Book Title: Bhagavati Jod 07
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरबानी अथवाउदाको फल करे लगे दो कोयनेनिकलकर कमा थप डिसीएए स्मृते याती या जो गति संसी नोजी श्री मकारने का मन का म या मनोगमाया रोजी ते तिसलीमा उत्तरवैजरोजी यो करिनी तास निरोधी जी सामना नहीं घादिलो सखाराम न मे ये दिन ये याद में प्रायः करे कदीर खामी न थामनकिरीकरिए काया ध्यान दिय पादित एक ताजी ने रुपाते करदरा पदक से वेद जापानिय स्थदिवासी या जोगन बाजी प्रतिलीजा रगत स्वारजे तानि रुजी कलम भोग नवाबाजीरावचनेनी कदीरणा दिवाकरज्ञामविनयनोद विनय दा के चार नियमनका निर्मली जीत शिष्ट एका करी एक तारूप जेला बोजी करिर्वजेोग बचे कार्यदिन यना विनय लोक उपचार की म्यान विनय ज्ञानवि बोजी- दिवे का यम डिसलीए या किसी पडिली एते दोजी पाँ नयना दाव्या कारखाना के ला परेकि रिजेदोजी वृलियंतरकरीतिको प्रति विनय २० रमादानका दि मी करा पिनितिक २५ गनासो जीत द्रिकापमान दृष्टिताना दिए कमरे म सीता जी पूर्वी सोलीमा सीम सोनकर सतपजेमिनी जे समष्टि कम लामता जोगनी दलिए दो जा यारखी प्रतिसंसी न त एती सदक है जो अज्ञानता ग्रामरे नयसास ते द करेति तामरे या विविविक्तसय मास नोजी ए सेवक दीदिवे सोनम मोजीम तक ही दर्शा दिन यस द्वारा दर्शनया बन जाएंी जीते है आराम के दीये जे विषैली जीरा २ ज सेवा दाग र दान करे सा महासमुदायो जाति शान की जाये नियोनी निमसोमल दिदा विनयना के सामने प्रकार करवान एक बात कर मामा जी दशम देश विखारोमिक दिवायोजन कायदे जनावरम से दो धारा भी कारक विचरतोजी जावरा में पा उजे जाये तो जी दापातक दिवाय मारा किती कर्म कहियरे की बंदन कार्यक जाबाद में जाए देवलदे हरा दिये सन्तापदिनारे वैसे जनवादी मी बरे दा मस्ती का मृत दो संगीत एली कभी जाना जामी वर्षका या समरे पानी मे 4915 गजीन जयाकार्य Ad инт (खण्ड-७) वनकरिता नियमह नमुना स्वानरे करताना में जान बलवर्णा प्रेमविनयमन नियम काकताली कर्मयता हिरे नाम उपाय की जाये नारे दिजनि करमानी दिवार कर उपजे ते करिये विनय वादनिवानियाचार्य नरेनकायकार प्रति स्तमन कालीन सामान्यकराने पाप२दिन मनाएक रे मनपाध्यायनी मानी खान न करे पाकविमालककोमा द्वितीय कलमणीनारि मदिम संगीत यतिकायादिकानयन कियेकदिवा लडकी नियमीसरे की मनोकादिक तरकारी निकायानादिक श्लोकात्म कथायां जमकरी करनी पर करे नकदगी बाकी जीवन संकायनी जन्मन जननी जानकेवलज्ञानी नीकरी जान लिएपनी किता नं. वमनविनाकार (सामान्य करी नकाराला विनयपूर्वरात पापकारिक मेमन सेना की एक कदकक रिस विनयजी जगनाथ मनिसानामीलिकायाको किरियासदितमनादि एतय विनयमुनानगराम किये दिवायें वतिमन मौका दिया ละ एल 4267 जालो फलमाटी से जायगा मानने से काल मा कारक वि स्थदिने माथा जाने बरे पाठवाय दिगो जीतपडिली एता राम शल कमी दालोजी सिकुसारी मालकी जय जय भगवती जोड श्रीमज्जयाचार्य २ चार कर चीनियातानादिरे विि कार Jam Education international दज्ञानाददीत कधी प्रतिकार बारिक दिकजी वाद देविक नमन इलेविनयेन नया निवार करिये विनाय अली जनावरे कारन विनय द्वितीयद चरित्रक दिवाकरेनीता रंग सामायिक जात या मापातकिनि Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमों के मुख्य दा विभाग हैं- अंग और अंग बाय। अंग बारह थे। आज केवल ग्यारह अंग ही उपलब्ध होते हैं। उनमें पांचवां अंग है- भगवती। इसका दूसरा नाम व्याख्या-प्रज्ञप्ति है। इसमें अनेक प्रश्नों के व्याकरण हैं। जीव-विज्ञान, परमाणु-विज्ञान, सृष्टि-विधान, रहस्यवाद, अध्यात्म - विद्या, वनस्पति- विज्ञान आदि विद्याओं का यह आकर-ग्रन्थ है। उपलब्ध आगमों में यह सबसे बड़ा है। इसका ग्रन्थमान १६००० अनुष्टुप् श्लोक प्रमाण माना जाता है। नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरी ने इस पर टीका लिखी। उसका ग्रन्थमान अठारह हजार श्लोक प्रमाण है। भगवती सूत्र की सबसे बड़ी व्याख्या है- यह 'भगवती जोड़'। इस की भाषा है राजस्थानी। यह पद्यात्मक व्याख्या है, इसलिए इसे 'जोड़' की संज्ञा दी गई है। इस ग्रन्थ में सर्व प्रथम जयाचार्य द्वारा प्रस्तुत जोड़ के पद्य और ठीक उनके सामने उन पद्यों के आधारस्थल दिये गये हैं। जयाचार्य ने मूल के अनुवाद के साथ-साथ अपनी ओर से स्वतंत्र समीक्षा भी की है। आवरण पृष्ठ पर मुद्रित हस्तलिखित पत्र ग्रन्थ की ऐतिहासिक पाण्डुलिपि के नमूने हैं। इनकी लेखिका हैं- तेरापंथ धर्मसंध की विदुषी साध्वी गुलाब, जो आशु-लेखन की कला में सिद्धहस्त थीं। जयाचार्य भगवती-जोड की रचना करते हुए पद्यों का सृजन कर बोलते जाते और महासती गुलाब अविकल रूप से उन्हें कलम की नोक से कागज पर उतारती जातीं। उस प्रथम ऐतिहासिक प्रति के ये पत्र प्रज्ञा, कला और ग्रहण-शीलता की समन्विति के जीवन्त साक्ष्य हैं। मुद्रण का आधार यही प्रति है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती जोड़ (शतक २५-४१) श्रीमज्जयाचार्य Jain Education Intemational Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वाङ्मय : ग्रन्थ १५ भगवती-जोड़ खण्ड ७ (शतक २५-४१) प्रवाचक प्रधान सम्पादक आचार्य तुलसी आचार्य महाप्रज्ञ सम्पादन साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा प्रकाशक जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) Jain Education Intemational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: मंत्री जैन विश्व भारती लाडनू-३४१३०६ (राज.) © जैन विश्व भारती, लाडनं प्रथम संस्करण: मूल्य : ४०० रुपये मुद्रक : मित्र परिषद् कनकता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (राजस्थान) dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय "भगवई" अंग आगम साहित्य में सबसे विशाल ग्रन्थ है। विषयों की दृष्टि से यह एक महान् उदधि है। श्री मज्जाचार्य ने इस ग्रन्थ का राजस्थानी भाषा में गीतिकाबद्ध पद्यानुवाद किया। यह राजस्थानी भाषा का सबसे बड़ा ग्रन्थ माना गया है। इसमें मूल के साथ टीका ग्रन्थों का भी अनुवाद है और वार्तिक के रूप में अपने मन्तव्यों को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया गया है। इसमें विभिन्न लय ग्रथित ५०१ ढालें तथा कुछ अन्तर ढालें हैं। ४१ ढालें केवल दोहों में है। ग्रन्थ में ३२९ रागनियां प्रयुक्त है। इसमें ४९९३ दोहे, २२२५४ गाथायें, ६५५२ सोरठे, ४३१ छन्द, १८४८ प्राकृत संस्कृत पद्य तथा ७४४९ पद्य-परिमाण, ११९० गीतिकाएं, ९३२९ पद्य-परिमाण, ४०४ यंत्रचित्र आदि हैं । इसका अनुष्टुप् पद्य-परिमाण ग्रन्थान ६०९०६ है। "भगवती जोड़" का प्रथम खण्ड सन् १९८१ में प्रकाशित हुआ था। उसका द्वितीय खण्ड सन् १९८६ में प्रकाशित हुआ, तृतीय खण्ड सन् १९९० में, चतुर्थ खण्ड सन् १९९४ में, पंचम खण्ड सन् १९९५ में तथा षष्टम् खण्ड सन् १९९६ में प्रकाशित हुआ। अब उसी ग्रन्थ का सप्तम खण्ड प्रकाशित कर पाठकों के हाथ में सौंपते हुए अति हर्ष का अनुभव हो रहा है। प्रथम खण्ड में उक्त ग्रन्थ के चार शतक समाहित हैं। द्वितीय खण्ड में पांचवें से लेकर आठवें शतक, तृतीय खण्ड में नौवें से लेकर ग्यारहवें तक, चतुर्थ खण्ड में बारहवें से पन्द्रहवें तक चार शतक एवं एक परिशिष्ट "गौशाला की चौपाई" संग्रहीत है। पांचवें खण्ड में सोलहवें से तेइसवें शतक तक की सामग्री है । छठे खंड में केवल चौबीसवां शतक एवं परिशिष्ट में वही शतक यंत्रों के रूप में संग्रहीत है। अब उसी ग्रन्थ के इस सातवें खंड में २५वें शतक से ४१वें शतक तक की सामग्री है। प्रस्तुत खण्ड के प्रकाशन के साथ ही भगवती जोड़ का सात खण्डों में प्रकाशन कार्य एक तरह से पूर्ण हो जाता है लेकिन आचार्यवर के निर्देशानुसार इस शृंखला में एक खण्ड और तैयार किए जाने की योजना है। उस खण्ड में अनेक परिशिष्टों के साथ भगवती जोड़ का समीक्षात्मक अध्ययन भी रहेगा। इस ग्रन्थ का कार्य स्वर्गीय गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी के तत्वावधान में हुआ है और महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने उसका पूरा-पूरा हाथ बंटाया है। उनका श्रम इस ग्रन्थ के प्रत्यक पृष्ठ पर अनुभूत होता है। ताराचन्द रामपुरिया जैन विश्व भारती, लाडनूं २४ सितम्बर, १९९७ मंत्री Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय जैन आगमों में आकार में सबसे बड़ा और प्रकार में तत्त्वविद्या और दर्शन का विशाल ग्रन्थ है भगवती। भगवती सूत्र का मूल नाम विआहपण्णत्ती-व्याख्याप्रज्ञप्ति रहा है। इसके वैशिष्टय को सूचित करने के लिए विशेषण के रूप में इसके साथ भगवती शब्द प्रयुक्त हुआ। ऐसा प्रयोग समवायांग [८४।११] में उपलब्ध है। कालान्तर में विआहपण्णत्ती शब्द का प्रयोग कम हुआ और भगवती शब्द अधिक प्रचलित हो गया। यह द्वादशांगी में पांचवा अंग है। इसमें महावीर-वाणी का संकलन है । वर्तमान में उपलब्ध आगमों का आधार पांचवें गणधर आर्य सुधर्मा द्वारा संकलित द्वादशांगी को माना जाता है। भगवती के आकार के बारे में अनेक परम्पराएं हैं। ये परम्पराएं विभिन्न कालखण्डों में प्रचलित हुई, इस दृष्टि से भगवती का निश्चित ग्रन्थमान बताना कठिन है। संक्षिप्त और बिस्तृत पाठ तथा प्राचीन एवं अर्वाचीन आदर्शों के कारण यह अन्तर रहा है। इसे सापेक्ष दृष्टि से ही समझा जा सकता है। भगवती सूत्र के व्याख्या ग्रन्थों में नियुक्ति, चूणि और वृत्ति का उल्लेख मिलता है। वर्तमान में इसकी कोई नियुक्ति उपलब्ध नहीं है। चूणि मिलती है, पर वह मुद्रित नहीं है । इसके बृत्तिकार अभयदेव सूरि हैं। उन्होंने अपनी वृत्ति में मूल टीका और चूर्णिकार का अनेक बार उल्लेख किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अभयदेव सूरि के सामने कोई दूसरी टीका थी, जो वर्तमान में अनुपलब्ध है । चूणि और वृत्ति के बाद भगवती पर कोई विशद व्याख्या लिखी गई है तो वह है राजस्थानी पद्यों में उसका भाष्य । 'भगवती जोड़' के नाम से प्रसिद्ध उस भाष्य के रचनाकार हैं तेरापन्थ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य । जयाचार्य ने अपने भाष्य में वृत्ति का खुलकर उपयोग किया है । वृत्ति के साथ उन्होंने अन्य आगमों, ग्रन्थों तथा धर्मसी के यन्त्र का भी यत्र तत्र उपयोग किया है । अनेक स्थलों पर उन्होंने अपनी ओर से ग्रन्थ की विस्तृत समीक्षाएं की हैं और कुछ सन्दों में वृत्तिकार के अभिमत की आलोचना भी की है। कुल मिलाकर यह स्वीकार किया जा सकता है कि 'भगवती जोड़' में जयाचार्य के ज्ञान और अनुभवों की प्रौढता, स्वाध्यायी मनोवृत्ति, विलक्षण स्मृति और मौलिक सूझबूझ का पूरा उपयोग हुआ है। इस ग्रन्थ को राजस्थानी वाङ्मय का अद्वितीय ग्रन्थ माना जा सकता है। जयाचार्य के परिनिर्वाण की शताब्दी को निमित्त बनाकर जय-साहित्य के प्रकाशन की योजना बनी। उस योजना के तहत वि. स. २०३८ [ईस्वी सन् १९८१] में 'भगवती जोड़' का प्रथम खण्ड प्रकाशित होकर आया। प्रस्तुत ग्रन्थ जोड़ का सातवां या अन्तिम खण्ड है । प्रथम छह खण्डों में भगवती के चौबीस शतकों की जोड़ प्रकाशित हुई। सातवें खण्ड में अवशेष २५ से ४१ तक कुल १७ शतकों का समावेश है । इनमें कुछ शतक बड़े हैं तो कुछ शतक बहुत छोटे हैं। कुछ शतकों में अन्तर शतक भी हैं। कई शतकों एवं अन्तर शतकों का वर्णन अति संक्षिप्त है। इन शतकों में कुछ शतकों की विषयवस्तु साधना और तत्त्वज्ञान दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है, वहां कुछ शतक गणितीय आंकड़ों की भाषा में निबद्ध हैं। प्रत्येक शतक की विषय वस्तु का सारसंक्षेप यहां दिया जा रहा है। भगवती के २५वें शतक में बारह उद्देशक हैं । लेश्या, द्रव्य, संस्थान, कृतयुग्म आदि, पर्यव, निर्ग्रन्थ, श्रमण, ओघ, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि-इन बारह उद्देशकों की व्याख्या ४३३ से ४६८ तक ३६ ढालों में गुम्फित की गई है। इस शतक की जोड़ में कहीं अत्यन्त संक्षिप्त विवरण दिया गया है तो कुछ विषयों को पूरे विस्तार के साथ विवेचित किया गया है। उनमें छठे और सातवें उद्देशक की विषय वस्तु विस्तृत होने पर भी रोचक और उपयोगी है। छह प्रकार के निर्ग्रन्थों और च प्रकार के श्रमणों-संयतों का वर्णन सहज रूप में बहुत हृदयग्राही है। तात्त्विक विवेचन को भी इतनी आकर्षक प्रस्तुति दी गई है कि पाठक की जिज्ञासा बढ़ती रहती है। ढाल संख्या ४४४ से ४५२ तक नौ ढालों में निर्ग्रन्थ का विवेचन है। ढाल संख्या ४५३ से ४६० तक आठ ढालों में श्रमणों का विवेचन है। निर्ग्रन्थ और श्रमण के लिए लोकभाषा में नियंठा और संजया शब्द अधिक प्रचलित हैं। इसका कारण है छठे और सातवें उद्देशकों की विषय वस्तु के आधार पर दो स्वतन्त्र थोकड़ों का निर्माण । नियंठा और संजया नाम से प्रसिद्ध इन थोकड़ों को अनेक साधु-साध्वियां और श्रावक-श्राविकाएं कंठस्थ करते रहे हैं । जयाचार्य ने 'भगवती जोड़' की रचना करने से बहुत पहले नियंठा और संजया की जोड़ें लिखी थीं। संभवतः उस समय उनके सामने समग्र भगवती की जोड़ लिखने का लक्ष्य नहीं था। अन्य आगमों की जोड़ रचते-रचते भगवती जैसे विशालकाय आगम पर ध्यान केन्द्रित हुआ हो। उस समय तक जोड़ की रचना शैली काफी परिष्कृत हो चुकी थी। शैलीगत द्विरूपता से बचने के लिए उन्होंने नियंठा और संजया वाले Jain Education Intemational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण को भी छोड़ा नहीं। इसी कारण उक्त प्रकरणों की दोहरी जोड़ें हो गईं। भगवती से सम्बन्धित होने के कारण पूर्व रचित जोड़ को प्रस्तुत ग्रन्थ के परिशिष्ट में दिया गया है। निर्ग्रन्थों और श्रमणों के प्रकारों का विवेचन होने के बाद ४६१ से ४६७ तक सात ढालों में प्रतिसेवना, आलोचना के दोष, आलोचक एवं आलोचनादायक की अर्हता, सामाचारी, प्रायश्चित्त और बारह प्रकार के तप का वर्णन है। ४६८ वीं ढाल में नैरयिक आदि २४ दण्डकों तथा भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के पुनर्भव सम्बन्धी संक्षिप्त विवरण के साथ २५वें शतक का सातवां उद्देशक पूरा होता है। भगवती का २६ वां शतक बन्धी शतक के नाम से प्रसिद्ध है। प्रस्तुत शतक में जीव के पापकर्म-बन्ध की चर्चा अतीत, वर्तमान और भविष्य काल के आधार पर की गई है। इस चर्चा को लेश्या, पाक्षिक, दृष्टि, अज्ञान, ज्ञान, संज्ञा, वेद, कषाय, उपयोग और योग के सन्दर्भ में विस्तार के साथ प्रस्तुति दी गई है। यह विवरण ४६९वीं ढाल में आ जाता है। ४७० ढाल में २४ दण्डकों के बन्ध-अबन्ध की संक्षिप्त चर्चा को यन्त्रों के द्वारा विस्तार से समझाया गया है। ४७१ और ४७२ वीं ढाल में भी इसी प्रसंग को अन्य संदर्भो में चचित किया गया है। भगवती के २७ वें शतक में केवल दो सूत्र हैं और २८ वें शतक में आठ सूत्र हैं। जयाचार्य ने इन दोनों शतकों का गुम्फन एक ढाल में कर दिया । मुद्रण की सुविधा के लिए इसका सम्पादन करते समय इस ढाल को दो भागों में बांट दिया। ढाल ४७३ (क) में २७ ३ शतक की १७ गाथाएं हैं और ढाल ४७३ (ख) में २८वें शतक की ५८ गाथाएं हैं । दोनों शतकों को एक साथ रखकर ढाल की संख्या एक भी रखी जा सकती थी, जैसा कि आगे के कुछ शतकों में किया गया है। इसका २९वां शतक ढाल संख्या ४७४ में गुम्फित है। इन तीनों शतकों में भी पापकर्म से सम्बन्धित विवेचन है। भगवती के तीसवें शतक में क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी इन चार समवसरणों को २४ दंडकों के सन्दर्भ में व्याख्यात किया गया है। ११ उद्देशकों में संदृब्ध इस शतक की जोड़ छह ढालों में है। समुच्चय जीव और २४ दंडकों में निरूपित समवसरणों को यन्त्रों के द्वारा और अधिक स्पष्टता से आलेखित किया गया है। जोड़ और यन्त्रों को तुलनात्मक दृष्टि से पढने पर शतक की विषयवस्तु अच्छी तरह समझ में आ जाती है। भगवती के ३१वें एक ३२वें शतक में चार प्रकार के क्षुल्लक युग्म कृतयुग्म, व्योज, द्वापर युग्म और कलियोग का वर्णन है। ३१वें शतक को २८ उद्देशक हैं, पर इनका वर्णन इतना संक्षिप्त है कि इन्हें मात्र दो ढालों में समेट लिया गया। दो उद्देशकों वाला ३२वां शतक १७ गाथाओं की एक छोटी-सी ढाल में सिमटा हुआ है । इन दोनों शतकों में एक प्रकार से गणित के आधार पर युग्मों का निर्धारण किया गया है । ३३वें शतक में एकेन्द्रिय जीवों का अनेक विवक्षाओं के साथ वर्णन है। इस शतक में अवान्तर शतकों की भी व्यवस्था है। ३४वें शतक में एकेन्द्रिय जीवों की विग्रहगति के सन्दर्भ में प्रश्न उपस्थित कर उनकी सात प्रकार की विग्रह गति बताई गई है-ऋजुआयत, एगओवंका, दुहओवंका, एगओ खहा, दुहओ खहा, चक्रवाल और अर्ध चक्रवाल। रेखांकन के द्वारा उक्त सातों प्रकार की विग्रहगति को स्पष्टता से समझाया गया है। १२ अवान्तर शतकों वाला प्रस्तुत शतक ६ ढालों में पूरा होता है। इसमें एकेन्द्रिय जीवों का अनेक दृष्टियों से विवेचन किया गया है। ३५वें से ४०वें शतक तक छह शतकों में महायुग्मों के सन्दर्भ में एकेन्द्रिय से लेकर सन्नी पंचेन्द्रिय तक के जीवों का वर्णन है। प्रथम पांच शतकों में प्रत्येक शतक में बारह-बारह अवान्तर शतक हैं। छठे शतक में २१ अवान्तर शतक हैं। कुल मिलाकर अवान्तर शतकों की संख्या ८१ होती है। ढाल संख्या ४९१ और ४९२ में ३५वां शतक है। ३६वां शतक ४९३ वीं ढाल में समाहित है। ३५ से ४० तक चार शतकों की जोड़ ४९४ और ४९५ वीं ढाल में है। भगवती का ४१वां शतक पूर्ववर्ती शतकों की विषयवस्तु से ही सम्बन्धित है। इसमें क्षुल्लक युग्म और महायुग्म के स्थान पर राशियुग्म की विवक्षा की गई है। राशियुग्म कृतयुग्मज आदि के सन्दर्भ में २४ दंडकों के उपपात आदि की प्ररूपणा की गई है। ढाल संख्या ४९६ से ४९८ तक तीन ढालों में प्रस्तुत शतक के १९६ उद्देशकों की विषय वस्तु को संदृब्ध किया गया है। ढाल संख्या ४९९ का सम्बन्ध भी इसी शतक से है, फिर भी उसे समग्र ग्रन्थ का उपसंहार माना जा सकता है। 'भगवती जोड़' की ५००वी ढाल में भगवती सूत्र का स्वरूप वर्णित है। यह वर्णन जिस सूत्र पाठ के आधार पर किया है, वह किसी शतक का हिस्सा नहीं है । ४१वें शतक की सम्पूर्ति के बाद दिए गए परिशिष्ट पाठ में सूत्र संख्या नहीं है । इस विलक्षणता के आधार पर एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आगमों की विभिन्न वाचनाओं के समय आवश्यकता समझकर भगवती के स्वरूप का निर्धारण किया गया है । यह कार्य कब हुआ? और किसने किया? अन्वेषण का विषय है। इसी प्रकार आगमपुरुष की परिकल्पना में जयाचार्य ने जो बार्तिक लिखा है, वह और संघस्तुति का प्रसंग भी उत्तरकालीन प्रतीत होता है। Jain Education Intemational in Education Intematonal Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) 'भगवती जोड़' में ५०१ ढाले हैं। इसकी आखिरी ढाल में पुस्तक के लिपिकार का नमस्कार, भगवती की उद्देशनविधि - कितने विभागों में वाचना दी गई, और भगवती के शतकों तथा उद्देशकों का संख्यांकन है । पाठकों की सुविधा के लिए शतकों और उद्देशकों की संख्या ग्रन्थ के अन्त में यन्त्र के द्वारा भी दिखा दी गई है। जयाचार्य ने प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्तिम मंगल के रूप में अपने पूर्वाचार्यों की स्मृति की है। वि. सं. १९१९ में 'भगवती जोड़' की रचना प्रारम्भ की गई। इसका समापन वि. स. १९२४ में पोष शुक्ला दसमी के दिन रविवार को हुआ । उस समय जयाचार्य का प्रवास बीदासर में था। वहां २१ साधुओं और ९० साध्वियों की उपस्थिति थी । संघ में सब साधु-साध्वियों की संख्या २३२ थी । उनमें ६७ साधु थे और १६५ साध्वियां थीं । 'भगवती जोड़' की ५०१ ढालों की सम्पन्नता के बाद १३ दोहे हैं । उनमें जोड़-रचन के आधारभूत ग्रन्थों का निर्देश है, रचना में किए गए संक्षेप विस्तार के हेतुओं का उल्लेख है और रचनाकार की अनाग्रही मनोवृत्ति का निदर्शन है। भगवती जैसे दुर्बोध्य और विशाल आगम की जोड़ (अनुवाद, भाष्य) करना जयाचार्य की असाधारण मेधा का स्वयंभू साक्ष्य है । उन्होंने जितनी सूक्ष्मता से आगम-समुद्र में अवगाहन किया वह उनकी लक्ष्यबद्धता और एकाग्रता का सूचक है। तिस पर भी पाठकों को अपने ग्रन्थ में संशोधन करने का अधिकार देना उनकी अनिर्वचनीय उदारता की अभिव्यक्ति है। उन्होंने लिखा है बलि कोइक पंडित प्रबल हूँ, आगम देख उदार । जे विरुद्ध वचन ह्वै सूत्र थी, ते काढं दीजो बार ॥ ९ ॥ जयाचार्य की अनाग्रही मनोवृति, सत्यनिष्ठा, पापस्ता और जिनवाणी के प्रति गहरे समर्पण के बारे में अलग से कुछ लिखने की अपेक्षा नहीं है । भगवती-जोड़ के अन्तिम चार दोहों को एक वातायन मान लिया जाए तो उसमें से झांकती हुई निर्मलता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। प्रस्तुत ग्रन्थ का वह आखिरी वातायन इस प्रकार खुलता है विण उपयोग विरुद्ध वच, जे आयो हुवै अजाण । अहो त्रिलोकी नाथजी ! तसु म्हारे नहि ताण ॥ १० ॥ म्हैं तो म्हारी बुद्धि थकी, आख्यो छ शुद्ध जाण । श्रद्धा न्याय सिद्धान्त नां दाख्या शुद्ध पिछाण ।।११।। पिण हृदयपणां थकी, कहिये बारंबार । प्रभू सिकार अर्थ प्रति, तेहिज छँ तंत सार ॥ १२ ॥ अणमिलतो जु आयो हुवै, मिश्र आयो ह्व कोय | शंका सहित यो हुर्व मिण्डामि दुक्कडं मोय ।।१३।। 1 वि. सं. १९२४ में रची गई 'भगवती जोड़' के प्रकाशन का कार्य वि. सं. २०५४ में पूरा हो रहा है। इस जोड़ की रचना में केवल पांच वर्षों का समय लगा और इसके सम्पादन में पन्द्रह वर्ष लग गए । इस आधार पर आंका जा सकता है कि श्रीमज्जयाचार्य की रचनाधर्मिता कितनी प्रखर थी। जयाचार्य को अपने इस सृजन को रूपायित करने में 'महासती गुलाब' का योग मिला । जयाचार्य रचना कर बोलते जाते और गुलाबसती लिखती रहतीं । इतिहास स्वयं को दोहराता है । तेरापन्थ के नौवें अधिशास्ता आचार्यश्री तुलसी ने 'भगवती जोड़' के संपादन का संकल्प किया और मुझे उनके चरणों में बैठकर काम करने का मौका मिला। मेरे इस काम में सर्वात्मना समर्पित भाव से संभागी रही साध्वी जिनप्रभाजी । सम्पादन के प्रारंभ से लेकर उसके अन्तिम पड़ाव तक उन्होंने जिस निष्ठा, श्रमशीलता और जागरूकता से काम किया है, वह मेरे लिए प्रमोद भावना का विषय है। जोड़ की रचना की अपेक्षा सम्पादन में अधिक समय लगने के कुछ कारण हैं। उनमें सबसे बड़ा कारण था - आचार्यश्री के पास काम करने के लिए समय की सीमा । परमाराध्य आचार्यश्री के सान्निध्य में बैठकर सम्पादन करने का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि काम में विशेष अवरोध नहीं आया । विषयगत और भाषागत समस्याओं के साथ एक बड़ी समस्या थी रागों की आचार्यवर के लिए प्रस्तुत ग्रंथ की विषयवस्तु जितनी सुबोध थी, भाषा भी उतनी ही आत्मसात् थी। रागों का जहां तक प्रश्न है, उनके अधिकृत ज्ञाता एकमात्र वे ही थे । इसलिए हमारी छोटी-बड़ी हर समस्या सहज रूप में समाहित होती गई। उनकी जागृत प्रज्ञा और संचित अनुभवों का लाभ भी हमें मिलता रहा। यदि जोड़ के सम्पादन में आचार्यवर का सतत सान्निध्य और उत्साहवर्धक प्रोत्साहन नहीं रहता तो इसमें कितना समय लगता, अनुमान लगाना भी कठिन हो रहा है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का मार्गदर्शन इस यात्रा के हर मोड़ पर दीपक बनकर हमारा पथ प्रशस्त करता रहा है। पूज्यवरों के प्रेरणा पाथेय से निरन्तर गतिशील रहकर हमने अपनी एक मंजिल प्राप्त कर ली, यह हमारे लिए सन्तोष की बात है । 'भगवती जोड़' का समग्र रूप से सात खण्डों में प्रकाशन होने के बाद भी हमारा काम पूरा नहीं हुआ है । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य वर के निर्देशानुसार इस श्रृंखला में एक खण्ड और तैयार किया जाएगा। उस खण्ड में अनेक परिशिष्टों के साथ जोड़ का समीक्षात्मक अध्ययन भी रहेगा। जोड़ के मुद्रण में राजस्थानी, संस्कृत और प्राकृत-इन तीनों भाषाओं को कंपोज करना काफी जटिल काम था। जैन विश्व भारती प्रेस के कंपोज कर्मियों ने पूरी निष्ठा के साथ काम किया, इस कारण 'भगवती जोड़' का मुद्रण समीचीन रूप में हो सका । अन्यथा प्रकाशन कार्य और अधिक विलम्बित हो जाता। प्रस्तुत ग्रन्थ की सम्पादन यात्रा में साध्वी जिनप्रभाजी अभिन्न रूप से साथ रही ही हैं। मुनि हीरालालजी, साध्वी स्वर्णरेखाजी और साध्वी स्वस्तिकाश्रीजी की संभागिता ने भी यात्रापथ को सुगम बनाया है। जोड़ में प्रयुक्त ग्रन्थों के सन्दर्भ-स्थल खोजने का काम मुनि हीरालालजी ने किया । इस क्षेत्र में उन्होंने अपनी जो पहचान बनाई है, वह उनकी अध्यवसायिता का फलित है। साध्वी स्वर्णरेखाजी ने जोड़ के समानान्तर रखे गए मूलपाठ और वृत्तिवाले भाग की शुद्ध प्रतिलिपि तैयार की और साध्वी स्वस्तिकाश्रीजी ने साध्वी जिनप्रपाजी के साथ प्रूफ निरीक्षण में श्रम किया। सहभागिता और श्रमशीलता हमारी संस्कृति के हिस्से हैं । हम जब तक इनसे जुड़कर रहेंगे. हमारे जीवन से संस्कृति का पल्लवन होता रहेगा। यही हमें अभीष्ट है। पूज्यवरों का आशीर्वाद और अनुग्रह हमें वांछित मंजिल की दिशा में आगे बढ़ाएगा, ऐसा विश्वास है। साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा १५ अगस्त, १९९७ गंगाशहर Jain Education Intemational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम विषय लेश्या पद संसारी जीव के चौदह प्रकार दंडकों में समयोगी विषमयोगी योग के प्रकार योग में अल्पबहुत्व द्रव्य के प्रकार जीव के अजीव-परिभोग चौबीस दण्डकों के अजीव-परिभोग लोक में अनन्त द्रव्यों का अवगाह पुद्गल-चयादि पुद्गल-ग्रहण संस्थान के प्रकार संस्थानों का अल्पबहुत्व द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ की अपेक्षा रत्नप्रभा आदि संदर्भ में संस्थान वृत्त संस्थान के प्रदेश और आकाश-प्रदेश व्यत्र संस्थान के प्रदेश और आकाश-प्रदेश चतुरन संस्थान के प्रदेश और आकाश-प्रदेश आयत संस्थान के प्रदेश और आकाश-प्रदेश परिमंडल संस्थान के प्रदेश और आकाश-प्रदेश घन परिमंडल संस्थानों के कृतयुग्म आदि श्रेणी-परिमाण अनुश्रेणी विश्रेणी गति आवास नारक और देवों के गणिपिटक पांच गति का अल्पबहुत्व अष्ट गति का अल्पबहुत्व इन्द्रियों के सन्दर्भ में अल्पबहुत्व काय के संदर्भ में अल्पबहुत्व जीव यावत पर्यव का अल्पबहुत्व आयुष्य कर्म के बंधक-अबंधक आदि जीवों का अल्पबहुत्व युग्म के प्रकार चौबीस दण्डक और सिद्धों के युग्म षट् द्रव्यों के युग्म षट द्रव्यों का अल्पबहुत्व षट द्रव्यों का लोक में अवगाहन कृतयुग्म आदि के सन्दर्भ में रत्नप्रभा यावत ईषत्प्राग्भारा का अवगाहन कृतयुग्म आदि के संदर्भ में जीव आदि छब्बीस पदों की पृच्छा कृतयुग्म आदि के संदर्भ ५७ जीव आदि छब्बीस पदों की क्षेत्र सम्बन्धी पृच्छा कृतयुग्म आदि के संदर्भ में जीव आदि छब्बीस पदों की पृच्छा कृतयुग्म आदि समय स्थिति के संदर्भ में जीव आदि छब्बीस पदों की वर्णादि सम्बन्धी पच्छा कृतयुग्म आदि के संदर्भ में जीव आदि छब्बीस पदों की बारह उपयोग सम्बन्धी पृच्छा __कृतायुग्म आदि के सन्दर्भ में शरीर पद जीवों की सकम्पता निष्कम्पता पुद्गल पद पुद्गल का अल्पबहुत्व द्रव्यार्थ की अपेक्षा से पुद्गल का अल्पबहुत्व प्रदेशार्थ की अपेक्षा से पुद्गल का अल्पबहुत्व क्षेत्र की अपेक्षा पुद्गल का अल्पबहुत्व काल की अपेक्षा पुद्गल का अल्पबहुत्व भाव की अपेक्षा पुद्गल का अल्पबहुत्व एक प्रदेशावगाही यावत असंख्य प्रदेशावगाही पुद्गल का अल्पबहुत्व ७२ एक समयस्थिति यावत असंख्यसमयस्थितिक पृथ्गल का अल्पबहुत्व वर्ण, गंध, रस स्पर्श की अपेक्षा से पुद्गल का अल्पबहुत्व पुद्गल की पृच्छा कृतयुग्म आदि के संदर्भ में क्षेत्र की अपेक्षा से पुद्गल की पच्छा कृतयुग्म आदि के संदर्भ में काल की अपेक्षा से पुद्गल की पृच्छा कृतयुग्म आदि के संदर्भ में भाव की अपेक्षा से पुद्गल की पृच्छा कृतयुग्म आदि के संदर्भ में पुद्गल का सार्ध-अनर्ध पद पुद्गल की सकम्पता-निष्कम्पता सकम्प-निष्कम्प पुद्गलों का अल्पबहुत्व देश कम्पता, सर्वकम्पता, निष्कम्पता पुद्गल की सकम्पता निष्कम्पता काल की अपेक्षा Jain Education Intemational Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ १३७ १४० १४१ १४१ १०१ १०२ ००००० ० ० ० ० ० ० ० ० wr m mm" x 9 0 १४३ १४४ १०३ १०४ १०५ १०६ १४६ १४७ १४९ १५१ १५२ ~ १०७ १०८ ११० १५२ १११ ११२ १५४ १५४ ११४ १५६ १५८ सकम्प निष्कम्प पुद्गल का अन्तर सकम्प निष्कम्प पुदगल का अल्पबहुत्व अस्तिकाय के मध्यप्रदेश पर्यव पद काल पद निगोद पद नाम (भाव) पद निग्रंथ के प्रकार पलाक निग्रंथ के प्रकार बकुश निग्रंथ के प्रकार कुशील निर्ग्रन्थ के प्रकार निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ के प्रकार स्नातक निर्ग्रन्थ के प्रकार निर्ग्रन्थ में वेद निर्ग्रन्थ में राग निर्ग्रन्थ में कल्प निर्ग्रन्थ में चारित्र निर्ग्रन्थ में प्रतिसेवना कषायकुशील की अप्रतिसेवकता निर्ग्रन्थ में ज्ञान निर्गन्ध तीर्थ में या अतीर्थ में? निर्ग्रन्थ में लिंग निर्ग्रन्थ में शरीर निर्ग्रन्थ किस क्षेत्र में ? निर्ग्रन्थ किस काल में ? निर्ग्रन्थ की गति निर्ग्रन्थ के संयम-स्थान निग्रंन्थ से संयम स्थान का अल्पबहत्व निर्ग्रन्थ में निकर्ष-चारित्र के पर्यव पुलाक का पुलाक के साथ सन्निकर्ष पुलाक का अन्य निर्ग्रन्थों के साथ सन्निकर्ष बकुश का पुलाक के साथ सन्निकर्ष बकुश का बकुश के साथ सन्निकर्ष बकुश का शेष अन्य निर्ग्रन्थों के साथ सन्निकर्ष निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ के साथ पुलाक यावत कषायकुशील का सन्निकर्ष निर्ग्रन्थ का निर्ग्रन्थ और स्नातक के साथ सन्निकर्ष स्नातक का पुलाक आदि निर्ग्रन्थों के साथ सन्निकर्ष स्नातक का स्नातक के साथ सन्निकर्ष निर्ग्रन्थों के चारित्र-पर्यवों का अल्पबहुत्व निर्ग्रन्थों में योग निर्ग्रन्थ में उपयोग निग्रंथ में कषाय ११७ ११८ ११९ ११९ or mr or arror-rrrr . x निर्ग्रन्थों में लेश्या निर्ग्रन्थों में परिणाम निर्ग्रन्थों में कर्म प्रकृति का बन्ध निर्ग्रन्थों में कर्मप्रकृति का वेदन निर्ग्रन्थों में कर्मप्रकृति की उदीरणा निर्ग्रन्थों में उपसंपदहान निर्ग्रन्थों में संज्ञा निर्ग्रन्थों में आहारक अनाहारक निर्ग्रन्थों में भव निर्ग्रन्थों के आकर्ष-चारित्र की प्राप्ति निर्ग्रन्थों का काल निर्ग्रन्थों में अन्तर निर्ग्रन्थों में समुद्घात निर्ग्रन्थों का क्षेत्र निर्ग्रन्थों द्वारा लोक की स्पर्शना निर्ग्रन्थ किस भाव में ? निर्ग्रन्थों का परिमाण निर्ग्रन्थों में अल्पबहुत्व संयत के प्रकार संयतों का स्वरूप संयत में वेद संयत में राग संयत में कल्प संयत में निर्ग्रन्थ संयत में प्रतिसेवना संयत में ज्ञान संयत में श्रुत की अर्हता संयत तीर्थ में या अतीर्थ में? संयत में लिंग संयत में शरीर संयत किस क्षेत्र में? संयत किस काल में ? संयत की गति संयत के संयम-स्थान संयमस्थानों का अल्पबहुत्व संयत के निकर्ष-चारित्रपर्यव संयतों के चारित्र-पर्यवों का अल्पबहुत्व संयत में योग संयत में उपयोग संयत में कषाय संयत में लेश्या संयत में परिणाम ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ our. Mrrr m99 ~ ~ xxxx ururrrrrrrrror 9 ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ १२१ १६३ १६७ १२७ १२८ १२० १६८ १२८ १६९ १३२ १७० १३२ १७० १३२ १७२ १७४ १३२ ا لله १७५ الله الله १७६ १७७ १७८ १३३ الله १३३ الله १७८ اللي १७९ १३४ १७९ १३४ १८० Jain Education Intemational Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ २२९ २२९ १८४ १८४ २३० २३१ २३१ १८६ १८६ २३२ १८७ १८७ २३२ २३२ १९० O १९४ २३४ २३४ २३५ १९८ २३५ १९८ १९९ २४० २०१ २४० २०२ २०६ २०७ २४५ २४५ दERN० ० ० ० २४५ संयत के कर्मप्रकृति का बन्ध संयत के कर्मप्रकृति का वेदन संयत के कर्मप्रकृति की उदीरणा संयत के उपसंपद्हान संयत में संज्ञा संयत आहारक या अनाहारक संयत के भव संयत के आकर्ष-चारित्र की प्राप्ति संयत का काल संयत का अन्तर संयत में समुद्घात संयत का क्षेत्र संयत द्वारा लोक की स्पर्शना संयत किस भाव में संयत का परिमाण संयत का अल्पबहुत्व प्रतिसेवना पद आलोचना के दोष आलोचक की अर्हता आलोचनादायक की अर्हता सामाचारी पद प्रायश्चित्त पद तप पद बाह्य तप के प्रकार अनशन अवमोदरिका भिक्षाचर्या रस परित्याग कायक्लेश प्रतिसंलीनता आभ्यन्तर तप के प्रकार प्रायश्चित्त विनय के प्रकार ज्ञान विनय दर्शन विनय चारित्र विनय मन विनय वचन विनय काय विनय लोकोपचार विनय वैयावृत्त्य स्वाध्याय २४६ ध्यान के प्रकार आर्तध्यान रौद्रध्यान धर्म ध्यान धर्म ध्यान के लक्षण धर्म ध्यान के आलम्बन धर्म ध्यान की अनुप्रेक्षा शुक्ल ध्यान शुक्ल ध्यान के लक्षण शुक्ल ध्यान के आलम्बन शुक्ल ध्यान की अनुप्रेक्षा व्युत्सर्ग नरयिक आदि के पुनर्भव भवसिद्धिक का पुनर्भव अभवसिद्धिक का पुनर्भव सम्यक्दृष्टि का पुनर्भव मिथ्यादृष्टि का पुनर्भव सम्बन्ध योजना विषयवस्तु पाप-कर्म बन्ध-अबन्ध पद लेश्या द्वार पाक्षिक द्वार दृष्टि द्वार ज्ञान द्वार अज्ञान द्वार संज्ञोपयुक्त द्वार वेद द्वार कषाय द्वार योग द्वार उपयोग द्वार चौबीस दण्डकों के बन्ध-अबन्ध समुच्चय जीव में पाप कर्म बंध-अबंध नारकी में ३५ बोल आठ कर्मों के सन्दर्भ में बन्ध-अबन्ध अनन्तरोपपन्नकः बन्ध-अबन्ध परम्परोपपन्नक: बन्ध-अबन्ध अनन्तरावगाढः बन्ध-अबन्ध परम्परावगाढः बन्ध-अबन्ध अनन्तराहारक: बन्ध-अबन्ध परम्पराहारक: बन्ध-अबन्ध अनन्तरपर्याप्तक: बन्ध-अबन्ध परम्परपर्याप्तक: बन्ध-अबन्ध चरमः बन्ध-अबन्ध २११ २१३ २४७ २४८ २४८ २४९ २४९ २१४ २१६ २१७ २१७ २१७ २२० xx २५० २५३ २५४ २२० २२१ २७० २७१ २७१ २२३ २२३ २२४ २२५ २२७ २२८ २२८ 2 २७२ Jain Education Intemational Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचरमः बन्ध-अबन्ध अचरम के संदर्भ में आठ कर्मः बन्ध - अबन्ध पापकर्म: करण अकरण पद पापकर्म: समर्जन समाचरण पद पापकर्म: प्रारम्भ और अन्त समवसरण पद जीव की क्रियावादिता आदि. दंडकों में क्रियावादिता आदि समवसरणगत जीवों का आयुष्यबन्ध समीक्षा अशुभलेश्या में आयुबन्धकी समवसरणगत २४ दंडकों का आयुबन्ध समवसरणगत जीवों का भव्यत्व अभव्यत्व समवसरणगत २४ दंडकों में भव्यत्व अभव्यत्व अनन्तरोपपन्न २४ दंडकों में क्रियावादिता आदि परम्परोपपन्न २४ दंडकों में क्रियावादिता आदि क्षुल्लक युग्म के प्रकार क्षुल्लक युग्म नैरयिकों का उपपात क्षुल्लक युग्म कृष्णलेश्यी नैरयिकों का उपपात क्षुल्लक युग्म नीललेश्यी नैरयिकों का उपपात क्षुल्लक युग्म कापोतलेश्यी नैरयिकों का उपपात क्षुल्लक युग्म भवसिद्धिक आदि नैरयिकों का उपपात क्षुल्लकयुग्म वैरमिकों का उद्वर्तन एकेन्द्रिय जीवों के प्रकार एकेन्द्रिय जीवों के कर्म प्रकृति अनन्तरोपपन्न एकेन्द्रिय जीवों के प्रकार अनन्तरोपपन्न एकेन्द्रिय जीवों के कर्म प्रकृति परम्परोपपन्न एकेन्द्रिय जीवों के प्रकार परम्परोपपन्न एकेन्द्रिय जीवों की कर्मप्रकृति अनन्तरावगाढ आदि एकेन्द्रिय जीवों की कर्म प्रकृति कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के प्रकार कृष्णलेश्मी एकेन्द्रिय जीवों के कर्म प्रकृति अनन्तरोपपन्न कृष्णश्वी एकेन्द्रिय जीवों के कर्म प्रकृति परम्परोपपन्न कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के कर्म प्रकृति नीललेश्यी एकेन्द्रिय के कर्म प्रकृति कापोटी एकेन्द्रिय के कर्मप्रकृति भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के प्रकार भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के कर्मप्रकृति कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक के प्रकार कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के कर्मप्रकृति अनंतरोपपन्न कृष्णले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के कर्म प्रकृति नीललेश्यी आदि भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के कर्म प्रकृति २७३ २७४ २७९ २८३ २९१ २९९ ३०० ३०१ ३११ ३१२ ३१६ ३२० ३२२ ३२३ ३२४ ३२९ ३३० ३३३ ३३४ ३३५ ३३५ ३४१ ३४५ ३४६ ३४७ ३४८ ३४८ ३४९ ३४९ ३५० ३५० ३५१ ३५१ ३५२ ३५२ ३५२ ३५२ ३५३ ३५३ ३५३ ३५४ (१४) एकेन्द्रिय जीवों की विग्रह गति (क) एकेन्द्रिय जीवों की विग्रह गति ( ख ) लोक के चरमान्त की अपेक्षा से एकेन्द्रिय जीवों की विग्रह गति एकेन्द्रिय जीवों के स्थान एकेन्द्रिय जीवों के कर्मप्रकृति का बन्ध और वेदन एकेन्द्रिय में उपपात एकेन्द्रिय में समुद्घात एकेन्द्रिय जीवों के कर्म बन्ध का अल्पबहुत्व अनंतरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के प्रकार, स्थान आदि परंपरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के प्रकार, स्थान आदि कृष्णलेश्यी आदि एकेन्द्रिय के प्रकार, स्थान आदि महायुग्म के प्रकार प्ररूपणा राजियुग्म व्याज राशिवाले २४ दण्डकों में उपपात आदि की प्ररूपणा राशियुग्म द्वापरयुग्म राशिवाले २४ बंडकों में उपपात आदि की प्ररूपणा राजियुग्म ल्योन राशि वाले २४ दंडकों में उपपात आदि की प्ररूपणा कृष्णलेश्यी आदि राशियुग्म कृतयुग्मज २४ दंडकों में उपपात आदि की प्ररूपणा भवसिद्धिकराशियुग्म कृतयुग्मज २४ दंडकों में अभवसिद्धिक राशि २४ दंडकों में सम्यक् दृष्टि राशियुग्म कृतयुग्म २४ दंडकों में मिथ्यादृष्टि राशियुग्म कृतयुग्मज २४ दंडकों में कृष्णपाक्षिक राशियुग्म कृतयुग्मज २४ दंडकों में अर्हत्-वाणी की अपूर्वता ४०८ ४१९ ४२५ एकेन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा (क) एकेन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा (ख) द्वीन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा श्रीन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा चतुरिन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा असन्नी पंचेन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा ४२६ सन्नी पंचेन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा ४२७ कृष्णले आदि सन्नीपंचेन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा ४२% राशियुग्म के प्रकार राशियुग्मकृतयुग्मज २४ दण्डकों में उपपात आदि की भगवती सूत्र का स्वरूप आगम पुरुष की परिकल्पना ३५९ ३६६ ३७२ ३७६ ३७७ ३७८ ३७८ ३७८ ३८२ ३८५ ३८७ ३९३ ४०२ ४३१ ४४१ ४४१ ४४५ ४४५ ४४६ ४४६ ४४९ ४५० ४५१ ४५१ ४५१ ४५२ ४५४ ४५५ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ की स्तुति पुस्तक लिपिकार का नमस्कार भगवती की उद्देश विधि भगवती सूत्र के शतक और उद्देशक जोड़ समापन मंगल ४५६ ४५७ ४५७ ४५८ ४५९ (१५) प्रयुक्त स्रोत निर्देश शतक- उद्देशक यंत्र परिशिष्ट नियंठा नीं जोड़ संजया नीं जोड़ ४६० ४६१ ४६५ ४७३ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविंशति शतक Jain Education Intemational Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविंशति शतक ढाल : ४३३ दूहा १. कह्यो शतक चउवीसमों, अर्थ थकी अवधार । अथ पणवीसम शतक नों, आरंभिर्य अधिकार ।। २. इम अभिसंबंध तेह तj, पूर्व शतक विषेह । उत्पातादिक द्वार करि, जीव चितव्या जेह ।। ३. फुन तेहिज जीवादि नां, लेश्यादिक जे भाव । इह पणवीसम शतक में, चितविय वच साव । ४. ए संबंध करि एहनां, वर द्वादश उद्देश । उद्देशक संग्रह तणी, गाथा प्रथम कहेश ।। लेश्या पद ५. प्रथम उदेशक नै विषे, कह्या अर्थ लेस्सादि। लेश उद्देशक नाम ए, ते माटै संवादि । १. व्याख्यातं चतुर्विंशतितमशतम्, अथ पञ्चविंशतितममारभ्यते, (वृ. प. ८५२) २. तस्य चैवमभिसम्बन्धः-प्राक्तनशते जीवा उत्पादादिद्वारैश्चिन्तिता (वृ. प.८५२) ३. इह तु तेषामेव लेश्यादयो भावाश्चिन्त्यन्ते (बृ. प. ८५२) ४ इत्येवंसम्बन्धस्यास्योद्देशकसङ्ग्रहगाथेयम् (वृ. प. ८५२) ६. सर्व विषे इम भावि, द्वितीय द्रव्य विचार । संस्थानादिक अर्थ जे, तृतीय उद्देश मझार ।। ७. कृतयुग्मादि अर्थ जे, तुर्य उदेश मझार । पंचमुद्देशक ने विषे, वर पर्याय विचार ।। ८. षष्ठमुद्देशक नै विषे, पुलाक प्रमुख निग्रंथ । सप्तम सामायिक प्रमुख, संयत पंच सुपंथ ।। ५.१. लेसा य 'लेसा य' त्ति प्रथमोद्देशके लेश्यादयोऽर्था वाच्या इति लेश्योद्देशक एवायमुच्यते १ (वृ. प. ८५२) ६. २. दव्य ३. संठाण 'दब्व' त्ति द्वितीये द्रव्याणि वाच्यानि २ 'संठाण' त्ति तृतीये संस्थानादयोऽर्था: ३ (वृ. प. ८५२) ७. ४. जुम्म ५. पज्जव 'जुम्म' त्ति चतुर्थे कृतयुग्मादयोऽर्थाः ४ 'पज्जव' त्ति पञ्चमे पर्यवाः ५ (वृ. प. ८५२) ८.६. नियंठ ७. समणा य । 'नियंठ' ति षष्ठे पुलाकादिका निर्ग्रन्थाः ६ 'समणा य' त्ति सप्तमे सामायिकादिसंयतादयोऽर्थाः ७ (बृ. प. ८५२) ९. ८. ओहे 'ओहे त्ति' अष्टमे नारकादयो यथोत्पद्यन्ते तथा वाच्यं, कथम् ? ओघे- सामान्ये वर्तमाना भव्याभव्यादिविशेषणरविशेषिता इत्यर्थः ८ (व. प. ८५२) १०,११. ९,१०, भवियाभविए, 'भविए' त्ति नवमे भव्यविशेषणा नारकादयो यथोत्पद्यन्ते तथा वाच्यम् ९ 'अभविए' त्ति दशमेऽभव्यत्वे वर्तमाना अभव्यविशेषणा इत्यर्थः १० (व. प. ५८२) ९. नारकादि जिम ऊपज, विशेषण करि रहित जे, ओघे भव्य इतरादि । अष्टमूद्देश संवादि ।। १०. भव्य भावे जे वर्त्तता, भव्य विशेषण जेह । नारकादि जिम ऊपज, तिम कहिवं नवमेह ।। ११. अभव्य भावे वर्त्तता, अभव्य तेह विशेषण करि अर्थ, दशम कहियै ताय । उद्देशे आय ।। श० २५, उ०१, ढा० ४३३ ३ Jain Education Intemational Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. एकादसमुद्देश के तेह विशेषण करि जिके, १३. मिथ्यात्वे वर्तमान जे, तेह विशेषण करि अर्थ 1 १४. पणवीसम शत नैं विषे, प्रथम उद्देशक नौ हिवे, सम्बन्दष्टिज कहवा अर्थ १७. प्रथम शतक में जिम तिमहिज कहियूँ छे मिथ्यादृष्टि द्वादशमें फुन १५. ति काले ने तिण समय, नगर राजगृह ताम । यावत गौतम इम वदै, श्री जिन प्रति शिर नाम || गोय। सुजोय ॥ २०. भवणपति ने व्यंतरा जी, ए च्या देव नीं जी, कहाय | आय ॥ || बार उदेशक अर्थं । कहिये आदि तदर्थं । * • प्रभुजी बागरे अमृत वाणी । १६. हे भगवंतजी ! केतली जी, लेश्या परूपी स्वाम ? जिन कहै षट लेश्या कही जी, कृष्ण प्रथम नों नाम । गुणीजन ! कृष्ण प्रथम नो नाम ॥ का जी, द्वितीय उद्देशक मांहि । इहां जी, वेश विभागंज ताहि ॥ गुणीजन ! लेश विभागज ताहि ॥ १८. अल्पबहुत्व पिण तेहनीं जी ते इहविध कहिवाय । प्रभु! जीव सतेशी कृष्णादि नीं जी, इत्यादि अल्पबहुत्वाय ।। प्रभुजी रा शीष गोयम गुणवाणी ।। (धुपदं ) १९. किहां लग कहिवुं तिको जी, जाव चतुविध देव । अल्पबहुत्व तेहनीं जिंका जी, ते कहिवी स्वयमेव ॥ • लय पंथीड़ो बोले अमृतवाणी * ४ भगवती जोड़ २१. फुन चिहुं विध देवी तणीं जी, मिश्र तणी पिण जोय । अल्पबहुत्व कहिवी इहां जी, बर जिन वच अवलोय ।। दूहा २२. अल्पबहुत्व प्रकरण कह्य ू, ते संसारिक नां जोग्य में ज्योतिषी ने वैमानीय । अल्पबहुत्व कथनीय || वा० - प्रथम शतक में ए बात आवी । तेहनों पुनरुच्चारण किम ? इम प्रश्नोत्तर करता टीकाकार कहै छे क्या तणोंज एह । अल्पबहुत्व हिव लेह ॥ १२.११. सम्मा 'सम्म' ति एकादचे सम्यग्दृष्टिविशेषाः ११) १३. १२. मिच्छे य 'मिच्छे य' त्ति द्वादशे मिथ्यात्वे दृष्टिविशेषणा इत्यर्थ: १२ १४. उसा संग्रहणीगाथा 'उद्देस' त्ति एवमिह शते द्वादशोद्देशका भवन्तीति । तच प्रथमोशको व्याख्यायते (पू.प. ५२) १५. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासी - (पु. प. ८५२) १६. कति णं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - कहलेसा १७. जहा पबिलिए उसए उहेब लेस्साविभागो । वर्त्तमाना मिथ्या(बु.प. ५२) १८. पाव च 'अप्पाबहुयं च ' त्ति तच्चैवम्— 'एएसि णं भंते ! जीवाणं सनेस्ताणं कण्हलेस्सा' मित्यादि (पु.प. ०५२) २०. तच्चैवम् – 'एएसि णं वाणमंतराणं जोइसियाणं १९. जाव चउव्विहाणं देवाणं अथ कियद्दूर ताम्यमित्याह-- 'जाब चउबिहा देवा' मित्यादि (4.9: =x8) भंते ! भवगवासीर्ण वेमाणियाणं देवाण य (बृ. प. ५२) २१. चउव्विहाणं देवीगं मीसगं अप्पाबहुगंति । (म. २५०१) वा. अथ प्रथमशते उक्तमप्यासां स्वरूपं कस्मात्पुनरप्युच्यते ? उच्यते प्रस्तावान्तरायातत्वात्, (पू.प. ५२) २२. इह संसारसमापन्नजीवानां योगात्पबहुत्वं वक्तव्यमिति तत्प्रस्तावालेश्याकरणमुक्तं, (बृ. प. ५२) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी जीव के चौदह प्रकार २३. जीव संसार - समापन्ना जी, कतिविध हे भगवान ? जिन कहै चवद भेदे कह्या जी, सांभल तूं घर कान ।। २४. सूक्ष्म अपर्याप्ता कला जी, बादर अपजत्तगा वलि जी, सूक्ष्म पर्याप्त ताम | बादर पजत्तगा आम || वा० -सूक्ष्म अपर्याप्तो किन कहिये - सूक्ष्म नाम कर्म नां उदय थकी अन अपर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी सूक्ष्म अपर्याप्त कहिये । इम हिज सूक्ष्म नाम कर्म नां उदय थकी अन पर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी सूक्ष्म पर्याप्त कहिये | बादर नाम कर्म नां उदय थकी अनें अपर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी बादर अपर्याप्त कहिये । बादर नाम कर्म नां उदय थकी अन पर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी बादर पर्याप्त कहिये । ए च्यारूद जीव रा भेद पृथ्वी आदि एकेंद्रिय नां जाणवा । २५. वेइंदिय अपजतगा बलि जी बेदियाज पर्याप्त । एवं तेइंदिया जीव छै जी, इम चउरिदिया प्राप्त ।। वा० -बेंइंद्री नाम कर्म नां उदय थकी अनैं अपर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी बेइंद्रिय अपर्याप्त कहिये । बेइंद्रिय नामकर्म नां उदय थकी अनैं पर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी बेइंद्रिय पर्याप्त कहिये । तेइन्द्रिय नाम कर्म नां उदय est अने अपर्याप्त नामकर्म नां उदय थकी इन्द्रिय अपर्याप्त कहिये। तेइन्द्रिय नाम कर्म नां उदय थकी अने पर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी तेइन्द्रिय पर्याप्त कहिये । चउरिद्रिय नामकर्म नां उदय थकी अन अपर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी चउरिद्रिय अपर्याप्त कहिये । चउरिद्री नाम कर्म नां उदय थकी अन पर्याप्त नामकर्म नां उदय थकी चउरिद्रिय पर्याप्त कहिये । २६. असनी पंचिद्रिय अपज्जता जी असन्नी पंचेंद्री पर्याप्त । सन्नी पंचिद्रिय अपजत्तगा जी, सन्नी पं. पजत्तगा प्राप्त ।। to २७. हे प्रभु ! ए चवदश विधा जी, जीव संसारिक पेख । जघन्योत्कृष्टज जोग नां जी, कुण-कुण जाव विशेख || वा० - जघन्य ते थोडुं अनै उत्कृष्ट ते घणूं तेहने जघन्योत्कृष्ट कहिये । हिव जोग किण नै कहिये ? वीर्य अन्तराय नां क्षयोपशम थकी तथा क्षायक थकी ऊपनी वीर्य शक्ति ते कायादि परिस्पन्द- चंचलता लक्षण ते जोग कहिये । ते जघन्य तथा उत्कृष्ट भेद थी चवदै जीव रा भेद संघाते जोड्यां २८ प्रकारे अल्पबहुत्वादिक जीव स्थानक विशेष थकी ह्व, ते कहै छै जघन्य तथा उत्कृष्ट जोग ते कुणकुण थकी थोड़ा हुवै तथा घणां हुवै तथा तुल्य हुवै तथा विशेष अधिक हुवे ? इम प्रश्न पूछ्ये-२८. जिन कहे थोड़ा सर्व थी जी, सूक्ष्म एकेंद्रिय तास । अपर्याप्तो छै तेहनों जी, जघन्य जोग सुविमास ।। लय: पंथीड़ो बोले अमृतवाणी संसारसमावन्नगा जीवा २२. कतिविहाणं भते ! पण्णत्ता ? गोयमा ! चोद्दसविहा संसारसमावन्नगा जीवा तं जहा - पण्णत्ता, २४. १ सुहुमा अप्पज्जत्तगा २. सुहुमा पज्जत्तगा ३. बादरा अप्पज्जत्तगा ४. बादरा पज्जत्तगा वा. - ' सुहुम' त्ति सूक्ष्मनामकर्मोदयात् 'अपज्जत्तग' ति अपर्याप्तका अपर्याप्त नाम कमाएवमितरे तद्विपरीतत्वात् 'बायर' त्ति बादरनामकर्मोदयात्, एते च चत्वारोऽपि जीवभेदाः पृथिव्याद्ये केन्द्रियाणां, (बृ. प. ८५३) २५. ५. बेइंदिया अप्पज्जत्तगा ६. बेइंदिया पज्जत्तगा ७. तेइंदिया अप्पज्जत्तगा ८ तेइंदिया ९. चउरिदिया अप्पज्जत्तगा १०. चउरिदिया पज्जत्तगा पज्जत्तगा तस्य वा. कोसगस्स जोगस्थ ति जपन्यीनिकृष्टः काञ्चिद्व्यक्तिमाश्रित्य स एव च व्यक्त्यन्तरापेक्षयोत्कर्ष:- उत्कृष्टो जघन्योत्कर्ष: योगस्य दीर्यान्तरायक्षयोपशमादिसमुत्वकायादि परिस्पन्दस्य एतस्य च योगस्य चतुर्दशजीवस्थानसम्बन्धान्योत्कर्ष भेदाच्चाष्टाविंशतिविधस्वरूपबहुत्वादि जीवस्थानविशेषाद्भवति ५३) २६. ११. असणिपंचिदिया अप्पज्जत्तगा १२. असण्णिपंचिदिया पज्जत्तगा १३. सणिपंचिदिया अप्पज्जत्तगा १४. सण्णिपंचिदिया पज्जत्तगा । (बा. २५२) २७. एतेसि णं भंते! सविहाणं संसारसमावण्णगाणं जीवागं जम्कोसमस्स जोगस्स परे कवरेहितो जाव (संपा.) बिसेसाहियावा ? - २८. गोयमा ! १. सम्वत्थोवे सुहुमस्स अपज्जत्तगस्स जहणए जोए श० २५, उ० १, ढा० ४३३ ५ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-सूक्ष्म पृथ्व्यादिक नां शरीर नां सूक्ष्मपणां थकी तेहनै पिण अपर्याप्तपण करी असंपूर्णपणां थकी तिहां पिण जघन्य नै वांछितपणां थकी सर्व आगल कहिस्य जे जोग तेह थकी थोड़ो, ते माटै सर्व थी थोड़ो जघन्य जोग हु । ते जघन्य जोग वलि विग्रह गति नै विषे कार्मण नैं औदारिक पुद्गल ग्रहण प्रथम समय वर्तता हुवै तिवार पछै वलि समय वृद्धि करिके मध्यम योग हुवे । ज्यां लगे सर्वोत्कृष्ट योग न हुवै त्यां लगै मध्यम जोग कहिये । वा.-तत्र 'सव्वत्थोवे' इत्यादि सूक्ष्मस्य पृथिव्यादेः सूक्ष्मत्वात् शरीरस्य तस्याप्यपर्याप्तकत्वेनासम्पूर्णत्वात् तत्रापि जघन्यस्य विवक्षितत्वात् सर्वेभ्यो वक्ष्यमाणेभ्यो योगेभ्यः सकाशात्स्तोक:-सर्वस्तोको भवति जघन्यो योगः, स पुनर्वग्रहिककार्मणऔदारिकपुद्गलग्रहणप्रथमसमयवर्ती, तदनन्तरं च समयवद्धयाऽजघन्योत्कृष्टो यावत्सर्वोत्कृष्टो न भवति, (व. प. ८५३) २९. २. बादरस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्ज गुणे ३०. ३. बेंदियस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्ज गुणे ३१. ४. एवं तेइंदियस्स ३२. ५. एवं चउरिदियस्स ३३. ६. असण्णिस्स पंचिदियस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ३४. ७. सण्णिस्स पंचिदियस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ३५. ८. सुहुमस्स पज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्ज गुणे ३६. ९. बादरस्स पज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्ज २९. तेहथी बादर एकेंद्रिय तणों जी, अपजत्त नों जघन्य जोग । असंख्यातगुणो आखियो जी, बादरपणां थी प्रयोग ।। ३०. तेहथी बेइंद्रिय तणों जी, अपर्याप्ता नों जोय । जघन्य जोग छै जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो होय ।। ३१. तेहथी तेइंद्रिय तणों जी, अपर्याप्ता नों पेख । जघन्य जोग छै जेहन जी, ते असंख्यातगुणो लेख ।। ३२. तेहथी चरिदिय तणों जी, अपर्याप्ता नों जेह । जघन्य जोग कहियै अछ जी, असंख्यातगुणो तेह ।। ३३. तेहथी असन्नी पंचिद्रिय तणों जी, अपर्याप्ता नों विचार । जघन्य जोग छ जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो धार । ३४. तेहथी सन्नी पंचिंद्रिय तणों जी, अपर्याप्ता नों उवेख । जघन्य जोग छ जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो देख ।। ३५. तेहथी सूक्ष्म एकेंद्रिय तणों जी, पर्याप्ता नों प्रमाण । ___ जघन्य जोग छै जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो जाण ।। ३६. तेहथी बादर एकेंद्रिय तणों जी, पर्याप्ता नों प्रचार । जघन्य जोग छै जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो धार ।। ३७. तेहथी सूक्ष्म एकेंद्रिय तणों जी, अपर्याप्ता नों आम । उत्कृष्ट जोग छै जेहनों जी, असंख्यातगुणो ताम ।। ३८. तेहथी बादर एकेंद्रिय तणों जी, अपर्याप्ता नों जोय । उत्कृष्ट जोग छ जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो सोय ।। ३९. तेहथी सूक्ष्म एकेंद्रिय तणों जी, पर्याप्ता नों पेख । उत्कृष्ट जोग छै जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो देख ।। ४०. तेहथी बादर एकेंद्रिय तणों जी, पर्याप्ता नों पाय । उत्कृष्ट जोग छै जेहनों जी, ते असंखगुणो अधिकाय ।। ४१. तेह थकी बेइंद्री तणों जी, पर्याप्ता नों ताय । ___ जघन्य जोग छै जेहनों जी, ते असंखगूणो अधिकाय ।। ४२. तेहथी तेइंद्रिय तणों जी, पर्याप्ता नों विमास । जघन्य जोग छै जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो तास ।। ४३. तेहथी चउरिन्दिय जीव नों जी, पर्याप्ता नो विचार । जघन्य जोग छै जेहनों जी, ते असंखगुणो अवधार ।। ४४. तेहथी असन्नी पंचिद्रिय तणों जी, पर्याप्ता नों कहाय । जघन्य जोग छै जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो पाय ।। ४५. तेहथी सन्नी पंचिंद्रिय तणों जी, पर्याप्ता नों पेख । जघन्य जोग छै जेहनों जी, ते असंखगुणा सुविशेख ।। ३७. १०. सुहुमस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए ____ असंखेज्जगुणे ३८. ११. बादरस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगणे ३९. १२. सुहुमस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्ज गुणे ४०. १३. बाद रस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे ४१. १४. बेंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्ज गुणे ४२. १५. एवं तेंदियस्स, ४३-४५. एवं जाव १८. सणिपंचिदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Education Intemational Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. तेहथी बेइंद्रिय जीव नों जो अपर्याप्तानों आम । उत्कृष्ट जोग छै जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो ताम ॥ ४७. तेहषी तेइंद्रिय जीव नों जी, अपर्याप्ता न तेह। उत्कृष्ट जोग छै जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो लेह || ४८. तेही चरिद्रय जीव नों जी, अपर्याप्तानों एम। उत्कृष्ट जोग छ जेहनों जी ते असंख्यातगुणो तेम ॥ ४९. तेही असन्नी पंचिद्रिय तणों जी, अपर्याप्ता नों जाण । उत्कृष्ट जोग जेहनों जी ते असंख्यातगुणो पहिचाण ।। ५०. तेही सन्नी पंचिद्रिय वणों जी, अपर्याप्तानों जोय । उत्कृष्ट जोग छै जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो सोय || ५१. तेहथी बेइंद्रिय तणों जी, पर्याप्ता नों पिछाण । उत्कृष्ट जोग छे जेहनों जी ते असंख्यातगुणो जाण ।। ५२. तेही इंद्रिय तणों जी पर्याप्त नो पेख । 1 उत्कृष्ट जोग छै जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो लेख ।। ५३. तेही चरिदिय तणों जी पर्याप्ता न जाण । उत्कृष्ट जोग जेनों जी ते असंख्यातगुणो माण | ५४. तेहथी असन्नी पंचिद्रिय तणो जी, पर्याप्ता नों पाय । उत्कृष्ट जोग छै जेहनों जी, ते असंख्यातगुणो ताय ॥ ५५. तेही सन्नी पंचिद्रिय तणों जी, पर्याप्ता न विरंच । उत्कृष्ट जोग है जेहनों जी ते असंख्यातगुणो संच ॥ वा - इहां यद्यपि तेइंदिय पर्याप्ता नों उत्कृष्ट काय जोग अपेक्षया पर्याप्ता बेइंद्रियनों वलि सन्नी असन्नी पंचिद्रिय नों उत्कृष्ट काय जोग संख्यातगुणो हुवै, तेहनी काया संख्यात जोजन प्रमाण छं ते भणी । तथा पिण जोग नों चंचल वीर्य नों विवक्षितपणां थकी ते योग नां क्षयोपशम विशेषपणां थकी असंख्यात गुणपणां प्रतं विरुद्ध न थाये । अल्पकाय नै अल्प स्पंद ते अल्प वीर्य नों चंचलपणों हीज हुवं । अने महाकाय नैं महास्पंद हीज हुवै, एहवूं नियम नथी । तेनां विपर्यय नां देखवा थी । जिम हाथी नों शरीर मोटो ने सिंह नों शरीर छोटो, पिण शक्ति हाथी थकी सिंघ नीं अधिक प्रगट दीर्स छँ 1 दूहा ५६. जोग तां अधिकार थी, जोग तणोंज विचार। कहिये छे ते सांभलो जिन वच महा जयकार २४ दंडकों में समयोगी विषमयोगी 7 ५७. *हे भगवंत ! बे नेरइया जी प्रथम समय उत्पन्न । नारक क्षेत्र विषे रह्या जी, धुर समय प्राप्ततया जन्न || सोरठा ५८. ते विहं नी उत्पत्त, विग्रह गति करिके थई । अथवा दोनं तत्थ सम गति करिकं उपनां ॥ * लय : पंथीड़ो बोलं अमृत वाणी ४६. १९. बेंदियस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसए असंखेज्जगुणे ४७. २०. एवं तेंदियस्स वि ४८-५०. एवं जाव २३. सणिपंचिदियस्स अपज्जत्तगस्स उस्कोसए जोए असंज् ५१. २४. बेंदियस्स असगुणे ५२. २५. एवं तेइं दियस्स वि, पज्जत्तगस्स बोए ५३-५५. एवं जाव २८. सणिपंचिदियस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए भज्जगुणे । (श. २५/३ ) ५६. योगाधिकारादेवेदमाह- उक्कोसए जोए वा. - इह न यद्यपि पर्याप्त कायापेक्षया पर्याप्तकानां द्वीन्द्रियाणां सञ्ज्ञिनामपञ्चेन्द्रियाणामुत्कृष्टः काय: सातगुणो भवति सङ्ख्यातयोजनमाचत्यात् तथामीह योगस्य परिस्पन्दस्य वित्तस्य च क्षयोपशमविशेषसामर्थ्याद् यथोक्तमसङ्ख्यातगुणत्वं न विरुध्यते न ह्यल्पकायस्याल्प एव स्पन्दो भवति महाकायस्य वा महानेव, स्वस्ययेनापि तस्य दर्शनादिति ( वृ. प. ८५३,८५४) (बृ. प. ५४) ५७. दो भंते ! नेरइया पढमसमयोववन्नगा ५८. उपपत्तिश्चेह नरकक्षेत्र प्राप्तिः सा च द्वयोरपि विग्रहेण ऋजुगत्या वा (यू.प. ५४) श० २५, उ० १, ढा० ४३३ ७ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९. तथा एक अवलोय, विग्रह गति करि ऊपनों। दूजो नारक जोय, ऋजु गति करि प्राप्तज थयो। ६०. *स्यूं समयोगी जेह छै जी, योग सरीखो जास? कै विषम योगी अछै जी, विषम योगज तास? ६१. जिन कहै समयोगी कदा जी, विषम योगी कदा थाय । किण अर्थे प्रभु ! इम कह्य जी ? हिव जिन भाखै न्याय ॥ . ५९. एकस्य वा विग्रहेणान्यस्य ऋजुगत्येति, (व.प. ८५४) ६०. कि समजोगी? विसमजोगी ? ६१. गोयमा ! सिय समजोगी, सिय विसमजोगी। (श. २५१४) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ---सिय समजोगी, सिय विसमजोगी? ६२. गोयमा ! आहारयाओ वा से अणाहारए, ६३. अणाहारयाओ वा से आहारए ६२. आहारक ऋजुगति ऊपनों जी, ते नारक नी अपेक्षाय । जिको अनाहारक विग्रह गति करी जी, ऊपनों नरक रै मांय ।। ६३. तथा अनाहारक विग्रह गति करी जी, ऊपनां तसु अपेक्षाय। आहारक ते ऋजु गति करी जी, ऊपनों नरक रै माय ।। ६४. कदाचित ते हीण छै जी, कदा तुल्य कहिवाय । कदाचित ते अधिक छै जी, वृत्ति विषे तसु न्याय ॥ ६४. सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए। सोरठा ६५. कदा हीन इम होय, जे नारक ऋजु गति करी । आहारक थकोज सोय, नरक क्षेत्र जइ ऊपनों ।। ६६. एह निरंतर ताय, आहारकपणां थकी तिको । उपचित पुष्टज थाय, ते नारक तणी अपेक्षया ।। ६७. विग्रह गति करि जेह, अनाहारक थइ ऊपनों । हीन कही जियै एह, तास न्याय हिव सांभलो । ६८. अनाहारक पूर्वेह, अनुपचितपणां थकी। हीन योग इम लेह, हुवै विषम योगी तदा ।। ६९. कदाचित तुल्य होय, जे बिहुँ समान समय करी । विग्रह गति करि जोय, अनाहारक थइ ऊपनां ।। ७०. तथा समान समयेह, बिहु नारक ऋजु गति करी । ऊपनां नरक विषेह, समयोगी ते पिण हुवै ॥ ७१. नारक एक विचार, बीजा तणी अपेक्षया । तुल्यपणे अवधार, समयोगी कहिय तम् ।। ७२. जे ऋजुगति करि जाण, आहारक हीज समुपनों । ते अधिक योगी पहिछाण, केहनी अपेक्षया तिको ।। ७३. विग्रह गति करि ताय, अनाहारक थइ ऊपनों । ते हीन योगी कहिवाय, तेहनी अपेक्षया अधिक ।। वा०---सिय हीणे कदाचित हीन ते किम ? जिम नारक विग्रह गति नै अभावे करी आवी नै आहारकपणे ऊपनों ते निरंतर आहारकपणां थकी युष्टहीज छ । तेहना अधिक योगी नी अपेक्षाये करी जे विग्रह गति करी अनाहारक थई नै आवी ऊपनों, ते हीन स्यां माटै ? पूर्वे अनाहारकपणे करी अनुपचितपणां थकी एतलं अनाहारकपणां थकी दुर्बल जाणवो। पुष्ट नहीं, ते माटै हीन प्रयोगपणे करी विषमयोगी हुवै इति भावः । ६५. 'सिय हीणे' त्ति यो नारको विग्रहाभावेनागत्याहारक एवोत्पन्नोः (वृ. प. ८५४) ६६. असौ निरन्तराहारकत्वादुपचित एव, तदपेक्षया च (वृ. प. ८५४) ६७. यो विग्रहगत्याऽनाहारको भूत्वोत्पन्नोऽसौ हीनः (वृ. प. ८५४) ६८. पूर्वमनाहारकत्वेनानुपचितत्वाद्धीनयोगत्वेन च विषमयोगी स्यादिति भावः, (वृ. प. ८५४) ६९. 'सिय तुल्ले' त्ति यौ समानसमयया विग्रहगत्याऽनाहारको भूत्वोत्पन्नौ (वृ. प' ८५४) ७०,७१. ऋजुगत्या वाऽऽगत्योत्पन्नौ तयोरेक इतरापेक्षया तुल्य: समयोगी भवतीति भावः, (वृ. प. ८५४) ७२,७३. 'अब्भहिए' त्ति यो विग्रहाभावेनाहारक एवा गतोऽसौ विग्रहगत्यनाहारकापेक्षयोपचिततरत्वेनाभ्यधिको विषमयोगीति भावः, (व. प. ८५४) वा..... इह च 'आहारयाओ वा से अणाहारए' इत्यनेन हीनतायाः 'अणाहारयाओ वा आहारए' इत्यनेन चाभ्यधिकताया निबन्धनमुक्तं, तुल्यतानिबन्धनं तु समान धर्मतालक्षणं प्रसिद्धत्वान्नोक्तमिति, (वृ. प. ८५४) * लय : पंथीड़ो बोल अमृत वाणी ८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिय तुल्लेति-ते बिहुं नारक समान समय नै विषे विग्रह गति करी अनाहारक थई ऊपनां ते समयोगी। अथवा समान समय नै विषे बिहं नारक ऋजु गति करी ऊपना ते पिण समयोगी। एक नारक बीजा नी अपेक्षाय तुल्य माट समजोगी हुवे। जे विग्रह गति नै अभावे करी आहारक ईज ऋजुगति करिके हीज आवी ऊपनों ते अधिक योगी छ, ते केहनी अपेक्षाय अधिक योगी ते कहै छ- जे विग्रह गति अनाहारक थई आवी ऊपनों ते हीण जोगी छ, तेहनी अपेक्षाय पुष्ट तिण करी अधिको एतलै विषम योगी। इहां .आहारयाओ वा से अणाहारए आहारक ऋजु गति करी नारकि ऊपनों ते नेरइया नी अपेक्षा, से कहितां तिको, अणाहारए कहिंतां अनाहरक विग्रह गति करी नरके ऊपनों ते नेरइयो हीन योगी एणे पाठे करी हीनता नों निबन्धन कह्यो। अथवा अणाहारयाओ वा से आहारए --अणाहारयाओ कहितां अनाहारक विग्रह गति करी नरके ऊपनों ते नारकी नी अपेक्षा, आहारए --आहारक ऋजुगति करी नरके ऊपनों ते अधिक योगी कहिये । एणे पाठे करी अधिकता नों निबंधन कह।। तुल्यता नों निबंधन किम नथी कह्यो ? उत्तर- समान धर्मता लक्षण हीज तुल्यता नों निबंधन छ । ते प्रसिद्ध होवा थी इहां नथी कह्यो। ७४. जो हीन हवे तो गोयमजी! असख्यात भाग हीन । तथा संख्यात भाग हीण छै जी, ए जिन वचन सूचीन । ७५. तथा संखेज गुण हीण छ जी, असंख्यात गुण हीन । हिवै अधिक हवे जिको जी, आगल तेह कथीन ।। ७६. असंख्यात भाग अधिक छै जी, संख भाग अधिक थाय । संख्यात गुण फुन अधिक छै जी, असंख गुणा अधिकाय ।। ७४. जइ हीणे असंखेज्जइभागहीणे वा, संखेज्ज इभागहीणे वा, ७५. संखेज्जगुणहीणे वा, असंखेज्जगुणहीणे वा । ७७. तिण अर्थे जावत कदा जी, समयोगी आख्यात । __ कदा विषम योगी हुवै जी, इम जाव वैमानिक थात ।। ७६. अह अब्भहिए असंखेज्जइभागमब्भहिए वा, संखेज्जइ भागममहिए वा, संखेज्जगुणमब्भहिए वा, असंखेज्जगुणमब्भहिए वा। ७७. से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ—सिय समजोगी, सिय विसमजोगी । एवं जाव वेमाणियाणं । (शा. २५५) दूहा ७८. योगाधिकारादेवेदमपरमाह- (वृ. प. ८५४) ७८. जोग तणां अधिकार थी, एहिज अपर कहाय । पूछे गोयम गणहरू, जोग प्रश्न हित ल्याय ।। योग के प्रकार ७९. *कतिविध हे प्रभु ! जोग छै जी? जिन कहै पनर प्रकार । प्रथम सत्यमन जोग छै जी, असत्यमन योग धार ।। ७९. कतिविहे णं भंते ! जोए पण्णत्ते ? गोयमा ! पण्णरसविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा १. सच्चमणजोए २. मोसमणजोए ८०. ३. सच्चामोसमणजोए ४. असच्चामोसमणजोए ८०. मिश्रमन योग तीसरो जी, असत्यामृषा मन जोग । ए च्यारूं जोग मन तणां जी, हिवै चिहं वचन प्रयोग ।। ५१. सत्य वचन योग पंचमो जी, असत्य वचन योग धार । ___ सत्यामृषा जोग मिश्र छै जी, असत्यामृषा ववहार ।। ८२. योग सप्त काया तणां जी, ओदारिक तनु काय जोग । मिश्र ओदारिक नों वलि जी, वैक्रिय काय प्रयोग ।। ८१. ५. सच्चवइजोए ६. मोसवइजोए ७. सच्चामोस बइजोए ८. असच्चामोसवइजोए ८२. ९. ओरालियसरीरकायजोए १०. ओरालियमीसा सरीरकायजोए ११. वेउव्वियसरीरकायजोए *लय: पंथोड़ो बोल अमृत वाणी श० २५, उ०१, ढा०४:३९ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३. मिश्रवैक्रिय नों बलि जी, आहारक काय प्रयोग । आहारक मिश्रण पवदमों जी, कार्मण तनुकाय जोग || योग में अल्पबहुत्व ८४. ए प्रभु ! पन योग ने जी, जघन्य उत्कृष्ट विद्वान । कुणकुण थी जावत का जी, विशेषाधिक कंपमान ? ५. जिन कहै थोड़ो सर्व भी जी, कार्मण तनुनों मंद। जघन्य जोग कहिये अच्छे जी ए घुर भेद कथिंद ॥ ६. तेही ओदारिक मिश्र नो जी, जघन्य जोग अवलोय । असंख्यातगुणो आखियो जी, वारू जिन वच जोय || ८७. तेह की चंचलपणों जी वैकिय मिश्र नों बेह जघन्य जोग कहिये अछे जी, असंख्यातगुणो एह ।। तेहथी ओदारिक तनु तणों जी, जघन्य जोग पहिचान । असंख्यातगुणो आखियो जी, परिस्पंद ते कंपमान ।। ८९. तेही वेत्रिय शरीर नों जी, जघन्य जोग अवलोय । असंख्यातगुणो आखियं जी ए जिन वचन सुजोय ॥ ९०. तेहथी कार्मण तनु तणों जी, उत्कृष्ट योग विख्यात । असंख्यातगुणो आखिये जी, इम भाखे जगनाथ ॥ ९१. हवी आहारिक मिश्र नों जी, जयन्य जोग ते जोय । असंख्यातगुणो आखियो जी ए जिन वच अवलोय ।। ९२. तेही आहारक मिश्र नों जी उत्कृष्ट योग पिछाण । असंख्यातगुणो खिवं जी ए षष्ठम गुणठाण ॥ ९३. तेही ओदारिक मिथनों जी बैकिय मिश्र नों जोय । उत्कृष्ट योग विहं तुला जी असंख्यातगुणा होय ॥ ९४. तेह की असत्यामृपा जी मन योग नों मान जघन्य जोग कहिये अच्छे जी, असंख्यातगुणो जान ॥ ९५. तेही आहारक तनु तणों जी, जघन्य जोग छ जेह असंख्यातगुणो आखियं जी वारू जिन वन एह ॥ ९६. तेही त्रिविध मनोयोग नों जी वचन योग कुन प्यार । जघन्य योग ए सातू तुला जी, असंख्यातगुणा धार ॥ 1 ९७. तेवी आहारक तनु तणों जी, उत्कृष्ट योग अमंद असंख्यातगुणो आखिये जो इम भाखं जिनचंद || ९. तेही ओदारिक वैक्रिय जी चिरं मन चिरं वच जोग । ए उत्कृष्ट दसूं तुला जी, असंखगुणा सुप्रयोग || , ९९. सेवं भंते ! स्वाम जी सेवं भंते ! स्वाम । पणवीसम शत अर्थ थी जी प्रथम उद्देशक पाम || १००. ढाल च्यार सौ तेतीसमी जी श्रीजिन वचन रसाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी जी, 'जय जय' हरष विशाल ।। पंचविशतितमशते प्रथमोद्देशकार्य ।। २५।१। १० भगवती जोड़ ८३. १२. वेउब्वियमीसासरीरकायजोए १३. आहारगसरीरकाजीर १४. आहारगमीसासरी रकायजोए १५. कम्मासरीरकायजोए । (प्र. २४०६) ४. एस्स! पणरसविहस्स जहणको स जोगस्स करे करेहितो जाव (संपा.) विसेसाहिया वा ? ८५. गोयमा ! १ सव्वत्थोवे कम्मासरीरस्स जहण्णए जोए ८६. २. ओरालियमीसगस्स जहणणए जोए असंखेज्जगुणे ८७. ३. वेउब्वियमीसगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ८८. ४. ओरालियस रस्स जहणए जोए असंखेज्जगुणे ८९. ५. वेउब्वियसरीरस्स जहणए जोए असंखेज्जगुणे ९०. ६. नम्मासरीरस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे ९१. ७. आहारगमीसमस्य जनए जोए अवगुणे ९२. ८ तस्स चैव उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे ९३. ९,१०. ओरालियमी सगस्स, asarमी सगस्स य एएसि णं उक्कोसए जोए दोपहवि तुल्ले असंखेज्जगुणे जहण्णए जीए ९४. ११. असच्चामोसमणजोगस्स अससेजगुणे ९५. १२. आहारासरीरस्य जहए जोए असंखेज्वगुणं ९६. १३-१९. तिविहस्स मणजोगस्स चउब्विहस्स वइजोगस्स एएसि णं सत्तण्ह वि तुल्ले जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ९०. २०. आहारातरीरस्स उक्कोए जोग असेजगुणे ९८. २१-३०. ओरालियस रीरस्स, 1 उब्वियसरी रस्स व्हिस व मणजोगस्स चउव्विहस्स य जोगस्स एएसि दवितुल्ले उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे । (म. २५१७) (श्र. २५००) ९९. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ४३४ दहा १. पूर्व उद्देशक नै विषे, जीव द्रव्य नां जाण । लेश्या प्रमुख तणों जिके, आख्या प्रभु परिमाण ।। २. द्वितीय उद्देश विषे वलि, द्रव्य प्रकार पिछाण । तसु परिमाण कहीजिय, संबंध ए धुर आण ।। द्रव्य के प्रकार ३. कतिविध द्रव्य कह्या प्रभ ! जिन कहै दोय प्रकार । जीव द्रव्य धुर आखियो, अजीव द्रव्य विचार ।। १. प्रथमोद्देशके जीवद्रव्याणां लेश्यादीनां परिमाणमुक्त, (वृ० प० ८५५) २. द्वितीये तु द्रव्यप्रकाराणां तदुच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येमादिसूत्रम् - (व०प०८५५) ४. कतिविध अजीव द्रव्य प्रभु ! जिन कहै द्विविध कहीव । रूपी अजीव द्रव्य फून, द्रव्य अरूपी अजीव ।। ५. इम इण आलावे करी, जिम पन्नवण नां पेख । पवर पंचमा पद विषे, अजीव पजवा देख । ३. कतिविहा णं भंते ! दब्बा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा दवा पण्णत्ता, तं जहा-जीवदव्वा य, अजीवदव्वा य । (श० २५४९) ४ अजीवदब्बा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-रूविअजीव दव्वा य, अरूविअजीवदव्वा य । (श०२५१०) ५ एवं एएणं अभिलावेणं जहा अजीवपज्जवा (पाटि०) 'जहाअजीवपज्जव' त्ति यथा प्रज्ञापनाया विशेषाभिघाने पञ्चमे पदे जीवपर्यवा: पठितास्तथेहाजीवद्रव्यसूत्राण्यध्येयानि, (वृ० प०.८५५) ६ जाव से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ–ते णं नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। (श० २५॥१४) ६. यावत ते तिण अर्थ करि, गौतम ! कहिय एम । पज्जवा संख असंख नहीं, पज्जवा अनंत तेम ।। _ *जय जय वाण जिणंद री रे ।। (ध्रुपदं) ७. हे प्रभुजी ! जीव द्रव्य ते रे, स्यं संख्याता कहिवाय? के असख्याता जीव द्रव्य छ रे, कै अनंता जिनराय ? ८. जिन भाखै संख्याता नहीं रे, असंख्याता पिण नांय । जीव द्रव्य अनंता अछै रे, प्रभु ! किण अर्थ कहिवाय ? ७ जीवदन्वा भंते ! किं संखेज्जा ? असंखेज्जा ? अणंता? ८ गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता । (श० २५।१५) से केणढेणं भंते ! एवं वुच्च इ-जीवदव्वा णं नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता? ९ गोयमा ! असंखेज्जा नेरइया जाव असंखेज्जा वाउक्काइया, अणंता वणस्सइकाइया, १० असंखेज्जा बेदिया, एवं जाव वेमाणिया, अणंता सिद्धा । से तेणठेणं जाव अणंता । (श० २०१६) ९. जिन कहै असंख्याता नेरइया रे, जाव असंख वाउकाय । वनस्पतिकायिक जीवड़ा रे, तेह अनत कहिवाय ।। १०. असंख्याता छै बेइंदिया रे, इम जाव वैमानिक अंत । अनंता सिद्ध सुख आतमी रे, तिण अर्थे जाव अनंत ।। ११. द्रव्याधिकारादेवेदमाह - (वृ० प० ८५६) ११. द्रव्य तणां अधिकार थी, द्रव्य तणोंज विचार । पूछे गोयम गणहरू, उत्तर दै जगतार ।। जीव के अजीव-परिभोग १२.हे प्रभु जी ! जीव द्रव्य नै रे, द्रव्य अजीव छै जेह । सर्वथा भोगपणे तिके रे, शीघ्र उतावला आवेह ॥ . १२. जीवदव्वाणं भंते ! अजीवदवा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? *लय : कामणगारो छै ककड़ो श०२५, उ० २ ढा० ४३४ ११ Jain Education Intemational Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. जिन भाखै जीव द्रव्य नैं रे, अजीव सर्वथा भोगपणे तिके रे, शीघ्र १४. पिण जे द्रव्य अजीब में रे, जीव द्रव्य छै जेह । धकी आवेह || द्रव्य जेह सर्वथा भोगपण तिके रे, शीघ्र थी नहीं आवेह || १५. किण अर्थे भगवंतजी ! रे, इहविध कहियै छै ताय । यावत भोग आ नहीं रे ? उत्तर दे जिनराय ।। १६. जिन भाखे सुण गोयमा ! रे, जीव द्रव्य छै तेह । अजीव द्रव्य प्रतं ग्रहे रे, ग्रहण करी फुन जेह ॥ १७. ओदारिक तनु प्रति तिके रे, वैक्रिय प्रति अवलोय । आहारक तेजस तनु प्रतं रे फुन कार्मण प्रति सोव ॥ १८. पांचूई इंद्रिय प्रतं रे योग तीनूं प्रति ताम । आणापाणपणां प्रति रे, निपजावे जीव आम || १९. तिण अर्थे जावत कह्यं रे, शीघ्रपणे नांव ताय । अजीव आवं भोग जीव रे रे, अजीव र जीवन आय ॥ | वा० इहां जीव द्रव्य परिभोजक छे । परिभोजक ते भोगवणवाला है । तेह सचेतनपण करी पुद्गल द्रव्य प्रतं ग्रहण करें, ते ग्राहकपणां थकी । अन अजीव द्रव्य ते परिभोग्य छ । परिभोग्य ते भोगविवा योग्य छ । अचेतनपणां की पहिला योग्यपणां धकी ते मार्ट जीव द्रव्य में अजीव द्रव्य परिभोगप आवै, पिण अजीव द्रव्य परिभोगपणे नहीं आवे । चौबीस दण्डकों के अजीव परिभोग २०. नेरइया रे भगवंत जी रे, अजीव द्रव्य सुप्रयोग। शीघ्र परिभोग आवे अछे रे, के अजीव र भोग ? २१. जिन भा नेरइया तणें रे, अजीव द्रव्य जे ताय । परिभोग शीघ्र आवै अछे रे, अजीब रे नेरझ्या नहि आय ।। २२. किण अर्थे तब ? जिन कहै रे, नेरइया अजीव द्रव्य ग्रहंत । अजीब द्रव्य ग्रही करी रे, वैक्रिय तेजस कम्मग संत ॥ २३. श्रोदय जाव आणापाणु रे, तेह प्रतै निपजावंत । तिण अर्थे करि गोयमा ! रे, कहियै एम उदंत २४. एवं जाव वैमाणिया रे, नवरं तनु इंद्रिय जोग जेह दंडक विषे तिके रे, जाण देवा प्रयोग || दूहा २५. द्रव्य तणां अधिकार थी, द्रव्य पूछे गोयम गणहरू, जिन *लय : कामणगारो छँ कूकड़ो १२ भगवती जोड़ तणोंज विचार | उत्तर दे सार ॥ १३. गोपमा ? जीवदन्याणं अजीवदन्या परिभोगताए हव्यमागच्छति १४. नो अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति । ( श० २५/१७) १५. से एवं पद जाव (सं० पा०) मागण्ठति? १६ गोयमा ! जीवदव्वा णं अजीवदव्वे परियादियंति, परिवादिहता १७. ओरालियं वेउव्वियं आहारगं तेयगं कम्मगं, १८. सोइंदियं जाव फासिदियं, मणजोगं वइजोगं कायजोगं, आणापाणुत्तं च निव्वत्तयति । १९. से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जीवदव्वाणं अदम्बा परिभोगताएं हवमागच्छति, नो अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति । (श० २५०१०) वा० - जीवदव्वाणं भंते ! अजीवदव्वे' त्यादि, इह जीवद्रव्याणि परिभोजकानि सचेतनत्वेन ग्राहकत्वात् इतराणि तु परिभोग्यान्यचेतनतया ग्राह्यत्वादिति । (१० १०५६) २०. नेरइयाणं भंते ! अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति ? अजीवदव्वाणं नेरइया परिभोगत्ताए मागच्छति ? २१. गोयमा ! नेरइयाणं अजीवदव्वा परिभोगताए त्वमागत नो अजीवदव्वाणं नेरइया परिभोगत्ताए वमागच्छंति । ( श० २५।१९ ) २२. से के? गोयमा ! नेरइया अजीवदव्वे परियादियंति, परियादिइत्ता वेउब्विय-तेयग-कम्मगं, २३. सोइंदियं जाव फासिदियं, आणापाणुत्तं च निव्वत्तयति । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वच्चइनेरइयाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, नो अजीवदव्वाणं नेरइया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति । २४. एवं जाव वेमाणिया, नवरं - सरीरइंदियजोगा भाणियव्वा जस्स जे अस्थि । (०२५४२०) २५. द्रव्याधिकारादेवेदमाह- ( वृ० १० ८५६) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. से नूणं भंते ! असंखेज्जे लोए अणंताई दवाई आगासे भइयव्वाइं? 'आगासे भइयव्वाई' ति भक्तव्यानि' भर्त्तव्यानि धारणीयानीत्यर्थः, (वृ. प. ८५६) २७. पृच्छतोऽयमभिप्रायः ---कथमसंख्यातप्रदेशात्मके लोका काशेऽनन्तानां द्रव्याणामवस्थानं ? (व. प. ८५६) २८. हंता गोयमा ! असंखेज्जे लोए अणंताई दव्वाई आगासे भइयव्वाइं। (श. २५।२१) २९. 'हंता' इत्यादिना तत्र तेषामनन्तानामप्यवस्थानमा वेदितम्, आवेदयतश्चायमभिप्रायः--(वृ. प. ८५६) ३०,३१. यथा प्रतिनियतेऽपवरकाकाशे प्रदीपप्रभापुद्गलपरिपूर्णेऽप्यपरापरप्रदीपप्रभापुद्गला अवतिष्ठन्ते (वृ. प. ८५६) लोक में अनन्त द्रव्यों का अवगाह २६. *हे प्रभु ! तेह निश्चै करी रे,असंख प्रदेशिक लोक माय। द्रव्य अनंता आकाश रे, भरिवू धारिवू थाय ? सोरठा २७. इहां पृच्छक अभिप्राय, असंख प्रदेशिक लोक नां । ___ आकाशे किम थाय, रहिवू अनंत द्रव्य नुं । २८. *जिन कहै हंता गोयमा ! रे, असंख प्रदेशिक लोक माय। जाव भरिवू धारिवू हुवै रे, निसुणो तेहनु न्याय ।। सोरठा २९. ते लोकाकाश विषह, तेह अनंता द्रव्य न । रहिवू आख्यू जेह, ते जिन नुं अभिप्राय ए। ३०. जिम प्रतिनियत तास, ओरा नां आकाश में । दीपक प्रभा प्रकाश, पुद्गल प्रतिपूर्ण अपि ।। ३१. अपर-अपर फुन जोय, दीपकप्रभा तणां जिक । पुद्गल तिष्ठ सोय, प्रत्यक्ष ही अवलोकिय ।। ३२. तिण प्रकार विधिहीज, जे पुद्गल परिणाम नां । समर्थपणां थकीज, असंख प्रदेशिक लोक मे ।। ३३. तेहिज-तेहिज ताम, प्रदेश विष जे द्रव्य न । तथाविध परिणाम बस करिने रहिवा थकी ।। ३४. अनंत नों पिण सोय, रहिव छ ते द्रव्य न । इण न्याये करि जोय, विरुद्ध नहीं ए वचन में ।। वा० --अणंताई दवाइं आगासे भइयव्वाई ! हंता गोयमा ! -इहां गोतम पूछयो -असंख्यात प्रदेशात्मक लोक में जीव, परमाणु आदिक अनंता द्रव्य आकासे भइयवाई-आकाश नै भरिवो हुदै, आकाश नै धरिवो हुवै ? आगासे इहां सप्तमी विभक्ति छ, ते छठी विभक्ति नां अर्थ नं विष छ। बले ए प्रश्न काकु पाठ पूछचो । काकु पाठ किणन कहिय ? वक्रोक्ति नै कहियं , इहां वक्रोक्ति इम छै—इहां पृच्छक नों ए अभिप्राय-असख्यात प्रदेशात्मक लोकाकाश नै विषे अनंता द्रव्य नों रहिवो किम हुवै ? ए वक्रोक्ति प्रश्न । उत्तर-हां गोतम ! असंख्यात प्रदेशात्मक लोकाकाश नै विषे अनंता द्रव्य नों अवस्थान छै, इसो का ते उत्तर देणहार नों ए अभिप्राय जिम प्रतिनियत अपवरक आकाश नै विषे दीवा नी प्रभा नां पुद्गल परिपूर्ण छता पिण अपर-अपर प्रदीप प्रभा नां पुद्गल रहै, तथाविध पुद्गल परिणाम समर्थपणां थकीज । इम असंख्यात लोक छै, ते पिण तेहिज-तेहिज प्रदेश नै विषे द्रव्य नां तथाविध परिणाम वसे करी अवस्थान थकी अनंता द्रव्य नों पिण अवस्थान छ, पिण विरोध नथी।' असंख्यात लोक नै विषे अनंत द्रव्य नों अवस्थान कह्यो, तेह एकेक प्रदेश नै विषे चयउपचयादिवंत हुवै । एतला माटै कहै छै* लय : कामणगारो छ कूकड़ो १. टीका के जिस पाठ को आधार मानकर वातिका लिखी गई है, वह २९ से ३४ तक की गाथाओं के सामने उद्धृत है। इसलिए यहां उसे नहीं लिया गया ३२. तथाविधपुद्गलपरिणामसामर्थ्यात् एवमसङ्ख्यातेऽपि लोके (वृ. प. ८५६) ३३,३४. तेष्वेव तेष्वेव प्रदेशेषु द्रव्याणां तथाविधपरि णामवशेनावस्थानादनन्तानामपि तेषामवस्थानमविरुद्ध मिति । (वृ. प. ८५६) वा०-असङ्ख्यातलोकेऽनन्तद्रव्याणामवस्थानमुक्तं, तच्चैकैकस्मिन् प्रदेशे तेषां चयापचयादिमद्भवतीत्यत आह (वृ. प ८५६) श०२५, उ०२, ढ०४१३४ १३ Jain Education Intemational Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल चयादि ३५. हे भगवंत ! जे लोक नो रे, एक आकाश प्रदेश | तेह विषे कति दिशि थकी रे, पुद्गल आय चिणेस ? - ३६. जिन कहै निर्व्याघाते करी रे, पुद्गल आवी चिणाय छै रे, ३७. व्याघात आथयी ने कदा रे, कदाचि दिशि नां आवी चिणें रे, कदा पंच दिशि नां चिणाय । ३८. हे भगवंतजी ! लोक नां रे, इक नभ प्रदेश विषय | केतली दिशे पुद्गल ह्वै जुदा रे ? एवं चेय कय ॥ षट दिशि नों पहिछाण । लोक नों मध्य इह जाण ॥ त्रिहं दिशि नां चिणें आय । ३९. इमहिज उपचय वृद्धि रे, पुद्गल खंध रूप सोय । अन्य पुद्गल तो मिलाप भी रे, उपचित बुद्धज होय ॥ नां ४०. इमहिज अपचय आखिये रे तास प्रदेश छूटवे करी रे, बंध रूप हिज एह । हीन हुवे बंध जेह ॥ चूहा ४१. द्रव्य तणां अधिकार थी, आगल पिण अवलोय । प्रश्नोत्तर छे द्रव्य नों, सांभलजो सह कोय ॥ पुद्गल-ग्रहण ४२. * हे प्रभु ! जीव जे द्रव्य ने रे, ओदारिक शरीरपणेह । तिण करि ग्रहण करी तिके रे, स्यूं स्थित ग्रह के अस्थित लेह ? सोरठा । ४३. जीव प्रदेशज जेह, अवगाह्यो क्षेत्र में । भितर रह्या ग्रह स्थित पुद्गल कहिये तमु ॥ ४४. जीव प्रदेश कहेह, अवगाह्या जे क्षेत्र में । तास अनंतर जेह. अस्थित पुद्गल ते कह्या ॥ ४५. ते फुन ओदारीक, तनु परिणाम विशेष थी। आकृष्य ग्रह सधीक स्थित अस्थित पुद्गल प्रतं ॥ ४६. अन्य कहे इह रीत स्थित जिके कप नहीं तेह की विपरीत, कंपे ते अस्थित अछे || ४७. जिन कहै स्थित पिण द्रव्य ने रे, ग्रहण करें छं ताय । अस्थित द्रव्य पिग ग्रहै बलि रे, बुद्धिवंत मेले तसु न्याय ।। ४८. ते प्रभु ! स्यूं है द्रव्य थी रे, के क्षेत्र भी ग्रहण करेह । काल की ग्रहै छै तिके रे, भाव थकी ग्रहै जेह ? * लय कामणगारो छँ कूकड़ो १४ भगवती जोड ३५. लोगस्स णं भते ! एगम्मि आगासपदेसे कतिदिसि पोग्गला चिज्जंति ? 'कतिदिसि पोग्गला चिज्जंति' त्ति कतिभ्यो दिग्भ्य आगत्यैकत्राकाशप्रदेशे चीयन्ते लीयन्ते (बृ. प. ८५६) ३६. गोमा निव्यापारणं परिसि ३७. वाघाय पडुच्च सिय तिदिसि सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसि । (म. १२०२२) ३८. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपदेसे कतिदिसिं पोग्गला छिज्जंति ? एवं चेव । 'छिज्जति' त्ति व्यतिरिक्ता भवन्ति । ( वृ. प. ८५६ ) ३९. एवं ति 'उवचिज्जंति' त्ति स्कन्धरूपाः पुद्गलाः पुद्गलान्तरसम्पदुपचिता भवन्ति । ( वृ. प. ८५६, ८४७ ) ४०. एवं अवचिज्जति । (अ. २५।२३) 'अवचिज्जंति' त्ति स्कन्धरूपा एव प्रदेशविचटनेनापचीयन्ते । (बु.प. ८५७) ४१. द्रव्याधिकारादेवेदमाह (वृ. प. ८५७) ४२. जीवे णं भंते ! जाई दव्वाई ओरालियसरी रत्ताए गेहइ ताई कि ठियाई गेण्ड्इ ? अट्टियाई गेण्हइ ? ४३. 'ठियाई' ति स्थितानि किं जीवप्रदेशावगाढक्षेत्रस्याभ्यन्तरवर्तीनि (4.4.x0) ( वृ. प. ८५७) ४४. अस्थितानि च तदनन्तरवर्तीनि ४५. तानि पुनरौदारिकशरीरपरिणामविशेषादाकृष्य ( वृ. प. ८५७) यानि नैजन्ते (वृ. प. ८५७) गृह्णाति ४६. अन्ये त्वाहुः स्थितानि तानि तद्विपरीतानि त्वस्थितानि, ४७. गोयमा ! ठियाई पि गेण्हइ, अट्टियाई पि गेहइ । (श. २५।२४) ४८. ताइं भंते! कि दव्वओ गेण्हइ ? खेत्तओ गेण्हइ ? कालओ गेष्ट ? भाव ? Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९. जिन कहै द्रव्य थकी ग्रहै रे, खेत्र थकी पिण ग्रह । ग्रहण करै वलि काल थी रे, भाव थी ग्रहण करेह || ५०. द्रव्य श्री अनंत प्रदेशिया रे, द्रव्य प्रतैज ग्रह । क्षेत्र थी असंख प्रदेश जे रे, अवगाया प्रति लेह ॥ ५१. इम जिम पन्नवणा सूत्र नां रे, पद अठवीसम पेख । प्रथम आहारक उद्देशक विषे रे, आथ्यो तिमज उवेख || ५२. यावत निर्व्याघाते करी रे, पट दिशि नां द्रव्य ग्रह । व्याघात आथयो ने कदा रे, हिं दिशि नां द्रव्य लेह ॥ ५३. कदाचित चि दिशि तणां रे, ग्रहण करे द्रव्य जेठ । कदाचित पंच दिशि तणां रे, द्रव्य प्रतै जु ग्रहेह || ५४. जीव प्रभुजी ! जे द्रव्य ने रे, क्रिय शरीरपणेह | ग्रहण कर से स्यूं स्थित ग्रह रे, के अस्थित ग्रहण करेह ? ५५. एवं चेव कहीजिये रे, नवरं नियमा कहेह | छ दिशि नां पुद्गल हे रे, इम आहारक तनुपणेह ॥ सोरठा ५६. वि ने आख्यात पट दिशि ना पुद्गल ग्रहे । बहुलपणे ते मात, वंत्रिय पंचिद्रिय विषे ।। ५७. ते त्रस नाड़ी मांहि पट दिशि अलोके करी । नहीं बींटी छै ताहि, तिण सूं षट दिशि नों कह्यो । ५८. ते फुन वायूकाय, छै त्रस नाड़ी बाहिरे । पण वैक्रिय शरीर पाय, नहिं वंछयो ! अप्रधान थी । ५९. अथवा फुन लोकंत, निष्कुटे निष्कुटे वाउकाय नं । वैक्रिय तनु नवि त वृत्ति विषे वे अर्थ इम ।। ६०. जीव प्रभु ! जे बहु द्रव्य ने रे तेजस शरीरपणेह । ग्रहण करें इत्यादि पूछियां रे, श्री जिन उत्तर देह || ६१. ठिआई द्रव्य प्रतै ग्रहै रे, अठियाई ते ग्रहै नांय | शेष ओदारिक शरीर नैं रे, आख्यो जिम कहिवाय ।। 1 * सोरठा ६२. तेजस जीव सूत्रे क्षेत्र ताह, अवगाह, ६३. अस्थित न ताम तसु खांचण परिणाम, तेह ६४. अथवा स्थित स्थिर ताहि, अस्थिर प्रहेज नांहि * लय कामणगारो छं कूकड़ो : टिआई है दम को । भ्यंतरभूत प्रतंज ग्रहे ॥ न ग्रह तदनंतरवति । तणांज अभाव थी ।। ग्रहण करें ते द्रव्य प्रति । तथाविध स्वभाव थी । ४९. गोयमा ! दव्वओ वि गेण्हइ, खेत्तओ वि गेण्हइ, कालओ वि गेहइ, भावओ वि गेण्हइ । ५०. ताइं दव्वओ अणतपदेसिया इं दवाई बेतव खेत्तओ असंखेज्जपदेसोगाढाई - ५१. एवं जहा पण्णवणाए पढने आहासए (२८१५-१९ ) ५२. जाव निव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिविधि, ५३. सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसि । ( . २५/२५) ५४. जी भाई उब्वियसरीरत्ताए हर साई कि ठियाई गेव्हर ? अट्टियाई गेव्ह ? ५५. एवं चेव, नवरं नियमं छद्दिसि । एवं आहारगसरीरत्ताए वि । ( . २५२६) ५६. वैक्रियशरीराधिकारे 'नियमं छद्दिसि' ति यदुक्तं तत्रायमभिप्रायः - वैक्रियशरीरी पञ्चेन्द्रिय एव प्रायो भवति । (बृ. प. ९५७) ५७. स च त्रसनाड्या मध्ये एव तत्र च षण्णामपि दिशामनावृतत्वमलोकेन विवक्षितलोकदेशस्येत्यत उपते'नियम'ति, (पू. प. ५८. यच्च वायुकायिकानां त्रसनाड्या बहिरपि वैक्रियशरीरं भवति तदिह न विवक्षितं अप्रधानत्वात्तस्य, (बृ. प. ८५७) ५९. तथाविधलोकान्तनिष्कुटे वा वैक्रियशरीरी वायुर्न संभवतीति । ( वृ. प. ८५७) ६०. जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं तेयगसरीरत्ताए गेहइ - पुच्छा । ६१. गोयमा ! ठियाई गेण्हइ, नो अट्टियाई गेण्हइ । सेसं जहा ओरालियरीस्स । ६२. ससूत्रे ठियाई गेव्हई ति जीवावगाहक्षेत्रा म्यन्तरीयेति । त्ति न (बृ.प.५७) तदनन्तरवर्तीनि ६३. 'नो अठियाई गिण्हइ' गृह्णाति तस्याकर्षपरिणामाभावात् । ( वृ. प. ८५७) ६४. अथवा स्थितानि स्थिराणि गृह्णाति नो अस्थितानि अस्थिराणि तथाविधस्वभावत्वात् ( वृ. प. ८५७) श० २५, उ०२, ढा० ४३४ १५ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. • कार्मण ६६. एवं यावत जाणवं रे, स्यूं एकप्रदेशिक प्रतिग्रहै रे, शरीरपणे हे रे डिवाई द्रव्य प्रतं हे रे, ६७. इम जिम पन्नवणा सूत्र नां रे, एकादशम संगीत । भाषा पद नै विषे कह्यो रे, तिम कहिवो वर रीत ॥ ६. जाव अनुक्रम प्रति ग्रह रे, अनुक्रम उलंधी ग्रह नहीं रे, ६९. ते प्रभु! कति दिशि नां ग्रहे जिम ओदारिक तनु विषे रे, पिण अनानुपूर्वी ग्रहे नांव एतला लगे कहियो ताय ॥ ? जिन कहे निर्व्यापाते। आख्युं तिम कहि एह । रे ७०. जीव प्रभु! जे वह द्रव्य प्रति रे, ग्रहे श्रोतेंद्रियपणे ? बहु जिम को वैक्रिय तनु विषे रे, कहिवुं तिमहिज एह । सोरठा ७१. जिम वैयि तनु निश्च षट दिशि एवं चैव कहिवाय । अठियाई अहे नांय ॥ भाव थी पिण तेह कै बेप्रदेशिक प्रति ग्रहेह ? ७२. अस नाही रे मांहि, त्रस छै । श्रोतेंद्रिय द्रव्य ग्रहण पिण चिह्नं पंच दिशि नाहि, व्याघातपणां नां अभाव थी । ७३. * एव जावत जाणं रे, स्थितास्थित द्रव्य नैं ग्रहै रे, ७४. फर्शो द्रिपण जे ग्रहै रे, तेम इहां कहिवो सही रे, ख्यात स्थितास्थित अन्य ग्रहे । थात, तिमहिज श्रोतेंद्रियपणें ॥ 1 १६ वा० इहां कह्यो फासेंदियपण जे द्रव्य प्रतै ग्रहै ते जिम ओदारिक शरीर नैं का, तिम कहिवुं । तेहनुं ए अर्थ फासेंद्रियपणे ओदारिक नी पर द्रव्य ग्रहण करें जिम ओदारिक शरीर स्थित अस्थित द्रव्य प्रत निर्व्याघाते षट दिशि नां, व्याघाते कदा त्रिण, चिउ, पंच, दिशि नां द्रव्य ग्रहे । तिमहिज फासेदियपण लोकांते एकेंद्रिय में फसेंद्रिय मा ७५. मनयोगपणं जे हे रे, जिस ग्रहै रे, जिम नवरं निश्वं छह दिशि नां ग्रहे रे, लय: कामणगारो छं कूकड़ो भगवती जोड़ ग्रहै जिब्भिदियपणेह | निश्चै छह दिशि तणां लेह || ओदारिक जिम ख्यात । श्री जिन वचन सुजात ॥ वा० मनोयोगपण करी तिण प्रकार करिकै द्रव्य प्रति ग्रहण करें । जिम कार्मण नै स्थित द्रव्य नों ईज ग्रहण हुवै, अस्थित नों न हुवै। तिम मनोजोग नों पण जाणवुं । केवल ते कार्मण ने विषे व्याघात करिकै इत्यादिक कां । अनं इहाँ निर बकी यह दिशि नों कहियो नाही मध्यईज मनोद्रव्य ग्रहण भाव थकी त्रस नाड़ी बाहिर मनोद्रव्य ग्राही नथी । इमज वचन जोग जाणवुं । कार्मण तनु कहेह | इम यच योगपणेह ।। ६५. कम्मगसरीरे एवं चेव । ६६. एवं जाव भावओ वि गेण्हइ । (Mr. RXIRU) जाई दव्वाई दव्वओ गेण्हइ ताई कि एगपदेसियाई गेहइ ? दुपदेसियाई गेण्हइ ? ६७. एवं जहा भासापदे (१११४८-६८ ) 'जहा भासापदे' त्ति यथा प्रज्ञापनाया एकादशे पदे तथा वाच्यं, ( वृ. प. ८५७) ६८. जा आपुहिनो अगापुचि गेष्टइ। (२५०२८) ६९. ताई भंते ! कतिदिसि गेण्हइ ? गोयमा ! निव्वाघाएणं जहा ओरालियस्स । ( १.२५०२९) ७०. जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं सोइंदियत्ताए गेण्हइ ? जहा वेउब्वियसरीरं । (4.9. =x0) ७१. 'जहा वेडव्वियसरीरं' ति यथा वैक्रियशरीरद्रव्यग्रहणं स्थितास्थितद्रव्यविषयं षदिक्कं च एवमिदमपि, (बृ. प. ८५७) ७२. श्रोत्रेन्द्रियद्रव्य ग्रहणं हि नाडीमध्य एव तत्र च 'सिय तिदिसि' मित्यादि नास्ति व्याधाताभावादिति । (वृ. प. ८५८) ७३. एवं जाव जिब्भिदियत्ताए । ७४. फासिंदियत्ताए जहा ओरालियसरीरं । वा० 'फासिंदियत्ताए जहा ओरालि यसरीरं' ति, अयमर्थ:-स्पर्शनेन्द्रियतया तथा द्रव्याणि गृह्णाति यथोदार स्थितास्थितानि षड्दिगागतप्रभृतीनि चेति भावः ( वृ. प. ८५८) ७५. मणजोगत्ताए जहा कम्मगसरीरं, नवरं नियमं छसि । एवं वइजोगत्ताए वि । बा० मगनोगत्ताए जहा कम्मगसरीरं नवरं नियमं छद्दिसि' ति मनोयोगतया तथा द्रव्याणि बृह्णाति यथाकामं स्थितान्येव गृह्णातीति भाव:, केवलं तत्र व्यापातेनेत्या इह तु नियमात् पदिशीत्येवं वाच्यं नाडीमध्य एवं मनोद्रव्य ग्रहणभावात्, अत्रसानां हि तन्नास्तीति ताविति मनोद्रव्यवागद्रव्याणि 1 एवं वइजोगहातीत्यर्थः ( वृ. प. ८५८) 1 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. काय जोगपणे जे ग्रहै रे, जेम स्थित अस्थित द्रव्य में ग्रह रे, ७७. उश्वासनिश्वासपणं ग्रहै रे जाव कदा पंच दिशि तणां रे ७८. केक चडवीस दंडके रे जेहमें जेह पावै अछे रे, वा० केइ एक चडवीस दण्डके एह पदे कहै तिहां पंच शरीर, पंचेंद्रिय, तीन योग, आनप्राण ए सगलाई चव पद हुवै। तिवारी ए आश्रयी ने चवद दण्डक हुवे । जेहन जेह छ, तेह कहे छ । हा १. , द्वितीय उद्देशक ने विषे तेहने विषे बलि का संस्थानवंत २. बहुलप ७९. द्वितीय उदेश पणवीस नों रे, च्यारसौ चोतीसमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय जय' मंगलमाल || पंचविंशतितमशते द्वितोयोद्देशकार्यः || २५|२॥ ते मार्ट संस्थान ओदारिक ख्यात । व्यापात नं निर्व्यापात ॥ ओदारिक जिम मंत । सेवं भंते! सेवं अंत ! संस्थान के प्रकार ए पद चउदम पभणंत । कह्यं तेह उदंत ॥ ३. प्रभु ! संस्थानज केतला, जिन भाखं संठाण पट ढाल : ४३५ द्रव्य कह्या छै सोय । पुद्गल द्रव्यज जोय || हवे तिके अवधार । हिव, पुद्गल नों आकार ॥ खध तणां आकार ? परिमंडल धार ।। धुर व्यंस सिघाड़ाकार । दंडाकार || आयत ४. वृत्त लाडु आकार वलि, चोकीवत चरस फुन, ५. अनित्यंस्व षष्ठम का ए पांच थी प्यार । परिमंडल प्रमुखज थकी, ए व्यतिरिक्त विचार ।। वा० इत्थं कहितां एणे प्रकार परिमंडलादिके करी रहै ते इत्थंस्थ कहिये । नहीं इत्थंस्थ ते अनित्थंस्थ कहिये, परिमण्डलादिव्यतिरिक्त इत्यर्थः । ७६. कायजोगाए ७७. जीवे णं भंते ! गेहइ ? जहेव पंचदिसि । ओरालियस रस्स । ( म. २५/३०) जाई दब्वाई आणापाणुत्ताए ओरालियसरीरत्ताए जाव सिय (. २५०३१) (. २५०३२) जहा सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । वा० -'केइ' इत्यादि तत्र पञ्च शरीराणि पञ्चेन्द्रियाणि त्रयो मनोयोगादयः आनप्राणं चेति सर्वाणि चतुर्दश पदानि तत एतदविताश्चतुर्द दण्डका भवन्तीति । ( वृ. प. ८५८) १. द्वितीयायुक्तानि तेषु च पुद्गला उक्ता: (बृ.प.२०) २. ते च प्रायः संस्थानवन्तो भवन्तीत्यतस्तृतीये संस्थानान्युच्यन्ते, (बृ. प. ५८) ५. अणित्थंथे । ३. कति णं भंते ! संठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! छ संठाणा पण्णत्ता, तं जहा - परिमंडले, संस्थानानि - स्कन्धाकाराः । (बृ. प. ८५०) ४ वट्टे, तसे, चउरसे, आयते, (श. २५/३३ ) वा०--- 'अणित्थंथे' त्ति इत्थम् अनेन प्रकारेण परिमण्डलादिना तिष्ठतीति इत्थंस्थं न इत्थंस्थमनित्थंस्थं परिमण्डलादिव्यतिरिक्तमित्यर्थः (बृ. प. ५८) श० २५. उ०३, ढा० ४३५ १७ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थानों का अल्पबहुत्व प्रस्यार्थ प्रदेशार्थ की अपेक्षा से ६. * परिमंडल संठाणवंत प्रभु ! दव्वट्टयाए जाणी जी । व्य रूप जे अर्थ प्रति आश्रयी कितला का पिछाणी जी ? कां ।। षट संठाण तणोंज व्रतंतो, सांभलजो घर खंतो जी || ( ध्रुपदं ) ७. ते द्रव्यार्थपणे करिने स्यूं संख्याता छै सोयो जी ? कै परिमंडल असंख्यात छै, तथा अनंता होयो जी ? कांइ ॥ ८. श्री जिन भाखै नहि संख्याता, असंख्यात नहि कोई जी । परिमंडल संठाण अनंता, प्रश्न वट्ट हिव जोई जी, कांइ ॥ ९. हे प्रभुजी ! ठाण वह जे एवं चैव कहायो जी एवं जावत अणित्थंस्थ कहिये, द्रव्य थकी ए पायो जी, कांइ ॥ १०. प्रदेशअर्थपणे पण इमहिज, उभय थकी पिण एमोजी । , तेह द्रव्यार्थ अ प्रदेशज अर्थपण करि तेमो जी, कांइ ॥ ११. हे प्रभुजी ! परिमंडल ने वट्ट, त्र्यंत अने चउरंसो जी । आयत नै अणित्थंस्थ तणुं जे अल्पबहुत्व नों संचोजी, कांइ ॥ १२. अर्थ प्रदेश अर्थ करि उभव अर्थ भावेहो जी कुणकुण की अल्प बहु तुल्य है, १४. विशेष अधिक कहो जी ? कांइ ॥ १३. श्री जिन कहै सर्व थी थोड़ा, परिमंडल संठाणो जी । द्रव्य अर्थ करिन ए आख्या, वारू रीत पिछाणो जी, कांइ ॥ ठाणापणं करि, संखगुणां अवलोई जी । चरं द्रव्य संख्यातगुणांछे सोई जी, कांइ ॥ १५. तंस संठाण द्रव्यार्थपणे करि, संखगुणां छै ताही जी । आयत पण द्रव्यार्थपणे, संख्यातगुणां कहिवाई जी, कांइ ॥ १६. अणित्वस्थं संागज उठो द्रव्यापण करि जेहो जी । तेह पकी असंख्यातगुणो छे, हिव तर न्याय सुणे हो जी, कांद 7 1 वा० सर्व थी थोड़ा परिमंडल संठाण द्रव्यार्थपणें करि ते किम इहां जेह संस्थान जे संस्थान नीं अपेक्षाये बहुतर प्रदेशावगाढ हुवं, तेह संस्थान तेहनी अपेक्षाये थोड़ा कहिये, तथाविध स्वभावपण थकी तिहां परिमंडल संस्थान जघन्य थकी पिण बीस प्रदेशावगाढ थकी बहुतर प्रदेशावगाही हुवै ते मार्ट सर्व स्तोक | अन वृत्त, चउरंस, व्यंस, आयत ए प्यार संस्थान अनुक्रमे पंच, व्यार, तीन, दोय प्रदेशावगाही जघन्य थकी हुवै तिहां वृत्त संस्थान नां जघन्य थकी पिण पंच प्रदेशावगाही हुवै । इम चउरंस च्यार प्रदेशावगाही, त्यंस तीन प्रदेशावगाही, आयत दोय प्रदेशावगाही जघन्य थकी पिण हुवै ते मा अल्प प्रदेशावगाही ते माटै सर्व थकी परिमंडल ने बहुतर प्रदेशावगाहीपणां थकी परिमंडल संस्थान सर्व थी थोड़ा १ तेहथी अनुक्रमे घणां संख्यातगुणा ते कहै छ तेहथी वृत्त संस्थान द्रव्य संख्यातगुणा २ । तेहवी चउरंस संस्थान द्रव्यार्थिक * लय : सर्वार्थसिद्ध रे चंद्र कांइ १८ भगवती जोड़ ६. परिमंडला णं भंते ! संठाणा दव्वट्टयाए कि 'परिमंडला में भंते! संठाण' त्ति परिमंडलसंस्थानवन्ति भदन्त ! द्रव्याणीत्यर्थः द्रव्यरूपमर्थमाश्रित्येत्यर्थः । ७. संखेज्जा ? असंखेज्जा ? अनंता ? गोगा ! नो नो असंखेज्जा, अनंता । ( . २५/३४) ९. वट्टा णं भंते ! संठाणा ? एवं चेव । एवं जाव अणित्थंथा । १०. एवं पसट्टयाए वि । एवं दब - एसट्टयाए वि । (. २५०३५) 'पसट्टयाए' त्ति प्रदेशरूपमर्थ माश्रित्येत्यर्थः 'दव्वट्टएसएस दुभयमाश्रित्येत्यर्थः (बु. प. ०५८) ११. एएस ते परिमंडल-उस- आपअणित्थंथाणं संठाणाणं 'दबाए' ति (बृ. प. ८५८) १२. दव्वट्टयाए पएसटुयाए कयरेहितो अप्पा वा ? साहियावा ? १३. गोयमा ! सव्वत्योवा परिमंडलसंठाणा दव्वट्टयाए, दब्बट्ट - पए सट्टयाए कयरे वा ? तुल्ला वा ? बहुया १४. बट्टा ठाणा या संज्जगुणा, चउरंसा संठाणा दवाए गुणा, १५. तसा संठाणा दव्वट्टयाए संखेज्जगुणा, आयता संठाणा दव्या संखेज्जगुणा, १६. ठाणा दन्दुमाए अज्जगुणा । बा० - 'सव्वत्थोवा परिमंडलसंठाणे' ति इह यानि संस्थानानि वासंस्थानापेक्षा बहुतरप्रदेशावाहीनि तानि तदपेक्षा स्तोकानि तथाविधस्वभावत्या त च परिमण्डलसंस्थानं जघन्यतोऽपि विंशतिप्रदेशाबगाहाहुतरप्रदेशावनाहि वृत्तचतुरखव्यसायानि तु क्रमेण वथन्यतः पञ्चतुस्त्रि प्रदेशवाहित्वादत्पप्रदेशावनाहीन्यतः सर्वेभ्यो वहुतरप्रदेशावगा हित्वात्परिमण्डलस्य परिमण्डलसंस्थानानि सर्वेभ्यः सकाशात्स्तोकानि । तेभ्यश्च क्रमेणान्येषामल्पाल्पतरप्रदेशावगाहित्यात्क्रमेण बहुतरत्वमिति समेय गुणानि तान्युक्तानि Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण संख्यातगुणा ३ | तेहथी त्यस संस्थान द्रव्यार्थपण करी संख्यातगुणा ४ । तेहथी आयत संस्थान द्रव्यार्थपण करी संख्यातगुणा जाणवा ५ । " तेही अणित्थंस्थ द्रव्यार्थपण करी असंख्यातगुणां ते किम १ उत्तर - परिमंडलादिक नां द्वयादिक संयोगे करि अणित्थंस्थ संस्थान नीं निष्पत्ति हुवै ति कारणे परिमंडलादिक थी अणित्थंस्थ संस्थानवंत अति ही घणां हुवै, इम करीन असंख्यात का। 1 १७. प्रदेशार्थ करी सह थी घोड़ा, परिमंडल संठाणो जी । वठाण प्रदेश की संख्यातगुणां पहिछाणो जी, कांइ ॥ १८. जिम इवार्थपणे करि आख्या प्रदेश थी पिण तेमो जी । यावत अणित्त्या प्रदेश थी, असंखगुणां एमो जी, कांइ ॥ १९. द्रव्य अर्थ प्रदेश अर्थ ए. उभय आथयी ताह्यो जी। सर्व थकी थोड़ा परिमंडल, द्रव्य अर्थ करि पायो जी, कांइ ॥ २०. तेहि द्रव्यार्थपर्णे गम भणवो, जाव अणित्थत्थ जाणी जी । द्रव्य अर्थ भावे करि नैं ते, असंखगुणां पहिछाणी जी, कांइ ॥ २१. द्रव्य अर्थ करि अणित्थत्थ थी, परिमंडल संठाणो जी । प्रदेश अपर्ण करि ने ते असंखगुणा एजाणो जी, कांइ ॥ २२. वट्ट संठाण प्रदेश आश्रयी, असंख्यातगुणां' होई जी । तेहिज प्रदेश अर्थ करीनें, आलावो अवलोई जी, कांइ ॥ २३. जावत अणित्थत्थ संठाणज, प्रदेश आश्रयीपणेहो जी । असंख्यातगुणां जे आख्या, पूर्वली परि हो जी, कांइ ॥ वा० - प्रथम द्रव्य आश्रयी अल्पबहुत्व कही। दूजी प्रदेश आश्रयी अल्पबहुत्व कही । तीजी द्रव्य- प्रदेश आश्रयी अल्पबहुत्व कही । सोरठा २४. सामान्य थी आख्यात, ए संस्थान विशेष थी हिव आत, रत्नप्रभादि परूपणा । अपेक्षया || १. इहां द्रव्यार्थपणे जे अनित्थंत्थ संठाण छ तेह थकी परिमंडल संठाण प्रदेश थकी असंख्यातगुणां, तेह थकी वट्ट संठाण प्रदेशार्थपणे करी असंख्यातगुणां कह्या ते किम हुवे ? जे पूर्वे प्रदेश नीं अल्पाबहुत्व नै विषे प्रदेशार्थपणे परिमंडल थकी वट्टसंठाण प्रदेश थी संख्यातगुणां कह्या छै । ते माटै इहां पिण परिमंडल प्रदेशार्थपण छँ तेह थकी वट्ट संठाण प्रदेश थकी संख्यातगुणां जोईये । ते भी ए अकार नुं संशय छँ । ते अनेरी परत देखी निर्णय करियै । कारण केई पड़ता में असंख नों अकार छे। अने केई पड़ता में अकार नथी । केवल संख्यात गुणाईज छै । अथवा प्रदेश नीं अल्पबहुत्व पूर्वे कही तेहने विषे परिमंडल नां प्रदेश थी वट्ट नां प्रदेश संख्यातगुणां कह्या । तिहां प्राकृत नां सूत्र स्यूं अकार को लोप थयो हुवै तो असंख्यातगुणां वट्ट नां प्रदेश था । इम हुवे तो द्रव्य प्रदेश नीं भेली अल्पबहुत्व नै विषे परिमंडल नां प्रदेश थकी वट्ट नां प्रदेश असंख्यातगुणां ते इम हिज जोइयँ । बलि एहनों न्याय बहुश्रुत कहै ते सत्य । 'अणित्वचा संठाणा दवाए असंग' त्ति अनित्थंस्थसंस्थानवति हि परिमण्डलादीनां द्वयादिसंयोगनिष्पन्नत्वेन तेभ्योऽतिबनीतत्वात गुणानि पूर्वेभ्य उक्तानि (बृ. प. ०५९) , १७. पएसट्टयाए सब्वत्थोवा परिमंडला संठाणा पएसट्टयाए, बट्टा ठाणा पएसए संज्जगुणा १८. जहा दव्वट्टयाए तहा पएसट्टयाए वि जाव अणित्थंथा संठाणा पट्टयाए असंखेज्जगुणा । १९. दव्बट्टएसटुयाए - सव्वत्थोवा परिमंडला संठाणा दव्वट्टयाए, २०. सो चेव दव्वट्टयाए गमओ भाणियव्वो जाव अणित्था संठाणा दव्वट्टया असंखेज्जगुणा, २१. अणित्थंथेहितो संठाणे हितो दब्बट्टयाए परिमंडला ठाणा पट्टयाए असंखेज्जगुणा, सोन २२. वट्टा संठाणा पएसट्टयाए एसएमओ भागियो २३. जाव अणित्थंथा संठाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा । (श. २५/३६ ) २४. कृता सामान्यतः संस्थानप्ररूपणा, अथ रत्नप्रभाद्यपेयतां चिकीर्षः पूर्वोक्तमेवार्थ प्रस्तावनार्थमाह(बृ. प. ८५९) श० २५, उ० ३, ढा० ४३५ १९ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नप्रभा आदि संदर्भ में संस्थान २५. *प्रभ ! संठाण परूप्या केता? थी जिन भाखै पंचो जी। परिमंडल यावत आयत लग, वलि शिष्य पूछ संचो जी, कांइ।। २५. कति णं भंते ! संठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच संठाणा पण्णत्ता,तं जहा परिमंडले जाव आयते। (श. २५३७) सोरठा २६. अणित्थंथ संठाण, संयोगे करि नीपनों। ते नहिं वंछयो जाण, तिण सूं पंच कह्या इहां ।। २७. *परिमंडल संठाण प्रभुजी ! स्यू संख्याता होयो जी। अथवा असंख्यात ते कहिये, तथा अनंता जोयो जी ? कांइ ।। २८. श्री जिन भाखै नहिं संख्याता, असंख्यात पिण नाहीं जी । परिमंडल संठाण अनंता, तिके लोक रै मांही जी, कांइ । २९. वट्ट संठाण प्रभु ! संख्याता, एवं चेव कहायो जी। इम यावत आयत लग कहिवो, वलि शिष्य प्रश्न सुहायो जी, कांइ।। ३०. हे प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी में, परिमंडल संठाणो जी। स्यूं संख्याता के असंख्याता, तथा अनंता जाणो जी? कांइ ।। ३१. श्री जिन भाखै नहिं संख्याता, असंख्यात नहिं जेहो जी। परिमंडल संठाण अनंता, रत्नप्रभा ने विषहो जी, कांइ।। ३२. वट्ट संठाण प्रभु ! संख्याता, के असंख्यात कहिवाई जी ? एवं चेव पूर्ववत इमहिज, यावत आयत तांई जी, कांइ ।। ३३. सक्करप्रभा ने विष प्रभुजी! परिमंडल संठाणो जी।। एवं चेव जाव आयत लग, इम जाव सप्तमी जाणो जी, कांइ।। २६. इह षष्ठसंथानस्य तदन्यसंयोगनिष्पन्नत्वेना विवक्षणात् पञ्चेत्युक्तम् । (व.प. ८५९) २७. परिमंडला णं भंते ! संठाणा किं संखेज्जा ? असंखेज्जा ? अणता? २८. गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। (श. २५॥३८) २९. वट्टा णं भंते ! संठाणा कि संखेज्जा ? एवं चेव । एवं जाव आयता। (श. २५॥३९) ३०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए परिमंडला संठाणा कि संखेज्जा? असंखेज्जा ? अणता? ३१. गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणता। (श. २५१४०) ३२. वट्टा णं भंते ! संठाणा कि संखेज्जा ? एवं चेव । एवं जाव आयता। (श, २५१४१) ३३. सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए परिमंडला संठाणा? एवं चेव । एवं जाब आयता । एवं जाव अहेसत्तमाए। (श. २५४४२) ३४. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे परिमंडला संठाणा? एवं जाव अच्चुए। (श. २५।४३) ३५. गेवेज्जविमाणे णं भंते ! परिमंडला संठाणा ? एवं चेव । एवं अणुत्तरविमाणेसु वि । एवं ईसिपब्भाराए वि। (श. २५१४४) ३६. अथ प्रकारान्तरेण तान्याह- (वृ. प. ८५९) ३४. सौधर्म कल्प विष प्रभजी ! परिमंडल संठाणो जी ? एवं चेव यावत अच्युत इम, रत्नप्रभा जिम जाणो जी, कांइ ।। ३५. परिमंडल ग्रंवेयक विषे प्रभु ! एवं चेव कहेहो जी। एम अणत्तर वैमाण में पिण, सिद्धशिला में लेहो जी, कांइ ।। सोरठा ३६. अन्य प्रकार करेह, वलि संस्थान परूपणा । कीजै छै हिव जेह, चित्त लगाई सांभलो ।। ३७. *जे आकाशज देश विषे प्रभु ! वत्त परिमंडल एको जी। जव नों मध्य भाग छै जेहनों, जव आकार विशेखो जी, कांइ ।। ३८. तत्र तिहां जव मध्य विषे जे, इक परिमंडल विषेहो जी। अन्य परिमंडल स्यू संख्याता, के असंख अनंत कहेहो जी ? कांइ ।। वा. - 'जत्थ' इत्यादि सर्व पिण लोक परिमंडल संस्थान द्रव्य करिक निरंतर व्याप्त छ। तिहां कल्पना करिक जिके-जिके तुल्य प्रदेश नां अवगाहणहार अन जेनां तुल्य प्रदेश तुल्य वर्णादि पर्याय एहवा परिमंडल संस्थानवंत द्रव्य ते पंक्तिए स्थापिए । इम एक-एक जाति ना एकेक पंक्तिए स्थापता छता अल्पबहुपणां नां भाव थकी जवाकार परिमंडल संस्थान नों समुदाय हुवे । तिहां ३७. जत्थ णं भंते ! एगे परिमंडले संठाणे जवमझे ३८. तत्थ परिमंडला संठाणा कि संखेज्जा? असंखेज्जा? अणंता? वा.-'जत्थ ण' मित्यादि, किल सर्वोऽप्ययं लोक: परिमण्डलसस्थानद्रव्यनिरन्तरं व्याप्तस्तत्र च कल्पनया यानि यानि तुल्यप्रदेशावगाहीनि तुल्यप्रदेशानि तुल्यवर्णादिपर्यवाणि च परिमण्डलसंस्थानवन्ति द्रव्याणि तानि तान्येकपंक्त्यां स्थाप्यन्ते, एकमेकैक *लय : सर्वार्थसिद्ध र चन्द्रव जी काइ २० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघन्य प्रदेश नां द्रव्य ने स्वभावे करी पिण थोड़पणां थकी धुरली पंक्ति नान्ही हवै । तिवार पछ शेष पंक्ति नै घणांपणां थकी अनुक्रमे एकेक थकी मोटी हुदै । तिवार पछै बलि अनेरी पंक्ति नै थोड़ा थोड़ापणां थकी अनुक्रमे एकेक थकी छोटी हुवै । इम जां लगे उत्कृष्ट प्रदेश नां द्रव्य नै अति अल्पपण करी अति नान्ही हवं छहली पंक्ति । इण परे सरीखे परिमंडल ने द्रव्ये करी जव आकार क्षेत्र प्रतै निपजाविये । इणहीज आश्रयी नै कहिय 'जस्थ' कहितां जिण-जिण आकाश देश के विषे एगं कहिता एक, परिमंडले कहितां परिमडल संस्थान वत्तें इसो जाणियै । जे आकाश देश नै विषे एक परिमंडल संठाण वत्तै छ, जब नी पर मध्य ते मध्यभाग छ जेहनों विस्तीर्ण नां सरीखापणां थकी ते जवमध्य जव आकार कहिये । ते जवमध्य में विषे जव आकार परिमंडल संठाण नीपना । तेह थकी अनेरा परिमंडल संठाण स्यूं संख्याता छ ? असंख्याता छ ? के अनंता छ ? इति प्रश्न । जातीयेष्वेकैकपंक्त्यामौत्तराधर्येण निक्षिप्यमाणेष्वल्पबहुत्वभावाद् यवाकार: परिमण्डलसंस्थानसमुदायो भवति, तत्र किल जघन्यप्रदेशिकद्रव्याणां वस्तुस्वभावेन स्तोकत्वादाद्या पंक्तिहस्वा तत: शेषाणां क्रमेण बहुबहुतरत्वाद्दीर्घदीर्घतरा ततः परेषां क्रमेणाल्पतरत्वात् ह्रस्वहस्वतरेव यावत्कृष्ट प्रदेशानामल्पतमत्वेन ह्रस्वतमेत्येवं तुल्यैस्तदन्यैश्च परिमण्डलद्रव्यर्यवाकारं क्षेत्र निष्पाद्यत इति, इदमेवा श्रित्योच्यते'जत्थ' त्ति यत्र देशे 'एगे' त्ति एक 'परिमंडले' त्ति परिमण्डलं संस्थानं वर्तत इति गम्यते, 'जवमझ' त्ति यवस्येव मध्यं - मध्यभागो यस्य विपुलत्वसाधात्तद् यवमध्यं यवाकारमित्यर्थः, तत्र यवमध्ये परिमंडलसंस्थानानि-यवाकारनिवर्तकपरिमण्डलसंस्थानव्यतिरिक्तानि कि संख्यातानि ? इत्यादिप्रश्न:, (व. प. ८५९, ८६०) ३९. गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता । (श. २५।४५) वा.-यवाकारनिर्वर्तकेभ्यस्तेषामनन्तगुणत्वात् तदपेक्षया च यवाकारनिष्पादकानामनन्तगुणहीनत्वादिति । (वृ. प. ८६०) ३९. थी जिन भाखै नहि संख्याता, असंख्यात पिण नांहीं जी। परिमंडल त्यां कह्या अनंता, न्याय धरो दिल मांही जी, कांइ ।। वा० -जव नै आकार नीपना है सठाण तेह थकी अनेरा जव नै आकार नीपना नहीं ते संठाण अनंतगुणा अधिका छ, ते माट अनेरा संस्थान अनता कह्या । अनै जिहां जव नै आकार नीपना नहीं तेहनी अपेक्षया करिक जव नै आकार नीपना ते अनंतगुण हीन छ, ते माटै जे आकाश देश नै विषे जवमध्य एक परिमंडल संठाण नै विषे तेह थकी अनेरा परिमंडल अनंता छै। ४०. वट्ट संठाण प्रभु! संख्याता, तथा असंख्याता कहिये जी? एवं चेव यावत आयत लग, इणहिज रीते लहियै जी, कांइ।। ४१. जिहां इक वट्ट संठाण प्रभुजी ! जवमध्य विषेज ताह्यो जी। तिहां परिमंडल स्यं संख्याता? एवं चेव कहायो जी, कांइ ।। ४२. इम जावत आयत लग कहिये, इणहिज रीते वरिवा जी। . एक-एक संठाण संघाते, पांचूई उच्चरिवा जी, कांइ ।। ४०. बट्टा णं भते! सठाणा कि सखेज्जा? एवं चेव । एवं जाव आयता। (श. २५।४६) ४१. जत्थ णं भते ! एगे बट्टे संठाणे जवमझे तत्थ परिमंडला संठाणा ? एवं चेव । वा० ---हिवं पूर्वोक्तईज संस्थान परूपणा प्रतै रत्नप्रभादिक भेदे कहै छै ४३. जिहां प्रभुजी ! रत्नप्रभा ए, पृथ्वी विषे कहायो जी। परिमंडल संठाण एक छ, जव मध्य विषेज ताह्यो जी, कांड। ४४. परिमंडल संठाण तिहां स्य, संख असंख अनंता जी ? जिन कहै संख असंख नहीं छै, तिहां अनंत कथिता जी, कांइ ।। ४२. वट्टा संठाणा एवं चेव । एवं जाव आयता । एवं एक्केकेणं संठाणेणं पंच वि चारेयव्वा जाव आयतेण । (श, २५।४७) वा.-पूर्वोक्तामेव संस्थानप्ररूपणां रत्नप्रभादिभेदेनाह४३. जत्थ णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढ़बीए एगे परि मंडले संठाणे जवमझे ४४. तत्थ णं परिमंडला संठाणा कि संखेज्जा- पुच्छा। गोयमा ! नो सखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। (श. २५।४८ ४५. बड़ा णं भंते ! संठाणा कि संखेज्जा ? एवं चेव । एवं जाव आयता। (श. २५।४९) ४६. जत्थ णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे वट्टे संठाणे जवमझे ४५. इहां बट संठाण प्रभु ! स्य, संख्याता छै ताह्यो जी? एवं चेव जाव आयत लग, इणहिज विध कहिवायो जी, काइ ।। ४६. जिहां प्रभु ! ए रत्नप्रभा पृथ्वी नैं विषे पिछाणी जी। एक वट्ट संठाण विषे जे, जवमध्य विषेज जाणी जी, काइ ।। श- २५, उ० ३, ढा० ४३५ २६ Jain Education Intemational Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. तत्थ णं परिमंडला संठाणा किं संखेज्जा–पुच्छा । गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता । ४८. वट्टा संठाणा एवं चेव । एवं जाव आयता। ४७. परिमंडल संठाण तिहां स्य, संख्यातादिक होई जी? जिन कहै संख असंख नहीं छ, अनंत तिहां अवलोई जी।। ४८. त्यां वट्ट संठाण अनंता इमहिज, एवं जावत जाणी जी। आयत लगैज कहिवो विध सं, पूर्ववत पहिछाणी जी। ४९. तिम वलि इक-इक संठाण संघाते, पंच-पंच उच्चरिवा जी। जिमज हेठला जाव आयत लग, विध पूर्वली वरिवा जी। ५०. एवं यावत अधोसप्तमी, कल्प' विषे पिण एमो जी। यावत ईषत-प्रागभार पृथ्वी लग कहिवो तेमो जी ।। ५१. पणवीसम नों तृतीय देश ए, चिहुं सौ पैंतीसमी ढालो जी। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशालो जी ।। ४९. एवं पुणरवि एककेकेणं संठाणेणं पंच वि चारेयव्वा जहेब हेट्ठिल्ला जाव आयतेणं । ५०. एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं कप्पेसु वि जाव ईसीपब्भाराए पुढवीए। (श. २५१५०) ढाल : ४३६ दूहा १. अथ संस्थानान्येव प्रदेशतोऽवगाहतश्च निरूपयन्नाह (वृ. प. ८६०) १. अथ संठाण तणांज जे, प्रदेश शिष्य पूछेह । फून आकाश प्रदेश नं, अवगाही रहै तेह ।। वृत्त संस्थान के प्रदेश और आकाश-प्रदेश २. हे प्रभु ! वट्ट संठाण ते, किता प्रदेशिक होय? किता प्रदेश प्रत वलि, अवगाही रह्यं सोय? वा -अथ पूर्वे आदि नै विषे परिमंडल का । वलि इहां किण कारण थकी ते परिमंडल तजिवै करी वृत्त आदि अनुक्रम करिकै निरूपण करिये ? तेहनों उत्तर -वृत्त आदि च्यार संठाण एक-एक सम संख्या विषम संख्या प्रदेश नां सरीखापणां थकी तेहनै पूर्व कहियं अन परिमंडल नै एहना अभाव थकी पर्छ विचारिय । तथा सूत्र नी विचित्र गति ते मारी जाणवी। ३. जिन कहै वट्ट संठाण ते, दाख्या दोय प्रकार । घनवृत्त सम सहु दिश थकी, मोदकवत अवधार ।। २. वट्टे णं भंते ! संठाणे कतिपदेसिए कतिपदेसोगाढे पण्णत्ते? वा.—'वट्टे ण' मित्यादि अथ परिमण्डलं पूर्वमादाबुक्तं इह तु कस्मात्तत्त्यागेन वृत्तादिना क्रमेण तानि निरूप्यन्ते ? उच्यते, वृत्तादीनि चत्वार्यपि प्रत्येक समसंख्यविषमसंख्यप्रदेशान्यतस्तत्साधातेषां पूर्वमुपन्यासः परिमण्डलस्य पुनरेतदभावात्पश्चाद् विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरिति, (वृ. प. ८६१) ३. गोयमा ! वट्टे संठाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाघणवट्टे य, 'घणवट्टे' त्ति सर्वतः समं घनवृत्तं मोदकवत् (बृ. प. ८६१) ४. पतरवट्टे य। 'पयरवट्टे' त्ति बाहल्यतो हीनं तदेव प्रतरवृत्तं मण्डकवत्, (वृ. प. ८६१) ५. तत्थ णं जे से पतरवट्टे से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा ओयपदेसिए य, 'ओयपएसिए' त्ति विषमसंख्यप्रदेशनिष्पन्न । (वृ. प. ८६१) १. जोड़ में 'शशिमंडल जिम' रखा गया है। संभव है जयाचार्य को प्राप्त वृत्ति में शशिमंडलवत् पाठ था। ४. प्रतरवृत्त दूजो कह्यो, बाहल्य जाडपणेह । हीण हवे ते जाणवो, शशि-मंडल जिम एह ।। ५. प्रतरवृत्त ते द्विविधे, ओज प्रदेशिक धार । विषम संख्य प्रदेश करि, नीपनों तेह विचार ।। २२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जुम्मपदेसिए य । 'जुम्मपएसिए' त्ति समसंख्यप्रदेशनिष्पन्नं, (वृ. प. ८६१) ६. युग्म प्रदेशिक प्रतरवृत, ते सम संख्य प्रदेश । तिण करिके जे नीपनों, द्वितीय भेद छै एष । वा० हिवं प्रतरवृत्त नां ओज युग्म दोय भेद ओलखावै छै --- ७. तिहां ओज प्रदेशिक प्रतरवत्त, तेह जघन्य थी ताह । पंच प्रदेशिक जाणव, पंच प्रदेश ओगाह ।। वा०-पंच परमाणु खंध ते आकाश नां पंच प्रदेश ऊपर रहा। ओज प्रदेश प्रतरवट्ट नी स्थापना ७. तत्थ णं जे से ओयपदेसिए से जहण्णेणं पंचपदेसिए पंचपदेसोगाढे, वा.-इत्थं पञ्चप्रदेशावगाढं पञ्चाणुकात्मकमित्यर्थः, (वृ. प. ८६१) ८. उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिका, ते आकाश प्रदेश । असंख्यात अवगाढ छै, ओज प्रतरवृत एस ॥ ८. उक्कोसेणं अणंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे। उत्कर्षेणानन्तप्रदेशिकमसंख्येयप्रदेशावगाढं लोकस्याप्य संख्येयप्रदेशात्मकत्वात्, (वृ. प. ८६१) ९. तत्थ णं जे से जुम्मपदेसिए से जहणणं बारसपदेसिए बारसपदेसोगाढे, ९. युग्म प्रदेशिक जे तिहां, जघन्य थकी कहिवाह। बार प्रदेशिक जाणवू, बार प्रदेश ओगाह ।। युग्म प्रदेश प्रतरवट्ट १२ प्रदेश नी स्थापना १०. उक्कोसेणं अणंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे । १०. उत्कृष्ट अनंतप्रदेशिका, ते आकाश प्रदेश । असंख्यात अवगाढ छ, युग्म प्रतरवृत एस ।। वा०-ए प्रतरवृत रा ओज युग्म दोय भेद कह्या । हिवं घनवृत्त नां ओज युग्म दोय भेद ओलखाविय छ। ११. तिहां जेह घनवृत्त ते, दोय प्रकारे ख्यात । ओज प्रदेशिक घनवृत्त, युग्म प्रदेशिक थात ।। १२. तिहां ओज प्रदेशिक घनवृत्त, जघन्य थकी कहिवाह । __सप्त प्रदेशिक जाणवू, सप्त प्रदेश अवगाह ।। ओज प्रदेश धनवट्ट ७ प्रदेश नी स्थापना ११. तत्थ णं जे से घणवट्टे से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - ओयपदेसिए य, जुम्मपदेसिए य । १२. तत्थ णं जे से ओयपदेसिए से जहणणं सत्तपदेसिए सत्तपदेसोगाढे पण्णत्ते, श०२५, उ०३ ढा०४३६ २३ Jain Education Intemational Private & Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं ५ प्रदेश, एक ऊपर अनै एक हेठ एवं ७ प्रदेश नों ओज प्रदेश वा घनवट्ट। १३. उत्कृष्ट अनंतप्रदेशिक, ते आकाश प्रदेश । असंख्यात अवगाढ छै, ओज वृत्त घन एस ।। १४. तिहां युग्मप्रदेशिक घनवट्ट, जघन्य थकी कहिवाह । ते बत्तीस प्रदेशक, नभ बत्तीस ओगाह ।। युग्म प्रदेश घनवट्ट ३२ प्रदेश नी स्थापना वा.-अस्य मध्यपरमाणोरुपयेकः स्थापितोऽधश्चैक इत्येवं सप्तप्रदेशिकं घनवृत्तं भवतीति, (वृ. प. ८६१) १३. उक्कोसेणं अणंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे पण्णत्ते । १४. तत्थ णं जे से जुम्मपदेसिए से जहण्णेणं बत्तीस पदेसिए बत्तीसपदेसोगाढे पण्णत्ते, वा-एवं ते ऊपरि १२ प्रदेश एवं २४ । च्यार मध्य ऊपरि अन च्यार हेठे एवं ३२ । वा.- अस्य चोपरीदृश एव प्रतरः स्थाप्यस्ततः सर्वे चतुर्विंशतिस्ततः प्रतरद्वयस्य मध्यागूनां चतुर्णामुपर्यन्ये चत्वारोऽधश्चेत्येवं द्वात्रिशदिति । (वृ. प. ८६१) १५. उक्कोसेणं अणंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे पण्णत्ते । (श. २५१५१) १५. उत्कृष्ट अनत प्रदेशिक, ते आकाश प्रदेश । असंख्यात अवगाढ छ, युग्म वृत्त धन एस ।। त्र्यन्त्र संस्थान के प्रदेश और आकाश प्रदेश संठाण भेदज सांभलो ।। (ध्रुपदं) १६. हे प्रभु ! व्यंस संठाण ते, किता प्रदेश नों एह । किता आकाश प्रदेश नों, अवगाहक जेह ? १७. जिन कहै व्यस संठाण ते, कह्यो दोय प्रकार । धुर घन-त्र्यंस अने वलि, प्रतर-त्र्यंस विचार ।। हिवं प्रतरत्यंस ओज अन युग्म बे भेदे करि ओलखाविर्य छ -- १८. तिहां जे प्रतरतंस ते, दोय प्रकार अवगम । विषम प्रदेशिक ओज छै, युग्म प्रदेशिक सम ।। १९. तिहां ओज प्रदेशिक त्र्यंस ते, जघन्य थकी कहिवाह। तीन प्रदेशिक जाणव, तीन प्रदेश ओगाह ।। ओज प्रदेश प्रतरत्र्यंस ३ प्रदेश नी स्थापना १६. तंसे णं भंते ! संठाणे कतिपदेसिए कतिपदेसोगाढे पण्णत्ते ? १७. गोयमा ! तसे णं संठाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा घणतसे य, पतरतंसे य। १८. तत्थ णं जे से पतरतसे से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-- ओयपदेसिए य, जुम्मपदेसिए य । १९. तत्थ णं जे से ओयपदेसिए से जहणणं तिपदेसिए तिपदेसोगाढे पण्णत्ते, अगंतपदेसिए असंखेज्जपदेसीगाह २०. उत्कृष्ट अनंतप्रदेशिकः, ते असंख्यात अवगाढ छ, ओज आकाश प्रदेश। प्रतर-त्र्यंस एस ।। २०. उक्कोसेणं पण्णत्ते । *लय : सीता दे रे ओलंभड़ा २४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , २१. तिहां युग्मप्रदेशिक भ्यं ते जपन्य बक्की कहिवाह । प्रदेशिक जाणवुं, षट प्रदेश ओगाह | षट युग्म प्रदेश प्रतरत्यंस ६ प्रदेश नीं स्थापना १ १ १ अनंत २२. उत्कृष्ट असंख्यात अवगा १ ४ १ ४ हि घनस ओज अनं युग्म बिहु भेदे करी ओलखावियै छै २३. तिहां पन यंस से विभेदे को ओज विषम प्रदेश । " युग्मप्रदेशिक सम छै, कहियै न्याय अशेष || हिर्व ओज व्यंस कहै छ २४. ओज प्रदेशिक विषम ते, जघन्य थकी खंध पैंतीस प्रदेश नों, नभ पैंतीस ओज प्रदेश घनत्यंस ३५ प्रदेश नीं स्थापना प्रदेशिको, ते आकाश से युग्म प्रतरव्यंस छै, १ ३ २ ३ ३ २ १ २ २ १ १ ए ३, ते ऊपरि १ प्रदेश एवं ४ । १ १ १ वा०- ए पनर प्रदेश, ते ऊपरि १० प्रदेश, ते ऊपरि ६ प्रदेश, ते उपरि ३ प्रदेश, ते ऊपरि १ प्रदेश एवं सर्व ३५ प्रदेश | प्रदेश | एस || १ प्रदेश | २५. उत्कृष्ट अनंत प्रदेशियो, ते आकाश असंख्यात अवगाढ छे, ओज व्यंस को एस ॥ २६. तिहां युग्मप्रदेशिक व्यंस ते जपन्य थकी कहिवाह चिहुं प्रदेशिक बंध ए प्यार प्रदेश ओगाह || युग्म प्रदेश घनत्यंस ४ प्रदेश नीं स्थापना कहिवाह | ओगाह || २१. तत्थ णं जे से जुम्मपदेसिए से जहणेणं छप्पदेसिए छप्पस गाढे पत्ते, २२. उक्कोसेणं पण्णत्ते । २४. अणतपदेसिए २३. तत्थ णं जे से घणतंसे से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा देखिए यजुम्मपदेखिए व अपदेसोगावे जीयपदेसिए से जहते पणतीयपदेसिए पणतीसपदेसोगाढे, वा. अस्य पञ्चदश प्रदेशिकस्य प्रतरस्योपरि दशप्रदेशिक : एतस्याप्युपरि षट्प्रदेशिकः एतस्याप्युपरि त्रिप्रदेशिकः प्रतरः एतस्याप्युपर्येकः प्रदेशो दीयते इत्येवं पञ्चत्रिंशत्प्रदेशा इति । (बु.प.६१) २५. उक्कोसेणं अनंत पदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे । २६. तत्थ णं जे से जुम्मपदेसिए से जहण्णेणं चउप्पदेसिए चउपदेसोगाढे पण्णत्ते, श० २५, उ० ३, ढा० ४३६ २५ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. उष्कृष्ट अनंत प्रदेशियो, ते आकाश प्रदेश | असंख्यात अवगाढ छै, त्र्यंस युग्म घन एस || चतुरख संस्थान के प्रदेश और आकाश-प्रदेश हि चउरंस नां ओज युग्म बे भेद कहै छै - २८. प्रभु ! चउरंस संठाण ते किता आकाश प्रदेश नं २९. श्रीजिन भाखे चउरंस ते किता प्रदेश नों पेख । अवगाह्यो विशेष ? द्विविध वट्ट जिम भेद । घन अनें प्रतर बलि, ज्यूं करिवा संवेद || हिव चउरंस प्रतर ओज प्रदेश कहै छे ३०. जाव ओज- प्रदेशिक तिहां, ते जघन्य थकी कहिवाह । नवप्रदेशिक बंध ते, नव प्रदेश ओगाह ॥ ओज प्रदेश प्रतर चतुरस्र नव प्रदेश नीं स्थापना १ ३३. उत्कृष्ट अनंत १ १ २६ भगवती जोड़ १ १ १ २१. उत्कृष्ट अनंत प्रदेशियों ते आकाश प्रदेश | असंख्यात अवगाढ छे, ओज प्रतर को एस ।। हिप्रतर प्रदेशिक क १ ३२. युग्मप्रदेशिक जे तिहां, जघन्य च्यारप्रदेशिक बंध ए, च्यार युग्म प्रदेश प्रतर ४ प्रवेश नों स्थापना १ १ १ १ १ प्रदेशियो, ते आकाश प्रदेश | । असंख्यात अवगाढ छै, युग्म प्रतर को एस ।। हि पन चडरंस कई छे ३४. तिहां पन चउरंस अछे तिको, वे भेद अवगम । जोज विषम प्रदेशिके, युग्म प्रदेशक सम || १ थकी प्रदेश कहिवाह | ओगाह || हि चउरंस ओज प्रदेशिक कहे छै- ३५. घन वउरंस ओज प्रदेशिको, जघन्य थकी कहिवाह । सत्तावीस प्रदेश नौ, सप्तवीस अवगाह || २७. उक्कोसेणं अणतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे । २८. उभ! संठाणे रुतिपदेसिए - पुच्छा। २९. गोयमा ! चउरंसे संठाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाघणचउरंसे य, पतरचउरंसे य । ३०. जाव (सं. पा.) तत्थ णं जे से ओयपदेसिए से जहणेणं नवपदेसिए नवपदेसोगाढे, (२५०५२) ३१. उक्को सेणं पण्णत्ते ।. अतपदेखिए असंखेज्जपदेसोगाढे ३२. तत्थ गं जे से जुम्मपदेसिए से जहणेन चउपदेखिए चउपदेसोगाढे पण्णत्ते, ३३. उक्कोसेणं अणतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे । ३४. तत्थ णं जे से घणचउरसे से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - ओमपदेखिए म जुम्मपदेसिए । ३५. तत्थ णं जे से ओयपदेसिए से जहणणेणं सत्तावीसइपदेसिए सत्तावीस पदेसोगाडे. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओज प्रदेश घन चउरंस २७ प्रदेश नीं स्थापना ३६. उत्कृष्ट ३ ३ ३ ३ ३ ३ एवं ते ऊपरि ९ अ हेठे ९ एवं २७ । प्रदेश | एस || अनंतप्रदेशियो, आकाश असंख्यात अवगाढ छै, घन ओज ३७. घन चरंस युग्मप्रदेशिको, जपन्य थकी कहिवाह । अष्टप्रदेशिक बंध ए. अष्ट प्रदेश ओगाह || युग्म प्रदेश घन ८ प्रदेश नीं स्थापना २ २ ३ २ २ ३ ३ ते छै एवं ते ऊपरि ४ एवं ८ प्रदेश युग्म ३८. उत्कृष्ट अनंतप्रदेशिको, ते आकाश असंख्यात अवगाढ छै, ए घन आयत संस्थान के प्रदेश ओर आकाश प्रदेश ३९. आयत संठाण हे प्रभु ! किता प्रदेश नों एह । किता आकाश प्रदेश नं, ४०. जिन कहै आयत त्रिण विधे आयत दूसरो पन अवगाह करेह ? सेढि आयत जाण । प्रतर आयत माण || नां अंश । चउरंस || सोरठा ४१. श्रेणि रूप प्रदेश, श्रेणि बंध कहिये तसु। आयत दीपं कहेस, सेढि आयत भेद धुर । ४२. विभ श्रेणि बे आदि बाहुल्यपणों ने अधिकतम् । द्वितीय भेद संवादि प्रतर आयत ए जाणवू ।। ४३. वाहत्य विखंभ सहीत अनेक श्रेणि रूप से। आयत घन संगीत, तृतीय भेद आयत तणों ॥। हि सेढि आयत नां भेद कहै छै ४४. सेढि आयत प्रथम ते, बिहुं भेदे अवगम । ओज प्रदेशिक विषमते युग्म प्रदेशिक सम । हिवै ओज प्रदेशिक सेढि आयत कहै छे ४५. ओज प्रदेशी सेढि तिहां, जघन्य थकी तीनप्रदेशिक बंध ए. तीन प्रदेश लय : सीता दे रे ओलं भड़ा कहिवाह । ओगाह || वा. - एवमेतस्य नवप्रदेशिकप्रतरस्योपर्यन्यदपि प्रतरद्वयं स्थापयत इत्येवं सप्तविंशतिप्रदेशिकं चतुरस्रं भवतीति, (बु.प. ०६१,०६२) ३६. उक्कोसेणं अणतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे । ३७. तत्थ णं जे से जुम्मपदेसिए से जहणेणं अट्ठपदेसिए अपदेसोगाढे पत्ते, ३८. उक्कोसेणं अणंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे । (श. २५ । ५३) २९. आयते ते ! संठागे कतिपदेखिए कतिपदेसोगा पण्णत्ते ? ४०. गोयमा ! आयते णं संठाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - सेढिआयते, पतरायते, घणायते I ४१. 'सेढिआयए' त्ति श्रेण्यायतं - प्रदेश श्रेणीरूपं ४२. 'प्रतरायतं' कृतविष्कम्भश्रेणीद्वयादिरूपं ४३. 'ना' बाल्यविष्कम्भोपेतमनेकश्रेणीरूपं, ( वृ. प. ८६२ ) (वृ. प. ८६२) (वृ. प. ८६२) ४४. तत्थ णं जे से सेढिआयते से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा — ओयपदेसिए य, जुम्मपदेसिए य । ४५. तत्थ णं जे से ओपदेसिए से जमे विदेसिए तिपदेसोगाई, श० २५, उ० ३, ढा० ४३६ २७ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणी आयत ३ प्रदेश नी स्थापना ४६. उक्कोसेणं अणंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे । ४६. उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिको, जे आकाश प्रदेश । असंख्यात अवगाढ छ, सेढि ओज है एस ।। हिवं युग्मप्रदेशिक सेढि आयत कहै छै-- ४७. युग्मप्रदेशिक श्रेणि ते, जघन्य थकी कहिवाह । दोयप्रदेशिक खंध ए, दोय प्रदेश ओगाह ।। युग्म प्रदेश श्रेणी आयत २ प्रदेश नी ते स्थापना ४७. तत्थ णं जे से जुम्मपदेसिए से जहण्णणं दुपदेसिए दुपदेसोगाढे, ४८. उक्कोसेणं अणंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे । ४९. तत्थ णं जे से पतरायते से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा ... ओयपदेसिए य, जुम्मपदेसिए य । ४८. उत्कृष्ट अनंतप्रदेशिको, ते आकाश प्रदेश । असंख्यात अवगाढ छ, सेढि युग्म विशेष ।। ४९. प्रतर आयत भेद दूसरो, बे भेदे अवगम । ओज प्रदेशिक विषम ते, युग्म प्रदेशिक सम ।। हिवै ओज प्रदेशिक प्रतर आयत कहै छै५०. ओज प्रदेश प्रतर तिहां, जघन्य थकी कहिवाह । पनर प्रदेशिक खंध ए, पनर प्रदेश ओगाह ।। ओज प्रवेश प्रतर आयत १५ प्रदेश नी स्थापना ५०. तत्थ णं जे से ओयपदेसिए से जहणणं पण्णरस पदेसिए पण्णरसपदेसोगाढे, ५१. उक्कोसेणं अणंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे । ५१. उत्कृष्ट अनंतप्रदेशिको, ते आकाश प्रदेश । असंख्यात अवगाढ छ, ओज प्रतर कां, एस ।। हिवं युग्म प्रदेश प्रतर आयत कहै छै५२. युग्म प्रदेश प्रतर तिहां, जघन्य थकी कहिवाह । षट प्रदेशिक खंध ए, षट प्रदेश ओगाह ।। युग्म प्रदेश प्रतर आयत ६ प्रदेश नी स्थापना ५२. तत्थ णं जे से जुम्मपदेसिए से जहण्णेणं छप्पदेसिए छप्पदेसोगाढे, ५३. उक्कोसेणं अणंतपदे सिए असंखेज्जपदेसोगाढे । ५३. उत्कृष्ट असख्यात अनंतप्रदेशिको, जे अवगाढ छै, युग्म आकाश प्रदेश । प्रतर छै एस ।। २८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै घन आयत कहे - ५४. तिहां घन आयत ओज प्रदेशिक ५५. ओज प्रदेशिक पंच चालीस ओज प्रदेश वन आयत ४५ प्रदेश नीं स्थापना भेद तीसरो, बिहुं भेदे अवगम । विषम ते युग्म प्रदेशिक सम ।। घन तिहां, जपन्य थकी कहिवाह । प्रदेश नों, प्रदेश नों पैतालीस ओगाह ॥ ३ ३ ३ ३ ३ हिर्व युग्म प्रदेशिक घन कहै छ ५७. युग्म प्रदेशिक पन तिहां, बार प्रदेशिक बंध ए, युग्म प्रदेश घन आयत १२ प्रदेश नीं स्थापना ३ है। ३ ३ ३ ३ ३ एवं ते ऊपरी १५ अनं हे १५ एवं ४५ । ५६. उत्कृष्ट अनंतप्रदेशिको, जे आकाश असंख्यात अवगाढ छै, पन ओज छे 199 6 ३ ३ | २|२|२| | २ । २ । २ । एवं, ते ऊपरि ६ प्रदेश एवं ५. उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिको ते ते आकाश घनायत ३ जयन्य थकी बार प्रदेश वलयाकार प्रतर परिमंडले प्रदेश २० नीं स्थापना 16/666) युग्म असंख्यात अवगाढ परिमंडल संस्थान के प्रदेश और आकाश प्रदेश ५९. परिमंडल संठाण ते, भगवंतजी ! ताह । कितं प्रदेणे नीपनो ? किता प्रदेश ओगाह ? ६०. जिन कहै परिमंडल तिको, दाख्यो दो घन परिमंडल धुर कह्यो, द्वितीय प्रतर ६१. प्रतर परिमंडल जे तिहां, जयन्य थकी बीस प्रदेशिक बंध ए, बीस प्रदेश प्रतर परिमंडल २० प्रदेश नों स्थापना प्रकार | विचार ।। कहिवाह । ओगाह ॥ ११ 9 REFFERE 9 कहिवाह | ओगाह || ॥ प्रदेश | एस ॥ १२ । प्रदेस | एस || ५४. तत्थ णं जे से घणायते से दुविहे पण्णत्ते, तं जहाओपदेसिए व जुम्मपदेखिए व ५४. तब से यपदेसिए से जहणं पणवालीसपदेसिए पणपालीसपदेसोगाडे, ५६. उक्कोसेणं अगतपदेखिए असोज्जपसोबा' । ५७. तत्थ णं जे से जुम्मपदेसिए से जहणेणं बारसपदेसिए बारसपदेसोगाढे, ५८. उक्कोसेणं अतपदेखिए असंवेदेोगा। (श. २५।५४) ५९. परिमंडले णं भंते ! संठाणे कतिपदेसिए - पुच्छा । ६०. गोयमा ! परिमंडले णं संठाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा घणपरिमंडले य, पतरपरिमंडले य । ६१. तत्थ णं जे से पतरपरिमंडले से जहणेणं वीसइपदेसिए वीसइपदेसोगाढे, श० २५, उ० ३, ढा० ४३६ २९ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. उक्कोसेणं अणंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे। ६२. उत्कृष्ट अनंतप्रदेशिको, जे आकाश प्रदेश । असंख्यात अवगाढ छ, एह प्रतर विशेष ।। घन परिमंडल ६३. घन परिमंडल जे तिहां, जघन्य थकी कहिवाह । तेह चालीस प्रदेश नों, नभ चालीस ओगाह ।। घन परिमंडल ४० प्रदेश नी स्थापना ६३. तत्थ णं जे से घणपरिमंडले से जहण्णेणं चत्तालीसइ पदेसिए चत्तालीसइपदेसोगाढे पण्णत्ते, चूडी आकार धन परिमंडले प्रदेश ४० नीं स्थापना हा ६४. उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिको, ते आकाश प्रदेश। असंख्यात अवगाढ छ, घन परिमंडल एस ।। वा० ---इहाँ परिमंडल नां ओज अनै युग्म ए बे भेद न कह्या ते किण कारण -युग्म रूपपण करी एक रूपवान परिमंडल छै पिण ओज रूप नथी। ते माट ओज अनै युग्म ए बे भेद परिमंडल नां न किया। ६५. बे सौ तेपन नं देश ए, चिउं सौ छतीसमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल ।। ६४. उक्कोसेणं अणंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे पण्णत्ते । (श. २५।५५) वा.-इह ओजोयुग्मभेदी न स्तः, युग्मरूपत्वेनैकरूपत्वात्परिमण्डलस्येति, (वृ. प. ८६२) ढाल:४३७ १. अनन्तरं परिमण्डलं प्ररूपितम् , अथ परिमण्डलमेवादी कृत्वा संस्थानानि प्रकारान्तरेण प्ररूपयन्नाह--- (वृ. प. ८६२) १. अनंतरे जे आखियो, परिमंडल प्रति तेह । ___ अथ परिमंडल आदि जे, अन्य प्रकार कहेह ।। संस्थानों के कृतयुग्म आदि २. इक परिमंडल हे प्रभु ! दवट्ठयाए जेह । ___ द्रव्य अर्थ करिकै तसु, स्यूं कृतयुग्म कहेह? ३. के तेयोए त्र्योज छै, कै दाबरजुम्म होय । के कलिओगे है तिको? ए चिहुं प्रश्नज जोय ।। ४. जिन भाखै कृतयुग्म नहीं, तेओगे नहीं होय । द्वापरयुग्म नहीं तिको, कलिओगे है सोय।। २. परिमंडले णं भंते ! संठाणे दब्वट्ठयाए कि कडम्मे? ३. तेओए ? दावरजुम्मे ? कलिओए? ४. गोयमा ! नो कडजुम्मे, नो तेयोए, नो दावरजुम्मे, कलियोए। (श. २५१५६) ३० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा.