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सम्राट के सामने वह साध्वी आकर खड़ी हो तरह वह सदा परीक्षण प्रस्तर पर खरा उतरता गई और कहने लगी-मेरे प्रसूति की व्यवस्था है। उपासकदशांग सूत्र में आनन्द, कामदेव आदि करवा दीजिए। आप सोचते होंगे कि मैं पतिता श्रावकों का वर्णन आता है जिनकी देव परीक्षा लेते हूँ, पर भगवान् महावीर की सभी साध्वियाँ इसी हैं। पर वे मेरु पर्वत की तरह अडोल रहे, अकम्प तरह चरित्रहीना हैं।
रहे । पर आज हमारी श्रद्धा कितनी कमजोर है, सम्राट ने सक्रोश मुद्रा में कहा-तुम पतिता मन्दिर की पताका की तरह अस्थिर है। हम मिथ्या हो और अपने दोष को छिपाने हेतु तप और त्याग और कपोल कल्पित बात को सुनकर ही विचलित al की ज्वलन्त प्रतिमाओं पर लांछन लगा रही हो ? हो जाते हैं, हमारी आस्थाएं डगमगा जाती हैं। धिक्कार है तुझ । यह कहकर सम्राट ने अपनी हम कहलाने को सम्यग्दृष्टि और श्रावक कहलाते सवारी आगे बढ़ा दी। कुछ ही दूर सम्राट की हैं पर हमें थर्मामीटर लेकर अपने अन्तर्हृदय को सवारी आगे पहुँची कि एक दिव्य पुरुष ने प्रकट मापना है कि हमारे में सम्यग्दर्शन है या नहीं। होकर कहा-धन्य है, जैसा शकेन्द्र ने कहा था केवल बातें बनाने से सम्यग्दर्शन नहीं आता । उससे भी अधिक आपको आस्थावान देखकर मेरा कदाचित् भ्रमवश मन में कुशंका उत्पन्न हो जाए हृदय श्रद्धा से आपके चरणों में नत है। मैंने ही तो सम्यग्दृष्टि साधक का दायित्व है उस कुशंका परीक्षा लेने हेतु साधु और साध्वी का रूप धारण का पहले निवारण करें। सम्यग्दृष्टि भाडरप्रवाही किया था, पर आप परीक्षा में पूर्ण सफल हुए। नहीं होता । वह अपनी मेधा से सत्य-तथ्य का निर्णय
सम्राट् श्रेणिक न बहुश्रु त थे, न महामनीषी करता है। थे, न वाचक थे, पर सम्यग्दृष्टि होने के कारण जैन साहित्य में आई हुई एक घटना है । एक GAL आगमी चौबीसी में वे तीर्थंकर जैसे गौरवपूर्ण पद महान् आचार्य अपने विराट शिष्य समुदाय सहित C को प्राप्त करेंगे । कहा है
विहार करते हुए एक नगर में पधारने वाले थे । न सेणिओ आसि तया बहुस्सओ
जब नागरिकों ने सुना तो उनका हृदय बाँसों उछल न यावि पन्नतिधरो न वायगो। पड़ा। हजारों की संख्या में श्रद्धालुगण आचार्य सो आगमिस्साइ जिणो भविस्सई
प्रवर के स्वागत हेतु बरसाती नदी की तरह उमड़ते ___समिक्ख पन्नाह वरं खु सणं ।। हुए आगे कदम बढ़ा रहे थे। आचार्य प्रवर कहाँ तक सम्यग्दर्शन के दो प्रकार है । एक व्यावहारिक आ गये हैं यह जानने हेतु एक जिज्ञासु ने सामने से सम्यग्दर्शन है और दूसरा निश्चयसम्यग्दर्शन । आते हुए राहगीर से पूछा-बताओ, हमारे गुरुदेव व्यवहारसम्यग्दर्शन वह कहलाता है जिसमें साधक कहाँ तक आ गये हैं। सर्वज्ञ सर्वदर्शी अट्ठारह दोष रहित वीतराग प्रभु राहगीर ने कहा-रास्ते में जो तालाब है उस को देव के रूप में स्वीकार करता है । पाँच महाव्रत, तालाब पर वैठकर वे पानी पी रहे थे। मैं उन्हें
पाँच समिति, तीन गुप्ति के धारक निर्ग्रन्थ संत को तालाब में पानी पीते छोड़ आया हैं। GN गुरु रूप में मानता है। अहिंसा, संयम, तपरूप धर्म राहगीर के मुंह से अप्रत्याशित बात सुनकर
को स्वीकार करता है । इस प्रकार देव, गुरु धर्म के सभी एक-दूसरे का मुंह झांकने लगे। एक दूसरे से
प्रति जो पूर्ण निष्ठावान होता है वह व्यवहार की कहने लगे-बड़ा अनर्थ है । आचार्य होकर तालाब * दृष्टि से सम्यग्दृष्टि कहलाता है । उसके जीवन के में पानी पीये, जो श्रमणमर्यादा के विपरीत है । ON कण-कण में, मन के अण-अण में देव गुरु धर्म के हम तो उन्हें आचारनिष्ठ मान
प्रति अपार आस्थाएं होती हैं । सम्राट् श्रेणिक की कलियुग आ गया है। आचार्य भी आचार्य की
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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