने पर 'सकदा- करना। गामी' अवस्था, पाँच ओरंभागीय संयोजनाओं का ७. जिन-आचार्य की उपासना कर ज्ञान नाश होने पर 'अनागामी' अवस्था तथा दसों संयो- प्राप्त करने की भूमिका।। जनाओं का नाश हो जाने पर 'अरहा' पद प्राप्त ८. पन्न-प्राज्ञ-भिक्षु, जब दूसरों से विरक्त हो होता है।
जाता है, ऐसे निर्लोभ-श्रमण की भूमिका। 20 'आजीवक' मत में आत्मविकास की क्रमिक उक्त आठ में से आदि की तीन भूमिकाएँ,
स्थितियां-आजीवक मत का संस्थापक मंखलिपुत्र अविकास की सूचक और अन्त की पाँच भूमिकाएँ, गोशालक है। जो, भगवान् महावीर की देखा-देखी विकास की सूचक हैं। इनके बाद मोक्ष प्राप्त करने वाला एक प्रतिद्वन्द्वी था। इसलिए उसने भी होता है। आत्मा के मौलिक गुणों के क्रमिक विकास की यद्यपि, उक्त योग, बौद्ध और अजीवक-मतस्थितियों के निदर्शन हेतु, गुणस्थानों जैसी परि- मान्य आत्म-विकास की भूमिकाएँ, जैनदर्शन सम्मत कल्पना अवश्य की होगी। किन्तु, उसके सम्प्रदाय गणस्थानों जैसी क्रमबद्धता और स्पष्ट स्थिति की
का कोई स्वतन्त्र-साहित्य/ग्रंथ उपलब्ध न होने के नहीं हैं, तथापि, उनका प्रासंगिक-संकेत, इसलिए Pा कारण, इस सम्बन्ध में, कुछ भी, सुनिश्चित रूप से किया है कि पनर्जन्म. लोक. परलोक मानने वाले
नहीं कहा जा सकता। तथापि, बौद्ध-साहित्य में दार्शनिकों ने. आत्मा का संसार से मुक्त होने का उपलब्ध, आजीवकसम्मत, आत्म-विकास के निम्न
1 चिन्तन किया है। अतएव, उक्त दार्शनिकों के लिखित आठ सोपान माने जा सकते हैं!-मन्द, चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में, जैनदर्शन के दृष्टिकोण से, खिड्डा, पदवीमंसा, उज्जुगत, सेख, समण, जिन आत्म-गणों के विकास का क्रम, और विकास-पथ 2 और पन्न । इनका आशय इस प्रकार है- पर क्रम-क्रम से बढ़ती आत्मा की विशुद्धताजन्य
१. मन्द-जन्म-दिन से लेकर सात दिनों तक, स्थिति का दिग्दर्शन कराने के लिए, संक्षेप में, गुणगर्भनिष्क्रमण, जन्म-दुःख के कारण, प्राणी 'मन्द' स्थान क्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की जा रही है। ल स्थिति में रहता है।
_ 'गुणस्थान' का लक्षण-एक पारिभाषिक शब्द २. खिड्डा-दुर्गति से लेकर जन्म लेने वाला है-गणस्थान । इसका अर्थ है-'गुणों के स्थान' । । बालक, पुनः-पुनः रुदन करता है। और, सुगति से अर्थात्, आत्मा की मौलिक शक्तियों के विकास र आने वाला बालक, सुगति का स्मरण कर हँसता क्रम की द्योतक वे अवस्थाएं, जिनमें आत्मशक्तियों ए जा है । यह 'खिड्डा' (क्रीडा) भूमिका है। के आविर्भाव से लेकर, उनके शुद्ध-कार्यरूप में परि
३. पदवीमंसा-माता-पिता का, या अन्य णत होते रहने की तर-तम-भावापन्न अवस्थाओं STIf किसी का सहारा लेकर, धरती पर बालक का पैर का द्योतन स्पष्ट होता है। यद्यपि, आत्मा अपने रखना।
मौलिक रूप में 'शुद्ध चेतन' और 'आनन्दघन' है। ... ४. उज्जुगत-पैरों से, स्वतन्त्र रूप में चलने फिर भी, जब तक राग-द्वेष एवं तज्जन्य कर्माकी सामर्थ्य प्राप्त करना।
वरण से आच्छादित है, तब तक उसे अपना यथार्थ
१ मज्झिमनिकाय-सुमंगलविलासिनी टीका तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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GO साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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