—'परिमंडले' त्यादि, परिमण्डलं द्रव्यार्थतयैकमेव द्रव्यं, न हि परिमण्डलस्यैकस्य चतुष्कापहारोऽस्तीत्येकत्वचिन्तायां न कृतयुग्मादिव्यपदेश: किन्तु कल्योजव्यपदेश एव, (वृ. प. ८६३) ५. वट्टे णं भंते ! संठाणे दव्वट्ठयाए ? एवं चेव । ६. एवं जाव आयते । (श. २५५७) वा० - इहां एक परिमंडल ते द्रव्यार्थपणे करी एकही द्रव्य हुवै। एकत्व चिता – विषे कृतयुग्मादिक द्रव्य नहीं हुवै । एकत्व चिंता ते एक वचनपणां नीं चितवणा नै विषे एतलै एक परिमंडल नी विचारणा नैं विषे । कलिओगे कहितां एकईज हुवै । पिण ते एक परिमंडल संठाण नै द्रव्य आश्रयी कडजुम्मे कहितां च्यार न कहिय । तथा जे एक परिमंडल नै द्रव्य आश्रयी तेयोगे कहितां तीन पिण न कहियै । तथा ते एक परिमंडल नै द्रव्य आश्रयी द्वापुरयुग्म कहितां दोय पिण न कहिय । तथा एक परिमंडल नै द्रव्य आश्रयी कलिओगे कहितां एक कहिये । एतलै एक परिमंडल ते द्रव्य थकी कृतयुग्म च्यार द्रव्य न हुवै । तेयोगे तीन द्रव्य न हुवै, द्वापर युग्म दोय द्रव्य न हुवै । कलिओगे एक द्रव्य हुवै। ५. एक वृत्त संठाण प्रभु ! द्रव्य अर्थ करि ताय ? __ एवं चेव कहीजिय, कलिओगे इक थाय ।। ६. एवं यावत जाणवू, एक आयत लग सोय । कृतयुग्मादिक त्रिहुं नहीं, इक कलिओगे होय ।। ७. इक वचने करि द्रव्य थी, कह्या पंच संठाण । ___ अथ हिव बहु वचने करी, वर शिष्य प्रश्न पिछाण ।। ८. *बहु वच परिमंडल संस्थान, द्रव्य अर्थ करि हे भगवान ! __ स्यं कडजुम्मा के तेओगा, दाबरजूम्मा के कलियोगा? ९. जिन कहै ओघ सामान्य थकीज, समुच्चय थी इहरीत कहीज । कदाचित कडजुम्मा होय, कदाचित तेओगा जोय ।। १०. कदाचित किण काले जेह, दावरजुम्मा पिण हुवै तेह । कलियोगा पिण है किणवार, ओघ सामान्य थकी अवधार ॥ वा०—पृथक ते बहुवचन परिमंडल नी चितवणा नै विषे जे सर्व परिमंडल संठाण छै ते किग काले चार-च्यार अपहरवै करी शेष च्यार रह्या ते कड जुम्मा हुवै । अर्ने कदाचित च्यार-च्यार अपहरबै शेष तीन अधिक हुवै ते तेयोगा कहिये । अर्ने कदाचित च्यार-च्यार अपहरवै शेष दोय अधिक हुवै ते द्वापरयुग्म कहियै । अन कदाचित च्यार-च्यार अपहरवै शेष एक अधिक हुवै ते कलिओगा कहिये । ११. विधानादेश करी अवलोय, परिमंडल समुदाय नैं जोय । एक-एक नैं कहिवे सोय, कडजुम्मा कहियै नहिं कोय ।। १२. तेओगा पिण तास न कहिय, द्वापरजुम्मा पिण नहि लहिये । कलियोगा एक-एक पिछाण, एवं यावत आयत जाण ।। ८. परिमंडला णं भंते ! संठाणा दब्वट्ठयाए कि कड जुम्मा, तेयोया-पुच्छा। ९. गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, सिय तेओगा, १०. सिय दावरजुम्मा, सिय कलियोगा, वा.- यदा तु पृथक्त्वचिन्ता तदा कदाचिदेतावन्ति तानि परिमण्डलानि भवन्ति यावतां चतुष्कापहारेण निच्छेदता भवति कदाचित्पुनस्त्रीण्यधिकानि भवन्ति कदाचिद् द्वे कदाचिदेकमधिकमित्यत एवाह - (वृ. प. ८६३) ११,१२. विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेओगा, नो दावरजुम्मा, कलियोगा। एवं जाव आयता । (श. २५।५८) 'विहाणादेसेणं' ति विधानादेशो यत्समुदितानामप्येकैकस्यादेशनं तेन च कल्योजतैवेति । (वृ. प. ८६३) __ वा.--अथ प्रदेशार्थचिन्तां कुर्वन्नाह 'परिमंडले ण' मित्यादि, तत्र परिमण्डलं संस्थानं प्रदेशार्थतया विंशत्यादिषु क्षेत्रप्रदेशेषु ये प्रदेशाः परिमण्डलसंस्थाननिष्पादका व्यवस्थितास्तदपेक्षयेत्यर्थः, (व. प. ८६३) वा०हिवै एकवचन परिमंडलादिक नी प्रदेश आश्रयी पूछा करै छै तिहां परिमंडल सठाण प्रदेशार्थपणे बीस प्रमुख खेत्र नां प्रदेश नै विषे जे प्रदेश परिमंडल संस्थान निपजावणहारा रह्या, तेहनी अपेक्षाए कृतयुग्म इत्यादि प्रश्न * लय : इण पुर कंबल कोई न लेसी श०२५, उ०३, ढा० ४३७ ३१ Jain Education Intemational Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. इक परिमंडल हे भगवान ! प्रदेश अर्थ करी पहिछान । स्यूं कडजुम्मे प्रमुखज पृच्छा ? हिव जिन भाखै सुण धर इच्छा ।। १४. कदाचित कडजुग्म कहाय, कदाचित तेयोगज थाय । कदाचित द्वापरजुम्म होय, कदाचित कलियोग सुहोय ।। वा०-कदाचित कृतयुग्म तेह प्रदेश नै च्यार-च्यार ने अपहरवै च्यार शेष रहै तो कृतयुग्म कहियै । इम तीन रहै तो व्योज । दोय रहै तो द्वापरयुग्म । एक शेष रहै तो कल्योज । १३. परिमंडले णं भंते ! संठाणे पएसट्टयाए कि कडजुम्मे -पुच्छा। गोयमा ! १४. सिय कडजुम्मे, सिय तेयोगे, सिय दावरजुम्मे, सिय कलियोगे। वा.-'सिय कडजुम्मे' त्ति तत्प्रदेशाना, चतुष्कापहारेणापह्रियमाणानां चतुष्पर्यवसितत्वे कृतयुग्म तत्स्यात, यदा विपर्यवसानं तत्तदा योजः, एवं द्वापर कल्योजश्चेति, (वृ. प. ८६३) १५. एवं जाव आयते। (श. २५५५९) १६. परिमंडला भंते ! संठाणा पदेसट्ठयाए कि कडजुम्मा -पुच्छा । १७. गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, १८. विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि, तेओगा वि, १५. एवं यावत आयत एक, प्रदेश आश्रयी चिहुं पद पेख । इक वचने करि ए आख्यात, हिव बहुवचने करि अवदात ।। वा.हिवै बहुवचन परिमंडलादिक नीं प्रदेश आश्रयी पूछा करै छ... १६. बहु वच परिमंडल हे स्वाम ! प्रदेश अर्थपणे करि ताम । स्यू कडजुम्मा प्रश्न उदार ? उत्तर तास दिये जगतार ।। १७. ओघ सामान्य समुच्चय धार, ते आश्रयी कडजुम्मा किवार । जाव कदा कलियोगा कहिये, न्याय विचारी हिवड़े लहिये ।। १८. विधान इक-इक द्रव्य नां प्रदेश, ते आश्रयी कहिये सुविशेष । कडजुम्मा पिण ह छ तेह, तेओगा पिण लहिये जेह ।। १९. द्वापरयुग्मा पिण ते होय, कलिओगा पिण कै छै सोय । एवं जाव आयत लग जाण, प्रदेश आश्रयी बहु वच माण ।। वा०-हिवं अवगाह प्रदेश ते जे परिमंडलादिक आकाश प्रदेश नं विषे रह्या ते आकाश प्रदेश निरूपण नै अर्थे कहै छै-- २०. इक परिमंडल हे जिनराया ! स्यू कडजुम्म प्रदेश ओगाह्या । जाव कल्योज आकाश प्रदेश, अवगाही ते रह्यो विशेष ? २१. जिन भाखै सांभल सुविशेष, कृतयुग्म आकाश प्रदेश । तेहिज अवगाढक हुदै सोय, व्योज प्रदेश ओगाढ न होय ।। २२. द्वापरयुग्म आकाश प्रदेश, ते पिण अवगाहै नहिं एस । गगन प्रदेशि कल्योज कहाय, ते पिण अवगाहै नहिं ताय ।। वा० - कृतयुग्म प्रदेशावगाढ हुवै जेह भणी परिमंडल जघन्य थकी बीस प्रदेश अवगाहै, इसो कह्यो। बीस नै च्यार अपहरतां च्यार शेष रहै ते माटै । कृतयुग्म प्रदेशावगाढ हुवै इम परिमंडलातर नै विषे पिण कहिवो ते माट, नहीं व्योज प्रदेशावगाढ, नहीं द्वापर प्रदेशावगाढ, नहीं कल्योज प्रदेशावगाढ । १९. दावरजुम्मा वि, कलियोगा वि । एवं जाव आयता । (श. २५।६०) वा. अथावगाहप्रदेश निरूपणायाह- 'परिमंडले' त्यादि, २०. परिमंडले णं भंते ! संठाणे कि कड जुम्मपदेसोगाढे जाव कलियोगपदेसोगा? २१. गोयमा ! कडजुम्मपदेसोगाढे, नो तेयोगपदेसोगाढे, २२. नो दावरजुम्मपदेसोगाढे, नो कलियोगपदेसोगाढे । (श. २५६१) वा.-'कडजुम्मपएसोगाढे' त्ति यस्मात्परिमण्डलं जघन्यतो विशतिप्रदेशावगाढमुक्तं विंशतेश्च चतुष्कापहारे चतुष्पर्यवसितत्वं भवति एवं परिमण्डलान्तरेऽपीति । (वृ. प. ८६३) ३२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. वट्टे णं भंते ! संठाणे किं कडजुम्मपदेसोगाढे --- पुच्छा । २३. इक वृत्त प्रभु ! संठाण विशेष, स्यूं कृतयुग्म आकाश प्रदेशअवगाही नै रह्यो ? तास? इत्यादिक वर प्रश्न विमास ।। २४. जिन कहै कडजुम्म गगन प्रदेश, कदाचित अवगाहै एस । योज आकाश प्रदेश विचार, तेह प्रतै अवगाहै किवार ।। २५. द्वापरजुम्म नभ प्रदेश त्यांही, ते अवगाढक ए छै नाहीं । कदाचित कल्योज कहाय, गगन प्रदेशे प्रतै अवगाय ।। वा०-कदाचित कृतयुग्म प्रदेशावगाढ हुवे ते किम ? जे प्रतर-वृत्त बारै प्रदेशिक वली जेह घन-वृत्त प्रदेशिक का, तेहनै च्यार ने अपहार नै च्यार अवशेष थकी कृतयुग्म प्रदेशावगाढ हुवै । तथा जेह घन-वृत्त सप्त प्रदेशिक तेहन च्यार अपहरतां शेष तीन रहै ते माट त्योज प्रदेशावगाढ हुवे। नो दावरजुम्म पएसोवगाढ–ते द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ नहीं। "सिय कलियोगपदेसोगाढे' कदाचित प्रतर-वृत्त पंच प्रदेश अवगाह्यो च्यारे भागे अपहरतां एक शेष रहै ते माट कदाचित कल्योज हुवै । २६. एक तंस संठाण नी पृच्छा, . श्री जिन भाखै सुण धर इच्छा ।। नभ प्रदेश कडजुम्म विचार, अवगाढक है छै किणवार ।। २७. त्र्योज प्रदेश ओगाह किवार, कदा दावरजुम्म प्रदेश लार । पिण कल्योज आकाश प्रदेश, अवगाढक नहि खै छै एस ।। वा०-जेह घन त्यस चतुप्रदेशिक तेह कृतयुग्म प्रदेशावगाढ हुवै । सिय तेश्रोग तेह प्रतर व्यंस तीन प्रदेशावगाढ तथा घन व्यंस पैतीस प्रदेशावगाढ, तेहनै च्यार अपहरतां शेष तीन रहै ते त्योज प्रदेशावगाढ । सिय दावरजुम्म ---- जेह घन त्यस षटप्रदेशिक का, तेहनै च्यार अपहरतां शेष दोय रहै ते द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ हुवै, पिण कल्योज प्रदेशावगाढ न हुवै । २४. गोयमा ! सिय कडजुम्मपदेसोगाढे, सिय तेयोग पदेसोगाढे, २५. नो दावरजुम्मपदेसोगाढे, सिय कलियोगपदेसोगाढे । (श. २५३६२) वा.--'सिय कडजुम्मपएसोगाढे' त्ति यत्प्रतरवृत्तं द्वादशप्रदेशिकं यच्च घनवृत्तं द्वात्रिंशत्प्रदेशिकमुक्त तच्चतुष्कापहारे चतुरग्रत्वात्कृतयुग्मप्रदेशावगाढं, 'सिय तेओयपएसोगाढे' त्ति यच्च धनवृत्तं सप्तप्रदेशिकमुक्तं तत्त्यग्रत्वात्त्र्योज:-प्रदेशावगाढं 'सिय कलिओयपएसोगाढे' त्ति यत्प्रतरवृत्तं पञ्चप्रदेशिकमुक्तं तदेकाग्रत्वात्कल्योजप्रदेशावगाढमिति । (व.प. ८६३) २६. तसे णं भंते ! संठाणे-पुच्छा । गोयमा ! सिय कडजुम्मपदेसोगाढे, २७. सिय तेयोगपदेसोगाढे, सिय दावरजुम्मपदेसोगाढे, नो कलियोगपदेसोगाढे। (श. २५/६३) वा.-'सिय कडजुम्मपएसोगाढे' त्ति यद् घनत्यत्रं चतुष्प्रदेशिकं तत्कृतयुग्मप्रदेशावग'ढ' सिय तेओगपएसोगाढे' त्ति यत् प्रतरत्र्यस्रं त्रिप्रदेशावगाढं धनव्यस्रं च पञ्चत्रिंशत्प्रदेशावगाढं तत्व्यग्रत्वाख्योज:-प्रदेशावगाढं, "सिय दावरजुम्मपएसोगाढे' त्ति यत्प्रतरत्या षट्प्रदेशिकमुक्तं तद् द्वयग्रत्वाद् द्वापरप्रदेशावगाढमिति । (वृ. प. ८६३) २८. चउरंसे णं भंते ! संठाणे ? जहा वट्टे तहा चउरंसे वि। (श. २५।६४) २८. एक चउरंस प्रभु ! संठाण ?, प्रश्न कियां भाखै जगभाण । वत्त संठाण कह्यो ? जेम, चतुर-अंस पिण कहिवो तेम ।। २९. एक आयत नीं पूछा ताह, कदा कडजुम्म प्रदेश ओगाह । जाव कदा कलियोग प्रदेश, ते अवगाढक कै सुविशेष ।। वा. जेह घनायत बार प्रदेशावगाढ कह्यो तेह कृतयुग्म प्रदेशावगाढ हवै। इम यावत शब्द थकी कदाचित कल्योज प्रदेशावगाढ कहिवो । तेह इमजेह श्रेण्यायत त्रिप्रदेशावगाढ ते व्योज प्रदेशावगाढ । तथा जेह श्रेण्यायत द्विप्रदेशिक ते द्वापर युग्म प्रदेशावगाढ। तथा जेह घनायत पैतालीस प्रदेश प्रदेशावगाढ ते कल्योज प्रदेशावगाढ हुवै-ए एकत्वे चितव्या । २९. आयते णं भंते ! पुच्छा। गोयमा! सिय कडजुम्मपदेसोगाढे जाव सिय कलियोगपदेसोगाडे । (श. २५६५) वा. 'सिय कडजुम्मपएसोगाढे' त्ति यद् घनायत द्वादशप्रदेशिकमुक्तं तत्कृतयुग्मप्रदेशावगाढं यावत्करणात् 'सिय तेओयपएसोगाढे सिय दावरजुम्मपएसोगाढे' त्ति दृश्य, तत्र च यत् श्रेण्यायतं त्रिप्रदेशावगाढं यच्च प्रतरायतं पञ्चदशप्रदेशिकमुक्तं तत्त्यग्रत्वाल्योजः प्रदेशावगाढं, यत्पुनः श्रेण्यायतं द्विप्रदेशिक श० २५, उ. ३ बा० ४३७ ३३ Jain Education Intemational Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. बहु वच परिमंडल जगनाह ! ? स्यूं कउजुम्म प्रदेश ओगाह इत्यादिक पूछा पहिचाण, उत्तर भाखं है जगभाग ।। ३१. ओष सामान्य व्यकी पिण सोय, विधान भेद थकी पिण जोय । कृतयुग्म नभ अंश ओगाह, वा० ओघ आश्री ते समुच्चय सामान्य थकी समस्त हीज परिमंडल कहिये तथा विधान साथी ते भेद की एक परिमण्डल कहिये। एष श्री पण अ विधान आश्री पिण कृतयुग्म प्रदेशावगाढ हुवै। बीस तथा चालीस प्रमुख प्रदेशावगाढपण करी तेहन कह्या मार्ट त्योज प्रदेशावगाढ नहीं तथा द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ न हुवे तथा कल्योज प्रदेशावगाढ पिण न हुवै । ३२. बहु वच वृत्त संठाण जिनेश ! स्यूं कडजुम्म आकाश प्रदेश । अवगाही नै रह्या छै तेह ? हिव जिन उत्तर आप एह ।। ३३. ओषादेश कडजुम्म प्रदेश अवगाही में रह्या सुविशेष । योज द्वापरजुम्म कल्पोज ताहि, । नभ प्रदेश अवगाहै नांहि ॥ ताह, ३४. विधान इक इक कहि कजुम्म प्रदेश पिण ओगाह । त्र्योज आकाश प्रदेश सुजोय, ते पिण अवगाढक ए होय ॥ ३५. द्वापरयुग्म आकाश प्रदेश से अवगाढक नहिं छे एस || कल्योज नभ- प्रदेश पिछाण, तेह तणों ओगाहक जाण ।। योज दावरजुम्म कल्पोज नांह || वा० - बहुवचने वृत्त संठाण खंधा ओघादेश करि सामान्य करि विचारतां थकां कृतयुग्म प्रदेश अवगाढा हुवै। सर्व प्रदेशां नै भेला कीधे छते च्यार-च्यार अपहरवं छेहड़े व्यार अधिक रहे ते माटे कृतयुग्म प्रदेश अवगाढा हुवै । अन विधानादेश ते एक-एक वृत्त नां खंध चितवे करि द्वापरयुग्म प्रदेश अवगाढ वर्जी सप्तादिक जघन्य वृत्त भेद नैं विषे । इम सर्व न विषे वृत्त वस्तु स्वभाव शेष अवगाढा हुवै। जिम पूर्वे कह्या पंच च्यार व्यार अपहरवं अधिक दोय नथी हुवै rat द्वापरयुग्म प्रदेश अवगाढ न हुवै इम । ३६. बहु वच तंस अहो जिनराया ! स्यूं कदजुम्म प्रदेश ओगाया ? इत्यादिक वर प्रश्न उदारं, श्री जिन उत्तर भाखे सारं ।। ३७. ओष समुच्चय करि अवलोय, जुम्म नभ अवगाहक होय । अवगाहक नहिं छै त्रिहुं एस ॥ त्र्योज दावर कलियोग प्रदेश, ३४ भगवती जोड़ यच्च प्रतरायतं षट्प्रदेशिकं तद् द्वघग्रत्वाद् द्वापरयुग्मप्रदेशवासिय निजगाति यद् घनायतं पञ्चचत्वारिंशत्प्रदेशिकं तदेकाग्रत्वात्कल्योजः प्रदेशावनाढमिति । ( . . ०६४) ३०. परिमंडणं भंते ठाणा कि कसो गाढा पुच्छा । ३१. गोयमा ! ओवादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मपदेसोगाढा, नो तेयोगपदेसोगाढा, नो दावरजुम्मपदेसोगाढा, नो कलियोगपदेसोगाढा । (श. २५/६६ ) वा. 'ओघादेसेण वि' त्ति सामान्यतः समस्तान्यपि परिमण्डलानीत्यर्थः 'विहाणादेसेणवि' त्ति भेदन एक परिमण्डलमित्यर्थः कृतयुग्मप्रदेशाव गावनिवारित्प्रतिप्रदेशावगाहियेनोक्तत्वात्तेषामिति । (बु.प. ०६४) ३२. संडाणा हिम्यपदेोगादा-पुच्छा । ३३. गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा, नो नो दाम्पसमा नो 1 कलियोगपदेसोगाढा, ३४. विजु देवि तेयोगपदेसोगाढा वि ३५. नो दावरजुम्मपदेसोगाढा, कलियोग पदेसोगाढा वि । (श. २५/६७) वा. 'वट्टा ण' मित्यादि, 'ओघादेसेणं कडजुम्म पएसो गाढे' त्ति वृत्तसंस्थानाः स्कन्धाः सामान्येन विमानाः कृतयुग्मपायनादाः सर्वेषां तरप्रदेशानां मीलने चतुष्कापहारे विविधानादेवेन पुनर्द्वापरप्रदेशावगाढवर्जाः शेषावगाढा भवन्ति यथा पूर्वोक्तेषु पञ्चसप्तादिषु जघन्यवृत्तभेदेषु चतुष्कापहारे द्वयाविशिष्टता नास्ति एवं सर्वेष्वपि तेषु वस्तुस्वभावत्वाद् (बु. प. ८६४) ३६. डागा कि जुम्मपदेसोगाढ़ा - पुच्छा । ३७. गोयमा ! ओवादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा, नो योगसगाडा नोमाढा, नो कलियो Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. विहाणादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा वि, तेयोगपदेसी गाढा वि, नो दावरजुम्मपदेसोगाढा, कलियोगपदेसोगाढा वि। ३९. चउरंसा जहा बट्टा । (श. २५२६८) ३८. विधान एक-इक आश्री सोय, कडजुम्म नभ अवगाहक होय । व्योज दावरजुम्म नभ अवगाही, ___ कल्योज नभ अवगाहक नाहीं।। ३९. बहुवच चउरसा संठाण, जिम बहु वच वृत्त आख्यो जाण । तिणहिज विध कहिवो छै एह, ओघ विधान आश्रयी जेह ॥ ४०. बहु वच आयत प्रश्न विचार, जिन कहै ओघ सामान्य थी धार । कडजुम्म गगन प्रदेश ओगाही. शेष तीन अवगाहणा नाही ।। ४१. विधान आश्री ए अवलोय, कडजुम्म नभ अवगाढा होय । जाव कल्योज प्रदेश ओगाह, वस्तु स्वभाव थकी कहिवाह । वा०-ए खेत्र थकी एकवचन, बहुवचन करि संस्थान चितव्या । हिवं काल थकी एकवचन, बहुवचन करिकै चितवतो थको कहै छै ४२. इक परिमंडल हे भगवंत ! स्यूं कडजुम्म समय स्थितिवंत ? योज द्वापर कल्योज विचार ?, ए त्रिहुं समय स्थितिक अवधार ।। वा० हे भगवन ! परिमण्डल संस्थान एतलै परिमण्डले संस्थाने करी परिणत खंध केतलो काल रहिस्य ? स्यूं चतुष्क अपहारे करी ते काल ना समय च्यार शेष हुवै अथवा तीन शेष हुवै अथवा दोय शेष हुवै अथवा एक शेष रहै ? इति प्रश्न । ४०. आयता णं भंते ! संठाणा-पुच्छा। गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा, नो तेयोगपदेसोगाढा, नो दावरजुम्मपदेसोगाढा, नो कलियोगपदेसोगाढा, ४१. विहाणादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा वि जाव कलियोगपदेसोगाढा वि । (श. २०६९) वा.-एवं तावत्क्षेत्रत एकत्वपृथक्त्वाभ्यां संस्थानानि चिन्तितानि, अथ ताभ्यामेव कालतो भावतश्च तानि चिन्तयन्नाह-- (वृ. प. ८६४) ४२. परिमंडले णं भंते ! संठाणे किं कडजम्मसमय ठितीए? तेयोगसमयठितीए ? दावरजुम्मसमयठितीए ? कलियोगसमयठितीए ? वा.-'परिमंडले ण' मित्यादि, अयमर्थःपरिमंडलेन संस्थानेन परिणताः स्कन्धाः कियन्तं कालं तिष्ठति ? कि चतुष्कापहारेण तत्कालस्य समयाश्चतुरग्रा भवन्ति त्रिद्वय काग्रा वा? (व. प. ८६४) ४३. गोयमा ! सिय कडजुम्मसमयठितीए जाव सिय कलियोगसमयठितीए । एवं जाव आयते । ४४. परिमंडला णं भंते ! संठाणा किं कडजुम्मसमय ठितीया पुच्छा। ४३. जिन कहै ओघ थकी अवधार, कडजुम्म समय स्थितिक किणवार । जाव कदाचि समयज स्थित्त, एवं जाव आयत लग वक्खित्त ।। ४४. बहु वच परिमंडल प्रभु ! कथिया, स्यूं कडजुम्म समय नां स्थितिया। इत्यादिक पूछया अवधार, तसु उत्तर देवै जगतार ।। ४५. ओघ सामान्य थकी अवलोय, कडजुम्म समय स्थितिक कद होय । जाव कदाचित ते कलियोग, समय स्थितिका होवै प्रयोग । १. प्रस्तुत गाथा के सामने भगवती का जो पाठ उद्धृत किया गया है, उसकी जोड के साथ संवादिता नहीं है। मुद्रित और हस्तलिखित अनेक प्रतियों में ऐसा ही पाठ है। किन्तु जयाचार्य द्वारा लिखित 'हेम भगवती' में जो पाठ है, वह इस गाथा का संवादी है। ४५. गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मसमयठितीया जाव सिय कलियोगसमयठितीया, (श. २०७०) श० २५, उ०३, ढा०४३७ ३५ Jain Education Intemational Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. विहाणादेसेणं कडजुम्मसमयठितीया वि जाव कलियोगसमयठितीया वि, एवं जाव आयता। (श. २५७१) ४७. परिमंडले णं भंते ! संठाणे कालवण्णपज्जवेहिं कि कडजुम्मे जाव कलियोगे? ४८. गोयमा ! सिय कडजुम्मे । एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ठितीए। ४६. विधान इक-इक आश्रयी छै, कडजुम्म समय स्थितिका पृच्छै । जाव कल्योज समय स्थितिकापी, एवं जावत आयत व्यापी ।। भाव थकी एकवचन बहुवचन करिक संठाण - ४७. इक वच परिमंडल भगवान ! काल वर्ण पजर्व करि जान । स्यूं कडजुम्म जाव कलियोग ? जिन भाखै सुण धर उपयोग ।। ४८. कदाचित कडजुम्म इत्यादि, इण आलावे करि संवादि । जेम समय स्थितिके आख्यात, तिमहिज कहिवो ए अवदात ।। ४९. नील वर्ण पजव पिण एम, पंच वर्ण करि कहिवो तेम । दोय खंध करि इम कहिवाय, पंच रसे करि पिण इम थाय ।। ५०. आठ फर्श पिण इमहिज कहि, जावत लुक्ख फर्श करि लहिवू । ए सगलाई बोल विचार, समय स्थितिक जिम कहिवू सार ।। ५१. शत पणवीसम तृतीय - देश, चिहं सौ सैतीसमी ढाल विशेष । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय पसाय, 'जय-जश' संपति हरष सवाय ।। ४९. एवं नीलवण्णपज्जवेहिं । एवं पंचहि वण्णे हिं, दोहिं गंधेहि, पंचहिं रसेहि, ५०. अट्टहिं फासेहिं जाव लुक्खफासपज्जवेहिं । (श. २५१७२) ढाल : ४३८ १,२. द्रव्याद्यपेक्षया संस्थानपरिमाणस्याधिकृतत्वात्संस्थानविशेषितस्य लोकस्य तथैव परिमाणनिरूपणायाह-- (वृ. प. ८६४) श्रेणी-परिमाण दूहा १. द्रव्य खेत्रादि अपेक्षया, जे संस्थान परिमाण । तेह तणों विस्तार ते, पूर्वे आख्यो जाण ।। २. हिवै विशेष संस्थान नों, द्रव्यादि अपेक्षाय । जे परिमाण निरूपिय, सांभलज्यो चित ल्याय ।। ३. श्रेणी प्रभु ! केती कही, द्रव्य अर्थ करि मंत । स्यं संख्याती श्रेणि छै, के छै असंख अनंत?।। वा० - सेढि० - श्रेणी शब्दे करी यद्यपि पंक्ति मात्र कहिय, तथापि इहां आकाश प्रदेश पंक्ति ते श्रेणी शब्दे ग्रहिवी। पहिला तो लोकालोक नी विवक्षा अणकरिव एतले सामान्यपणे आकाश नी श्रेणी ग्रहिवी १, पछ तेहिज सामान्य आकाश नी श्रेणी पूर्वापर आयत २, दक्षिण-उत्तर आयत ३, ऊर्ध्व-अध आयत ४, ३. सेढीओ णं भंते ! दवट्ठयाए कि संखेज्जाओ ? असंखेज्जाओ ? अणंताओ? वा.-'सेढी' त्यादि, श्रेणीशब्देन च यद्यपि पंक्तिमात्रमुच्यते तथाऽपीहाकाशप्रदेशपंक्तयः श्रेणयो ग्राह्याः, तत्र श्रेणयोऽविवक्षितलोकालोकभेदत्वेन सामान्याः १ तथा ता एवं पूर्वापरायताः २ ३६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं लोकसंबंधिनी पिण ४, अलोक संबंधिनी पिण ४ कहिवी। तिहां सामान्य श्रेणी नों प्रश्न कहै छ ४. जिन कहै संख्याती नहीं, असंख्यात नहिं कोय। श्रेणि अनंती द्रव्य थी, सामान्य थी ए होय ।। वा...सामान्य आकाशास्तिकाय नी श्रेणि नां वंछवा थकी एतले सामान्य कहि लोक-अलोक बिहुं नी श्रेणि वंछी ते माट अनंती कहिये । दक्षिणोत्तरायताः ३ ऊर्वाधआयताः ४, एवं लोकसम्बन्धिन्योऽलोकसम्बन्धिन्यश्चेति, तत्र सामान्ये श्रेणीप्रश्ने (व. प. ८६५) ४. गोयमा ! नो संखेज्जाओ, नो असंखेज्जाओ, अणंताओ। (श. २५१७३) वा.---'अणंताओ' त्ति सामान्याकाशास्तिकायस्य श्रेणीनां विवक्षितत्वादनन्तास्ता:, (वृ. प. ८६५) ५. पाईणपडीणायताओ णं भंते ! सेढीओ दव्वट्ठयाए कि संखेज्जाओ? एवं चेव । ६. एवं दाहिणुत्तरायताओ वि। एवं उड्ढमहायताओ वि। (श. २५७५) ५. पूर्व पश्चिम हे प्रभु ! आयत लांबी श्रेण । __ स्यू संख्याती आदि जे? एवं चेव कहेण ।। ६. दक्षिण उत्तर आयत पिण, इमहिज श्रेणि अनंत । ऊंची नीची आयत पिण, श्रेणि अनंती मंत ।। वा०-इहां च्यार प्रश्नोत्तर कह्या । प्रथम समुच्चय सामान्य थी लोकालोक आकाशास्तिकाय नी श्रेणि द्रव्य थकी अनंती कही १। सामान्य थकी लोकालोक नीं पूर्व पश्चिमे लांबी श्रेणि द्रव्य थकी अनंती कही २ । सामान्य थकी लोकालोक नीं दक्षिण उत्तरे लांबी श्रेणि द्रव्य थकी अनंती कही ३। सामान्य थकी लोकालोक नी ऊंची नीची लांबी श्रेणि द्रव्य थकी अनंती कही ४ । हिवै ए च्यार प्रश्नोत्तर लोकाकाश नीं श्रेणि आश्री द्रव्यार्थपणे करी कहिय छ *श्रेणि विस्तार सुणों जन श्रोता!(ध्रुपद) ७. लोकाकाश नी श्रेणी प्रभुजी! द्रव्य अर्थ करितेहो जी। स्यूं संख्याती के असंख्याती छ, अथवा अनंती एहो जी? ८. श्री जिन भाखै नहि संख्याती, असंख्याती कहिवायो जी। वलि द्रव्य थकी श्रेणी नहि छै अनंती, लोक असंख रै न्यायो जी।। ९ पूर्व पश्चिम लांबी प्रभुजी ! लोकाकाश नी श्रेणो जी । द्रव्य अर्थ करि स्यूं संख्याती, एवं चेव असंख्याती कहेणी जी।। १०. इमहिज दक्षिण उत्तर लांबी, ऊंची नीची इम लंबी जी। असंख्याती श्रेणी द्रव्य थकी छै, ए जिन वाणी अदंभी जी ।। हिवै ए च्यार प्रश्नोत्तर अलोक आश्री द्रव्याथिकपणे करि कहियै छ - ११. अलोकाकाश नी श्रेणि प्रभुजी ! द्रव्य अर्थ करि तेही जी। स्य संख्याती के असंख्याती छै, अथवा अनंती जेही जी? १२. श्री जिन भाखै नहीं संख्याती, असंख्याती नहिं होई जी। द्रव्य अर्थ करि श्रेणि अनंती, अनंत अलोक सूजोई जी ।। १३. पूर्व पश्चिम लांबी पिण इम, लांबी दक्षिण उत्तर एमो जी। इमहिज ऊंची नीची लांबी, श्रेणि अनंती तेमो जी ।। हिवै सामान्य थी ए ४ प्रदेशार्थिकपणे करी कहै छै --- १४. प्रदेश अर्थ करि श्रेणि प्रभुजी ! स्यं संख्याती कहिये जी ? द्रव्य अर्थ करिने जिम आखी, तिमज प्रदेश थी लहिये जो ।। १५. जाव ऊंची नीची आयत लांबी, प्रश्न च्यारूंइ मांही जी। श्रेणि अनंती प्रदेश थकी छै, पिण संख असंख न थाई जी।। ७. लोगागाससेढीओ णं भंते ! दब्वट्ठयाए कि संखे___ ज्जाओ? असंखेज्जाओ? अणंताओ? ८. गोयमा ! नो संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, नो ___ अणंताओ। (श. २५७५) ९. पाईणपडीणायताओ णं भंते ! लोगागाससेढीओ दव्वट्ठयाए कि संखेज्जाओ? एवं चेव । १०. एवं दाहिणुत्तरायताओ वि। एवं उड्ढमहायताओ (श. २५७६) वि। ११. अलोगागाससेढीओ णं भंते ! दव्वट्ठयाए कि संखेज्जाओ ? असंखेज्जाओ? अणंताओ? १२. गोयमा ! नो संखेज्जाओ, नो असंखेज्जाओ, अणंताओ। १३. एवं पाईणपडीणायताओ वि । एवं दाहिणत्तरायताओ वि । एवं उड्ढमहायताओ वि । (श. २५७७) १४. सेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए कि संखेज्जाओ? जहा दव्वट्ठयाए तहा पएसट्ठयाए वि १५. जाव उड्ढमहायताओ वि । सव्वाओ अणंताओ। (श. २५७८) *लय : चतुर विचार करी में देखो। श० २५, उ०३ ढा०४३८ ३७ Jain Education Intemational Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. लोगागाससेढीओ णं भते ! पएसट्टयाए कि संखेज्जाओ-पुच्छा। १७. गोयमा ! सिय संखेज्जाओ, सिय असंखेज्जाओ, नो अणंताओ। __ वा.- लोगागाससेढीओ णं भंते ! 'पएसट्टयाए' इत्यादौ 'सिय संखेज्जाओ सिय असंखेज्जाओ' त्ति अस्येयं चूर्णिकारव्याख्या-लोकवृत्तानिष्क्रान्तस्यालोके प्रविष्टस्य दन्तकस्य याः श्रेणयस्ता द्वित्रादिप्रदेशा अपि संभवन्ति तेन ताः सङ्ख्यातप्रदेशा लभ्यन्ते शेषा असङ्खचातप्रदेशा लभ्यन्त इति, (व. प. ८६५) हिवं ए ४ प्रश्नोत्तर लोकाकाश आश्री प्रदेशअर्थपणे करि कहियै छ--- १६. लोकाकाश नी श्रेणी प्रभजी ! प्रदेश-अर्थपणेहो जी। स्यूं संख्याती इत्यादि पूछा? हिव जिन उत्तर देहो जी ।। १७. कदाचित संख्याती कहिजे, कदा असंख्याती जाणी जी। अनंती नहीं छ प्रदेश आश्रयी, हिव तसु न्याय पिछाणी जी ।। वा०- इहां प्रदेश आश्री कदाचित संख्याती कही। ते लोक नै विषे किसी श्रेणी नां संख्याता प्रदेश हुवै, तेहगें न्याय कहै छ। इहां चूर्णिकार नी ए व्याख्या-लोक वृत्त थकी नीकल्या अनै अलोक नै विषे पंठा एहवा जे दंता, तेहनी जे श्रेणि ते काइक श्रेणि दोय प्रदेश नी हवै, कांइक श्रेणि तीन प्रदेशादिक नीं पिण संभव, तिण करिक ते श्रेणि ना प्रदेश सख्याता लाभ। शेष असंख्याता प्रदेश लाभ इति । वलि टीकाकारस्तु साक्षेपपरिहारं चेह प्राह - परिमंडलं जहन्नं भणियं कडजुम्मवट्टियं लोए । तिरियाययसेढीणं संखेज्जपएसिया किह णु ?॥१॥ दो दो दिसासु एक्केक्कओ य विदिसासु एस कडजुम्मे । पढमपरिमंडलाओ वुड्ढी किर जाव लोगतो ॥२॥ इत्याक्षेपः, परिहारस्तु अट्ठसया पसज्जइ एवं लोगस्स न परिमंडलया । वट्टालेहेण तओ वुड्ढी कडजुम्मिया जुत्ता ॥३॥ एवं च लोकवृत्तपर्यन्तश्रेणयः संख्यातप्रदेशिका भवन्तीति । १८. पूर्व पश्चिम लांबी पिण इमहिज, इम दक्षिण उत्तर लांबी श्रेणी जी। कदा संख्याती के असंख्याती छै, प्रदेश आश्रयी लेणी जी। १९. ऊंची नीची लांबी नहिं संख्याती, असंख्याती ए श्रेणी जी । नहीं अनंती प्रदेश आश्रयी, लोक आकाश कहेनी णी जी ।। वा०-इहां कह्यो - ऊंची नीची लांबी श्रेणि प्रदेश आश्रयी संख्याती नथी अनै अनंती नथी ते असंख्याती छ जे भणी । ते लोक नीं श्रेणि नै ऊर्ध्वलोकान्त थकी अधोलोकान्त नै विषे तो अधोलोकान्त थकी ऊर्ध्वलोकान्त नै विषे प्रतिघात हुवै ते भणी असंख्यात प्रदेशहीज तथा जे अधोलोक नां कूणां थकी नीकली अनै ब्रह्मलोक नै तिरछ, बिचलै, छहडै रहै छै तिका श्रेणी पिण संख्यात प्रदेश नी न लाभ, एहिज सूत्र नां वचन थकी। १८. एवं पाईणपडीणायताओ वि। दाहिणत्तरायताओ वि एवं चेव । २०. अलोकाकाश नी श्रेणी प्रभुजी ! प्रदेश आश्रयी प्रच्छा जी। कदा संख्याती कदा असंख्याती, कदा अनंती इच्छा जी। १९. उड्ढमहायताओ नो संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, नो अणंताओ। (श. २५।७९) वा.-'उड्ढमहाययाओ' 'नो संखेज्जाओ असंखेज्जाओ' त्ति यतस्तासामुच्छ्रितानामूर्ध्वलोकान्तादधोलोकान्तेऽधोलोकान्तादूई वलोकान्ते प्रतिघातोऽतस्ता असङ्ख्यातप्रदेशा एवेति, या अप्यधोलोककोणतो ब्रह्मलोकतिर्यग्मध्यप्रान्ताद्वोत्तिष्ठन्ते ता अपि न सङ्ख्यातप्रदेशा लभ्यन्ते, अत एव सूत्रवचनादिति। (वृ. प. ८६५) २०. अलोगागाससेढीओ णं भंते ! पदेसट्ठयाए-- पुच्छा । गोयमा ! सिय सखेज्जाओ, सिय असंखेज्जाओ, सिय अणंताओ। (श. २५८०) वा.-.--'अलोगागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए' इत्यादि, 'सिय संखेज्जाओ सिय असंखेज्जाओ' त्ति यदुक्तं तत्सर्वं क्षुल्लकप्रतरप्रत्यासन्ना ऊर्वाधआयता अधोलोकश्रेणीराश्रित्येत्यवसेयं, ता हि आदिमा: सङ्खचातप्रदेशास्ततोऽसङ्खघातप्रदेशास्ततः परं वा-अलोकाकाश नी श्रेणी प्रदेश आश्रयी कदा संख्याती कदा असंख्याती कदा अनंती ते सर्व थकी क्षुल्लक प्रतर तेहमें नजीक जे ऊर्ध्व अध: आयत अधोलोकाकाश नी श्रेणी नै आश्रयी जणाय छ। ते आदि नी श्रेणी संख्यात प्रदेश की, ते उपरंत असंख्यात प्रदेश की, ते उपरंत अनन्त प्रदेश की। अनै तिरछी लांबी अलोक श्रेणी प्रदेश थकी अनंत प्रदेशनीज जाणवी । ३८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. पूर्व पश्चिम लांबी प्रभु ! प्रदश आश्रयी जाणी जी। संख्याती के असंख्याती छै, अथवा अनंती माणी जी? २२. श्री जिन भाखै नहि संख्याती, असंख्याती नहि थंभी जी। अनंती कहिय प्रदेश आश्रयी, इम दक्षिण उत्तर पिण लंबीजी ।। त्वनन्तप्रदशा: तिर्यगायतास्त्वलोकश्रेणयः प्रदेशतोऽनन्ता एवेति । (बृ. प. ८६६) २१. पाईणपडीणायताओ णं भंते ! अलोगागाससेढीओ. पुच्छा । २२. गोयमा ! नो संखेज्जाओ, नो असंखेज्जाओ, अणंताओ। एवं दाहिणत्तरायताओ वि । (श २५।८१) २३. उड्ढमहायताओ-पुच्छा। गोयमा ! सिय संखेज्जाओ, सिय असंखेज्जाओ, सिय अणंताओ। (श. २५८२) २४. सेढीओ णं भंते !कि सादीयाओ सपज्जवसियाओ ? सादीयाओ अपज्जवसियाओ? २३. ऊंची नीची आयत नीं पृच्छा, कदा संख्याती कहिये जी। कदा असंख्याती कदा अनंती, प्रदेश आश्रयी लहियै जी ।। हिवै श्रेणि आदि सहित प्रश्न पूछ छ । २४. श्रेणी प्रभुजी ! स्यू आदि सहित छ, के अंत सहित धुर भंगो जी। क आदि सहित ने अंत रहित छै, ए भंग द्वितीय सुचंगो जी ।। २५. के आदि रहित ने अंत सहित छ, तृतीय भंग ए तामो जी। के आदि रहित ने अंत रहित छ, ए तुर्य भंग छै आमो जी ? २६. श्री जिन भाखै आदि सहित नै, अंत सहित भंग नाही जी। आदि सहित ने अंत रहित भंग, ए पिण न लहै क्यांही जी ।। २७. आदि रहित ने अंत सहित ए, तृतीय भंग नहि पावै जी। आदि रहित ने अंत रहित ए, तुर्य भंग इहां थावै जी ।। २८. एवं जावत ऊंची नीची, आयत श्रेणिज कहिये जी। समुच्चय श्रेणी भणी ए आखी, हिव लोक अलोक नी लहिये जी ।। २९. लोकाकाश नी श्रेणी प्रभु ! स्यूं, आदि सहित अंत सहीतो जी? इत्यादिक चिउं भंग नी पृच्छा, हिव जिन भाखै वदीतो जी । ३०. पादि सहित ने अंत सहित छै, प्रथम भंग ए पायो जी। शेष तीनूइ भांगा नहीं छै, ए तो छ पाधरो न्यायो जी ।। २५. अणादीयाओ सपज्ज पसियाओ? अणादीयाओ अपज्जवसियाओ ? २६. गोयमा ! नो सादीयाओ सपज्जवसियाओ, नो सादीयाओ अपज्जवसियाओ, २७. नो अणादीयाओ सपज्ज वसियाओ, अणादीयाओ अपज्जवसियाओ। २८. एवं जाव उड्ढमहायताओ। (श.२५८३) २९. लोगागाससेढीओ णं भंते ! किं सादीयाओ सपज्जवसियाओ-पुच्छा। ३०. गोयमा ! सादीयाओ सपज्जवसियाओ, नो सादीयाओ अपज्जवसियाओ, नो अणादीयाओ सपज्जवसियाओ, नो अणादीयाओ अपज्जव सियाओ। ३१. एवं जाव उड्ढमहायताओ। (श. २५८४) ३१. एवं जावत ऊची नीची, आयत श्रेणी केणी जी। लोकाकाश श्रेणि आश्रयी आख्या, हिव अलोकाकाश नी श्रेणी जी ।। वा०-इहां श्रेणि नां विशेष रहितपणां करी प्रश्न पूछयो, पिण लोक नों तथा अलोक नों नाम लेई न पूछ्यो। ते भणी जिका लोक नै विषे पिण श्रेणि छ अनै अलोक नै विषे पिण श्रेणि छ, तेहनों ग्रहण करि । सर्व लोक अलोक नीं श्रेणि ग्रहण करिवा थकी आदी रहित अनै अंत रहित एकहीज, ए चउथो भांगो कहिये । अनै शेष तीन भांगा नथी कहिये। ३२. अलोकाकाश नी श्रेणी प्रभुजी ! स्युं आदि सहित अंत सहीतो जी ? इत्यादि भंग च्यारूं पूछयां, जिन कहै सुण धर प्रीतो जी॥ वा.-'सेढीओ णं भंते ! किं साईयाओ' इत्यादिप्रश्नः, इह च श्रेण्योऽविशेषितत्वाद्या लोके चालोके च तासां सर्वासां ग्रहणं, सर्व ग्रहणाच्च ता अनादिका अपर्यवसिताश्चेत्येक एव भङ्गकोऽनुमन्यते शेषभङ्गकत्रयस्य तु प्रतिषेधः। (वृ. प. ८६७) ३२. अलोगागाससेढीओ णं भंते ! किं सादीयाओ सपज्जवसियाओ-पुच्छा। श० २५, उ० ३, ढा० ४३८ ३९ Jain Education Intemational Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. आदि सहित अंत सहित कदाचित, कदा सादि अनंत कहीतो जी । आदि रहित अंत रहित कदाचित, कदा आदि रहीत अंत रहीतो जी ।। सोरठा ३४. शुलक प्रतर आसन, अर्ध अधो लांबी जिका। श्रेणि आश्रयी जन्न, सादि सअंतज प्रथम भंग ।। ३५. लोकांत अवधि बकीज, आरंभी ने सर्व दिशि । अलोक मांहि कहीज, आदि सहित अंत रहित फुन ॥ ३६. तृतीय अनादिज संत, ते लोकांतज श्रेणि तणों ने अंत, तेही बच्चा वा० - पहिली कानी रा अलोक थी लेखवियं तो आदि रहित अनैं लोकांत नैं समीप जे अलोक नीं श्रेणि छँ तिहां अलोक नीं श्रेणि नों अंत कहिये । इम आदि रहित अंत सहित तीजो भांगो हुवै । ३७. कदा अनादि अनंत, लोक तजी ने श्रेणि जे। तास अपेक्षा हुंत, तुर्य भंग इहविध कह्यो । ३८. * पूर्व पश्चिम आयत ने वलि, दक्षिण उत्तर आयत जी । ए बिहं मांहि एवं चैव कहिये, नवरं विशेष कहावत जी ॥ ३९. सादि सवंत प्रथम भंग न है. शेष तीन भंग होई जी । कदा सादि अंत रहित इत्यादिक शेष तिमज ए तीनोंई जी ।। निकट जे। भी हुई ।। सोरठा ४० अलोक में अवलोय, तिरछी सादिपर्णे पिण जोय, अंत ४१. ते माटे अवलोव प्रथम भंग शेष तीन भंग होय, कहिया पूर्वी परं ॥ ४२. * ऊंची नीची आयत लांबी, जिम कह्यो ओधिक मांह्यो जी । तिम हिज भंग च्यारूई भगवा, ए अलोकाकाश कहायो जी ॥ ४३. हे भगवत जी ! सगली श्रेणि, ते द्रव्य अर्थपणेहो जी। ४० स्यूं कउजुम्मा तथा तेओगा, इत्यादि पृच्छा करेहो जी ? ४४. श्री जिन भा कडजुम्मा हूँ, तेजगा नाहि कहावत जी । नहि द्वापरम्य नहीं कलियोगा इम जाव ऊंची नीची आयत जी ॥ श्रेणी नां तिहां । सहितपणुं नथी । नहि इहां। सोरठा ४५. कडजुम्माज कहीज, वस्तु स्वभाव भी हां। कहिवो फुन इमहीज, सगला स्थानक नै विषे ॥ *लय: चतुर विचार करी ने देखो भगवती जोड़ ३३. गोयमा ! सिय सादीयाओ सपज्जवसियाओ, सिय सादीयओ अपज्जवसियाओ, सिय अणादीयाओ सपज्जवसियाओ, सिय अणादीयाओ अपज्जवसियाओ । ३४. 'सिय साईयाओ सपज्जवसियाओ' त्ति प्रथमो भङ्गक: शुक्लप्रतरप्रत्यासत्ती यतश्रेणीराबित्यावसेयः, ( वृ. प. ८६७ ) ति द्वितीयः ३५. सिय साइया अपयसियाओ स च लोकान्तादवधे रम्य सर्वतोऽसेव ३६. 'सिय अणाईयाओ ( वृ. प. ८६७) सपज्जवसियाओ' त्ति तृतीय:, स च लोकान्तसन्निधौ श्रेणीनामन्तस्य विवक्षणात् । ( वृ. प. ८६७) ३७. "सिय पाईपाओ अपनवविवाओ' ति चतुर्थ स च लोकं परिहृत्य याः श्रेणयस्तदपेक्षयेति । (4.4.450) ३८. पापडाताओ हिरावताओ य एवं व नवरं ३९. नो सादीयाओ सपज्जवसियाओ, सिय सादीयाओ अपज्जवसियाओ । सेसं तं चेव । ४०, ४१. 'नो साईयाओ सपज्जवसियाओ' त्ति अलोके तिर्यक श्रेणीनां सादित्वेऽपि सयवसितत्वस्याभावान्न प्रथमो भङ्गः, शेषास्तु त्रयः संभवन्त्यत एवाह(बु.प. ०६७) ४२. उमाताओ जहा ओहियाओ तब मंगो (श. २५०८५ ) ४३. सेढीओ णं भंते! दव्वट्टयाए कि कडजुम्माओ, तेओयाओ - पुच्छा | ४४. गोममा ह नोवाल नो दावरम्मा, नो कवियोगाल एवं जाव उड् महायताओ । ४५. 'जुम्मा' ति कथं? वस्तुस्वभावात् एवं सर्वा अपि, (बु. प. ८६७) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. लोगागाससेढीओ एवं चेव । एवं अलोगागाससेढोओ वि। (श. २५।८६) ४६. * लोकाकाश श्रेणि पिण इमहिज, _ अलोकाकाश नी श्रेणी जी। ते पिण इणहिज रीते कहिणी, द्रव्य थकी ए लेणी जी ।। ४७. हे भगवंतजी ! सगली श्रेणी, प्रदेशार्थपणें कहावत जी । स्यूं कडजुम्मा एवं चेवज, इम जाव ऊंची नीची आयत जी ।। ४७. सेढीओ ण भते ! पदेसट्टयाए कि कडजुम्माओ? एवं चेव । एवं जाव उड्ढमहायताओ। (श. २५।८७) ४८. लोगागाससेढीओ णं भंते ! पदेसट्टयाए-पुच्छा । ४८. लोकाकाश नी श्रेणी प्रभजी! प्रदेश अर्थपणेहो जी। स्यूं कडजुम्मा इत्यादिक पृच्छा ? हिव जिन उत्तर देहो जी ।। ४९. कदाचित ते है कडजुम्मा, तेओगा नहिं होई जी। कदाचित है द्वापुरयुग्मा, कलिओगा नहिं कोई जी ।। वा० ... लोकाकाश नी श्रेणि प्रदेश थकी कदा कडजुम्मा, कदा द्वापुरयुग्मा। तेहनों न्याय इम छै-रुचक अर्थ थकी आरंभी न जे पूर्व दिशि अर्द्धलोक अथवा रुचकार्द्ध थकी आरंभी नै जे दक्षिण दिशि अर्धलोक तेह पश्चिम अर्धलोक करिक तथा उत्तर अर्धलोक करिक तुल्य एतला माटे पूर्व पश्चिम श्रेणि बली दक्षिण उत्तर श्रेणि समसंख्य आकाश प्रदेश नी छ, तेह काइक श्रेणि कृतयुग्म हुवे, कांइक श्रेणि द्वापुरयुग्म है, पिण नहीं त्योज प्रदेश, नहीं कलियोग प्रदेश, निश्च तिण प्रकार करिक असद्भाव स्थापना करिके । दक्षिण पूर्व नां रुचक प्रदेश थकी पूर्व दिशे जे लोकार्द्ध श्रेणि तेहनां प्रदेश सौ १०० मान हुवे। अथवा जे अपर दक्षिण रुचक नां प्रदेश थकी पश्चिम दिशे लोकार्द्ध श्रेणि तेहनां पिण प्रदेश १०० परिमाण हुवै । वलि ते २०० सौ नं च्यार-च्यार अपहर करी पूर्व पश्चिम जे लोक नी श्रेणि नै कृतयुग्मपणों हुवै तथा दक्षिण पूर्व नां रुचक प्रदेश थकी दक्षिण दिशे जिको अन्त्य प्रदेश, तेह थकी आरंभी पूर्व दिशे लोकार्द्ध श्रेणि ते ९९ प्रदेश प्रमाण हुवै । वलि जे पश्चिम दक्षिण नां रुचक प्रदेश थकी दक्षिण दिशे जिको अन्त्य प्रदेश, तेह थकी आरंभी नै पश्चिम दिशे लोकाद्धं श्रेणि तेह पिण ९९ प्रदेश प्रमाण हुवै । वलि ते बिहुँ ९९ भेला कियां च्यार-च्यार अपहरवं करि पूर्व पश्चिम जे लोक नीं श्रेणि नै द्वापरयुग्मपणों हुवे। इम अनेरी पिण लोक नीं श्रेणि नै विषे भावना करवी। ५०. इमहिज पूर्व पश्चिम लांबी, दक्षिण उत्तर लंबी जी। ते पिण कडजुम्म द्वापुरजुम्मा, व्योज कल्योज नै थंभी जी ।। ५१. ऊर्द्ध अधो आयत नी पृच्छा? जिन कहै कडजुम्म त्यांही जी। नहिं तेओगा न द्वापरजुम्मा, कलियोगा पिण नांही जी।। ४९. गोयमा ! सिय क डजुम्माओ, नो तेओयाओ, सिय दावरजुम्माओ, नो कलियोगाओ। वा.-'लोगागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए' इत्यादी स्यात् कृतयुग्मा अपि स्यात् द्वापरयुग्मा इत्येतदेवं भावनीयं - रुचकार्डादारभ्य यत्पूर्व दक्षिण वा लोकार्द्ध तदितरेण तुल्यमतः पूर्वापरश्रेणयो दक्षिणोत्तरश्रेणयश्च समसङ्ख्यप्रदेशाः ताश्च काश्चित् कृतयुग्मा: काश्चिद् द्वापरयुग्माश्च भवन्ति न पुनस्त्योजप्रदेशा: कल्योजप्रदेशा वा, तथाहिअसदभावस्थापनया दक्षिणपूर्वाद रुचकप्रदेशात्पूर्वतो यल्लोकश्रेण्यर्द्ध तत्प्रदेशशतमानं भवति, यच्चापरदक्षिणाद्रुचकप्रदेशादपरतो लोकश्रेण्यद्धं तदपि प्रदेशशतमान, ततश्च शतद्वयस्य चतुष्कापहारे पूर्वापरायतलोकश्रेण्याः कृतयुग्मता भवति, तथा दक्षिणपूर्वाद्रुचकप्रदेशाद्दक्षिणो योऽन्त्यः प्रदेशस्तत आरभ्य पूर्वतो यल्लोकश्रेण्यर्द्ध तन्नवनवतिप्रदेशमानं, यच्चापरदक्षिणायताद्रुचकप्रदेशाद्दक्षिणो योऽन्त्यः प्रदेशस्तत आरभ्यापरतो लोकश्रेण्यर्द्ध तदपि च नवनवतिप्रदेशमान, ततश्च द्वयोर्नवनवत्योर्मीलने चतुष्कापहारे च पूर्वापरायतलोकश्रेण्या द्वापरयुग्मता भवति, एवमन्यास्वपि लोकश्रेणीषु भावना कार्या, (वृ. प ८६७) ५०. एवं पाईणपडीणायताओ वि, दाहिणुत्तरायताओ वि । (श. २५।८८) ५१. उढमहायताओ णं भंते ! पदेसट्टयाए- पुच्छा। गोयमा! कडजुम्माओ, नो तेयोगाओ, नो दावर जुम्माओ, नो कलियोगाओ। (श. २५।८९) वा. तिरियाययाउ कडबायराओ लोगस्ससंखसंखा वा। सेढीओ कडजुम्मा उड्ढमहेआययमसंखा ।। (व. प. ८६७) ५२. अलोगागाससेढीओ णं भंते ! पदेसट्ठयाए-पुच्छा । बा०-लोक नै तिरछी लांबी श्रेणि कृतयुग्मा वलि द्वापरयुग्मा हुवै । वलि श्रेणि संख्यात प्रदेश की तथा असंख्याता प्रदेश नी हुवै । अनै ऊंची, नीची, लांबी श्रेणि कृतयुग्माईज हुदै । वलि ते श्रेणि असंख्यात प्रदेशनीज हवं । ५२. अलोकाकाश नी श्रेणी प्रभुजी ! प्रदेश-अर्थपणेहो जी। स्यूं कडजुम्मा इत्यादि पृच्छा ? हिव जिन उत्तर देहो जी ।। ५३. कदाचित कडजुम्मा जावत, कदा कलियोगा कहावत जी। ___ इमहिज पूर्व पश्चिम लांबी, इम दक्षिण उत्तर आयत जी । *लय : चतर विचार करी नै देखो ५३. गोयमा ! सिय कडजुम्माओ जाब सिय कलि योगाओ। एवं पाईणपडीणायताओ वि। एवं दाहिणुत्तरायताओ वि। श०२५, २.३, डा०४३८४१ Jain Education Intemational Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा... अलोकाकाश नी श्रेणि प्रदेश थकी कदाचित कडजुम्मा ते किम ? जिका क्षुल्लक बे प्रतर नै समीप थकी तिरछी उठी तिका श्रेणि लोक ने फां विना रही ति का श्रेणि वस्तु स्वभाव थकी कृतयुग्म हुवे । इम यावत कदाचित कल्योज हुवै । इम पूर्व पश्चिम आयत पिण कहिवो । जाव शब्द कहिवा थकी कदा तेयोगा हुवे, कदा द्वापरयुग्मा हुवै, इम जाणवू । तेहनै विषे पलि बे क्षुल्लक प्रतर नां हेठला प्रतर थकी तथा ऊपरला प्रतर थकी जिका श्रेणि ऊठी तिका थेणि तेओगा हुवै । जे भणी बे क्षुल्लक प्रतर नै हेढ़ बलि ऊपरै प्रदेश थकी लोक ने वृद्धि थावै करी अनै अलोक नै प्रदेश थकोज हानि नां भाव थकी एक-एक प्रदेश नै अलोक श्रेणि थकी अपगम हुवै, ते भणी तेओगा हुवै। इम तेयोगा नां बिहु प्रतर थको अनंतर हेठला ऊपरला बिहुं प्रतर थकी जिका श्रेणि उठी तिका श्रेणि नै द्वापरयुग्मपणों हुवै । अन ते द्वापरयुग्म नां विहुं प्रतर थका अनंतर हेठला ऊपरला बिहं प्रतर थकी जिका श्रेगि उठी तिका श्रेणि न कल्यो जपणों हवं । इम वलि तिकाईज थेणि जिम संभवै, तिम कहिवी । ५४. ऊंची नीची लांबी पिण इमहिज, नवरं एतलो विशेखो जी। नो कलियोगा शेष तिमहिज छै, हिव तसुन्याय उवेखो जी। वा० - इहां क्षुल्लक प्रतर द्वय प्रमाण करिकै जिका उठी ऊंची लांबी श्रेणि तिका द्वापरयुग्मा कहिय तेह थकी ऊंची अनै वलि नीची एक प्रदेश वृद्धि करिक कृतयुग्मा कहिये । वलि किहां एक एक प्रदेश नी वृद्धि करिकै अन्य स्थानके बद्धि नां अभाव करिकै तेयोगा कहिय, पिण वलि कलियोगा इहां न संभव, वस्तु सवभाव थकीज । वलि ते भूमि नै विषे तथा पट नै विषे लोक नों आकार करीनै क्यारी नै आकार प्रदेश नी वृद्धि तेह थकी सर्व जाणवू । वा०- अलोगागाससेढीओ णं भंते ! पएसेत्यादौ 'सिय काडजुम्माओं' ति याः क्षुल्लकप्रतर द्वयसामीप्यात्तिरश्चीनतयोत्थिता याश्च लोकमस्पृशन्त्यः स्थितास्ता बस्तुस्वभावात्कृतयुग्माः, यावत्करणात् 'सिय तेओयाओ सिय दावर जुम्माओ' त्ति दृश्यं, तत्र च या: क्षुल्लकप्रतरद्वयस्याधस्तनादुपरितनाद्वा प्रतरादुत्थितास्तास्त्योजा: यतः क्षल्लकप्रतरद्वयस्याध उपरि च प्रदेशतो लोकस्य वृद्धिभावेनालोकस्य प्रदेशत एव हानिभावादेकैकस्य प्रदेशस्यालोकश्रेणीभ्योऽपगमो भवतीति, एवं तदनन्तराभ्यामुत्थिता द्वापर युग्मा: 'सिय कलिओगाओ' ति तदनन्तराभ्यामेवोत्थिताः कल्योजा:, एवं पुनः पुनस्ता एवं यथासम्भवं वाच्या इति । (वृ. प. ८६७,८६८) ५४. उड्ढ महायताओ वि एवं चेव, नवरं नो कलियोगाओ। सेसं तं चेव । (श. २५९०) वा०–'उड्ढाययाण' मित्यादि, इह क्षुल्लकप्रतरद्वयमानेन या उत्थिता उई बायतास्ता द्वापरयुग्माः तत ऊर्द्ध वमधश्चैकैकप्रदेशबुद्धया कृतयुग्मा: क्वचिच्चैकप्रदेशवृद्धयाऽन्यत्र वृद्धयभावेन त्र्योजाः कल्योजास्त्विह न संभवन्ति वस्तुस्वभावान्, एतच्च भूमौ लोकमालिख्य केदाराकारप्रदेशवृद्धिमन्तं ततः सर्व भावनीयमिति । (वृ. प. ८६८) सोरठा ५५. अन्य प्रकार करेह, श्रेणी तणी परूपणा । ____ हिव कहियै छै जेह, श्रोता चित दे सांभलो ।। ५६. *केतली हे प्रभु! श्रेणि परूपी ? जिन कहै श्रेणी सातो जी। उजुआयता एगओवंका, दुहओवंका विख्यातो जी ।। ५७. एगओखहा दुहओखहा, छठी कही चक्कवाला जी। सप्तमी श्रेणी अर्द्धचक्कवाला, जिन वच परम रसाला जी।। वा०-श्रेणि ते प्रदेश नी पंक्ति जीव पुद्गल नां संचरण विशेष । तिहां उजुआयता ते ऋजु तिका वलि आयत ते ऋजुआयता जिणे करी जीवादिक ऊर्द्ध लोकादिक थकी अधोलोकादिक नै विषे ऋजपण जावै स्थापना १ । ५५. अथ प्रकारान्तरेण श्रेणीप्ररूपणायाह ___(वृ. प. ८६८) ५६. कति णं भंते ! सेढीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा उज्जुआयता, एगओवंका, दुहओवंका, ५७. एगओखहा, दुहओखहा, चक्कवाला, अद्धचक्कवाला। (श. २५२९१) __वा०-- 'कइ ण' मित्यादि, 'श्रेणय:' प्रदेशपंक्तयो जीवपुद्गलसञ्चरणविशेषिताः तत्र 'उज्जुयायत' त्ति ऋजुश्चासावायता चेति ऋज्वायता यया जीवादय ऊध्र्वलोकादेरधोलोकादौ ऋजुतया यान्तीति, एगओवंका ते एक दिशि नै विषे वांकी वक्र गति तेहनै एगोवंका कहिये । जेणे करी जीव पुद्गल पाधरो जइन वांकी गति कर अनेरी श्रेणि करि जाय ते एगओवंका कहीजै स्थापना २ । 'एगओ बंक' त्ति 'एकत' एकस्यां दिशि 'वङ्का' वक्रा यया जीवपुद्गला ऋजु गत्वा वक्रं कुर्वन्तिश्रेण्यन्तरेण यान्तीति, स्थापना चेवम्, *लय : चतुर विचार करी नै देखो ४२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुओका ते जेहने विषे बे वार वक्र गति करें तिका द्विधा वक्रा ए ऊर्द्ध खेत्र थी आग्नेय दिशा नैं हेठे खेत्र नैं विषे वायव्य दिशि जाई जे ऊपन तेहने हुवे तिम प्रथम समये अग्निग भी तिरो ने ऋतिकूण में विजाय। तिवार पर्छ बीजे समय तिरछोइज वायव्यकूण नै विषे जाय। तिवार पर्छ तीजे इण हेतु थकी तीन समय ए त्रस नाड़ी समय नीची वायव्यकूण विषे ईज जाय । मध्य अथवा बाहिर हुवै । स्थापना ३ । Z एगओखा जेणे करी जीव तथा पुद्गल त्रसनाड़ी नां वाम पासादिक थकी मांही आवी नीचो जई वलि ते डावा पासादिके ऊपजै ते एके दिसे डावापासादिरूप ख. लोकनाडी थकी अनेरा आकाश नां हुआ थकी एगओखहा कहिये । ए श्रेणी बे, त्रिण, च्यार वक्रसहित पिण हुवै क्षेत्र विशेषाश्रित थकी । ते माट जुदी कही । तेहनीं स्थापना ४ । C दुहओखहा ते नाडी नैं वाम पासादिक थकी नाड़ी में नाड़ी करिकै जइ नैं एहने ईज दक्षिण पासादिक नै विषे frer द्विधाखहा । नाडी बाहिरभूत जे वाम दक्षिण पार्श्व नेति नाड़ी स्पर्धा ते भी वहा कहिये तेहनी स्वापना ५ । ५८. पूर्व श्रेणि संवादि, जे परमाणु आदि, अनुषेणी विधेणी गति S चक्रवाल ते मंडल नैं आकारे भमी नैं परमाणु द्विप्रदेशिक खंधादिक ऊपजै, तेहने चक्रवाल कहिये । तेह्नीं स्थापना ए ६ । o अर्द्ध चक्रवाल ते आकारे, ते अर्द्ध चक्रवाल । तेहनीं ए स्थापना ७ । प्रवेश करीन तेहिज जिण करिकै ऊपजै लक्षण दोय आकाश सोरठा तेहनांइज अधिकार थी । तसुं गति नीज परूपणा ।। ५९. *बहु वच परमाणु पुद्गल प्रभुजी ! अनुश्रेणि गति प्रवर्ततोजी । अथवा विवेणि गति जे प्रवर्क्स ? जिन भाखं सुण संतो जी ॥ ६०. अनुश्रेणि गतिज प्रवर्त्ते परमाणु, विश्रेणि गति वर्त्त नांही जी । अनुश्रेणि गति नैं विश्रेणि गति नों, अर्थ धारो हिया मांही जी ।। सोरठा ६१. अनुकूल जे कहिवाय, पूर्वादिक दिश सम्मुखी । श्रेणि जिहां छे ताय, ते अनुश्रेणी जाणवी || * लय : चतुर विचार करो नैं देखो 'दुहओवंक' त्ति यस्यां वारद्वयं वक्रं कुर्वन्ति सा द्विधावा, इयं चोर्ध्वक्षेत्रादाग्नेय दिशोऽधः क्षेत्रे वायव्यदिशि गत्वा य उत्पद्यते तस्य भवति, तथाहि प्रथमसमये आग्नेय्यास्तिर्यग् याति नॠत्यां ततस्तिर्यगेव वायव्यां ततोऽधो वायव्यामेवेति, त्रिसमयेयं सनाड्या मध्ये बहिर्वा भवतीति, 'एगओखह' त्ति यया जीव: पुद्गलो वा नाड्या वामपादाविष्टा पुनस्तद्वागणादावुत्पद्यते सा एकत: खा, एकस्यां दिशि नामादिपार्श्वलक्षणायां खस्य - आकाशस्य लोकनाडीव्यतिरिक्तलक्षणस्य भावादिति इस च द्विताऽपि क्षेत्रविशेषाश्रितेति भेदेनोक्ता, स्थापना चेयम् 2 'दुहओखह' त्ति नाड्या वामपार्श्वदेर्नाडीं प्रविश्य तयैव गत्वाऽस्या एव दक्षिणपार्थ्यादी ययोत्पद्यते सा द्विदासानामदक्षिणपालक्षणयोईयोराकाशयोस्तया स्पृष्टत्वादिति स्थापना चेयम् 'चक्कवाल' त्ति चक्रवालं मण्डलं, ततश्च यथा मण्डलेन परिभ्रम्य परमाण्वादिरुत्पद्यते सा चक्रवाला, सा चैवम् 'अद्धचक्कवाल' त्ति चक्रवालार्द्धरूपा, सा चैवम् । ( वृ. प. ८६८) ५८. अनन्तरं श्रेणय उक्ताः अथ ता एवाधिकृत्य परमाण्वादिगतिप्रज्ञापनायाह( वृ. प. ८६८) २९. परमामागं भंते ! कि अणुसेदि गती पवत्तति ? विसेदिं गती पवत्तति ? ६०. गोयमा ! अणुसेढि गती पवत्तति, नो विसेदि गती पवत्तति । (२५०९२) - ६१,६२. 'अणुसेढि' त्ति अनुकूला – पूर्वादिदिगभिमुखा णियंत्र तदनुषि तथा भवत्येवं गतिः प्रवर्तते (बु.प. ६) , श० २५, उ० ३, ढा० ४३८ ४३ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. 'विसेदि' ति विरुद्धा विदिगाश्रिता श्रेणी यत्र तद्विश्रेणि, इदमपि क्रियाविशेषणम् । (वृ. प. ८६८) ६२. अनुश्रेणी जिम होय, तिण रीते गति प्रवत । तेहने कहिये सोय, अनुश्रेणी गति अर्थ ए। ६३. विदिशि आश्रिता श्रेण, जेह विषे छै तेहने । विश्रेणीज कहेण, क्रिया विशेषण एह पिण। ६४. जिम विश्रेणी होय, तिमहिज जे गति प्रवत्त । विश्रेणी गति सोय, परमाणू नी ए नथी ।। ६५. वृत्ति विषे ए ख्यात, अनुश्रेणी विश्रेणि न । ___अर्थ अन्य हिव थात, कहिय छै ते सांभलो ।। ६६. अनुकूलपणे सुजोय, सप्त श्रेणि पूर्वे कही। तिण करि गमनज होय, अनुश्रेणी कहिये तसु ।। ६७. विगत श्रेणि सुविचार, जे सातूंई श्रेणि विण । गमन हुवै ते धार, तास विश्रेणि कहीजिये ।। ६८. अनुश्रेणि नं जोय, वलि विश्रेणी शब्द हैं । अर्थ कदा इम होय, ते पिण जाणे केवली ।। ६९. अनूश्रेणि गति होय, परमाणू पुद्गल तणीं। विश्रेणी नहि कोय, प्रश्न हिवै दुप्रदेशि न । ७०. *दोय प्रदेशियो खंध प्रभुजी ! प्रवत्तँ गति अनुश्रेणी जी । अथवा विश्रेणी गति प्रवत ? जिन कहै इमहिज केणी जी ।। ७१. एवं जाव अनंतप्रदेशिक, खंध लगै अवदातो जी। ते अनुश्रेणी गतिज प्रवत्त, विश्रेणि गति नहिं थातो जी।। ७२. नेरइया अनुश्रेणि गति स्यू प्रवत्त, के विश्रेणि गति प्रवर्ततो जी? एवं चेव पूर्ववत कहिवो, इम जाव वैमानिक हुँतो जी ।। ७०. दुपएसियाणं भंते ! खंधाणं अणुसेढि गती पवत्तति ? विसेदि गती पवत्तति ? एवं चेव । ७१. एवं जाव अणंतपदेसियाणं खंधाणं । (श २५।९३) ७२. नेरइयाणं भंते ! कि अणसेटिं गती पवत्तति ? विसेढि गती पवत्तति? एवं चेव। एवं जाव वेमाणियाणं । (श. २५।९४) ७३,७४. अनुश्रेणिविश्रेणिगमनं नारकादिजीवानां प्रागुक्तं, तच्च नरकावासादिषु स्थानेषु भवतीतिसम्बन्धात्पूर्वोक्तमपि नरकावासादिकं प्ररूपयन्नाह (व. प.८६८) सोरठा ७३. गति अनुश्रेणि विशेण, कही नारकादिक तणीं। तेहनां स्थान कहेण, नरकावासादिक विषे । ७४. इण संबध थी आत, नरकावासादिक कथन । पूर्व पिण आख्यात, परूपणा तेहनींज फुन ।। आवास नारक और देवों के ७५. *रत्नप्रभा पृथ्वी विषे प्रभुजी ! केतला लक्ष कहायो जी? नारक ने रहिवा नां आवासा, नरकावासा ए ताह्यो जी ।। ७६. इम जाव प्रथम शत पंचमुदेशे, आख्या तिम इहां भणवा जी। जाव अनुत्तर विमान लगै जे, पूर्व कह्या तिम थुणवा जी ।। सोरठा ७७. ए नरकावासादि द्वादश अंग प्रभाव थी। जाणे धर अहलादि, जे छद्मस्थ मनुष्य पिण ।। ७८. ते माटै हिव ताय, द्वादश अंग परूपणा। गोयम प्रश्न सुहाय, उत्तर दे भगवंत तसु ।। *लय : चतुर विचार करी ने देखो ७५. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता? ७६. गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एवं जहा पढमसते पंचमुद्देसए (सू. २१२-२१५) जाव अणुत्तरविमाणत्ति। (श. २५९५) ७७,७८. इदं च नरकावासादिक छमस्थैरपि द्वादशाङ्गप्रभावादवसीयत इति तत्प्ररूपणायाह (व. प. ८६८) ४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिपिटक ७९. *हे भगवंत ! जे कितै प्रकारे, गणिपिटक कहिवायो जी ? प्रवचन पाठक में गणि कहिये, तेह्नों पिटक पेटी सुखदायो जी ॥ ८०. जिन कहै द्वादश अंग अनोपम ए गणिपिटक आदो जी। धुर आचार आदि देई नैं, जावत दृष्टीवादो जी || ८१. से किं तं आयारो अथ स्यूं ते आचार ? 1 अथवा दूजो अर्थ जानो जी । से किं तं स्यूं ते वस्तु जे आचार, हम करिवं व्याख्यानो जी ।। वा०से कि आवारों से कहितां अथ कि कहितास्तं कहिले आयारो कहितां आचार- ए प्रथम अर्थ अथवा दूजो अर्थ से किं तं-किस्युं ते वस्तु जे आचार | ८२. आया कहां आचार पुर अंग, करणभूत करि सारो जी । करण अर्थ में विभक्ति तीजी, तिण शास्त्र करी सुविचारों जी ।। ८३. दूजो अर्थ तथा आयारे कहितां, आचार अंग विषेहो जी । हां विभक्ति सप्तमी कहिये, णं कहितां अलंकारेहो जी || ८४. आचार सूत्र पुर अंग करिके, अथवा घुर अंग विषेहो जी। श्रमण निग्रंथ नों आचार प्रमुख इम, अंग परूपण भणेहो जी ॥ वा० - समणाणं निग्गंथाणं आयारगोयर एवं अंगपरूवणा भाणियव्वा 'जहा नंदीए [ नंदी सूत्र ८१ १२७] जाव सुत्तत्थो खलु पढमो ।' इहां कह्योसमणाणं निग्गंथाणं आयारगोयर इण वचने करिकै युं जाणवु ' आयारगोयरविणयवेणइय सिक्खाभासाअभासाचरणकरणजायामायावित्तीओ आघवेज्जं तित्ति तत्र आयारो कहितां आचार पंच प्रकारे ज्ञान आचार, दर्शण आचार, चारित्र आचार, तप आचार, वीर्य आचार। गोयर कहितां गोचर भिक्षा ग्रहण नीं विधि रूप लक्षण । विषय कहितां ज्ञानादिक विनय सात प्रकारे । वेणइय कहिता विनय नों फल कर्म क्षय रूप । सिक्खा कहितां शिक्षा ग्रहण, आसेवणा । ग्रहणसिक्खा ते नों को वचन ग्रहण करितुं । आसेवणसिक्खा ते गुरु नों को पालबुं । गुरु तथा ग्रहण शिक्षा ते ज्ञान नुं ग्रहण करिवुं आसेवन शिक्षा ते महाव्रत नुं पालवं । अथवा वेणइयत्ति वैनयिको वा विनेय शिष्य तेहने शिक्षा वैनयिक शिक्षा अथवा विनेय शिक्षा | भाषा सत्य अन व्यवहार, अभाषा ते मृवा अन मिश्र । कहितां चारित्र पंच महाव्रतादि । करण कहितां पिंड नीं विशुद्धि प्रमुख जाया कहितां संजम यात्रा करि । माया कहितां तेहने अर्थे आहार नीं मात्रा । वृत्ति - - विविध अभिग्रह विशेष करिकै वर्त्तमान । आघविज्जंति कहितां ते कहिये। चरण इहां आयरगोयर इत्यादिक नैं विषे जे किहांएक अन्यत्र उपादान ते अन्यतर ग्रहण न विषे अन्यतर रह्यो छँ जे अर्थ तेहनुं कहिवुं जिम विनय ग्रहण कीधे *लय : चतुर विचार करी नें देखो ७९. कतिविहे णं भंते! गणिविडए पण्णत्ते ? 1 ८०. गोवमा दुवासंगे गणपते व जहा आयारो जाव दिट्टिवाओ। (श. २५४९६) ८१. से किं तं आयारो ? 'से किं तं आयारो' त्ति प्राकृतत्वात् अथ कोऽसावाचार: ? अथवा किं तद्वस्तु यदाचार इत्येवं व्याख्येयम् ? ( वृ प. ८६८ ) ८२. आवारे णं 'जयारे' ति आचारेण शास्त्रेण करणभूतेन । (बु. प. ०६८) ०३. अथवा आचारे अधिकरणभूते मिलङ्कारे । ( प. ८६८) या आधारगोवर' इत्यनेनेदं सूचितम् ' आयारगोयर विणयवेणइय सिक्खाभासाअभासाचरणकरणजायामायावित्तीओ आघवेज्जंति' त्ति, तत्राचारो -ज्ञानाद्यनेकभेदभिन्नः गोचरो भिक्षागणि विनयो- ज्ञानादिविनयः वैनयिकं विनयफलं कर्म्मक्षपादि शिक्षा ग्रहणासेवनाभेदभिन्ना अथवा 'वेणइय' त्ति वैनयिको विनयो वा शिष्यस्तस्य शिक्षा वैनयिक शिक्षा विनेयशिक्षा वा भाषा - सत्या चरणं - सत्यामृषा च अभाषा मृषा सत्यामृषा च व्रतादि, करणं पिण्डविशुद्धयादि, यात्रा संयमयात्रा, मात्रा तदर्थमाहारमात्रा, वृत्ति विविधरभिग्रह विशेषैर्वर्तन, आचारश्च गोचरश्चेत्यादिर्द्वन्द्वस्ततश्च ता आख्यायन्ते - अभिधीयन्ते, इह च यत्र वचिदन्यतरोपादानेन्यतरगतार्थाभिधानं तत्सर्वं तत्प्राधान्यख्यापनार्थमेवावसेयमिति । 'एवं अंगपरूवणा भाणिययव्वा जहा नंदीए' श० २५, उ० ३, ढा० ४३८ ४५ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्ति एवमिति--पूर्वप्रदर्शितप्रकारवता सूत्रेणाचाराद्यङ्गप्ररूपणा भणितव्या यथा नन्द्यां सा च तत एवावधार्या, अथ कियद्रमियमङ्गप्ररूपणा नन्द्युक्ता वक्तव्या इत्याह - जाव सुत्तत्थो' (वृ. प. ८६८, ८६९) छते तेहन विषे वैनयिक - अर्थपणुं रह्योज छै ते सर्व रह्या अर्थ पिण ते प्रधानपणुं जणावा नै अर्थे ईज इम जाणवू, इम अंग परूवणा भणवो। जिम नंदी नै विषे कही, तिम जाणवी। अथ किहां लगे ए अंग परूपणा नंदी में कही, ते कहिवी 'जाव सुत्तत्थो खलु पढमो' ए गाथा लगै । ८५. सूत्रार्थ मात्र प्रतिपादन तत्पर, सूत्रार्थ अनुयोग एहो जी। ए धुर अनुयोग गुरु शिष्य ने कह्यो, मोहमति मती थावेहो जी ।। ८६. सूत्रस्पर्शिक नियुक्तिमिश्रज, करिवं अनुयोग बीजे जी। तीर्थंकरादिक एम भण्यु छ, हिव तृतीय अनुयोग कहीजे जी ।। ८७. निविशेष अनुयोग ए तीजो, सूत्र अर्थ नियुक्ति जी। सर्व प्रकार करी कहिवा थी, ए विध अनुयोगे उक्ति जी ।। ८८. सूत्र तणों जे अर्थ करीन, अनुरूप योग करीजै जी। ते अनुयोग विषे विप्रकार नी, विधि पूर्वोक्त भणीज जी ।। वा० सुत्रार्थमात्र नों प्रतिपादन करणहारो पहलो सूत्रार्थानुयोग कहिये । खलु निश्चयार्थे एतले गुरु सूत्रार्थ कहितांरूपज पहलो अनुयोग करै, जे भणी विस्तारी ने कहे तो नवदीक्षित शिष्य नी मति मुरझाए । बीजो अनुयोग सूत्रस्पशिक-नियुक्ति-मिश्र करिवो कह्यो तीर्थंकरादिके। तीजो बलि अनुयोग निरवशेष ते सूत्र थकी प्रसक्त एतले बंधाणा अथवा अनुप्रसक्त नहीं बंधाणा अनेरा समस्त अर्थ नों कहिवा थकी निरवशेष अनुयोग कहियै । ए पूर्वोक्त त्रिण प्रकार नीं विधि हुवै । अनुयोग नै विषे अनुयोग एतले सूत्र नै अर्थ करिके अनुकूलपण योग करिवो। इहां कोई कहै -भगवंते नियुक्ति कही, तुम्हैं किम नथी मानता? तेहनै कहिय सूत्र में कही नियुक्ति तिका मानवा योग्य छै। जद अनेरा कहै-ए भद्रबाहु नी कीधी नियुक्ति किम नथी मानो ? तेहनै कहिये -जे भगवती सूत्र में निर्यक्ति कही छै, ते भगवती सूत्र तीर्थकर छतां हुँतो अन तेहनै विषे नियुक्ति कही । ते पिण तीर्थंकर थकां हुंती, ते मानवा जोग्य छ। ए नियुक्ति कही ते सूत्र नै विषे ईज रही जणाय छ। समवायंग नै विषे अंग-परूपणा कही, तिहां एहवो पाठ छै --- आयारस्स णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जूत्तीओ से णं अंगट्टयाए पढमे अंगे। इहां प्रथम अंग नै विष संख्याता श्लोक कह्या अनै संख्याती नियुक्ति कही। जिम आचारंग नै विषे श्लोक कह्या तिमहिज ते आचारंग नै विषेईज नियुक्ति संभव । ते समवायंग नी टीका में तथा टबा में अर्थ कियो, ते लिखिये है--सूत्र नै विषे कहिवापण करी थाप्या अर्थ नु योजवं ते युक्ति, विशेष घटनाई योजवू ते नियुक्ति । ए नियुक्ति नों अर्थ कियो ते भणी सूत्र नै अंतरईज नियुक्ति संभव। जिम सूत्र नै विषे संख्याती वाचना, संख्याता अनुयोगद्वार उपक्रमादिक, संख्याती पडिवत्ती द्रव्यादिक पदार्थ, तेहy मतांतरे प्रतिपत्ति, संख्याता वेढा छंद विशेष, संख्याता श्लोक अनुष्टुप छंद। तिम सूत्र नै विषे संख्याती निर्यक्ति संभवै । वा. सूत्रार्थमात्रप्रतिपादनपरः सूत्रार्थोऽनुयोग इति गम्यते, खलुशब्दस्त्वेवकारार्थः स चावधारणे इति, एतदुक्तं भवति–गुरुणा सूत्रार्थमात्राभिधानलक्षण एव प्रथमोऽनुयोगः कार्यो, मा भूत् प्राथमिकविनेयानां मतिमोह इति, द्वितीयोऽनुयोगः सूत्रस्पर्शकनिर्यक्तिमिश्रः कार्य इत्येवंभूतो भणितो जिनादिभिः, 'तृतीयश्च' तृतीय: पुनरनुयोगो निरवशेषो निरवशेषस्य प्रसक्तानुप्रसक्तस्यार्थस्य कथनात् 'एष.' अनन्तरोक्तः प्रकारत्रयलक्षणो 'भवति' स्यात् 'विधिः' विधानम् 'अनुयोगे' सूत्रस्यार्थनानुरूपतया योजनलक्षणे विषयभूते इति गाथार्थः । (व. प. ८६९) ४६ भगवतो जोड Jain Education Intemational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने जे कोई कहे निर्यक्ति सूत्र की खुदी हंसी तो भगवती में क होते वीर थकां नियुक्ति जुदी कहै ते हिवडां रही नथी । अन भद्रबाहु नीं कीधी कहै तो भद्रबाहु स्वामी तो पर्छ थया । तेहनों कीधी नियुक्ति तीर्थंकर थकां भगवती में क्या थी आवी ? ग्रामो नास्ति कुतः सीमा जे ते वेला भद्रबाहु नथी तो तेहनी कीधी नियुक्ति भगवती में किम कही ? इहां तो गोतम प्रतं भगवान का जे सूत्रार्थ मात्र प्रथम अनुयोग करि भने बीजो अनुयोग जिनादि को ते करिबुं । इण लेखे भद्रबाहु पहिला निर्मुक्ति हुंती ते सूत्रे कही छे, ते प्रमाण छ । निकिमि भगवंत छतां जे सूत्रे तो दृष्टिवाद पिण का है और अनेक सूत्र नां नाम कह्या छै । पण जे विच्छेद गया, ते हिवडां नथी । तिमहिज निर्युक्ति प्रभु थकां जो सूत्र थकी जुदी कहै तो ते पण विच्छेद गई । ते प्रभु थकां री नियुक्ति जुदी बतावो ते मानवा जोग्य । जिम आचारंगादिक हिवडां छँ ते नियुक्ति हिवडा देखाओ । अन ए भद्रबाहु स्वामी कीधी नियुक्ति कहै तेहने विषे अनेक तो तो विरुद्ध बोल कह्या छे । ते लेखे ए भद्रबाहु री कीधी न संभव। ठाणांग चढवे ठाणे [४३] सनतकुमार व अंतक्रिया कीधी कही अ] आवश्यक नियुक्ति (गाचा ४०१] में तथा ठाणांग नीं टीका [बृ. प. १७१] में तीजे देवलोक कहै छे, ए सूत्र विरुद्ध १ । उववाई [सू. १८७ ], भगवती [ ९/४० ] पण्णवणा [ २०६७ गा. ६ ] में कह्यो पांचसौ धनुष्य उपरंत न सी, ते उपरांत युगलियो कहिये । अन आवश्यक नियुक्ति [ गाथा १५६,१६० ] में कह्यो जे मरुदेवी माता नी अवगाहना सवा पांच सौ धनुष्य नीं सीझी कहै, ए विरुद्ध २ । समवायंग] [२४२३] में बासि शह्मी, अनं आवश्यक नियुक्ति म सुंदरी ए ५ नों सरीखो आयो ६४ लाख पूर्व मध्ये कह्यो - ऋषभ ९९ पुत्र सहित [ एक भरत टाली नैं ] अने भरत नां भरत पुत्र एवं १०८ उत्कृष्टी अवगाह्नावंत एक सप्तम में सिद्धा, ते गाथा उसहो उसहसुया भरहेण विवज्जिया नवनवई । भरहस्स अट्ठ सुया सिद्धा एगम्मि समयम्मि ॥ इहां ऋषभ अने बाहुबली सरीखा आउखा नां धणी साथे सिद्धा कहै, ए विरुद्ध ३ । मल्लिनाथ न चारित्र अने केवलज्ञान ज्ञाता अधेन [नाया. २२२२२५] अनं आवश्यक नियुक्ति [गाया सुदि ११ कहै, ए विरुद्ध ४ । बली आवश्यक नियुक्ति में को साधु का करें पंचक में तो तला डा नां करवा अन आज भलो ग्रहस्थ होवें ते पिण ए काम न करें । जे साधु 'काल करें तो वांस जाची ल्यावी झोली करी एकांते परिठवी आवे ए बृहत्कल्प [ ४ २५] सूत्रे कह्यो । आवश्यक नों नियुक्ति में कह्यो साधु काल करें पंचक में तो पूतला डाभ नां करवा कह्या, ते पाठ लिखिये है में पो. सुदि ११ २५० ] में मृगसर दोणिय दिवढखेत्ते दब्भमया पुत्तला कायव्वा । समखेत्तम्मिय एक्को अवड्ढभीइण कायव्वो । इहां दोढ नक्षत्र नैं विषे दोय डाभ नां पुतला करवा । तीस मुहूर्ते एक क्षेत्र कहिये अने पैंतालीस मुहूर्ते दोढ क्षेत्र कहिये । ते उत्तरा फाल्गुनी १, उत्तराषाढा २, उत्तरा भद्रपदा ३, पुनर्वसू ४, रोहिणी ५, विशाखा ६ ए छह श० २५, उ० ३, ढा० ४३८ ४७ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्रे पैतालीस मुत्तिया नै विषे दोय डाभ नां पूतला करवा । अने सम क्षेत्र तेतीस मुहत्तिया नक्षत्र १५, ते अश्विनी १, कृत्तिका २, मृगसिरा ३, पुष्य ४, मघा ५, पूर्वा फाल्गुनी ६, हस्त ७, चित्रा ८, अनुराधा ९, मूल १०, पूर्वाषाढा ११, श्रवणा १२, धनिष्ठा १३, पूर्वाभद्रपदा १४, रेवती १५-ए पन्नरै तीस मुहत्तिया सम क्षेत्र नक्षत्र में विषे एक डाभ नों पूतलो करवो। अपार्द्ध भोगी ते पन्नर महतिया ६ नक्षत्र-शतभिषग १, भरिणी २, आर्द्रा ३, अश्लेषा ४, स्वाति ५, ज्येष्ठा ६ ए अपार्द्ध क्षेत्र छह नक्षत्र में विषे अनै अभीचि विषे एक ही न करणो इति गाथार्थ:। ए आवश्यकनियुक्ति तेहनी परिठावणीया समिति नी वृत्ति मध्ये कह्यो ते विरुद्ध । एहवा वचन चवदै पूर्वधारी ना न हुदै । वलि आवश्यकनियुक्ति में एहवी गाथा कही --- उज्जेणीए जो जंभगेहि आणक्खिऊण थुयमहिओ। अखीणमहाणसियं सीहगिरिपसंसिरं वंदे ।।७६६।। जस्स अणुण्णाए वायगत्तणे दसपुरम्मि नयरम्मि । देवेहि कया महिमा पयाणुसारि नमसामि ।।७६७।। जो कण्णाइ धणेण य निमंतिओ जुव्वणम्मि गिहवइणा। नयरम्मि कुसुमनामे तं वइररिसिं नमसामि ॥७६८।। जे कन्या करिकै धन करिक निमंत्रियो योवन नै विषे ग्रहपतिइं कुसम नामे नगर न विषे, ते वयर-ऋषि प्रतै नमस्कार करूं जेणद्धरिया विज्जा आगासगमा महापरिणाओ। वंदामि अज्जवइरं अपच्छिमो जो सुयहराणं ।।७६९।। जो ए आवश्यकनियुक्ति भद्रबाहु स्वामी चवद पूर्वधर तेहनी कीधी हुदै तो ए भद्रबाहु थकी घणां वर्षा पछै वज्र स्वामी थया छ । ते वज्र स्वामी मैं नमस्कार ए नियुक्ति नै विर्षे किम करचो ? ते भणी ए चवद पूर्वधर भद्रबाहु नीं कीधी कहै ते न मिल । वली तीजो अनुयोग निरवशेष कह्य, ते सूत्र अर्थ नियुक्ति सर्व प्रकारे कहिवू । नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव अथवा नेगमादिक नय करी कहिवी। इहां केतलाएक कहै—निरवशेष नां अर्थ टीकाकार पिण टीका, चुणि, भाष्य नों अर्थ नथी कियो अन टबा विषे पिण नथी कियो । टीकाकार निरवशेष नों अर्थ कियो ते लिखियै छ--निरवशेष ते प्रसक्त अनुप्रसक्त अर्थ नै कहिवा थकी । अनै टबा ने करणहार निरवशेष नो अर्थ कियो ते लिखियै छ-तीजो वलि अनुयोग सूत्र अर्थ नियुक्ति सर्व प्रकारे ते निरवशेष एह टबा में कह्य ते भणी सर्व प्रकारे ते नय-निक्षेपादिके करी सूत्रादिक नै कहै ते निरवशेष संभवै । ए निरवशेष तीजो अनुयोग भगवती में प्रभु गोतम ने कह्यो सर्व प्रकारे करिवू ते वेला तो ए टीका, चणि, भाष्य न हंता । अन नय-निक्षेपादिक सर्व प्रकारे करि ते वेला पिण होइ। वलि केतला एक कहै-ए टीका अर्थागम छ, ते सूत्रागम जिम छ । तेहनों उत्तर-जे शब्द मूल सूत्र मध्ये हुवै ते पाठ नां शब्द नों अर्थ टीका में फलावियो ते टीका तो प्रमाण , अर्थागम मध्य पिण होई । पिण मूल पाठ मध्य तो ते वस्तुज नथी, तेहनों टीका में विस्तार कियो ते पाठ सूं नहीं मिले, ए अर्थ नां धणी कण ? ते माटै प्रकीर्ण ग्रंथ, टीका, चूणि , भाष्य सिद्धांत थकी मिल ते प्रमाण । अने जे टीकादिक नों अर्थ विरुद्ध मान्यां छतां सिद्धांत विगट ते प्रमाण नथी। सूत्र तो गणधर कृत भगवान थकां रा चाल्या आवै छ। ४६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ पन्नवणा आगे मोटी हुंती तेहनी श्यामाचायें छोटी कीधी हुवे तो कारण नथी । इमहिज नसीत, दशवैकालिक जणाय छे। जे केवली थकां दश पूर्वधारी तथा उपरंत पूर्व नां धरणहार नां कीधा तथा अवधि, मनपज्जवधर, प्रत्येकबुद्ध नों कीधो आगम हुवै तो जो पन्नवणा श्यामाचार्य नीं कीधी हुवै तो श्यामाचार्य तो दश पूर्वधर न हुंता तेवीसमे पाट माटे ऊणा पूर्वधारी हुंता हेमी नाममाला [ १०३४] में कहा - सुहस्ति की लेई बखस्वामी ताई दस पूर्वधारक श्यामाचार्य तो वज्रस्वामी पछै मोड़ा थया छैते भणी दश पूर्वधारी नथी । तेनों कीधो आगमन हुवै। ते भणी मोटी नीं छोटी कीधी संभव । अनैं जे केवली थकां दश पूर्वधारी प्रमुख नीं कीधी टीका अर्थागम कहै तो ते टीका fasi रही नथी । ए टीका तो पाछलां री कीधी छ । आचारांग, सूयगडांग नीं वृत्ति शीलंकाचायें कीधी, शष ९ अंग नीं वृत्ति अभयदेव सूरी कीधी । नंदी, पन्नवणा, चंदपण्णत्ती, सूरपणती, रायपश्रेणि अने जीवाभिगम नीं टीका मलयगिरी कधी । दशवेकालिक नीं टीका हरिभद्रसूरी कीधी । अनुयोगद्वार नीं टीका मलधारी हेमाचार्य कीधी । जे शीलंकाचार्य कृत आचारंग नीं टीका [प. २९२] में द्वितीय श्रुतखंध प्रथम अध्येन प्रथम उदेशे कह्यो– प्राण, बीज, हरी द्रोब, अंकुरादिक सहित पति नीलण कूलण सहित आहार पनि सचित आधाकर्मादिक दोष दुष्ट उत्सर्ग थकी न लेणो अने अपवाद थकी लेणो । जे दुर्लभ द्रव्य वलि दुर्भिक्ष में वलि ग्लानादिक कारण गीतार्थ साधु लेवे, एहवं का । ए आगम किम हुवै इत्यादिक जे टीका विषे अनेक बातां विरुद्ध छे ते, माने तो सिद्धांत नीं आसातना थावे ते भणी ए अर्थागम किम हुवै ? ते भणी निरवशेष तीजा अनुयोग में ए टीकादिक में अण मिलती वार्त्ता कही, ते सर्व प्रकार मान्य न हुवै। ज्ञान दृष्टि करि विचारी जोवजो ।' (ज.स.) सोरठा ८९. अग परूपण ख्यात, अंग विषे नारक प्रमुख । परूपिय अवदात, अल्पबहुल तेहनों पांच गति का अल्पबहुत्व हिवै ॥ ९०. हे भगवंत ! ए नेरइया नं जावत सुर सिद्ध सोयो जी। ए पंच गति नैं समासे करि नै अल्पबहुत्व किम होयो जी ॥ ९१. अल्पबहुत्व जिम पन्नवण सूत्रे, बहु वक्तव्यता पद तीजे जी । तिहां आखी तिम कहिवी इहां पिण, ते इह रीत भणीजे जी ।। ९२. नर नारक ने देव, थोड़ा असंख भेव, सोरठा । सिद्धा तिरि अनुक्रम करि असंच अनंत अनंतगुण || अष्ट गति का अल्पबहुत्व ९२. *फुन गति अष्ट संक्षेप करीने, नरक तिच तिरियंची जी। मनुष्य मनुष्यणी देव रु देवी, सिद्ध गति अठम वंछी जी ॥ *लय: चतुर विचार करी नें देखो ८९. अनन्तरमङ्गप्ररूपणोक्ता, अङ्गेषु च नारकादयः प्ररूयन्त इति तेषामेवाल्पबहुत्वप्रतिपादनायाह( वृ. प. ८६९ ) ९०, ९१. एएसि णं भंते य पंचगतिसमासे ! नेरइयाणं जाव देवाणं सिद्धाण कमरे कमरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? गोयमा ! अप्पाबहुयं जहा बहुवत्तव्वयाए । ( प. २०२०९) 'एएसि ण' मित्यादि' 'पंचगइसमासेणं' ति पञ्चगत्यन्तर्भावेन, एषां चाल्पबहुत्वं तथा वाच्यं यथा बहुवक्तव्यतायां - प्रज्ञापनायास्तृतीयपदे इत्यर्थः, ( वृ. प. ८६९ ) ९२. नरनेरइया देवा सिद्धा तिरिया कमेण इह होंति । थोवमसंखअसंखा अनंतगुणिया अनंतगुणा ॥ १ ॥ ( वृ. प. ८६९ ) ९३-९५. अट्ठगतिसमासप्पाबहुगं च । ( . २५९८ ) 'अदुगरसमाप्याययं च त्ति अष्टगतिसमासेन पदस्य हवं तदपि यथा बहुवतव्यतायां (प. ३३९) श० २५, उ० ३, ठा० ४३८ ४९ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४. अल्पबहुत्व एहनुं इम कहिवं, मनुष्यणो मव थो थोड़ी जी। तेहथी मनुष्य असंख्यातगुणा छै, नारक असंखगुण जोड़ी जी।। ९५. तेहथी तिर्यंचणी असंख्यातगुणी छै, असंखगुणा सुर संचो जी। ___ संखगुणी सुरी अनंतगुणा सिद्ध, अनंतगुणा तिर्यचो जी। तथा वाच्यम्, अष्टगतयश्चवं-नरक गतिस्तथा तिर्यग्नरामरगतयः स्त्रीपुरुषभेदाद् द्वेधा सिद्धिगतिश्चेत्यष्टो, अल्पबहुत्वं चैवमर्थतः-- नारी नर नेरइया तिरित्थि सुर देवि सिद्ध तिरिया य । थोव असंखगुणा चउ, संखगुणा णंतगुण दोन्नि ॥१॥ (वृ. प. ८६९) ९६. एएसि भंते ! सइंदियाणं, एगिदियाणं जाव अणिदियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? ९७. एयं पि जहा बहुबत्तव्वयाए (प. ३।४०) तहेव ओहियं पयं भाणियव्वं, ९८. तच्च पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेनापि तत्रोक्तं इह तु यत्सामान्यतस्तदेव वाच्य मिति दर्शयितुमाह-~ (वृ. प. ८६९) ९९-१०१. 'ओहियं पदं भाणियब्व' ति तच्चैवमर्थतः पण चउ ति दुय अणिदिय एगिदि सइदिया कमा हंति । थोवा तिन्नि य अहिया दोणंतगुणा विसेसहिया ।। (व प. ८६९) इन्द्रियों के सन्दर्भ में अल्पबहुत्व ९६. हे प्रभु ! एह सइंदिया एगिदिया, जाव अणिदिया जाणी जी। कवण-कवण थी अल्प बहु तुला, विशेषाधिक पहिछाणी जी? ९७. जिम बहु वक्तव्यता पद तीजे, सूत्र पन्नवणा मांडो जी। ए पिण अल्पबहुत्व तिहां आखी, - तिमहिज कहिवो ताह्यो जा ॥ ९८. ते वलि पर्याप्त अपर्याप्त नै, . तिहां भेद करि पिण भाख्यो जी। इहां सामान्य थी तेहिज कहिवं, तिणसू आगल इहविध दाख्यो जी। ९९. ओधिक इम भणवं कह्य सूत्रे, तास अर्थ अवलोई जी। पज्जत अपज्जत भेद बिण कीधे, ए सप्त बोल अवलोई जी ।। १००. सर्व थकी थोड़ा पंचेंदिया छै, चरिद्री अधिक विशेखो जी। तेहथी ते इंदिया विसेसाइया, बेइंद्रिय इमहिज पेखो जी ।। १०१. तेहथी अणिदिया अनंतगुणा छ, अनंतगुणा एगिदीया जी। तेहथी सइंदिया विसेसाहिया, ओधिक एम उच्चरीया जी ।। वा०--इहां अणिदिया कह्या ते तेरमो-चवदमो गुणस्थान अनैं सिद्ध लेखवणा, पिण इंद्रिय पर्याय बांध्यां पहिला अपर्याप्ता अणिदिया ते इहां न गिण्या। काय के सन्दर्भ में अल्पबहुत्व १०२. सकाइयादिक अल्पबहुत्व जे, तिमहिज ओधिक भणवी जी। पज्जत्त अपज्जत्त भेद बिण कीधे, पद तीजे' कही तिम थुणवी जी ॥ १०३. सर्व थी थोड़ा तसकाइया छ, असंखगुणा तेऊकायो जी। पृथ्वीकाइया विशेषाधिक छै, अप विशेषाइ ताह्यो जी ।। १०४. वाऊकाइया विशेषाधिक छ, अनंतगुणा छै अकायो जी। तेहथी वनस्पति अनंतगुणा छ, सकाइया विशेसायो जी ।। जीव यावत पर्यव का अल्पबहुत्व १०५. हे प्रभुजी ! ए जीव ने पुद्गल, जाव पज्जव सहु जाणी जी। कवण-कवण थी जाव पद तीजे, भाख्यो तिम पहिछाणी जी ॥ १०२. सकाइयअप्पाबहुगं तहेव ओहियं भाणियव्वं । (श. २५९९) १०३,१०४. तस तेउ पुढवि जल वाउकाय अकाय वणस्सइ सकाया। थोव असंखगुणा हिय तिन्नि उ दोणंतगुण अहिया ।। (व. प. ८६९) १०५. एएसि णं भंते ! जीवाणं पोग्गलाणं जाब (सं. पा) सब्बपज्जवाण य कयरे कयरेहितो अप्पा बा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? जहा बहुवत्तव्वयाए (प. ३।१२४] । (श. २५॥१००) १. प. ३१५०। *लय : चतुर विचार करी नै देखो ५. भगवती जोड़ .. . Jain Education Intemational Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० - इहां ए भावना सर्व थी थोड़ा जीव, जे भणी एक-एक जीव अनंतानंत पुद्गले करी बंध्या बहुलपणे हुवै। वलि पुद्गल जीव करिकै बंध्या अने अणबंध्या वलि हुवे । इण कारण थकी पुद्गल थकी जीव थोड़ा । जीव थकीपुद्गल अनंत गुणा ते किम ? जे तेजसादि शरीर जेणे जीवे ग्रहण कीधो, ते शरीर तिणां जीवां थकी पुद्गल नां परिमाण आश्रयी ने अनन्तगुणा हूवें तथा तेजस शरीर थकी प्रदेश आयी ने कार्मण शरीर अनन्तगुणो हुवे । इम ए तैजस, कार्मण जीव- प्रतिबद्ध अनन्तगुणा हुवे । अनैं जे तेजस, कार्मण जीवां करी मुक्या छे, ते प्रतिबद्ध थकी पिण अनन्तगुणा हुवै। शेष शरीर नीं चितवणा तो इहां करीज नहीं । कारण शेष शरीर नां मुकेलगा पिण आप आपने स्थाने तेजस कार्मण ने अनन्तमे भाग हुने एसे तेजसादि की अतिही थोड़ा ते मा इम तेजस नो पुदगल पिप जीव की अनन्तगुणा तो बलि कि कहि कार्मणादि पुद्गल राशि सहित नों । 1 तथा पन प्रकारे प्रयोग-परिषत पुद्गल है ते मोड़ाते की म परिणत पुद्गल अनंतगुणा तेही पि बीरासा परिणत पुद्गल अनंतागुणा । तीन प्रकारईज पुद्गल सगलाईज हुवै । वलि जीव है ते सर्व पिण प्रयोग- परिणत पुद्गल ने अतिहि थोड़े अनंत भाग विषे वर्ती ने भगो इम ते जीवां बी पुद्गल घण अनंतानंत करिकै गुण्या छता नीपना इति । जाय, पुद्गल थकी अनंतगुणा समया इम जे कह्यो ते सम्यक प्रकारे न जाण्यो ते 'थकी ते समय नां थोड़ापणां थकी । अनें थोड़ापणुं ते समय नों पुद्गल मनुष्यक्षेत्रमात्रवतपणां वही वलि पुदगल न सकल लोकवतपणा की इति प्रश्न । एहनों उत्तर कहे छे- समयक्षेत्र नं विषे जे केयक द्रव्य पर्याय है तेहिज एक-एक द्रव्य पर्याय नै विषे वर्त्तमान समय वर्त्ते है इम वलि ए वर्तमान समय जे भणी समयक्षेत्र द्रव्य पर्याय गुण हुवै ते भणी एक-एक समय ने विषे अनंता समय हुवै एतले अढीद्वीप नै विषे अनंता द्रव्य पर्याय छे। ते अनंता ऊपर वर्त्तमान एक समय वर्त्ते ते भणी एक समय ने अनंता समय कहिये । इम वर्तमान समय पिण पुदगल थकी अनंतगुणो हुवै एक द्रव्य नीं पिण पर्याय नां अनंतानंतपणा थकी । इहां वृत्तिकार बहु विस्तारघो छ । अथ समय थकी द्रव्य विशेषाधिक ते किम ? तेहनो उत्तर कहै छै - जे भणी सर्व समया एक-एक जुदा-जुदा द्रव्य छँ शेष जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकायरूप द्रव्य ते समय रूप द्रव्य नैं विषे ईज घाल्या इण कारण थकी न केवल समय थकी समस्त द्रव्य विशेषाधिक हुवै पिण संख्यात गुणादिक नहीं हुवै। समय द्रव्य नीं अपेक्षा करिकै जीवादिक द्रव्य नैं अतिहि अल्पपणां थकी 1 इहाँ प्रेरक कहे अद्धा समय में मा ? प्रदेशपणों पिण तेहमें संभव छ, प्रध्य हीज कहिये एहवो नियम स्वा तथाहि-- जिम स्कन्ध द्रव्य हुवै, जिम वा. - इह भावना - यतो जीवाः प्रत्येकमनन्तानन्तः पुद्गलैर्बद्धाः प्रायो भवन्ति, पुद्गलास्तु जीवः संबद्धा असंबद्धाश्च भवन्तीत्यतः स्तोकाः पुद्गलेभ्यो जीवाः यदाह 'जं पोग्गलावबद्धा जीवा पाएण होंति तो थोवा । जीवेहि विरहिया अविरहिया व पुणपोग्ला संति ॥ २ ॥ ' जीवेभ्योऽनन्यगुणाः पुद्गलाः कथं? ज सादिशरीरं येन जीवेन परिगृहीतं तत्ततो जीवात्पुद्गलपरिमाणमाश्रित्यानन्तगुणं भवति, तथा तैजसशरीरात्प्रदेशतोऽनन्तगुणं कार्म्मणं, एवं चैते जीवप्रतिबद्धे अनन्तगुणे, जीवविमुक्ते च ते ताभ्यामनन्तगुणे भवतः शेषशरीर चिन्ता त्विह न कृता, यस्मात्तानि मुक्तान्यपि स्वस्वस्थाने तयोरनन्तभागे वर्त्तन्ते, तदेवमिह तैजसशरीरपुद्गला अपि जीवेभ्योऽनन्तगुणाः कि पुनः कार्म्मणादिपुद्गलराजसहिताः, पञ्चदशविप्रयोगपरिणा तथा स्लोकास्तेभ्यो मिश्रपरिणताः अनन्तगुणास्तेभ्योऽपि विस्रसापरिणता अनन्तगुणास्त्रिविधा एवं प पुद् गलाः सर्व एव भवन्ति, जीवाश्च सर्वेऽपि प्रयोगपरिणतपुद्गलानां प्रतनुकेऽनन्तभागे वर्तन्ते, यस्मादेवं तस्माज्जीवेभ्यः सकाशात्पुद्गला बहुभिरनन्तानम्तर्कता सिद्धा इति ननु पुद् गलेभ्योऽनन्तगुणाः समया इति यदुक्तं तन्न संगतं, तेभ्यस्तेषां स्तोकत्वात्, स्तोकत्वं च मनुष्यक्षेत्रमात्रवर्तित्वात् समयानां पुद्गलानां च सकललोत्वादिति, अमोच्यते समय मे केचन द्रव्यपर्यायाः सन्ति तेषामेकैकस्मिन् साम्प्रतसमयो वर्त्तते, एवं च साम्प्रतः समयो यस्मासमयक्षेत्र द्रव्यपर्यव गुणो भवति तस्मादनन्ताः समया एकस्मिन् समये भवन्तीति एवं च वर्तमानोऽपि समयः पुद्गलेभ्योऽनन्तगुणो भवति, एकद्रव्यस्यापि पर्ययाणामनन्तानन्तत्यात् अथ समयेभ्यो द्रव्याणि विशेषाधिकानीति, कथम् ?, अत्रोच्यते यस्मात्सर्वे समया: प्रत्येकं द्रव्याणि मेवाणि च जीवपुद्गलधर्मास्तिकायादीनि तेष्वेव क्षिप्तानीत्यतः केवलेभ्यः समयेभ्यः सकाशात् समस्तद्रव्याणि विशेषाधिकानि भवन्ति न सङ्ख्यातगुणादीनि समयद्रव्यापेक्षया जीवादिद्रव्याणा मल्पतरत्वादिति नन्वद्धासमयानां कस्माद् द्रव्यत्वमेवेष्यते ? समयस्कन्धापेक्षया प्रदेशार्थत्वस्यापि तेषां युज्यमानत्वात्, श० २५, उ० ३, डा० ४३८ ५१ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वलि स्कन्ध नां अवयव ते प्रदेश हुवै, तिमज समय स्कन्धवर्ती समया प्रदेश हुवै अनै द्रव्य हुवै हिवं एहनों उत्तर कहै छ-परमाणुओं ने परस्पर सापेक्षपणां थकी स्कन्धपणों युक्त छ, पर अद्धा समया नै परस्पर सापेक्षपणों नहिं जे भणी अद्धा समया प्रत्येकपणां ने विषे अथवा काल्पनिक स्कन्धपणा नै विष पिण वर्तता छता जुई-जुई वृत्तिवालाज हुवै । एतले ते भेला नहिं थाय तत्स्वभावपणां थकी ते माटै अन्योन्य अपेक्षा रहित हुवै। अन्योन्य अपेक्षा रहितपणां थकी ते वास्तव स्कन्ध नै निपजावणहारा नहीं, तेह थकी एहमें प्रदेशार्थपणों नहीं। अथ द्रव्य थकी प्रदेश अनंतगुणा, ए किम ? एहनों उत्तर कहै छै—अद्धा समय द्रव्य थकी आकाश प्रदेश नै अनंतगुणपणां थकी। इहां प्रेरक कहै-क्षेत्र नां प्रदेश अनै काल नां समया ए बिहु नै अनंतपणे छते समान कहिय एतले क्षेत्र नां प्रदेश अन काल नां समया ए बिहुँ नों अंत नथी इम अनंतपणां थकी बिहुं समान छते पिण स्यूं कारण आश्रयी नै आकाश-प्रदेश अनंतगुणा अनै काल नो समया तेहन अनंतमें भागवर्ती हैं। हिवं एहनों उत्तर --आदिरहित अंतरहित एक आकाश नी श्रेणि विषे एक-एक प्रदेश नै अनुसारि थकी तिरछी लांबी श्रेणि ने कल्पना करिकै ते श्रेणि थकी पिण एक-एक प्रदेश अनुसार करिके हीज ऊद्धं, अधो, आयत श्रेणि नी रचना करी आकाश-प्रदेश नों धन निपजाविय अन काल समय नी श्रेणि नै विषे तेहीज श्रेणी हुवै वली घन नहीं हुवै ते कारण थकी काल नां समया थोड़ा हुवै। ते प्रदेश थकी पजवा अनंतगुणां एहवी भावना जिण कारण करिके एक-एक आकाश-प्रदेश रै विषे अनंता-अनंता अगुरुलघु पजवा जाणवा । तथाहि-यथा स्कन्धो द्रव्यं सिद्धं स्कन्धावयवा अपि यथा प्रदेशाः सिद्धा: एवं समयस्कन्धवत्तिन: समया भवन्ति प्रदेशाश्च द्रव्यं चेति, अत्रोच्यते, परमाणनामन्योऽन्यसव्यपेक्षत्वेन स्कन्धत्वं युक्तं, अद्धासमयानां पुनरन्योऽन्यापेक्षिता नास्ति, यतः कालसमया: प्रत्येकत्वे च काल्पनिकस्कन्धाभावे च वर्तमाना: प्रत्येकवृत्तय एव तत्स्वभावत्वात् तस्मात्तेऽन्योऽन्यनिरपेक्षाः अन्योऽन्यनिरपेक्षत्वाच्च न ते वास्तवस्कन्धनिष्पादकास्ततश्च नैषां प्रदेशार्थतेति, अथ द्रव्येभ्यः प्रदेशा अनन्तगुणा इत्येतत्कथम् ?, उच्यते, अद्धासमयद्रव्येभ्य आकाशप्रदेशानामनन्तगुणत्वात, नन क्षेत्रप्रदेशानां कालसमयानां च समानेऽप्यनन्तत्वे किं कारणमाश्रित्याकाशप्रदेशा अनन्तगुणाः कालसमयाश्च तदनन्तभागवत्तिन: ? इति, उच्यते, एकस्यामनाद्यपर्यवसितायामाकाशप्रदेशश्रेण्यामेकैकप्रदेशानुसारतस्तिर्यगायतश्रेणीनां कल्पनेन ताभ्योऽपि चैककप्रदेशानुसारेणैवोर्द्ध वाधआयतश्रेणीविरचनेनाकाशप्रदेशघनो निष्पाद्यते, कालसमयधण्यां तु सैव श्रेणी भवति न पुनर्घनस्तत: कालसमयाः स्तोका भवन्तीति, प्रदेशेभ्योऽनन्तगुणाः पर्याया इति, एतद्भावनार्थ गाथा"एत्तो य अणंतगुणा पज्जाया जेण नहपएसम्मि । एक्केक्कंमि अणंता अगुरुलहू पज्जवा भणिया ॥१॥ (वृ. प. ८७०-८७२) १०६. 'जीवा पोग्गल समया दव्व पएसा य पज्जवा चेव । थोवा णता णंता विसेसअहिया दुवेऽणंता ॥ (वृ. प. ८६९,८७०) १०६. जीव पुद्गल नैं काल नां समया, द्रव्य प्रदेश पजवा उदंतो जी। थोड़ा अनंत अनंतगुणा छ, विसेसाहिया दोय अनंतो जी ।। आयुष्य कर्म के बंधक-अबंधक आदि जीवों का अल्पबहुत्व १०७. हे प्रभु ! जीव – आयु कर्म नां, बंध अबंधग मांडो जी। कवण-कवण थी अल्प बहु तुला, विशेष अधिक कहायो जी।। १०८. जिम बहु वक्तव्यता पद तीजे, आख्यो तेम कहीजे जी। जाव आयु कर्म तणां अबंधगा, विसेसाहिया लीजे जी ।। १०९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! शत पणवीसम केरो जी। तृतीय उद्देशक अर्थ थकी ए, आख्यो सखर सुमेरो जी ।। ११०. ढाल च्यारसौ अष्टतीसमी, आसाढी पूनम आखी जी। भिक्खु भारीमाल ऋषिराय प्रसा', 'जय-जश' संपत्ति राखी जी ।। पंचविंशतितमशते ततीयोद्देशकार्थः ॥२५॥३॥ १०७. एएसि णं भंते ! जीवाणं, आउयस्स कम्मस्स बंध गाणं अबंधगाणं? १०८. जहा बहुवत्तव्वयाए (प. ३।१७४) जाव आउयस्स कम्मस्स अबंधगा विसेसाहिया। (श. २५।१०१) १०९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. २५१०२) ५२ भगवती जोड़ dain Education International Jain Education Intemational Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ४३९ दूहा १. तृतीय उद्देश विषे कला, संठाणादि परिमाण । वलि परिमाण तणांज हिव, भेद चतुर्थे माण | युग्म के प्रकार ! २. हे प्रभु जुम्मा केतला ? जुम्मा कहितां देख । संज्ञा शब्द थकीज जे, कहिये राशि विशेख ॥। ३. जिन भाखं सुण गोयमा जुम्मे जावत वलि, युग्म परूप्या प्यार । कलियोगे अवधार ।। ४. किण अर्थ भगवंत जी ! च्यार युग्म कहिवाय । पुर कृतयुग्म अने बलि, जव कल्योज सुपाय || ५. इम जिम अष्टादशम शत तुर्य उदेशे बात । तिम कहिवु जावत तिको, तिण अर्थे इम ख्यात ॥ चौबीस दण्डक और सिद्धों के युग्म * सुणो भव प्राणी रे, वीर जिनेंद्र तणां वचनामृत जाणी रे || ( ध्रुपदं ) ६. नारक हे भगवंत जी ! रे, केतला युग्म प्रयोज ? जिन कहै प्यार जुम्मा कह्या रे, कडजुम्मा जाव कल्योज || ७. कि अर्थ प्रभु ! इम कह्यो रे, युग्म नारक ने च्यार । कडजुम्म प्रमुख ? अर्थ तसु रे, तिमज पूर्ववत धार ॥ ! सोरठा ८. ते इम नारक धार, चिहुं चिहुं अपहरतां थकां । छेहड़े रहेज च्यार, कृतयुग्मा ते नेरइया || छेड़े तीन रहे त छेहड़े । > ९. चि अपहरतां जे चिहुं तेजोगाज कहे, द्वापरयुग्म हिव कहूं || १०. चिहुं अपहरतां सोय, छेहड़े दोय रहे तिको । द्वापरयुग्मा जोय, कलियोगा नो अर्थ हिव ।। ११. चिहुं अपहरतां मंत, छेहड़े एक रहै तसु । कलियोगा भावंत, एह अर्थ चिहुं जुम तणों ॥। १२. * इम जावत वायुकाय नैं रे, युग्म च्यार पहिछाण । वनस्पति पूछा किया रे, भाखे तब जगभाण ॥ १३. वणस्सइकाय हुवै कदा रे, कडजुम्म कदा तेओग | द्वापरयुग्म हुवै कदा रे, कदा हुवै कलियोग || * लय: अनंत नाम जिन चवदमा रे १. तृतीय संस्थानादीनां परिमाणमुक्तं चतुर्थे तु परिमाणस्यैव भेदा उच्यन्ते " (बृ. प. ८७३) २. कति णं भंते! जुम्मा पण्णत्ता ? 'जुम्म' त्ति सञ्ज्ञाशब्दत्वाद्राशिविशेषाः । (बृ. प. ८७२) ३. गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता, तं जहा कड जुम्मे जाव कलियोगे । (श. २५/१०३ ) एवं बुव चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता - कडजुम्मे जाव कलियोगे ? ४. से ५. एवं जहा अट्ठारसमसते च उत्थे उद्देसए [ १८/९० ] सब जान से पट्टे गोवमा ! एवं बुव (म. २५।१०४) ६. नेरइयाणं भंते ! कति जुम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता, तं जहा - कड जुम्मे जाव कलियोगे । (म. २५।१०५) नेरइयाणं चत्तारि जुम्मे ? अट्ठो तहेब | ७. से केणट्ठे भंते ! एवं बुच्चइ जुम्मा पण्णत्ता, तं जहा ८. 'जेणं नेरइया चउक्कएणं अवहारेण २ अवहीरमाणा २ चउपज्जवसिया ते णं नेरइया कडजुम्मे' त्यादि इति । (वृ. प. ८७३) १२. एवं जाव वाउकाइयाणं । वणस्सइकाइयाणं भंते ! पुच्छा । ( म. २५०१०६) १३. गोयमा ! वणस्सइकाइया सिय कडजुम्मा, सिय तेयोगा, सिय दावरजुम्मा, सिय कलियोगा । (श. २५/१०७ ) श० २५, उ० ४, ढा० ४३९ ५३ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-बणस्सइकाइया जाव कलियोगा? १५. गोयमा ! उववायं पडुच्च। से तेणठेणं तं चेव । १६. यद्यपि वनस्पतिकायिका अनन्तत्वेन स्वभावात् कृतयुग्मा एव प्राप्नुवन्ति। (वृ. प. ८७३), १७.१८. तथाऽपि गत्यन्तरेभ्य एकादिजीवानां तत्रोत्पादमङ्गीकृत्य तेषां चतूरूपत्वमयोगपद्येन भवतीत्युच्यते, (व. प. ८७३) १४. किण अर्थे भगवंत जी ! रे, इम कहिय छ प्रयोग। वनस्पतिकायिक कदा रे, जाव हवै कलियोग ? १५. जिन कहै उपपात आश्रयी रे, तिण अर्थे तिमहीज। ए च्यारूं पद नों हिवै रे, न्याय वृत्ति थी कहीज ।। सोरठा १६. यद्यपि वणस्सइकाय, जीव अनंतपणे करी। स्वभाव थी कहिवाय, खै कडजुम्माईज ते ।। १७. तथापि अन्यगतिथीज, एक प्रमुख जे जीव नों।' उत्पत्ति तिहां कहीज, ते अंगीकार करि रूप चिह।। १८. पिण ए रूपज च्यार, समकाले तो है नथी। ते माटै अवधार, कदा शब्द चिहं ठोड़ छै ।। १९. वनस्पती ते सोय, नीकलवा ने आश्रयी। रूप च्यारूई होय, पिण नहिं वंछयो ते इहां ।। २०. *बेइंद्रिया जिम नेरइया रे, जावत कहिq एम । वैमानिक दंडक लग रे, सिद्ध वनस्पति जेम ।। सोरठा २१. अथ कडजुम्मा आदि, तेह राशि करि द्रव्य नीं। परूपणा संवादि, करियै छै ते सांभलो।। षट् द्रव्यों के युग्म २२. *कतिविध सहु द्रव्य छै प्रभुजी ? जिन कहै षटविध जोय । धर्मास्तिकाय जावत छठो रे, अद्धा समय अवलोय ।। १९. उद्वर्तनामप्यङ्गीकृत्य स्यादेतद् केवलं सेह न विवक्षितेति। (वृ. प. ८७३) २०. बेंदियाणं जहा नेरइयाणं । एवं जाव वेमाणियाणं । सिद्धाण जहा वणस्सइकाइयाणं । (श. २५।१०८) २१. अथ कृतयुग्मादिभिरेव राशिभिर्द्रव्याणां प्ररूपणायेदमाह (व. प. ८७३) २२. कतिविहा णं भंते ! सव्वदवा पण्णत्ता ? गोयमा ! छव्विहा सव्वदव्वा पण्णत्ता, तं जहाधम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए जाव अद्धासमए । (श. २५६१०९) वा.-'कतिविहा णं भंते ! सव्वदव्वा' इत्यादि, तत्र 'कतिविधानि' कतिस्वभावानि कतीत्यर्थः । 'धम्मत्थिकाए ण' मित्यादि। (वृ प. ८७३) वा-कतिविधानि कतिस्वभावानि–कतिविध केतला स्वभावकानि ते किसा ते कवण सर्व द्रव्यानि ? जिन कहै-छह विधा-षट स्वभाव सर्व द्रव्य धर्मास्तिकाय १, अधर्मास्तिकाय २, आकाशास्तिकाय ३, पुद्गलास्तिकाय ४, जीवास्तिकाय ५, अद्धा समय ६-ए षट् द्रव्य जाणवा।। २३. धर्मास्तिकाय भदंत जी ! रे, दवट्टयाए देख । स्यू कडजुम्म हुवै तथा रे, जाव कल्योज संपेख? २४. जिन कहै कडजुम नहीं हुवै रे, तेओगे नहिं होय । द्वापरयुग्म हुवै नहीं रे, कलियोगे इक होय ।। वा०-धर्मास्तिकाय द्रव्य एकपणां थकी चतुष्क अभाव करिक च्यारू रूप नथी, धर्मास्तिकाय एकहीज छ ते भणी। २३. धम्मत्थिकाए णं भते ! दब्वट्ठयाए कि कडजुम्मे जाव कलियोगे? २४. गोयमा ! नो कडजुम्मे, नो तेयोगे, नो दावरजुम्मे, कलियोगे। वा.-'कलियोगे' त्ति एकत्वाद्धर्मास्तिकायस्य चतुष्कापहाराभावेनैकस्यैवावस्थानात् कल्योज एवासाविति, (व. प. ८७३) २५. एवं अधम्मत्थिकाए वि। एवं आगासत्थिकाए वि। (श. २५३११०) जीवत्थिकाए णं भंते ! ---पुच्छा। २६. गोयमा ! कडजुम्मे, नो तेयोगे, नो दावरजुम्मे, नो कलियोगे। (श. २५।१११) २५. इम अधर्मास्तिकाय छै रे, इम आगास्थिकाय । जीवास्तिकाय ने पूछियां रे, तब भाखै जिनराय ।। २६. ते कृतयुग्म हवै सही रे, तेओगे नहिं होय । द्वापरयुग्म पिण नहि हुवे रे, कलियोगे नहि कोय । *लय : अनन्त नाम जिन चवदमा रे ५४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २७. जीव द्रव्य अवलोय, अनंत ते अवस्थित थी। ____ कडजुम्मपणोंज होय, शेष रूप तेहनों नथी ।। २८. *पूछा पुद्गलास्तिकाय नी रे, जिन भाखै सुप्रयोग। ते कृतयुग्म हुवै कदा रे, जाव कदा कलियोग ।। वा० - पुद्गलास्तिकाय नै अनंत भेदपणे पिण संघातभेद भाजनपणां थकी चतुर्विध कहि । संघात-भेद भाजन किणन कहीज ? संघात कहिता समूह तेहनों, वलि भेद कहितां भिन्नपणां नों भाजनत्वात् कहितां भाजनपणां थकी च्यारूई रूप हुवै अनै काल नां समया नै अतीत, अनागत, अवस्थित अनंतपणे करिक कृतयुग्मपणुं हुवै, इण कारण थकीज कहै छ - २९. अद्धा समय नै आखियै रे, जीवास्तिकाय जेम । श्री जिन वचन प्रमाण थी रे, श्रद्धवं ए धर प्रेम ।। २७. जीवद्रव्याणामवस्थितानन्तत्वात्कृतयुग्मतव, (वृ. प. ८७३,८७४) २८. पोग्गलत्थिकाए णं भंते ! -पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलियोगे । वा.-पुद्गलास्तिकायस्यानन्तभेदत्वेऽपि सङ्घातभेदभाजनत्वाच्चातुर्विध्यमध्येयं, अद्धासमयानां त्वतीतानागतानामवस्थितानन्तत्वात्कृतयुग्मत्वमत एवाह (व. प. ८७४) २९ अद्धासमए जहा जीवत्थिकाए। (श. २५।११२) ३०. उक्ता द्रव्यार्थता, अथ प्रदेशार्थता तेषामेवोच्यते-- (व प. ८७४) ३१. धम्मत्थिकाए णं भंते ! पदेसट्टयाए कि कडजुम्मे पुच्छा । ३२. गोयमा ! कडजुम्मे, नो तेयोगे, नो दावरजुम्मे, नो कलियोगे। ३३. एवं जाव अद्धासमए। (श. २५११३) ३०. ए द्रव्यार्थपणे कह्या, प्रदेश-अर्थपणेह । हिव कहियै षट द्रव्य नै, सांभलजो गुणगेह ।। ३१. *धर्मास्तिकाय भदंत जी ! रे, प्रदेश-अर्थपणेह । ___स्यूं कृतयुग्म हुवै तिके रे ? इत्यादि प्रश्न करेह ।। ३२. जिन भाख कडजुम्म हुवै रे, तेयोगे नहिं होय । द्वापरयुग्म हुवै नहीं रे, कलियोगे नहिं कोय ।। ३३. एवं यावत जाणवू रे, अद्धा समय लगेह । प्रदेश अर्थ अवस्थितपणे रे, असंख अनंत कहेह ।। सोरठा ३४. प्रदेश-अर्थपणेह, अवस्थित छै ते भणी। कडजुम्मेज कहेह, शेष तेयोग प्रमुख नथी ।। वा.---प्रदेश-अर्थपणे करि, अवस्थित असंख्यात प्रदेशिकपणां थकी, बलि अवस्थित अनंतप्रदेशपणां थकी। षट द्रव्यों का अल्पबहुत्व ३५. *ए प्रभु ! काय धर्मास्ति रे, फुन अधर्मास्तिकाय । जावत अद्धा समय ने रे, दव्वट्ठयाए ताय ।। ३६. अल्पबहुत्व हिव एहनां रे, जिम पन्नवण अवलोय । बहु वक्तव्य तीजे पदे रे, आख्यो तिम सहु जोय ।। सोरठा ३७. धर्माधर्म आकाश, द्रव्य थकी तीन तुला । एक-एक द्रव्य तास, अल्प अन्य द्रव्य पेक्षया ।। ३८. ए त्रिहुं द्रव्य थी ताहि, अनंतगुण है जीव द्रव्य । सर्व लोक रै मांहि, जीव अनंतपणां थकी ।। *लय : अनंत नाम जिन चवदमा रे ३४. 'धम्मत्थी' त्यादि, सर्वाण्यपि द्रव्याणि कृतयुग्मानि प्रदेशार्थतया। (वृ. प. ८७४) वा.-अवस्थितासङ्खचातप्रदेशत्वादवस्थितानन्तप्रदेशत्वाच्चेति। (वृ. प. ८७४) ३५. एएसि णं भंते ! धम्मत्थिकाय-अधम्मस्थिकाय जाव अद्धासमयाणं दवट्टयाए ? ३६. एएसि णं अप्पाबहुगं जहा बहुवत्तव्वयाए (प. ३१११४-१२२) तहेव निरवसेसं। (श. २५११४) ३७. धर्मास्तिकायादयस्त्रयो द्रव्यार्थतया तुल्या एकैक द्रव्यरूपत्वात्, तदन्यापेक्षया चाल्पे, (व प. ८७४) ३८. जीवास्तिकायस्ततोऽनन्तगुणो जीवद्रव्याणामनन्त (व. प. ८७४) त्वात्, श० २५, उ०४, ढा० ४३९ ५५ Jain Education Intemational Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. जीव द्रव्य थी जाण, पुद्गल द्रव्य अनंत गुण । पुद्गल द्रव्य थी माण, अनंतगुणा अद्धा समय ।। ४०. प्रदेश अर्थपणेह, धर्माधर्म प्रदेश तुल्य । थोड़ा अन्य अपेक्षया ।। अद्धा समय आकाश नां । अनुक्रम करि पहिछाण, प्रदेश अनंतगुणा कह्या ॥ असंख प्रदेशिक बेह, ४१. जंतु पुद्गल जाण, षट् द्रव्यों का लोक में अवगाहन कृतयुग्म आदि के सन्दर्भ में वा० - अथ द्रव्यनींज क्षेत्र अपेक्षया कृतयुग्मादि करिकै परूपणा कहै छं ४२. *धर्मास्तिकाय भदंत जीरे, स्यूं अवगाउछँ एह । अवगाही रह्य नहीं रे ? एह प्रश्न पूछेह ॥ ४३. जिन भाखे गुण गोयमा ! रे, ए धर्मास्तिकाय अवगाही नै रह्य अछे रे, पिण अनवगाढ न कहाय ॥ ४४. जो अवगाही रहा अरे, तो स्यूं प्रदेश संख्यात । असंच अनंत प्रदेश ने रे, अवगाही में रहात ? ४५. जिन कहै संख प्रदेश ने रे, अवगाही रह्यं नांह । असंख प्रदेश अवगाढ छै रे, नहीं अनंत प्रदेश अवगाह ॥ ४६. लोकाकाश प्रदेश रह्य धर्म द्रव्य एस, सोरठा असंख्यात छे वह विषे। असंख प्रदेश ओगाढ इम ॥ ४७. * जो असंख प्रदेश ओगाढ छै रे, तो स्यूं आकाश प्रदेश | कडजुम्म प्रति अवगाढ छै रे ? इत्यादि प्रश्न अशेष ।। प्रदेश प्रति जोगाहि । योज द्वापर कलियोग ही रे, प्रदेश ओगा है नांहि ॥ ४८. जिन भावं कृतयुग्म ही रे, सोरठा ४९. लोक तर्णं अवस्थित्त, कउजुम्मपणों कथित ५०. फुन धर्मास्तिकाय, असंख प्रदेशपणे करी । चिहुं अपहरवे विहं रहे ॥ लोकाकाश प्रदेश नें । प्रमाणपर्णेज पाय तिणसूं कडजुम्म ईज ई ॥ ५१. योगा नहि होय, द्वापरयुग्म यति नहीं । कलियोगा नहि कोय, इक कृतयुग्मपणोंज हूं ॥ ५२. *इम अधर्मास्तिकाय ने रे, इम आगास्तिकाय । जीव पुद्गलास्तिकाय में रे, अद्धा समय इम धाय ।। 1 बा०-जिम धर्मास्ति तिम अधर्मास्ति कहिणी लोक ओगाहपणां थकी । इस सर्व अस्तिकाय कहिणी, रोहने लोक-जोगापणा की नवरं आकाशास्तिकाय नैं अवस्थित अनंत प्रदेशपणां थकी वलि आत्मा अवगाहीपणां थकी कृतयुग्म प्रदेश अवगाढपणों हुवे । अनें अद्धा समय नं अवस्थित असंख्यात प्रदेशा* लय : अनंत नाम जिन चवदमा रे ५६ भगवती जोड ३९. एवं पुलस्तिकायाद्धासमयाः, (बृ. प. ८७४) ४०. प्रदेशार्थ चिन्तायां त्वाद्यौ प्रत्येकमसङ्खधं यप्रदेशत्वेन तुल्यौ तदन्येभ्यः स्तोकौ च, (बृ. प. ०७४) ४१. जीवपुद्गलादासमयाकाशास्तिकायास्तु क्रमेणानन्त गुणा इत्यादि । (बु.प.८७४) वा. -अथ द्रव्याण्येव क्षेत्रापेक्षया कृतयुग्मादिभिः प्ररूपयन्नाह - ( वृ. प. ८७४ ) ४२. धम्मत्थिकाए णं भंते ! कि ओगाढे ? अणोगादे ? ४३. गोयमा ! ओगाढे, नो अणोगाडे । (श. २५। ११५) ४४. जइ ओगाढे कि संखेज्जपदेसोगाढे ? असंखेज्जपदेसोगाढे ? अणतपदेसोगाढे ? ४५. गोमा ! नो संखेज्जपदेसोगाढे, असंखेज्जपदेसोगाढ, नो अणतपदेसोगाढे । (श. २५।११६ ) ४६. ‘असंखेज्जपएसोगाढे' त्ति असङ्ख्यातेषु लोकाकाशप्रदेशेष्ववगाढोऽसौ लोकाकाशप्रमाणत्वात्तस्येति, (बु.७४) ४७. जइ असंपदेसोगा कि कम्मपदेसोना पुच्छा । ४६. गोमा ! जुम्मपदेगोगा नो योगदेोगा नो दावरजुम्मपदेसोगाढे, नो कलियोगपदेसोगाढे । ४९. 'जुम्मपएसोगाडे' त्ति लोकस्यावस्थिता सङ्घर्ष - प्रदेशत्वेन कृतयुग्मप्रदेशता, ( वृ. प. ८७४) ५०, ५१. लोकप्रमाणत्वेन च धर्मास्तिकायस्यापि कृतयुग्मर्तव, (वृ. प. ८७४ ) ५२. एवं मत्किाए वि एवं आगासत्यिका वि जीवत्किए, पोग्गलविकाए अद्धासमए एवं देव । (श. २५/११७ ) वा. एवं सर्वास्तिकामानां लोकावगाहित्वा तेषां नवरमाकाशास्तिकायस्यावस्थितानन्तप्रदेशत्वादात्मा वाहित्वाच्च कृतयुग्मप्रदेशावगाढताऽद्धासमयस्य चावस्थितासङ्घ प्रदेशात्मकमनुष्यक्षेत्रावगाहित्यादिति । अथावगाहस्तायादिदमाह (बु. प. ८७४) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी कि ओगाढा ? अणोगाढा ? ५४. जहेव धम्मत्थिकाए । एवं जाव अहेसत्तमा । ५५. सोहम्मे एवं चेव । एवं जाव ईसिपब्भारा पुढवी । (श. २५॥११८) ५६. अथ कृतयुग्मादिभिरेव जीवादी नि षड्विंशतिपदान्ये कत्वपृथक्त्वाभ्यां निरूपयन्नाह- (वृ. प. ८७४) ५७. जीवे णं भंते ! दव्वट्ठयाए कि कडजुम्मे-पुच्छा । ५८. गोयमा ! नो कडजुम्मे, नो तेयोगा, नो दाबरजुम्मे, कलियोगे। स्मकज मनुष्य क्षेत्र अवगाहपणां थकी कृतयुग्म ईज कहिये। शेष तीन रूप न हुवै । अथ अवगाह प्रस्ताव थी ए कहै छ---- रत्नप्रभा यावत ईषत्प्राग्भारा का अवगाहन कृतयुग्म आदि के सन्दर्भ में ५३. ए रत्नप्रभा पृथ्वी प्रभु ! रे, स्यं अवगाढ कहाय ? अथवा अवगाढक नहीं रे ? इत्यादि प्रश्न पूछाय ।। ५४. जिम धर्मास्तिकाय नै रे, आख्यो तिमज कहेह । एवं जाव नीच कही रे, सप्तमी पृथ्वी लगेह ।। ५५. सौधर्म हीज इम वली रे, जाव सिद्धशिला लग चीन । कडजुम्म प्रदेश ओगाढ छ रे, शेष नहीं छै तीन ।। जीव आदि छब्बीस पदों की पृच्छा कृतयुग्म आदि के सन्दर्भ में सोरठा ५६. कृतयुग्मादि करेह, जीवादिक षटवीस पद । इक बह वच कर तेह, जेह निरूपण करत हिव ।। ५७. *इक वच जीव भदंत जी! रे, दव्वट्टयाए जाण । स्यूं कृतयुग्म कही जिय रे? इत्यादि प्रश्न पिछाण ।। ५८. जिन कहै कडजुम्मे नहीं रे, वलि नहि है तेओग। द्वापुरयुग्म नहीं वली रे, एक जीव कलियोग ।। सोरठा ५९. द्रव्य थकी इक जीव, एक ईज द्रव्य ते भणी। कलियोगेज कहीव, शेष रूप तीन नथी ।। ६०. *एवं एकज नेरइयो रे, इम जावत सिद्ध एक । ___इक वचने ए आखिया रे, हिव बहुवचने देख ।। ६१. बह वच जीवा भदंत जी! रे, दव्वट्रयाए सोय । स्यं कडजम्मा छै तिके रे? इत्यादि प्रश्न सुजोय ।। ६२. जिन भाखै ओघ आश्रयी रे, कडजुम्माईज होय । नो तेओगा नो द्वापरा रे, कलियोगा नहिं कोय ।। सोरठा ६३. ओघ सामान्य करेह, अनंत जीव अवस्थित थी। ___कृतयुग्माज कहेह, शेष तेओगादिक नहीं। ६४. *विधान देश करी वलि रे, कडजम्मा नहिं कोय । नो तेयोग नो दाबरा रे, बहु कलियोगा होय ॥ सोरठा ६५. विधान भेद प्रकार, इक-इक जीव गिण्यां थकां। बह कलियोगा धार, स्वरूप नां इक भाव थी। वा० --विधान कहिय भेद-प्रकार, तेणे करी । एतले बहु जीव तेहनै भेद ते भिन्न जजआ गिणव करी कलियोगाज छै ते स्वरूप ना एकपणां थकी, जीवा *लय : अनंत नाम जिन चवदमा रे ५९. 'जीवे ण' मित्यादि, द्रव्यार्थतयको जीवः एकमेव द्रव्यं तस्मात्कल्योजो न शेषाः। (वृ. प. ८७४) ६०. एवं नेरइए वि । एवं जाव सिद्धे । (श. २५।११९) ६१. जीवा णं भंते ! दवट्ठयाए कि कडजुम्मा-पुच्छा। ६२. गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, नो कलियोगा, ६३. 'जीवा ण' मित्यादि, जीवा अवस्थितानन्तत्वादोघा देशेन-सामान्यतः कृतयुग्मा:, (वृ. प. ८७४) ६४. विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, कलियोगा। (श. २५॥१२०) ६५. 'विहाणादेसेणं' त्ति भेदप्रकारेणैकैकश इत्यर्थः कल्योजा एकत्वात्तत्स्वरूपस्य। (वृ. प. ८७४) श.२५, उ०४, ढा०४३९ ५७ Jain Education Intemational Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस्थित अनंतपणां थकी । ६६. *नेरइया हे भगवंतजी ! रे, दव्वट्टयाए जेह । स्यूं जुम्मा छैतिके रे ? बहु वच प्रश्न पूछेह || ६७. जिन भाखं ओघ आश्रयी रे, कदा कडजुम्मा होय । जाव कदाचित तिके रे, कलियोगा अवलोय ॥ सारठा ६८. ओघ सामान्य थकीज, सगलाईज गिणतां थकां । कदाच तास कहीज, कडजुम्मा नेरइया ।। ६९. प्यार प्यार अपहार, करिव शेष रहे चिहुं । ते कडजुम्मा धार, इम यावत कलियोग लग ।। ७०. विधानावेश करी बली रे, उजुम्मा नहि कोय | नो तेओगा नो द्वारा रे, कलियोगाईज होय ॥ वा० - विधान ते भेद - प्रकार एक-एक गिण्यां थकां स्वरूपे करी एकपर्णं थकी कलियोगाज होय । बहु वच प्रश्न संपेख । पद षटवीसज आखिया रे, द्रव्य थकी ए देख ॥ हिव प्रदेशार्थपण करी छब्बीस पद एकवचन बहुवचन करी कहै छे७२. इक वच जीव भदंत जी ! रे प्रदेश अर्थपणे । स्यूं कृतयुग्म कहीजिये रे ? इत्यादि प्रश्न भणेह || ७३. जिन कहै प्रदेश जीव नां रे, ते आश्रयी संपेख । जुम्मे कहीजिये रे, नहीं रूप त्रिहुं शेख || सोरठा ७१. एवं जान सिद्धा कला रे, ७४. एक जीव नां जाण, अवस्थित थी माण प्रदेश असंखपणां थकी । चिहुं अपहरतां शेष चिहुं ॥ ७५. शरीर नां प्रदेश आश्रयी रे, कदाच कडजुम्म तेम 1 जाव कदा कलियोग छ रे, जाव वैमानिक एम ॥ वा० एक जीव नुं जे शरीर तेहनां प्रदेश आश्रयी ने कदाचित कृतयुग्म जाव कदाचित कलियोग कह्यं । ते ओदारिकादिक शरीर प्रदेश ने अनंतपण छते पिण संयोग वियोग धर्म थकी समकाले चतुरविधपणों न हुवै। ते माटै कदाचित कृतयुग्म जावत कल्योज । इम जाव वैमानिक लगे । ७६. एक सिद्ध भगवंतजी ! रे, प्रदेश आथयो तेह। । स्यूं कृतयुग्म कहीजिये रे, जाव कल्पोज कहे ? ७७. जिन भाखे कडजुम्म हवं रे शेष रूप नहि तीन । हुवै असंख प्रदेशपणां थकी रे, अवस्थित थी चीन ।। ७८. बहु वच जीवा भदंत जी ! रे, प्रदेश आश्रयी तेह | स्यूं कडजुम्मा कहीजिये रे ? इत्यादि प्रश्न पूछेह ॥ *लय : अनंत नाम जिन चवदमा रे ५८ भगवती जोड़ ६६. नेरइया णं भंते ! दव्वट्टयाए पुच्छा । ६७. गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, ६८, ६९. 'ओघादेसेणं' ति सर्व एव परिगण्यमाना: 'सिय कम्म' ति कदाचिच्चतुष्कापहारेण चतुरा भवन्ति, (बु. प. ८७४, ०७४) ७०. विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, कलियोगा । ७१. एयं जाव सिद्धा । ७२. भ ! देखाए कि जुम्बे पुच्छा । ७३ गोयमा ! जीवपदेसे पहुच्च कडजुम्मे, नो तेयोगे, नो दावरजुम्मे, नो कलियोगे । ७४. 'जीव पय कम् ति अपातत्वादवस्थितत्वाच्च जीवप्रदेशानां चतुरस्र एव जीवः प्रदेशतः (बृ. प. ८७५) ७५. सरीरपदेसे पडुच्च सिय कडजुम्मे जाव सिय कलियोगे । एवं जाव वेमाणिए । ( . २५।१२२) (२५१२१) वा. 'सरी रपए से पडुच्चे' त्यादि, औदारिकादिशरीरप्रदेशानामनन्तत्वेऽपि संयोगवियोगधर्मत्वादयुगपचतुविधता स्यात् । (बृ. प. ८०) ७६. सिद्धे णं भंते ! पदेसट्टयाए कि कडजुम्मे पुच्छा । ७०. गोयमा ! जुम्मे, नो ते नो दावर नो कलियोगे । (श. २५०१२३) ७८. जीवा णं भंते! पदेसट्टयाए कि कडजुम्मापुच्छा । 3 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९. गोयमा ! जीवपदेसे पडुच्च ओघादेसेण वि विहाणा देसेण वि ८०. कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, नो कलियोगा। वा.-'ओघादेसेणवि विहाणादेसेणवि कउजुम्म' त्ति समस्तजीवानां प्रदेशा अनन्तत्वादवस्थितत्वाच्च एककस्य जीवस्य प्रदेशा असङ्खचातत्वादवस्थितत्वाच्च चतुरया एव, (बृ. प. ८७५) ८१. सरीरपदेसे पडुच्च ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, वा. शरीरप्रदेशापेक्षया त्वोघादेशेन सर्वजीवशरीरप्रदेशानामयुगपच्चातुर्विध्यमनन्तत्वेऽपि तेषां सङ्घातभेदभावेनानवस्थितत्वात्, (वृ. प. ८७५) ८२. विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कलियोगा वि । ७९. जिन भाखै बहु जीव नां रे, प्रदेश आश्रयी तेह । ओघ सामान्य थकी वली रे, विधान थी पिण जेह।। ८०. बिहं भेदे करिने तिके रे, कडजुम्म कहिवाय । नो तेयोगा नो द्वापरा रे, कलियोगा नहिं पाय॥ वा०-सामान्य थकी पिण विधान भेद-प्रकारे करी ते बिहं भेदे करी कृतयुग्म हुवं समस्त जीव नां प्रदेश नं अनंतपणां थकी, तथा अवस्थितपणां थकी । तथा एक-एक जीव नां प्रदेश नं असंख्यातपणां थकी च्यार शेषईज हुवै ते माटै नहीं योज, नहीं द्वापरयुग्म, नहीं कल्योज।। ८१. शरीर नां प्रदेश आश्रयी रे, ओघ सामान्य थी जोग । कदाचित कडजुम्मा हुवै रे, जाव कदा कलियोग ।। वा० शरीर प्रदेश प्रतै आश्रयी नै सामान्य थकी सर्व जीव नां शरीर प्रदेश नं समकाले चतुरविधपणे छत पिण तेहनै संघात भेदभावे करी अनवस्थितपणां थकी कदाचित कृतयुग्म जावत कदाचित कलियोगा हुवै । ८२. विधानादेश करी वली रे, कडजुम्मा पिण होय । जाव कल्योगा पिण हुवै रे, भेद प्रकारे जोय ।। वा०-विधानादेशे करी एक-एक जीव-शरीर नां प्रदेश गणना नै विषे प्रदेश नों चातुरविधपणों हुवै जे भणी कोइएक जीव-शरीर नै कृतयुग्मपणों हुवे, कोइएक जीव-शरीर नै त्योज प्रदेशपणों हुवै, कोइएक जीव-शरीर नै द्वापुरयुग्म प्रदेशपणों हुवं, कोइएक जीव-शरीर नै कल्योज प्रदेशपणों हुवै । अवगाहना ना इम विचित्रपणां थकी समकाले च्यारू बोल हुवै । ८३. नेरइया पिण इमहीज छ रे, एवं यावत जान । कहि छ वैमानिका रे, बहु वच प्रश्ने मान ।। ८४. बहु वच सिद्ध भदंत जी ! रे, स्यूं कडजुम्मा होय? इत्यादि प्रश्न पूछच छते रे, हिव जिन उत्तर जोय।। ८५. ओघ सामान्य थकी वली रे, विधान थी पिण चीन । कडजुम्माज हुवै तिके रे, शेष नहीं पद तीन ।। जीव आदि छब्बीस पदों की क्षेत्र सम्बन्धी पच्छा कृतयुग्मादि के सन्दर्भ में ८६. इक वच जीव भदंतजी! रे, स्यं कडजुम्म प्रदेश? अवगाह इत्यादि पूछियां रे, उत्तर देवै जिनेश ।। ८७. कदा कृतयुग्म प्रदेश में रे, अवगाहै छै ताह। जाव कल्योग प्रदेश में रे, कदाचित अवगाह । सोरठा ५८. तनु ओदारिक आद, तस् विचित्र अवगाह थकी। कदा कडजुम्म नभ वाद, जाव कदा कलियोग नभ।। वा.-"विहाणादसेणं कडजुम्मावी' त्यादि, विधानादेशेन कैकजीवशरीरस्य प्रदेशगणनायां युगपच्चातुर्विध्य भवति, यतः कस्यापि जीवशरीरस्य कृतयुग्मप्रदेशता कस्यापि व्योजप्रदेशतेत्येवमादीति । (व. प. ८७५) ८३. एवं नेरइया वि । एवं जाव वेमाणिया । (श. २५।१२४) ८४. सिद्धा णं भंते --पुच्छा। गोयमा ! ५५. ओघादेसेण वि बिहाणादेसेण वि कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, नो कलियोगा। (श. २५।१२५) ८६. जीवे णं भंते ! किं कडजुम्मपदेसोगाढे-पुच्छा । ८७. गोयमा ! सिय कडजुम्मपदेसोगाढे जाव सिय कलि योगपदेसोगाढे । ५५. औदारिकादिशरीराणां विचित्रावगाहनत्वाच्चतुरग्रादित्वमस्तीत्यत एवाह-'सिय कडजुम्मे' त्यादि । (वृ. प. ८७५) ८९. एवं जाव सिद्धे। (श. २५१२६) ८९. *एवं जावत जाणवू रे, इक वच सिद्ध लगेह । अथ बहवचने आखिये रे, ए षटवीस पदेह ।। *लय : अनंत नाम जिन चवदमा रे ज०२५, ७०४,डा०४३९ ५९ Jain Education Intemational Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०. बहुवच जीवा भदंत जी ! ओगाढा हुवे छेतिके रे ? ९१. जिन क है ओघ सामान्य थी रे, नो ओगानो द्वारा रे, वा० सामान्य प्रकारे करी कृतयुग्म प्रदेशावगाढ हुवै समस्त जीवे अवगाढ प्रदेश में अध्याय पकी तथा अवस्थितपणा की प्यार शेषही हुवे ते मा नहीं योज, नहीं द्वापर, नहीं कलियोग रे, स्यूं कउजुम्म प्रदेश । इत्यादि प्रश्न प्रवेश ।। कडजुम्म प्रदेश ओगाह । कलियोगा नह पाय ।। ९२. विधानादेश करी वली रे, कडजुम्म प्रदेश ओगाह । जाव कल्योज प्रदेश नं रे, ओगाढा पिण याह ॥ वा० - - विधानादेशे करी तेहनी अवगाहना विचित्रपणां थकी च्यारेइ भेद हुवे, तेहिज कहै छे कृतयुग्म प्रदेशावगाढ पिण हुवै इम यावत कल्योज प्रदेशावगाढ पण हुवे । ९३. बहुवचने प्रभु ! नेरइया रे, स्यूं कडजुम्म प्रदेश । ओगाढा कहियै तसु रे, इत्यादि प्रश्न पूछेश ? ९४. जिन कहै ओघ सामान्य थी रे, कदा कम्म प्रदेश ओगाहि । जान कल्योग प्रदेश में रे, कदा ओगावै ताहि ॥ वा० - सामान्यपर्णे विचित्र परिणामपर्णे करी विचित्र शरीर प्रमाणे करी, विचित्र अवगाह प्रदेश प्रमाणपण करी, समकाल नहीं च्यारेइ । कदाचित कृतयुग्म प्रदेशावगाढ इम यावत कल्योज प्रदेशावगाढ पिण हुवै । ९५. विधानादेश करी बली रे, कडजुम्म प्रदेश ओगाहि । जाव कल्योग प्रदेश में रे, अवगाहै छ ताहि ॥ वा०विधान वकी युगपत समकाले व्यासं ते मार्ट कृतयुग्मादिक प्रदेशावगाढ पिण हुवे । ९६. इम एगिदिय वर्ज नं रे, जाव वेमाणिया माण । सिद्धा अन एगिदिया रे, बहु वच जीव ज्यूं जाण ।। सोरठा ९७. सिद्धा एगिंदियाज, जिम जीवा तिम जाणवा । ओघ सामान्य समाज, कृतयुग्माज ओगाढ ह्वै ॥ ९६. विधान भी सुविचार, युगपत चतुविधा अपि । पूर्ववत अवधार युक्ति उभय न जाणवी ॥ जीव आदि एम्बीस पदों की पृच्छा कृतयुग्म आदि समय स्थिति के सन्दर्भ में ९९. *इक वच जीव भदंत जी ! रे, स्यू कडजुम्म समय स्थितियंत ? इत्यादि प्रश्न पूछ छते रे, श्री जिन उत्तर तंत ॥ * लय : अनंत नाम जिन चवदमा रे ६. भगवती जोड़ ९०. जीवा णं भंते ! कि कडजुम्मपदेसोगाढा -- पुच्छा । ९१. गोयमा ! ओपादेवे कम्मपदेसोगाटा, मो योगयोगाका तो दावरजुम्मपदेसीगाढा, मो कलियोगगाढा ९२. विहाणादेसेणं योगपदेसोगाढा वि । वा. समस्तजीव रवगाढानां प्रदेशानामसङ्ख्यातत्वादवस्थितत्वाच्चतुरग्रता एवेत्योघादेशेन कृतयुग्मप्रदेशावगाढा, (वृ. प. ८७५) जुम्मपदेसोगाढा वि जाव कलि(म. २५०१२ ) विचित्रत्वादयमानाया (बृ. प. ८७५) वा. विधानादेशतस्तु युगपचतुविधास्ते, ९३. नेरइयाणं - पुच्छा । ९४. गोवा बोचादेसेणं सम्मपदेोगादा जाय यि कलियोग देसीगाढा, वा. नारकाः पुनरोधतो विचित्र परिणामत्वेन विचित्रशरीरमागत्वेन विचित्राना प्रदेशप्रमाणत्वादयोगपद्येन चतुविधा अपि ( वृ. प. ८७५) ९५. वापादे जुम्मपदेसोगाढा वि जाव कलियोगपदेसोगाढा वि । बा. विधानस्तु विभिषावगाहनत्वादेकदाऽपि चतुविधा भवन्ति ( वृ. प. ८७५) ९६. एवं एगिदिय सिद्धासन्धे वि सिद्धा एगि दिया य जहा जीवा । (४०२३।१२- ) 1 - ९७. सिद्धा एकेन्द्रियाश्च यथा जीवास्तथा वाच्या इत्यर्थः, ते चौघतः कृतयुग्मा एव । ९८. विधानतस्तु युगपच्चतुविधा अपि, प्राग्वत् । (बु. प. ८७५) युक्तिस्तूभयत्रापि (बु.प. ०७५) ९९. डम्मरामयद्वितीए पुग्छ । गोयमा । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००. कडजुम्मसमयद्वितीए, नो तेयोगसमयट्टितीए, नो दावरजुम्मसमयद्वितीए, नो कलियोगसमयट्टितीए। (श. २५॥१२९) १०१,१०२. तत्रातीतानागतवर्तमानकालेषु जीवोऽस्तीति सर्वाद्धाया अनन्तसमयात्मकत्वादवस्थितत्वाच्चासी कृतयुग्मसमयस्थितिक एव, (व. प. ८७५,८७६) १००. कडजुम्म समय स्थितिक तिको रे... शेष रूप नहि तीन। न्याय कहूं छू तेहनों रे, सुणजो चित लहलीन ।। सोरठा १०१. भूत अनागत मांहि, वर्तमान अद्धा विषे । जीवईज छै ताहि, ते माटै इम जाणवू ।। १०२. सर्व काल नै हेर, अनंत समयात्मकपणां थकी। अवस्थित थी फेर, कडजुम्म समय स्थितिक कह्य ।। वा० - कृतयुग्म समय स्थितिक हुवै जे माट अतीत, अनागत, वर्तमान काल में विषे जीव छ ते माटे सर्व काल में अनंत समयात्मकपणा थकी शेष तीन नहीं, तेहिज कहै छै-नहीं त्योज, नहीं द्वापुरयुग्म, नहीं कल्योग समय स्थितिक । १०३. *इक वच स्यूं प्रभु ! नेरइयो रे, कडजुम्म समय स्थितिवंत ? इत्यादि प्रश्न पूछयां थकां रे, तब भाखै भगवंत ।। १०४. कडजुम्म समय स्थितिक कदा रे, जाव कदा कलियोग। एवं जाव वेमानिया रे, सिद्ध जीव जिम जोग ।। १०३. नेरइए णं भंते !-पुच्छा । गोयमा ! १०४. सिय कडजुम्मसमयट्ठितीए जाव सिय कलियोग समयट्ठितीए। एवं जाव वेमाणिए। सिद्धे जहा जीवे। (श. २५।१३०) १०५. नारकादिस्तु विचित्रसमयस्थिकत्वात्कदाचि च्चतुरग्रः कदाचिदन्यत्रितयवर्तीति । (वृ. प. ८७६) १०६. जीवा णं भंते ! पुच्छा। सोरठा १०५. नारक आदि संपेख, विचित्र समय स्थितिक थकी। कदा च्यार रहै शेष, इम कदा तीन बे इक रहै ।। १०६. *स्यूं प्रभु ! बहु वच जीवड़ा रे, __ कडजुम्म समय स्थितिवंत ? इत्यादि प्रश्न पूछिया रे, श्री गोतम गुणवंत ।। १०७. जिन कहै ओघ सामान्य थी रे, विधान थी पिण चीन। कृतयुग्म समय स्थितिका रे, शेष रूप नहिं तीन । १०७. गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मसमयट्ठितीया, नो तेयोगसमयट्टितीया, नो दावरजुम्मसमयद्वितीया, नो कलियोगसमयट्टितीया । (श २५॥१३१) १०८. बहुत्वे जीवा ओघतो विधानतश्च चतुरग्रसमयस्थितिका एव (वृ. प. ८७६) १०९. अनाद्यनन्तत्वेनानन्तसमयस्थितिकत्वात्तेषां, (वृ.प. ८७६) ११०. नेरइयाणं -- पुच्छा। गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मसमयद्वितीया जाव सिय कलियोगसमय द्वितीया वि। a . सोरठा १०८. बहु वच जीवा जाण, ओघ विधान थकी वली। च्यार शेष पहिछाण, समय स्थितिकाईज है ।। १०९. अनादि अनंतपणेह, अनंत समय स्थितिक थकी। जीवां ने करि लेह, नहीं त्र्योज समयादि स्थिति ।। ११०. *बहु वच नारक पूछियां रे, " ओघ सामान्य थी जोग । कदा कडजुम्म समय स्थितिका रे, जाव कदा कलियोग । सोरठा १११. नारक आदि विचार, विचित्र समय स्थितिक थकी। ते सर्व नारक नी धार, स्थिति समय मिलवा विषे॥ *लय : अनंत नाम जिन चवबमा रे .... १११. नारकादयः पुनर्विचित्रसमयस्थितिकाः, तेषां च सर्वेषां स्थितिसमयमीलने (बृ. प. ८७६) श. २५, उ०४, ढा.४३९ ६१ Jain Education Intemational Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२,११३. चतुष्कापहारे चौधादेशेन स्यात् कृतयुग्म समयस्थितिका इत्यादि, (बृ. प. ८७६) ११२. चिहं-चिहुं अपहारेह, ओघ सामान्य थकी वली। कदाचित हवै तेह, कडजूम्म समयस्थितिका ।। ११३. कदा समयस्थिति योज, कदाचि द्वापर समयस्थिति । समयस्थितिक कल्योज, कदाचित ह नेरइया ।। ११४. *विधान भेद करी वली रे, समयस्थिति कडजुम्म । जाव कल्योग समय तणी रे, स्थितिक पिण अवगम्म।। ११४. विहाणादेसेणं कडजुम्मसमय द्वितीया वि जाव कलि योगसमयट्टितीया वि। सोरठा ११५. विधान भेद करेह, गिणवै इक-इक नारका। चतुर्विधा पिण लेह, युगपत समकाले तिके ।। ११६. *एवं जावत जाणवं रे, बहु वच वैमानीक । बहु वच जीव तणी परै रे, सिद्धा सखर सधीक । ११५ विधानतस्तु युगपच्चतुर्विधा अपि । (वृ. प. ८७६) ११६. एवं जाव वेमाणिया। सिद्धा जहा जीवा। . (श. २५२१३२) ११७. अथ भावतो जीवादि तथैव प्ररूप्यते (वृ. प. ८७६) ११८. जीवे णं भंते ! कालावण्णपज्जवेहिं कि कडजुम्मे -पुच्छा । ११९. गोयमा ! जीवपदेसे पडुच्च नो कडजुम्मे जाव नो कलियोगे। १२०,१२१. 'जीवपएसे पडुच्च णो कडजुम्म' त्ति अमूर्त त्वाज्जीवप्रदेशानां न कालादिवर्णपर्यवानाश्रित्य कृतयुग्मादिव्यपदेशोऽस्ति, (वृ. प. ८७६) सोरठा ११७. अथ आगल अधिकार, भाव थकी जीवादि नों। तिमहिज प्रश्न उदार, इक वच बहुवचने करी ।। जीव आदि छब्बीस पदों की वर्णादि सम्बन्धी पच्छा कृतयुग्म आदि के सन्दर्भ में ११८. *इक वच जीव भदंत जी ! रे, कृष्ण वर्ण पर्याय । तिण करि स्यूं कडजुम्म छै रे? इत्यादि प्रश्न सुहाय ।। ११९. जिन कहै जीव प्रदेश ने रे. आश्रयी नै अवलोय । __कडजुम्म नांहि कहीजिय रे, जाव कल्योज न कोय ।। ___ सोरठा १२०. जीव तणां प्रदेश, अमृत्तिपणां थकी तिके । कृष्णादि सुविशेष, वर्ण तणां पजवा नथी ।। १२१. कडजुम्मादि रूप, च्यारूंइ कहियै नथी। जीव प्रदेश तद्रूप, वर्णादिके रहित छ । १२२. *शरीर प्रदेश आश्रयी रे, कदा कडजम्मे होय । जाव कल्योज हवं कदा रे, इम जाव वैमानिक जोय ॥ सोरठा १२३. शरीर वर्ण पेक्षाय, अनुक्रम चउविध पिण हवै। ते माट कहिवाय, कदाचि कृतयुग्मादि चिहुं ।। १२४. *सिद्ध प्रते नहिं पूछवा रे, सिद्ध वर्णादि रहीत । इक वचने ए आखिया रे, अथ बहुवचने वदीत ॥ १२५. बह वच जीव भदंत जी ! रे, कृष्ण वर्ण पर्याय । स्यं कडजुम्मा? पूछा किया रे, हिव भाखै जिनराय ।। १२६. जीव प्रदेश में आश्रयी रे, ओघ विधान थी सोय । कडजुम्मा न कहीजिये रे, जाव कल्योजन होय ।। *लय : अनंत नाम जिन पवमा रे १२२. सरीरपदेसे पडुच्च सिय कड जुम्मे जाव सिय कलि योगे । एवं जाव वेमाणिए। १२३. शरीरवर्णापेक्षया तु क्रमेण चतुर्विधोऽपि स्याद् अत (वृ. प. ८७६) १२४. सिद्धो ण चेव पुच्छिज्जति। (श. २५३१३३) एवाह - १२५. जीवा णं भंते ! कालावण्णपज्जवेहि-पुच्छा। गोयमा ! १२६. जीवपदेसे पडुच्च ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि नो कडजुम्मा जाव नो कलियोगा। ६२ भगवती मोड़ Jain Education Intemational Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७. शरीर प्रदेश ने आश्रयी रे, ओघ सामान्य थी जोग । कदाचिदजुम्माहुरे, जाव कदा कवियोग || १२८. विधान भेद करी वली रे, कडजुम्मा पिण होय । जाव कल्योगा पिण हवं रे, इम जाव बेमाणिया जोय || १२९. इम नील वर्ण पजवे अपि रे, भणिवु दंडक तास । इक वच बहु वचने करी रे, इम यावत लुक्ख फास । जोव आदि एम्बीस पदों की बारह उपयोग सम्बन्धी पुच्छा कृतयुग्म आदि के सन्दर्भ में १३०. इक बचने हे भदंत जी ! रे, आभिनिवोधि संवादि । ज्ञान तणं पजवे करी रे, स्यूं कटजुम्मे आदि ? १३१. जिन कहै कजुम्मे कदा रे, जाव कदा कलियोग | इम एगिदिय वर्ज ने रे, जाव वैमानिक जोग || ब्रहा आवरण क्षयोपशम । बहु प्रकार अवगम || जिण पर्याय नां ताय । दूजो भाग हुवै नथी, ते मतिज्ञान पर्याय ।। १३४. तेहने अनंतपणे वलि, क्षयोपशम नें ताम । विचित्रपणे करी वली, अनवस्थित परिणाम || १३५. तेही अयुगपदपणें जीव वार त्रिण दोय । च्यार । एक शेष ई इम कहां पिण समकाल न कोय | १३६. * एकेंद्रिय वर्जी करी रे, इम दंडक उगणीस । एकेंद्रिय में ज्ञान नहीं रे, तिणसुं वर्जी ईस ॥ १३७. बहु वच जीव भदंत जी ! रे, आभिनिबोधिक ज्ञान । तेहने पर्याये करी रे, स्यूं कडजुम्मादि जान ? १३८. जिन कहै ओ सामान्य थी रे, कदाचित जुम्म । जाव कल्योजकदा रे, न्याय पूर्ववत गम्म ॥ १३२. आभिनिबोधिक ज्ञान ने भेदे करी विशेष जे, १३३. निविभाग पलिच्छेद जे सोरठा तसु पजवा भेला करी । अयुगपत कडजुम्म प्रमुख ॥। क्षयोपशम में विष थी। अनवस्थित भावे करी ॥ कटजुम्मा पिण होय । समकाले चिहुं जोय ॥ १३९. समस्त नों मतिज्ञान, चिहुं अपहारे जान, १४०. ओघ थकी ते होय, तसु पजवानों जोय, १४१. विधानादेश करी वली रे जाव कल्योगा पिण हुंवे रे, सोरठा १४२. विधान भी एकादि व्यारू पिण तसु भेद हूं। च्या कह्या ।। ते माटे संवादि सम काले *लय : अनंत नाम जिन चवदमा रे १२७. सरीरपदेसे पडुच्च ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, १२८. विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कलियोगा वि । एवं जाव वेमाणिया । १२९. एवं नीलावण्णपज्जवेहि दंडओ भाणियव्वो एगत्तपुहत्तेणं । एवं जाव लुक्खफासपज्जवेहिं । (शं. २५।१३४ ) १३०. जीवे णं भंते ! आभिणिबोहियनाणपज्जवेहि कि कडग्मे पुछा। १३१. गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलियोगे । १३२.भिधिक ज्ञानस्थावरणक्षयोपशमभेदेन विशेषा: ये (बृ. प. ०७६) १३३. तस्यैव च ये निर्विभागपलिच्छेदास्ने आभिनिबोधिक ज्ञानपर्यं वास्तैः, ( वृ. प. ८७६) २३४. तेषां चानन्तत्वेऽपि क्षयोपशमस्य विचित्रत्वेनानवस्थितपरिणामत्वाद् (वृ. प. ८७६) १३५. अयौगपद्येन जीवश्चतुरग्रादिः स्यात् ( वृ. प. ८७६ ) १२६. एवं ए जान मानिए। (श. २५।१३५) १२७. जीवा ! आभिणियोहियनागपदेहि पुच्छा । १३८. गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, १३९. 'जीवा ण' मित्यादि, बहुत्वे समस्तानामाभिनिबोधिकज्ञानपर्यंवाणां मीलने चतुष्कापहारे चायुगपच्चतुरादित्यम् ( वृ. प. ८७६) १४०. ओघतः स्याद्विचित्रत्वेन क्षयोपशमस्य तत्पर्यायाणामनवस्थितत्वात् (बृ. प. ८७६,८७७) १४१. विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कलियोगा वि । १४२. विधानतस्त्येकदैवत्वारोऽपि भेदाः स्युरिति, (बृ. प. ८७७ ) श० २५, ०४, डा० ४३९ ६३ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३. एवं एगिदियवज्जं जाव वेमाणिया। एवं सूयनाण पज्जवेहि वि। १४४. ओहिनाणपज्जवेहि वि एवं चेव, नवरं-विगलि दियाणं नत्थि ओहिनाणं । १४५. मणपज्जवनाणं पि एवं चेव, नवरं जीवाणं मणुस्साण य, सेसाणं नत्थि। (श. २५॥१३६) १४६. जीवे ण भंते ! केवलनाणपज्जवेहिं कि कडजम्मे --- पुच्छा । १४७. गोयमा ! कडजुम्मे, नो तेयोगे नो दावरजुम्मे, नो कलियोगे । एवं मणुस्से वि । एवं सिद्धे वि । (श. २४१३७) १४३. *इम एकेंद्रिय वर्ज मैं रे, जाव वेमानिया अंत । इमहिज जे श्रुत ज्ञान ना रे, पजवे करी पिण हुंत ।। १४४. अवधिज्ञान पजवे करी रे, इमहिज कहिवो सोय । नवरं विकलेंद्रिय मझे रे, अवधिज्ञान नहिं होय ।। १४५. मनपज्जव पिण इमज छ रे, नवरं विशेषज एह । जीव तथा मनुष्य में हुवै रे, शेष दंडक नहीं लेह ।। १४६. इक वच जीव भदंत जी ! रे, केवलज्ञान नां जाण । पर्याये करि कडजुम्म हवै रे? इत्यादि प्रश्न पिछाण ।। १४७. जिन भाखै कडजुम्म हवं रे, शेष नहीं छै तीन । इमहिज मनुष्य संघात ही रे, एवं सिद्ध पिण चीन। सोरठा १४८. केवलज्ञान पर्याय, जीव मनुष्य में सिद्ध विषे । च्यार शेष रहै ताय, तिणसं कडजुम्मईज है। १४९. अनंत पज्जव थी ताय, वलि अवस्थित भाव थी। एहनां पिण पर्याय, अविभाग पलिच्छेद फुन । १५०. केवल तणों कहीज, तरतम भेद विशेष नहीं। इकविधपणों लहीज, तिणसू कडजुम्म ईज इक ॥ १५१, *बहु वच जीव भदंत जी रे, केवलज्ञान तणांह। पज्जव करी कडजुम्म हुवै रे, इत्यादि पूछा आह ।। १५२. जिन कहै ओघ सामान्य थी रे, विधान थी पिण चीन । कडजुम्माज हवे तिके रे, शेष रूप नहिं तीन ।। १५३. मणुसा पिण इमहिज हुवे रे, सिद्धा पिण इम होय । केवल पज्जवे करी रे, बहु वच मणु सिद्ध जोय ॥ १५४. एक वच जीव भदंत जी ! रे,मति अज्ञान नां न्हाल । पज्जव करी कडजुम्म हवै रे, इत्यादि प्रश्न विशाल ? १५५. आभिनिबोधिक ज्ञान ना रे, . पज्जव करी जिम ख्यात । तिमहिज बे दंडक इहां रे, इक बहुवचने थात ॥ १५६. इम श्रुत अज्ञान पज्जव करी रे, एम विभंग पर्याय । चक्ष अचक्ष अवधि वली रे, दर्शन पज्जव इम थाय ।। १४८. केवलज्ञानपर्यवपक्षे च सर्वत्र चतुरग्रत्वमेव वाच्यं, (वृ. प. ८७७) १४९,१५०. तस्यानन्तपर्यायत्वादवस्थितत्वाच्च, एतस्य च पर्याया अविभागपलिच्छेदरूपा एवावसेया न तु तद्विशेषा एकविधत्वात्तस्येति । (ब. प. ८७७) १५१. जीवा णं भंते ! केवलनाणपज्जवेहिं कि कडजुम्मा -पुच्छा । १५२. गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कड जुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, नो कलियोगा। १५३. एवं मणुस्सा वि । एवं सिद्धा वि । (श. २५॥१३८) १५४. जीवे णं भंते ! मइअण्णाणपज्जवेहि कि कडजुम्मे ? १५५. जहा आभिणिबोहियनाणपज्जवेहि तहेव दो दंडगा। 'दो दंडग' त्ति एकत्वबहुत्वकृतौ द्वौ दण्डकावीति । (वृ. प. ८७७) १५६. एवं सुयअण्णाणपज्जवेहि वि। एवं विभंगनाण पज्जवेहि वि । चक्खुदंसण-अचक्खुदंसण-ओहिदसण पज्जवेहि वि एवं चेव, १५७. नवरं-जस्स जं अत्थि तं भाणियब्वं । १५८. केवलदसणपज्जवेहि जहा केवलनाणपज्जवेहि । (श. २५।१३९) १५७. नवरं इतरो विशेष छै रे, जेहने जे छ ताम । तेहने तेह कहीजिय रे, जिन वच परम आराम ॥ १५८. केवलदर्शन पजवे करी रे, जिम केवल वर नाण । पर्याये करि आखियो रे, तिमहिज कहिवं पिछाण ।। १५९. देश दोयसौ चोपन तणों रे, चिउंसौ गुणचालीसमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे,, ____ 'जय-जश' हरष विशाल ।। *लय : अनंत नाम जिन चववमा रे ६४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ४४० १. पूर्व 'सरीरपएसे पडुच्चे' त्युक्तमिति शरीरप्रस्तावाच्छरीराणि प्ररूपयन्नाह (वृ. प.८७७) १. शरीर प्रदेश आश्रयी, पूर्वे का विचार । तनु प्रस्ताव थकी हिवै, शरीर अधिकार ।। शरीर पद २. हे प्रभु ! शरीर केतला ? जिन कहै शरीर पंच । धुर ओदारिक जाणवं, जाव कार्मण संच ।। २. कति णं भंते ! सरीरगा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा ओरालिए जाव कम्मए। ३. एत्थ सरीरगपदं निरवसेसं भाणियव्वं जहा पण्णवणाए (पद १२)। (श. २५।१४०) ४. शरीरवन्तश्च जीवाश्चलस्वभावा भवन्तीति सामान्येन जीवानां चलत्वादि पृच्छन्नाह (वृ. प. ८७७) ३. एम पन्नवणा सूत्र नों, शरीर पद संपेख । __ निरवशेष भणवो सहु, द्वादशमो पद देख ।। ४. शरीरवंत हवै बलि, चल स्वभाव जे जीव । जीवां ने चलत्वादि हिव, सामान्येन कहीव ।। जीवों को सकम्पता निष्कम्पता *प्रवर प्रश्नोत्तर सांभलो ।। (ध्रुपदं) ५. हे प्रभजी ! जीवा किसं, सेया ते कंपै छ सोय कै? अथवा निरेया अकंप छै ? जिन भाखै दोइ होय कै ।। ५. जीवा णं भंते ! कि सेया ? निरेया ? गोयमा ! जीवा सेया वि, निरेया वि । (श. २५।१४१) 'सेय' ति सहैजेन चलनेन सैजाः 'निरेय' त्ति निश्चलनाः। (वृ. प. ८७७) ६. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जीवा सेया वि, निरेया वि? ७. गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा---'संसारसमावण्णगा य अससारसमावण्णगा य । ६. किण अर्थे भगवंत जी! इम कहियै छै जे बहु जीव के । सेया कप पिण अछ, निश्चल पिण बहु जीव अतीव कै ? ७. जिन भाखै सुण गोयमा ! जीवा दोय प्रकार सुजोय के । संसार-समावन्नगा वली, असंसार-समापन्न सोय कै ॥ ८. असंसार-समापन्नगा सिद्धा, ते सिद्ध दोय प्रकार संपेख के । प्रथम समय नां अनंतर, द्वितीयादि समय परंपर देख के ।। ९. तिहां सिद्ध परंपर छै तिके, थया सिद्ध थयां नै समय बे आदि के । तेह निरेजा अकंप छ, वर्तमान अनागत अचल सवादि के ।। १०. सिद्ध अनंतर छै तिके, थयो सिद्ध थयां नैं समयो एक के । ए प्रथम समय नां ऊपनां, सेया सकंप तिके सूविशेष के ।। *लय : हूं बलिहारी जादवां ८. तत्थ णं जे ते असंसारसमावण्णगा ते णं सिद्धा। सिद्धा णं दुविहा पण्णत्ता, तं जहा---अणंतर सिद्धा य, परंपरसिद्धा य। ९. तत्थ णं जे ते परंपरसिद्धा ते णं निरेया। परम्परसिद्धास्तु सिद्धत्वस्य द्वयादिसमयवृत्तयः, (वृ. प. ८७७) १०. तत्थ णजे ते अणंतरसिद्धा ते णं सेया। (श. २५१४२) ये सिद्धत्वस्य प्रथमसमये वर्तन्ते, ते च सैजाः, (वृ. प. ८७७) श० २५, उ०४, ढा० ४४० ६५ Jain Education Intemational Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ११. गमन समय नों जाण, फुन सिद्ध प्राप्ति समय तणों। एकपणां थी माण, तिणसू सकंप धुर समय ।। १२.*तेह सिद्ध भगवंतजी! स्यं देश थकी कंपै छै ताम के ? के सर्वथो कंपै अछ ? तसु उत्तर देव जिन स्वाम कै ।। ११. सिद्धिगमनसमयस्य सिद्धत्वप्राप्तिसमयस्य चैकत्वादिति, (वृ. प. ८७७) १२. ते णं भंते ! कि देसेया? सब्वेया? गोयमा ! 'देसेय' ति देशैजाः देशतश्चलाः 'सव्वेय' त्ति सर्वैजा:-सर्वतश्चलाः। (वृ. प. ८७७) नो देसेया, सम्वेया। १३. 'नो देसेया सव्वेय' त्ति सिद्धानां सर्वात्मना सिद्धौ गमनात्सर्वेजत्वमेव, (वृ. प. ८७७) १४. तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सेलेसिपडिवण्णगा य, असेलेसिपडिवण्णगा य। १३ देश थकी कप नहीं, सर्व थकी कंपेज कहेय के। सर्वात्म करि सिद्ध विषे, ___गमन थकी सिद्ध न सर्वेय के । १४. संसार-समापन्नगा तिके, दोय प्रकारे दाख्या ताम के। सेलेशी प्रतिपन्नका, असेलेशी-पडिवन्नगा आम कै ।। सोरठा १५. रूंध्या योग तमाम, सेलेशी गुण' चवदमें । योग न रूंध्या आम, असेलेशी कहियै तिके । १६. *सेलेशी-प्रतिपन्नका, तेह निरेजा निश्चल होय के। असेलेशी-पडिवनगा, सेया तेह सकंपक होय कै॥ १६. तत्थ णं जे ते सेले सिपडिवण्णगा ते णं निरेया, तत्थ __णं जे ते असेलेसीपडिवण्णगा ते णं सेया। (श. २५।१४३) १७. ते णं भंते ! कि देसेया? सब्वेया? गोयमा ! देसेया वि, सव्वेया वि। १८,१९. इलिकागत्या उत्पत्तिस्थानं गच्छंतो देशैजा: प्राक्तनशरीरस्थस्य देशस्य विवक्षया निश्चलत्वात्, (वृ. प. ८७७) १७. ते प्रभु ! कप देश थी, अथवा सर्व थकी कंपेह के ? जिन कहै कंप देश थी, सर्व थकी पिण कप जेह कै।। सोरठा १८. गति इलिका करेह, उत्पत्ति स्थानक नै विषे । जातो थकोज जेह, देश थकी कंपै जिको ।। १९. पूर्व शरीर मांय, देश रह्यो छै तेहनी । वंछा कर कहिवाय, निश्चल देश ग्रा, तसु ।। २०. गेंदुक गति करि जाय, सर्व थकी कंप तिको । सर्वात्म करि ताय, गमन प्रवृत्तपणां थकी। २१. *तिण अर्थे इम आखियै, जाव निरेजा निश्चल जेह के । जीवा सकंप अकंप है, तेहनों न्याय कह्यो छै एह के ॥ २२. नेरइया हे भगवंत जी! देश थकी स्यू ते कंपाय के। अथवा कंपैसा थी? जिन भाख दोन इ कहाय कै।। २३. किण अर्थे दोन प्रभु ? जिन कहै नारक दोय प्रकार के । विग्रहगति-समापन्नका, वलि अविग्रह-गतिका धार के । २०. गेन्दुकगत्या तु गच्छन्तः सर्वैजा', सर्वात्मना तेषां गमनप्रवृत्तत्वादिति । (वृ. प. ८७७) २१. से तेणढेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - जीवा सेया वि, निरेया वि। (श. २५।१४४) २२. नेरइया णं भते ! कि देसेया? सब्वेया? गोयमा ! देसेया वि, सब्वेया वि । (श. २५।१४५) २३. से केणठेणं जाव सब्बेया वि? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णता, तं जहा-- विग्गहगतिसमावणगा य, अविग्गहगतिसमावण्णगा य। २४. तत्थ णं जे ते विग्गहगतिसमावण्णगा ते णं सब्वेया, २४. तिहां विग्रहगति-समापन्न ते, सर्व थकी कंपै छै तेह के। सर्व आत्म करिने जिको, उत्पत्ति स्थानक जातो जेह कै॥ *लय :हूं बलिहारी जादवां १. गुणस्थान ६६ भगवती जोर Jain Education Intemational Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २५. जेह मरी ने ताय, विग्रह गति करिने जिकै। उत्पत्ति स्थानक जाय, विग्रहगति-समापन्न ते ।। २५. 'विग्गहन समावन्नग' नि विग्रहगतिसमापन्नका ये मृत्वा विमहत्योत्पत्तिस्थानं गच्छन्ति। (बृ. प. ८७७) २६. तत्थ णं जे ते अविग्गहगतिसमावण्णगा ते णं देसेया। २६. *तिहां अविग्रहगति-समापनका, ते तो देश थकी कंपाय के। तास न्याय कह्यो वृत्ति में, सांभलजो भवियण चित ल्याय के ।। सोरठा २७. विग्रह गति नहिं होय, अविग्रहगतिका तिके । ऋजुगतिका ते जोय, अवस्थितिका पिण वली ।। २८. तिहां विग्रह-गति समापन्न, गेंदुक गति करिकै गमन । ____एम करीने जन्न, सर्व थकी कंपमान ते ।। २९. अविग्रह गति समापन्न, अवस्थितिका हीज जे । वंछया इहां सुजन्न, एह संभाविय अछै ।। ३०. फुन रह्या जे देह, मारणांतिक समुद्घात करि । देश इलिका गति करेह, फर्श उत्पत्ति क्षेत्र प्रति ।। ३१. देश एज ते ख्यात, अथवा स्वक्षेत्र रह्या । हस्त आदि कंपात, देश एज कहिये तसु ।। ३२. *तिण अर्थे इम आखिय, जावत सव्वेया पिण एह के। एवं जाव वेमाणिया, देश सर्व थी कंपै जेह के ।। २७. 'अविग्गहराईसमावन्नग' ति अविग्रहतिसमापन्नका: --विग्रहगतिनिषेधादृजुगतिका अवस्थिताश्च, (वृ. प. ८७७) २८. तत्र विग्रहगतिसमापन्ना गेन्दुकगत्या गच्छन्तीतिकृत्वा सर्वजा:, (वृ. प.८७७) २९. अविग्रहगतिसमापन्नकास्त्ववस्थिता एवेह विवक्षिता इति संभाव्यते, (वृ. प. ८७७) ३०,३१. ते च देहस्था एव मारणान्तिकसमुद्घातात् देशे नेलिकागत्योत्पत्तिक्षेत्रं स्पृशन्तीति देशैजाः स्वक्षेत्रावस्थिता वा हस्तादिदेशानामेजनादिति । (वृ. प. ८७७,८७८) ३२. से तेणठेणं जाव सव्वेया वि। एवं जाव वेमाणिया । (श.२५१४६) ३३. उक्ता जीववक्तव्यता अथाजीववक्तव्यतामाह (व. प. ८७८) सोरठा ३३. नारक प्रमुख जीव, वक्तव्यता तेहनीं कही। आगल हिवं कहीव, अजीव नी जे वार्ता ।। पुदगल पद ३४. *परमाणपुद्गल प्रभु ! स्यं संख्याता के असंख्यात कै? अथवा अनंता छै तिके ? कृपा करी भाखो जगनाथ ! के ।। ३५. जिन कहै संख्याता नहीं, असंख्याता नहि छै मुनिंद के । परमाणु अनंताज छै, इम जाव अनंतप्रदेशिक खंध के ।। ३६. एक आकाश प्रदेश नैं, अवगाह्या पुद्गल भगवंत ! के। स्यूं संख असंख अनंत छै ? इमहिज निश्चै कहिवो संत कै ।। ३७. एवं जावत जाणवू, असंखेज आकाश प्रदेश के। अवगाह्या पुदगल तिके, अनंत कहीजै छै निसंदेह कै।। ३८. एक समय स्थितिका प्रभु ! पुद्गल स्यूं संख्याता समाज के ? ___ एवं चेव कहीजिय, इम जाव असंख समय स्थितिकाज के ।। ३४ परमाणुपोग्गला णं भंते! कि संखेज्जा ? असंखेज्जा ? अणंता? ३५. गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता । एवं जाव अणंतपदेसिया खंधा। (श. २५:१४७) ३६. एगपदेसोगाढा णं भंते ! पोग्गला कि संखेज्जा ? असंखेज्जा ? अणंता? एवं चेव । ३७. एवं जाव असंखेज्जपदेसोगाढा। (श २५।१४८) ३८. एगसमयद्वितीया णं भंते ! पोग्गला कि मखेज्जा ? एव चेव । एवं जाव असंखेज्जसमयद्वितीया । (श. २५.१४९) ३९. एगगुणकालगा णं भंते ! पोग्गला कि संखेज्जा? एवं चेव । एवं जाव अणंतगुणकालगा। ३९. इक गुण काला हे प्रभु ! पुद्गल स्यूं संख्याता न्हाल कै ? इमहिज तास कहीजिय, एवं जाव अनंतगुण काल के ।। *लय :हूं बलिहारी जादवां शा०२५, उ०४, ढः०४४०१७ Jain Education Intemational Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. एवं अवसेसा वि वण्णगंधरसफासा नेयव्वा जाव अणतगुणलुक्ख त्ति। (श २५।१५०) ४१. एएसि णं भंते ! परमाणु पोग्गलाणं दुपदेसियाण य खंधाणं दव्वट्ठयाए कयरे कयरेहितो बहुया ? ४२. गोयमा ! दुपदेसिएहितो खंधेहिंतो परमाणुपोग्गला दव्वट्ठयाए बहुया। (श. २५।१५१) ४३,४४, तत्र बहुवक्तव्यतायां द्वयणकेभ्यः परमाणवो बहवः सूक्ष्मत्वादेकत्वाच्च द्विप्रदेशकास्त्वणुभ्यः स्तोका: स्थूलत्वादिति वृद्धाः वस्तुस्वभावादिति चान्ये, (वृ प. ८७९) ४५. एवमुत्तरत्रापि पूर्व-पूर्वे बहवस्तदुत्तरे तु स्तोकाः । (वृ. प. ८७९) ४०. इम अवशेषज जाणवा, वर्ण गंध रस नै वलि फास के। ___ जाव अनंतगुण लुक्ख लगे, सर्व अनंता कहिवा तास के ।। पुद्गल का अल्पबहत्व द्रव्यार्थ की अपेक्षा से ४१. प्रभु ! ए परमाणुपुद्गल तणे, दुप्रदेशिया खंध नैं ताय कै । दव्वट्ठयाए कुण-कुण थकी, बहुला? तब भाखै जिनराय के ।। ४२. दोय प्रदेशिक खंध थकी, परमाणपुद्गल पहिछाण के। दव्वट्ठयाए बहुत छ, तास न्याय सुणजो सुविहाण के। सोरठा ४३. सूक्ष्मपणां थकीज, वलि ते एकपणां थकी। बहु परमाणु कहीज, दोय प्रदेशिक खंध थी॥ ४४. पूर्वे भाख्यो न्याय, तेह वडेरां नों कहिण । अन्य आचार्य ताय, वस्तु स्वभाव थकी कहै ।। ४५. इम आगल पिण न्याय, पूर्व बहु उत्तर अल्प । जिहां कह्यो छै ताय, तिहां न्याय ए जाणवू ।। वा० ... इहां तीजा पद में पूर्वे बहु अनैं उत्तर अल्प इम कह्यो तेहनों अर्थ कहै छ--इहां पूर्वे कह्यो दुप्रदेशिक खंध थी परमाणु घणां ते परमाणु पूर्व पद छ ते माटै घणां छ । अन दुप्रदेशिक खंध आगलो पद छ तेहन उत्तर पद कहिये ते माटै ए थोड़ा छै । इमहिज आगल कहिवो ते कहै छ ४६. “ए प्रभु ! खंध दुप्रदेशिया, तीन प्रदेशिक खंध – तेह के। दव्वट्ठयाए कुण-कुण थकी, बहुला? तब जिन उत्तर देह के ।। ४७. तीन प्रदेशिक खंध थकी, दोय प्रदेशिक खंध सूजोय के। द्रव्य थकी ते बहुत छै, एवं इण गमे करि आगल जोय के । वा०-इहां कह्यो त्रिप्रदेशिक खध थकी दुप्रदेशिक खंध घणां दुप्रदेशिक तो त्रिप्रदेशिकखंध नी अपेक्षाय प्रथम पद छ ते माट। त्रिप्रदेशिक खंध थकी दुप्रदेशिक खंध घणां छै । अने दुप्रदेशिक खंध नी अपेक्षाय त्रिप्रदेशिक खंध आगलो पद छ ते माट दुप्रदेशिक खंध थी त्रिप्रदेशि खंध थोड़ा छै। इम चिहुं प्रदेशिक खंध थी त्रिण प्रदेशिक घणां छ। अने त्रिण प्रदेशिक खंध थकी च्यार प्रदेशिक खंध थोड़ा छ। ४८. जावत दश प्रदेशिया, खंध थकी कहिय अवलोय के। नव प्रदेशिया खंध ते, द्रव्य अर्थ करि बहला होय कै ।। ४९. हे प्रभु ! दश प्रदेशिका, संख प्रदेशिक खंध फून ताम के । दव्वट्ठयाए कुण-कुण थकी, बहुला? तब भाखै जिन स्वाम के ।। ५०. जिन कहै दश प्रदेशिका, खंध थकी अधिका कहिबाय के । संख प्रदेशिया खंध ते, दव्वट्टयाए बहुला पाय के ।। ४६. एएसि णं भंते ! दुपदेसियाणं तिपदेसियाण य खंधाणं दबट्ठयाए कयरे कयरेहितो बहुया ? ४७. गोयमा ! तिपदेसिएहितो खंधेहितो दुपदेसिया खंधा दब्बट्ठयाए बहुया । एवं एएणं गमएणं ४८. जाब दसपदेसिएहितो खंधेहितो नवपदेसिया खंधा दव्वट्टयाए बहुया। (श. २५।१५२) ४९. एएसि णं भंते ! दसपदेसियाणं - पुच्छा। ५०. गोयमा ! दसपदेसिएहितो खंधेहितो संखेज्जपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए बहुया । (श. २५।१५३) सोरठा ५१. दश प्रदेशिक थीज, संख प्रदेशिक खंध घणां। स्थानक बहुत्व थकीज, अदल न्याय अवलोकियै ।। ५१ दशप्रदेशिकेभ्यः पुनः सङ्खघातप्रदेशिका बहवः, सङ्ख्यातस्थानानां बहुत्वात्, (वृ. प. ८७९) *लय :हूं बलिहारी जाववां ६८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. एएसि णं भंते ! संखेज्जपदेसियाणं -पुच्छा। ५३. गोयमा ! संखेज्जपदेसिएहितो खंधेहितो असंखेज्ज पदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए बहुया। (श. २५११५४) ५४. एएसि णं भंते ! असंखेज्जपदेसियाणं - पुच्छा। ५५. गोयमा ! अणंतपदेसिएहितो खंधेहितो असंखेज्ज__ पदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए बहुया। (प. २५५१५५) ५६. अनन्तप्रदेशिकेभ्यस्तु असङ्खघातप्रदेशिका एव बहवस्तथाविधसूक्ष्मपरिणामात् । (वृ. प. ८७९) ५७. एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं दुपदेसियाण य खंधाणं पदेसट्टयाए कयरे कयरेहितो बहुया ? ५८. गोयमा ! परमाणुपोग्गलेहितो दुपदेसिया खंधा पदेसट्ठयाए बहुया। ५२. *संख प्रदेशिक खंध प्रभु ! असंख प्रदेशिक खंध फुन जेह के। दव्वट्ठयाए कुण-कुण थकी, पुद्गल बहुला कहियै तेह के ? ५३. जिन कहै संख प्रदेशिया, खंध थकी अधिका अवलोय के। ___ असंख प्रदेशिया खंध ते, दवट्ठयाए बहुला जोय के ।। ५४. हे प्रभु ! असंख प्रदेशिया, अनंत प्रदेशिया खंध फून ख्यात कै। दब्वट्ठयाए कुण-कुण थकी, थोड़ा अथवा बहु जगनाथ के ? ५५. जिन कहै अनंत प्रदेशिया, खंध थकी अधिका पहिछाण के। असंख प्रदेशिक खंध ते, दव्वट्ठयाए बहुला जाण के ।। सोरठा ५६. अनंतप्रदेशिक थीज, असंख प्रदेशिक खंध घणां । तथाविध सलहीज, ए सूक्ष्म परिणाम थी ।। पुदगल का अल्पबहुत्व प्रदेशार्थ की अपेक्षा से ५७. परमाणुपुद्गल प्रभु ! दोय प्रदेशिया खंध नै ताय के । प्रदेश-अर्थपणे करी, कुण-कुण थी बहुला कहाय के ? ५८. जिन कहै परमाणु थकी, दोय प्रदेशिया खंध छै तेह के । प्रदेश-अर्थपणे घणां, तास न्याय सुणजो गुणगेह के ।। सोरठा ५६. द्रव्यपणे जिम संध, परमाणुया है एक सौ। दोय प्रदेशिक खंध, द्रव्य थकी ते साठ है ।। ६०. प्रदेश-अर्थपणेह, शत मात्रज परमाणुया । दोय प्रदेशिक जेह, इकसौ बीस प्रदेश थी ।। ६१. आगल पिण अवलोय, करवी इमहिज भावना । ए दृष्टांत सुजोय, वृत्ति थकी आख्यो इहां ।। ६२. “इम इण आलावे करी, जावत नव प्रदेशिक थीज के। दश प्रदेशिक खंध घणां, प्रदेश-अर्थपणेज कहीज के। ६३. इम सगलैइ पूछवो, दश प्रदेशिक खंध थी सोय के। खंध संख्यात प्रदेशिया, प्रदेश-अर्थपणे बहु जोय के। ६४. संख्यात प्रदेशिया खंध थकी, असंख्यात प्रदेशिया खंध के। प्रदेश-अर्थपणे घणां, पूर्वली परै न्याय सुसंध के ।। ६५. एहने हे भगवंतजी ! असंख्यात प्रदेशिक खंध के। तेह तणीं पूछा कियां, उत्तर तास दिये जिनचंद के।। ६६. अनंत प्रदेशिक खंध थकी, असंख्यात प्रदेशिक खंध के। प्रदेश-अर्थपणे घणां, ते बहु द्रव्यपणां थी एह प्रबंध कै ।। पुद्गल का अल्पबहुत्व क्षेत्र की अपेक्षा से ६७. प्रभु ! एक प्रदेश ओगाहिया, दोय प्रदेश ओगाह्या जेह के। पुद्गल नै जे द्रव्य थी, कुण-कुण थी विसेसाहिया तेह के ? *लय :हूं बलिहारी जादवां ५९. यथा किल द्रव्यत्वेन परिमाणतः शतं परमाणवः द्विप्रदेशास्तु षष्टिः, (वृ. प. ८७९) ६०. प्रदेशार्थतायां परमाणवः शतमात्रा एव द्वयणुकास्तु विंशत्युत्तरं शतमित्येवं ते बहव इति, (वृ. प. ८७९) ६१. एवं भावना उत्तरत्रापि कार्या। (व. प. ८७९) संकेत ६२. एवं एएणं गमएणं जाव नवपदेसिएहितो खंधेहितो दसपदेसिया खंधा पदेसट्टयाए बहुया। ६३. एवं सव्वत्थ पुच्छियव्वं । दसपदेसिएहितो खंधेहितो संखेज्जपदेसिया खंधा पदेसट्ठयाए बहुया । ६४. संखेज्जपदेसिएहितो खंधे हितो असंखेज्जपदेसिया खंधा पदेसट्टयाए बहुया । (श. २५।१५६) ६५. एएसि णं भंते ! असंखेज्जपदेसियाणं-पुच्छा। गोयमा ! ६६. अणंतपदेसिएहितो खंधेहितो असंखेज्जपदेसिया बंधा पदेसट्टयाए बहुया। (श. २५।१५७) ६७. एएसि णं भंते ! एगपदेसोगाढाणं दुपदेसोगाढाण य पोग्गलाणं दव्वट्ठयाए कयरे कयरेहितो विसेसाहिया ? श०२५, उ०४ ढा०४० ६९ Jain Education Intemational Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. जिन कहै दोय प्रदेश नै ओगाह्या थी एक प्रदेश कै । अवगाह्या पुद्गलतिके, द्रव्य थकी विसेसाहिया कहेस के || सोरठा ६९. इक प्रदेश अनंत प्रदेशिक ताह, ७०. वे प्रदेश अवगाह, आदि देइनं ताह, अनंत ७१. विसेसाहिया ताहि, अनंत खंध || अधिकाज ते। पण दुगुणादिक नाहि, ए विसेसाहिया तणों ॥ ७२. *मण आलावे करो, तीन प्रदेश जोगाया भी पेय के दोय प्रदेश ओगाहिया, पुद्गल द्रव्य थी अधिक विशेख के ।। ७३. इन जावत दश प्रदेश में ओगाया पुद्गल थी पेख के नव प्रदेश ओगाहिया, पुद्गल द्रव्य थी अधिक विशेख के ।। ७४. हे प्रभु! दश प्रदेश नी, पूछा कीधां गोयम शीस के । संख प्रदेश ओगाहिया, पुद्गल थी भी गुजगीस के ।। ७५. जिन कहै दश प्रदेश नं ओगाह्या पुद्गल थी माण कै 1 संख प्रदेश ओगाहिया, मुद्गल द्रव्य यकी ७६. संख्या नभ प्रदेश में अवगाह्या पुद्गल असं प्रदेश ओगाहिया, पुद्गल द्रव्य थकी बहू ७७. पूछा सगर्ल स्थानके, भणवी सूत्रे आयो एम कै प्रदेश- अर्थपणे हिवै, गोयम प्रश्न करें धर प्रेम के ॥ ७८. प्रभु ! एक प्रदेश ओगाढ में दोय प्रदेश ओगाढा जेह के पुद्गल नंज प्रदेश थी कुणकुण भी विरोसाहिया तेह के ? ७९. जिन कहै एक प्रदेश नै ओगाह्या पुद्गल थी पेख कै । बहू जाग के ।। सोय के । थी । जोय के 1 1 दोय प्रदेश ओगाहिया, प्रदेश थी विसेसाहिया देख के || ८०. इम जावत नव प्रदेश नं, अवगाह्या पुद्गल थी पेख कै । दश प्रदेश ओगाहिया, पुद्गल प्रदेश थी अधिक विशेख के || ८१. दश आकाश प्रदेश नं, अवगाह्या पुद्गल थी जो कै । संख प्रदेश ओगाहिया, पुद्गल प्रवेश थकी वह होय के ८२. संख्यात नभ प्रदेश नं, अवगाह्या पुद्गल थी ताय के । असंख प्रदेश ओगाहिया, पुद्गल प्रदेश थकी बहु थाय के || पुद्गल का अल्पबहुत्व काल की अपेक्षा से ८३. प्रभु ! एक समय स्थितिका अनं, दो समय स्थितिका छे बेह के । पुद्गल न द्रव्यार्थपणे, इत्यादिक प्रश्नोत्तर में ८४. जिम अवगाहणा ने विषे, वक्तव्यता आखी तिण स्थिति विषे पण जाणवी, काल अपेक्षा पुद्गल पुद्गल का अल्पबहुत्व भाव की अपेक्षा से ८५. इक गुण काला ने प्रभु ! वे गुण कृष्ण पोम्पल ने पेख के । वट्टयाए कुणकुण थकी, विसेसाहिया अधिक विशेख के ? * लय हूं बलिहारी जादवां भगवती जोड़ ७० अवगाह, परमाणु ने आदि दे । अनंता ए हुवे दोय प्रदेशिक प्रदेशिक तेह थकी अर्थ अर्थ सहु ॥ खंध नैं । तेह कै ॥ रीत कै । शेत के ६८. गोयमा ! दुपदेसोगाढे हितो पोग्गलेहितो एगपदेसोगाढा पोग्गला दव्वट्टयाए विसेसाहिया । ६९. तत्रैकप्रदेशावगाढा: परमाण्वादयोऽनन्तप्रदेशिकस्कन्धान्ता भवन्ति, ( वृ. प. ८७९ ) ७०. प्रदेशाचादास्तु उपणुकादयोऽनन्तानुकान्ताः " (बृ. प. ८७९) ७१. 'विसेसाहिय' त्ति समधिकाः न तु द्विगुणादय इति । (बृ. प. ८७९) पोग्गले तो ७२. एवं एएणं गमएणं तिपदेसोगाढे हितो दुपदेसोगाढा पोग्गला दव्वट्टयाए विसेसाहिया ७२. जाव दसदेोगाहिती पोलेहितो नवपदेसोगाढा पोग्गला दबाए विसेसाहिया ७५. दसदेोगाहियो पोलेहिनो संखेज्जपदेोगाढा पोग्गला दव्वट्टयाए बहुया । ७६. संखेज्जपदेसोगाढे हितो पोग्गलेहितो असंखेज्जपदेसोगाढा पोग्गला दव्वट्टयाए बहुया । ७७. पुच्छा सव्वत्थ भाणियव्वा । (श. २५/१५८ ) ७८. एएसि णं भंते! एगपदेसोगाढाणं दुपदेसोगाढाण य पोग्लाग पाए कवरे कमरेहितो विसेसाहिया? ७९. गोमा ! एनपदेसोमाहिती योग्यलेहितो दुपदेसोगाढा पोग्गला पदेसयाए बिसेसाहिया । ८०. एवं जाव नवपदेसोगाढे हितो पोग्गलेहितो दसपदेसोगाढा पोग्गला पदेसट्टयाए विसेसाहिया । १] पोम्यतेहितो जपदेोगादा पोग्गला पट्टयाए बहुया ८२. संखेज्जपदेसोगाढे हितो पोग्गलेहितो असंखेज्जपदेसोगाढा पोग्गला पट्टयाए बहुया । (श. २५।१५९) २. एएस गं मंते एवसमयद्वितीयाणं दुसमयद्वितीयान यपोग्गलाणं दव्वट्टयाए ? ८४ जहा ओगाहणाए वत्तव्वया एवं ठितीए वि । (श. २५/१६० ) ८५. एएसि णं भंते ! एगगुणकालगाणं दुगुणकालगाण य पोग्गलाणं दव्वट्टयाए ? Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. जिम परमाणु प्रमुख तणीं, वक्तव्यता कही तिगहिज रीत के कहिवी वक्तव्यता सह सर्व वर्ण गंध रस संगीतकै ॥ ८७. इक गुण कर्कश ने प्रभु | वे गुण कर्कश में ! दब्बटुवाए कुणकुण थकी, जाव विशेष अधिक फुन पेख के वा देख के ? ८. जिन कहै इक गुण कक्खड थी, वे गुण कर्कश कर्कश पुद्गल दव्वट्टयाए द्रव्य भी विसेसाहिया अधिक विशेख ८९. एवं जावत जाणवूं, नव गुण फक्खर पोग्गल थी लेख के दश गुण कर्कश पोग्गला, दव्वट्टयाए अधिक विशेख के ।। पेख कै । के ।। ९०. दशगुण कक्खड पोग्गल थकी, संख्यातगुण कक्खडा सुविचार कै । द्रव्य की ते पोग्गला, बहुवा पाठ अर्थ बहु धार कै ॥ ९१. संख्यात गुण कर्कश थको, असंख्यातगुण कवडा दव्वट्टयाए पुद्गल घनां बहुया पाठ को ९२. असंख गुण कर्कश थकी, अनंत गुण द्रव्य थकी पुद्गल घणां, बुद्धिवंत न्याय ९३. प्रदेश - अर्थपणे करी, इमहिज कहिवो सगलैइ भणवी पृच्छा, सूत्रे इहविध भाख्यो ९४. एवं मृदु गुरु ने लघु, कर्कश जिम कहिया ए शीत उष्ण निद्ध ने लुक्खा, ए चिहुं वर्ण तणी परि आम के स्वाम के ।। छै कर्कश अवलोय के | विचारी जोय के ।। छै अवलोय के । सोय कै ॥ सीन के । चीन के || वा० -वर्णादिक भाव विशेषित पुद्गल चिता ने विषे कर्कशादिक च्यार फर्श विशेषित पुद्गल मैं विषे पूर्व पूर्व थकी उत्तरोत्तर तथाविध स्वभावपणां थी द्रव्यार्थपण करी घणां कह्या । अनैं शीत, उष्ण, निद्ध, लुक्ख फर्श विशेषित नैं विषे कृष्णादिक वर्ण विशेषित नीं परे उत्तर थकी पूर्व घणां दश गुण तांई । दश गुण थकी संख्यात गुण घणां । अन संख्यात गुण थकी अनंत गुण घणां अन वली अनंत गुण थकी पिण असंख्यात गुण घणां । एहिज शीत आदि च्यार फर्श जूजूआ नाम लेइ कहिये छे बे गुण शीत पुद्गल थकी एक गुण शीत पुद्गल घणां । अनैं त्रिण गुण शीत थकी बे गुण शीत घणां । इम जावत दश गुण शीत थकी नव गुण शीत घणां । अन दश गुणशीत थकी संख्यात गुण शीत घणां । अने संख्यात गुण शीत थकी असंख्यात गुण शीत पुद्गल घणां । अ वलि अनंतगुण शीत पुद्गल थकी पण असंख्यात गुण शीत पुद्गल घणां । इमहिज उष्ण निद्ध लुक्ख जाणवा । पुद्गल का अल्पबहुत्य ९५. ए परमाणुपुद्गल तणे संख प्रदेशिक ने पिण होय के । असंख प्रदेशिक ने वली, अनंत प्रदेशिक नैं अवलोय के ।। ९६. द्रव्य थकी में प्रदेश थी, द्रव्य प्रदेश थकी बलि देख के कुणकुण थी जावत कह्या, विसेसाहिया वा संपेख के ? ९७. जिन कहै थोड़ा सर्व थी, द्रव्य थी अनंत प्रदेशिक बंध के । तेही परमाणुपोग्गला, द्रव्य घी अनंतगुणा सुप्रबंध के ।। ८६. एएसि णं जहा परमाणुपोग्गलादीणं तहेव वत्तव्वया निरवसेसा । एवं सव्वेसि वण्ण-गंध-रसाणं । (श. २५/१६१ ) ८७. एएसि णं भंते ! एगगुणकक्खडाणं दुगुणकक्खडाण य पोलणं दव्यपाए कमरे कमरेहिता बिसेसा हिया ? ८. गोवमा एमको पोहित गुणक्खा पोलादा विसेसाहिया हितो ८९. एवं जाव नवगुणकडे पोहो दस गुणकक्खडा पोग्गला दव्वट्टयाए विसेसाहिया । ९०. दो पोलेहितो गुण पोग्गला दब्वट्टयाए बहुया । ९१. सखेज्जगुण कक्खडे हितो पोग्गलेहितो अस खेज्जगुणकक्खडा पांगला दव्बट्टयाए बहुया । ९२. असंखेज्जगुण कक्खडे हितो पोगले हितो अनंतगुणकक्खडा पोग्गला दव्बट्टयाए बहुया । ९३. एवं पदेसट्टयाए वि । सन्वत्थ पुच्छा भाणियव्वा । ९४. जहा कक्खडा एवं मउय गरुय लहुया वि। सीयउसिद्धि-लुखा जहाँ बा (म. २५।१६२) तु वा. - वर्णादिभावविशेषितपुद्गलचिन्तायां कर्कादिचतुष्टयविशेषलेषु पूर्वेभ्यः पूर्वेभ्य उत्तरोत्तरास्तथाविधस्वभावत्वाद्द्रव्यार्थतया बहवो वाच्याः, शीतोष्णस्निग्धरूक्षलक्षणस्पर्श विशेषितेषु पुनः कालादिविशेषिता इवोत्तरेभ्यः पूर्वे दशगुणान् यादवाच्या ततो दशगुणेभ्यः समुणास्तेभ्योऽनन्तगुणा अनन्तगुणेभ्यश्चासह यगुणा बहूव इति एतदेवाह - 'एगगुणकक्खडे हितो' इत्यादि । ( वृ. प. ८७९ ) ९५. एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं, संखेज्जपदेसिया असंखेज्जपदे सियाण, अनंत पदे सियाण य खंधाणं ९६. दव्याए, पदेसट्टयाए, कयरेहितो अप्पा वा ? विसेसाहियावा ? ९७. गोयमा ! सव्वत्थोवा अणतपदेसिया खंधा दव्वट्टयाए, परमाणुपोग्गला दव्बट्टयाए अनंतगुणा, श० २५, उ० ४, ढा० ४४० दoag - पदेसट्टयाए कयरे दम्बट्ट बहुया वा ? तुल्ला वा ? ७१ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. तेहथी संख्यात प्रदेशिया, द्रव्य थी संखगुणा सुविचार के । तेहथी असंख प्रदेशिया, द्रव्य थी असंखगुणा अवधार के। ९९. अनंत प्रदेशिया खंध ते, सर्व थी थोड़ा प्रदेशपणेह के । तेहथी परमाणु पोग्गला. अप्रदेशट्ठयाए अनंतगुणा लेह के ।। वा... इहा प्रदेश अर्थपणां ना अधिकार विष पिण जे अप्रदेशार्थपणे करी इम कह्यो ते परमाणु नै अप्रदेशपणां थकी जाणवू । १००. तेहथी संख्यात प्रदेशिया, संखगुणा प्रदेश थी सोय के । तेहथी असंख प्रदेशिया, असंखगुणाज प्रदेश थी होय के ।। १०१. अनंतप्रदेशिया खंध ते, सर्व थी थोड़ा द्रव्यार्थपणेह के । तेहिज अनंतप्रदेशिया, अनंतगुणाज प्रदेश थी जेह के ।। १०२. तेहथी परमाणुपोग्गला, द्रव्य अर्थ भावे करि जाण के । फुन अप्रदेश थकी तिके, अनंतगुणा ए श्री जिन वाण के ।। वा० ....परमाणु पुद्गल द्रव्यार्थ अप्रदेशार्थपणे अनंतगुणा परमाणुआ द्रव्य विवक्षाये द्रव्य रूप अर्थ अनं प्रदेश विवक्षाये अविद्यमान प्रदेश अर्थ-इम करीने द्रव्यार्थ अप्रदेशार्थ ते कहिये । ९८. संखेज्जपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपदेसिया खंधा दब्वट्ठयाए असखेज्जगुणा । ९९. पदेसट्टयाए-सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा पदेस? याए, परमाणुपोग्गला अपदेसट्टयाए अणंतगुणा, ___ वा.-इह प्रदेशार्थताऽधिकारेऽपि यदप्रदेशार्थ तयेत्युक्तं तत्परमाणूनामप्रदेशत्वात्, (वृ. प. ८८०) १००. संखेज्जपदेसिया खंधा पदेसट्टयाए संखेज्जगुणा, असखेज्जपर्देसिया खधा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा । १०१. दन्वट्ठ-पदेसट्टयाए --सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए, ते चेव पदेसट्ठयाए अणंतगुणा, १०२. परमाणुपोग्गला दव्वट्ठपदेसट्ठयाए अणंतगुणा, १०३. तेहथी संख्यात प्रदेशिया, द्रव्य थी संखगुणा कहिवाय के। तेहिज संख्यात प्रदेशिया, संखगुणा प्रदेश थी थाय के । १०४. तेहथी असंख प्रदेशिया, द्रव्य थी असंखगुणा अवलोय के । तेहिज असंख प्रदेशिया, असंखगुणा प्रदेश थी जोय के ।। एक प्रदेशावगाही यावत असंख्य प्रवेशावगाही पुद्गल का अल्पबहुत्व १०५. प्रभु ! एक प्रदेश ओगाहिया, संखप्रदेश अवगाह्या सोय के। असंख प्रदेश ओगाहिया, पुद्गल द्रव्य थकी अवलोय के ।। वा. -'परमाणुपोग्गला दव्वट्ठअपएसट्टयाए' त्ति परमाणवो द्रव्यविवक्षायां द्रव्यरूपाः अर्था. प्रदेशविवक्षायां चाविद्यमानप्रदेशार्था इतिकृत्वा द्रव्यार्थाप्रदेशार्थास्ते उच्यन्ते। (व. प. ८८०) १०३, संखेज्जपदेसिया खंधा दव्वट्टयाए सखेज्जगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए संखेज्जगुणा, १०४. असंखेज्जपदेसिया खंधा दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा। (श. २५।१६३) १०५. एएसि णं भंते ! एगपदेसोगाढाणं, सखेज्जपदेसो गाढाणं, असंखेज्जपदेसोगाढाण य पोग्गलाणं दब्बटू याए, १०६. प्रदेश अर्थपणे वली, द्रव्य अनं प्रदेश थी फेर के। कुण-कुण थी जावत कह्या, विसेसाहिया अधिका हेर कै ? १०७. जिन कहै थोड़ा सर्व थो, एक प्रदेश ओगाह्या जेह के । दव्वट्ठयाए पोग्गला तेहनों न्याय सुणो चित देह के ।। वा० ---सर्व थी थोड़ा एक प्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्यार्थपणे-इहा क्षेत्र नां अधिकार थकी क्षेत्रनांज प्रधानपणां थकी परमाण द्विप्रदेशिक खंधादिक अनंतप्रदेशिक खंध पिण विशिष्ट एक क्षेत्र प्रदेश अवगाढा आधार आधेय नां अभेद उपचार थकी एकपण करी कहिये। एक आकाश प्रदेश तो आधार अन तेहनें विषे परमाणआदिक अनंत प्रदेशिया खंध रह्या ते आधेय । ए बिहुँ ना अभेद उपचार थकी एकपण करी कहिये तिवारै सर्व थी थोड़ा एकपएसोगाढा पोग्गला दवट्ठयाए - एतले लोकाकाश-प्रदेश प्रमाणे ईज हुवै ते कहै छै–जे भणी एहवो आकाश-प्रदेश कोई नथी जे एक प्रदेश अवगाहवाने परिणामे परिणम्या परमाण्वादिक नै अवकाश देवानै परिणाम करी परिणम्यो नथी। ते माटै एक प्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्याश्रयी लोकाकाश प्रदेश प्रमाणे हीज कह्या । १०८. तेहथी आकाश तणां जिके, संखप्रदेश ओगाह्या तेह के । दव्वट्ठयाए पोग्गला, संखगुणा कहियै छै जेह कै॥ ७२ भगवती जोड़ १०६. पदेसट्ठयाए, दबटु-पदेसट्टयाए कयरे कयरेहितो जाव (सं. पा.) विसेसाहिया वा ? १०७. गोयमा ! सव्वत्थोवा एगपदेसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए, वा०-सव्वत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए' त्ति इह क्षेत्राधिकारात्क्षेत्रस्यैव प्राधान्यात्परमाणुद्वयणुकाद्यनन्ताणुकस्कन्धा अपि विशिष्ट कक्षेत्रप्रदेशावगाढा आधाराधेययोरभेदोपचारादेकत्वेन व्यपदिश्यन्ते ततश्च 'सव्वत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला दबट्ठयाए' त्ति, लोकाकाशप्रदेशपरिमाणा एवेत्यर्थः, तथाहि न स कश्चिदेवभूत आकाशप्रदेशोऽस्ति य एकप्रदेशावगाहपरिणामपरिणतानां परमाण्वादीनामवकाशदानपरिणामेन न परिणत इति, (वृ. प. ८८०) १०८. संखेज्जपदेसोगाढा पोग्गला दब्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, Jain Education Intemational Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-- इहां पिण क्षेत्रनांज प्रधानपणां थकी तथाविध खंध नै आधार जे खेत्र प्रदेश ते आकाश प्रदेश तेहनी अपेक्षयाईज भावना करवी नवरमसंमोहेन सुखप्रतिपत्त्यर्थमुदाहरणं दश्यते- जहा किल पंच ते सव्वलोगपएसा एते य पत्तेयचिताए पंचेव, संजोगओ पुण एतेसु चेव अणंगे संजोगा लभ्यंति इमा य एएसि ठवणा एतेषां च संपूर्णाऽसपुर्णाऽन्यग्रहणान्यमोक्षणद्वारेणाऽऽधेयवशादऽनेके संयोगभेदा भावनीयाः । वा०-अत्रापि क्षेत्रस्यैव प्राधान्यात्तथाविधस्कन्धाधारक्षेत्रप्रदेशापेक्षयव भावना कार्या, नवरमसमोहेन सुखप्रतिपत्त्यर्थमुदाहरणं दश्य ते....-'जहा किल पंच ते सव्वलोगपएसा, एते य पत्तेचिताए पचेव, सजोगओ पुण एतेसु चेव अणेगे संजोगा लभंति' इमा एएसिं ठवणा एतेषां च सम्पूर्णासम्पूर्णान्यग्रहणान्यमोक्षणद्वारेणाऽऽधेयवशादनेके संयोगभेदा भावनीया:, (वृ. प. ८८०,८८१) १०९. तेहथी आकाश तणां जिके, असंखप्रदेश ओगाह्या ताम के। दव्वट्ठयाए पोग्गला, असंख्यातगुण आख्या आम के ।। वा० -तेहथी असंख्यात प्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा । भाव नां इमहीज । अवगाह क्षेत्र नं असंखेज्ज प्रदेशात्मकपणां थकी असंख्यातगुणा इति । १०९. असंखेज्जपदेसोगाढा पोग्गला दब्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा। बा....'असंखेज्जपएसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुण' त्ति भावनैवमेव असङ्खये यप्रदेशात्मकत्वादवगाहक्षेत्रस्यासङ्खये यगुणा इत्ययमस्य भावार्थ इति । (वृ. प ८८१) ११०. पदेसट्ठयाए सव्वत्थोवा एगपदेसोगाढा पोग्गला अपदेसट्टयाए, १११. संखेज्जपदेसोगाढा पोग्गला पदेसट्ठयाए संखेज्जगुणा, ११२. असंखेज्जपदेसोगाढा पोग्गला पदेसट्टयाए असंखेज्ज गुणा। ११३. दब्वट्ठ-पदेसट्टयाए सव्वत्थोवा एगपदेसोगाढा पोग्गला दब्वट्ठ-अपदेसट्टयाए, ११४. सखेज्जपदेसोगाढा पोग्गला दब्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, ते चेव पदेसट्ठयाए सखेज्जगुणा । ११०. सर्व थकी थोड़ा अछ, एक आकाश प्रदेश नं विषे पेख के। ओगाह्या पुद्गल तिके, प्रदेश-अर्थपणे ए लेख के ।। १११. तेहथी संख्यात प्रदेश जे, ओगाह्या पुद्गल पहिछाण के । प्रदेश-अर्थपणे करी, संखगुणा वर न्याय विनाण के ।। ११२. तेहथी असंख प्रदेश जे, ओगाह्या पुद्गल अवधार कै । प्रदेश-अर्थपणे करी, असंख्यातगुणा न्याय विचार कै ।। ११३. सर्व थी थोड़ा पोग्गला, एक प्रदेश ओगाढ प्रमाण के। द्रव्य थी नै रु प्रदेश थी, क्षेत्र अल्प थी थोड़ा जाण के । ११४. तेहथी सखप्रदेश ओगाहिया, द्रव्य थी संखगुणा अवधार कै ।। तेहथी तेहिज प्रदेश थी, संखगुणा वर न्याय विचार के । ११५. तेहथी असंख प्रदेश ओगाहिया, द्रव्य थी असंखगुणा अधिकाय कै ।। तेहथी तेहिज प्रदेश थी, असंख्यातगुणा कहिये ताय के ।। एक समयस्थितिक यावत असंख्यसमयस्थितिक पुद्गल का अल्पबहुत्व ११६. एक समय स्थितिका प्रभु ! संख समय स्थितिका नैं जाण के। असंख समय स्थितिका जिके, पुद्गल नै अल्पबहुत्व पिछाण के ? ११७. जिम अवगाहन विषे का , कहिवं स्थिति विष पिण तेम के । अल्पबहुत्व पिछाणिय, हिवै भाव थकी सुणजो धर प्रेम के ।। ११५. असंखेज्जपदेसोगाढा पोग्गला दब्वट्ठयाए असखेज्जगुणा, ते चेव पदेसट्ठयाए असंखेज्जगुणा । (श. २॥१६४) ११६. एएसि णं भते ! एगसमयद्वितीयाणं संखेज्जसमय ट्टितीयाणं, असखेज्जसमयट्टितीयाण य पोग्गलाणं ? ११७. जहा ओगाहणाए तहा ठितीए विभाणियव्वं अप्पाबहुगं । (श. २५४१६५) श०२५, उ०४, ढा.४०७३ Jain Education Intemational Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वण, गन्ध, रस स्पर्श की अपेक्षा से पुद्गल का अल्पबहुत्व ११८. इक गुण काला हे प्रभु ! पुद्गल संखगुणा फुन काल के । असंख्यातगुण कृष्ण वलि, अनंतगुण फुन कृष्ण निहाल कै ।। ११९. द्रव्य थकी ने प्रदेश थी, द्रव्य प्रदेश उभय नी तेम के। कह्यो अल्पबहुत्व परमाणुओ, अल्पबहुत्व एहनों पिण एम कै ।। ११८. एएसि णं भंते ! एगगुणकालगाणं, संखेज्जगुण कालगाणं, असंखेज्जगुणकालगाणं, अणंतगुणकालगाण य पोग्गलाणं ११९. दव्वट्ठयाए, पदेसट्ठयाए, दवट्ठ-पदेसट्ठयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसहिया वा? एएसि जहा परमाणुपोग्गलाणं अप्पाबहुगं तहा एएसि पि अप्पाबहुगं । १२०. एवं सेसाण वि वण्ण-गंध-रसाणं । (श. २५।१६६) १२०. इम शेष वर्ण गंध रस तणों, अल्पबहुत्व तीन अवधार के । कृष्ण वर्ण नों आखियो, तिमहिज कहिवो सर्व विचार कै ।। १२१. इक गुण कर्कश ने प्रभु ! संखेजगुण कक्खड नै सोय के । असंख्यातगुण कक्खड नै, अनंतगुण कर्कश ने जोय कै ।। १२२. द्रव्य थकी ने प्रदेश थी, द्रव्य प्रदेश उभय थी देख के । कुण-कुण थी जावत कह्या, विसेसाहिया वा सुविशेष कै? १२१. एएसि णं भते ! एगगुणकक्खडाणं, संखेज्जगुण कक्खडाणं, असंखेज्जगुणकक्खडाणं, अणंतगुणकक्ख डाण य पोग्गलाणं १२२. दव्वट्ठयाए, पदेसट्टयाए, दव्वट्ठ-पदेसट्टयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? १२३. गोयमा ! सव्वथोवा एगगुणकक्खडा पोग्गला दव्वट्ठयाए, १२४. संखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला दवट्ठयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला दव्वट्ठया असंखेज्जगुणा, १२५. अणंतगुणकक्खडा पोग्गला दब्वट्ठयाए अणंतगुणा । १२६. पदेसट्टयाए एवं चेव, नवरं-- १२३. जिन कहै थाड़ा सर्व थी, दवट्ठयाए द्रव्यार्थपणेह के । इक गुण कक्खडा पोग्गला, वारू न्याय विचारी लेह के ।। १२४. तेहथी संखगुण कक्खडा, द्रव्य थी संखगुणाज समाज के । तेहथी असखगुण कक्खडा, दव्वट्टयाए असंखगुणाज के ।। १२५. तेहथी अनंतगुण कक्खडा, पुद्गल द्रव्य थकी पहिछाण के। तेह द्रव्यार्थपणे करी, अनंतगुणा आख्या जगभाण के ।। १२६. प्रदेश-अर्थपणे करी, एवं चेव कह्यो जगतार कै । णवरं इतरो विशेष छै, सांभलजो भवियण ! धर प्यार के ।। १२७. संख्यातगुण कक्खडा तिके, प्रदेश-अर्थपणे करि जेह के । असंख्यातगुणा जाणवा, शेष तिमज कहिवू सहु तेह के ।। १२८. सर्व थी थोड़ा पोग्गला, इक गुण कक्खडा जे कहिवाय के । द्रव्य थकी ने प्रदेश थी, वारू ए जिन वच वर न्याय के ।। १२९. तेहथी संखेज्जगुण कक्खडा, द्रव्य थकी संख्यातगुणाज के। तेहथी तेहिज प्रदेश थी, संखगुणा आख्या जिनराज के । १३०. तेहथी असंखगुण कक्खडा, असंख्यातगुणा द्रव्य थकीज के। तेहथी तेहिज प्रदेश थी, असंख्यातगुणा तास कहीज के ।। १३१. तेहथी अनंतगुण कक्खडा, दव्वट्ठयाए अनंतगुणा होय के। तेहथी तेहिज प्रदेश थी, अनंतगुणा कहिये अवलोय कै॥ १३२. एवं मृदु गुरु नै लघु, अल्पबहुत्व तीन नी ताय कै। शीत उष्ण निद्ध लुक्ष तणों, वर्ण नों आख्यु तिम कहिवाय के । १३३. पणवीसम तुर्य देश ए, च्यारसौ नै चालीसमी ढाल के। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' आनंद हरष विशाल कै॥ १२७. संखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला पदेसट्टयाए असंखेज्ज गुणा । सेसं तं चेव । १२८. दब्वट्ठ-पदेसट्ठयाए-सव्वत्थोवा एगगुणकक्खडा पोग्गला दव्वट्ठ-पदेसट्टयाए । १२९. संखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला दब्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए संखेज्जगुणा । १३०. असंखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला दब्वट्ठयाए असंखेज्ज गुणा, ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा । १३१. अणंतगुणकक्खडा पोग्गला दव्वट्ठयाए अणंतगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए अणंतगुणा । १३२. एवं मउय-गरुय-लहुयाण वि अप्पाबहुयं । सीयउसिण-निद्ध-लुक्खाणं तहा वण्णाणं तहेव । (श. २५।१६७) -७४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ४४१ बुहा १. कृतयुग्मादिक करि हिवं, पुद्गल प्रतेज पेख । परूपणा करतो छतो पूछे प्रश्न विशेख || पुद्गल की पृच्छा कृतयुग्म आदि के सन्दर्भ में २. इक वच परमाणु प्रभु! दव्बट्टयाए योग । जुम्म कै योज, द्वापुरजुम्म कलियोग ? ३. जिन भाखे कडजुम्म नहीं, फुन नहि योग । द्वापरयुग्म दुवै नहीं, हवे एक कलियोग || ४. एवं यावत जाणवु, अनंतप्रदेशिक बंध इक वचने ए आखियो, हिव बहु वचन प्रबंध ॥ जे द्रव्य अर्थपणेह हिव जिन उत्तर देह ।। | ५. बहु वच परमाणु प्रभु स्यूं कउजुम्मादिक हुई ? ६. ओघ सामान्य थकी कदा, कडजुम्मा ते होय । इम भजनाये जो ॥ यावत कलियोगा कदा वा० - अनंता परमाणु छे तो अन भेद ते जुदो थावा थी अनवस्थित जाव कदा कलियोगा हुवं । ७. विधान भेद करि वली, नहीं योज द्वापर नहीं, ८. एवं यावत जाणवुं, जाणवं बहुवचने ए आखिया, पिण ते परमाणुं नैं संघाते ते मिलवा थी, स्वरूप थी, ते मार्ट कदा कृतयुग्मा हुवै कदजुम्मा नहि कोय । इक कलियोगा होय ॥ अनंतप्रदेशिक बंध | द्रव्य थकीज प्रबंध || * गोयमजी पूछे प्रश्न प्रकार जिनेश्वर उत्तर अधिक उदार ।। ( ध्रुपदं ) रे प्रदेश अर्थपणेह । इत्यादिक पूछेह ॥ नहिं कहियै तेओग | एक कलियोग || ९. इक वच परमाणु प्रभु ! स्यूं कृतयुग्म हुवे तिको? १०. जिन कहै कडजुम्मे नहीं रे, द्वापरयुग्म नहीं तिको, हुर्व ११. दोय प्रदेशिक बंध नीं रे, इक वच प्रश्नज कोन । जिन कहै द्वापरयुग्म ई. शेष नहीं छे तीन ॥ १२. तीन प्रदेशिक बंध नीं रे पूछा इकवचनेह । जिन भाखे तेओग है, शेष तीन नहीं तेह ॥ १३. च्यार प्रदेशिक खंध नीं रे, पूछा इक वच पेख । जिन भाख कृतयुग्म ह्वै, नहीं ह्वं त्रिण पद शेख ॥ *लय : सुण बाई सुबढी कहै ए कोई इचरज बात १. पुद्गलानेव कृतयुग्मादिभिर्निरूपयन्नाह ( वृ. प. ८८१) २ परमापते । दट्टयाए कि जुम्मे ? तेयोए ? दावरजुम्मे ? कलियोगे ? ३. गोयमा ! नो कडजुम्मे, नो तेयोगे, नो दावरजुम्मे, कलियोगे । ४. एवं जाव अणतपदेसिए खंधे । (श. २५।१६८ ) ५. परमाणुपोग्गला णं भंते ! दव्वट्टयाए कि कडजुम्मापुच्छा । गोयमा ! ६. ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, इत्यादि, परमापुद्गला वा० - 'परमाणु' ओघादेशतः कृतयुग्मादयो भजनया भवन्ति अनन्तत्वेऽपि तेषां सङ्घातभेदतोऽनवस्थितस्वरूपत्वात्, विधानतस्त्वेकैकशः कल्योजा एवेति । (बु. प. २) ७, विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, कलियोगा | ८. एवं जाव अणतपदेसिया खंधा । (. २५ १६९) ९. परमाणुपोग्गले णं भंते ! पदेसट्टयाए कि कडजुम्मेपुच्छा । १०. गोयमा ! नो कडजुम्मे, नो तेयोगे, नो दावरजुम्मे, कलियोगे । (श. २५० १७० ) ११. दुपदेशिय पुच्छा। गोयमा ! नो कडजुम्मे, नो तेयोगे, दावरजुम्मे, नो कलियोगे । (म. ३५।१७१) १२. तिपदेसिए - पुच्छा गोयमा ! नो कडजुम्मे, तेयोगे, नो दावरजुम्मे, नो कलियोगे । (श. २५।१७२ ) १३. चउप्पदेसिए - पुच्छा । गोयमा | कडजुम्मे, नो योगे, नो दायरजुम्मे नो कलियोगे । श० २५, ०४, डा० ४४१ ७५ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. पंचपदेसिए जहा परमाणुपोग्गले। १५. 'पंचपएसिए जहा परमाणुपोग्गल' त्ति एकाग्रत्वात् कल्योज इत्यर्थः । (बृ. प.८८२) १६. छप्पदेसिए जहा दुप्पदेसिए । सत्तपदेसिए जहा तिपदेसिए। १७,१८. 'छप्पएसिए जहा दुप्पएसिए' त्ति द्वयग्रत्वाद्वापर युग्म इत्यर्थः, एवमन्यदपि। (वृ. प, ८२२) १४. पंच प्रदेशिक खंध नी रे, पूछा इक वच जोग । जिम परमाणू ने का, तिम है इक कलियोग ।। सोरठा १५. चिहुं अपहरवै जेह, बाकी एक रहै इहां । ते माटेज कहेह, कलियोगे इक पद हुवै ।। १६. *इक वचने छह प्रदेशियो रे, दोय प्रदेशिक जेम । ___ इक वच सप्त प्रदेशियो, तीन प्रदेशिक तेम ।। सोरठा १७. चिहुं अपहरवे सोय, षट प्रदेशिक नै विषे । ___ शेष रहै छै दोय, तिणसू द्वापरयुग्म ए॥ १८. चिहुं अपहरवै चीन, सप्त प्रदेशिक नै विषे । शेष रहै छै तीन, तिणसूं तेओगे कह्यो ।। १९. *इक वच अष्ट प्रदेशिको रे, च्यार प्रदेशिक जेम । इक वच नव प्रदेशियो, परमाणपुद्गल तेम ।। २०. इक वच दश प्रदेशियो रे, दोय प्रदेशिक जेम । द्वापरयुग्म हुवै तिको, त्रिण पद शेष न तेम ।। २१. इक वच संख प्रदेशियो रे, तेहनों प्रश्न प्रयोग । जिन भाख कडजुम्म कदा, जाव कदा कलियोग ।। सोरठा २२. संख प्रदेशिक खंध, विचित्र संखपणां थकी। __ भजना एहज प्रबंध, कदा कडजुम्मादिक हुवे ।। १९. अटुपदेसिए जहा चउप्पदेसिए । नवपदेसिए जहा परमाणुपोग्गले। २०. दसपदेसिए जहा दुप्पदेसिए। (श. २५।१७३) २१. संखेज्जपदेसिए णं भंते ! पोग्गले–पुच्छा । गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलियोगे। २३. *एवं असंख प्रदेशियो रे, अनंत प्रदेशिक एम । ए पिण विचित्रपणां थकी, भजनाए चिहुं तेम ।। २४. बहु वच परमाणु प्रभु ! रे, प्रदेश-अर्थपणेह । स्यू कडजुम्मा द्वे तिके ? इत्यादिक पूछेह ।। २५. जिन कहै ओघ सामान्य थी रे, कदा बहु कडजुम्म । यावत कलियोगा कदा, न्याय पूर्ववत गम्म ।। २६. विधान ते भेदे करी रे, कडजुम्मा नहिं होय । नहीं योज द्वापर नहीं, कलियोगा इक होय ।। २७. बहु वच दोय प्रदेशिका रे, तास प्रश्न अवलोय । जिन भाखै सुण गोयमा ! ओघ सामान्य थी जोय ।। २८. कडजुम्मा ह ते कदा रे, तेओगा नहिं होय । द्वापरयुग्मा व कदा, कलियोगा नहि सोय ।। सोरठा २९. दोय प्रदेशिक खंध, जेह अनंता लोक में। ते सह मेल प्रबंध, तास प्रदेशपणे करी ।। *लय : सुण बाई सुवटी कहै ए कोई इचरज बात २२. 'संखेज्जपएसिए ण' मित्यादि, संख्यातप्रदेशिकस्य विचित्रसंख्यत्वाद्भजनया चातुर्विध्यमिति । (वृ. प. ८८२) २३. एवं असंखेज्जपदेसिए वि, अणंतपदेसिए वि । (श. २५६१७४) २४. परमाणुपोग्गला णं भंते ! पदेसट्टयाए किं कडजुम्मा -पुच्छा । २५. गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, २६. विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, कलियोगा। (श. २५।१७५) २७. दुप्पदेसिया णं-पुच्छा। गोयमा ! ओघादेसेणं २८. सिय कडजुम्मा, नो तेयोगा, सिय दावरजुम्मा, नो कलियोगा, २९-३१. 'दुप्पएसिया ण' मित्यादि, द्विप्रदेशिका यदा समसंख्या भवन्ति तदा प्रदेशतः कृतयुग्माः, यदा तु विषमसंख्यास्तदा द्वापरयुग्माः, (व. प. ८८२,८८३) ७६ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. सम संख्या जद होय, कडजुम्माज ह तदा । सह प्रदेश ने जोय, चिहं अपहरवे शेष चिहं ।। ३१. विषम संख्या जद होय, द्वापरयुग्मा व तदा । सहु प्रदेश में सोय, चिहुं अपहरवं शेष बे।। वा० लोक नै विषे द्विप्रदेशिका खंध अनंता छ। ते सहु एकठा कीजै ते खंध सम संख्याते बेकी हुवे। तेहनां प्रदेश नै चिह-चिहं अपहरतां शेष च्यार प्रदेश रहै । तिण काले कडजुम्मा हुवै तिण कदाचि कडजुम्म कह्या। अनै सहु द्विप्रदेशिका खंध एकठा कीधां ते खंध विषम संख्या ते एकी हवै तेहना प्रदेश नं चिहुं-चिहुं अपहरतां शेष दोय प्रदेश रहै, तिण काले द्वापरजुम्मा हुवै। एतले शेष दोय खंध रहे तेहनां च्यार प्रदेश शेष रह्या माट कडजम्मा कह्या । अने शेष एक खंध रहै तेहनां दोय प्रदेश शेष रह्या माटै द्वापुरयुग्मा कह्या । ३२. *विधान ते भेदे करी रे, इक-इक गिणवे रे सोय । द्वापरयुग्माईज ह्व, त्रिण पद शेष न होय ।। वा०-जे द्विप्रदेशिक खंध एक-एक चितवता थकां दोय प्रदेशपणां थकी प्रदेश-अर्थपणे करी द्वापरयुग्मा हुवं शेष तीन नों निषेध करिवो । ३२. विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोगा, दावरजुम्मा नो कलियोगा। (श. २५२१७६) ___ वा.--'विहाणादेसेण' मित्यादि, ये द्विप्रदेशिकास्ते प्रदेशार्थतया एकैक शश्चिन्त्यमाना द्विप्रशत्वादेव द्वापरयुग्मा भवन्ति । (वृ. प. ८८३) ३३. तिषदेसिया णं-पुच्छा । गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, (व.प.५० ३४-३६. 'तिप्पएसिया ण' मित्यादि, समस्तत्रिप्रदेशिक मीलने तत्प्रदेशानां च चतुष्कापहारे चतुरग्रादित्वं भजनया स्यादनवस्थितसंख्यत्वात्तेषां, (वृ. प. ८८३) वा.-यथा चतुर्णां तेषां मीलने द्वादश प्रदेशास्ते च चतुरग्राः पञ्चानां व्योजाः षण्णां द्वापरयुग्मा: सप्तानां कल्योजा इति, (वृ. प. ८८३) ३३. त्रिण प्रदेशिया नी पृच्छा रे, जिन कहै ओघ प्रयोग। कदाचि कडजुम्मा हुदै, जाव कदा कलियोग । सोरठा ३४. तीन प्रदेशिक खंध, सर्व प्रतै करि एकठा । तास प्रदेश प्रबंध, चिहं ने अपहरवै करी ।। ३५. कदा च्यार रहै शेख, कदाचित त्रिण शेष रहै। कदा शेष बे देख, कदाचि शेष प्रदेश इक ।। ३६. भजना करि इम होय, अनवस्थित संख्या थकी। पिण च्यारूं पद जोय, समकाले नहि हकदा ।। वा.... जिम च्यार त्रिप्रदेशिका खंध एकठा कीध तेहना बार प्रदेश, ते चिहुं अपहरवं शेष च्यार रहै ए कडजुम्मा कहिये । अन पंच त्रिप्रदेशिका खंध एकठा कीधे तेहना पनर प्रदेश, ते चिहुं अपहरवं शेष तीन रहै ए तेओगा कहिये। अनं छह त्रिप्रदेशिका खंध एकठा कीधै तेहनां अठारह प्रदेश ते चिहं अपहरवै शेष रहै दो, ए द्वापरयुग्मा कहिये । अनै सप्त त्रिप्रदेशिका खंध एकठा कीधे तेहनां इक्कीस प्रदेश ते चिहुं चिहुं अपहरवं शेष एक रहे. ए कलियोग कहिये । ३७. *विधान ते भेदे करी रे, इक-इक गिणवै सोय । तेओगाज हुवै तिके, त्रिण पद शेष न होय ॥ वा-विधानादेश ते एक-एक गिणव करी तेओगाईज, त्रिप्रदेशिक खंधपणां थकी। ३८. चिहं प्रदेशिया खंध तणी रे, बहवच पूछा कीध जिन कहै ओघ सामान्य थी, विधान थी पिण लीध । ३९. कडजुम्माज हवै तिके रे, शेष तीन पद नांहि । अपहरवैज प्रदेश नं, शेष च्यार रहै ताहि ।। __*लय : सुण बाई सुवटी कहे ए कोई इचरज बात ३७ विहःणादेसेणं नो कडजुम्मा, तेयोगा, नो दावरजुम्मा, नो कलियोगा। (श. २५।१७७) वा.--विधानादेशेन च त्योजा एव त्यणुकत्वात्स्कन्धानामिति । (वृ. प. ८८३ ३८. चउप्पदेसिया णं-पुच्छा। गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि ३९. कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, नो कलियोगा। 'चउप्पएसिया ण' मित्यादि, चतुष्प्रदेशिकानामोघतो विधानतश्च प्रदेशाश्चतुरग्रा एव । (वृ. प. ८८३) श० २५, उ०४, ढा०४१ ७७ Jain Education Intemational sonal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. बहु वच पंच प्रवेशिका रे, प्रदेश आश्रयी पेख । जिम परमाणु-पोग्गला, कहियो तिमज अशेख || सोरठा ४१. ओष सामान्य थकीज, भजना करि चिहूं पद हुवे । इक-एक विधान थीज, कलियोगाज हुये तिके ॥ ४२. *वह वच पटप्रदेशिका रे, प्रदेश पी पहिचान । दाख्या जिम दुप्रदेशिया, तिणहिज रीते जाण ।। सोरठा ४३. ओघ सामान्य करेह, भजनाई चिहुं पद हुवै । इक इक भेद गिणेह, तो द्वापरयुग्माज ह्वं ॥ ४४. *बहु वच सप्त प्रदेशिया रे, प्रदेश अर्थपणेह त्रिण प्रदेशिका कह्या, तिमहिज कहिवा एह ॥ सोरठा ४५. ओघ सामान्ये सोय, चिहुं पद भजनाई हुवे । विधान इक इक जोय, तो तेओगा ईज ह्वं ॥ ४६. * बहु वच अष्ट प्रदेशिया रे, प्रदेश अर्थपणेह जिम जे च्यार प्रदेशिया, दाख्या तिमज कहेह || सोरठा ४७. ओप सामान्य थकीज, विधान थी पिण ते बली । कडजुम्माज कहीज, शेष प्रदेशज चिहुं रहे । ४८. * प्रदेश अर्थपणे करी रे, नव प्रदेशिक बंध | जिम परमाणुपोग्गला, कहिवुं तिमज प्रबंध ॥ सोरठा ४९. सामान्ये सुविचार, भजनाई चि पद हुवे । विधान थी अवधार, कलियोगाज हुवै तिके ॥ ५०. * बहु वच दश प्रदेशिया रे, प्रदेश अर्थपणेह | जिम प्रदेशिका कह्या, तिमहिज कहिवा एह || सोरठा ५१. ओप सामान्य जेह, बिहं पद भजनाएं हुवे । विधान इक इक लेह, तो द्वापरजुम्माज द्वे ॥ ५२. * संख प्रदेशिका नीं पृच्छा रे ? श्री जिन भाखे ओघ । कदाचि कडजुम्मा हुवै, जाव कदा कलियोग || ५३. विधान ते भेदे करी रे, कउजुम्मा पिग एह । जाव कल्योगा fपण हुवे प्रदेश अर्थपणेह || *लय : सुण बाई सुवटी कहे ए कोई इचरज बात ७८ भगवती मोड़ ४०. पंचपदेखिया जहा परमाणुपोग्गता । ४१. एसिया जहा परमाणुयोग्गल' ति सामान्यतः स्यात्कृत युग्मादयः प्रत्येकं चकाया एवेत्यर्थः । (पू.प. ३) ४२. छप्पदेसिया जहा दुप्पदेसिया । ४२. एसिया जहा दुप्पएवियति भीषतः स्यात् कृतयुग्मद्वापरयुग्माः, विधानतस्तु इत्यथः, ४४. सत्तपदेसिया जहा तिपदेसिया । ४६. अट्ठपदेसिया जहा चउपदेसिया । ४८. नवपदेसिया जहा परमाणुपोग्गला । ५०. दसदेखिया जहा दुपदेसिया द्वापरयुग्मा (पु.प. ८८३) ( . २५/१७८) ५२. संखेज्जपदेसिया णं पुच्छा । गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, ५३. विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कतियोगा वि । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. एवं असंखेज्जपदेसिया वि, अणंतपदेसिया वि । (श. २५।१७९) ५४. एवं असख प्रदेशिया रे, अनंत प्रदेशिया एम । बहु वचने ए आखिया, प्रदेश थी धर प्रेम ।। क्षेत्र की अपेक्षा से पुद्गल की पृच्छा कृतयुग्म आदि के संदर्भ में ५५. इक वच परमाणु प्रभु ! रे, स्यं कडजुम्म प्रदेश । अवगाही में ते रह्यो ? इत्यादिक पूछेस ।। ५६. जिन कहै धुर पद त्रिहुं नहीं रे, इक कलियोग प्रदेश । अवगाही ने जे रा, एकपणां थी एस ।। ५५. परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं कडजुम्मपदेसोगाढे पुच्छा । ५६. गोयमा ! नो कडजुम्मपदेसोगाढे, नो तेयोगपदेसोगाढे नो दावरजुम्मपदेसोगाढे, कलियोगपदेसोगाढे । (श. २५।१८०) ५७. दुपदेसिए णं-पुच्छा ।। गोयमा ! नो कडजुम्मपदेसोगाढे, नो तेयोगपदेसोगाढे, ५८. सिय दावरजुम्मपदेसोगाढे, सिय व लियोगपदेसोगाढे । (श. २५।१८१) ५९-६१ द्विप्रदेशिकस्तु द्वापरयुग्मप्रदेशावगाढो वा कल्योजः प्रदेशावगाढो वा स्यात् परिणामविशेषात्, एवमन्यदपि सूत्र नेयम् । (वृ. प. ८८३) ५७. इक वच द्विप्रदेशिक पृच्छा रे? जिन कहै कडजुम्म ताह । प्रदेश अवगाहै नहीं, त्र्योज नहीं अवगाह ।। ५८. द्वापरयुग्म प्रदेश नं रे, कदाचित अवगाह । कदा कल्योज प्रदेश पिण, अवगाहै छै ताह ।। सोरठा ५९. द्विप्रदेशिको खंध, बे नभ प्रदेश में रह्या । तब द्वापरजुम्म खंध, प्रदेश प्रति अवगाढ हुवै ।। ६०. द्विप्रदेशिक खंध, इक नभ प्रदेश में रह्या । ___ तब कलियोगज संध, प्रदेश प्रति अवगाढ है। ६१. ए परिणाम विशेख, तेह थकीज हुवै अछै । अन्यत्र पिण इम देख, न्याय विचारी लीजिये ।। ६२.*इक वच तीन प्रदेशिको रे, प्रश्न कियो फुन ताह । जिन भाखै कृतयुग्म नभ, प्रदेश नहिं अवगाह ।। ६३. कदा तेयोग प्रदेश में रे, कदा द्वापरजुम्म जेह । कदा कल्योज आकाश नां, प्रदेश अवगाहेह ।। सोरठा ६४. तीन प्रदेशिक खंध, त्रिण नभ प्रदेश में रह्या । तब तेओग प्रबंध, प्रदेश प्रति अवागाढ है।। ६५. तीन प्रदेशिक खंध, बे नभ प्रदेश में रह्या । तब द्वापुरजुम्म संध, प्रदेश प्रति अवगाढ है ।। ६६. तीन प्रदेशिक खंध, इक नभ प्रदेश में रह्या । तब कलियोगज संध, प्रदेश प्रति अवगाढ ह। ६७. *इक वच च्यार प्रदेशिको रे, स्यूं कडजुम्म प्रदेश । अवगाढक कै छै जिको? इत्यादिक पूछेस ।। ६८. जिन भाखै कडजुम्म कदा रे, प्रदेश ओगाढेह । जाव कदा कलियोग लग, प्रदेश अवगाहेह ।। ६२. तिपदेसिए णं-पुच्छा। गोयमा ! नो कडजुम्मपदेसोगाढे , ६३. सिय तेयोगपदेसोगाढे सिय दावरजुम्मपदेसोगाढे, सिय कलियोगपदेसोगाढे। (श. २५।१८२) ६७. चउप्पदेसिए णं-पुच्छा । ६८. गोयमा ! सिय कडजुम्मपदेसोगाढे जाव सिय कलियोगपदेसोगाढे । सोरठा ६९. च्यार प्रदेशिक खंध, चिहं नभ प्रदेश में रह्या। तब कडजुम्म प्रबंध, नभ प्रदेश अवगाढ़ है। *लय : सुण बाई सुवटी कहे ए कोई चरज बात श. २५, उ०४, ०१ ७९ Jain Education Intemational Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. एवं जाव अणंतपदेसिए। (श. २५।१८३) ७०. त्रिण बे इक नभ मांहि, चिहुं प्रदेशिको खंध रह्या। योज द्वापरजुम्म ताहि, कलि प्रदेश अवगाढ । ७१. *एवं जावत जाणवं रे, अनंत प्रदेशिक खंध । इक वचने ए आखियो, हिवै बहुवचन प्रबंध ।। ७२. बहु वच प्रभु ! परमाणुआ रे, स्यूं कडजुम्म प्रदेश । अवगाढक ह छै तिके ? इत्यादिक पूछेस ।। ७३. जिन कहै ओघ सामान्य थी रे, कडजम्म गगन प्रदेश । अवगाढक है छै तिके, नहीं है त्रिण पद शेष ।। ७२. परमाणपोग्गला गं भंते ! कि कडजुम्मपदेसोगाढा--- ७३. गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा, नो तेयोगपदेसोगाढा, नो दावरजुम्मपदेसोगाढा, नो कलियोगपदेसोगाढा, सोरठा ७४. ओघ थकी परमाणु, सकल लोक व्यापक थकी। सकल लोक नं जाण, प्रदेश असंखपणां थकी ।। ७५. अवस्थित थी फेर, नभ प्रदेश सहु लोक नां । चिहुं अपहरवै हेर, च्यार ईज रहै शेष तसु ।। ७६. *विधान ते भेदे करी रे, धुर त्रिण पद नहिं होय । इक कलियोग प्रदेश नं, अवगाढा कै सोय ।। ७४,७५. तत्रौषतः परमाणवः कृतयुग्मप्रदेशावगाढा एव भवन्ति सकललोकव्यापकत्वात्तेषां, सकललोकप्रदेशानां चासङ्ख्यातत्वादवस्थितत्वाच्च चतुरग्रतेति, (वृ. ८८३) ७६. विहाणादेसेणं नो कडजुम्मपदेसोगाढा, नो ते योगपदेसोगाढा, नो दावर जुम्मपदेसोगाढा. कलियोगपदेसोगाढा । (श. २५।१८४) बा...-विधानतस्तु कल्योजः प्रदेशावगाढा: सर्वेषामेकैकप्रदेशावगाढत्वादिति, (व. प. ८८ ) ७७. दुप्पदेसिया णं-पुच्छा। वा०-विधान ते भेद थकी एक-एक प्रदेश गिणवा थकी कलियोग प्रदेश अवगाढा हुवै सर्व नै एक-एक प्रदेश अवगाढपणां थकी। ७७. बह वचने दुप्रदेशिया रे, स्यं कडजुम्म प्रदेश। अवगाढा है छै तिके ? इत्यादिक पूछेस ।। ७८. जिन कहै ओघ सामान्य थी रे, नभ कडजुम्म प्रदेश। अवगाढाज ह तिके, शेष तीन न कहेस ।। वा०-द्विपदेशिक खंध द्विप्रदेश अवगाढा वलि सामान्य थकी च्यार ईज शेष रहै, पूर्वे कही ते युक्ति थकी। ७९. विधान ते भेदे करी रे, जे कडजुम्म प्रदेश । अवगाढा नहि है तिके, योज ओगाढ न लेश ।। ८०. द्वापरयुग्म प्रदेश ने रे, अवगाढा पिण होय । फून कलियोग प्रदेश में, अवगाढा पिण जोय ।। वा०-जे द्विप्रदेशिक खंध दोय आकाश प्रदेश में रह्या ते आकाशास्तिकाय नां द्वापरयुग्मा हुवै अनै द्विप्रदेशिक खंध एक आकाश प्रदेश में रह्या ते कल्योजा हुवै। ८१. बह वच तीन प्रदेशियो रे, स्यं कडजुम्म प्रदेश । अवगाढा है छै तिके ? इत्यादिक पूछस ।। ८२. जिन कहै ओघ सामान्य थी रे, कडजुम्म नभ अवगाह । नहीं व्योज द्वापर नहीं, कलि अवगाहै नांह ।। ८३. विधान भेद करी तिके रे, इक-इक गिणवै जेह । कडजम्म गगन प्रदेश ने, अवगाहै नहिं तेह ।। *लय : सुण बाई सुवटी कहै ए कोई इचरज बात ८. भगवती जोड़ ७८. गोयमा ! ओघादेसेणं कडजम्मपदेसोगाढा, नो तेयोगपदेसोगाढा, नो दावरजम्मपदेसोगाढा, नो कलियोगपदेसोगाढा, __वा० ---द्विप्रदेशावगाढास्तु सामान्यतश्चतुरग्रा एवोक्तयुक्तितः, (बृ. प. ८८३) ७९ विहाणादेसेण नो कडजुम्मपदेसोगाढा, नो तेयोग पदेसोगाढा, ८०, दावरजुम्मपदेसोगाढा वि, कलियोगपदेसोगाढा वि । (श. २५।१८५) वा० -विधानतस्तु द्विप्रदेशिकाः, ये द्विप्रदेशावगाढास्ते द्वापरयुग्माः ये त्वेकप्रदेशावगाढास्ते कल्योजाः। (वृ. प. ८८३) ८१. तिप्पदेसिया णं- पुच्छा। ५२. गोयमा ! ओघादेसेणं कडजम्मपदेसोगाढा, नो तेयोगपदेसोगाढा, नो दावरजुम्मपदेसोगाढा, नो कलियोगपदेसोगाढा, ८३. विहाणादेसेणं नो कडजुम्मपदेसोगाढा. Jain Education Intenational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४. योज प्रदेश अवगाढका रे, द्वापरजुम्म अवगाह । कुन कलियोग प्रदेश नं अवगाढा कहिवाह || 1 वा० -जे त्रिप्रदेशिक बंध तीन आकाश प्रदेश में रह्या ते तेयोग प्रदेश अवगाढ हु । अ दोय आकाश प्रदेश में रह्या ते द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ हुवे । अन एक आकाश प्रदेश में रह्या ते कलियोग प्रदेशावगाढ हुवे । ८५. चिहुं प्रदेशिया नीं पृच्छा रे, जिन कहै ओघ थी सोय । कउजुम्म नभ अवगाहका, त्रिण पद शेष न होय ॥ ८६. विधान भेद करी बलि रे, कडजुम्म नभ अवगाह । जाव कल्योज प्रदेश नैं अवगाढा कहिवाह || वा० -जे च्यार प्रदेशिक खंध च्यार आकाश प्रदेश में रह्या ते कडजुम्म प्रदेश अवगाढ हुवे । अनै तीन आकाश प्रदेश में रह्या ते तेयोग प्रदेश अवगाढ हुवै। अनैं दोय आकाश प्रदेश में रह्या ते द्वापरयुग्म प्रदेश अवगाढ हुवे । अन एक आकाश प्रदेश में रह्या ते कल्योज प्रदेश अवगाढ हुवै। ८७. इम यावत बहु वच करी रे, अनंत प्रदेशिया बंध | चिहुं प्रदेशिया नीं पर, कहिवो सर्व संबंध || काल की अपेक्षा से पुद्गल को पृच्छा कृतयुग्म आदि के संदर्भ में ८. प्रभु ! इक वच परमाणुओ रे, कडजुम्म समय नीं जाण । स्थितिवंत तिको? प्रश्न इत्यादि पिछाण || ८९. जिन कहै कडजुम्म समय नीं रे, कदा स्थितिवंत होय । जाव कदा कलि समय नां, स्थितिक ते अवलोय || ९०. एवं जावत जाणवो रे, अनंत प्रदेशिक बंध। इक वचने ए आखिया, हिव बहु वचन प्रबंध || ९१. बहु वच प्रभु ! परमाणुआ रे, कीधी पूछा तास ।। जिन भाखे सुण गोयमा ! ओघ सामान्य जास । ९२. कडजुम्म समय स्थितिका कदा रे, जाव कदा कलियोग । समय स्थितिका ते हुवे भजना बिजोग ।। ९३. विधान श्री कृतयुग्म जे रे, समय स्थितिकापि होय । जव कलि समय स्थितिका, सम काले चिहुं जोय ॥ ९४. एवं जावत बहु वचे रे, अनंत प्रदेशिया खंध । काल थकी ए आखिया, भाव थकी हिव संध || भाव की अपेक्षा से पुद्गल को पृच्छा कृतयुग्म आदि के सन्दर्भ में ९५. प्रभु ! इक वच स्यूं परमाणुओ रे, कृष्ण वर्ण पर्याय । स्यूं कदजुम्म तेजोग है? इत्यादिक पूछा ।। ९६. वक्तव्यता जिम स्थितिक ने रे, वर्ण विषे पिण एम । सह गंध विषे पिण इमज है, रस विषे पिण तेम ॥ ८४. पोपोगा वि दावरजुम्मपदेसोगाढा वि कलियोगपदेसोगाढा वि । घ. २५।१८६) ८५. चउप्पदेसिया णं-पुच्छा । गोवमा ! ओषादेवे कडजुम्मपदेसोगाढा, मो योगयोगाला नो दावम्मपदेसोमाढा, नो कलियोगपदेसोगाढा, ८६. विहाणादे जुम्मपदेोगादा वा कवियोगपदेसोगाढा वि । ८७. एवं जाव अनंतपदेसिया । ८८. परमाणुपोग्गले णं भंते! कि कडजुम्मसमयद्वितीए पुच्छा । ८९ गोवासिय कदजुम्मसमयद्वितीए जाव सिय कलियोगसमयद्वितीए । ९०. एवं जाव अणतपदेसिए । ९१. परमाणुपोग्गला णं भंते! कि कडजुम्म - पुच्छा । गोयमा ! ओघादे सेणं ९२. सिय कडजुम्मसमयद्वितीया जाव सिय कलियोगसमपट्टितीया, ९२. विणादे से (न. २२।१००) कलियोनसम्वद्वतीया ि ९४. एवं जाव अणतपदेसिया । (य. २५।१००) जुम्मसमयद्वितीया वि जाव (म. २२।१०९) ९५. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कालावण्णपज्जवेहि कि जुम्मे ? तेयोगे ? ९६. जहा ठितीय वत्तव्वया एवं वण्णेसु वि सव्वेसु । गंधेसु वि एवं चेव । रसेसु वि श० २५, उ० ४, ढा० ४४१ ८१ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७. जाव महुरो रसो त्ति। (श. २५॥१९०) । ९७. जाव मधुर रस पंचमो रे, तठा लगै कहिवाय । स्थितिक नैं जिम आखियो, इमहिज कहिवो ताय ।। ९८. अनंत प्रदेशिक खंध प्रभु ! रे, इक वचने करि एह । ___ कक्खड फर्श पजवे करी, स्यूं कडजुम्म पूछेह ? ९९. जिन भाखै कडजुम्म कदा रे, जाव कदा कलियोग। भजनाई चिहुं पद हुवै, देखो दे उपयोग ।। १००. अनंत प्रदेशिया खंध प्रभु ! रे, बहुवचने करि एह । कक्खड फाश पजवे करी, स्यं कडजुम्म पूछेह ? १०१. जिन कहै ओघ सामान्य थी रे, जाव कदा कडजुम्म । जाव कलियोगा कदा, चिहं भजनाई गम्म ।। १०२. विधान भेद करी वलि रे, कडजुम्मा पिण होय । जावत कलियोगा अपि, समकाले चिहुं जोय ।। १०३. एवं मृदु गुरु नै लघु रे, इक वच बहु वच तेम। अनंत प्रदेशिक खंध नै, भणवा कक्खडा जेम ।। वा० - इहां कर्कशादि स्पर्श अधिकारे अनंत प्रदेशिक खंध नों ईज ग्रहण ते बादर अनंत प्रदेशिक नै ईज कर्कशादि स्पर्श च्यार हुवै पिण परमाणु आदि में नथी। तिणसू अनंत प्रदेशिया नों ईज ग्रहण कीधो, इम वृत्तिकार का । ९८. अणंतपदेसिए णं भंते ! खंधे कक्खडफासपज्जवेहिं कि कडजुम्मे-पुच्छा। ९९. गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलियोगे । (श. २५॥१९१) १००. अणंतपदेसिया णं भंते ! खंधा कक्खडफासपज्जवेहि कि कडजुम्मा-पुच्छा। १०१. गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाब सिय कलियोगा, १०२. विहाणादेसेणं कड़जम्मा वि जाव कलियोगा वि । १०३. एवं मउय-गरुय-लहुया वि भाणियव्वा । १०४. शीत उष्ण निद्ध नै लुक्खा रे, जेम वर्ण आख्यात । कहिवा तिणहिज रीत सं, परमाणवादि जात ।। वा० ---इहां शीत उष्ण निद्ध लुक्ख नां पर्यव अधिकार नै विषे परमाणु आदि पिण कहिवा। वा० -इह कर्कशादिस्पर्शाधिकारे यदनन्तप्रदेशिकस्यैव स्कन्धस्य ग्रहणं तत्तस्यैव बादरस्य कर्कशादि स्पर्शचतुष्टयं भवति न तु परमाण्वादेरित्यभिप्रायेणेति, (व. प ८८३) १०४. सीय-उसिण-निद्ध-लुक्खा जहा वण्णा ।। (श. २५।१९२) वा० –'सीओसिणनिद्धलुक्खा जहा वन्न' त्ति एतत्पर्यवाधिकारे परमाण्वादयोऽपि वाच्या इति भावः । (वृ. प. ८८३) १०५. *पणवीसम तुर्य देश नी रे, चिहुं सौ मैं इकताल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल ।। ढाल : ४४२ १. पुद्गलाधिकारादिदमाह (व. प.८८३) २. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि सड्ढे ? अणड्ढे ? पुद्गल का सार्ध-अनर्ध पद दूहा १. पुद्गल नां अधिकार थी, पुद्गल प्रश्न अमंद । पूछ गोयम गणहरू, उत्तर दै जिनचंद ।। २. प्रभु ! परमाणुपोग्गला, स्यूं छै अर्द्ध सहीत ? अथवा अर्द्ध रहीत छ ? वारू प्रश्न वदीत ।। ३. जिन भाखै सुण गोयमा ! अर्द्ध सहित नहिं एह । अर्द्ध रहित परमाणुओ, अनर्द्ध तास कहेह ।। लय : सुण बाई सुवटी कहै ८२ भगवती जोड़ ३. गोयमा ! नो सड्ढे, अणड्ढे । (श. २५॥१९३) Jain Education Intemational Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. दुपदेसिए णं-पुच्छा । गोयमा ! सड्ढे, नो अणड्ढे । ५. तिपदेसिए जहा परमाणुपोग्गले। . ४. दोय प्रदेशिक नी पृच्छा, भाखै वीर वदीत । ए तो अर्द्ध सहीत छ, पिण नहिं अर्द्ध रहीत ।। वा०-द्विप्रदेशिक खंध नां इक-इक परमाणु हवं ते माट अर्द्ध सहित छ, पिण अर्द्ध रहित नहीं। ५. तीन प्रदेशिक नीं पृच्छा, परमाणु जिम ख्यात । नहि छै अर्द्ध सहीत ए, अर्द्ध रहित ए थात ।। वा०–तीन प्रदेशियो खंध दोढ-दोढ न हुवै ते माटै ए अर्द्ध सहित नहीं, अर्द्ध रहित एह छ। ६. च्यार प्रदेशिक खंध ते, दोय प्रदेशिक जेम। __पंच प्रदेशिक खंध ते, तीन प्रदेशिक तेम ।। ७. षट प्रदेशिको खंध ते, जिम द्विप्रदेश ख्यात । सप्त प्रदेशिक खंध ते, त्रिप्रदेश जिम थात ।। ८, अष्ट प्रदेशिक खंध ते, द्विप्रदेश जिम जान । नव प्रदेशिको खंध जे, त्रिप्रदेश जिम मान ।। ९. दश प्रदेशिको खंध फुन, द्विप्रदेश जिम जोय । न्याय कहूं ए सहु तणों, सांभलजो सह कोय ।। वा०-इहां ए च्यार प्रदेशिक खंध, षट प्रदेशिक, अष्ट प्रदेशिक, दश प्रदेशिक खंध सम संख्या छ। सम संख्या ते बेकी छै। तेहनां अर्द्ध बे भाग हुदै एतल बे भाग बरोबर तुल्य एक सरिखा हुवै । ते माटै ए अर्द्ध सहित छ, पिण अर्द्ध रहित नथी । अने पंच प्रदेशिक, सप्त प्रदेशिक, नव प्रदेशिक खंध ए अर्द्ध रहित छ, ए विषम संख्या छ । विषम संख्या ते एकी छ । तेहना अर्द्ध बे भाग न हुदै । एतले बे भाग बरोबर तुल्य एक सरिखा न हुवै। ते माटै ए अर्द्ध सहित नहीं, अर्द्ध रहित छै। १०. संख प्रदेशिक खंध प्रभु ! पूछयां उत्तर सार। कदाचि अर्द्ध सहित द्वै, अर्द्ध रहित किणवार । वा०-जे संख्यात प्रदेशिक खंध सम संख्या हुवै तिवारै अद्धं सहित अनं विषम संख्या हुवै तिवारे अर्द्ध रहित । ६. चनपदेसिए जहा दुपदेसिए। पंचपदेसिए जहा तिपदेसिए। ७. छप्पदेसिए जहा दुपदेसिए। सत्तपदेसिए जहा तिपदेसिए। ८. अट्टपदेसिए जहा दुपदेसिए । नवपदेसिए जहा तिपदे सिए । ९. दसपदेसिए जहा दुपदेसिए। (श. २०१९४) १०. संखेज्जपदेसिए णं भंते ! खंधे-पुच्छा । गोयमा ! सिय सड्ढे, सिय अणड्ढे । वा० --"सिय सड्ढे मिय अणड्ढे' त्ति यः समसङ्ख्यप्रदेशात्मकः स्कन्धः स सार्द्धः इतरस्त्वनर्द्ध इति । (व. प ८८३) ११. एवं असंखेज्जपदेसिए वि । एवं अणंतपदेसिए वि । __ (श. २५१९५) १२. परमाणुपोग्गला णं भंते ! कि सड्ढा ? अणड्ढा ? ११. असंख्यात प्रदेशिको, इणहिज विध कहिवाय । एवं अनंत प्रदेशिको, सहु इकवचने आय ।। १२. प्रभु ! परमाणुपोग्गला, ए बह वच संगीत । ए स्यूं अर्द्ध सहित छ ? के छै अर्द्ध रहीत ? १३. जिन कहै अर्द्ध सहित है, अथवा अर्द्ध रहीत । एवं जावत जाणवू, अनंतप्रदेशिक रीत ।। वा.- जिवार घणां परमाणुआ सम संख्या हुवै तिवार अर्द्ध सहित अनै जिवार विषम संख्या हुवै तिवारै अर्द्ध रहित । संघात ते पुद्गल नों मिलवो अनै भेद ते जुदो थायवो। तेहना अनवस्थित स्वरूपपणां थकी इम जावत बहु वचने अनंतप्रदेशिका खंध जाणवा।। पुद्गल ना अधिकार थकी वलि एहिज कहै छै १३. गोयमा ! सड्ढा वा, अणड्ढा वा । एवं जाव अणंतपदेसिया । (श. २५।१९६) वा०-यदा बहवोऽणवः समसङ्ख्या भवन्ति तदा सार्कीः यदा तु विषमसङ्ख्यास्तदाऽनर्धाः, सङ्घातभेदाभ्यामनवस्थितरूपत्वात्तेषामिति । पुद्गलाधिकारादेवेदमुच्यते-- (वृ. प. ८८३) श० २५, उ०४, ढा० ४४२ ८३ Jain Education Intemational Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि सेए ? निरेए ? गोयमा ! १५. सिय सेए, सिय निरेए । एव जाव अणंतपदेसिए । (श. २५।१९७) १६. परमाणुपोग्गला णं भंते ! कि सेया? निरेया? पुद्गल को सकम्पता-निष्कम्पता _ *भाव सुणो पुद्गल तणां ।। (ध्रुपदं) १४. परमाणु इक वच प्रभु ! चलित सहित स्यूं तेह । तथा निरेज अकंप छै ? हिव जिन उत्तर देह ।। १५. सैज सकंपक छै कदा, कदा अकंपक संध । एवं जावत इक वचे, अनंत प्रदेशिक खंध ।। १६. प्रभु! परमाणुपोग्गला, स्यं ते सेया होय? तथा निरेया अकंप छै ? बह वच प्रश्न ए जोय ।। १७. जिन कहै सेया सचलित अपि, अचलित पिण बह संध । एवं जावत बहु वचे, अनंत प्रदेशिया खंध ।। १८. इक वचने परमाणुओ, सेज सकंपक न्हाल । काल थकी भगवंत जी ! रहै केतलो काल ? १९. श्री जिन भाखै जघन्य थी, एक समय लग माग । उत्कृष्ट आवलिका तणों, असंख्यातमों भाग ।। २०. इक वचने परमाणुओ, निरेज अचलित न्हाल । काल थकी भगवंत जी! रहै केतलो काल ? २१. श्री जिन भाखै जघन्य थी, एक समय लग तेम। उत्कृष्ट काल असंख ही, जाव अनंत प्रदेशिक एम ।। २२. प्रभु ! परमाणुपोग्गला, सचलितपणे बहु न्हाल । कितो काल रहै काल थी?जिन भाखै सदा काल ।। १७. गोयमा ! सेया वि, निरेया वि। एवं जाव अणंतपदे सिया । (श. २५॥१९८) १८. परमाणुपोग्गले णं भंते ! सेए कालओ केवच्चिर होइ? १९. गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलि याए असंखेज्जइभागं । (श. २५॥१९९) २०. परमाणुपोग्गले णं भंते ! निरेए कालओ केबच्चिर होइ ? २१. गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं । एवं जाव अणंतपदेसिए। (श २५।२००) २२. परमाणुपोग्गला ण भंते ! सेया कालओ केवच्चिरं होति? गोयमा ! सव्वद्ध। (श. २०२०१) वा०-'सव्वद्धं' ति सर्वाद्धां-सर्वकालं परमाणवः सैजा: सन्ति, नहि कश्चित् स समयोऽस्ति कालत्रयेऽपि यत्र परमाणवः सर्व एव न चलन्तीत्यर्थः । (वृ. प. ८८६) २३. परमाणपोग्गला णं भंते ! निरेया कालओ केवच्चिर होंति? गोयमा ! सव्वद्धं । वा० एवं निरेजा अपि सर्वाद्धामिति । (व. प. ८८६) वा०-सदा काले घणां परमाणु आ सेज सकंप छै । तीनूं काले पिण एहवं कोई समय नथी जे समय नै विष परमाणुआ सर्वहीज न चले। एतल तीनूं काले जे समय पूछते समय नै विष घणां परमाणुआ चलितपणां सहित लाभ ईज । २३. प्रभु ! बहु वच परमाणुआ, निरेज अचलित न्हाल । कितो काल रहै काल थी?जिन भाखै सदा काल ।। २४ एवं जाव अणंतपदेसिया। (श. २५।२०२) वा० भावना पूर्ववत तीनं काले जे समय पुछ ते समय घणां परमाणुआ अचलित लाभ । तीनूं काल में जे समय पूछे ते समय परमाणुआ सकंप पिण घणां लाधै अनैं अकंप पिण घणां लाधै । ते भणी इम कह्यो घणां परमाणुआ सकंप पिण सदा काल अन अकंप पिण सदा काल । २४. एवं जावत जाणवा, अनंत प्रदेशिया खंध । बहुवचने करी आखिया, न्याय पूर्ववत संध ।। २५. परमाणु नै हे प्रभु ! सेज सकंप ने जेह । कितो काल अंतर हवै ? इक वच प्रश्नज एह ।। वा०-इक वचने परमाणु सकंपपण छ ते अकंप थई वली केतले काले कंप? इति प्रश्न । २५. परमाणपोग्गलस्स णं भंते ! सेयस्स केवतियं कालं अंतरं होइ? *लय : वेग पधारो महिल थी ८४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जिन भाखै स्व स्थान ने, अंतर आश्रयी इष्ट । जघन्य थकी इक समय छै, काल असंख उत्कृष्ट ।। वा०-स्व स्थान ते आपणे स्थाने परमाणु परमाणु नै भावईज तेहनै विषे वर्त्तता थका नै जे अंतर चलन नै व्यवधान निश्चलत्व भवन लक्षण ते स्व स्थान अंतर कहिय । ते आश्रयी नै जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यातो काल । एतल चलित परमाणु छै ते अचलित थई ते अचलितपणे एक समय रही वली चलित हवं, ते जघन्य एक समय अंतर निश्चलपणों जघन्य काल लक्षण जाणवू । अनैं चलित परमाणु छ ते अचलित थई ते अचलितपणे असंख्यातो काल रहीन फेर कंपै--ए उत्कृष्ट असंख्याता काल नों अंतर इहां निश्चलपणों उत्कृष्ट काल लक्षण। २६. गोयमा ! सट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं ।। ___ वा. -'सट्ठाणंतरं पडुच्च' त्ति स्वस्थानंपरमाणोः परमाणुभाव एव तत्र वर्तमानस्य यदन्तरं ....चलनस्य व्यवधान निश्चलत्वभवनलक्षणं तत्स्वस्थानान्तरं तत्प्रतीत्य 'जहन्नेणं एककं समयं' ति निश्चलताजघन्यकाललक्षणं 'उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं' ति निश्चलताया एवोत्कृष्टकाललक्षणं, तत्र जघन्यतोऽन्तरं परमाणुरेक समयं चलनादुपरम्य पुनश्चलतीत्येवं, उत्कर्षतश्च स एवासङ्ख्य यं कालं क्वचित्स्थिरो भूत्वा पुनश्चलतीत्येवं दृश्यमिति, (वृ. प. ८८६) २७. परट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं। (श. २५।२०३) वा.---'परट्ठाणंतरं पडुच्च' त्ति परमाणोर्यत्परस्थाने-द्वषणुकादावन्तर्भूतस्यान्तरं चलनव्यवधानं तत्परस्थानान्तरं तत्प्रतीत्येति 'जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं' ति, परमाणपुद्गलो हि भ्रमन् द्विप्रदेशादिकं स्कन्धमनुप्रविश्य जघन्यतस्तेन सहेकं समयं स्थित्वा पुनर्धाम्यति । (वृ. प. ८८६) २७. पर स्थानक नै आश्रयी, जघन्य समय इक जाण । उत्कृष्ट काल असंख ही, तास न्याय इम माण ।। वा०--परमाणु जे पर स्थाने बे प्रदेशिकादिक नै विषे अंतरभूत ने अंतर चलन नै व्यवधान ते पर स्थान अंतर । ते आश्रयी जघन्य एक समय, उत्कृष्टो असंख्यातो काल । ते परमाणु पुद्गल भमतो द्विप्रदेशिकादिक खंध माहै प्रवेश करीनै जघन्य थकी ते खंध संघाते एक समय अचलित रही नै बली चल--- परमाणु हुवे । ए जघन्य एक समय खंध नै विषे एक समय अकंपपर्ण रह्यो ते जघन्य काल । अनै वलि उत्कृष्ट असंख्यातो काल ते जे परमाणु द्वि प्रदेशिकादिक खंध माहै पंसी नै ते संघाते असंख्यातो काल अचलित रही नै वली भ्रमण कर ...... परमाणु हुवे। ए खंध नै विषे निश्चलपण असंख्यातो काल रह्यो ते उत्कृष्ट अंतर। २८. जे परमाण निरेज नै, अंतर केतलो काल? अचलित नै कितो अंतरो? दाखै ताम दयाल ।। . २९. स्व स्थान अंतर आश्रयी, जघन्य समय इक माग । उत्कृष्ट आवलिका तणों, असंख्यातमों भाग ।। वा. निरेज परमाणु स्व स्थान अंतर आश्रयी जघन्य एक समय ते परमाणु परमाणुभाव नै विषे ईज वर्त्ततो पिण द्विप्रदेशियादिक नै विषे मिल्यो नथी। ए परमाणु निश्चल छतो चलित थई एक समय चलितपणे रही वलि निश्चल हुदै, स्थिर हुवै ए जघन्य थकी एक समय अनै उत्कृष्ट आवलिका नों असंख्यातमों भाग। ते निश्चल छतो परमाणु चलित हुवै ते आवलिका नों असंख्यातमों भाग ताई चलितपणे रही वलि निश्चल हुवे, ए उत्कृष्ट काल । ३०. पर स्थानांतर आश्रयी, जघन्य समय इक जोय । उत्कृष्ट काल असंख ही, न्याय पूर्ववत होय ।। वा० - पर स्थानांतर आश्रयी जघन्य एक समय ते निश्चल छतो ते स्थानक थकी चलित द्विप्रदेशादिक स्कंध नै विषे एक समय रही वली निश्चल ईज रहै परमाणुपणे । उत्कृष्ट असंख्याता काल नों अंतर ते निश्चल छतो परमाणु ते स्थानक थकी द्विप्रदेशादिक खंध नैं विष असंख्यातो काल रही जुदो थई परमाणुपण वली निश्चल रहै, इम असंख्यातो काल जाणवो। २८. निरेयस्स केवतियं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! २९. सट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णणं एक्कं समय, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं । वा.-'निरेयस्से' त्यादि, निश्चल: सन् जघन्यत: समयमेकं परिभ्रम्य पुननिश्चल स्तिष्ठति, उत्कर्षतस्तु निश्चल: सन्नावलिकाया असंख्येयं भाग चलनोत्कृष्टकालरूपं परिभ्रम्य पुननिश्चल एव भवतीति स्वस्थानान्तरमुक्त, . (वृ. प. ८८६,८८७) ३०. परट्ठाणतरं पडुच्च जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज काल। (श. २५/२०४) वा. --परस्थानान्तरं तु निश्चल सन् ततः स्वस्थानाच्चलितो जघन्यतो द्विप्रदेशादौ स्कन्धे एक समयं स्थित्वा पुननिश्चल एव तिष्ठति, उत्कर्षतस्त्वसङ्खयं यं कालं तेन सह स्थित्वा पृथग् भूत्वा पुनस्तिष्ठति । (वृ. प. ८८७) श० २५, उ० ४, ढा० ४४२ ८५ Jain Education Intemational Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. दोय प्रदेशिक बंध प्रभु ! सेज सकंप मों जाण । प्रश्न गोयम पूघर्ष छते उत्तर दे जगभाण ॥ ३२. स्व स्थानांतर आथवी, जघन्य समय इक पेख । उत्कृष्ट काल असंख ही न्याय पूर्ववत लेख | ३३. पर स्थानांतर आश्रयी, जघन्य समय इक थाय । उत्कृष्ट काल अनंत ही, सांभलजो तसु न्याय || बा० - जे द्विप्रदेशिक बंध चलित छतो जुदो थयो तिवारै पर्छ ते अनंता पुद्गल संघाते काल भेद करिकै संबंध करतो छतो अनंतकाल करिकै वली तेहिज परमाणुआ साथै मिल्यो संबंध करी वलि चलें । द्विप्रदेशिक बंध चलित नों अंतर जघन्य एक समय चलित छतो त्रिप्रदेशादिक खंध नै विषे अचलितपणे एक समय रही वलि तेहिज द्विप्रदेशियो बंध चलितपर्णं हुवै अनैं उत्कृष्ट अनंत काल । ३४. दोय प्रदेशिक बंध ते, अचल निरेज नुं आम । किता काल नो अंतरो ? उत्तर देवं स्वाम || ३५. स्व स्थानांतर आश्रयी, जघन्य समय इक माग । उत्कृष्ट आवलिका तणों, असंख्यातमों भाग ॥ ३६. पर स्थानांतर आश्रयी, समयो एक जघन्य उत्कृष्ट काल अनंत ही, न्याय पूर्ववत जन्य ॥ ३७. एवं जावत जाणवु, अनंत प्रदेशिक बंध | इक वचने ए आखिया, हिव बहु वचन प्रबंध ।। ३८. प्रभु ! परमाणुपोम्गला पणां सकंप नों ताहि । कितो काल अंतर हुवे ? जिन कहै अंतर नांहि ॥ वा० – सर्व काले चलित घणां लार्धं ते मार्ट सकंप नों अंतर नथी । ३९. फुन परमाणुपोम्गला, घणां अकंप नो ताहि कितो काल अंतर हुवै ? जिन कहै अंतर नांहि ॥ वा० - सर्व काले निश्चल घणां लाधं ते मार्ट निरेज नों अंतर नथी । ४०. एवं जावत जाणवा, अनंत प्रदेशिया बंध | ए बहुवचने आखिया, न्याय पूर्ववत संघ ॥ सकस्य निष्कम्प पद्गलों का अल्पबहुत्य ४१. प्रभु ! परमाणु ए पोग्गला, चलित अचल नैं ताय । कुणकुण जावत वली, विसेसाहिया कहाय ? ४२. जिन कहै थोड़ा सर्व थी, चलित परमाणुआ तेम | अचलित असंखगुणा हुवे, जाव असंख प्रदेशिका एम ॥ वा० - सेजा थकी निरेजा असंख्यातगुणा ते चलित क्रिया थकी स्थिति क्रिया नां उत्सर्गपणा थकी । उत्सर्ग ते कायिकपणां श्री बहुलपणां थी घणपणों छ । ४३. ए प्रभु ! अनंत प्रदेशिया, चलिता अचलिता आम । 'कुण-कुण थी जावत कह्या, विसेसाहिया ताम ? ८६ भगवती जोड़ २१. दुभते बंधस्स सेपस्वपुच्छा गोयमा ! ३२. सात असंखेज्जं कालं । जणं एक्कं समयं उक्को २२. परद्वार पहुच नये एवढं समयं उक्कोसे अणतं कालं । (श. २५/२५० ) वा. -- 'उक्कोसेणं अनंतं कालं ति, कथम् ? द्विप्रदेशिक संचलितस्ततोऽनन्तः सह कालभेदेन सम्बन्धं कुर्वन्नन्तेन कालेन पुनस्तेनैव परमाणुना सह सम्बन्धं प्रतिपद्य पुनश्चलतीत्येवमिति । (बृ. प. ८८७) ३४. निरेयस्स केवतियं कालं अंतर होइ ? गोयमा ! ३५. सामंतर पहुच हमे एव समर्प उनकोसे आवलियाए असंखेज्जइभागं । ३६. परातरं पचणं एकं समयं उक्कोसे अनंतं कालं । ३७. एवं जाव अणतपदेसियस्स । (श. २५०२०६ ) ३८. परमाणुपोग्गलाणं भंते! सेयाणं केवतियं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! नत्थि अंतरं । (श. २५/२०७ ) ३९. निरेयाणं केवतियं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! नत्थि अंतरं । ४०. एवं जाव अणतपदेसियाणं खंधाणं । (श. २५/२००) ४१. एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं सेयाणं निरेयाण करे करेजा (संपा.) विसेसाहिया वा ? ४२. गोमा ! सम्वत्थोवा परमाणुयोग्यता सेवा, निरेया असंखेज्जगुणा । एवं जाव असंखेज्जपदेसियाणं खंधाणं । (श. २५२०९) वा० – निरेया गुण' ति स्थितिकियाया औत्सर्गिकत्वाद्बहुत्वमिति, (बृ. प. २७) ४३. एएसि णं भंते ! अनंतपदेसियाणं खंधाणं सेयाणं निरेयान व करे करेहितो जाय (संपा.) विसेसाहियावा ? Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. जिन कहै थोड़ा सर्व थी, बंध अनंत प्रदेशिया ताह । निरेजा अचलित का, तेहथी सेजा अनंत गुणाह || वासर्व भी थोड़ा अनंत प्रदेशिया बंध निरेजा, तेवी सेना अनंतगुणा ते वस्तु नां स्वभाव थकी । हि द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ उभयार्थ निरूपण करतो क ४५. प्रभु ! ! परमाणुपोग्ला, संख प्रदेशिया बंध | असं प्रदेशिया खंध वलि, अनंत प्रदेशिया संध || ४६. तेहिज चलिता सकंप ने अचलिता नें जेह । दव्वट्टयाए ने वलि, प्रदेश अर्थपणेह ॥ ४७. द्रव्य अनं प्रदेश ते उभय अर्थपणे लेख । कुणकुण थी जावत का विसेसाहिया देख ? ४८. जिन कहै थोड़ा सर्व थी, अनंत प्रदेशिया खंध | 7 अचल अकंप अछे तिके, द्रव्य अर्थ करि संध ॥ ४९. तेही अनंत प्रदेशिका, चलित सकंप छै तेह | दव्या ते द्रव्य थी, अनंतगुणाज कहेह || ५०. तेही परमाणुपोगला चलित संकप ताय । orgery ते द्रव्य थी, अनंतगुणा कहिवाय ।। ५१. तेहथी संख प्रदेशिया, चलित सकंपज जाण । दव्वट्टयाए द्रव्य थी, असंख्यातगुणा माण | ५२. तेहथी असंख प्रदेशिया, चलित सकंपज खंध । दबट्टयाए द्रव्य थी, असंख्यातगुणा संघ ।। ५३. तेही परमाणुपोग्ला, अचल अकंपज सोय । दव्वट्टयाए द्रव्य थी, असंख्यातगुणा होय || ५४. तेहथी संख प्रदेशिका, खंधा अचल निरेज । दoagयाए द्रव्य थी, संखगुणाज कहेज || ५५. तेहथी असंख प्रदेशिया, खंधा अचल निरेय । दब्बटुवाए द्रव्य थी, असंख्यातगुणा ज्ञेय ॥ वा०--- हिव प्रदेश थकी सेजपणां निरेजपणां करिकै अष्ट पद नुं अल्पबहुत्व ५६. प्रदेश - अर्थपणे करी एवं चेव सुजोय । णवर परमाणुपोम्ता, अपदेसट्टयाए होय ।। ५७. तेही संख्यात प्रदेशिया, बंधा अचल निरेज । प्रदेशट्टयाए असंखगुण, शेष तिमज कहेज ॥ वा० प्रदेश- अर्थपणां नां स्थानक नैं विषे अप्रदेश- अर्थपण करि परमाणु इम कहिवुं परमाणु अप्रदेशपणां थकी तथा द्रव्य अर्थपणां ने सूत्र ने विषे संख्यात प्रदेशिका अचलिता निरेजा है तिके अचल परमाणु थकी संख्यातगुणा का अनं प्रदेश अर्थपणा नां सूत्र नैं विषे ते निरेज परमाणु थकी निरेज संख्यात प्रदेशिका असंख्यातगुणा कह्या । तेहनों न्याय - जे भणी निरेज परमाणु थकी द्रव्यार्थपण करि निरेज संख्यात प्रदेशिका संख्यातगुण हुवै । वली तेहन ४४. गोयमा ! सव्वत्थोवा अणतपदेसिया खंधा निरेया, सेया अवगुणा ( . २५०२१०) वा. - अनन्तप्रदेशिकेषु सैजा अनन्तगुणाः वस्तुस्वभावात् एतदेव द्रव्यार्थ प्रदेशार्थोभयार्थी निरूप(बु. प. ८००) यन्नाह— ४५. एएसि णं भंते ! परमाणुयोग्यता, संसेजपदेसियाणं, असंखेज्जपदेसियाणं अणतपदेसियाण य खंधाणं ४६. सेयाणं निरेयाण य दव्वट्टयाए, पदेसट्टयाए, ४७. दव्वपदेसट्टयाए कयरे कयरेहितो जाव (सं. पा.) विसेसाहिया वा ? ४८. गोयमा ! १. सव्वत्थोवा अणतपदेसिया खंधा निरेया दव्वट्टयाए ४९. २. अनंतपदेसिया खंधा सेया दव्वट्टयाए अनंतगुणा ५०. ३ परमाणुपोग्ला सेवा दम्बट्टयाए अनंतगुणा ५१. ४. संखेज्जपदेसिया खंधा सेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा ५२. ५. असंखेज्जपदेसिया खंधा सेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा ५३. ६. परमाणुपोग्गला निरेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा ५४. ७. संखेज्जपदेसिया खंधा निरेया दव्वट्टयाए संखेज्जगुणा ५५. ८. असंखेज्जपदेसिया खंधा निरेया दव्वट्टयाए अवेज्जगुणा । वा. - तत्र द्रव्यार्थतायां संजत्वनिरेजत्वाभ्यामष्टी पदानि, (बृ. प. ८७) नवरं परमापोग्ला ५६ पदेसदुपाए एवं मेव अपदेसट्टयाए भाणियव्वा । ५७. संखेज्जपदेसिया खंधा निरेया पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा । सेसं तं चेव । वा. परमाणुपदे प्रदेशार्थतायाः स्थानेऽप्रदेशार्थतयेति वाच्यं अप्रदेणात्मानमा द्रव्यार्थतासूत्रे सङ्ख्यातप्रदेशिका निरेजा निरेजपरमाणुभ्यः पातगुणा उक्ताः प्रदेशार्थता तु ते तेभ्योऽसङ्खये यगुणा वाच्या:, यतो निरेजपरमाणुभ्यो द्रव्यार्थतया निरेजसङ्ख्यातप्रदेशिका: संख्यातगुणा श० २५, ०४, ढा ४४२ ८७ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य घणां उत्कृष्ट संख्यातक प्रमाण प्रदेशपणां थकी निरेज परमाणु थकी ते प्रदेश थी असख्यातगुणा हुवै । उत्कृष्ट संख्यातक नै ऊपरि एक प्रदेश प्रक्षेपे छते पिण असंख्यातक नां भाव थकी। भवन्ति, तेषु च मध्ये बहूनामुत्कृष्टसंख्यातकप्रमाणप्रदेशत्वान्निरेजपरमाणुभ्यस्ते प्रदेशतोऽसंख्येयगुणा भवन्ति, उत्कृष्ट सङ्खचातकस्योपर्येकप्रदेशप्रक्षेपेऽप्यसङ्खचातकस्य भावादिति । अथ परमाण्वादीनेव सैजत्वा दिना निरूपयन्नाह (वृ. प. ८८७) ५८. १. सब्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा निरेया दव्वट्ठयाए ५९. २. ते चेव पदेसट्टयाए अणंतगुणा ६०. ३. अणंतपदेसिया खंधा सेया दव्वट्ठयाए अणंतगुणा ६१. ४. ते चेव पदेसट्टयाए अणंतगुणा ६२. ५. परमाणुपोग्गला सेया दव्वट्ठ-अपदेसट्ठयाए अणंतगुणा ६३. ६. संखेज्जपदेसिया खंधा सेया दब्वट्ठयाए ___ असंखेज्जगुणा ६४. ७. ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा हिवै द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थपण करि चवदै बोल कहै छ - परमाणु नै विषे सेज पक्ष नै विषे निरेज पक्ष नै विषे द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ ते एक करिव करी चवदै बोल हुवे । ५८. सर्व थकी थोड़ा कह्या, अनंत प्रदेशिया खंध । अचल अकंप निरेज ते, दवट्ठयाए संध ।। ५९. तेहिज अनंत प्रदेशिया, प्रदेश-अर्थपणेह । अनंतागुणा ए आखिया, वारू न्याय सुलेह ।। ६०. तेहथी अनंत प्रदेशिका, खंधा चलिता सेज । दब्वट्ठयाए द्रव्य थी, अनंतगुणाज कहेज ।। ६१. तेहिज अनंत प्रदेशिया, प्रदेश-अर्थपणेह। अनंतगुणा ए आखिया, पूर्व बोल थी एह ।। ६२. तेहथी परमाणुपोग्गला, चलित सकंपज सेज । द्रव्य थकी अप्रदेश थी, अनंतगुणाज कहेज ।। ६३. तेहथी संख प्रदेशिया, खंध सकंप छै जेह । दवट्ठयाए द्रव्य थी, असंख्यातगुणा तेह ।। ६४. तेहिज संख प्रदेशिया, प्रदेश-अर्थपणेह । असंख्यातगुणा आखिया, सेज सकंप छै एह ।। ६५. तेहथी असंख प्रदेशिया, सेज सकंपज खंध । दव्वट्ठयाए द्रव्य थी, असंख्यातगुणां संध ।। ६६. तेहिज असंख प्रदेशिया, प्रदेश-अर्थपणेह । असंख्यातगुणां आखिया, सेज सकंप छै एह ।। ६७. तेहथी परमाणुपोग्गला, अचल अकंप निरेय । द्रव्य थकी अप्रदेश थी, असंख्यातगुणा ज्ञेय ।। ६८. तेहथी संख प्रदेशिया, खंधा अचलित तोल । दव्वट्टयाए संखगुणा, एकादशमों बोल ।। ६९. तेहिज संख प्रदेशिया, प्रदेश-अर्थपणेह । असंख्यातगुणा आखिया, अचलित कहियै एह ।। ७०. तेहथी असंख प्रदेशिया, खंधा अचलित जोय । दव्वट्ठयाए असंखगुणा, बोल तेरमों होय ॥ ७१. तेहिज असंख प्रदेशिया, प्रदेश-अर्थपणेह । असंख्यातगुणा आखिया, एह अकंप कहेह ।। देश कम्पता, सर्वकम्पता, निष्कम्पता वा० अथ परमाण आदि प्रतै ईज सेजपणादिक करिक निरूपण करतो प्रथम एकवचन करी कहै छ -- ७२. परमाणुपुद्गल प्रभु ! स्यूं देशे कंपाय? के कंप छै सर्व ही, कै निरेज कंपै नांय ? ७३. जिन कहै देश कंपै नहीं, कदा सर्व कंपाय । कदा निरेज कंप नहीं, प्रवर विचारो न्याय ।। ६५. ८. असंखेज्जपदेसिया खंधा सेया दब्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा ६६. ९. ते चेव पदेसटुयाए असंखेज्जगुणा ६७. १०. परमाणुपोग्गला निरेया दव्वट्ठ-अपदेसट्ठयाए ___ असंखेज्जगुणा ६८.११. संखेज्जपदेसिया खंधा निरेया दवट्ठयाए ___ असंखेज्जगुणा ६९. १२. ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा ७०. १३. असंखेज्जपदेसिया खंधा निरेया दम्वद्याए __ असंखेज्जगुणा ७१ १४. ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा । (श. २५।२११) ७२. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि देसेए ? सब्वेए ? निरेए? ७३. गोयमा ! नो देसेए, सिय सव्वेए, सिय निरेए। (श. २५।२१२) ८८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. दुपदेसिए णं भंते ! खंधे-पुच्छा। गोयमा ! सिय देसेए, सिय सव्वेए, सिय निरेए । ७५. एव जाव अणंतपदेसिए। (श. २५।२१३) ७६. परमाणुपोग्गला णं भंते ! कि देसेया ? सव्वेया ? निरेया ? ७७. गोयमा ! नो देसेया, सव्वेया वि, निरेया वि। (श. २५।२१४) ७४. द्विप्रदेशिक खंध पृच्छा, कदा देश कंपेह । सर्वे पिण कप तदा, कदा न कंपै तेह ।। ७५. एवं जावत जाणवू, अनंत प्रदेशिक खंध । इकवचने ए आखियो, हिवै बहुवचन प्रबंध ।। ७६. प्रभु ! परमाणुपोग्गला, स्यं बहुवच देस कंपाय । के बहु वच सर्व कप अछ, के बहवच कंपै नांय? ७७. जिन कहै देश कंप नहीं, बह वच सर्व कंपाय । वलि अचल पिण छै घणां, समकाले बिहुं थाय ।। वा०-इहां घणां परमाणुआ सर्व थकी कप छै तिके पिण घणां, अनै निरेजा नहीं कंप तिके पिण घणा छ। ७८. दोय प्रदेशिया नीं पृच्छा, देसे पिण कंपाय । सर्वे पिण कंपै घणां, अचल बहु पिण थाय ।। ७९. एवं जावत जाणवा, अनंत प्रदेशिया खंध । बहुवचने ए आखिया, सखरी रीत संबंध ।। पुद्गल की सकम्पता निष्कम्पता काल की अपेक्षा से ८०. इक वच परमाणु तिको, सर्वे कंपतो सोय । काल थकी भगवंत जी ! काल केतलो होय ? ८१. श्री जिन भाखै जघन्य थी, एक समय लग माग । उत्कृष्ट आवलिका तणों, असंख्यातमों भाग ।। ५२. अचलित काल कतो रहै ? जिन भाखै वच श्रिष्ठ । जघन्य एक समयो रहै, असंख काल उत्कृष्ट ।। ७८. दुपदेसिया णं भंते ! खंधा-पुच्छा। गोयमा ! देसेया वि, सब्वेया वि, निरेया वि। ७९. एवं जाव अणंतपदेसिया। (श. २५।२१५) ८०. परमाणुपोग्गले णं भंते ! सव्वेए कालओ केवच्चिरं होइ? ८१. गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्ज इभागं । (श. २५।२१६) ८२. निरेए कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा ! जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं। (श. २५।२१७) ८३. दुपदेसिए णं भंते ! खंधे देसेए कालओ केवच्चिर ८४. गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं । (श. २५।२१८) ८५. सव्वेए कालओ केवच्चिर होइ? ८३. इक वच दोय प्रदेशियो, देस कंपतो तेह । काल थकी भगवंतजी ! कितो काल रहै जेह ? ८४. श्री जिन भाखै जघन्य थी, एक समय लग माग । उत्कृष्ट आवलिका तणों, असंख्यातमों भाग ।। ८५. इक वच दोय प्रदेशियो, सर्व कंपतो सोय । काल थकी भगवंत जी ! कितो काल रहै जोय ? ८६. श्री जिन भाखै जघन्य थी, एक समय लग माग । उत्कृष्ट आवलिका तणों, असंख्यातमों भाग ।। ८७. इक वच दोय प्रदेशियो. अचल अकंप निरेय । काल थकी भगवंत जी ! कितो काल रहेय ? ८८. श्री जिन भाखै जघन्य थी, एक समय अवधार । उत्कृष्ट काल असंख ही, निरेज काल विचार ।। ८९. एवं जावत जाणवू, अनंत प्रदेशिक खध । इक वचने ए आखियो, हिव ववचने संध ।। ९०. बहु वच प्रभु ! परमाणुआ, चलित सर्व थी न्हाल। कितो काल रहै काल थी? जिन भाखै सर्व काल।। ८६. गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं। (श. २५।२१९) ८७. निरेए कालओ केवच्चिरं होइ ? ८८. गोयमा ! जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज काल । ८९. एवं जाव अणंतपदेसिए । (श. २५।२२०) ९०. परमाणुपोग्गला णं भंते ! सव्वेया कालओ केवच्चिरं होति ? गोयमा ! सव्वद्धं । (श. २५।२२१) . ९१. निरेया कालओ केवच्चिरं होंति ? सव्वद्धं । (श. २२२२२) ९१. अचलित जे परमाणुआ, कितो काल रहै तेह ? उत्तर श्री जिनवर दिये, सर्व काल रहै जेह ।। श०२५, उ० ४, ढा०४४२ ८९ Jain Education Intemational Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२. बहु वच प्रभु ! प्रदेशिया, देसे कंपता न्हान । कितो काल रहै काल थी ? जिन भाखै सर्व काल || ९३. बहु वच प्रभु ! दुप्रदेशिया, सर्वे कंपता न्हाल | कितो काल रहै काल थी ? जिन भाखे सर्व काल ।। ९४. बहु वच प्रभु ! दुप्रदेशिया, निरेज अचलित न्हाल | कितो काल रहे काल थी ? जिन भारी सर्व काल || ९५. एवं जावत जाणवा, अनंत प्रदेशिया खंध । बहु वचने ए आखिया, स्थिति सेजादि संबंध || सकम्प निष्कम्प पुद्गल का अन्तर ९६. इक वच परमाणु प्रभु ! सर्व चलित नैं सोय । काल थकी किता काल नों, अंतर तेहनों होय ? ९७. जिन भाखै स्वस्थान नां, अंतर आश्रयी इष्ट । जघन्य थकी इक समय नों, असंख काल उत्कृष्ट ॥ ९८. पर स्थानांतर आश्रयी, जघन्य समय इक जाण । उत्कृष्ट थी इमहीज ते, काल असंख पिछाण || ९९. इकवचने परमाणुओ, निरेज तसु न्हाल । कितो काल नों अंतरो ? दाखे ताम दयाल || १००. स्वस्थानांतर आधी जघन्य समय इक माग । उत्कृष्ट आवलिका तणों, असंख्यातमों भाग || १०१. पर स्थानांतर आश्रयी, जघन्य समय इक जास । उत्कृष्ट काल असंख ही अंतर भाख्यो तास ॥ १०२. प्रभु ! इक वच दोय प्रदेशिको, देश चलित नैं देख । कितरो काल अंतर हुवे ? हिव जिन उत्तर पेख ॥ 1 1 १०३. स्व स्थानांतर आश्रयी, जघन्य समय इक जाण । उत्कृष्ट काल असंख नों, अंतर तास पिछाण || १०४. पर स्थानांतर आश्रयी, जघन्य समय इक धार । उत्कृष्ट काल अनंत ही न्याय पूर्ववत सार ॥ १०५. सर्व चलित नों अंतरो, काल केतली माण ? एवं चेवज आखियो, देश एज जिम जाण ।। १०. प्रदेशिक अचल ने अंतरो तिरो काल ? ए पिण इक वचने करी, तास उत्तर इम न्हाल ॥ १०७. स्व स्थानांतर आश्रयी, जघन्य समय इक माग । उत्कृष्ट आवलिका तणों, असंख्यातमों भाग ।। १०८. पर स्थानांतर आश्रयी, जघन्य समय इक तेम । उत्कृष्ट काल अनंत ही, जाव अनंत प्रदेशिक एम ॥ १०९. बहु वच परमाणु तणें, सर्व चलित नैं ताहि । कितो काल प्रभु ! अंतरो ? जिन कहै अंतर नांहि ॥ ११०. बहुवचने परमाणुआ, निरेज नोंज कहाय । कितो काल अंतर हुवे ? जिन कहै अंतर नांय ॥ भगवती जोड़ ९० ९२. दुप्पदेसिया णं भंते! खंधा देसेया कालओ केवच्चिरं होति ? सव्वद्धं । (श. २५/२२३) ९३. सब्वेया कालओ केवच्चिरं होंति ? सव्वद्धं । (श. २५०२४४) ९४. निरेया कालओ केवच्चिरं होंति ? सव्वद्धं । ९५ एवं जाव अणतपदेसिया । (. २४/२२५) ९६. परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! सव्वेयस्स केवतियं कालं अंतरं होइ ? ९७. गोमा ! सामंतर पहुच एवकं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । ९. पाप एवं चेव । ९९. निरेयस्स केवतियं कालं अंतरं होइ ? १००. सारं पय जो एक्कं समयं उक्कणं आवलियाए असखेज्जइभागं । १०२. सारं एक्कं समयं उनको (श. २५/२२६ ) १०१. पतरं पश्य जहरमेणं एवं समयं उनकोसे असंखेज्जं कालं । (. २५०२१६) १०२. पुपदेशियस्स णं भंते! बंधस्स देतेयस्स केवलियं कालं अंतर होइ ? जहोणं एक समय उस्कोमे १०. असंखेज्जं कालं । " सेणं १०४. परतरं पश्य जहोणं एवं समयं को अनंतं कालं । (ग. २५।२२८) १०५. सव्वेयस्स केवतियं कालं अंतरं होइ ? एवं चेव जहा देसेस्स । (श. २५/२२९ ) १०६. निरेयस्स केवतियं कालं अंतर होइ ? १०७. सेणं एवयं समयं उनको आवलियाए असंखेज्जइभागं । वो एक समर्थ, उक्कोसे अनंतं कालं । एवं जाव अणतपदेसियस्स । ( . २५-२३०) केवतियं कार्य १०१. परमाणुयोगलार्थ भंते! सध्या अंतरं होइ ? नत्थि अंतरं । (श. २२/२३१) ११०. निरेयाणं केदतियं कालं अंतरं होइ ? नत्थि अंतरं । (. २५२३२) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० - तीनूं काल नैं विषे जे समय पूछे ते समय सेज परमाणु पिण ari अ निरज परमाणु पिण घणां । किणहि काले जे एकला संज सकंप छै इन हुवे । तथा एकला निरेज अकंप छे इम पिण न हुवं । ते माटै बिहुं नों अंतर नथी । १११. बहुवच दोय प्रदेशिया, देश चलित में ताहि कितो काल अन्तर हुवै ? जिन कहै अंतर नांहि ॥ ११२. सर्व चलित अंतर कितो ? जिन कहै अंतर नांव । एवं जावत बहु वचे, अनंत प्रदेशिया पाय ॥ सकम्प निष्कम्प पुद्गल का अल्पबहुत्व ११३. सर्व चलित परमाणु नें, तथा अचल ने ताम | कुणकुण ते जावत हुने विसेसाहिया वा स्वाम ? 1 ११४. जिन कहै थोड़ा सर्व थी, सर्व चलित परमाणु । अचलित असंचगुणा कह्या द्रव्य थकी ए जाणु ॥। वा० द्रव्य चिताये परमाणु पद नैं सर्व चलितपणों अचलितपणों ए बे पदहीज हुवै ते कह्या हिवै संखेज्जप्रदेशिक खंध असंख्यातप्रदेशिक खंध अनंत प्रदेशिक बंध - ए तीन पद छ तेहमें एक-एक पद नै विषे तीन-तीन भेद करिवा देश चलित, सर्व चलित, अचलित ए तीन विशेषणपणां थकी तीनूंइ दुर्व ! ११५. प्रभु दोष प्रदेशिया बंध नं, देश एज सर्व एव । निरेज ने कुणकुण तिके, जाव विसेसाहिया ज्ञेय ? ११६. जिन कहै थोड़ा सर्व थी, दोय प्रदेशिया बंध । सर्व एज सर्व चलित ते, वारू जिन वच संध ॥ ११७. तेह थकी देश चलित ते, असंखेजगुणा थात । तेह की अचलित तिके, असंख्यातगुणा ख्यात ॥ ११. एवं जावत जाणवा, असं प्रदेशिक बंध दोष प्रदेशिया नों पर पूर्व रीत प्रबंध | ११९. ए प्रभु ! अनंत प्रदेशिया, देश एज सर्व एय । | निरेज ने कुणकुण थकी, जाव विसेसाहिया ज्ञेय ? १२०. जिन कहै थोड़ा सर्व थी, अनंत प्रदेशिया खंध । सर्व एज सर्व चलित ते, ए जिन वचन सुसंध ॥ १२१. तेही अचलित जिके, अनंतगुणा है सोय तेह की देश चलित ते अनंतगुणा अवलोय || १२२. प्रभु ! परमाणुपोम्बला, संख प्रदेशिया फेर। असंख प्रदेशिया खंध वली, अनंत प्रदेशिका हेर ।। १२३. देश चलित सर्व चलित नैं, अचलित नैं फुन जोय । द्रव्य थकी ने प्रदेश थी, उभय थकी अवलोय || १२४. कवण कवण थी जाब ही, विसेसाहिया या ताम अल्पबहुत्व त्रिहुं विधकरी ? पूछे गोतम स्वाम ॥ देतेयाण केवति फाल (म. २५।२३३) होइ ? नत्थि अंतर (श. २५।२३४) १११. दुपदेसिया भंते! बंधा अंतरं होइ ? नत्थि अंतरं । ११२. सव्वेयाणं केवतियं कालं अंतरं । निरेयाणं केवतियं कालं अंतरं होइ ? नत्थि अंतरं । एवं जाव अणतपदेसियाणं । (श. २५२३५) ११२. एएस में मंते ! परमाणुपमालाणं सव्वपाणं निरेयाण य कयरे कयरेहितो जाव (सं. पा.) विसेसाहिया वा ? ११४. गोमा | सत्योदा परमाणुयोग्यता सा निरेया असंसेगा। (श. २५। २३६ ) ११५. एएस भंते दुपदेसिया बंधाणं देतेयाणं, णं ! सच्या निरेषाण व कमरे कमरेहिनो जाब (सं. पा.) साहिया वा ? ११६. गोयमा ! सव्वत्थोवा दुपदेसिया खंधा सव्वेया, ११७. देसेया असंखेज्जगुणा निरेया असंखेज्जगुणा । ११८. एवं जाव असंखेज्जपदेसियाणं खंधाणं । (रु. २५०२३७) ११९. एएसि णं भंते! अनंतयवेसिवाणं बंधा देखेयाणं, सव्वेयागं निरेवाभव करे इयरहितो जाय (संपा.) विसेसाहियावा ? १२०. गोयमा ! सव्वत्थोवा अणतपदेसिया खंधा सव्वेया, १२१. नियागंता, देसेवा अनंतगुगा। (श. २५।२३८ ) १२२. एएसभ परमाणुयोग्यताएं संपदेखि याणं, असंखेज्जपदेसियाणं अणतपदेसियाण य खंधाणं १२३ सेवा निरेवाणं दबटुवाए, पदेसयाए, दद्रुपदेवाए " 1 १२४. कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा? विसेसाहिया बा ? श० २५, उ० ४, ढा० ४४२ ९१ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० - इहां द्रव्यार्थ चिताए एतले द्रव्य थकी ११ पद नों अल्पबहुत्व कहै परमाणु सर्वजण निरेजपणों ए वे पद हुवे पिग देश एजपणोंन हुवै। नं असंख्यात प्रदेशिया खंध नैं देशएज, सर्वएज, निरेज ए तीन पद हुवै। अन असंख्यात प्रदेशिया बंध न पिण ए तीन पद हुवै । अनंत प्रदेशिया खंध नैं पिण ए तीन पद हुवै। एवं सगला ११ पद हुवै ते कहै छै - १२५. जिन कहै थोड़ा सर्व थी, अनंत प्रदेशिया बंध सर्व एज सर्व चलित ए, द्रव्य अर्थ करि संध ॥ १२६. तेही अनंत प्रदेशिया, निरेज अचलित तेह | दव्वट्टयाए अनंतगुणा, द्वितीय बोल ए लेह || १२७. तेहथी अनंत प्रदेशिया, देश चलित ते देशेय । दव्वदुवा अनंतगुणा, तृतीय बोल ए शेय ॥ १२. तेहथी असंखप्रदेशिया, सर्व चलित जे सोय दब्बटुवाए अनंतगुणा, तुर्य बोल ए होय ॥ १२९. तेही संखप्रदेशिया, सर्व चलित सुविचार | agre असंखगुणा, बोल पंचमो धार ॥ १३०. तेही परमाणुयोग्गला, सर्व चलित जे होय । " ते द्रव्य अर्थपणें करी, असंखगुणा अवलोय ॥। १३१. तेहथी संख प्रदेशिया, देश चलित जे देख । ते द्रव्य अर्थपणे करी असंख्यातगुणा लेख | १२२. तेही असं प्रदेशिया, देश चलित है जेह ते द्रव्य - अर्थपणे करी असंख्यातगुणा तेह || १३२. तेवी परमाणुयोग्गला, अचलित जेह निरेय । से द्रव्य अर्थपणे करी असंख्यातगुणा ज्ञेय ॥ १३४. तेही संख प्रदेशिया, निरेण अचलित न्हाल | ते द्रव्य - अर्थपणे करी, संख्यातगुणा भाल ॥ १३५. तेहथी असंख प्रदेशिया, अचलित जेह निरेज । दव्बटुवाए असंखगुणा, ग्यारम पद उचरेज || १३६. सर्व वकी बोड़ा कथा, अनंत प्रदेशिया जाण । प्रदेश- अर्थपणे करी, श्री जिन वचन प्रमाण ।। १३७. द्रव्य की जिम आखिया, प्रदेश थी इम देख भगवा पद ग्यारे भला, नवरं इतरो विशेख | १३८. जे परमाणुपला अप्रदेशार्थपणेह | भणिवा ए इण रीत सूं, पूर्वली परि लेह || १३९. संख्यात प्रदेशिया खंध वलि, निरेज अचलित ताय । प्रदेसट्टयाए असंखगुणा, शेष तिमज कहिवाय ।। वा० -जे द्रव्यार्थपणां नैं विषे संख्यात प्रदेशिया खंध निरेज अचलित संख्यातगुणा ए द्रव्य नीं अल्पबहुत्व नै विषे दशमों बोल कह्यो छ । अने इहां प्रदेश- अर्थपणां नैं विषे संख्यात प्रदेशिक बंध निरेज- अचलित असंख्यातगुणा प्रदेश थी कहिया नैं परमाणुपुद्गल नै अप्रदेश अर्थपणे कहियो । ए दोय बोल में फेर । शेष द्रव्य थकी इग्यारे बोलां करी अल्पबहुत्व पूर्वे कही तिम प्रदेश थी पिण कहिवी । हिवं द्रव्यार्थ - प्रदेशार्थपणे करी बीस पद सर्वएज पक्ष नै विषे तथा निरेज ९२ भगवती जोड बा० इह सर्वेषामत्पत्याधिकारे स्वार्थचिन्तायां परमाणुपदस्य सर्वजत्वनिरेवविशेषणात् संख्यादीनां तु त्रयाणां प्रत्येकं देशजसर्वेज निरेजत्व विशेषणादेकादश पदानि भवन्ति । ( वृ. प. ८८७) १२५. गोयमा ! १ सव्वत्थोवा अणतपदेसिया बंधा सव्वेया दव्वट्टयाए १२६. २. अणतपदेसिया खंधा निरेया दव्वट्टयाए अनंतगुणा १२७. ३. अणतपदेसिया खंधा देसेया दव्बट्टयाए अनंतगुणा १२८. ४. असंखेज्जपदेसिया खंधा सव्वेया दव्वट्टयाए अगतदुगा १२९. ५. संखेज्जपदेसिया खंधा सव्वेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा १३०. ६. परागला सव्ये दवाए असंज्जगुणा १३१. ६. संखेज्जपदेसिया खंधा देतेया दब्बट्टयाए असंखेज्जगुणा १३२. ८. असंखेज्जपदेसिया खंधा देसेया दव्बट्टयाए असंखेज्जगुणा १३३. ९. परमाणुपला निवाए असंवेगुणा १३४. १०. संखेज्जपदेसिया खंधा निरेया दव्वट्टयाए संवेगा १३५. ११. असंखेज्जपदेसिया खंधा निरेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा । १२६ पदेसद्रयाएसम्वत्योवा अतपदेसिया | १३७. एवं पदेसट्टयाए वि, नवरं १३८. परमाणुपला अपदेसमा भाषियया । १३९. संखेज्जपदेसिया खंधा निरेया पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा सेसं तं चैव । बा०--एवं प्रदेशम उभवार्थतायां चैतान्येव विशतिः, सर्वेजपक्षे निरेजपक्षे च परमाणुषु व्यापदेशार्थत्वेवमेककरणे(बृ. प.) प्रदेश नाभिलापादिति । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०. १. सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा सम्वेया दन्वटु याए १४१. २. ते चेव पदेसट्ठयाए अणंतगुणा १४२. ३. अणंतपदेसिया खंधा निरेया दब्बट्टयाए अणंत गुणा १४३. ४. ते चेव पदेसट्ठयाए अणंतगुणा १४४. ५. अणंतपदेसिया खंधा देसेया दब्बट्ठयाए अणंतगुणा १४५. ६. ते चेव पदेसट्टयाए अणंतगुणा १४६. ७. असंखेज्जपदेसिया खंधा सब्वेया दव्वट्ठयाए अणंतगुणा १४७. ८. ते चेव पदेसट्ठयाए असंखेज्जगुणा पक्ष नै विषे ते कहै छै. इहां कोइ पूछ जे द्रव्य थकी इग्यारे पद पूर्वे कह्या अनै प्रदेश थी पिण ११ पद पूर्वे कह्या । इहा उभयार्थपणे करी बाईस पद हुवे ते बीस पद किम कह्या? तेहनों उत्तर-जे परमाण नै विषे वलि निरेज नै विषे द्रव्यार्थप्रदेशार्थ -सेज नों द्रव्यार्थ-अप्रदेशार्थ इम एक करिव करी बीस पद हुवै ते कहै छै-- १४०. सर्व थकी थोड़ा कह्या. अनंत प्रदेशिया खंध । सर्व एज सर्व चलित ते, दवट्टयाए संध ।। १४१. तेहिज अनंत प्रदेशिया, सर्व चलित जे जाण । प्रदेश-अर्थपणे करी, अनंतगुणा पहिछाण ।। १४२. तेहथी अनंत प्रदेशिया, अचलित जेह निरेज । ते द्रव्य-अर्थपणे करी, अनंतगुणाज कहेज ।। १४३. तेहिज अनंत प्रदेशिया, निरेज अचलित न्हाल । प्रदेश-अर्थपणे करी, अनंतगुणा ए भाल ।। १४४. तेहथी अनंत प्रदेशिया, देश चलित ते देख । ते द्रव्य-अर्थपणे करी, अनंतगुणा सूविशेख ।। १४५. तेहिज अनंत प्रदेशिया, देश चलित जे दृष्ट । प्रदेश-अर्थपणे करी, अनंतगुणा ए इष्ट ।। १४६. तेहथी असंख प्रदेशिया, सर्वचलित सुविचार । ते द्रव्य-अर्थपणे करी, अनंतगुणा अवधार ।। १४७. तेहिज अनंत प्रदेशिया, सर्वचलित संपेख । प्रदेश-अर्थपणे करी, असंख्यातगुणा लेख ।। १४८. तेहथी संख प्रदेशिया, सर्व चलित जे सोय । ते द्रव्य अर्थपणे करी, असंख्यातगुणा होय ।। १४९. तेहिज संख प्रदेशिया, सर्व चलित जे खंध । प्रदेश-अर्थपणे करी, संख्यातगुणा' संध ।। १५०. तेहथी परमाणुपोग्गला, सर्व चलित संजात । द्रव्य थकी अप्रदेश थी, असंख्यातगुणा आत ।। १५१. तेहथी संख प्रदेशिया, देश चलित दाखंत । ते द्रव्य-अर्थपणे करी, असंखगुणा आखंत ।। १५२. तेहिज संख प्रदेशिया, देश चलित जे देशेज । प्रदेश-अर्थपणे करी, संखगुणाज' कहेज ।। १५३. तेहथी असंख प्रदेशिया, देश चलित देसेय । ते द्रव्य-अर्थपणे करी, असंख्यातगुणा ज्ञेय ।। १५४. तेहिज असंख प्रदेशिया, देश चलित जे देख । प्रदेश-अर्थपणे करी, असंख्यातगुणा लेख ।। १५५. तेहथी परमाणपोग्गला, अचलित जे अवधार । द्रव्य थकी अप्रदेश थी, असंखगुणा अधिकार ।। १५६. तेहथी संख प्रदेशिया, अचलित जेह निहाल । ते द्रव्य-अर्थपणे करी, संखगुणा ते भाल ।। १. अंगसुत्ताणि भाग २ में प्रस्तुत सन्दर्भ में असंख्यातगुणा पाठ है । वहां संख्यात गुणा को पाठान्तर में लिया गया है । २. अंगमुत्ताणि भाग २ में यहां 'असंखेज्जगुणा' पाठ है, किसी पाठान्तर का संकेत नहीं है। १४८. ९. संखेज्जपदेसिया खंधा सव्वेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा १४९. १०. ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा १५०. ११. परमाणुपोग्गला सव्वेया दव्वट्ठ-अपदेसट्ठयाए ___असंखेज्जगुणा १५१. १२. संखेज्जपदेसिया खंधा देसेया दवट्टयाए ___ असंखेज्जगुणा १५२. १३. ते चेव पदेसट्ठयाए असंखेज्जगुणा १५३. १४. असंखेज्जपदेसिया खंधा देसेया दब्वट्टयाए असंखेज्जगुणा १५४ १५. ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा १५५. १६. परमाणुपोग्गला निरेया दवट्ठ-अपदेसट्ठयाए असखेज्जगुणा १५६. १७. संखेज्जपदेसिया खंधा निरेया दब्वट्ठयाए संखेज्जगुणा श० २५, उ०४, ढा० ४४२ ९३ Jain Education Intemational Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७. १८. ते चेव पदेसट्टयाए संखेज्जगुणा १५८. १९. असंखेज्जपदेसिया निरेया दब्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा १५९. ६. ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा । (श. २५॥२३९) १५७. तेहिज संख प्रदेशिया, अचलित जेह पिछाण । प्रदेश-अर्थपणे करी, संखगुणा ते जाण ।। १५८. तेहथी असंख प्रदेशिया, अचलित ते अवलोय । द्रव्य-अर्थपणे करी, असंख्यातगुणा होय ।। १५९. तेहिज असंख प्रदेशिया, अचलित जे आख्यात । प्रदेश-अर्थपणे करी, असंख्यातगुणा थात ।। सोरठा १६०. प्रदेश थी कहि ताय, अस्तिकाय पुद्गल प्रतै । अथ अन्य अस्तिकाय, प्रदेश थी कहियै अछै ।। अस्तिकाय के मध्यप्रदेश १६१. *प्रभु ! धर्मास्ति नां किता, मध्यप्रदेश कहेस ? श्री जिन भाखै तेहनां, छै अठ मध्य प्रदेश ।। सोरठा १६२. धर्मास्ति नां इष्ट, अठ मध्यप्रदेश छै तिके। रुचक प्रदेशज अष्ट, ते अवगाहक चूणि इम ।। १६०. अनन्तरं पुद्गलास्तिकाय: प्रदेशतश्चिन्तितः अथान्यानप्यस्तिकायान् प्रदेशत एव चिन्तयन्नाह.. (वृ. प. ८८७) १६१. कति णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स मज्झपदेसा पण्णत्ता ? गोयमा ! अटू धम्मत्थिकायस्स मज्झपदेसा पण्णत्ता। (श. २५।२४०) १६२. 'अद्वै धम्मत्थिकायस्स मज्झपएस' ति, एते च रुचकप्रदेशाष्टकावगाहिनोऽवसेया इति चूणिकार: । (वृ. प. ८८७) १६३.१६४. इह च यद्यपि लोकप्रमाणत्वेन धर्मास्तिकायादेमध्यं रत्नप्रभावकाशान्तर एव भवति न रुचके (वृ. प ७८७) १६३. वृत्तिकार संवादि, यद्यपि लोक प्रमाण करी । धर्मास्तिकायादि, मध्य रत्नप्रभा तले ।। १६४. रत्न सक्कर रै बीच, अवकाशांतर में विषे । है तस् मध्य समीच, पिण रुचक विषे ते है नथी ।। १६५. तथापि दिशि नों जेह, ऊपजवो वलि विदिशि नों। हवै रुचक थी तेह, ते कारण इम जाणियै ।। १६६. धर्मास्तिकायादि, तास मध्ये वंछचो तिहां । चूणि विषे संवादि, आख्यो एम संभावियै ।। १६७. *प्रभु ! अधर्मास्तिकाय नां, कितरा मध्य प्रदेश ? एवं चेव अहीजिये, जिन वच अमल अशेष ।। १६५,१६६. तथाऽपि दिशामनूदिशां च तत्प्रभवत्वाद्धर्मास्तिकायादि मध्यं तत्र विवक्षितमिति संभाव्यते, (वृ. प. ८८७) १६८. प्रभु ! आगासत्थिकाय नां, मध्य प्रदेश कति ख्यात? इम गोयम पूछय छत, अष्ट कहे जगनाथ ।। १६९. प्रभु ! जीवास्तिकाय नां, कितरा मध्य प्रदेश ? जिन कहै आठ परूपिया, मध्य प्रदेश विशेष ।। १६७. कति णं भंते ! अधम्मत्थिकायस्स मज्झपदेसा पण्णता ? एवं चेव । (श. २५२४१) १६८. कति णं भंते ! आगासत्थिकायस्स मज्भपदेसा पण्णता? एवं चेव । (श. २५।२४२) १६९. कति णं भंते ! जीवस्थिकायस्स मज्झपदेसा पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठ जीवस्थिकायस्स मज्झपदेसा पण्णत्ता । (श. २५।२४३) १७०. 'जीवत्थि कायस्स' त्ति प्रत्येक जीवानामित्यर्थः, ते च सर्वस्यामवगाहनायां मध्य भाग एव भवन्तीति मध्यप्रदेशा उच्यन्ते, (व. प. ८८७) १७१. एए णं भते ! अट्ट जीवस्थिकायस्स मज्झपदेसा कतिसु आगासपदेसेसु ओगाहंति ? सोरठा १७०. इक-इक जीव तणांज, अठ-अठ मध्य प्रदेश छै। निज-निज अवगाहनाज, तेहनै मध्य भागेज छै ।। १७१.*ए प्रभु ! जीवास्ति तणां, जे मध्य अष्ट प्रदेश । किता आकाश प्रदेश नं, अवगाह्या सुविशेष ? *लय : वेग पधारो महिल थी ९४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२. श्री जिन भाखै जघन्य थी, एक आकाश प्रदेश । तेह विषे जे जीव नां, आळू मध्य रहेस ।। १७२. गोयमा ! जहण्णेणं एक्कंसि वा सोरठा १७३. ते जीव प्रदेश तणांज, संकोच विकास धर्म थी। इक नभ विषे समाज, अठ मध्य जीव प्रदेश है ।। १७४. *अथवा बे ऊपर तथा, तिण ऊपर रहै तेह । तथा च्यार ऊपर रहै, फुन पंच ऊपर जह ।। १७५. अथवा षट ऊपर रहै, उत्कृष्ट अष्ट विषेह । पिण सप्त विष निश्चे नहीं, वस्तु स्वभाव थी एह ।। १७३. 'जहन्नेणं एवकसि वे' त्यादि सङ्कोचविकाशधर्मत्वा" (वृ. प. ८८७) १७४. दोहिं वा तोहिं वा चउहि वा पंचहि वा तेषाम् १७५. छहिं वा, उक्कोसेणं अट्ठसु, नो चेव ण सत्तसु । (श. २५।२४४) 'नो चेव णं सत्तसु वि' त्ति वस्तुस्वभावादति । (वृ. प. ८८७) १७६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. २५१२४५) १७६. सेवं भंते ! स्वामजी, पणवीसम शत पेख । तंत तुर्य उद्देश नां, आख्या भाव अशेख ।। १७७. च्यारसौ नं बंयालीसमी, आखी ढाल रसाल । भिक्षु भारिमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल ।। पंचविंशतितमशते चतुर्थोद्देशकार्थः ॥२५॥४॥ ढाल : ४४३ दूहा १. तुर्य उद्देशक नै विषे, पुद्गल आदि आख्यात । पजवा तास अनंत है, ते पंचम अवदात ।। पर्यव पद २. कतिविध प्रभु ! पजवा कह्या ? जिन कहै दोय प्रकार । जीव तणां पजवा वलि, अजीव नां अवधार ।। वा. --पज्जब कहितां पर्यव । ते गुण धर्म अनै विशेष ए सह पर्यायवाची इम भगवती वृत्तौ । जीव पज्जव ते जीव नों धर्म । इम अजीव पज्जवा पिण । १. चतुर्थोद्देशके पुद्गलास्तिकायादयो निरूपितास्ते च प्रत्येकमनन्तपर्यवा इति पञ्चमे पर्यवाः प्ररूप्यन्ते (वृ. प. ८८७) २. कतिविहा णं भंते ! पज्जवा पण्णत्ता? गोयम! दुविहा पज्जवा पण्णत्ता, तं जहा-जीवपज्जवा य, अजीवपज्जवा य । ३. जेम पन्नवणा सूत्र नों, पंचम पर्यव पद । तेह सर्व भणवो इहां, हिव जिन वचन सुहद ।। वा.-'पज्जव' त्ति पर्यवा गुणा धर्मा विशेषा इति पर्यायाः, 'जीवपज्जवा य' त्ति जीवधर्मा एवमजीवपर्यवा अपि, (वृ. प. ८८९) ३. पज्जवपदं निरवसेसं भाणियव्वं जहा पण्णवणाए। (श. २०२४६) 'जहा पन्नवणाए' त्ति पर्यवपदं च -विशेषपदं प्रज्ञापनायां पञ्चमं, (बृ. प. ८८९) *लय : वेग पधारो महिल थी श० २५, उ०५, ढा० ४४३ ९५ Jain Education Intemational Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० पंचमा पद [५२] नैं विषे का ते इम-जीवपज्जवा णं भंते ! कि संखेज्जा अनंता ? गोयमा ! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अनंता इत्यादि । द्रव्य करिकै द्रव्य थकी जीव एक द्रव्य, अनै क्षेत्र थकी ते जीव द्रव्य असंख्यात प्रदेशावगाढ, एक-एक जीव ने असंख्यात प्रदेश अवगाढपणां थकी । अने काल थकी आदि अंत रहित । अनं भाव थकी ज्ञानादिक रूप जीव नां अनन्ता अगुरुलघु पर्याय अन अजीव द्रव्य पिण इमहीज । द्रव्य थकी परमाणु एक द्रव्य, अनै क्षेत्र थकी एक प्रदेश अवगाढईज । काल जघन्य स्थिति एक समय अनैं मध्यम स्थिति दोय आदि समय अने उत्कृष्ट स्थिति संख्याती उत्सप्पिणी अवसप्पिणी । अने भाव थकी वर्ण, गंधादि रूप अनंती पर्याय । इम द्विप्रदेशिकादिक खंध नैं पिण जाणवो । इति पत्रवणा वृत्तौ ।' 1 तथा उत्तराध्येन अठावीसमें पज्जवा ने ओलखाया ते कहै छगुणाणमास दवं एगदम्बसिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे ||२८|६|| गुण रूपादिक नों आश्रय — आधार द्रव्य छँ । एतले जेहने विषे गुण उपजै, उपजी नै रहै अने विलय हुवै, तेहने द्रव्य कहिये, ए प्रथम पद नों अर्थ कह्यो । एगदव्वस्तिआ गुणा – एक द्रव्य नैं विषे आश्रिता कहितां रह्या गुण रूपादिक एतले द्रव्य नैं विषे गुण रह्याए दूजा पद नों अर्थ । लक्खणं पज्जवाणं तु -पर्याय नां लक्षण ते आगल कहिये छे तु शब्द विशेषण नै अर्थे । उभओ अस्सिया भवेद्रव्य अनं गुण ए बिहुं नैं विषे रह्या हुवै । उत्तराध्ययन की तेरमी गाथाए का. - एगतं च पुहत्तं च संखा संठाणमेव च । उत्तर संजोगा य विभागा य, पज्जवाणं तु लक्खणं ।। २८ ।१३ हिये पर्याय तो लक्षण कहिये एमत्तं एकपणुं भिन्न परमाणुजादिक मैं विषे पिण जे एक ए घटादिक इम एहवी प्रतीति नों हेतु च शब्द नों अर्थ, ते आगलो पद तेहनी अपेक्षाय छ । तेहनें समुच्चय कहिये । पुहत्तं च ए एह थकी जे जुओ, ते पृथकपणुं । च समुच्चय । संखा - संख्या एक बे त्रिण इत्यादि । संठाण - संस्थान परिमंडलादिक आकार । एव ते पूर्णे च समुच्चय, संजोगा य ए अंगुलियादि मिल्या होवे ते संजोग, अन विभागा य तेहिज जूआपणुं थावुं ते विभाग । च शब्द थी नवा पुराणादिकपणुं ग्रहितुं । पज्जवाणं- -ए पर्याय नुं लक्खणं --- असाधारण लक्षण जाणिवो । तु पूर्णे । -- सोरठा 1 ४. पज्जब विशेष रूपात तेह तणां अधिकार थी। अथ आगल अवदात, काल विशेष कहीजिये ॥ काल पद *जय जय वाणी जिन तणीं । (ध्रुपदं ) ५. इक आवलिका ने विषे प्रभु ! स्ं समया संख्यात ? असंख्यात समया हुवै, कै समय अनंता थात ? ६. जिन भाखे सुण गोयमा ! नहीं हूँ समय संख्यात । असंख्याता समया हुवै, अनंत समय नहि थात || १. प्रज्ञापनावृत्ति में उक्त वार्तिक का संवादी प्रमाण नहीं मिला । *लय : खुसामदी दातार नीं ९६ भगवती जोड़ ४. विशेषाधिकारात्कालविशेषसूत्रम् (बृ. प. ९ ५. आवलिया णं भंते ! कि संखेज्जा समया ? असंखेज्जा समया ? अनंता समया ? ६. गोयमा ! नो संखेज्जा समया, असंखेज्जा समया, नो अनंता समया । (श. २५/२४७ ) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. आणापाण णं भंते ! कि संखेज्जा? एवं चेव । (श. २०२४८) ८. थोवे णं भंते ! कि संखेज्जा? एवं चेव । एवं लवे वि, मुहुत्ते वि, ९. एव अहोरत्ते, एवं पक्खे, मासे, उऊ, १०. अयणे, संवच्छरे, जुगे, वाससए, ११. वाससहस्से, वाससयसहस्से, पुव्वंगे, पुव्वे, ७. इक आणापाणु नैं विषे प्रभु ! स्यूं समया संख्यात ? ____ एवं चेव अहीजिय, पूर्ववत अवदात ।। ८. एक थोव नै विषे प्रभु ! पूर्व भाख्यो जेम । लव नै विष पिण इमज छ, मुहूर्त विष पिण एम ।। वा.-सात उस्वास-नि श्वास नों एक थोव, सात थोव नीं एक लव, ७७ लव नों एक मुहूर्त । ९. इम अहोरात्रि विषे वलि, पक्ष विष पिण एम । मास विष पिण इमज हि, ऋतु विषे वलि तेम ।। वा.-तीस मुहूर्त नों एक अहो रात्रि, पनरै अहोरात्रि नों एक पक्ष, दोय पक्ष नों एक मास, दोय मास नी एक ऋतु ।। १०. एवं अयन विष वलि, वर्ष विषे इम लेह । ___ जुग विषे इमहीज ही, इम सौ वर्ष विषेह ।। वा. - तीन ऋतु नों एक अयन, दोय अयन नों एक वर्ष, पांच वर्ष नों एक जुग, बीस जुग नां सौ वर्ष । ११. सहस्र वर्ष नै विषे वलि. लक्ष वर्ष विषेह । पूर्व नां अंग नै विषे, पूर्व विषे इम लेह ।। वा.-८४ लाख वर्ष नै एक पूर्व नों अंग कहिये । अनै ८४ लाख वर्ष में ८४ लाख गुणा कीज तेहनै एक पूर्व कहिये । जेहनां वर्ष ७० लाख कोड़ अनै ५६ हजार कोड़ वर्ष हुवै। १२. एवं तुटित नां अंग विषे, तुटित विषे इमहीज । एवं अडड नां अंग विष, अडड विष इम लीज ।। वा.-पूर्व नै ८४ लाख गुणा कर तिवारै एक तुटित नों अंग कहिये । तुटित नां अंग नै ६४ लाख गुणा कर तिवारै एक तुटित कहिय । तुटित नै ८४ लाख गुणा कर तिवारे एक अडड नों अंग कहिये । अडड नां अंग नै ८४ लाख गुणा कर तिवारे एक अडड कहियै । इम आगल पिण एक-एक पद नै विषे ८४ लाख गुणा करिवा। १३. एवं अवव नां अंग विषे, अवव विषे इम जाण । हहक अंग विषे वलि, हहक विषे पहिछाण ।। १४. उत्पल अंग विषे वलि, इम उत्पल विष ताय । एवं पद्म नां अंग विषे, पद्म विषे इम पाय ।। १५. एवं नलिण नां अंग विषे, इमहिज नलिण विषेह । ___ अर्थनिपुरांग ने विष, अर्थनिपूरेह ।। १६. एवं अयुत नां अंग विषे, अयुत विषे पिण एम । नयुत नां अंग विषे वलि, नयुत विष पिण तेम ।। १७. एवं पयुत नां अंग विषे, पयुत विष इम होय । चलिका अंग विषे वलि, चलिका विषे जोय ।। १८. सीसपहेलिका नां अंग विषे, सीसपहेलिया विषेह । पल्योपम नै विषे वलि. सागरोपम लेह ।। १९. इम अवसप्पिणी नै विषे, उत्सप्पिणी विषेह । असंख्याता समय कह्या, सगली ठामेह ।। १२. तुडियंगे, तुडिए, अडडंगे, अडडे, १३. अववंगे, अववे, हूहूयंगे, हूहूए, १४. उप्पलगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे, १५, नलिणंगे, नलिणे, अत्थनिपूरंगे, अत्थनिपूरे, १६. अउयंगे, अउए, नउयंगे, नउए, १७. पउयंगे, पउए, चूलियंगे, चूलिए, १८. सीसपहेलियंगे, सीसपहेलिया, पलिओवमे, सागरोवमे, १९. ओसप्पिणी । एवं उस्सप्पिणी वि । (श. २५१२४९) श०२५, उ०५, ढा०४४३ ९७ Jain Education Intemational Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यं समया संख्यात ? समया हुवै नाथ ! ॥ संख्यात । थात ।। २०. इक पुद्गल परावत ने विषे अथवा असंख अनंत ही, २१. जिन भाखं सुण गोयमा! नहीं असंख्याता पिण नहीं ह्वै, समय अनंता २२. एवं अतीत अद्धा विषे, अद्धा अनागत मांय । सर्व काल नै विषे वली, समय अनंता थाय ॥ २३. बहु वच आवलिका ने विधे प्रभु! स्यूं समय संख्यात ? असंख्याता समया हुवै, के समय अनंता थात ? २४. जिन भाखे सुण गोयमा ! संख्याता नांय । असंख्याता समया कदा, कदा अनंता थाय ॥ २५. बहु आणापाणु विषे प्रभु ! स्यूं समया संख्यात ? इत्यादिक पूछा कियां, एवं चैव कहात ।। २६. बहु वच थोव विषे पृच्छा, एवं चेव कहेह | एवं जाव बहु वच करी, उत्सप्पिणी नगेह ॥ २७. बहु पुद्गलपरावतं विषे स्वं समया संख्यात? इत्यादिक पूछा कियां, भाखे जगनाथ || २८. सख्याता समया नथी, नहीं हुवै असंख्यात । समय अनंता हुवै सही, एह समय अवदात || २९. इक वच आणापाणु विषे आवलिका स्वाम ? स्य संख्याती हवे अच्छे के असंख अनंती आम ? ३०. जिन भावं सुण गोयमा आवलिका संख्यात । ! असंख आयला हवे नहीं, अनंत आयलिका न थात ॥ ३१. इक थोव विषे पिण इमज ही, एवं जावत जाण । एक सीसपहेलिया लगै कहिवो पहिछाण || ३२. एक पल्योपम ने विषे आवलिका स्वाम | स्यूं संख्याती हुर्व प्रभु! के असं अनंती पाम ? ३३. जिन कहै संख्याती नहीं, असंख आवलिका थाय । अनंत आलिका हुवे नहीं एक पस्योपम मांय ॥ ३४. एवं एक सागर विधे अवसयिणी विषे । इक उत्सपिणी ने विषे इमहीज कहेह ॥ ३५. पुद्गलपरावतं इक विषे पूछ कहे स्वाम आवलिका संख असं नहीं अनंत आवलिका पाम || , " ३६. एवं जावत इक बचे सर्व अदा कहिवाय । 1 जाव शब्द में अतीत ही, अनागत फुन आय || २७. बहु वच आणापाणु विषे आवलिका सोय । स्यूं संख्याती हु प्रभु ! के असंख अनंती होय ? ३८. जिन कहै संख्याती कदा कदा असंच हवे तेम अनंत आवलिका दुवै कदा, जाव उत्सप्पिणी एम ॥ १. काल के विभागों में अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी आता है। पुद्गलपरावर्तन इसके आगे है । अंगसुत्ताणि में ओसप्पिणी के बाद पोग्गलपरियट्टा है । पाठ के संक्षेपीकरण में यत्र तत्र ऐसा अन्तर रहा है । भगवतो जोड १८ २०. पोग्गलपरियट्टे णं भंते! किं संखेज्जा समयापुच्छा । २१. गोयमा ! नो संखेज्जा समया, नो असंखेज्जा समया, अणता समया । २२. एवं तीयद्धा, अणागयद्धा, सव्वद्धा । (श. २५/२५० ) २३. आवलियाओ णं भंते! कि संखेज्जा समया पुच्छा । २४. गोयमा ! नो संखेज्जा समया, सिय असंखेज्जा समया, सिय अनंता समया । (म. २५०२५१) समया० ? एवं (. २५०२५२) २५. आणापाणू णं भंते! किं संखेज्जा चेव । २६. थोवा णं भंते ! कि संखेज्जा समया ? एवं चेव । एवं जाव ओसप्पिणीओ त्ति । ( . २५/२५३) २७. पोग्गलपरियट्टा णं भते ! कि संखेज्जा समयापुच्छा । गोयमा ! समया । २८. नो संखेज्जा समया, नो असंखेज्जा समया, अनंता (२५०२५४) २९. आणापाणू णं भंते! किं संखेज्जाओ आवलियाओपुच्छा । ३०. गोपमा ! संखेनाओ आवलियाओं, नो असंखेज्जाओ आवलियाओ, नो अनंताओ आवलियाओ । ३१. एवं थोवे वि । एवं जाव सीसपहेलिय त्ति । (श. २५/२५५) ३२. पलिओमे णं भंते ! कि संखेज्जाओ आवलियाओपुच्छा । ३३. गोयमा ! नो संखेज्जाओ आवलियाओ, असंखेज्जाओ बायलियाओ, नो अता सियाओ ३४. एवं सागरोत्रमे वि । एवं ओसप्पिणी वि, उस्मप्पिणी वि । ( २५/२५६) २५. पोलपरियडे पुच्छ गोयमा ! नो संखेज्जाओ आवलियाओ, नो असंखेजाओ आवलियाओ, अनंताओ आवलियाओ । ३६ एवं जाव सव्वद्धा । (श. २५/२५७ ) ३७. आणापाणू णं भंते! कि संखेज्जाओ आवलियाओपुच्छा । ३८. गोयमा ! सिय संखेज्जाओ आवलियाओ सिय असंखेज्जाओ, सिय अनंताओ । एवं जाव उस्सप्पिणीओ । (श. २५/२५८, २५९ ) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. पुद्गलपरावर्त्त बहु विषे, पूछयां कहै जिनराय । आवलिका संख असंख नहीं, अनंत आवलिका थाय ।। ४०. स्यूं प्रभु ! एक थोव विषे, आणापाणु संख्यात । के असं आणापाण हवं, के अनंत आणापाणु पात ? ४१. जेम आवलिका ने दिये, वक्तव्यता कही तेम | इमहिन आणापाणु विषे सह कहिवी एम ॥ ४२. इम इण आलावे करी, जावत फुन ताय । एक सीसपहेलिया लगे, वक्तव्यता कहिवाय ॥ ४३. स्यूं प्रभु ! एक सागर विषे, पल्योपम संख्यात ? कै असंख्याती पल्य हुवै, के अनंत पल्योपम थात ? ४४. जिन कहै एक सागर विषे पल्योपम संखेह । असंख अनंत पल्य नहीं हुवे इम उत्सप्पिणी विषेह || , 1 ४५. इक पुद्गलपरावर्त्त विषे, स्यूं ह्वै पल्य संख्यात ? इत्यादिक पूछा कियां, भाखे जगनाथ || ४६. संख असंख पल्य नहीं है, पल्य अनंती होय । एवं जावत जाणवो, सर्व काल लग सोय || ४७. घणां सागर में विषे प्रभु ! स्यूं ईपत्य संख्यात ? के असं अनंती पस्य हवं? तब भार्थ नाथ ।। ४८. कदा संख्याती पल्य हुवै, कदा असंख्याती थाय । अनंत पल्योपम ह्वै कदा, बहु सागर मांय || ४९. एवं जावत बहु वचे, अवर्साfप्पणी मांय । बहु उत्सपिणी में विषे पूर्ववत कहिवाय ॥ ५०. बहु पुद्गलपरावर्त्त विषे पूछयां कहे जिनराय । पल्योपम संख असंख नहीं, अनंत पल्योपम थाय ॥ 1 ५१. बहु उपप्पिणी ने विधे स्यूं सागर संख्यात? वक्तव्यता जिम पल्य तणीं, तिम सागर नीं थात ॥ ५२. प्रभु ! इक पुद्गलपरावत्तं विधे, स्यूं संख्याती जेह हुवै प्रभु अवसर्पिणी ? इत्यादिक पूछेह || ५३. जिन कहै इक पुद्गल विषे संख असंख न होय । अनंत हुवे अवसपिणी, वारु भ्याय सुजोय ॥ ५४. बहु पुद्गलपरावतं विषे अवसयिणी तेह। स्यू संख्यात हुवे प्रभु! इत्यादिक पूछेह ॥ ५५. जिन कहे संख्याती नहीं, असंख्याती न बाय ।। अनंत हुवे अवसप्पणी बहु पुद्गल माय ॥ ५६. इक पुद्गलपरावर्त्त विषे स्यूं संख्याती होय । अवसप्पिणी उत्सपिणी ? पूच्छा अवलोव ॥ ३९. योग्यतपरिमाणं पुच्छा गोयमा ! नो संखेज्जाओ आवलियाओ, नो असंखेज्जाओ आवलियाओ, अनंताओ आवलियाओ । ४०. बीभते जाओ आणावाभो ? असंखेज्जाओ० ? कि ४१. जहा आवलियाए वत्तव्वया एवं आणापाणूओ वि निरवसेसा । ४२. एवं एतेणं गमएणं जाव सीसपहेलिया भाणियव्वा । (श. २५।२६१) ४३. सागरोवमे णं भंते ! कि संखेज्जा पलिओवमा ?पुच्छा । ४४. गोयमा ! संखेज्जा पलिओवमा, नो असंखेज्जा पलिओमा नो अनंता पलिओवमा । एवं ओसप्पिणी वि, उस्सप्पिणी वि । ( . २५/२६२) ४५. पोग्गल परियट्टे णं पुच्छा । ४६. गोयमा ! नो संखेज्जा पलिओवमा, नो असंखेज्जा पलिओवमा, अनंता पलिओवमा । एवं जाव सव्वद्धा । (श. २५/२६३) ४७. सागरोवमा णं भंते! कि संखेज्जा पलिओवमा -- पुच्छा । गोयमा ! ४८. सिय संखेज्जा पलिओवमा, सिय असंखेज्जा पलिओवमा, सिय अनंता पलिओवमा । ४९. एवं जाव ओसप्पिणी वि, उस्सप्पिणी वि । (श. २५/२६४ ) ५०. पोमलपरिवडा पुच्छा । गोपमा मोसा पलिजोषमा नो अन्ना पनिओमा अता पश्रियमा (म. २५/२६५) ५१. ओसप्पिणी णं भंते ! कि संखेज्जा सागरोवमा ? जहा पलिओवमस्स वत्तव्वया तहा सागरोवमस्स वि । (श. २५।२६६ ) 1 ५६. पोमलपरियट्ठे गं भते कि संजाओ ओतोपिणि उस्सप्पिणीओ — पुच्छा । श० २५, उ०५, ढा० ४४३ ९९ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. जिन कहै संख असंख नहीं, अनंती हुवै जेह । एवं जावत जाणवो, सर्व अद्धा लग एह ॥ ५८. बहु पुद्गलपरावर्त विषे, स्यं संख्याती भदंत ! अवसप्पिणी उत्सप्पिणी ? पूछ गोयम संत ।। ५९. जिन कहै अव-उत्सप्पिणी, संख्याती न थाय । असंख्याती पिण नहीं हवं, अनंती कहिवाय ।। ५७. गोयमा ! नो संखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ, नो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ, अणंताओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। एवं जाव सव्वद्धा। (श. २५।२६७) ५८. पोग्गलपरियट्टा णं भंते ! कि संखेज्जाओ ओस प्पिणि- उस्सप्पिणीओ- पुच्छा। ५९. गोयमा ! नो संखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ नो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ, अणंताओ औसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। (श. २५।२६८) ६०. तीतद्धा णं भंते ! कि संखेज्जा पोग्गलपरियट्टा--- पुच्छा । ६१. गोयमा! नो संखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, नो असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, अणंता पोग्गलपरियट्टा। ६२. एवं अणागयद्धा वि । एवं सव्वद्धा वि । (श. २५।२६९) ६३. अणागयद्धा णं भते ! कि सखेज्जाओ तीतद्धाओ ? असंखेज्जाओ० अणंताओ० ६४. गोयमा ! नो संखेज्जाओ तीतद्धाओ, ६५. नो असंखेज्जाओ तीतद्धाओ, नो अणंताओ तीतद्धाओ। ६०. प्रभु ! अतीत अद्धा विषे, स्य संख्याता सोय ? पुद्गलपरावर्त हवै, के असंख अनंता जोय? ६१. जिन कहै संख्याता नहीं, असंख्याता नांहि । अनंत पुद्गलपरावर्त हुआ, गया काल रै मांहि । ६२. काल अनागत ने विषे, होसी इमज अनंत । एवं सर्व अद्धा विषे, अनंत पुद्गल हुंत ।। ६३. काल अनागत ते प्रभु ! स्यं संख्यातो सोय? जेह अतीत अद्धा थकी, के असंख अनंतो होय? ६४. जिन भाखै सुण गोयमा ! काल अनागत सोय । संख्यातो नहिं छै तिको, गया काल थी जोय ।। ६५. असंख्यातो पिण ते नहीं, काल अतीत थी जेह । वलि अनंतो पिण नहीं, गया काल थी तेह ।। ६६. काल अनागत छै तिको, गया काल थकीज । एक समय वर्तमान जे, अधिकोज कहीज ।। ६७. काल अतीतज छै तिको, काल अनागत थीज । एक समय ऊणो हुवै, जिन वच सलहीज ।। वा०-अनागत काल अतीत काल थकी एक समय अधिक छ, ते किम ? जेह भणी अतीत काल नी आदि नहीं, अनागत काल नों अंत नथी। ते माटै अनादि अनंतपणे करी बिहुं सरीखा । ते बिहुँ नै माहै भगवंत नों प्रश्न - समय वत्तै छ तेह अविनष्टपण करी अतीत काल माहै प्रवेश न कर अविनष्टपणां नां साधर्म्य थकी। अनागत काल नै विषे क्षेपविय तिवारै समय अधिक अनागत काल हुवै एतला माटज अतीतकाल अनागत काल थी समय ऊणो हवै। ६६. अणागयद्धा णं तीतद्धाओ समयाहिया, ६७. तीतद्धा णं अणागयद्धाओ समयूणा । (श. २०२७०) वा०-'अणागयता णं तीतद्धाओ समयाहिय' त्ति अनागतकालोऽतीतकालात्समयाधिकः, कथं ? यतोऽतीतानागतौ कालावनादित्वानन्तत्वाभ्यां समानी, तयोश्च मध्ये भगवतः प्रश्नसमयो वर्त्तते, स चाविनष्टत्वेनातीते न प्रविशति अविनष्टत्वसाधादनागते क्षिप्तस्ततः समयातिरिक्ता अनागताद्धा भवति, अत एवाह --अनागतकालादतीतः कालः समयोनो भवतीति, (वृ. प. ८८९) ६८. सव्वद्धा णं भंते ! कि संखेज्जाओ तीतद्धाओ पुच्छा । ६९. गोयमा ! नो संखेज्जाओ तीतद्धाओ, नो असंखेज्जाओ तीतद्धाओ, न अणंताओ तीतद्धाओ। ७०. सव्वद्धा णं तीतद्धाओ सातिरेगदुगुणा, ६८. सर्व काल भगवंत जी! स्यू संख्यातो कहेह । __ जेह अतीत अद्धा थकी? इत्यादिक पूछेह ।। ६९. जिन कहै संख्यातो नहीं, अद्धा अतीत थी जेह । असंख अनंतो पिण नहीं, गया काल थी तेह ।। ७०. सर्व अद्धा सह काल ते, काल अतीत थी सोय । दुगुणो समय अधिक वलि, वारू न्याय सुजोय ।। *लय : खुसामवी दातार नों १०० भगवती जोड Jain Education Intemational Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. काल अतीतज छै तिको, सर्व अद्धा थी पेख । अर्द्ध कहीजै तेहन, ऊणो समयो एक ।। बा.-सर्व काल अतीत काल थकी साधिक विमणो छै ते किम ? सर्व काल अतीत अनागत काल द्वय रूप छै । ते भाट अतीत काल थकी एक समय वर्तमान तिणे करी अधिक विमणो हवै। अतीत काल सर्व काल थकी थोड़ो-सो ऊणो अद्ध ऊणपणों ते वर्तमान समय छै तिको ऊणो। ७२. सर्व काल भगवंत जी ! संख्यातो कहेह । ___ जेह अनागत काल थी? इत्यादिक पूछेह ।। ७३. जिन कहै संख्यातो नहीं, काल अनागत थीज । असंख अनंतो पिण नहीं, अनागत थी कहीज ।। ७१. तीतद्धा णं सव्वद्धाओ थोवूणए अद्धे । (श. २५।२७१) वा०-'सव्वद्धा णं तीतद्धाओ सातिरेगदुगुण' त्ति सद्धिा-अतीतानागताद्धाद्वयं, सा चातीताद्धातः सकाशात् सातिरेक द्विगुणा भवति, सातिरेकत्वं च वर्तमानसमयेनात एवातीताद्धा सर्वाद्धायाः स्तोकोन मर्द्ध, ऊनत्वं च वर्तमानसमयेनैव, (व. प. ८८९) ७२. सब्बद्धा णं भंते ! कि संखेज्जाओ अणागयद्धाओ--- पुच्छा । ७३. गोयमा ! नो संखेज्जाओ अणागयद्धाओ, नो असंखेज्जाओ अणागयद्धाओ, नो अणंताओ अणा गयद्धाओ। ७४. सव्वद्धा णं अणागयद्धाओ थोखूणगदुगुणा । ७५. अणागयद्धा णं सव्वद्धाओ सातिरेगे अद्धे । (श० २५४२७२) ७४. सर्व अद्धा सहु काल ते, काल अनागत थीज । दुगुणो तास कहीजिय, समय ऊण लहीज ।। ७५. काल अनागत छै तिको, सर्व काल थकीज । अर्द्ध तास कहिये वली, समय अधिक लहीज ।। सोरठा ७६. उद्देश नै धुर जोय, आख्या छै पर्याय जे । कह्या भेद थी सोय, निगोद भेद प्रतै हिवै ।। निगोद पद ७७. *प्रभु ! निगोदा कतिविधा ? ___ जिन कहै द्विविध कहीव । प्रथम निगोदा शरीर ते, द्वितीय निगोद नां जीव ।। वा०-अनंतकायिक जीव नां शरीर ते निगोदा कहिये ए प्रथम भेद । साधारण नाम कर्म उदयवर्ती जीव ए द्वितीय भेद । ७६. पर्यवा उद्देशकादाबक्तास्ते च भेदा अपि भवन्तीति निगोदभेदान् दशयन्नाह- (वृ. प ८८९) ७८. प्रभ ! निगोदा कतिविधा ? जिन कहै दोय प्रकार । सूक्ष्म निगोदा तथा वली, बादर निगोदा धार । ७७. कतिविहा णं भंते ! निओदा पण्णता? गोयमा ! दुविहा निओदा पण्णत्ता, तं जहानिओयगा य, निओयगजीवा य। (श. २२२७३) वा० ...'निगोदा य' त्ति अनन्तकायिकजीवशरीराणि 'निगोयजीवा य' त्ति साधारणनामकर्मोदयत्तिनो जीवाः । (व. प. ८९०) ७८. निओदा णं भंते ! कतिबिहा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- सुहमनिगोदा य, बायरनिओदा य। ७९. एवं निओदा भाणियव्वा जहा जीवाभिगमे [५२३८६०] तहेव निरवसेसं । (श.२५।२७४) 'जहा जीवाभिगमे' त्ति, अने दं सूचितं-'सुहमनिगोदा ण भंते ! कति विहा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नता, तंजहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य' इत्यादि। (वृ. प. ८९०) ७९. जेम जीवाभिगमे कह्य,भेद निगोद संवादि । भणिवा तिणहिज रीत सू, पज्जत्त अपज्जत्त इत्यादि ।। सोरठा ८०. कह्या निगोदा जोय, तेह जोव पुद्गल तणां । परिणाम भेदज होय, हिव परिणामज भेद प्रति ।। १. दुगुना लय : खुसामदी दातार नों ८०. अनन्तरं निगोदा उक्तास्ते च जीवपुद्गलानां परिणामभेदाद् भवन्तीति परिणामभेदान् दर्शयन्नाह --- (वृ. प. ८९०) शा. २५, उ० ५, ढा० ४४३ १०१ Jain Education Intemational Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम (भाव) पद ८१. *नाम कह्या प्रभु ! कतिविधे ? जिन कहै षट विध नाम । उदयिक जावत जाणवं, सन्निपातिक ताम ।। नमन नाम: परिणामो भाव इति अनर्थान्तरम् । ८२. अथ स्यूं उदयिक नाम थी ? उदयिक दोय प्रकार । उदयिक भेद प्रथम का, उदय-निप्पन्न अवधार ।। ८१. कतिविहे णं भंते ! नामे पण्णत्ते ? गोयमा ! छविहे नामे पण्णत्ते, तं जहा-ओदइए जाव सपिणवाइए। (श. ३५।२७५) ८३. इम जिम शतरम शतक में, प्रथम उद्देशे माण । भाव विस्तार कह्य तिहां, तिमज इहां पिण जाण ।। ८४. नवरं एह नानापणं, शेष तिमज कहिवाय । जाव सन्निपातिक लगै, सेवं भंते ! ताय ।। ८२. से किं तं ओदइए नामे ? ओदइए नामे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-उदए य, उदयनिष्फण्णे य८३. एवं जहा सत्तरसमसए पढमे उद्देसए भावो तहेव इह वि, ८४. नवरं -इमं नामनाणत्तं सेसं तहेव जाव सण्णि- . वाइए। (श. २५।२७६) सेवं भंते ! सेवं भते ! ति । (श. २५।२७७) वा०–'नवरं इमं नाणत्तं' ति सप्तदशशते भावमाश्रित्येदं सूत्रमधीत इह तु नामशब्दमाश्रित्येत्येतावान् विशेष इत्यर्थः। (वृ. प. ८९०) वा०-नवरं ए नानात्व सतरमा शतक नै विषे भाव आश्रयी ए सूत्र का । अन इहां नाम शब्द ए विशेष । ८५. शत पणवीसम नै विषे, पंचमुद्देशक गम्य । उगणीसै चउवीस में, श्रावण सुदि पंचम्य ।। च्यारसौ नै तयांलीसमी, आखी ढाल अमंद । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' परमानंद ।। पंचविंशतितमशते पंचमोद्देशकार्थः ॥२५॥५॥ ढाल ४४४ दूहा १. पंचमुद्देशक अंत में, नाम भेद आख्यात । नाम भेद थी हिव छठे, निग्रंथ भेद कहात ।। २. परूपणा धुर द्वार ए, वेद राग कल्प धार । __ चारित्र फुन परिसेवणा, ज्ञान तीर्थ लिंग सार ।। ३. सरीर क्षेत्रज काल गति, संजम पज्जव उदार । जोग अने उपयोग फुन, कषाय लेश विचार ।। १. पञ्चमोद्देशकान्ते नामभेद उक्तो, नामभेदाच्च निर्ग्रन्थभेदा भवन्तीत्यतस्ते षष्ठेऽभिधीयन्ते । (व. प.८९०) २.१. पण्णवण २. वेद ३. रागे ४. कप्प ५. चरित्त ६. पडिसेवणा ७. नाणे । ८. तित्थे ९. लिंग ३.१०. सरीरे ११. खेत्ते १२. काल १३. गइ १४. संजम १५. निकासे ॥१।। १६,१७. जोगुवओग १८. कसाए १९. लेसा ४. २०. परिणाम २१.बंध २२. वेदे य। २३. कम्मो दीरण ५. २४. उवसंपजहण्ण, २५. सण्णा य आहारे ॥२॥ २७. भव २८. आगरिसे ४. फून परिणामज कर्म-बंध, कर्म प्रतै वेदेह । ___ कर्म तणींज उदीरणा, तेवीसम द्वारेह ।। ५. अंगीकार फुन छांडवो, संज्ञा ने फून आहार । भव वलि इक बहु भव विषे, आवै कितरी वार ।। *लय : ख़सामदी दातार नी १०२ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. २९,३०. कालंतरे य ३१. समुग्धाय ३२. खेत्त ३३. फुसणा य । ३४. भावे ३५. परिमाणे खलु, ३६. अप्पाबहुयं नियंठाणं ॥३।। ७. रायगिहे जाव एवं वयासी ६. कालान्तर समुद्घात फून, खित्त फर्शणा भाव । प्रमाण अल्पबहुत्व ए, निग्गंथाण कहाव ।। निर्ग्रन्थ के प्रकार ७. ए षट-तीसज द्वार करि, निग्रंथ भणी कहेह । नगर राजगृह – विषे, जावत एम वदेह ।। ८. हे भदंत ! निग्रंथ ते, किता परूप्या आप? जिन कहै पंच परूपिया, नाम जूजुआ स्थाप ।। ९. सर्वविरति प्रतिपन्न जे, तेहनै पिण सुविमास । विचित्र चारित्र मोह नीं, क्षयोपशमादि तास ।। १०. तेहथी भेद जुआ-जुआ, मुनिवर नां सुविधान । छठा थी चवदम लगै, कहियै नव गुणस्थान ।। ११. जिन कहै पंच निग्रंथ ते, पुलाक बकुश पिछाण । कुशील नै निग्रंथ फुन, पंचम स्नातक जाण ।। वा० पुलाक - निःसार धान्य नों कण पुलाक नीं परं पुलाक । संजम सार अपेक्षाए तेह संयमवंत थको पिण थोड़ो-सो तेह चारित्र प्रतै असार करतो ते पुलाक १ । बकुस - काबरो ते बकुस इति बकुस । संजम जोग थकी बकुस २ । कुसील -- कुत्सित शील चरण जेहन ते कुशील ३ । निग्रंथ-नीकल्यो ग्रंथ कहिता मोहनीय कर्म थकी ते निग्रंथ ४ । स्नातक --घातिकर्म लक्षण मल-पटल क्षालन थी स्नातक ५। ८. कति णं भंते ! नियंठा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच नियंठा पण्णत्ता, ९,१०. साधवः, एतेषां च प्रतिपन्नसर्वविरतीनामपि विचित्रचारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशमादिकृतो भेदोऽवसेयः, (वृ. प' ८९१) ११. तं जहा-पुलाए, बउसे, कुसीले, नियंठे, सिणाए। (श. २५२२७८) वा०--तत्र 'पुलाय' त्ति पुलाको-निस्सारो धान्यकण: पुलाकवत्पुलाकः संयमसारापेक्षया, सच संयमवानपि मनाक् तमसारं कुर्वन् पुलाक इत्युच्यते, 'बउसे' त्ति बकुश --शबलं कर्बुरमित्यनान्तरं, ततश्च बकुशसंयमयोगाद्वकुशः 'कुसीले' त्ति कुत्सितं शीलं--- चरणमस्येति कुशील: 'नियठे' त्ति निर्गतो ग्रन्थात-- मोहनीयकर्माख्यादिति निर्ग्रन्थ : 'सिणाए' ति स्नात इव स्नातो घातिकर्मलक्षणमलपट लक्षालनादिति । (वृ. प. ८९१) सोरठा १२. तत्र पुलाको द्विविधो लब्धिप्रतिसेवाभेदात् (वृ. प. ८९१) १३. तत्र लब्धिपुलाको लब्धिविशेषवान्, (व. प. ८९१) १२. वृत्तिकार इह रीत, द्विविध पुलाक आखियो। लब्धि पुलाक प्रतीत, द्वितीय का प्रतिसेवना ।। १३. लब्धि-पुलाकज आद, लब्धि विशेषजवन्त जे । पामी शक्ति संवाद, लब्धि-पुलाक कहीजिये ।। वा० -इहां वृत्तिकार कह्यो—संघादिक ने काजै जिणे लब्धे करी चक्रवर्ती प्रति पिण चूर्ण करै तिणे लब्धि करी युक्त ते लब्धिपुलाक जाणवो । अनेरा आचार्य इम कहै- आसेवन थकी जे ज्ञान पुलाक तेहन एहवी लब्धि तेहिज लब्धि पुलाक । तेहथी व्यतिरिक्त कोई अनेरो नथी इति भगवती नी टीका में कह्य । हिवै आसेवना पुलाक आश्रयी प्रथम पन्नवणद्वार कहै छै-- वा०-यदाहसंघाइयाण कज्जे चुन्निज्जा चक्कवट्टिमवि जीए। तीए लडीए जुओ लद्धिपुलाओ मुणेयव्वो ॥१॥ अन्ये त्वाहुः आसेवनती यो ज्ञानपुलाकस्तस्येयमीदृशी लब्धिः स एव लब्धिपुलाको न तद्व्यतिरिक्तः कश्चिदपर इति । आसेवनापुलाक पुनराश्रित्याह - (वृ. प. ८९१) पुलाक निग्रंथ के प्रकार _ *सुण सुखदाणी, ए तो निग्रंथ भाख्या नाणी ।। (ध्रपदं) १४. प्रभु ! केतल भेदे पुलागं? तब भाखै जिन महाभागं । ओ तो परुप्यो पंच प्रकारो, धुर ज्ञान पुलाक विचारो। १५. दर्शण पुलाकज बीजो, फुन चरित्त पुलाकज तीजो। तुर्य लिंग पुलाकज तामो, यथासूक्ष्म पुलाक पंचम नामो।। *लय : सुण चिरताली १४. पुलाए णं भते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा--नाणपुलाए, १५. दंसणपुलाए, चरित्तपुलाए, लिंगपुलाए, अहासुहुम पुलाए नामं पंचमे। (श. २५।२७९) शा० २५, उ० ६, ढा० ४४४ १०३ Jain Education Intemational Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १६. ठाणांग टीका मांहि, पंचम ठाणे अर्थ इम । तृतीय उदेशे' ताहि, कहिये तिण अनुसार थी। १७. स्खलित मिलितज आदि, अतिचार करिकै तिको। ज्ञान आश्रयी वादि, करत असार आत्म प्रति ।। १६. होइ पुलाओ दुविहो लद्धिपुलाओ तहेव इयरो य । ___ लद्धिपुलाओ संघाइकज्जे इयरो अ पंचविहो । (स्था. वृ. प. ३२०) १७. तत्र स्खलितमिलितादिभिरतिचारानमाश्रित्यात्मानमसारं कुर्वन् ज्ञानपुलाकः । (स्था. वृ. प. ३२०) १८. एवं कुदृष्टिसंस्तवादिभिर्दर्शनपुलाकः । (स्था. वृ. प. ३२०) १९. मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनातश्चरणपुलाकः । (स्था. व. प. ३२०) २०. यथोक्तलिंगाधिक ग्रहणात् निष्कारणेऽन्यलिंगकरणाद्वा लिंगपुलाकः । (स्था. वृ. प. ३२०) २१. किचित्प्रमादान्मनसाऽकल्प्यग्रहणाद्वा यथासूक्ष्मपुलाको नाम पंचम इति । (स्था. व. प. ३२०) १८. इणहिज रीत पिछाण, कूदष्टि संस्तव आदि करि । दर्शन आश्रयी जाण, असार करतुं आत्म प्रति ।। १९. मूल उत्तर गुण मांय, प्रतिसेवन ते दोष थी। चरण पुलाक कहिवाय, देश विराधक जाणवू ।। २०. जेम कह्यो छै लिंग, अधिक ग्रहण थो वलि तथा । कारण विना प्रसंग, अलिंग करवा थी कह्य ।। २१. किंचित प्रमाद थीज, अथवा मन करिकै वली। अकल्प ग्रहण थकीज, एह यथासूक्ष्म कह्यो ।। बा० - 'अत्र कोई पूछ-सम्यक्त्व असार करै ते दूजो दर्शन पुलाक कह्यो तो समक्त्व विना पुलाक नियंठो चारित्र किम रहै ? तेहगें उत्तर–ए संपूर्ण सम्यक्त्व नथी गयुं । समदृष्टि नां पज्जवा नी हाण करै। ते हाण नी अपेक्षाय सम्यक्त्व असार करै तथा मन में तो सुद्ध श्रद्ध पिण पाखंडी नी संगति नां बस थकी किणहि बेला वचन द्वार करिक अधर्म नै धर्म कहिवे दर्शण पुलाक हुवै, ते पिण ज्ञानी जाण ।' [ज० स०] बकुश निग्रंथ के प्रकार २२. *हे प्रभु ! बकुश रूप, ओ तो कतिवध आप परूपं ? जिन कहै पंच प्रकारो, धुर आभोग बकुश धारो ।। २२. बउसे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा--आभोगबउसे । सोरठा २३. करै विभूषा जेह, शरीर नै उपकरण नीं। जाणतो सेवेह, एह बकुस आभोग है ।। २४. बकुश उभयविध होय, धुर उपकरणज-बकुश है। द्वितीय भेद अवलोय, शरीर-बकूस कहीजिये ।। २५. तत्र वस्त्र पात्रादि, उपधि विभूषा अनुत्ति छै । एहवं शील संवादि, ते उपकरण-बकुश का ।। २६. मुख कर चरण नखादि, जे तनु नां अवयव तणीं । करै विभूषा बाधि, शरीर-बकुश का तिको ।। २७. ते इम द्विविध होय, तो पिण पंच प्रकार है। आगल कहियै सोय, धुर आभोग बकुश कां ।। २८. *अणाभोग बकुश फुन बीजो, संबुड बकुश का तीजो। असंबुड बकुश आमो, यथासूक्ष्म बकुश पंचम नामो।। *लय : सुण चिरताली १. स्थानांगवृत्ति के पंचम स्थान के द्वितीय उद्देशक में यह बात मिलती है । संभव है जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में तृतीय उद्देशक हो। २३. 'आभोगबउसे' त्ति आभोगः साधूनामकृत्यमेतच्छरी रोपकरणविभूषणमित्येवं ज्ञानं तत्प्रधानो बकुश आभोगबकुशः। (वृ. प. ८९२) २४. बकुशो द्विविधो भवत्युपकरणशरीरभेदात् । (वृ. प. ८९१) २५. तत्र वस्त्रपात्राथुपकरणविभूषानुवर्तनशील उपकरणबकुशः । (व. प. ८९१,८९२) २६. करचरणनखमुखादिदेहावयविभूषाऽनुवर्ती शारीरबकुशः । (वृ. प. ८९२) २७. स चायं द्विविधोऽपि पञ्चविधः, तथा चाह'बउसे ण' मित्यादि। (वृ. प. ८९२) २८. अणाभोगबउसे, संवुडब उसे, असंवुडबउसे, अहासुहुमबउसे नामं पंचमे। (श. २५।२८०) १०४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. अजाणतो सेवेह, उत्तर गुण लोपे ३०. छानं दोष लगाय, सेवं प्रगटज ताय, जेह असंवृत्त वकुश है । ३१. किचित प्रमादवान, अक्षि मलादिक काढतो । शोभा अर्थ जान, तेह यथासूक्ष्म बकुश ॥ ३२. गाथा वृत्ति र मांहि, मूल उत्तर गुण नैं विषे । संवृत वकुश ताहि दोष लगावं विरुद्ध ते ।। ३३. ठाणांग वृत्ति में ताहि, गाथा में आख्यो इसो । मूल उत्तर गुण मांहि, दोष से संबुड बकुश || ३४. ए पि विरुद्ध पिछाण, तास न्याय कहियै अछे । आगल एहं जाण, प्रतिसेवणा द्वार में ॥ ३५. उत्तरगुण रे मांय, बकुश सेवै दोष प्रति । मूलगुणेन लगाय, एहवं सूत्रे वचन छै । सोरठा फुन सहसातपण करी । अनाभोग वकुश तिको ॥ संबुड वकुश ते कं । कह्यं ३६. तिणसूं एह विरुद्ध, भगवती ठाणांग वृत्ति में । गाथा तिका असुद्ध सूत्र देख निर्णय करो ॥ कुशील निग्रंथ के प्रकार ३७. * प्रभु ! कुशील कितलै प्रकारो ? जिन भावे द्विविध धारो । घुर पडिवणा-कुशीलो दूजो कषाय-कुशील समीलो ॥ वा०-हिवं बिहुं नों शब्दार्थ कहै छै— सेवना सम्यग आराधना वली तेनों प्रतिपक्ष एतले असम्यक आराधना ते प्रतिसेवणा । ते प्रतिसेवना करिकै कुशील ते प्रतिसेवना-कुशील । कषाय करिकै कुशील ते कषाय- कुशील । ३८. पडिसेवणा-कुशील भदंतो ! ओ तो कतिविध तास कहंतो ? जिन कहे पंच प्रकारो, घुर ज्ञान पडिसेवण धारो ॥ ३९. दर्पण पडिसेवण बीजो बली चरित पडिवणा तीजो। वल लिंग पडिवणा माणी, यथासूक्ष्म पडिसेवणा जाणी || *लय : सुण चिरताली वा० -ज्ञान पडिसेवणा कशील, दर्शण पडिसेवणा कुशील इत्यादिक सर्व ठिकाणे कुशील कहिवो ज्ञान नीं प्रतिसेवना ते विराधना तेह थकी कुशील ते ज्ञान प्रतिसेवना कुशील । इम अन्य पिण । 1 ज्ञान करिकै उपजीव ते ज्ञान पडिसेवणा कुशील दर्शण करिकै उपजीव ते दर्शण पडिसेवणा कृशील । चारित्र करिके ऊपजीव ते चारित्र पडिसेवणा कृशील लिंग करिकै उपजीवं ते लिंग परिसेवया कुशील संसार नं विषे ए तपस्वी इस सुणी हरणं ते यथासूक्ष्म पविणा कुशीत एहिज अर्थ सोरठिये है करी कहै छै - 1 २९. सहसाकारी अनाभोगबकुश: । ( स्था. वृ. प. ३२० ) ३०. प्रच्छन्न कारी संवृतबकुशः, प्रकटकारी असंवृतबकुशः । (स्वा... प. ३२० ) २१. कमी अक्षिमापनयन् वा वयासूक्ष्मलकुशी नाम पंचम इति । (स्पा. बृ. प. ३२० ) हो । ३२. विवरी (म. बृ. प. ८९२) ३३. मूलोत्तरगुणेषु संवृतः, विपरीतोऽसंवृतो भवति । (स्वा.पु. प. ३२१) ३४, ३५. बउसे णं पुच्छा । गोमा ! पडिमेवए होग्या नो अपडिसेबर होज्जा । जपहिमेवर होज्जा कि मूलगुणपडिए होगा? उत्तरगुणप डिसेबए होज्जा ? गोमा ! नो मूलगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणडिसेवए होज्जा । (भ. श. २५.३०९, ३१० ) ३७. कुसीले णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - पडिसेवणाकुसीले य कसायकुसीले य । (श. २५/२०१) aro - 'पडिसेवणाकुसीले य' त्ति तत्र सेवनासम्यगाराधना तत्प्रतिपक्षस्तु प्रतिषेवणा तया कुशीलः प्रतिमेवमाकुलः 'कसायक्सीले' त्ति कषायैः कुशील वायकुशलः । (बु. प. ०९२) २८. डिसेणा प भने कतिविहे पण ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा नाणपडिसेवणाकुसीले । २९. डिसेणासीले चरितप डिसेवणाकुसीले, लिंगपडि सेवणाकुसीले अहासुहुमप डिसेवणाकुसीले नाम पंचमे । (श. २५।२८२ ) वा०-- 'नाणप डिसेवणाकुसीले' त्ति ज्ञानस्य प्रतिषेवणया कुशीलो ज्ञानप्रतिषेवणातील एवमन्येऽपि । उक्तञ्च "इह नाणासीलो उबजी होइ नाणपभिए । अमुमो पुणे दुस्से एस तबस्सिसिसाए ॥१ श० २५, उ० ६, ढा० ४४४ १०५ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०,४१. नाणादी उवजीवइ अहसुहुमो अह इमो मुणयन्वो। साइज्जतो राग बच्चइ एसो तबच्चरणी ।। (स्था. वृ. प. ३२०,३२१) सोरठा ४०. ज्ञान करीनै जेह, उपजीवन करतो छतो। ज्ञान कुशील कहेह, इमहिज दर्शन चरित्त लिंग ।। ४१. ए तपस्वी जग मांय, एम सुणी नै हरखतो । यथासूक्ष्म कहिवाय, प्रतिसेवना कुशील ए॥ ४२. लिंग पडिसेवण स्थान, किहांइक दीसै छै इसो। तप पडिसेवण जान, ठाणांग वृत्ति विषे कह्य ।। ४३. *कषाय-कुशील भदंतो! प्रभु ! कितै प्रकारै हतो? जिन कहै पंच प्रकारो, ज्ञान कषाय कुशील विचारो।। ४४. दर्शण कषाय कुशील देखायो, चारित्त कषाय कुशील कहायो । लिंग कषाय कुशील संमीलो, यथासूक्ष्म कषाय कुशीलो ।। ४२. नाणे दंसणचरणे तवे य अहसुहुमए य बोद्धव्वे । (स्था. व. प. ३२०) ४३. कषायकुसीले णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा -- नाणकसाय कुसीले। ४४. दसणकसायकुसीले, चरित्तकसायकुसीले, लिंगकसायकुसीले, अहासुहुमकसायकुसीले नामं पंचमे । (श. २५२२८३) सोरठा ४५. चिहुं कषाय करी मील, ज्ञान प्रतेज प्रजुजतो। ज्ञान कषाय कुशील, इमहिज दर्शण लिंग फुन ।। ४६. सराप देतो सोय, चरित्त कषाय कुशील ते। यथासूक्ष्म अवलोय, मन करि क्रोधादिक करै ।। ४५. 'नाण कसायकुसीले' त्ति ज्ञानमाश्रित्य कषायकुशीलो ज्ञानकषायकुशील;, एवमन्येऽपि । इह गाथा ..."णाणंदसणलिंगे जो जुंजइ कोहमाणमाईहिं । सो नाणाइकुसीलो कसायओ होइ विन्नेओ ॥१॥ ४६. चरितमि कुसीलो कसायओ जो पयच्छई सावं । मणसा कोहाईए निसेवयं होई अहसुहुमो ॥२॥ (वृ.प. ८९२) ४७. अहवावि कसाएहि नाणाईणं विराहओ जो उ । सो नाणा इकुसीलो ओ वक्खाणभेएणं ।।३।। (व.प. ८.२) ४७. अथवा जे ज्ञानादि, कषाय करी विराधतो। व्याख्यान भेद करि वादि, आख्यो ज्ञानादिक तणों ।। ४८. भगवती वृत्ति मझार, तेह थकी ए आखियो। वलि ठाणांग विचार, वृत्ति थकी कहिये अछै ।। ४९. क्रोधादिक करि जाण, जे विद्या विज्ञान प्रति । प्रजुजतो पिछाण, ज्ञान कषाय कुशील ते ।। ५०. क्रोधादिक करि ताय, ग्रंथ प्रतैज प्रजंजतो। तेह प्रत कहिवाय, दर्शण कषाय कुशील ते ।। ५१. चरित्त कुशील सराप, लिंग कुशील लिंग फेरवे । क्रोधादिक मन व्याप, यथासूक्ष्म पंचम कह्य ।। निग्रंथ निग्रंथ के प्रकार ५२. *प्रभु ! निग्रंथ कितलै प्रकारो ? जिन भाखै पंच विध सारो। प्रथम समय निग्रंथो, वलि अपढम समय सुतंतो ।। ४९. क्रोधादिना विद्यादिज्ञानं प्रयुञ्जानो ज्ञान कुशीलः । (स्था. वृ. प. ३२०) ५०. दर्शनग्रन्थं प्रयुञ्जानो दर्शनतः ।। (स्था वृ. प. ३२०) ५१. शापं ददद् चारित्रतः, कषायलिंगान्तरं कुर्वन् लिंगत:, - मनसा कषायान् कुर्वन् यथासूक्ष्मः । (स्था वृ. प. ३२०) ५२. नियंठे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा पढमसमय नियंठे, अपढमसमयनियंठे, ५३. चरिमसमयनियंठे अचरिमसमयनियठे, अहासुहमनियंठे नाम पंचमे। (श. २५।२८४) ५३. चरिम समय निग्रंथज चारु, अचरिम समय निग्रंथ उदारु । यथासूक्ष्म निग्रंथो, ओ तो पंचम नाम शोभतो ।। *लय : सुण चिरताली १०६ भगवतो जोड़ Jain Education Intemational Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४,५५. 'पढमसमय नियंठे' इत्यादि, उपशान्तमोहाद्धाया: क्षीणमोहच्छद्मस्थाद्धायाश्चान्तर्महर्त्तप्रमाणाया: प्रथमसमये वर्तमानः प्रथमसमयनिग्रंथः शेषेष्वप्रथमसमयनिर्ग्रन्थः । (वृ. प. ८९२) ५६. एवं निर्ग्रन्थाद्धायाश्चरमसमये चरमसमयनिर्ग्रन्थः शेषेष्वितरः। (वृ. प. ८९२) ५७. सामान्येन तु यथासूक्ष्मेति पारिभाषिकी संज्ञा। (वृ. प. ८९२) सोरठा ५४. अंतमहत प्रमाण, सर्वकाल निग्रंथ नं। वर ग्यारम गुणठाण, अथवा द्वादशमें गुणे ।। ५५. प्रथम समय वर्तमान, पढम समय निग्रंथ जे । शेष समय में जान, द्वितीय भेद अपढम समय ।। ५६. चरिम समय वर्तह, चरिम समय निग्रंथ जे । चरिम समय बिन जेह, अचरिम समय नियंठ ते ।। ५७. यथासूक्ष्म सलहीज, सामान्ये करि पंचमो। संज्ञा आगम कीज, पारिभाषिकी ते कही। वा०-यथासूक्ष्म ए सामान्य करिकै आगम की संज्ञाईज। जे भणी सर्व पुलाकादि भेद नै विष पिण पंचमो भेद यथा सूक्ष्म इम छै तेह थकी इहां पिण निग्रंथ नां भेद नै विष पचमो भेद यथासूक्ष्म । इम वली ते संज्ञा मात्रईज छै पिण अन्वर्थक नहीं। ५८. पुलाक प्रमुख मझार, यथासूक्ष्म पंचम का । तेह थकी अवधार, यथासूक्ष्म निग्रंथ पिण ।। ५९. संज्ञा मात्रज एह, पिण नहिं छै अन्वर्थकः । टीका तणीज लेह, पर्याय थी ए आखियो ।। स्नातक निग्रंथ के प्रकार ६०. *प्रभु ! स्नातक कति भेदेहो ? जिन भाखै पंचविध जेहो । अच्छवी प्रथम भेद कहिये, तसु अर्थ वृत्ति थी लहियै ।। सोरठा ६१. अच्छवि अव्यथक ताहि, स्नातक तणां स्वरूप नै । जाण्यो जायै नाहि, एक आचार्य इम कहै ।। हिवै अन्य आचार्य कहै ते कहै छै-- ६२. छवि योग थी जेह, शरीर प्रति कहिय छवि । तनु योग निरोध करेह, जेहनै नहीं ते अच्छवि ।। वलि अनेरा आचार्य इम कहै६३. खेध सहित व्यापार, तेहनां अस्तिपणां थकी। क्षपी तेह अवधार, तत्-निषेध थी अक्षपी ।। ६४. अथवा घाती च्यार, कर्म खपायां थी पछै । तत्क्षपण अभाव विचार, कहिय तेहनं अक्षपी ।। ६५. *असबल एकांत विशुद्ध, एहवो चारित्र तसु अविरुद्ध । नहिं अतिचार रूप पंको, ए दूजो भेद अवंको ।। ६०. सिणाए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- अच्छवी, ६१. 'अच्छवी' त्ति अव्यथक इत्येके, (वृ. प. ८९२) ६२. छवियोगाच्छवि:----शरीरं तद्योगनिरोधेन यस्य नास्त्यसावच्छविक इत्यन्ये। (बृ. प. ८९२) ६३. क्षपा ---सखेदो व्यापारस्तस्या अस्तित्वात्क्षपी तन्निषेधादक्षपीत्यन्ये । (वृ. प. ८९२) ६४. धातिचतुष्टयक्षपणानन्तरं वा तत्क्षपणा भावादक्षपीत्युच्यते । (वृ. प. ८९२) ६५. असबले 'अशबल:' एकान्तविशुद्धचरणोऽतिचारपङ्काभावात् (वृ. प. ८९२) ६६. अकम्मसे 'अकर्मांशः' विगतघातिकर्मा (वृ. प. ८९२) ६६. अकर्म अंश कहिवाया, च्यारूं घाति कर्म खपाया। भेद कह्यो ए तीजो, हिवै चोथो भेद सुणीजो ।। *लय : सुण चिरताली श०२५, उ०६, ढा०४४४ १०७ Jain Education Intemational Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ संसुद्धनाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली ६७. शुद्ध केवलज्ञान-दर्शण धारी, ए भेद चउथो सूविचारी। अर्हन जिन केवली तीनं, एकार्थ तुर्य भेद सुचीनं ।। वा.... संसुद्ध केवलज्ञान-दर्शणधारी ए चउथो भेद। अनै अर्हा, जिन, केवली ए तीनूं शब्द एकार्थ स्नातक नां चतुर्थ भेद अभिधायक एतल चउथा भेद जिमहीज छ। ६८. अपरिधावी वदीतं, ते कर्मबंध करि रहीतं । ए जोग निरोध न जाणं, पंचम भेद चवदम गुणठाणं ।। वा०- इहां वृत्तिकार कां-उत्तराध्येन' नै विषे अर्हा जिन केवली ए पंचमो भेद कह्य पिण अपरिश्रावी काज नथी। इहां अवस्था नां भेद करिक भेद किणही वृत्ति करता इहां अन अनेरा ग्रन्थ नै विषे न कह्य । तिण प्रकार करिक ईज अम्हन इम जणाय छ - शब्द नय नी अपेक्षा करिकै एहनां भेद जाणवा जोइये । शक्र पुरंदरादिवत इति ए पन्नवण प्रथम द्वार का । निग्रंथ में वेद ६९. पुलाक प्रभु ! अवलोय, स्यूं सवेदे अवेदे होय? जिन कहै सवेदक कहिये, पिण अवेदके नहिं लहिये ।। सोरठा ७०. पुलाकादि त्रिण जेह, उपशम क्षायक श्रेणि नहीं । तिणसू सवेदकेह, पिण ते अवेदके नथी ।। ७१. *जो सवेदके कहिवाय, तो स्त्री वेदे स्यूं थाय? कै पुरुष वेदे पहिछाणी, के पुरुष नपुंसके जाणी? वा० ---'संशुद्धज्ञानदर्शनधरः' केवलज्ञानदर्शनधारीति चतुर्थः अर्हन् जिनः केवलीत्येकार्थ शब्दत्रयं चतुर्थस्नातकभेदार्थाभिधायकम् (व. प. ८९२) ६८. अपरिस्सावी। (श. २५।२८५) 'अपरिधावी' परिश्रवति - आश्रवति कर्म बध्नातीत्येवंशील: परिश्रावी तन्निषेधादपरिश्रावी- अबन्धको निरुद्धयोग इत्यर्थः, अयं च पञ्चमः स्नातकभेदः । (बृ. प. ८९२) वा० --उत्तराध्ययनेषु त्वहन जिन: केवलीत्ययं पञ्चमो भेद उक्त , अपरिश्रावीति तु नाधीतमेव, इह चावस्थाभेदेन भेदो न केनचिद्वत्तिकृतेहान्यत्र च ग्रन्थे व्याख्यातस्तत्र चैवं संभावयामः- शब्दनयापेक्षयतेषां भेदो भावनीयः शक्रपुरन्दरादिवदिति प्रज्ञापनेति गतम्। (वृ. प. ८९२, ८९३) ६९. पुलाए णं भंते ! कि सवेदए होज्जा ? अवेदए होज्जा ? गोयमा ! सवेदए होज्जा, नो अवेदए होज्जा। (श. २०२८६) ७०. 'नो अवेयए होज्ज' त्ति पुलाकबकुशप्रतिसेवाकुशीला नामुपशमक्षपकश्रेण्योरभावात् (बृ. प. ८९३) ७१. जइ सवेदए होज्जा कि इत्थिवेदए होज्जा ? पुरिस वेदए होज्जा ? पुरिसनपुंसगवेदए होज्जा ? गोयमा ! नो इत्थिवेदए होज्जा, पुरिसवेदए होज्जा, पुरिसनपुंसगवेदए होज्जा। (श. २५।२८७) ७२. जिन भाख स्त्री वेदे नाही, हुवै पुरुष वेदके त्यांही। वलि पुरुष नपुंसक वेदे, हुवै एह कृत्रिम तनु खेदे ।। ___सोरठा ७३. वृत्ति विषे इम वाय, स्त्री ने पूलाक लब्धि नां । अभावथीज कहाय, धुर पुलाक नियंठो नथी । ७४. पुरुष छतो अवलोय, जेह नपुंसक वेदको। वद्धितपणादि होय, पिण स्वरूप थी न नपुंसको ।। ७५. *प्रभु ! बकुस सवेदे स्यूं होय, कै अवेदके अवलोय? जिन कहै सवेदके थाय, पिण अवेदके न कहाय ।। ७३. 'नो इत्थिवेयए' त्ति स्त्रिया: पुलाकलब्धेरभावात् । (व. प. ८९३) ७४. 'पुरिसनपुंसगवेयए' त्ति पुरुषः सन् यो नपुंसकवेदको वद्धितकत्वादिभावेन भवत्यसौ पुरुषनपुंसकवेदक: न स्वरूपेण नपुंसकवेदक इतियावत् । (वृ. प. ८९३) ७५. बउसे णं भंते ! कि सवेदए होज्जा ? अवेदए होज्जा? गोयमा ! सवेदए होज्जा, नो अवेदए होज्जा । (श. २५/२८८) ७६. जह सवेदए होज्जा कि इत्थिवेदए होज्जा ? पुरिस वेदए होज्जा ? पुरिसनपुंसगवेदए होज्जा ? ७६. जो सवेदके हुवै सोय, तो स्यं इत्थी वेदके होय? कै पुरुष वेदके पाय, के पुरुष नपुंसक थाय ? * लय : सुण चिरताली १. उत्तराध्ययन में यह प्रसंग नहीं मिला १०८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. जिन कहै स्त्री वेदके मांय, वली पुरुष वेदके पाय । फुन पुरुष नपुंसके समील, इमहिज पडिसेवणा कुशील ।। ७८. कषाय-कुशील भदंत जिन कहै सवेदक जेह ७९. कपाय कुशील हवे सवेदी तेह तथा १. भाखे तब ८१. २. ! स्युं विषेह तथा ८०. जो वेद रहित में हंत, तो स्पं उपशांत वेदे क्षीण वेदे गुण धाम ? इम पूछे इम पूछे जिनराय, सात हु सवेदे सोरठा ९०. एकादशमों छठा सूं अवेदी सवेदके अवेदक में ठाण, द्वादशमों पहिछाण, हुव अथवा द्वं क्षीण वेदे तसु सोरठा ठाण, करण जाण, वेद मोह नीं ८३. नवम सवेदे आदि, वेद मोह तथा खपायां साधि, हुवै अवेदक ८४. उपशम वेदक जाण, तथा क्षीण हवं नवम नवम गुणठाण, उपशम-क्षय वेदक ८५. जो वेद सहित में होय, तो स्पं स्त्री वेदे जिन कहै वकुस जिम एह हुवे तीनूद वेद ८६. हे भगवंत ! निग्रंथ, स्यूं वेद सहित में हुंत ? के वेद रहित में कहियै ? ए गोयम प्रश्न सलहिये || ८७. जिन कहै सवेदके नांहि, ओ तो हुवै अवेदक मांहि । निर्ग्रथ में बे गुणठाण, ओ तो ग्यारम बारम जाण ।। जो हवं अवेदे स्वामी तो स्युं उपशांत वेदे धामी ? के क्षीण वेदे निर्णय ? ए गोयम प्रश्न शोभंत || ८८. , दशमा सोरठा गोतम गोतम ९१. *स्नातक हे भगवन्त ! स्यूं वेद जिम निर्ग्रथ नै ख्यात, तिम *लय : सुण चिरतालो थाय । उपशांत वेदे समझो न्याय अवेदे || पूछंत ? एह || अपूर्व लगे । ति ॥ नवम कथंत ? स्वाम ।। अष्टमे । उदय थी । उपशमावियां । ८९. तब भाव जगनाथ, उपशांत वेदे ख्यात । वली क्षीण वेदे पिण होय, दोनू णि निग्रंथ ने जोय ॥ उपशम वेदक क्षीण वेदक गुण || वेदे इमज । दशम ॥ सोय ? विषेह || ते हुवे । पवर || ? सहित में हुंत स्नातक नों अवदात || ७७. गोमा इविवेदए वा होजा, पुरिसवेदए वा होज्जा, पुरिसनपुंगवेद वा होण्या पडवासीले वि। एवं (. २५/२०९) ७८. सायकुसीले भंते कि सवेदपुच्छा गोयमा ! सवेदए वा होज्जा, अवेदए वा होज्जा । (स. २५।२९०) ७९. 'कसायकुसीले ण' मित्यादि, 'उवसंतवेदए वा होज्जा खीणवेयए वा होज्ज' त्ति सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानक यावत् कषायकुशीलो भवति । ( वृ. प. ८९३) ८०. जइ भवेदए कि उवसंवेदए ? खोगवेदाए होला ? ८१. गोयमा ! उवसंतवेदए वा होज्जा, खीणवेदए वा होज्जा । (श. २५/२९१ ) ८२-८४. स च प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणेषु सवेदः अनिवृत्तिबादरे तूपशान्तेषु क्षीणेषु वा वेदेष्ववेदः स्यात् । (वृ. प. ८९३) ८५. जइ सवेदए होज्जा कि इत्यिवेदए गोमा तिमुवि जहा उसो ८६. नियंठे णं भंते ! किं सवेदए - पुच्छा | पुच्छा । (. २५/२९२) ८७. गोयमा ! नो सवेदए होज्जा, अवेदए होज्जा । (श २५।२९३ ) ८८. जइ अवेदए होज्जा कि उवसंतवेदए- पुच्छा । गोयमा ! उवसंतवेदए वा होज्जा, खीणवेदए वा होना । ( . २५०२९४) होग्या बीजनेयए ना होज' ति श्रेणिद्वये निर्ग्रन्थत्वभावादिति । (बृ. प. ०९३) ९. ९१. सिणाए णं भंते ! कि सवेदए होज्जा० ? जहा नियंठे वहा सिगाए वि श० २५, उ०६, ढा० ४४४ १०९ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२. नवरं विशेषज यांही, ओ तो उपशांत-वेदे-नांही। क्षीण-वेदे ए होय, तास न्याय अवलोय ।। वा०—क्षपक श्रेणि नै विषे ईज नवमै गुणठाणे हीज क्षीण-बेदक थयो। पछै दशम बारमै जइ स्नातकपणुं तेरमै चवदमै पाम्यूं ते माट स्नातक क्षीणवेद हुवे, पिण उपशमवेदक नथी २ । ९३. पणवीसम छठा नों देशो, च्यारसौ चमालीसमी एसो। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय, सुख 'जय-जश' हरष सवाय ।। ९२. नवरं—नो उवसंतवेदए होज्जा, खीणवेदए होज्जा। (श. २५।२९५) वा०-'नो उवसंतवेयए होज्जा खीणवेयए होज्ज' त्ति क्षपकश्रेण्यामेव स्नातकत्वभावादिति । (वृ. प. ८९३) ढाल :४४५ निर्ग्रन्थ में राग १. पुलाक हे भगवंत ! तथा वीतरागे हुवै ? स्यूं राग-सहित में होय । राग-रहित ते जोय ।। १. पुलाए णं भंते ! कि सरागे होज्जा ? वीतरागे होज्जा? सोरठा २. सराग ते सकषाय, दशमा गुणठाणा लगे। वीतराग कहिवाय, अकषायी ग्यारम थकी ।। २. 'पुलाए णं भंते ! किं सरागे' त्ति सराग —सकषायः । (वृ. प. ८९४) ३. गोयमा ! सरागे होज्जा, नो वीतरागे होज्जा । एवं जाव कसायकुसीले । (श. २५।२९६) ४. नियंठे णं भंते ! किं सरागे होज्जा-पुच्छा। दूहा ३. जिन कहै राग सहीत में, हुवै पुलाक समील । वीतराग में नहीं हुवै, इम जाव कषायकुशील ।। ४. निग्रंथ हे भगवंत ! स्य, राग-सहित में होय । __के वीतराग माहै हुवै ? अमल प्रश्न अवलोय ।। ५. जिन भाखै सुण गोयमा ! एह सरागे नांहि । हवै वीतरागेज ए, अकषायी रै मांहि ।। ६. जो हुवै वीतरागे प्रभु ! तो स्यूं उपशांत-कषाय । वीतराग छै तेह में? ए निग्रंथज ताय ।। ७. अथवा क्षीण-कषाय जे, वीतराग छै ताय । तेह विषेज हुवै अछ ? ए निग्रंथ सुहाय ।। ८. जिन भाखै सुण गोयमा ! जे उपशांत-कषाय । वीतराग छ तेह में, ए निग्रंथज थाय ।। ९. फून जे क्षीण-कषाय छ, वीतराग जग माय । तेह विषे पिण है अछ, ए निग्रंथ सुहाय ।। १०. इमहिज स्नातक जाणवू, नवरं विशेष जोय । उपशम-कषाय में नहीं, क्षीण-कषायी होय ।। ५. गोयमा ! नो सरागे होज्जा, वीतरागे होज्जा। (श. २५।२९७) ६. जइ वीतरागे होज्जा कि उवसंतकसायवीतरागे होज्जा ? ७. खीणकसायवीतरागे होज्जा? ८. गोयमा ! उवसंत कसायवीतरागे वा होज्जा, ९. खीणकसायवीतरागे वा होज्जा । १०. सिणाए एवं चेव, नवरं-नो उवसंत कसायवीतरागे होज्जा, खीणक सायवीतरागे होज्जा । (श. २५।२९८) ११० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ग्रन्थ में कल्प ११. "हे भगवंत ! पुलाक सुजोय, स्यूं स्थितकल्पे होय रे निग्रंथ निहालो । के अस्थिकल्प विषे अवलोय, जिन कहै बिकल्पे होय रे । निग्रंथ निहालो || सोरठा १२. प्रथम चरम जिन संत, स्थितकल्प कहिये तसु । अस्थितकल्पज त जिन बावीस विदेह मुनि ।। 1 वा -इहां वृत्तिकार कह्य – प्रथम- पश्चिम तीर्थकर नां साधु अचेलकादि दस पद नैं विषे स्थित हीज हुवै, तेहनों अवश्य पालन करवा थकी ते स्थितकल्प कहिवाय तेहमें पुलाक होय । मध्यम तीर्थकर नां साधु ए कल्प में स्थित अन 1 अस्थित बेहूं होय, इति अस्थितकल्प कहिवाय । तेहमें पिण पुलाक होय । १३. * एवं जावत स्नातक जाणी, अस्थितकल्पे माणी रे । अथवा जिनकल्पादि तीन प्रकार, हिवै तसु प्रश्न उदार रे ।। १४. हे भगवंत ! पुलाक स्यूं एह स्पं जिनकल्प विपेह रे ? के स्थविरकल्प विषे ते पाय ? के कल्पातीत विषे भाय रे ? ।। १५. प्रभु कहै जिनकल्पेन होय, स्थविरकये हुये सोय रे । कल्पातीत विषे हुवे नाहि, धारो विमल न्याय दिल मांहि रे ।। सोरठा १६. छद्मस्थ जिन आचार, तेह सरीखुं कल्प तसु । से जिणकल्पे सार स्थविरकल्प अन्य मुनि तणों ॥। १७. ए बिहं कल्प थकीज, अन्य विषेज रह्या जिके । कल्पातीत कहीज, एह शब्द नो अर्थ है । १८. *कुरा पूछयां जिन कहै सोय, जिनकल्पे ते होय रे । अथवा स्थविरकल्प विषे लहिये, कल्पातीत विषे नहीं कहिये रे ।। १९. पविणाकुशील महिज जाणो वकुश जेम पिछाणो रे । जिनकल्पे स्थविरकल्पेह, कल्पातीत विषे न कहेह रे ।। २०. कषायकुतील तणी हिव पृच्छा, जिन कहै सुण धर इच्छा रे 1 तथा स्थविरकल्पी उदारू रे ।। हूँ जिनकल्पविषे ए वारू, * लय : समजू नर विरला ११. पुजाए कि ठिक होला ? अट्टिक होना ? गोयमा ठिपकये जायकवा होज्जा | वाक्यादिषु दशसु पदेषु प्रथमपश्चिमतीर्थङ्करसाधवः स्थिता एव अवश्यं तत्पालनादिति तेषां स्थितिकल्पस्तत्र वा पुलाको भवेत्, मध्यमतीर्थमाधवस्तु तेषु स्थिताश्वास्थिताश्वेत्य स्थित कल्पस्तेषां तत्र वा पुलाको भवेत्, (बृ. प. ०९४) (श. २५/२९९ ) १३. एवं जाव सिणाए । १४. पुलाए णं भंते ! कि जिणकप्पे होज्जा ? थेरकप्पे होता ? कपातीते होना ? १५. गोयमा ! नो जिणकप्पे होज्जा, थेरकप्पे होज्जा, तो पाती होना (श. २५/३०० ) १५. बउसे गं पुच्छा । गोवमा ! जिणले वा होया पेरकप्पे वा होता, नो कृप्पातीते होज्जा । १९. एवं पडिसेवणाकुसीले वि। (श. २५/३०१ ) २०. सायमीले णं पुच्छा । गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा, थेरकप्पे वा होज्जा, श० २५, उ० ६, ढा० ४४५ १११ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. अथवा कल्पातीत विषे होय, इहां वृत्ति विषे अवलोय रे । छद्मस्थ जिन जे कषाय सहीत, ते कषायकुशील कल्पातीत रे ।। २२. निग्रंथ पूछयां कहै जिनराय, जिनकल्पे नहीं थाय रे । स्थविरकल्पे पिण नहीं निग्रंथ, कल्पातीत विषे हंत रे ।। २१. कप्पातीते वा होज्जा। (श. २५।३०२) कल्पातीते वा कषायकुशीलो भवेत्, कल्पातीतस्य छद्मस्थस्य तीर्थकरस्य सकषायित्वादिति । (वृ. प. ८९४) २२. नियंठे णं--पूच्छा । गोयमा ! नो जिणकप्पे होज्जा, नो थेरकप्पे होज्जा, कप्पातीते होज्जा। सोरठा २३. पंचम ए निग्रंथ, जिनकल्प स्थविरजकल्प नों। तास धर्म नहिं हुंत, कल्पातीत विषेज है। २३ 'नियंठे ण' मित्यादी 'कप्पातीते होज्ज' त्ति निग्रंथः कल्पातीत एव भवेद् यतस्तस्य जिनकल्पस्थविर कल्पधा न सन्तीति । (वृ. प. ८९४) २४. एवं सिणाए वि। (श. २५।३०३) २५. पुलाए णं भंते ! कि सामाइयसंजमे होज्जा? छेओवट्ठावणियसंजमे होज्जा? परिहारविसुद्धियसंजमे होज्जा ? २६. सुहमसंपरागसंजमे होज्जा ? अहक्खायसंजमे होज्जा ? २७. गोयमा ! सामाइयसंजमे वा होज्जा, छेओवट्ठा वणियसंजमे वा होज्जा, २८. नो परिहारविसुद्धियसंजमे होज्जा, नो सुहमसंपराग संजमे होज्जा, नो अक्खायसं जमे होज्जा। २४. *स्नातक पिण इमहिज कहिवाय, धुर बिहुं कल्पे नांय रे। एपिण कल्पातीत विषेह, तेरम चवदम गुण गेह रे ।। निर्ग्रन्थ में चारित्र २५. हे भगवंत ! पुलाक स्यूं तेह, हुवै सामायिक चारित्र विषह रे । के छेदोपस्थापनिक पावै, कै पडिहारविशुद्ध में थाव रे ? २६. के सूक्ष्मसंपराय जे चरित्त, तेह विषे सुकथित्त रे? __ कै यथाख्यात चारित्र विषे जाणी, पुलाक नियंठो पिछाणी रे ? ।। २७. जिन कहै सामायिक में थाय, वलि छेदोपस्थापनिक मांय रे । पुलाक लब्धि फोड़े ए दोइ, जद पुलाक नियंठो होइ रे ।। २८. परिहारविशुद्ध विषे नहिं थाय, सूक्ष्मसंपराय विषे नाय रे । यथाख्यात चारित्र विषे न होइ, पुलाक लब्धि न फोड़े तीनोंइ रे ।। २९. बकुश नैं पिण कहिवं एम, कुशील पडिसेवणा पिण तेम रे। है धुर दोय चारित्र विषे एह, नहीं ह त्रिण चरित्त विषेह रे ।। ३०. कषायकुशील पूछयां जिन कहिये, सामायिक नै विषे लहिये रे । जाव सूक्ष्मसंपराय में थाय, यथाख्यात चारित्र विष नांय रे ।। ३१. निग्रंथ पूछयां कहै जिनराय, सामायिक नै विष नाय रे । जाव सूक्ष्मसंपराय में नाय, ___ यथाख्यात चारित्र विषे पाय रे ।। वा० इग्यारमें गुणस्थाने उपशम चारित्र छै अनै बारमें गुणस्थाने क्षायिक चारित्र छ ए बिहं निग्रंथ छै ते यथाख्यातचारित्रिया छ ते माट निग्रंथ यथाख्यात *लय : समजू नर विरला २९. एवं बउसे वि । एवं पडिसेवणाकुसीले वि । (श, २५।३०४) ३०. कसायकुसीले णं - पुच्छा । गोयमा ! सामाइयसंजमे वा होज्जा जाव सुहुमसंपरागसंजमे वा होज्जा, नो अहक्खायसंजमे होज्जा। (श. २५॥३०५) ३१. नियंठे णं पुच्छा। गोयमा ! नो सामाइयसंजमे होज्जा जाब नो सुहुमसंपरागसंजमे होज्जा, अहक्खायसजमे होज्जा । (श. २५।३०६) ११२ भगवती जोड़ Jain Education Intenational Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. एवं सिणाए वि। (श. २५।३०६) चारित्र नै विष का अन तेरमें चवदमें गुणठाणे पिण यथाख्यात चारित्र छ तेहन विषे स्नातक पावै ते हिवै कहै छ .. ३२. स्नातक पिण कहिवो छै एम, निग्रंथ ने कह्य तेम रे । चारित्रद्वार पंचम इम सारं, हिव पडिसेवणा अधिकार रे ।। निर्ग्रन्थ में प्रतिसेवना ३३. पुलाक प्रभु ! प्रतिसेवणा होय? दोष लगाव सोय रे । के अप्रतिसेवक कहिवाय? दोष लगावै नाय रे ।। ३४. जिन भाख पडिसेवक होय, दोष लगावै सोय रे । अप्रतिसेवक नहीं छै एह, दोष रहित न कहेह रे ।। वा० संजम प्रतिकूल अर्थ नै संज्वलन कषाय ना उदय थकी सेवक ते प्रतिसेदक एतलै दोष नों सेवणहार संजम विराधक इत्यर्थ । ३३. पुलाए णं भंते ! कि पडिसेवए होज्जा? अपडिसेवए होज्जा? ३४. गोयमा ! पडिसेवए होज्जा, नो अपडिसेबए होज्जा। (श. २५।३०७) वा० - 'पडिसेवए' ति संयमप्रतिकूलार्थस्य सज्वलनकषायोदयात्सेवकः प्रतिसेवकः संयमविराधक इत्यर्थः (व प. ८९४) ३५. जइ पडिसेवए होज्जा कि मूलगुणपडिसेवए होज्जा ? उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा ? ३६. गोयमा ! मूलगुणपडिसेवए वा होज्जा, उत्तरगुण पडिसेवए वा होज्जा। ३५. जो प्रतिसेवक एह पुलाक, सेवै दोष किपाक रे। तो स्यूं मूल गुण प्रतिसेवक वेवी ? के उत्तरगुण प्रतिसेवी रे? ।। ३६. श्री जिन भाख मूलगुण मांहि, दोष लगावै ताहि रे । तथा उत्तरगुण पडिसेवक थावै, उत्तरगुण में दोष लगावैरे ।। ३७. जे मूलगुण प्रतिसेवक थातो, मूलगुण में दोष लगातो रे। आश्रव पंच हिंसादिक पेख, त्यां मांहिलो सेवै एक रे ।। वा० .. मूलगुण प्राणातिपात-विरमणादिक तेहनै प्रतिकलपण करी सेवक एतल पंच महाव्रत नों विराधक ते मूल गुण प्रतिसेवक हुवे । जे पंच महाव्रत देश थकी विराधे, तप तथा छेद आवै तेहवो दोष सेव्यां छठो गुणस्थान रहै पिण विराधक साधु कहिये अन पंच महाव्रत सर्व थकी विराध्यां नवी दिक्षा आवे तेहवो दोष सेव्यां छठो गुणस्थान फिरै । ३८. उत्तरगुण प्रतिसेवक थातो, उत्तर गुण मांहे दोष लगातो रे । दश पच्चक्खाण माहे कोइ एक, त्याग भांगै सुविशेख रे ।। ३७. मूलगुणे पडिसेवमाणे पंचण्हं आसवाणं अण्णयरं पडिसेवेज्जा, वा० --'मूलगुणपडिसेवए' त्ति मूलगुणा:-.. प्राणातिपातविरमणादयस्तेषां प्रातिकूल्येन सेवको मूलगुणप्रतिसेवकः, (वृ. प.८९४) ३८. उत्तरगुण परिसेवमाणे दसविहस्स पच्चक्खाणस्स अण्णयरं पडिसेवेज्जा। (श. २५:३०८) सोरठा ३९. अनागत अतिक्रत, कोडीसहिय प्रमुख दश । जे पच्चक्खाणज तंत, दोष लगावै तेहमें ।। ४०. अथवा नवकारसी सार, वली पोरसी आदि दे। वर पच्चक्खाण उदार, भांग कोइक तेह प्रति ।। ४१. पिंडविशुद्धि आद, उपलक्षण भी तेहमें । दोष लगाय विराध, संभावियै छै इम वृत्ती ।। ४२. *गोयम प्रश्न बकुश नों कीधो, दीय श्री जिन उत्तर सीधो रे। बकूश प्रतिसेवक थाय, पिण अप्रतिसेवक नांय ।। *लय : समजू नर विरला ३९. तत्र दविधं प्रत्याख्यानं 'अनागतमइक्कत कोडी सहिय' मित्यादिप्राग्व्याख्यातस्वरूपम् (बृ. प. ८९४) ४०. अथवा 'नवकारपोरिसीए' इत्याद्यावश्यक प्रसिद्धम् 'अन्नयरं पडिसेवेज्ज' त्ति एकतरं प्रत्याख्यानं विराधयेत्, (व. प. ८६४) ४१. उपलक्षणत्वाच्चास्य पिण्डविशुद्धयादिविराधकत्वमपि संभाव्यत इति । (वृ. प. ८९४) ४२. बउसे णं-पुच्छा। गोयमा ! पडिसेवए होज्जा, नो अपडिसेवए होज्जा। (श. २५।३०९) श० २५, उ०६, ढा०४४५ ११३ Jain Education Intemational Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. जइ पडिसेवए होज्जा कि मूल गुणपडिसे वए होज्जा ? उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा ? ४४. गोयमा ! नो मूलगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणपडि सेवए होज्जा। ४५. उत्तरगुणे पडिसेवमाणे दसविहस्स पच्चक्खाणस्स अण्णयरं पडिसेवेज्जा। ४६. पडिसेवणाकुसीले जहा पुलाए। (श. २५।३१०) ४७. कसायकुसीले णं-पुच्छा । गोयमा ! नो पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होज्जा। ४८. एवं नियंठे वि । एवं सिणाए वि। (श. २५॥३११) ४३. जो बकुश ए प्रतिसेवक लहिये, कांइ दोष सहित तसु कहिये रे । स्य मूलगुण माहै दोष लगाय? कै सेवै उत्तरगुण मांय रे?।। ४४. श्री जिन भाखै मूलगुण मांहि, दोष लगावै नांहि रे । उत्तरगुण प्रतिसेवक थाव, दोष उत्तरगुण में लगावै रे ।। ४५. उत्तरगुण प्रतिसेवक थातो, उत्तरगुण मांहे दोष लगातो रे। दविध पच्चक्खाण में कोइ एक विराधे जे अविवेक रे ।। ४६. प्रतिसेवणा कुशील ए तीजो, जिम पुलाक का तिम लीजो रे । मूलगुण ने उत्तरगुण मांय, ए पिण दोन में दोष लगाय रे ।। ४७. कषायकुशील तणी हिव पृच्छा, जिन कहै सुण धर इच्छा रे । ए प्रतिसेवक तो नहिं होय, अप्रतिसेवक जोय रे ।। ४८. निग्रंथ पिण इमहिज कहीजे, स्नातक पिण इम लीजै रे । एह छठा द्वार रै माय, कहुं कषायकुशील नों न्याय रे ।। सोरठा कषायकुशील की अप्रतिसेवकता ४९. अप्रतिसेवक ख्यात, कषायकुशील नै प्रभ ! ए किणविध अवदात, दोष रहित किम आखियो? ५०. प्रथम द्वार रै मांहि, कषायकुशील पंचविध । ज्ञानादिक में ताहि, सेवै दोष कषाय करि ।। ५१. ए चरित्त कषायकुशील, अर्थ कियो वृत्तिकार इम। दीय सराप कुमील, ए पिण दोष प्रत्यक्ष है ।। ५२ मन करि करै क्रोधादि, अहासुहम नों अर्थ इम । वृत्ति विषे संवादि, ए पिण प्रतिमेवकपणुं ।। ५३. वलि पटतीसज द्वार, तेह विषे आगल इस । कहिसै जिन जगतार, कहियै छै ते सांभलो ।। ५४. लेशद्वार रै मांहि, कषायकुशील ने विषे । षट लेश्या कही ताहि, धुर त्रिहुं लेश असुद्ध छै ।। ५५. शरीर द्वार मझार, कषायकुशील नै विषे । शरीर पंच प्रकार, वैक्रिय आहारक तनु करै ।। ५६. समुद्घात फुन द्वार, तेह विषे इम आखियो। कषायकुशील मझार, केवल वर्जी पट कही ।। ५७. तेजु लब्धि फोड़त, वैक्रिय आहारक फोड़वै। दोष प्रत्यक्ष ए इंत, पाठ देख निर्णय करो ।। ५८. फुन तीजे शतकेह, तुर्य उद्देशे भगवती। वैक्रिय माई करेह, पिण अमाई नहिं करै ।। ५९. विना आलोयां तेह, का, विराधक वीर जिन । वैक्रिय दोष लहेह, कषायकुशील ने विषे ।। ११४ भगवती जोड ५८. से भंते ! कि माई विकुब्बइ ? (भ. ३॥१९०) ५९. माई णं तस्स ठाणस्म अणालोइयपडिक्कने कालं करेइ ... (भ. ३।१९२) Jain Education Intemational Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. सोलम शतके वाय, प्रथम उद्देशे भगवती । आहारक तनु निपजाय, प्रमाद आश्रयो अधिकरण ।। ६०. जीवे णं भंते ! आहारं सरीरं निव्वत्तेमाणे कि अधिया रणी पुच्छा। गोयमा ! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि । से केणठेणं जाव अधिकरणं पि? गोयमा ! पमायं पडुच्च। (भ. श. १६२३,२४) ६१. (पन्नवणा ३६७१,७३,७७) ६१. वलि पन्नवणा माहि, पद छत्तीसम नै विषे । वैक्रिय तेजू ताहि, समुद्घात आहारक कियां ।। ६२. जघन्य क्रिया है तीन, उत्कृष्ट पंच क्रिया हुवै ।। कषायकुशील चीन, पंच क्रिया उत्कृष्ट इम ।। ६३. वली चउवीसम द्वार, तेह विष इम आखियो । कहिये ते विस्तार, चित्त लगाई सांभलो ।। ६४. तजी कषायकुशील, पुलाकपणूंज आदरै। बकुशपणू समील, पडिसेवणा कुशील है। ६५. निग्रंथ में फुन आय, बलि असंजमपणू आदरै। संजमासंजम थाय, ए षट स्थान अंगीकर ।। ६६. कषायकुशील जेह, अप्रतिसेवक जो हवै। तो संजम तज एह, श्रावकपणूं किम आदरै ।। ६७. साधुपणां ने भंग, श्रावकपणंज आदरै। प्रत्यक्ष दोष प्रसंग, कषायकुशील नै विषे ।। वा०- कोइ कहै - निग्रंथ दोष न लगाव ते मार्ट अप्रतिसेवक कह्य तिम कषायकुशील पिण अप्रतिसेवक छै ते माटै ए पिण दोष न लगावै । तेहर्नु उत्तर --- चउवीसम द्वारे कह्य निग्रंथपणुं तजी स्नातक में आवै, कषायकुशील में आवै अने असंजम में आवै । निग्रन्थ में इग्यारमों बारमों ए बे गुणठाणा पावै । जिवार बारमा थी तेरमें गुणठाणे जाय तब स्नातकपणुं अंगीकार कियो। अन इग्यारमा थी दशमें गुणठाणे आयां कषायकुशीलपणुं अगीकार कियो अनै इग्यारमें आउखो पुरो कियां अनुत्तर विमान में ऊपजै जिवार असं जम प्रति अंगीकार कर ते निर्पथपणां नै विषे अप्रतिसेवक हुवै। अनं कषायकुशील छ ठिकाणे आवै तिणमें पुलाकादिक प्रति अंगीकार कर तथा संजमासंजम प्रति आदरं ए साधुपण भांगी श्रावक थयुं ते प्रत्यक्ष प्रतिसेवक छ । अथवा निग्रंथ में वैक्रिय तेजु आहारक समुदघात न पावै, असुभ लेश्या पिण नधी अन कषायकूशील में केवलवर्जी छ समुद्घात छै तिणमें वैक्रिय तेजु आहारक समुद्घात पिण पावै, कृष्णादिक लेश्या पिण पावै, अनै नित्य पडिकमणो पिण करै, ते माट प्रतिसेवक छै इति । ६८. वलि श्रुत द्वारे जन्न, भणे कपायकुशील ए। जघन्य अष्ट प्रवचन्न, उत्कृष्ट पूर्व चवद प्रति ।। ६९. दृष्टिवाद धर सार, वचन खलायां मुनि भणी । हसवो नहीं तिवार, दशवैकालिक अष्ट में ।। ६९. आयारपण्णत्तिधरं दिदिबायमहिज्ज गं । वइविक्खलियं नच्चा न तं उवहसे मुणी ।। (दस. ८१४९) ७०. कषायकुशील मांय, ज्ञान दोय त्रिण चिहं कह्या। मनपज्जव इण न्याय, कषायकुशील नै विषे ।। ७१. धुर त्रिहुं नियंठ माय, मनपज्जव बर्यो प्रभु । कषायकुशीले पाय, ज्ञान द्वार सप्तम विषे ।। श० २५, ल०६, ढा० ४४५ ११५ Jain Education Intemational Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. तए णं से भगवं गोयमे आणंदं समणोवासयं..." णो चेव णं एमहालए। (उवा. ११७७) ७३. तए णं से भगव मायमे" " अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जइ। (उवा. १८२) ७२. चउदश पूर्व धार, चिउं नाणी गोतम गणी। आनंद घरे तिवार, ते पिण वचन खलाविया ।। ७३. आलोवण त्यां लीध, प्रायश्चित लीधो वली। देखो पाठ प्रसीध, कषायकुशील तेह विषे ।। ७४. धुर त्रिहुं निग्रंथ मांहि चउद पूर्व चिहुं ज्ञान नहीं। आहारक शरीर नाहि, इणहिज उदेशक विषे ।। ७५. चउदश पूर्वाधार, चिहुं नाणी पिण उभय टक । करै पडिकमणो सार, ते पिण दोष तणों सही ।। ७६. चिहुं ज्ञानी रै मांहि, कृष्णादिक षट लेश हूं। सतरम पद में ताहि, तृतीय उदेशे पन्नवणा ।। ७६ कण्हलेस्से ण भंते ! जीवे कतिसु नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा च उसु वा नाणेसु होज्जा ...एवं जाव पम्हलेस्से । सुक्कलेस्से णं भंते ! ..... (पण्णवणा १७४११२,११३) ८३. से कि तं मापज्जवनाणं?.... गोयमा ! अपमत्तसंजयसम्मदिट्टि [नंदी सू० २३] ७७. इत्यादिक वच जोय, प्रतिसेवक पिण एह छै। मुनि नों श्रावक होय, तो अधिको स्यूं दोष वलि ।। ७८. अप्रतिसेवक ख्यात, ते दीक्षा लेतो छतो। कषायकुशीले आत, ते धुर तणी अपेक्षया ।। ७९. अथवा पुलाक आम, बकुश नं पडिसेवणा । ए तीन तज ताम, आवै कषायकुशील में । ८०. तिण वेलां पिण तेह, अपडिसेवक छै तिको। पुलाकादिक नों जेह, दंड लेइ नै शुद्ध हुवै ॥ ८१. पुलाक प्रमुखज तीन, पडिवजतो प्रतिसेवका। सेवै दोष मलीन, नहीं है अप्रतिसेवका ।। ८२. कषायकुशील तेम, पडिवजतो ते काल में । अप्रतिसेवक एम, पिण प्रतिसेवक नहिं तदा ।। ८३. वर मनपज्जव नाण, अप्रमत्त में ऊपजै । नंदी सूत्रे जाण, प्रमत्त नै उपज नथी ।। ८४. पर्छ छठे गुणठाण, मनपज्जव पावै अछ । पिण ऊपजतां जाण, अप्रमत्त नेज कह्यो प्रभु ।। ८५. कषायकुशील तेम, ते पिण पडिवजतां छतां । अप्रतिसेवक एम, पिण प्रतिसेवक नहीं है ।। ८६. पछे कषायकुशील, प्रतिसेवक पिण है तिको। समुद्घात षट मील, षट लेश्या संज्ञा चिहुं ।। ८७. वैक्रिय आहारक जेह, तेज लब्धी फोड़वै । फुन संजम तज तेह, श्रावकपणूंज आदरै ।। ८८. कषायकुशील मांय, जोग चवद पाव वली। शरीर पांचूं पाय, प्रत्यक्ष ए प्रतिसेवको ।। ८९. पडिवज्जण कालेह, कषायकुशील नियंठो। अप्रतिसेवक तेह, एहवं न्याय जणाय छै ।। ९०. अथवा अप्रमत्त जाण, सप्तम थो दशमां लगे । फुन छट्ठ गुणठाण, अत्यंत विशुद्ध पज्जवधर ।। ९१. अप्रतिसेवक तेह, ते पिण जाणे केवली। पिण तेज़ आदि फोड़ेह, ए तो प्रत्यक्ष दोष है ।। ११६ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२. गोयमा !..." संवुडे सुविणं पासति अहातच्चं पासति । (भगवती श. १६८१) ९२. स्वप्न यथातथ्य जेह, देखे संबुडो मुनि । शतक सोलमें एह, छठे उद्देशे भगवती ।। ९३. वृत्तिकार इम ख्यात, अतिहि विशिष्ट संवृत्त । करिवो ग्रहण सुजात, तिमहिज ए पिण जाणवू ।। ९४. दीक्षा लेतां ताय, हुवै कषायकुशील तब । इम पडिवजतां पाय, ते अप्रतिसेवकपणं ।। ९५. पुलाकादि तज ताम, आवै कपायकशील में । ____ अति विशिष्ट परिणाम, अप्रतिसेवक ह तदा । ९६. इण न्याये करि जोय, अप्रतिसेवक ए हुवै । फुन अन्य न्याय कोइ होय, ते पिण जाणे केवली ।।' (ज. स.) ९७. *बेसी छपन अंक नुं देश न्हाल, च्यार सौ पैंतालीसमी ढाल रे। भिक्खु भारीमाल ऋषिराय पसाय, 'जय-जश' हरष सवाय रे ।। ढाल : २४६ निर्ग्रन्थ में ज्ञान १. पुलाक हे प्रभुजी ! हुवे, कितरा ज्ञान विषेह ? जिन कहै बे वा त्रिण विषे, लेखो तास सुणेह ।। २. बे ज्ञाने थातो थको, मति श्रुत ज्ञान विषेह । त्रिण ज्ञाने थातो थको, मति श्रुत अवधे लेह ।। ३. बकुश ने पिण इमज फुन, पडिसेवणाकुशील । इणहिज रीत कहीजिय, बे त्रिण ज्ञाने मील ।। ४. कषायकुशील नी पृच्छा, जिन कहै बे ज्ञानेह । तथा ज्ञान त्रिण में विषे, वा चिहुं ज्ञान विषेह ।। ५. बे ज्ञाने थातो थको, मति श्रुत ज्ञाने जेह । त्रिण ज्ञाने थातो थको, मति श्रुत अवधि विषेह ।। १. पुलाए णं भंते ! कतिसु नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा होज्जा । २. दोसु होमाणे दोसु आभिणिबोहियनाणसुयनाणेसु होज्जा, तिसु होमाणे तिसु आभिणिबोहियनाण सुयनाण-ओहिनाणेसु होज्जा। ३. एवं ब उसे वि । एवं पडिसेवणाकुसीले वि । (श. २५।१३०) ४. कसायकुसीले णं ---पुच्छा। गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा होज्जा। ५. दोसु होमाणे दोसु आभिणिबोहियनाण-सुयनाणेसु होज्जा, तिसु होमाणे तिसु आभिणिबोहियनाण सुयनाण-ओहिनाणेसु होज्जा, ६. अहवा तिसु होमाणे आभिणिबोहियनाण-सुयनाण मणपज्जवनाणेसु होज्जा, ७. चउसु होमाणे चउसु आभिणिबोहियनाण-सुयनाण ओहिनाण-मणपज्जवनाणेसु होज्जा। ८. एवं नियंठे वि। (श. २५२३१३) सिणाए णं--पुच्छा। गोयमा ! एगम्मि केवलनाणे होज्जा। (श. २५॥३१४) ६. अथवा वलि त्रिण ज्ञान जे, आभिनिबोधिक सोय। श्रुत अरु मनपज्जव विषे, कषायकूशील होय ।। ७. चिहुं ज्ञाने थातो थको, मति श्रुत अवधे सोय । फुन मनपज्जव नै विषे, कषायकूशील होय ।। ८. कहिवो इम निग्रंथ में, स्नातक पृच्छा जेह । जिन भाखै है गोयमा! इक केवलज्ञान विषेह ।। *सय : समजू नर विरमा २० २५, उ० ६, ढा० ४४५,४४६ ११७ Jain Education Intemational I Use only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० --आभिनिबोधिकादिक ज्ञान ना प्रस्ताव थकी ज्ञान विशेषभूत श्रुत विशेषण करिक चितवतो थको कहै छ। ९. पुलाक हे भगवंत जी ! कितलो भणे सिद्धांत ? जिन भाखै गुण गोयमा ! सूत्र पठन वृत्तांत ।। १०. पुलाक जघन्य थकी पढे, नवम पूर्व नों इष्ट । तृतीय आचार वत्थू लगै, नव पूर्व उत्कृष्ट ।। ११. बकुश नीं पूछा कियां, जिन कहै जघन्य सुइष्ट । प्रवचन माता अष्ट हि, दश पूर्व उत्कृष्ट ।। वा०-इहां आठ प्रवचन जघन्य थकी भणे, इम कां । ते आठ प्रवचनमाता रूप सिद्धांत अर्थ थकी भण जे तीन आगम नै अर्थागम का । ते भणी चारित्र नै आठ प्रवचनमात पालणारूपपणां थकी तेह चारित्रवंत नै अष्ट प्रवचनमातृ जाणवै करी अवश्ये भावि चारित्र नै ज्ञानपूर्वकपणां थकी ते अष्ट प्रवचनमाता नो जाणपणुं अर्थ थकी जाणियो जोइये । जे ईर्याई जोय चालवं, भाषा विचारी निरवद्य बोलवू इत्यादिक पंच समित तीन गुप्त नुं जाणपणुं ए सावज्ज निरवद्य नी ओलखणा, ते जघन्य थकी जाणियो जोइये। पिण जे उत्तराध्येन नै विषे प्रवचनमातृ नाम २४वां अध्ययन ते गुरूपणां थकी बली अतिहि विशिष्ट श्रुतपणां थकी जवन्य थकी न हुवे । ए श्रुत नों प्रमाण बाहुल्य आश्री जाणवो । जे भणी मासतुषादिक नै विषे पिण विघट नहीं । a1०-आभिनिबोधिकादिज्ञानप्रस्तावात् ज्ञानविशेषभूत श्रुतं विशेषेण चिन्तयन्नाह ---- (वृ. प. ८९५) ९. पुलाए णं भते ! केवतियं सुर्य अहिज्जेज्जा ? गोयमा! १०. जहणेणं नवमस्स पुवस्स ततियं आयारवत्) उक्कोसेणं नव पुवाई अहिज्जेज्जा । (श. २५।३१५) ११. बउसे -पुच्छा । गोयमा ! जहणणं अट्ठ पवयणमायाओ, उक्कोसेणं दस पुवाई अहिज्जेज्जा। वा.-'जहन्नेणं अट्ठ पबयणमायाओ' त्ति अष्टप्रवचनमातृपालनरूपत्वाच्चारित्रस्य तद्वतोऽष्टप्रवचनमातृपरिज्ञानेनावश्यं भाञ्यं, ज्ञानपूर्वकत्वाच्चारित्रस्य, तत्परिज्ञानं च श्रुतादतोऽष्टप्रवचनमातृप्रतिपादनपरं श्रुतं बकुशस्य जघन्यतोऽपि भवतीति, तच्च 'अटुण्डं पवयणमाईणं' इत्यस्य यद् विवरणसूत्रं तत्संभाव्यते, यत्पुनरुत्तराध्ययनेषु प्रवचनमातृनामकमध्ययन तद्गुरुत्वाद्विशिष्टतरश्रुतत्वाच्च न जघन्यतः संभवतीति, बाहुल्याश्रयं चेदं श्रुतप्रमाणं तेन न माष तुषादिना व्यभिचार इति (व. प. ८९५) १२. एवं पडिसेवणाकुसीले वि। (श. २५।३१६) १२. पडिसेवणाकुशील पिण, बकुश नी परि इष्ट । प्रवचनमाता अष्ट धुर, दश पूर्व उत्कृष्ट ।। १३. कषायकुशील नी पृच्छा, धुर अठ प्रवचनमात । उत्कृष्ट पूर्व चवद फुन, इम निग्रंथज ख्यात ।। १३. कसायकुसीले पुच्छा । गोयमा ! जहण्णणं अट्ट पवयणमायाओ, उक्कोसेणं चोद्दस पुव्वाई अहिज्जेज्जा । एवं नियंठे वि। (श. २५१३१७) १४. सिणाए-पुच्छा। गोयमा ! सुयवतिरित्ते होज्जा। (श. २५॥३१८) १५. पुलाए णं भंते ! किं तित्थे होज्जा ? अतित्थे होज्जा? १४. स्नातक नीं पूछा कियां, जिन उत्तर इम है। श्रुतव्यतिरिक्तज ए हुवै, केवलज्ञानी एह ॥ निग्रन्थ तीर्थ में या अतीर्थ में *म्हारा देव दिवाकर ज्ञान सुधाधर वोर ने जिनिंद मोरा, जुगति गोयम नी जोड़ हो ।। (ध्रुपदं) १५. पुलाक हे भगवंत जी! जिनिंद मोरा, तेह तीर्थ स्! होय हो? अथवा अतीर्थ ते हुवै ? जिनिंद मोरा, गोयम प्रश्न सुजोय हो। १६. श्री जिन भाख तीर्थ हुवै मुनिंद मोरा, जेह अतीर्थ न होय हो । इमहिज बकुश जाणवू मुनिंद मोरा, पडिसेवणा इम जोय हो । * लय : सीहल नृप कहे चंद ने १६. गोयमा ! तित्थे होज्जा, नो अतित्थे होज्जा। एवं बउसे वि । एवं पडिसेवणाकुसीले वि । (श. २५॥३१९) ११८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० - सिद्धांतनुं नाम तीर्थं धर्म स्थानके कह्यो । ते सिद्धांत सघन आधार छै ते संघ छतं तीर्थ हुवै । १७. कपायकुतील तणी पृच्छा मु०, तब भावं जिनराय हो । अमु०, अथवा अतीर्थ सुधाय हो । तीर्थ वह वा० - कषायकुशील नियंठे गोतमादिक साधु हुवै तेह्नीं अपेक्षाय करिक तीर्थ हुये। अने ती विछेद येते ते तीर्थंकर की अनेरा प्रत्येक पिण हुवै इण हेतु थकी ते प्रत्येक बुद्ध री अपेक्षाय करिकै अतीर्थ हुवै इम कह्यं 1 १८. जो अतीर्थ तेह हुवै अछे, जिनिंद मोरा स्यूं तीर्थंकर होय हो । प्रत्येकबुद्ध हुवै अछे ? जि०, ए प्रश्न अतीर्थ नुं सोय हो । १९. जिन है तीर्थंकर हुवै मु०, अथवा प्रत्येकबुद्ध हो । इमहिज निर्गंध पिण अच्छे मु०, इमहिज स्नातक शुद्ध हो । वा० पायी निवडे गोतमादिक साहु ति हुवै, छद्मस्थ अवस्था नै विषे तीर्थंकर कपालकुशील हुवै, तीर्थ-विच्छेद थये छते तीर्थंकर थकी अनेरा प्रत्येकबुद्ध पिण तिण अपेक्षा करती हु म कहां तेलिंग दोय प्रकारे द्रव्य लिंग अने भाव लिंग । तिहां भाव लिंग ज्ञान, दर्शण, चारित्र । इहां ज्ञान, दर्शन ने भाव लिंग कह्या ते चारित्र सहित ज्ञान, दर्शन भाव लिंग जाणवुं । ए ज्ञानादिक स्वलिंग ईज, ज्ञानादिक भाव अरिहंत नां साधु नैं हीज हुवे । द्रव्य लिंग दोय प्रकारे स्वलिंग अन परलिंग | तिहां स्वलिंग रजोहरणादिक अने पर लिंग दोय प्रकारे अत्यतीर्थिक लिंग ग्रहस्थ लिंग से भी एहिज कहै छे 1 निर्ग्रन्थ में लिंग अपेक्षा कर तीर्थ तेहनी अपेक्षया अनं कषायकुशील हुवं । २०. पुलाक हे भगवंत जी ! जि०, स्यूं स्वलिंगे होय हो ? के अन्योलग विषे हवं ? जि०, के गृहिलिंगे सोय हो ? २१. जिन कहै द्रव्य लिंग आश्रयी मु०, स्वलिंगे हुवै एह हो । अथवा अन्यति हुवे मु० अथवा गृहिलिंग विषेह हो । 1 वा० त्रिविध लिंग नै विषे पिण हुवं । चारित्र परिणाम कोइ नैं न हुवै ते मार्ट द्रव्य लिंगे चारित्र नुं निश्चय नथी । गृहीलिंग नैं विषे चारित्र परिणाम लाभ ते पुलाक तीनूं लिंग नै विषे हुवे । जे कारण थकी स्वलिंग, अन्यलिंग, कारण थकी द्रव्यलिंग आश्रयी २२. भाव लिंग ने आश्रयी मु०, निश्वं स्वलिंगे होय हो । एवं जावत जाणवुं मु०, स्नातक लग अवलोय हो । निर्ग्रन्थ में शरीर २३. प्रभु! पुलाक हुवे कित तनु विधे ? मु०, ओदारिक तेजस वली मु०, जिन कहै तीन विषेह हो । कार्मण विषे कहेह हो || तब भाखे जिनराय हो । तीन शरीर विषे हुवै मु०, अथवा चिहुं विषे थाय हो ॥ २४. बकु नी पूछा कियां मु०, वा. 'तित्थे' त्ति सङ्घ सति, १७. कसायकुसीले पुच्छा । गोयमा ! तित्थे वा होज्जा, अतित्थे वा होज्जा । (श. २५०३२० ) (4.4. =2x) १०. अतित्वे होगा कि तिरकरे होना पडे हो ? १९. गोयमा ! तित्थकरे वा होज्जा, पत्तेयबुद्धे वा होज्जा । एवं नियंठे वि । एवं सिणाए वि । (२५.३२१) वा० 'कसायकुसीले 'त्यादि कषायकुशीलश्छद्मस्थावस्थायां तीरोऽपि स्वादतस्तदपेक्षया तीर्थव्यवच्छेदे च तदन्योऽप्यसौ स्यादिति तदन्यापेक्षया च 'अतित्थे वा होजे' लुभ्यते, ( वृ० प० ८९५) वा० लिङ्गद्वारे लिङ्गं द्विधा द्रव्यभावभेदात् तत्र च भावलिङ्ग - ज्ञानादि एतच्च स्वलिङ्गमेव, जानादिभावस्यातानामेव भावा द्रव्यतितु - स्वलिङ्गपरलिङ्गभेदात्तस्वरित्रोहरणादि पर दिया कृतीस्थि हि ( वृ० १० ८९५) २०. पुलाए णं भंते ! कि सलिंगे होज्जा ? अण्णलिंगे होज्जा ? गिहिलिंगे होज्जा ? २१. गोयमा ! दव्वलिंगं पडुच्च सलिंगे वा होज्जा, अण्णलिंगे वा होज्जा, गिहिलिंगे वा होज्जा | बा० त्रिविधऽपि भवेद द्रव्यनिज्ञानपेक्षत्वाचचरणपरिणामस्येति । (बु०प०८९५) २२. भावलिगं पडुच्च नियमं सलिंगे होज्जा सिणाए । एवं जाव ( ० २५।३२२) २३. पुलाए णं भंते ! कतिसु सरीरेसु होज्जा ? गोवमा ! तमु ओरालिया कम्मए होगा। ( ० २५०३२३) २४. बउसे णं भंते ! – पुच्छा । गोयमा ! तिसु वा चउसु वा होज्जा । श० २५, उ० ६, ढा० ४४६ ११९ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. तान विषे थातो थको मु०, ओदारिक विषे हुंत हो। तेजस ने कार्मण विषे मु०, हुवै बकुशज संत हो ।। २६. च्यार विषे थातो थको मु०, ओदारिक वैक्रियेह हो । तेजस ने कार्मण विषे मु०, इम पडिसेवणा लेह हो ।। २७. कषायकुशील तणी पृच्छा मु०, तीन तनु विष होय हो । अथवा ह च्यार तनु विषे मु०, तथा पंच तनु विषे जोय हो ।। २८. तीन विषे थातो थको मु०, ओदारिक अवलोय हो । तेजस ने कार्मण विषे मु०, एह त्रिहं विषे होय हो ।। २९. च्यार विषेज थातो थको मु०, ओदारिक वैक्रियेह हो । तेजस नै कार्मण विषे मु०, एह चिहं विषे लेह हो । ३०. पांच विषे थातो थको मु०, ओदारिक वैक्रियेह हो । आहारिक नै तेजस विषे मु०, वलि कार्मण नैं विषेह हो।। ३१. निग्रंथ में स्नातक वली मु०, पुलाक जिम कहिवाय हो। ओदारिक तेजस वली मु०, कार्मण तनु विषे थाय हो । निर्ग्रन्थ किस क्षेत्र में ३२. पुलाक स्यूं भगवंत जी ! जि०, कर्मभूमि विषे होय हो ? कै अकर्मभूमि विषे ? जि०, गोयम प्रश्न सुजोय हो ।। ३३. जिन कहै जन्म अनें वली मु०, छता भाव आश्री ताहि हो। कर्मभूमि में विषे हवै मु०, अकर्मभूमि विषे नांहि हो । २५. तिसु होमाणे तिसु ओरालिय-तया-कम्मएसु होज्जा, २६. चउमु होमाणे चउसु ओरालिय-वे उब्विय-तेयाकम्मएसु होज्जा । एवं पडिसेवणाकुसीले वि । (श २५॥३२४) २७. कसायकुसीले पुच्छा। गोयमा ! तिसु वा चउसु वा पंचसु वा होज्जा। २८. तिसु होमाणे तिसु ओरालिय-तेया-कम्मएसु होज्जा, २९. चउसु होमाणे च उसु ओरालिय-वे उब्विय-तेया कम्मएसु हाज्जा, ३०. पंचसु होमाणे पंचसु ओरालिय-वेउब्विय-आहारग तेया-कम्मएसु होज्जा। ३१. नियठो सिणाओ य जहा पुलाओ। (श. २५१३२५) वा०----जन्म कहितां ऊपजवा आश्रयी, संतिभावं कहिता छता नों भाव ते आश्रयी नै पुलाक कर्मभूमि नै विषे जन्म पामै अनै कर्मभूमि नै विषेज विहार कर पिण अकर्मभूमि नै विषे न ऊपज। अकर्मभूमि नै विषे ऊपना नै चारित्र नां अभाव थकी तिहां वर्ते पिण नहीं। पुलाक नियंठा वाला नों तिहाँ जन्म नथी। अने छता भाव कहितां तिहां विहार पिण नथी, वर्तं पिण नथी, पुलाक लब्धि नै विषे वर्तमान नै देवादिके संहरवा नां अभाव थकी। ३४. बकुश पूछयां जिन कहै मु०, जन्म छता भाव आश्रयी थाय हो। कर्मभूमि ने विषे हुवे मु०, अकर्मभूमि विषे नाय हो । ३२. पुलाए णं भंते ! कि कम्मभूमीए होज्जा ? अकम्म भूमीए होज्जा? ३३. गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुच्च कम्मभूमीए होज्जा, णो अकम्मभूमीए होज्जा। (श. २५॥३२६) वा.---'जम्मणसंतिभावं पडुच्च' त्ति जन्म -- उत्पादः सद्भावश्च -विवक्षितक्षेत्रादन्यत्र तत्र वा जातस्य तत्र चरणभावेनास्तित्वमेव""कर्मभूमो भवेत्, तत्र जायते विहरति च तत्रैवेत्यर्थः, अकर्मभूमौ पुनरसौ न जायते तज्जातस्य चारित्राभावात्, न च तत्र वर्तते, पुलाकलब्धौ वर्तमानस्य देवादिभिः संहर्तुमशक्यत्वात् । (वृ. प. ८९५,८९६) ३४. बउसे णं पुच्छा । गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुच्च कम्मभूमीए होज्जा, नो अकम्मभूमीए होज्जा। वा० बकुशसूत्रे 'नो अकम्मभूमीए होज्ज' त्ति अकर्मभूमौ बकुशो न जन्मतो भवति स्वकृतविहारतश्च, (व.प. ८९६) ३५. साहरणं पडुच्च कम्मभूमीए वा होज्जा, अकम्मभूमीए वा होज्जा । एवं जाव सिणाए । (श. २५॥३२७) वा.-परकृतविहारतस्तु कर्मभूम्यामकर्मभूम्यां च संभवतीत्येतदेवाह -'साहरणं पडुच्चे' त्यादि, इह च संहरणं - क्षेत्रान्तरात् क्षेत्रान्तरे देवादिभिर्नयनम् । (वृ. प. ८९६) / . वा० --बकुश नों प्रश्न ऊपजवो तथा छता भाव प्रतै आश्रयी नै कर्मभूमि नै विषेज हुवै अकर्मभूमि नै विषे जन्म थकी तथा स्व कृत विहार थकी पिण न हुवै । ३५. तथा साहरणज आश्रयी मु०, कर्मभूमि विषे होय हो। अथवा अकर्मभूमि विषे मु०, इम जाव स्नातक अवलोय हो। वा०-तथा संहरणक क्षेत्रांतर थकी बीजा क्षेत्रांतर नै विषे जो देवादिक उपाड़ी मूकै तो ते आश्रयी नै पर कृत विहार कर्मभूमि नै विषे तथा अकर्मभूमि नै विषे पिण संभवै । इम यावत स्नातक लगै कहिवं । इहां स्नातक नो साहरण कह्यो ते केवली नों साहरण किम हुवै ? तेहनों उत्तर-जे छठे गुणठाणे छतां साहरण कीधो देवादिके उपाड़ी अनेरे क्षेत्रे मूक्यो तिहां क्षपकश्रेणि चढी केवल पायो इण न्याय स्नातक नों साहरण संभवै । १२० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ग्रन्थ किस काल में ३६. पुला म्यूं भगवत जी ! जि०, अवसर्पिणी काले थाय हो ? अथवा उत्सर्पिणी ने विषे ? जि० तथा अवउत्सपिणी नांय हो ? वा० ओसप्पिणी कहितां आउखो तथा अवगाहना घटता जाइ ते अवसर्पिणी काल कहिये तेहने विषे हुवे अथवा आउखो अवगाहना वधता जाय ते उत्सर्पिणी तेहने विषे हुवे ? अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी एबे काल भरत, एरवत नैं विषे हुवै। तथा नहीं अवसर्पिणी काल नहीं उत्सर्पिणी काल ते महाविदेह हेमंतादि क्षेत्र में विषे हुवे ? इति प्रश्न । ३७. जिन भाखं सुण गोयमा ! मु०, अवसर्पिणी काल में मु०, ३८. अथवा नहीं अवसर्पिणी मु०, पुलाक संत निहाल हो । फुन उत्सर्पिणी काल हो ।। उत्सर्पिणी पिण नांहि हो । क्षेत्र महाविदेह मांहि हो ।। तेह काल ने विषे हुवे मु०, ३९. जो है अवसर्पिणी काल में जि०, तो स्यूं सुषमसुषमा कालेह हो ? के सुषमा काल विषे हुवे ? जि०) ४०. कै सुषमदुस्समा नैं विषेह हो ? दुस्समसुषमा काले हुवे ? जि०, हवे ? जि० के दुःपमा काले होय हो ? के दुस्समदुस्समा काले हुबै जि०, गोयम प्रश्न सुजोय हो । ४१. जिन भाखै जन्म आश्रयी मु०, सुषमसुषमा काले नांय हो । ए अवसर्पिणी काल नों मु०, प्रथम अरो कहिवाय हो । ४२. सुषमा का पिन नहीं हुवे मु०, द्वितीय अरक विषे नांय हो । सुषमदुस्समा फाले हुवे मु०, ए तृतीय अरक विषे थाय हो । ४३. दुःषमसुषमा काले हुवै मु०, एह तुर्य विषे हुंत हो । दुस्समा काले नहीं मु०, ए पंचम अरो वृतंत हो ॥ ४४. दुस्समदुस्समा काले नहीं हुवै मु०, ए छठा अरा में न होय हो । ए अवसर्पिणी काल में मु०, जन्म आश्रयी जोय हो । ४५. छता भाव नैं आश्रयी मु०, अवसर्पिणी नें विषेह हो । सुषमसुषमा काले नहि हुवै मु०, सुषमा काले न कहेह हो । ४६. सुषमदुस्समा काले हुवै मु०, दुस्समसुषमा काले थाय हो । दुःषमा काल विषे हुवै मु०, दुस्समदुस्समा विषे नांय हो । वा० अवसर्पिणी नां तीजा चोथा पंचमा अरा नैं विषे छता भाव आश्रयी हुवै । तिहां चथा अरा नैं विषे जन्म्यो थको पंचमा अरा नै विषे पुलाक ने विषे वत्र्त्ते । ते भणी अवसर्पिणी ने पंचमें अरे छता भाव आश्रयी पुलाक नियंठो को पिण पुलाक नां धणी नुं जन्म पंचमें अरे नथी । अनैं अवसर्पिणी तीजे, चथे अरे पुलाक नां धणी नो जन्म पिण हुवै अनं छता भाव आश्रयी पिण हुवै । ४७. जो उत्सर्पिणी का के दुःषमा का हवं जि०, तो स्यूं दुस्समादुस्समेह हो ? ? जि०, के दुस्समसुषमा कालेह हो ? ३६. पुलाए णं भंते! कि ओसप्पिणिकाले होज्जा उस्सप्पिणिकाले होज्जा ? नोओसप्पिणि-नोउस्सप्पिणिकाले वा होज्जा ? वा. - त्रिविधः कालोऽवसप्पिण्यादिः, तत्राद्यद्वयं भरत रावतयोस्तृतीयस्तु महाविदेहादिषु ( वृ. प. ८९७) ३७. गोयमा ! ओसप्पिणिकाले वा होज्जा, उस्सप्पिणिकाले वा होज्जा, ३८. नोओसप्पिणि-नोउस्सप्पिणिकाले वा होज्जा । ३९. ओपिकाने होगा कि होगा ? सुसमाकाने हो ? होना ? (श. २५ । ३२८ ) समसमाका समकाले ४०. समसपाकाले होना? दुस्समाका होना ? दुस्समदुस्समाकाले होज्जा ? ४१. गोयमा ! जम्मणं पडुच्च नो सुसमसुसमाकाले होण्या 1 ४२. ना होना, सुसमदुमाकाने वा सुसमाकाले होज्जा, ४३. मा या होना, नो दुस्समाकाले होना. ४४ नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा । ४५. संतिभावं पडुच्च नो सुसमसुसमाकाले होज्जा, नो सुसमाकाले होज्जा, ४६. सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा, दुस्समसुसमाकाले वा होग्या दुस्समाकाले वा होण्या, नो दुस्समदुतमाकाने हो ( श २५ ३२९ ) वा० - अवसप्पिण्यां सद्भावं प्रतीत्य तृतीयचतुर्थ पञ्चमारकेषु भवेत्, तत्र चतुर्थारके जातः सन् पञ्चमेऽपि वर्त्तते, तृतीयचतुर्थारके सद्भावस्तु तज्जन्मपूर्वक इति (बृ. प. ८९७) ४०. जर उसपिणिकाने होउना कि दुस्समदुस्समाकाले होज्जा ? दुस्समाकाले होज्जा ? दुस्समसुसमाकाले होम्ना ? ०५, उ० ६, ० ४४६ १२१ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. कं सुषमदुस्समा काले हुवे ? जि०, के हुवं सुषमा काल हो ? के काले सुषमसुषमा काले हुव ? जि०, अनुक्रमे षट न्हाल हो ॥ ४९. जिन भा जन्म आश्रयी मु०, उत्सर्पिणी में जोय हो । दुस्समदुस्समा काले नहीं हवं मु०. ५०. तथा दुस्सममुषमा काले हुवे मु०, दुस्समा काले जन्म होय हो । सुषमदुस्समा काले होय हो । सुषमा का हुवे नहीं, सुषमसुषमा नहीं कोय हो । ५१ छता भाव प्रति आश्रयी मु०, ते उत्सर्पिणी मांय हो । दुषमसुषमा काले नहीं हुवै मु०, दुषमा काले नहीं थाय हो || ५२. दुस्सममुषमा काले हुवे मु०, सुपमदुमा काले पाय हो । सुषमा काल विषे नहीं हुवं मु०, सुषमसुषमा काले नांय हो । सोरठा ५३. उत्सर्पिणी न जाण, । ए त्रिहुं विषे पिछाण, ५४. द्वितीय अरक रे अंत, तृतीय चरण धारंत, ५५. तृतीय तु अरकेह अंगीकार द्वितीय तृतीय फुन तुर्य अर जन्म आश्रयी जिन कह्यो । जन्म या जे पुरुष नैं । हुवे पुलाक नियंठको || जन्म अनें चारित्र पिण । करेह, हुवे पुलाकपणुं तदा || आश्रित, उत्सर्पिणी अद्धा विषे । तीजे तुर्य कथित, चारित्र पुलाक इम दुवे ॥ ५६. छता भाव जन्म हुवै, पिण दीक्षा न हुवं । जे वा० - उत्सर्पिणी नां बीजा अरा नै विषे भणी तीजा अरा नै विषे तीन वर्ष साढा आठ मास गये छते प्रथम तीर्थंकर नुं जन्म । ते गृहस्थावास रही दीक्षा लेई केवल उपजायां पर्छ च्यार तीर्थ थापे । तिवारं बीजा अरा नुं जन्मियो कोई दीक्षा लेइ, पुलाक नियंठो हुई । अनं तीजा चोथा अरा नैं विषे तो पुलाक नां धणी नुं जन्म पिण हुवै अनैं छता भावपणो पिण हुवे । ५७. * जो अवर्सावणी उत्सर्पिणी जि०, ए बेहुं काल जिहां नांय हो । ते विदेह तथा युगल क्षेत्र में जि०, त्यां अरक नहीं पलटाय हो । ५८. तो सुषमासुषमा सरीखो जिहां जि०, देव उत्तरकुरु जोय हो । अवसर्पिणी पर अरा जिसो जि० तिहां पुलाक स्यूं होय हो ? 1 ५९. कै सुषमा सदृश्य काल नें विषे जि०, हरिवर्ष रम्यक खेत्त हो । ए द्वितीय अरक सरीखो तिहां जि०, पुलाक हुवै छै तेत्थ हो ? ६०. के सुषम- दुस्समा सदृश्य नैं विषे जि०, एम एरणवत खेत्त हो । पुलाक नियंठ हुवै तेत्थ हो ? ए तीजा अरक सरीखो तिहां जि०, *लय : सहल नृप कहे चन्द ने १२२ भगवती जोड़ ४८. काले होना? माने होता ? समकाले होजा ? ४९. गोयमा ! जम्मणं पडुच्च नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा, दुस्समाकाले वा होज्जा, ५०. दुस्सम सुसमा काले वा होज्जा, सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा, नो सुसमाकाले होज्जा, नो 'सुसम सुसमाकाले होज्जा | ५१. सतिभाव पहुच नो दुस्समदुवाका होण्या, मो दुस्समा हा ५२ दुस्समसुसमाकाले वा होज्जा, सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा, नो सुसमाकाले होज्जा, तो सुममसुसमाकाले होगा। (श. २५/३३० ) ५२. उत्साद्वितीयतृतीयचतुर्वश्वरत्रेषु जन्मतो भवति, (वृ. प. ८९७) ५४. तत्र द्वितीयस्यान्ते जायते तृतीये तु चरणं प्रतिपद्यते, (बु. प. ८९७) १५. तृतीयचतुर्वयोस्तु जायते चरणं प्रतिपद्यत इति (बृ. प. ८९७) ५६. सभा पुनः तृतीयचतुर्वयोरेव तस्य सत्ता, तयोरेव चरणप्रतिपत्तेरिति ( वृ. प. ८९७) ५७. जइ नोओमप्पणि-नोउस्सप्पिणिकाले होज्जा ५६. समसमापतिमा होना ? 'मुपलमा' ति सुषमसुषमाया प्रतिभाग:--- सादृश्यं यत्र काले स तदा स देवकुरूत्तरकुरु ( वृ. प. ८९७) ५९. सुसमापलिभागे होज्जा ? एवं सुषमाप्रतिभागो हरिवर्षरम्पकवर्थेषु (बु.प. ८९७) ६०. सुसमदुस्समापलिभाने होगा ? सुषमादुपमाप्रतिभागो मतेषु ( वृ. प. ८९७ ) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. के दुस्सम-सुषमा सदृश्य में विषे जि०, महाविदेह रे मांग हो । ए चोथा अरक सरीखो तिहां जि०, एह पुलाकज थाय हो ? ६२. जिन भा जन्म आथवी मु०, छता भाव आश्रयी जोय हो । सुषमसुषमा सदृश्य ने विर्ष जि०, एह पुलाक न होय हो ।। ६३. सुषमा सदृश्य विषे नहीं हुवे मु०, सुषमदुस्समा सदृणेह हो। तेह काल में विषे वली मु० एह पुलाक न लेह हो । सोरठा ६४. एअरक सरीस, मिथुनक न हूँ पुलाक जगीस, ६५. साहरण पिण नहि होय, पुलाक वर्तमान में जोय, देवादिक नहि अकर्मभूमि खित्त । छता भाव आश्रया ।। लब्धि ने विषे। संहरे ॥ जन्म वा० - पुलाक लब्धि फोड़वे ते वेला पुलाक लब्धि नै विषे वर्त्तमान कहियै, ते काले पुलाक नियंठो कहिये जे मार्ट जिहां देवादि हरणे करी पि नहीं । पुलाक लब्धि नैं विषे वर्तमान नं ते वेला देवादिक संहरवा नैं असमर्थपणां थकी । ६६. * दुस्समसुषमा सदृश्य नैं विषे मु०, महाविदेह क्षेत्र मांय हो । जन्म छता भाव आश्रयी मु०, तिहां पुलाकज थाय हो । वा० - दुस्समसुषमा सरीखो काल महाविदेह क्षेत्र ने विषे हुवै तिहां जम्म आश्रयी तथा छता भाव आश्रयी ने पिण हुवै । ६७. *कुश तणीं पूछा कियां मु०, तब भाखे जिनराय हो । अवसर्पिणी का तथा मु०, उत्सर्पिणी विषे याव हो । ६८. अथवा अवसर्पिणी नहीं जिहां मु०, उत्सर्पिणी तिहां नांय हो । तेह काल ने विषे वली मु०, वकुश नियंठो थाय हो । ६९. जो अवसर्पिणी काले हुवे जि० तो स्यं सुषमसुषमा कालेह हो । कुश हुवै भगवंत जी ! जि०, इत्यादि प्रश्न पूछेह हो । ७०. जिन भाखं जन्म आश्रयी मु० छता भाव आश्रयीत हो । सुपमसुषमा काले नहीं हुवे मु०, सुषम काले न संगीत हो । ७१. सुषमदुस्समा काले हुवै मु०, तथा दुस्समसुषमा काले थाय हो । अथवा दुस्समा काले हुवे मु०, दुस्समदुस्समा विषे नांय हो । ७२. देवादि संहरण आश्रयी मु०, अनेरो कोइ इक काल हो । अरक सरीखो अद्धा जिहां मु०, तिहां वकुश हुवे न्हाल हो । ७३. जो उत्सर्पिणी का हवं जि०, तो स्यूं दुस्समदुस्समा काल हो । वकुश हुवे भगवंत जी ! जि०, इत्यादि प्रश्न विशाल हो । ७४. जिन भा जन्म आश्रयी मु०, दुस्समदुस्समा काने नांय हो । जेम पुलाक विधे कहां मु०, तिम यहां पिण कहिवाय हो । ७५. छता भाव प्रति आश्रयी मु०, दुस्समदुस्समा काले नांय हो । हम पुलाक छतं भाव करि कहां मु०, तेम इहां पिण थाय हो । *लय सहल नृप कहे चंद नं ६१. दुविभागे होता? दुष्यमसुषमाप्रतिभागी महाविदेहेषु ( प. ८९७) ६२. गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुच्च नो सुसमसुसमापलिभागे होज्जा, ६३. मोसुलमापनिभाने होगा, मोसमापन होन्डा, १६. दुस्खमसमापतिभागे होता। (म. २५०३३१) ६७. बउसे णं पुच्छा । गोयमा ! ओसप्पिणिकाले वा होज्जा, उस्सप्पिणिकाले वा होण्या ६०. गोसपि नोउस्सदिगिकाले वा होना । (श. २५/३३२) ६९. जइ ओसप्पिणिकाले होज्जा कि सुसम सुसमाकाले होन्डा पुच्छा 1 ७०. गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुरुच नो सुसम सुसमा काले होना, नो ममाका होना। ७१. सुसमदुस्समा काले वा होण्डा दुस्खमसाले वा होज्जा, दुस्समाकाले वा होज्जा, नो दुस्समदुस्समाकाले होना। ७२. साहरणं पडुच्च अण्णयरे समाकाले होज्जा । (स. २५०३३३) ७३. जइ उस्सप्पिणिकाले होज्जा किं दुस्समदुस्समा काले होम्या पुच्छा ७४. गोयमा ! जम्मणं पडुच्च नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा जहेब पुलाए। ७५. संतानो दुस्समदुस्ताकाले होज्जा, १० २५, उ० ६, ढा० ४४६ १२३ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. एवं संतिभावेण वि जहा पुलाए जाव नो मुगमसुसमा काले होज्जा, ७७. साहरणं पडुच्च अण्णयरे समाकाले होज्जा। (श. २५।३३४) ७८. जइ नोओसप्पिणि-नोउस्म प्पिणिकाले होज्जा पुच्छा । ७९. गोयमा ! जम्मण-सतिभाव पडच्च नो सुसमसुसमा पलिभागे होज्जा। ८०. जहेव पुलाए जाव दुस्समसुसमापलिभागे हाज्जा। ७६. जाव सुषमसुषमा जिको मु०, उत्सर्पिणी नों एह हो । छठे अरक काले नहीं हुवै मु०, बकुश ते छतै भावेह हो । ७७. देवादि संहरण आश्रयी मु०, अनेरो कोइ इक काल हो। अरक सरीखो अद्धा जिहां मु०, तिहां बकुश हुवै न्हाल हो ।। ७८. जो नहीं तिहां अवपिणी जि०, उत्सपिणी पिण नांय हो । एहवा काल विष हुवै ? जि०, तास प्रश्न पूछाय हो ।। ७९. जिन भाखै जन्म आश्रयी मु०, तथा छता भाव आश्रयी जोय हो । सुषमसुषमा सरीखो जिहां मु०, तेह विषे नहीं होय हो ।। ८०. जेम पुलाक विषे कह्यो मु०, कहिवो तिम अवलोय हो । जाव दुस्समसुषमा जिसो मु०, तेह विदेह में होय हो । ८१. देवादिक संहरण आश्रयो मु०, कोइ एक अरा सरीस हो। काल हुवै तेहनं विषे मु०, बकुश हवै सुजगीस हो ।। ८२. जेम बकुश ने आखियो मु०, पडिसेवणा छ एम हो। ___ इमज कषायकुशील ने मु०, कहिवो बकुश जेम हो । ८३. निग्रंथ स्नातक ए बिहुं मु०, पुलाक जेम कहिवाय हो। णवरं विशेष छै एतलो मु०, भणवो साहरण अधिकाय हो।। वा० --निग्रंथ, स्नातक-ए बिहुं पुलाक नी परै कहिवा । एतलो विशेष ए बिहुँ नै अधिको संहरण जाणवो ते किम? पुलाक नै पूर्वोक्त युक्ते करी संहरण नहीं छै पुलाक लब्धि नां वश थकी। अन ए बिहुँ नै संहरण नों संभव छ इम करीनै ते कहिवो। सहरण द्वारे करी जे तेहनों सर्व काल नै विष संभव ए बिहुँ पहिला संहरचा पछै निग्रंथ स्नातकपणां नी प्राप्ति कहिवी जे माटै अपगतवेद नै सहरण नथी। ८१. साहरणं पडुच्च अण्णयरे पलिभागे होज्जा । ८२. जहा बउसे । एवं पडिसेवणाकुसीले वि । एवं कसाय कुसीले वि। ८३. नियंठो सिणाओ य जहा पूलाओ, नवरं एतेसि अब्भहियं साहरणं भाणियब्बं । वा०-'नियंठो सिणाओ य जहा पुलाओ' त्ति एतो पुलाकवद्वक्तव्यो, विशेषं पुनराह –'नवरं एएसि अब्भहियं साहरण भाणियब्वं' ति पुलाकस्य हि पूर्वोक्तयुक्त्या संहरणं नास्ति एतयोश्च तत्संभवतीति कृत्वा तद्वाच्यं, संहरणद्वारेण च यस्तयोः सर्वकालेष सम्भवोऽसो पूर्वसंहृतयोनिर्ग्रन्थस्नातकत्वप्राप्ती द्रष्टव्यो, यतो नापगतवेदानां संहरणमस्तीति, (वृ. प. ८९७) ८४. समणी वेद-रहित्त, चउदपूर्व अपमत्त, सोरठा परिहारविशुद्ध पुलाक फुन । नथी संहरै इम वृत्तौ ॥ ८४. समणीमवगयवेयं परिहारपुलायमप्पमत्तं च । ____चोद्दसपुब्बि आहारयं च ण य कोइ संहरइ । (वृ. प. ८९७) ८५. सेसं तं चेव । (श० २५१३३५) ८५. * शेष तिमज कहि सह मु०, द्वादशमो काल द्वार हो। शत पणवीसम - छठो मु०, देश उद्देश नुं सार हो ।। ८६. च्यारसौ नै छयालीसमी मु०, ढाल विशाल रसाल हो। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी मु०, 'जय-जश' मंगलमाल हो । *लय : सीहल नप कह चन्द ने १२४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल:४४७ निर्ग्रन्थ की गति वा.-गतिद्वार में विषे सौधर्मादिक देव गति इंद्रादिक तेहनां भेद तथा आयुष्क पुलाकादिक नै निरूपण करियै छै-- वा०-गतिद्वारे सौधर्मादिका देवगतिरिन्द्रादयस्तभेदास्तदायुश्च पुलाकादीनां निरूप्यते (वृ. प. ८९७) १. पुलाए णं भंते ! कालगए समाणे कं गतिं गच्छति ? गोयमा ! देवगति गच्छति । (श २५।३३६) १. पुलाक हे भगवंत जी ! काल करी ने ताय । गमन करै किण गति विषे? जिन कहै सुर गति जाय ।। *अब नहीं वीसरूं ॥ औ तो षड निर्ग्रन्थ उदार, अबै.. पूछे श्री गोयम गणधार, अब प्रभु उत्तर दै हितकार, अब... ज्यांरा वयण सुधारस सार, अब.. ज्यांरी करणी रो बलिहार, अबै.. (ध्रुपदं) २. सुरगति में जातो थको, स्यं भवणपति में जाय? व्यंतर जोतिषी नै विषे, के वैमानिक सूर थाय? २. देवगति गच्छमाणे कि भवणवासीसु उववज्जेज्जा ? वाणमंतर रेसु उबवज्जेजा? जोइसिएस उववज्जेज्जा ? वेमाणिएसु उववज्जेज्जा? ३. गोयमा ! नो भवणवासीसु, नो वाणमंतरेसु, नो जोइ सिएसु, वेमाणिए सु उववज्जेज्जा। ४. वेमाणिएसु उववज्जमाण जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं सहस्मारे कप्पे उववज्जेज्जा। ३. जिन कहै भवणपति विषे. व्यंतर ज्योतिष माय । पुलाकधर नवि ऊपज, वैमानिक में जाय ।। ४. ऊपजतो वैमानिके, जघन्य थकी अवधार । सोहम कल्पे ऊपज उत्कृष्टो सहसार ।। वा.--'इहां पुलाक नियंठो काल करै कां ते पुलाक प्रति तजी अनेर नियंठे आव्यो थको तत्काल मरे ते आश्रयी पुलाक - मरण जणाय छ। जिम निग्रंथ, स्नातक नुं संहरण का ते छठे गुणठाण छतां संहरण कीधु संहऱ्या पर्छ निग्रंथ, स्नातकपणुं पाम्या ते निग्रंथ स्नातक नुं संहरण लेखव्यू । तिम पुलाक नियंठो तजी अन्य नियठे आवत पाण मरण पामै ते पुलाक नुं मरण लेखव्यु, पिण पुलाक विषे वर्ततुं काल न कर, एहवं संभाविय छ ।' (ज० स०) ५. कहिवं इमहिज बकुश प्रति, णवरं इतरो विशेख। उत्कृष्ट अच्युत नै विषे, ऊपजवं संपेख ।। ६. पडिसेवणाकुशील फुन, बकुश जिम कहिवाय । जघन्य सौधर्मे ऊपजै, उत्कृष्ट अच्चु जाय ।। ७. तुर्य कषायकुशील जे, पुलाक जिम कहिवाय । णवर ए उत्कृष्ट थी, अनुत्तर विमाने जाय ।। ८. निग्रंथ हे भगवंत जी! इत्यादिक इमहीज । जावत वैमानिक विष, ऊपजतोज कहीज ।। ९. जघन्य नहीं उत्कृष्ट नहीं, जघन्योत्कृष्ट न तेह । ऊपजवं निग्रंथ न, अनुत्तरविमान विषेह ।। *लय : अब नहीं बीसरूं ५. बउसे णं एवं चेव, नवरं-उक्कोसेणं अच्चए कप्पे । : पडिसेवणाकुसीले जहा उसे । ७. कसायकसीले जहा पुलाए, नवरं उक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववज्जे ज्जा। ८. नियंठे णं एवं चेव जाव वेमाणिएसु उववज्जमाणे ९. अजहण्णमणुक्कोसेणं अणत्तरविमाणेसु उववज्जेज्जा। (श. २५॥ ३३७) श०२५, उ०६, ढा० ४४७ १२५ Jain Education Intemational cation International Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. सिणाए णं भंते ! कालगए समाणे कं गति गच्छइ ? गोयमा ! सिद्धिति गच्छइ । (श. २५१३३८) ११. पुलाए णं भंते ! देवेसु उववज्जमाणे कि इंदत्ताए उवबज्जेज्जा ? सामाणियत्ताए उववज्जेज्जा ? १२. तावत्तीसाए उपयज्जेज्जा ? लोगपालत्ताए उव. वज्जेज्जा ? अहमिदत्ताए उववज्जेज्जा ? १३. गोयमा ! अविराहणं पडुच्च इंदत्ताए उववज्जेज्जा, सामाणियत्ताए उवबज्जेज्जा, १४. तावत्तीसाए उववज्जेज्जा, लोगपालत्ताए उव वज्जेज्जा, नो अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा। __ वा० . 'अविराहणं पडुच्च' त्ति अविराधना ज्ञानादीनां अथवा लब्धेरनुपजीवनाऽतस्ता प्रतीत्य अविराधका: सन्त इत्यर्थः, (वृ. प. ८९८) १०. स्नातक काल किये छते, किसी गति प्रति जाय? जिन भाखै सिद्ध गति प्रत, जावै कर्म खपाय ।। ११. पुलाक प्रभु ! सुर ने विष, ऊपजतो पहिछाण । इंद्रपणे स्यं ऊपजै ? के सामानिक जाण ? १२. तथा त्रायत्रिसकपणे, लोकपाल फून न्हाल । पद अहमिंद्रपणे वली, ऊपजे ते मुनिमाल? १३. जिन कहै अविराधक जिको, तेह आश्रयी जोय। इंद्रपणे जे ऊपजै सामानिक पिण होय ।। १४. वलि त्रात्रिशकपणे, लोकपाल फुन होय । पद अहमिद्रपणे तसु, ऊपजवं नहि कोय ।। वा.-विराधना ज्ञानादिक नीं कियां पर्छ आलोई-पडिकमी शुद्ध थयो अनै पुलाक लब्धि फोड़वी आलोइ शुद्ध थइ तत्काल काल फियो ते अविराधक पुलाक आश्रयी अबिराधक छता इत्यर्थः । अविराधक छता काल करी इंद्र, सामानिक, त्रायत्रिसक, लोकपालपण ऊपज ए आठमा कल्प लग जाय ते मार्ट । अन अहमिंद्र तो वेयक अनुत्तरविमान नां धणी छ, तिहां ए न जाय ते भणी अहमिंद्रपणे न ऊपज । १५. विराधना प्रति आश्रयी, भवणपति ने आद। अन्य कोइक सुर नै विषे, ऊपजवू संवाद ।। वा.-भवनपत्यादिक महिला कोइ एक देव नै विषे ऊपजै ए भवनपति व्यंतर ज्योतिषी नै विषे ऊपज ते सम्यक्त्व नों पिण विराधक अनै चारित्र नों पिण विराधक माणq । ते भणी समदृष्टि तिर्यंच, मनुष्य नै वैमानिक विना और आयु न बंध ते माट। अनै वैमानिक नों बंध सम्यकरहित अने चारित्ररहित नै पिण हुब अनं सम्यक्त्व नों आराधक चारित्रविराधक नै पिण हवै। १६. इम बकुश पिण जाणवू, पडिसेवणाकुशील । तास विषं इमहीज ए, कहिवं अर्थ सुमील ।। १७. कवायकुशील नी पृच्छा, अविराधन आश्रित्त । इंद्रपणे वा ऊपजै, जाव अहमिंद्र उपत्त ।। अपना १५. विराहणं पडुच्च अण्णयरेसु उववज्जेज्जा । १८. विराधना प्रति आश्रयी, भवणपत्यादिक जाण । कोइ एक सुर ने विषे, ऊपजै तेह अयाण ।। १९. निग्रंथ पूछयां जिन कहै, अविराधक पहिछाण । इंद्रपणे नहीं ऊपजै, ए ग्यारम गुणठाण ।। वा० –'अन्नयरेसु उववज्जेज्ज' त्ति भवनपत्यादीनामन्यतरेषु देवेषूत्पद्यन्ते, विराधितसंयमानां भवनपत्याद्युत्पादस्योक्तत्वात्, यच्च प्रागुक्तं 'बेमाणिएसु उववज्जेज्ज' ति तत्संयमाविराधकत्वमाश्रित्यावसेयम् । (बृ. प. ८९८) १६. एवं बउसे वि । एवं पडिसेवणाकुसीले वि। (श. २५॥३३९) १७ कसालकुसीले-पुच्छा। गोयमा ! अविराहणं पडुच्च इंदत्ताए वा उववज्जेज्जा जाव अभिदत्ताए वा उववज्जेज्जा। १८. विराहणं पडुच्च अण्णय रेसु उववज्जेज्जा। (श. २५॥ ३४०) १९. नियठे पुच्छा। गोयमा ! अविराहणं पडच्च नो इंदताए उववज्जेज्जा। २०. जाब नो लोगपालत्ताए उववज्जेज्जा, अहमिदत्ताए उववज्जेज्जा। २१. विराहणं पडुच्च अण्णयरेसु उववज्जेजा। (श. २५.३४१) २२. पुलायस्स णं भंते ! देवलोगेसू उववज्जमाणस्स केवतियं काल ठितो पण्णत्ता? २३. गोयमा ! जहण्जेणं पलिओवभपूहत्तं, उक्कोसेण अट्ठारस सागरोवमाई। (श. २५।३४२) २०. जावत ते नहिं ऊपज, लोकपाल भावेह । अहमिंद्रपणेज ऊपज, निग्रंथ काल करेह ।। २१. विराधक हेठो पड़ मरी, भवणपत्यादिक मांय । कोइ एक में ऊपज, समक्त्व चरण गमाय ।। २२. पुलाक प्रभु ! सुरलोक में, ऊपजता ने आम । किता काल नी स्थित तसु, आप परूपी स्वाम? २३. श्री जिन भाख जघन्य थी, पृथक पल्य अवधार । उत्कृष्टी स्थित तेहनी, आखी उदधि अठार ।। १२६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. बकुश तणीं पूछा कियां, दाखै तब जगदीस । जघन्य पल्योपम पृथक नी, उत्कृष्ट उदधि बावीस ।। २४. बउसस्स - पुच्छा गोयना ! जहणणं पलिओवमपूहत्तं, उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं। २५. एवं पडिसेवणाकुसीलस्स वि। (श. २५।३४३) २५. पडिसेवणाकुशील पिण, कहिवं इणहिज इष्ट । जघन्य पल्योपम पृथक नी, बावीस दधि उत्कृष्ट।। २६. कषायकूशील पूछियां, जिन भाखै सुण शीस । जघन्य पल्योपम पृथक नीं, उत्कृष्ट दधि तेतीस ।। २६. कसायकुसीलस्स–पुच्छा। गोयमा ! जहणणं पलिओवमहत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरीवमाई। (श. २५॥३४४) २७. नियंठस्स-पुच्छा। गोयमा! अजहणमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। (श. २५३४५) २७. निग्रंथ पूछयां जिन कहै, अजघन्य अनुत्कृष्ट । स्थित सागर तेतीस नीं, ए अनुत्तर विमाने इष्ट ।। २८. बेसी छप्पन देश ए, चिउं सय ढाल सैताल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, _ 'जय-जश' मगलमाल ।। ढाल:४४८ निग्रंथ के संयम-स्थान १. पुलागस्स ण भंते ! केवतिया संजमाणा पण्णता? गोयमा ! असखेज्जा संज मट्ठाणा पण्णत्ता। २. संयमः नारित्रं तस्य स्थानानि-शुद्धिप्रकर्षाप्रकर्ष कृता भेदा संयमस्थानानि, (वृ. प. ८९८) ३. तानि च प्रत्येकं सर्वांकाशप्रदेशाग्रगुणितसर्वाकाश प्रदेशपरिमाणपर्यवोपेतानि भवन्ति, (व. प. ८९८) ४. तानि च पुलाकस्यासंख्येयानि भवन्ति, विचित्रत्वाच्चारित्रमोहनीयक्षयोपशमस्य, १. पुलाक में प्रभु ! केतला, संजमस्थानक ख्यात? जिन कहै असंख परूपिया, संजमस्थान सुजात ।। २. संजम ते चारित्र छै, तेहनां स्थान संवेद। शुद्ध प्रकर्ष अनै वली, अप्रकर्ष कृत भेद ।। ३. ते चारित्त-स्थान प्रत्येक ही, पज्जवा सहित सुजोय । सर्व आकाश प्रदेश ने, परिमाणे ते होय ।। ४. संजमस्थान पुलाक नां, असंख्यात अवलोय । चरित्तमोह क्षयोपशम नां, विचित्रपणां थी होय ।। ५. जितरा लोक आकाश नां, प्रदेश श्री जिन ख्यात । तेता पुलाक नां हुवै, चरण-स्थान असंख्यात ।। ६. आख्यो ए विस्तार सह, अर्थ थकी अवधार । सूत्रे तो समुच्चय का , स्थान असंख उदार ।। ७. एवं जावत जाणवा, कषायकुसीलनाज । संयम नां स्थानक कह्या, असंख्यात जिनराज ।। ८. निग्रंथ नां प्रभु ! केतला, संजमस्थान प्रधान ? जिन कहै जघन्योत्कृष्ट नहीं, इकहिज संजमस्थान ।। वा० ... निग्रंथ नु एक संजम-स्थानक हुवै ते इग्यारमें गुणस्थान सर्व चारित्र मोहणी नों उपशम प्रथम समय नै विषे थयं तथा बारमा गुणठाण ने प्रथम समय ७. एवं जाव कसायकुसीलस्स। (श. २५॥३४६) ८. नियंठस्स ण भंते ! केवतिया संजमट्ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! एगे अजहणमणुक्कोसए संजमट्ठाणे । वा-निर्ग्रन्थस्यैक संयमस्थानं भवति, कषायाणामुपशमस्य क्षयस्य चाविचित्रत्वेन शुद्धेरेकविधत्वात् श० २५, उ०६, ढा.४७,४४८ १२७ Jain Education Intemational Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्वादेव तदजघन्योत्कृष्टं, बहुष्वेव जघन्योत्कृष्टभावसद्भावादिति । (वृ. प. ८९८) ९. एवं सिणायस्स वि । (श. २५।३४७) सर्व चारित्र मोहनी नुं क्षय थयुं ते उपशम वा क्षय नै अविचित्रपणं करी सर्व निर्गथ नै शुद्धि मां एकविधपणां थकी एक हिज जाणवू । बहु नै विषे जघन्य उत्कृष्ट हुवे पिण एक नै विषे जघन्य , उत्कृष्ट न हुवै। ९. स्नातक ने पिण इह विधे, इक है संजमस्थान । __ सर्व मोह नां क्षय थकी, संजमस्थान प्रधान ।। निर्ग्रन्थ के संयमस्थान का अल्पबहुत्व *सोही सयाणा शिव मग साधे, शिव मग साधै में चरण आराधै ।।(ध्रुपदं) १०. हे प्रभु ! एह पुलाक न जाण, बकुश पडिसेवणा नां पिछाण । कषायकुशील नां संजमस्थान, निग्रंथ स्नातक नां फुन जान ।। ११. एह छहुँ नां संयमस्थान, आपस में माहोमांहि पिछान । कवण-कवण थी जाव कहाय, विशेष अधिक हवै जिनराय ! १२. जिन कहै थोड़ो सर्व थकीज, निग्रंथ स्नातक नों इकहीज । जघन्य अनैं उत्कृष्ट न तेह, संयमस्थान विशुद्धि इक लेह ।। १०. एते सि णं भंते ! पुलाग-बउस-पडिसेवणा-कसाय कुसील-नियंठ-सिणायाणं ११. संजमाणाणं कयरे कयरेहितो जाव (सं. पा.) विसे साहिया वा? १२. गोयमा ! सब्बत्थोवे नियंठस्स सिणायस्स य एगे अजहण्णमणुक्कोसए संजमट्ठाणे। 'अजहन्ने' त्यादि, एतच्चैवं शुद्ध रेकविधत्वात् (वृ. प.८९८) १३. पुलागस्स ण संजमट्टाणा असंखेज्जगुणा । पुल कादीनां तूक्तक्रमेणासंख्येयगुणानि तानि क्षयोपशमवैचित्र्यादिति । (व. प. ८९८) १४. बउसस्स संजमट्ठाणा असंखेज्जगुणा । पडिसेवणा कुसीलस्स संजमट्ठाणा असंखेज्जगुणा। १५. कसायकुसीलस्स संज मट्ठाणा असंखेज्जगुणा । (श. २५३४८) १३. तेहथी पुलाक नां संजमस्थान, अधिक असंखगुणा सूविधान । क्षय उपशम ने विचित्रपणेह, आगल पिण ए न्याय कहेह ।। १४. तेहथी बकुश नां संयमस्थान, असंखगुणा आख्या जगभान । तेह थकी पडिसेवणा केरा, असंख्यातगुणा कह्या घणेरा ।। १५. तेहथी कषायकुशील तणां फुन, चारित्रस्थानक भाख्या श्री जिन । पवर असंखगुणा अधिकाय, द्वार चबदमों ए सुखदाय ।। वा-तिहां निकर्ष कहितां सन्निकर्ष पुलाकादिक नों परस्पर संयोजन संबंध, तेहना प्रस्ताव ते अवसर थकी कहै छैनिग्रन्थ में निकर्ष चारित्र के पर्यव १६. हे भगवंत ! पुलाक नां आख्या, केतला चारित्रपज्जवा भाख्या ? जिन कहै चारित्त-पज्जवा अनंत, इम यावत स्नातक नां त। __वा० तत्र निकर्ष:- संनिकर्षः, पुलाकादीनां परस्परेण संयोजनं, तस्य च प्रस्तावनार्थमाह - (वृ. प. ८९८) १६. पुलागस्स ण भंते ! केवतिया चरित्तपज्जवा पण्णता? गोयमा ! अगंता चरित्तपज्जवा पण्णत्ता। एवं जाव सिणायस्स। (श. २५.३४८) वा० 'चरित्तपज्जव' त्ति चारित्रस्य - सर्वविरतिरूपपरिणामस्य पर्यवाभेदाश्चारित्रपर्यवास्ते च बुद्धिकृता अविभागपलिच्छेदा विषयकृता वा। (व. प. ९००) वा. चारित्र सर्वविरति रूप परिणाम नां पर्यव कहितां भेद ते चारित्रपर्यव, तेह बुद्धिकृत अविभाग पलिच्छेद अथवा विषय कृत जाणवा इम यावत स्नातक लगै क हबूं। पुलाक का पुलाक के साथ सन्निकर्ष । १७. हे भगवंत ! पुलाक ने जेह, सजातीया स्थानक में एह । चरित्त-पज्जव स्यूं हीण के तुल्य, अथवा कहियै अधिक अमूल्य ? वा. पुलाक हे भगवन ! पुलाक नै सट्ठाण कहिता आपणा सजातीय स्थानक पर्याय ना आश्रय ते स्वस्थान पुलाकादिक नै पुलाकादिकहीज तेहनों सन्निकर्ष *लय : सोही सयाणा अवसर साधे १७. पुलाए णं भते ! पुलागस्स सट्ठाणसण्णि गासेणं चरित्तपज्जवेहि कि हीणे ? तुल्ले ? अब्भहिए ? वा० ---'सट्ठाणसन्निगासेणं' ति स्वं--आत्मीयं सजातीयं स्थानं -पर्यवाणामाश्रयः स्वस्थानं--- १२८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहित संयोजन ते स्वस्थान संयोजन चारिव पर्याय करी स्यूं हीन विद संगमस्थान संबंधिपण करी विशुद्धतर पर्याय अपेक्षाये अविशुद्धतर पर्याय होन, तेनां योग चकी साधु पिण हीन कहिये। तुल्लेति तुल्यशुद्धिक पर्याय योग की ते तुल्य कहिये अन्नहित विद्युतर पर्याय योग की अभ्यधिक कहिये इति प्रश्न । सोरठा १८. पुलाक पज्जवा ताय, अन्य पुलाक पर्यव थकी । स्यूं हीन तुल्य अधिकाय, इम ए प्रश्न सजातीय ।। १९. श्री जिन भाखे कदाचित हीन, कदाचित ह्वै तुल्य सुचीन । कदाचित कहिये अधिकाय, पुलाक पुलाक नैं मांहोमाय ॥ वा० - सिय होणेत्ति कहितां कदाचित अशुद्ध संयमस्थानवत्तिपणां थकी । सियतुल्लेति कदाचित एक संजमस्थानवत्तिपणां थकी सरीखा तुल्यस्थितिक पर्याय योग थकी तुल्य । सिय अन्भहिएत्ति कदाचित अभ्यधिक ते विशुद्धतर संजम - स्थानवत्तपणां थकी । २०. जो हीन तो अनंतभाग छै हीन, असंखभाग वा हीन कथीन । संख्यातभाग होन कहिवाय, ए त्रिहं भाग हीन अपेक्षाय ।। २१. संवेजगुणा वा हीन कहाय, असंख्यातगुण हीन वा थाय अथवा जेह अनंतगुण हीन, ए त्रिहुं हीन गुणाज कथीन ।। २२. अथ अधिक जो कहियै ताय, तो अनंतभाग अधिक कहिवाय । असंखभाग अधिक वा होय, संखेजभाग अधिक वा जोय ।। २३. तथा संख्यात गुण अधिकाय, असंखगुणा वा अधिक कहाय । अथवा अनंतगुण अधिक कहीजे, स्वस्थान आश्रयी एह गुणीजं ॥ सोरठा अन्य पुलाकज पज्जव थी । हीणाधिक षट स्थान करी ॥ २४. पुलाक नां पर्याय, कदा तुल्य वा थाय, वा० -- जो हीन हुवै तो अनंतभाग हीन इहां असद्भाव स्थापना थकी पुलाक नां उत्कृष्ट संजम-स्थान पर्यवमान दश सहस्र, तेहने सर्व जीव अनंतक शत परिमाणपण कल्पित भाग थी हरयां थकी १०० लाधा । द्वितीय प्रतियोगी पुलाक चरण पर्यवाग्र नव सहस्र नव से अधिक । पूर्वे भाग लाधो शत, ते इहां प्रक्षिप्त कीघां ते १०००० दस सहस्र थया । तिवारे एह पुलाक सर्व जीव अनंत भाग हर्या लाधो एक सौ तिणे करी हीन ते मार्ट अनंत भाग हीन कहिये १ । असंखेज्जभागहीणे वत्ति । पूर्वोक्त कल्पित पर्याय राशि दश सहस्र नों १०००० लोकाकाश प्रदेश परिमाण असंख्येय, तेहने कल्यनाये पचास ५० प्रमाण करिये। तिणे करी ५० भाग हार्या लाधा २०० दोय सय । द्वितीय प्रतियोगी *लय सो ही सयाणां अवसर साधे : पुलाकादिरेव तस्य संनिकर्ष:-संयोजनं स्वस्थानसंनिकर्षस्तेन, कि ? - 'हीणे' ति विशुद्धसंयमस्थानसम्बन्धित्वेन विशुद्धतरपर्यवापेक्षया अविशुद्धतरसंयमस्थानसम्बन्धित्वेनाविशुद्धतारा: पर्यवा हीना - स्तद्योगात्साधुरपि हीनः 'तुल्ले' त्ति तुल्यशुद्धिकपर्यंवयोगात्तुल्य: 'अब्भहिय' त्ति विशुद्धतरपर्यव योगादभ्यधिकः । (बृ. प. ९००) १९. गोयमा ! सिय होणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए । वा०सिय होणे' ति अशुद्धसंयमस्थानयत्तित्वात् 'वि' ति एकसयमस्थानवत्तित्वात् सिय अन्महिए' ति विशुद्धता (बृ. प. ९०० ) २० जइ हीणे अनंतभागहीणे वा, असंखेज्जइभागहीणे वा, संभागही वा २१. संजीवा अससेज्जगद्दी वा अनंतगुणहीणे वा । २२. अह अब्भहिए अनंतभागमब्भहिए वा, असंखेज्जइभागमभहिए वा, संखेज्जभागमब्भहिए वा, २३. संखेज्जगुणमब्भहिए वा असंखेज्जगुणमन्भहिए वा, अणत गुणमब्भहिए वा । (श. २५/३५० ) बा. 'अभागी' ति विस्थापना पुलाकस्योत्कृष्टसं यमस्थानपर्यंवाग्रं दश सहस्राणि १००००, तस्य सर्वजीवानन्तकेन शतपरिमाणतया कल्पितेन भागे हुते शतं लब्धं १०० द्वितीयप्रतियोगिपुलाचरणपर्यंवाग्रं नव सहस्राणि नवशताधिकानि ९९०० पुर्वभागलब्धं शतं तत्र प्रक्षिप्तं जातानि दश सहस्राणि ततोऽसौ सर्व जीवानन्तकभागहारसम्धेन शतेन हीनभावहीन, 1 'असंखेज्जभागहीणे व' त्ति पूर्वोक्तकल्पितपर्यायराशेर्दशसहस्रस्य १०००० लोकाकाशप्रदेशपरिमाणेनासंख्येयकेन कल्पनया पञ्चाशत्प्रमाणेन भागे हृते लब्धं द्विशती द्वितीयप्रतिमा पर पान " ० २५, उ० ६, ढा० ४४८ १२९ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलाक चरण पज्जवान नव सहस्र आठसै ९८०० तिहां । पूर्व भागे लाधा दोय सय, ते प्रक्षिप्त कीधा तिवारै दश सहस्र थया १०००० । तिवारै एह लोकाकाश प्रदेश प्रमाण असंख्येय भागहार लाधा दोय सय तिणे हीण एतले असंख्येयभाग हीन २। संखेज्जभागहीणे वत्ति पूर्वोक्त कल्पित पर्याय राशि दश सहस्र लगै १०००० उत्कृष्ट संख्येय कल्पनाये दशक परिमाणे करी भाग हरयां लाधा सहस्र १००० । द्वितीय प्रतियोगी पुलाक चरण पर्यवाग्रह नव सहस्र ९००० । पूर्व भागे लाधा सहस्र तिहा प्रक्षेप कीधां दश सहस्र थया । तिवारै एह उत्कृष्ट संख्येपक भागहार लाधै सहस्र हीन ते माटै संख्येयभाग हीन ३ । संखेज्जगुणहीणे वत्ति । एक पुलाक चरण पर्यवान कल्पनाये दश सहस्र। द्वितीय प्रतियोगि पुलाक चरण पर्यवान सहस्र । तिवारै उत्कृष्ट संख्येय कल्पनाये दशक परिमाण गुणकारे गुण्यो सहस्र ते दश सहस्र हुदै । तेह तिणे उत्कृष्ट संख्येय कल्पनाये दशक परिमाण गुणकारे करी हीन ते अनभ्यस्त इति संख्येयगुण हीन ४। असंखेज्जगुणहीणे वत्ति एक पुलाक नां चरण पर्यवाय कल्पनाये सहस्र दश । द्वितीय प्रतियोगि पुलाक चरण पर्यवाग्र दोय से। तिवारै लोकाकाश प्रदेश परिमाण असंख्येय ते कल्पनाये पचास परिमाण गुणकारे करी गुण्यां थकां दोयस राशि तिका दश सहस्र हवै। तेह तिणे लोकाकाश प्रदेश परिमाणे असंख्येय कल्पनाये करी पचास प्रमाण गुणकारे करो हीन एतले असंख्येय गुण हीन इति ५ । सहस्राण्यष्टौ च शतानि ९८००, पूर्वभागलब्धा च द्विशती तत्र प्रक्षिप्ता, जातानि दश सहस्राणि, ततोऽसौ लोकाकाशप्रदेशपरिमाणासंख्येयक भागहारलब्धेन शतद्वयेन हीन इत्यसंख्येयभागहीनः, ___ 'संखेज्जभागहीणे ब' ति पूर्वोक्तकल्पितपर्यायराशेर्दशसहस्रस्य १०००० उत्कृष्टसंख्येयवे न कल्पनया दशकपरिमाणेन भागे हृते लब्धं सहस्रं, द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवाग्रं नव सहस्राणि ९००० पूर्वभागलब्धं च सहस्रं तत्र प्रक्षिप्तं जातानि दश सहस्राणि, ततोऽसावुत्कृष्टसंख्येयकभागहारलब्धेन सहस्रेण हीनः, _ 'संखेज्जगुणहीणे ' ति किलकस्य पुलाकस्य चरणपर्यवाग्रं कल्पनया सहस्रदशकं द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवाग्रं च सहस्रं, ततश्चोत्कृष्टसंख्येयकेन कल्पनया दशकपरिमाणेन गुणकारेण गुणितः साहस्रो राशिर्जायते दश सहस्राणि, स च तेनोत्कृष्ट संख्येयकेन कल्पनया दशकपरिमाणेन गुणकारेण हीनःअनभ्यस्त इति संख्येयगुणहीनः, 'असंखेज्जगुणहीणे व' ति किलैकस्य पुलाकस्य चरणपर्यवाग्रं कल्पनया सहस्रदशकं द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवाग्रं च द्विशती, ततश्च लोकाकाशप्रदेशपरिमाणे नासंख्येय केन कल्पनया पञ्चाशत्परिमाणेन गुणकारेण गुणितो द्विशनिको रामिर्जायते दश सहस्राणि, स च तेन लोकाकाशप्रदेशपरिमाणासंख्येयकेन कल्पनया पञ्चाशत्प्रमाणेन गुण कारेण हीन इत्यसंख्येयगुणहीन इति, ___ 'अनंतगुणहीण व' ति किलैकस्य पुलाकस्य चरणपर्यवाग्रं कल्पनया सहस्रदशकं द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवाग्रं च शतं, ततश्च सर्वजीवानन्तोन कल्पनया शतपरिमाणेन गुणकारेण गुणित: शतिकोराशिर्जायते दश सहस्राणि, स च तेन सर्वजीवानन्तकेन कल्पनया शतपरिमाणेन गुणकारेण हीन इत्यनन्तगुणहीनः, एवमभ्यधिकषटस्थान कशब्दार्थोऽप्येभिरेव भागापहारगुणकारयाख्येयः, तथाहि एकस्य पुलाकस्य कल्पनया दश सहस्राणि चरणपर्यवमानं तदन्यस्य नवशताधिकानि नव सहस्राणि, ततो द्वितीयापेक्षया प्रथमोऽनन्तभागाभ्यधिकः, तथा यस्थ नव सहस्राणि चरणपर्यवाग्रं तस्मात्प्रथमोऽसंख्येयभागाधिकः, तथा यस्य चरणपर्यवाग्रं सहस्रमानं तदपेक्षया प्रथम: संख्येथगुणाधिक , तथा यस्य चरणपर्यवाग्रं द्विशती तदपेक्षयाऽऽद्योऽसंख्येयगुणाधिकः, तथा यस्य चरणपर्यवाग्रं शतमानं तदपेक्षयाऽऽद्योऽनन्तगुणाधिक इति । (बृ. प. ९००,९०१) अनंतगुणहीणे वत्ति एक पुलाक नां चरण पर्यवाग्र कल्पनाये सहस्र दश । अनै द्वितीय प्रतियोगी पुलाक चरण पर्यवान एक शत तिवारे सर्व जीव अनंत कल्पनाये शत परिमाण गुणकारे करी गुण्यां थकां एकसौ राशि तेह दश सहस्र हुवे । तेह तिणे सर्व जीव अनंत कल्पनाये शत परिमाण गुणकारे करी हीन एतला मार्ट अनंतगुण हीन ६। अह अब्भहिएत्ति इम अभ्यधिक षट स्थानक शब्दार्थ पिण इणेहिज भाग अपहार गुणकारे करी बखाणवो ते देखाड़े छै-एक पुलाक नै कल्पनाये दश सहस्र चरण पर्यायमान, तेह थकी अनेरा नै नव सहस्र नव शत अधिक । तिवारै बीजा नीं अपेक्षाये पहिलो अनंतभाग अधिको जाणवो ।१। तथा जेहनै नव सहस्र आठस अधिक पर्यवमान छ तेहथी पहिलो असंख्येयभाग अधिक २ । तथा जेहनै नव सहस्र चरण पर्यवाग्र तेहथी पहिलो संख्येय भाग अधिक ३ । तथा जेहन चरण पर्यवान नव सहस्रमान तेहनी अपेक्षाये पहिलो संख्येय गुणाधिक ४। तथा जेहन चरण पर्यवाग्र तेहनी अपेक्षाये पहिलो संख्येय गुण अधिक ५। तथा जेहन चरण पर्यवाग्र शत अपेक्षाये पहिलो अनंतगुण अधिक । १३० भगवती जोड़ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. पुलाए णं भंते ! बउसस्स परट्ठाणसण्णिगासेणं चरित्तपज्जवेहि कि हीणे ? तुल्ले ? अब्भहिए ? पुलाक का अन्य निर्ग्रन्थों के साथ सन्निकष २५. "हे भगवंत ! पुलाक छै जेह, बकुश नैंज चरण पज्जवेह। इम पर स्थान जोग करि ताय, स्यूं हीण तुल्य के अधिक कहाय ? वा०-पुलाक हे भगवन ! बकुश नै पर स्थान सन्निकर्ष चारित्र पर्याये करी विजातीय योग प्रतै आश्रयी नैं इत्यर्थः । विजातीय ते पुलाक ते बकुश थकी स्यूं हीन अथवा तुल्य अथवा अभ्यधिक ? इति प्रश्न । वा.–'पुलाए णं भंते ! बउसस्से' त्यादि, 'परट्ठाणसन्निगासेणं' ति विजातीययोगमाश्रित्येत्यर्थः, विजातीयश्च पुलाकस्य बकुशादिः, (वृ. प. ९०१) २७. गोयमा ! हीणे, नो तुल्ले, नो अब्भहिए, अणंतगुणहीणे । वा.-तत्र पुलाको बकुशाद्धीनस्तथाविधविशुद्धय भावात्, (व. प. ९०१) २८. एवं पडिसेवणाकुसीलस्स वि। २९. कसायकुसीलेणं समं छट्ठाणवडिए जहेव सट्टाणे । सोरठा २६. पुलाक छै ते ताय, बकुश ने पज्जवे करी। स्यूं हीन तुल्य अधिकाय, इम ए प्रश्न विजातीये ।। २७. *श्री जिन भाखै पुलाकज चीन, बकुश ने पज्जवे करि हीन । तुल्य अधिक पिण तास न कहिये, अनंतगुण ए हीणज रहियै ।। वा०-हे गोतम! पुलाक बकुश थकी हीन हुवै तथाविध विशुद्धि नां अभाव थकी, नो तुल्ये कहितां नहीं सरीखा तथा नहीं अधिक । इम प्रतिसेवना कुशील ने पिण कहिवो। २८. प्रतिसेवणा कुशील संघात, पुलाक हीन इमज आख्यात । तुल्य अधिक पिण कहिये नांय, हीण अनंतगुण पुलाक थाय ।। २९. कषायकुशील संघात पुलाग, छट्ठाणवडिए कह्य महाभाग । जेम स्वस्थान पुलाक आख्यात, तेम कषायकुशील संघात ।। वा०-पुलाक पुलाक नी अपेक्षाये जिम छट्ठाणवडिया कह्यो तिम पुलाक कषायकुशील नी अपेक्षाये पिण छट्ठाणवडिया कहिवं इत्यर्थ । तिहां पुलाक कषायकुशील थी हीन पिण हुवे अविशुद्ध संजमस्थान वृत्तिपणां थकी, अथवा तुल्य समान संजमस्थान वृत्तिपणां थकी। अथवा अधिक हुवै शुद्धतर संजमस्थान वृत्तिपणां थकी। यतः पुलाक नां तथा कषायकुशील नांज सर्व जघन्य संजमस्थान नीचा तिवारं ते बिहुं समकाले असंख्येयके जाता थकां तुल्य अध्यवसायपणां थकी तिवार पछ पुलाक व्यवच्छेद पाम हीन परिणामपणां थकी। पुलाक व्यवच्छेद थय छतै कषायकुशील हौज असंख्याता संजमस्थान प्रतै जाइ शुभतर परिणाम थकी। तिवार पछै कषायकुशील, प्रतिसेवनाकुशील, बकुश एह समकाले असंख्याता संजमस्थान प्रतै जाइ तिवार पछ बकुश व्यवच्छेद पामै । प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील बे असंख्याता संजमस्थान प्रत जाता तिवार पर्छ प्रतिसेवनाकुशील व्यवच्छेद पामे। तथा कषायकुशील असंख्याता संजमस्थान प्रत जाय तिवार पछै ते पिण व्यवच्छेद पामै, तिवारै पर्छ निग्रंथ, स्नातक ए बेहुं एक संजमस्थानक पामै । वा.---'कसायकुसीलेणं समं छट्ठाणवडिए जहेव सट्ठाणे' त्ति पुलाक: पुलाकापेक्षया यथाऽभिहितस्तथा कषायकुशीलापेक्षयाऽपि वाच्य इत्यर्थः, तत्र पुलाकः कषायकुशीलाद्धीनो वा स्यात् अविशुद्धसंयमस्थानवृत्तित्वात् तुल्यो वा स्यात् समानसंयमस्थानवृत्तित्वाद् अधिको वा स्यात् शुद्धतरसंयमस्थानवृत्तित्वात् यतः पुलाकस्य कषायकूशीलस्य च सर्वजघन्यानि संयमस्थानान्यधः, ततस्तौ युगपदसंख्येयानि गच्छतस्तुल्याध्यवसानत्वात्, तत: पुलाको व्यवच्छिद्यते हीनपरिणामत्वात्, व्यवच्छिन्ने च पुलाके कषायकुशील एकक एवासंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छति शुभतरपरिणामत्वात्, ततः कषायकुशीलप्रतिसेवनाकुशीलबकुशा युगपदसंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छन्ति, ततश्च बकुशो व्यवच्छिद्यते, प्रतिसेवनाकुशीलकषायकुशीलावसंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छतस्ततश्च प्रतिसेवनाकुशीलो व्यवच्छिद्यते, कषायकु शीलस्त्वसंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छति, ततः सोऽपि व्यवच्छिद्यते, ततो निर्ग्रन्थ स्नातकावेकं संयमस्थानं प्राप्नुत इति । (व.प. ९०१) ३०. नियंठस्स जहा बउसस्स । एवं सिणायस्स वि । (श. २५१३५१) ३०. पूलाक निग्रंथ ने पज्जवे कर, जेम बकुश कर तिमहिज उच्चर। स्नातक ने पज्जवे पिण एम, अनंतगुण हीणो छै तेम ॥ *लयः सोही सयाणां अवसर साधे श० २५, उ० ६, ढा० ४४८ १३१ Jain Education Intemational Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-पुलाक निग्रंथ नै बकुश नी पर कहि । निग्रंथ थकी पुलाक अनंत वा. 'नियंठस्स जहा बउसस्स' त्ति पुलाको गुण हीण इत्यर्थः । इम स्नातक नै पिण कहिद् एतले पुलाक अवशेष संघाते निग्रंथादनन्तगुणहीन इत्यर्थः । चिन्तितः पुलाकोऽवचितव्यो। हिवं बकुश चितवीय छ । शेषः सह, अथ बकुशश्चिन्त्यते- (वृ. प. ९०१) बकुश का पुलाक के साथ सन्निकर्ष ३१. बकुश नियंठो हे प्रमु! जिनवर, ३१. बउसे णं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसण्णिगासेण पुलाक ने परस्थान जोग कर। चरित्तपज्जवेहि कि हीणे ? तुल्ले ? अब्भहिए? चारित्त नैं पज्जवे करि ताय, स्यं हीन तुल्य के अधिक कहाय ? ३२. श्री जिन भाखै बकुश सुचीन, पुलाक थी तो नहीं छै हीन । ३२. गोयमा ! नो हीणे, नो तुल्ले, अब्भहिए अणततुल्य पिण नाहि कहिजै ताय, एह अनंतगुणो अधिकाय ।। गुणमब्भहिए। (श. २५।३५२) वा..बकुश पुलाक थकी अनंतगुण अधिकहीज हुवै अति विशुद्ध परि वा.-बकुश: पुलाकादनन्तगुणाभ्यधिक एव णामपणां थकी। विशुद्धतरपरिणामत्वात्, (वृ. प. ९०१) बकुश का बकुश के साथ सन्निकर्ष ३३. बकूश हे भगवंतजी ! जेह, अन्य बकुश में स्वस्थान जोगेह । ३३. बउसे णं भंते ! बउसस्स सटाणसण्णिगासेणं चरित्तचारित्त नैं पज्जवे करि पृच्छा, श्री जिन भाखै सुण धर इच्छा ।। पज्जवेहिं-पुच्छा। गोयमा ! ३४. बकूश अनें बकुश माहोमांय, कदाचित ते हीन कहाय । ३४. सिय होणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए। जइ हीणे कदाच तुल्य कदा अधिकाय, जो हीन तो छद्राणवडिया थाय ।। छट्ठाणवडिए। (श. २५॥३५३) ३५. बकुश नियंठो प्रभुजी ! जेह, पडिसेवणा परस्थान जोगेह । ३५. बउसे णं भंते ! पडिसेवणाकुसीलस्स परदाणसण्णिचरित्त पज्जव करिने स्यूं हीन ? छट्ठाणवडिए कहियै सुचीन ।। गासेणं चरित्तपज्जवेहिं कि हीणे ? छट्ठाणवडिए। बकुश का शेष अन्य निर्ग्रन्थों के साथ सन्निकर्ष ३६. कषायकुशील पिण इम कहविाय, बकुश कषायकुशील माहोमाय।। ३६. एवं कसायकुसीलस्स वि। (श. २५॥३५४) छटाणवडिए कह्य जगनाथ, कहिये हिव निग्रंथ संघात ।। ३७. बकूश हे भगवंतजी ! जेह निग्रंथ नै परस्थान जोगेह । ३७. बउसे णं भंते ! नियंठस्स परदाणसणिणगासेणं चरित्त नै पज्जवे करि पृच्छा, चरित्तपज्जवेहिं - पुच्छा। श्री जिन भाखै सुण धर इच्छा। गोयमा ! ३८. बकूश निग्रंथ थी हीनज होय, तुल्य नहीं फून अधिक न कोय । ३८. हीणे, नो तुल्ले, नो अब्भहिए, अणंतगुणहीणे । एवं एह अनंतगुण हीन कहाय, स्नातक थी पिण इमहिज पाय ।। सिणायस्स वि । ३९. पडिसेवणा कुशील भदंत ! एवं चेव कहीजे तंत । ___३९. पडिसेवणाकुसीलस्स एवं ज कहिवी जिन वच साखी॥ चेव बउसवत्तब्बया वक्तव्यताज बकुश नी भाखी,तिमहिज कहिवी जिन वच साखी॥ भाणियव्वा । ४०. कषायकुशील ने संजोगे कर, एवं चेव दीयै जिन उत्तर । ४०. कसायकुसीलस्स एस चेव बउसवत्तव्वया, नवरं . बकुश नी वक्तव्यता तिम जाण, णवरं पुलाक संघात छट्ठाण ।। पुलाएण वि सम छट्ठाणवडिए। (श. २५॥३५५) वा०- एतले कषायकुशील पिण बकुश नी पर कहिवो एतलो विशेष । वा. - कषायकुशीलोऽपि बकुशवद्वाच्यः, केवल पुलाक थकी बकुश अधिकोज हुवै अनै कषाय कुशील तो षटस्थान पतित हवै।४। पुलाकाद्बकुशोऽभ्यधिक एवोक्तः सकषायस्तु षट्निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ के साथ पुलाक यावत कषायकुशील का सन्निकर्ष स्थानपतितो वाच्यो हीनादिरित्यर्थः, (व.प. ९०१) ४१. निग्रंथ हे भगवंतजी ! जेह, पुलाक ने परस्थान जोगेह । ४१. नियंठे णं भंते ! पुलागस्स परढाणसण्णिगासेणं चरित्त ने पज्जवे करि पृच्छा, तसुं उत्तर सुणवा नी इच्छा ।। चरित्तपज्जवेहिं पुच्छा। ४२. जिन भाखै निग्रंथ सुचीन, एह पुलाक थकी नहि हीन । ४२. गोयमा ! नो हीणे, नो तुल्ले, अब्भहिए अणंतनहीं छै तुल्य अधिक ए होय, अनंतगुण ए अधिक सुजोय ।। गुणमब्भहिए। ४३. एवं जावत कहिये एह, कषायकुशील ने पज्जव करेह । ४३. एवं जाव कसायकुसीलस्स। (श. २५२३५६) निग्रंथ हीण न वली नहिं तुल्य, एह अनंतगुण अधिक अमूल्य ॥ १३२ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. नियंठे णं भते ! नियंठस्स सट्टाणसगिणगासेणं . पुच्छा। ४५. गोयमा ! नो हीणे, तुल्ले, नो अब्भहिए। एवं सिणायस्स वि (सं० पा०)। (श. २५५३५७) निग्रन्थ का निम्रन्थ ओर स्नातक के साथ सन्निकर्ष ४४. हे भगवंतजी ! निग्रंथ जेह, निग्रंथ नै स्वस्थान जोगेह । चारित्त नैं पज्जवे करि ताय, स्यू हीण तुल्य के अधिक कहाय ? ४५. श्री जिन भाख हीण न कहिय, निग्रंथ निग्रंथ – तुल्य लहिये । वलि परस्पर नहीं अधिकाय, इम स्नातक पजवे करि ताय ।। स्नातक का पुलाक आदि निर्ग्रन्थों के साथ सन्निकर्ष ४६. स्नातक हे भगवंतजी ! जेह, पुलाक में परस्थान जोगेह। इम जिम निग्रंथ नी कही बात, तिम स्नातक नीं पिण अखियात ।। स्नातक का स्नातक के साथ सन्निकर्ष ४७. जावत स्नातक हे प्रभु ! जेह, स्नातक नै स्वस्थान जोगेह । पूछयां जिन कहै हीण न थाय, तुल्य अछ पिण नहीं अधिकाय ।। ४६. सिणाए णं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसण्णिगासेणं एवं जहा नियंठस्स वत्तब्वया तहा सिणायस्स वि भाणियवा। (श. २५:३५९) वा०-अथ पज्जवा नां अधिकार थकी ते चारित्र नां पर्याय नै ईज जघन्यादिक भेद नों पुलाकादिक संबंधि अल्पबहुत्वादि प्ररूपतो छतो कहै छ --- निर्ग्रन्थों के चारित्र पर्यवों का अल्पबहुत्व ४८. एह पुलाक नै हे भगवान ! बकूश अनै प्रतिसेवणा जान । तुर्य कषायकुशीलज ताम, निग्रंथ नै स्नातक अभिराम ।। ४९. एहना जघन्य अनै उत्कृष्ट, चारित्र नां पज्जवा ने इष्ट । कुण-कुण थकी जाव कहिवाय, विसेसाहिया अथवा थाय ।। ५०. श्री जिन भाखै पुलाक नां सोय, कषायकुशील तणां फुन जोय । बिहं नां जघन्य चरित्त पर्याय, तुला सहू थी थोड़ा थाय ।। ५१. तेहथी पूलाक तणां जे ताय, उत्कृष्ट चारित्र नां पर्याय । एह अनंतगुणा सलहीजै, निर्मल न्याय विचारी लीजै ।। ५२. तेहथी बकुश पडिसेवणा केरा, जघन्यचरित्त नां पज्जव सुमेरा । आपस में तुला आख्यात, अनंतगुणा पूर्व थी थात ।। ५३. तेहथी बकुश तणां उत्कृष्ट, चारित्त पज्जव अनंतगुणा इष्ट । तेह थकी पडिसेवणा केरा, उत्कृष्ट पज्जव अनंतगुण मेरा ।। १७. जाव (सं. पा.) सिणाए णं भंते ! सिणायस्स सट्टाण सण्णिगासेणं-पुच्छा। गोयमा ! नो हीणे, तुल्ले, नो अब्भहिए । (श २५॥३६१) वा.-अथ पर्यवाधिकारात्तेषामेव जघन्या दिभेदानां पुलाकादिसम्बन्धिनामल्पत्वादि प्ररूपयन्नाह-. (व. प. ९०१) ४८. एएसि णं भंते ! पुलाग-ब उस-पडिसेवणाकुसील कसायकुसील-नियंठ-सिणायाणं ४९. जहण्णुक्कोसगाणं चरित्तपज्जवाणं कयरे कयरेहितो जाव (सं. पा.) विसेसाहिया वा। ५०. गोयमा ! १. पुलागस्स कसायकुसीलस्स य एएसि णं जहणगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला सब्व त्थोवा ५१.२. पुलागस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा ५२. ३, ब उसस्स पडिसेवणाकुसीलस्स य एएसि णं जहण्णगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुणा ५३. ४. ब उसस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा ५. पडिसेवणाकुसीलस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा ५४. ६. कसायकुसीलस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा ५५. ७. नियंठस्स सिणायस्स य एते सि णं अजहण्णमणु क्कोसगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुणा। (श. २५॥३६२) ५४. तेहथी कषायकुशील नां ताय, उत्कृष्ट चारित्र नां पर्याय । एह अनंतगुणा आख्यात, दशम गुणस्थानक लग थात ।। ५५. तेह थकी निग्रंथ नां सार, अथवा स्नातक नां सुविचार । अजघन्योत्कृष्ट चरित्त पर्याय, तुला अनंतगुणा कहिवाय ।। ५६. बेसौ छपन नं देश निहाल, च्यारसौ अष्टचालीसमी ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय पसाय, 'जय-जश' आनंद हरष सवाय ।। शं० २५, उ०६, डा०४४८ १३३ Jain Education Intemational Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल:४४९ निर्ग्रन्थ में योग दूहा १. प्रभु ! पुलाक सजोगी हुवै, तथा अजोगी होय? जिन कहै सजोगी हुवै, अजोगी नहिं कोय ।। २. जो सजोगी ते हुवै, तो स्यूं मनजोगी होय ? तथा वचनजोगी हुवै, कै कायजोगी है सोय ? ३. जिन कहै मनजोगी हुवै, वचनजोगी वा हुंत । अथवा कायजोगी हुवै, इम जावत निग्रंथ ।। १. पुलाए णं भंते ! कि सजोगी होज्जा ? अजोगी होज्जा? गोयमा ! सजोगी होज्जा, नो अजोगी होज्जा । (श. २५।३६३) २. जइ सजोगी होज्जा कि मणजोगी होज्जा ? वइजोगी होज्जा ? कायजोगी होज्जा? ३. गोयमा ! मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होज्जा । एवं जाव नियंठे। (श. २५॥३६४) ४. सिणाए णं-पुच्छा। गोयमा ! सजोगी वा होज्जा, अजोगी वा होज्जा। ५. जइ सजोगी होज्जा कि मणजोगी होज्जा-सेसं जहा पुलागस्स। (श. २५॥३६५) ४. स्नातक नीं पूछा कियां, तब भाखै जिनराय । सजोगी है छै तिको, तथा अजोगी थाय ।। ५. जो ते सजोगी हुवै, स्यूं मनजोगी होय ? शेष कह्योज पुलाक ने, तिम कहिवो अवलोय ।। निर्ग्रन्थ में उपयोग *जय-जय ज्ञान जिनेंद्र नों।। (ध्रुपदं) ६. पुलाक स्यूं भगवंत जो ! है सागार उपयोगेह लाल रे ? के अनाकार उपयोग में? जिन कहै दो» विषेह लाल रे । ६. पुलाए णं भंते ! किं सागारोवउत्ते होज्जा ? अणागारोवउत्ते होज्जा? गोयमा ! सागारोवउत्ते वा होज्जा, अणागारोवउत्ते वा होज्जा । ७. एवं जाव सिणाए। (श. २५५३६६) ७. एवं जावत जाणवो, स्नातक लग सुखदाय लाल रे । एह छहूंइ नियंठा, बिहूं उपयोगे पाय लाल रे। निर्ग्रन्थ में कषाय ८. प्रभु ! पुलाक सकषाई हुदै, के अकषाई होय? लाल रे। जिन कहै सकषायी हुवे, अकषायी नहिं कोय लाल रे ।। ८. पूलाए णं भंते ! सकसायी होज्जा ? अकसायी होज्जा ? वा.-पुलाक नै कषाय नां क्षय ना तथा उपशम ना अभाव थकी सकषायी हुवै पिण अकषायी न हुवै । ९. जो सकषाइ हवै प्रभु ! तो किती कषाये होय ? लाल रे । जिन कहै च्यार विषे हुवै, क्रोधादिक चिहुं जोय लाल रे ।। गोयमा ! सकसायी होज्जा, नो अकसायी होज्जा। (श. २०३६७) वा.-'सकसाई होज्ज' त्ति पुलाकस्य कषायाणां क्षयोपशमस्य चाभावात्। (वृ. प. ९०१) ९. जइ सकसायी होज्जा, से णं भंते ! कतिसु कसाएसु होज्जा ? गोयमा ! चउसु कोह-माण-माया-लोभेसु होज्जा। १०. एवं बउसे वि । एवं पडिसेवणाकुसीले वि । (श. २५॥३६८) ११. कसायकुसीले णं-पुच्छा। गोयमा ! सकसायी होज्जा, नो अकसायी होज्जा। (श. २५॥३६९) १०. एम बकुश पिण जाणवं, पडिसेवणा पिण एम लाल रे । क्रोध मान माया विषे, लोभ विषे है तेम लाल रे ।। ११. कषायकुशील तणी पृच्छा, श्रीजिन भाखै सोय लाल रे । ए पिण सकषायी हवै, अकषायी नहीं कोय लाल रे ।। *लय : कर्म भुगत्यां हीज छूटिय १३४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. जइ सकसायी होज्जा, से णं भंते ! कतिसु कसाएस होज्जा ? १३. गोयमा ! चउसु वा तिसु वा दोसु वा एगम्मि वा होज्जा। १४. चउसु होमाणे चउसु संजलणकोह-माण-माया-लोभेसु होज्जा, १५. तिसु होमाणे तिसु संजलणमाण-माया-लोभेसु होज्जा १२. जो प्रभु ! सकषायो हुवे, तो किती कषाय विषेह लाल रे । कषायकूशील हवे अछै ? भाखो जी गुणगेह लाल रे ।। १३. जिन कहै च्यार विषे हुवै, तथा तीन कषाय विषेह लाल रे । अथवा दोय विषे हुवै, तथा एक विषे है जेह ।। १४. च्यार विषे थातो थको, चिहं संजलन सुजोय लाल रे । क्रोध मान माया वली, लोभ विषे पिण होय लाल रे ।। १५. तीन विषे थातो थको, तीन ते संजलन मान लाल रे । माया लोभ विषे वली, कषायकुशील पिछान लाल रे ।। वा० संजलण मान, माया, लोभ ए- तीन नं विषे हुवै तो उपशमश्रेणि तथा क्षपकश्रेणि नै विनवमा गुणठाणा ने अंतर मध्य संजलण क्रोध उपशम्यां थको अथवा क्षीण थयां थकां शेष तीन नै विषे हुवै।। १६ दोय विषे थातो थको, बे संजलण कषाय लाल रे । माया लोभ विषे हुवै, बे धुर उदय न थाय लाल रे ।। १७. एक विषे थातो थको, लोभ संजलणज एक लाल रे । नवम अंत ए बादर हुवै, दशमें सूक्ष्म देख लाल रे ।। १८. निग्रंथ नीं पूछा कियां, तब भाखै जगनाथ लाल रे । ए सकषायी नहि हवै, अकषायी में थात लाल रे ।। वा०-उपश्रमश्रेण्यां क्षपकश्रेण्यां वा संज्वलनक्रोधे उपशान्ते क्षीणे वा शेषेषु त्रिष् (बृ. प. ९०१) १६. दोसु होमाणे संजलणमाया लोभेसु होज्जा १९. जो अकषायी विषे हुवै, तो स्यूं उपशांत कषाय ? लाल रे। ___ क्षीणकषायी नै विषे, ए निग्रंथ कहाय ? लाल रे ।। २०. जिन भाखै सुण गोयमा ! उपशांतकषाय होय लाल रे । तथा क्षीणकषायी नै विषे, निग्रंथ है ? सोय लाल रे ।। २१. स्नातक इमहिज जाणव, णवरं विशेष जोय लाल रे । उपशांतकषाये नहि हवे, क्षीणकषाये होय लाल रे ।। निग्रन्थों में लेश्या २२. प्रभु ! पुलाक सलेसे हुवै, के अलेस्से होय लाल रे ? जिन कहै लेश्य सहित है, अलेशी नहिं कोय लाल रे ।। १७. एगम्मि होमाणे संजलणलोभे होज्जा । (श. २५३७०) १८. नियंठे णं-पुच्छा। ___ गोयमा ! नो सकसायी होज्जा, अकसायी होज्जा। (श. २५।३७१) १९. जइ अकसायी होज्जा कि उवसंतकसायी होज्जा? खीणकसायी होज्जा? २०. गोयमा ! उवसंतकसायी वा होज्जा, खीणकसायी वा होज्जा। २१. सिणाए एवं चेव, नवरं-नो उवसंतकसायी होज्जा, खीणकसायी होज्जा। (श. २५।३७२) २३. जो सलेस्स विषे हुवे, हे भगवंतजी ! तेह लाल रे । हवै किती लेश्या विषे? पुलाक नियंठो जेह लाल रे ।। २४. जिन कहै तीन विशुद्ध जे, लेस्स विषे है तेम लाल रे । तेजु पद्म शुक्ल विषे, बकुश पडिसेवणा एम लाल रे ।। २२. पुलाए णं भंते ! कि सलेस्से होज्जा ? अलेस्से होज्जा? गोयमा ! सलेस्से होज्जा, नो अलेस्से होज्जा। (श. २५॥३७३) २३. जइ सलेस्से होज्जा, से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होज्जा ? २४. गोयमा ! तिसु विसुद्धलेस्सासु होज्जा, तं जहा तेउलेस्साए, पम्हलेस्साए, सुक्कलेस्साए। एवं बउसस्स वि । एवं पडिसेवणाकुसीले वि। (श. २५।३७४) २५. कसायकुसीले-पुच्छा। गोयमा ! सलेस्से होज्जा, नो अलेस्से होज्जा । (श. २५५३७५) २५. कषायकुशील तणी पृच्छा, तब भाखै जिनराय लाल रे । सलेशी नै विषे हुवे, अलेशी नहीं थाय लाल रे ।। श०२५, उ०६, ढा० ४४० १३५ Jain Education Intemational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जो सलेशी नं विषे हुव 7 तो कति लेस्सा विधे एह ? लाल रे। जिन कहै कृष्ण विषे हुवे, जावत शुक्ल विषेह लाल रे ।। वा० 'ए पुलाक, बकुश, पडिसेवणा प्रतिसेवक ते तीन भली लेश्या नैं विषे किम हुवै तेह्नों उत्तर- ए दोष रूप कार्य करीनें छेड़े आलोवणा सन्मुख थया ते वेला नी अपेक्षाय भली लेश्या संभव, जिम कषायकुशील अप्रतिसेवक ते दोष न सेवेह का ते कायपणं अंगीकार करते आदि नीं अपेक्षाय अतिसेवरूप संभव तथा मनपर्यावज्ञान अप्रमत्तपणा में अपने इमहिन आदि ए पि अप्रमत्तपणं आदि में दिए जो वयं ते अंत नीं अपेक्षाय भली लेश्या जणाय छै । जे पुलाक लब्धि फोड़वै तथा प्रथमद्वार में ज्ञानपुलाक, दर्शणपुलाक आदि कह्यो तथा पडिसेवणा द्वारे मूल प्रतिसेवक उत्तर प्रतिसेवक कला तथा वकुश आभोगधकृत अगाभोगवकुश को अर्न उत्तर गुग प्रतिसेवक का अने पढिसेवाकुशील में आमोदप्रतिसेवनादिक कला अने कह्या, मूलगुल उत्तरगुण में दोष लगाये बनी कुरा पडियणाशील में किय शरीर कह्यो, वैक्रिय तेजु समुद्घात पिण कही। ए दोष सेवे ते प्रत्यक्ष खोटी लेश्या, खोटा परिणाम, खोटा अध्यवसाय ते भणी आलोवणा सन्मुख हुवै ते वेला नीं अपेक्षाय भली लेश्या संभव । वलि अनेरो न्याय हुवै तो ते पिण केवली वर्द ते सत्य । 1 वली वृत्तिकार का भाव लेश्या नीं अपेक्षाय प्रशस्त तीन नैं विषे पुलाकादिक तीन नियंठा अवसर अने कपायकुशील में विषे पिण, सडपाय आश्रित्य पूर्व प्रतिपक्ष वली अनेरी या विधे हुवे इम ए का एहवं संभाविये एह वृत्ति में कहा। पूर्वप्रतिपा केही कहिये ? एह अर्थ भगवती नी टीका नी पर्याय में विषे इम लियोपस्थपारिप्रतिपानंतर कालो गतः पूर्वप्रतिपष्णक एहनों अर्थ - जेहने चारित्र लीधां पछे कितोयक काल गयो ते पूर्व प्रतिपन्न कहिये एतले चारित्र लेवे ते वेला तो भली लेश्या हुवै अनें लीधां पर्छ कितोयिक काल गयां अनेरी लेश्या पण हुवै। इण लेखे साधु में अशुद्ध लेश्या पिण आव तेहनों प्रायश्चित लेवं । दोष रो प्रायश्चित ते दोष सेवा रा भाव ते खोटी लेश्या जाणवी ।' (ज० स० ) २७. निर्धनीं पूछा कियां, श्रीजिन भाखे सोय लेश्या सहित विषे हुवै, अलेशी नहि होय २८. जो लेश्या सहित विषे हुवै, तो किसी लेश्या विषे होय ? लाल रे । जिन भाखे सुण गोयमा ! एक शुक्ल लेश्या विषे जोय लाल रे ।। लाल रे । लाल रे । 1 रे ॥ २९. स्नातक नीं पूछा कियां, तब भाखे जिनराय लाल रे सलेशी नै विषे हुवै, तथा अलेशी मांय लाल ३०. जो सलेशी नैं विषे हुवै, तो किती लेश्या विषे होय ? लाल रे । जिन भावं गुण गोयमा ! एक परम शुक्ल विषे जो लाल रे ।। १९३६ भगवती जोड़ , २६. जइससे होज्जा से भंते! कति लेस्सासु होल्वा ? गोयमा ! हसु लेस्सासु होज्जा, तं जहा- कण्ह लेस्साए जानलेखाए । (स. २५०२७६) वा०-- "तिसु विशुद्ध सासु ति भावलेण्यापेक्षा प्रशस्ता तिसृप पुलाकादयस्त्रयो भवन्ति कषायकुशीलस्तु षट्स्वपि सकयायमेव आथित्य पुख्वपक्षिवनपुग अन्नयरी व लेखाए' इत्येतदुक्तमिति संभाय्यते, (बृ. प. ९०२) २७. नियंठे णं भंते ! – पुच्छा । गोयमा ! सलेस्से होज्जा, नो अलेस्से होज्जा । (श. २५।३७७) २८. जइसलेस्से होज्जा, से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होज्जा ? गोयमा एक्काए सुक्कलेस्साए होला । २९. सिणाए- पुच्छा । (श. २५.३७८) गोयमा ! सलेस्से वा होज्जा, अलेस्से वा होज्जा । (२५०२७९) ३०. जइ सलेस्से होज्जा, से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होज्जा ? Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. शुक्ल ध्यान ने जोय, जिका वेश अवलोय ३२. स्नातक विनाज तेह तणीं निग्रंथो में परिणाम ताय, अपेक्षाय, ३३. * पुलाक स्यूं हे भगवंतजी ! वर्द्धमान परिणामे होय ? लाल रे । के हायमान परिणाम हुव ? कै अवट्टिया विषे सोय ? लाल रे ।। सोरठा तृतीय भेद नैं अवसरे । तिका परम शुक्ल कही | शुक्लहीज ह्वै अन्य विषे । परम शुक्ल हवं तेरमें ॥ हुवै ४० वर्द्धमान त हेर, पिण हानि हुवै सोरठा ३४. शुद्ध परिणाम विषेह, जिस दश थी वर्द्धमान छै एह, ३५. अपकर्ष जातो ताम, घटते हायमान परिणाम, जिम दश थी ३६. चढता घटता नांय, यथादृष्ट कहाय, स्थिर ३७. *जिन भाखे गुण गोयमा ! वर्द्धमान परिणामे होय हायमान परिणामे हुवै, वलि अवट्टिया विषे जोय ३८. एवं जाव कहीजिये, तुर्य कषायकुशील कषायकुशील वधता घटता हुवै, फुन स्थिर भावे मील लाल रे ।। ३९. निग्रंथ पूछ्यां जिन कहै, वर्द्धमान परिणामे होय लाल रे । पिण घटते परिणामे नहीं अवस्थिते पिन जो लाल रे ॥ लाल रे । सोरठा उत्कर्ष हायमान र, कषायकुशील भाव ही । ग्यारा प्रमुख || भावे वर्त्ततुं । चढ़ते भावे ते दश नैं अंकज सोरठा ४४. पुलाक ने अवलोय, वर्द्धमान जघन्य समय इक होय, *लय भूगकर्म त्यो हो दिये नव अठ प्रमुख || अवस्थित । वर्ततो ॥ लाल रे । लाल रे || ४१. एवं स्नातक पिण हवं वर्द्धमान अवस्थित लाल रे । हुवै, हानि कारण नां अभाव थी, हायमान नहीं तत्थ लाल रे ॥ परिणाम नहीं । दशम गुण ॥ ४२. पुलाक हे भगवंतजी ! काल कितो अवलोय लाल रे । वर्द्धमान परिणामें हुवे ? गोयम प्रश्न सुजोय लाल रे ॥ ४३. श्री जिन भाखे जघन्य थी, एक समय सलहीज लाल रे । उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त ही, एहवा स्वभाव थकीज लाल रे ।। जे । परिणाम तास न्याय कहियै अछे || गोयमा एमाए परममुलेस्साए होला । ( . २५/२५०) ३१. तृतीय भेदावसरे या वेश्या सा परमशुक्ला ऽन्यदा तु शुक्लव, (बु. प. ९०२) स्नातकस्य परम( वृ. प. ९०२ ) ३२. साऽपीतरजीव शुक्ललेश्यापेक्षया शुक्लेति । ३३. पुलाए भते कि बहुमाणपरिणामे होफमा ? हायमाणपरिणामे होज्जा ? अवद्विपरिणामे होगा ? ३४. तत्र च वर्द्धमानः --- शुद्धेरुत्कर्षं गच्छन् (वृ. प. ९०२ ) ( वृ. प. ९०२ ) ३६. अवस्थितस्तु स्थिर इति, ( प. ९०२) २७. गोमा मागपरिणामे वा हो, हायमाणपरिणामे वा होण्या अवद्विपरिणामेवा होता। ३८. एवं जाव कसायकुसीले । (श. २५/३८१ ) ३५. मानव वन् ३९. नियंठे णं पुच्छा । गोयमा ! वड्ढमाणपरिणामे होज्जा, नो हायमाणपरिणामे होज्जा, अवट्ठियपरिणामे वा होज्जा । ४०. तत्र निर्ग्रन्थो हीयमानपरिणामो न भवति तस्य परिणामहानौ कषायकुशीलव्यपदेशात्, ( वृ. प. ९०२ ) (. २५/३०२) हीयमानपरिणामः (पु. १. ९०२) ४२. पुलाए गंभ! केवतियं कालं माणपरिणामे होन्ना ? 1 ४३. गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । (श. २५०३८३) ४१. एवं सिणाए वि । स्नातकस्तु हानिकारणाभावाच स्यादिति । ४४, ४५. तत्र पुलाको वर्द्धमानपरिणामकाले कषायविशेषेण बाधिते तस्मिस्तस्यैका दिकं समयमनुभव तीत्यत उच्यते जघन्येनैकं समयमिति (बृ. प. ९०२ ) श० २५, ०६, डा० ४४९ १३७ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. वर्द्धमान कालेह, कषाय विशेष करि तदा। बांध्ये छतेज तेह, एकादि समयज अनुभवै ।। ४६. अंतर्मुहुर्त उत्कृष्ट, वर्द्धमान परिणाम नां। स्वभाव थकीज इष्ट, अंतम हुर्त काल तसु ।। ४७. *केतलो काल हवै वलि, हायमान तसु इष्ट ? लाल रे। जिन कहै समय जघन्य थी, अंतम हत उत्कृष्ट लाल रे ।। ४६. 'उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं' ति एतत्स्वभावत्वावर्द्धमानपरिणामस्येति । (वृ. प. ९०२) ४७. केवतियं कालं हायमाणपरिणामे होज्जा? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। (श. २५३३८४) ४८. केवतिय कालं अवटियपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं सत्त समया। ४८. केतलो काल हवै वली, अवस्थित अवदात लाल रे । जिन कहै समय इक जघन्य थी, उत्कृष्ट समया सात लाल रे ।। ५०. एवं जाव कसायकुसीले । (श. २५॥३८५) सोरठा ४९. पुलाक नै आख्यात, अवस्थित नों काल जे। ऊत्कृष्ट समया सात, तसु एहवाज स्वभाव थी। ५०. *एवं जावत जाणव, कषायकूशील विषेह लाल रे। वृत्तिकार तिहां इम कह्य, सांभलजो गुणगेह लाल रे ।। सोरठा ५१. जिम पुलाक ने ख्यात, तिमज बकुज पडिसेवणा । कषायकुशील थात, पुलाकवत ए चिहं अपि ।। ५२. नवरं बकुशज आद, जघन्य थकी इक समय थी। मरण थकी संवाद, जघन्य समय इक वांछियो ।। ५३. इम पुलाक - नांय, पुलाकपणां विषे तसु। मरण अभाव कहाय, पुलाकपणे मरै नहीं । ५४. जेह पुलाक संवादि, मृत्यु काल विषे जिको। कषायकुशील आदि, अंगीकार करने मरै ।। ५५. पुलाक ने फुन ताय, काल गमन पूर्वे कह्य । भूतभाव पेक्षाय, एहवं आख्यु वृत्ति में ।। ५६. *प्रभु ! निग्रंथ काल कितो हुवै, वर्द्धमान परिणामेह ? लाल रे । जिन कहै जघन्योत्कृष्ट थी, अंतर्म हत कहेह लाल रे ।। ५१, एवं बकुशप्रतिसेवाकुशीलकषायकुशीलेष्वपि, (वृ. प. ९०२) ५२. नवरं बकुशादीनां जघन्यत एकसमयता मरणादपीष्टा (व. प. ९०२) ५३. न पुन: पुलाकस्य, पुलाकत्वे मरणाभाबात्, (वृ. प. ९०२) ५४. स हि मरणकाले कषायकुशीलत्वादिना परिणमति, (बृ. प. ९०२) ५५. यच्च प्राक् पुलाकस्य कालगमनं तद्भूतभावापेक्षयेति (वृ. प. ९०२) ५६. नियंठे णं भंते ! केवतियं कालं वड्ढमाणपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहूत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । (श. २५३८६) ५७. निर्ग्रन्थो जघन्येनोत्कर्षेण चान्तमहत्तं वर्द्धमान परिणामः स्यात्, केवलज्ञानोत्पत्ती परिणापान्तरभावात्, (वृ. प. ९०२) ५८. केवतियं कालं अवट्ठियपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । (श. २५॥३८७) सोरठा ५७. द्वादशमें गुण जेह, वर्द्धमान अंतर्मुहर्त एह, केवल उत्पत्ति परिणाम है । थी प्रथम ।। ५८. *केतलो काल हुवै वली, अवस्थित विषे इष्ट ? लाल रे। जिन कहै समय इक जघन्य थी, अंतर्महत उत्कृष्ट लाल रे ।। सोरठा ५९. जेह समय निग्रंथ, अवस्थित परिणाम है । तेहिज समय मरंत, एक समय इम जघन्य थी।। ५९. अवस्थितपरिणामः पुननिर्ग्रन्थस्य जघन्यत एक समयं मरणात्स्यादिति। (व. प. ९०२,९०३) *लयः कर्म भुगत्यां हीज छूटिय १३८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational ducation Intermational Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-- एकादशम गुणठाणे प्रथम समय नै विषे हीज मरण पाम्यो अबस्थित जघन्य एक समय हुवै अने ग्यारमें गुणस्थान अंतर्मुहूर्त्त प्रमाण अवस्थिते परिणामे रहे ते भाणी अवस्थित परिणाम उत्कृष्ट अंतर्मुह हुए इस्पारमें गुणठाणे अवस्थित परिणाम हुवे अने वारमें गुणस्थान वर्द्धमान परिणाम हुवे । ६०. * स्नातक है भगवंतजी ! वर्द्धमान परिणामेह लाल रे । केतली काल रहै तिको ? भाखोजी ६१. श्रीजिन भा लाल रे । जन्य थी, अंतर्मुहूर्त तसु अंतर्मुहूर्त सोय लाल उत्कृष्ट पिण सोरठा सोरठा तणां सुजन्य, अंतर्मुहूर्त जघन्य से वर केवल पाय, रहि ताय, ६५. स्नातक ६२. स्नातक नैं वर्द्धमान, चवदम गुणठाणेज ह्र । तेह तणीं स्थित जान, अंतर्मुहुर्तपणां थकी ॥ ६३. "फुन स्नातक जे केवली, अवस्थित परिणामेह लाल रे । केतली काल हुवै तिको ? गोयम पूछा एह लाल रे ॥ ६४. श्री जिन भार्थ जपन्य थी, अंतर्मुहूर्त्त इष्ट लाल रे । देसूण पूर्व कोड़ हो, आयो उत्कृष्ट लाल रे ॥ ६६. जे परिणामे ६७. स्नातक ६८. लागां गुणगेह गुणगेह *लय कर्म भूगत्या हीज छूटये : होय होय नं फुन जोड़ देश ऊण पुब्वकोड़, तास नवमो मास, उत्कृष्ट आऊ तास, ६९. ज्यां लग चवदम ठान, तेरम गुणे सुजान, ७०. 'इम साधिक अठ वास, उत्कृष्टो सुविमास, अवस्थित ७१. जघन्य साधिक अठ वास, अवस्थित परिणाम जे। न्याय कहिये हिवं ॥ केवल ज्ञानज ऊपनां । कोड पूर्वनों जाणं ।। प्राप्ति थयो नहि त्यां लगे । अवस्थित परिणाम तसु ॥ कणो पूर्व कोड जे परिणाम है ।। आयुवंत मनुष्य जे मोक्ष कही छे तास, उपंग उववाई ने विषे ।। ७२. गर्भ मास इण न्याय, जघन्यायु में आविया । इमहिज उत्कृष्ट मांय, गर्भ मास पुख्वकोड़ में ॥ ७३. नवम वर्ष नुं देश, तेह अपेक्षा वर्ष नव । 1 ए जिन वचन विशेष साधिक अठ वर्षायु शिव || ' ( ज०स० ) ७४. *बेसी छपन नं देश ए. च्यारसौ गुणपचासमी ढाल लाल रे । भिक्षु भारीमात ऋषिराम थी, 'जय - जश' हरष विशाल लाल रे ।। लाल रे । रे 11 अवस्थित परिणाम जे । किण रीत कहीजिये ।। अंतर्मुहूर्त अवस्थित । शेलेसी वर्द्धमान है ॥ ६०. सिणाए णं भंते ! केवतियं कालं वड्ढमाणपरिणामे होज्जा ? ६१. गोमा ! जण वि अंतोतं, उस्को वि अंतोतं (श. २५/३००) ६२. स्नातको जन्तराभ्यामन्तर्गतं वर्द्धमानपरिणामः, (बृ. प. ९०३) ६३. केवतियं कालं अवट्टियपरिणामे होज्जा ? ६४. गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुचकोडी | (श. २५०३८९) ६५. अवस्थितपरिणामकालोऽपि जघन्यतस्तस्यान्तर्मुहतं, कथम् ?, (बृ. प. ९०३) ६६. यः स केवलज्ञानोत्पादानन्तरमन्तर्मुहुर्तमवस्थित परिणामो भूत्वा शैलेशी प्रतिपद्यते तदपेक्षयेति, ( वृ. प. ९०३ ) ६७-६९. उसे सुणा पुव्यकोडी' त्ति पूर्वकोयायुषः पुरुषस्य जन्मतो जघन्ये नव वर्षेध्वतियतेषु केवलशानमुत्पद्यते ततोऽसौ स पूर्व कोटमवस्थितपरिणामः शैलेशी यावद्विहति शैलेश्या च वर्द्धमान परिणामः स्यादित्येवं देशोनामिति । ( वृ. प. ९०३ ) ७१, ७२. जीवा णं भंते! सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सिज्यंति ? गोयमा ! जहणेणं साइरेगट्ठवासाउए उक्कोसेणं पुव्यकोडियाउए सिति । ( ओवाइयं सू० १८८ ) श० २५, उ० ६ ० ४४९ १३९ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल :४५० निग्रंथों में कर्म प्रकृति का बन्ध १. पुलाक प्रभुजी ! केतली, कर्म-प्रकृति बांधंत ? जिन कहै आयु वर्ज में, सप्त कर्म बंध हुंत ।। सोरठा २. पुलाक नै जे ताय, आयुखा नों बंध नहि । नसु बंध अध्यवसाय, स्थानक तणां अभाव थी । १. पुलाए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ बंधति ? गोयमा! आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ बंधति । (श. २५॥३९०) २. पुलाकस्यायुबंन्धो नास्ति, तद्बन्धाध्यवसायस्थानानां तस्याभावादिति । (व. प. ९०३) ३. बउसे—पुच्छा । गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा। दूहा ३. बकूश नीं पूछा कियां, भाखै ताम जिनंद । ते बंधक व सप्तविध, तथा अष्टविध बंध ।। सोरठा ४. निज आयु नै जान, तृतीय भाग आदिक रह्यां ।। परभव नों पहिछान, बांधै जंतु आउखो।। ५. धुर बे भाग विषेह, परभवायु बांधै नथी । तिणसु एम कहेह, सप्त अष्टविध बंधका ।। ४. त्रिभागाद्यवशेषायुषो हि जीवा आयुर्बघ्नन्तीति । (वृ. प. ९.३) ५. त्रिभागद्वयादौ तन्न बघ्नन्तीतिकृत्वा बकुशादयः सप्तानामष्टानां वा कर्मणां बन्धका भवन्तीति, (वृ. प. ९०३) दूहा ६. सप्त कर्म प्रति बांधतो, आयु कर्मज टाल । सप्त कर्म नी प्रकृति, बन्ध निरंतर न्हाल ॥ ७. अष्ट कर्म प्रतिबांधतो, प्रतिपूर्ण जे अष्ट । कर्म प्रकृति बांधै तिको, इम प्रतिसेवन दृष्ट ।। ८. कषायकूशील नी पृच्छा, जिन कहै सत्तविध बंध । अथवा बंधक अष्टविध, अथवा षटविध संध ॥ ६. सत्त बंधमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ बंधति, ७. अट्ठ बंधमाणे पडिपुण्णाओ अट्ठ कम्मप्पगडीओ ___ बंधति एवं पडिसेवणाकुसीले वि। (श. २५॥३९१) ८. कसायकुसीले--पुच्छा। गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा, छविहबंधए वा। ९. सत्त बंधमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ बंधति, अट्ठ बंधमाणे पडिपुण्णाओ अट्ठ कम्मप्पगडीओ बंधति, १०. छ बंधमाणे आउय-मोहणिज्जवज्जाओ छक्कम्मप्पगडीओ बंधति । (श. २५॥३९२) ९. सप्त कर्म प्रति बांधतो, आयु वर्जी सात । अष्ट कर्म प्रति बांधतो, प्रतिपूर्ण अठ ख्यात ॥ १०. षटविध कर्मज बांधतो, आयु मोह नीं टाल । बांधै षट कर्म प्रकृति प्रति, दशम गुणे ए न्हाल ।। वा०-जिबारै आउखो न बांध तिवारै सात बांधे। छठ गुणस्थान आयु अबंधकाले सात कर्म बांधे । अन सातमें, आठमें, नवमें गुणठाणे अप्रमत्तपणा थकीज ते सात कर्मप्रकृति बांधे । छठ गुणस्थान आउखा नों बंध प्रारंभ्यो अनै सातमें गुणठाणे बंध पड़े पिण सातमें गुणठाणे आयुखा रो बंध प्रारंभ नहीं, एह पिण हुवै इम अन्य ग्रंथे कह्य छ। अनै छठे गुणठाणे कषायकुशील आयुखो बांधे ते वेला प्रतिपूर्ण आळं कर्म बांधे । अनै दशमे गुणठाणे आउखो मोहनी वर्जी छ कर्म बांधे । बादर कषाय नां वा.-'छव्विहं बंधेमाणा' इत्यादि, कषायकृशीलो १४० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभाव थकी मोहनी न बांध अनै आयुखा नो अबंध तो अप्रमत्तपणे पूर्वे थयुज ॐ ते माटै दशम गुणठाणे छह कर्म प्रकृति बांधे । हि सूक्ष्मसम्परायत्वे आयुर्न बध्नाति, अप्रमत्तान्तस्वात्तद्बन्धस्य, मोहनीयं च बादर कषायोदयाभावान्न बध्नातोति शेषाः षडेवेति । (व. प. ९०३,९०४) ११. निग्रंथ नीं पूछा कियां, एक वेदनी बंध ।। योगनांज सद्भाव थी, ते बंध हेतु संध ।। ११. नियंठे गं --पुच्छा। गोयमा! एग वेयणिज्ज कम्मं बंधइ । (श. २५॥३९३) 'एग बेयणिज्ज' ति निर्ग्रन्थो वेदनीयमेव बध्नाति, बन्धहेतुषु योगानामेव सद्भावात्' (वृ. प. ९०४) १२. सिणाए पुच्छा। गोयमा ! एगविहबंधए वा, अबंधए वा। १३. एगं बंधमाणे एगं वेयणिज्ज कम्मं बंधइ । (श. २२३९४) १२. स्नातक नीं पूछा कियां, इकविध बंधक होय । तथा अबंधक हृ तिको, शेलेसी नै जोय ।। १३. इकविध बांधंतो छतो, योग-सहित - संध । जोग बंध-हेतु थकी, एक वेदनी बंध ।। निर्ग्रन्थों में कर्मप्रकृति का वेदन _ *भाव सुणो नियंठा तणां ।। (ध्रुपदं) १४. पुलाक प्रभु ! किता कर्म नीं, प्रकृति वेदै जेह ? ललना। जिन भाखै निश्चै करी अठ कर्म प्रकृति वेदेह ललना ।। १५. एवं जावत जाणवू, कषायकुशील लगेह ललना। __ निश्चै करि अष्ट कर्म नी, प्रकृति प्रति वेदेह ललना ।। १६. निर्ग्रन्थ नीं पूछा कियां, भाखै जिन गुणगेह ललना । मोहणी ने वर्जी करी, सात कर्म वेदेह ललना ।। १४. पुलाए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ वेदेइ ? गोयमा ! नियमं अट्ट कम्मप्पगडीओ वेदेइ । १५. एवं जाव कसायकुसीले । (श. २०३९५) १६. नियंठे गं --पुच्छा । गोयमा ! मोहणिज्जवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ वेदेइ। (श. २५॥३९६) १७,१८. 'मोहणिज्जवज्जाओ' त्ति निर्ग्रन्थो हि मोहनीयं न वेदयति, तस्योपशान्तत्वात् क्षीणत्वाद्वा, (वृ. प. ९०४) सोरठा १७. वर ग्यारम गुणठाण, मोह उपशम थी मोहणी। वेदै नहीं ए जाण, सात कर्म वेदै तिको ॥ १८. फुन बारम गुणठाण, मोह क्षायक ते मोहनी। वेद नहीं सुजाण, सात कर्म वेदे तिको ।। १९. *स्नातक पूछयां जिन कहै, वेदनी आयु नाम ललना । गोत्र ए च्यारूं कर्म नी, प्रकृति वेदै ताम ललना ।। निग्रंथों में कर्मप्रकृति को उदीरणा २०. पुलाक प्रभु ! किता कर्म नीं, प्रकृति उदीरै जेह? ललना। ___ जिन कहै आयु वेदनी, वर्जी षट उदीरेह ललना ।। सोरठा २१. आयु वेदनी जेह, कर्म तणी प्रकृति प्रतै । उदोरणा न करेह, पुलाक विषेज वर्ततो ॥ २२. तथाविध अध्यवसाय, स्थानक तणां अभाव थी। बिहुं कर्म नी ताय, न करै एह उदीरणा ॥ २३. बिहुं कर्म नी एह, उदीरणा पहिला करी। पर्छ पुलाक प्रतेह, जायै पामै छै तिको ॥ १९. सिणाए णं---पुच्छा। गोयमा ! वेयणिज्ज-आउय-नाम-गोयाओ चत्तारि कम्मप्पगडीओ वेदेइ । (श. २५।३९७) २०. पुलाए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ उदीरेति ? गोयमा! आउय-वेयणिज्जबज्जाओ छ कम्मप्पगडीओ उदीरेति । (श. २५२३९८) २१, २२. पुलाक आयुर्वेदनीयप्रकृतीनोंदीरयति तथा विधाध्यवसायस्थानाभावात्, (वृ. प. ९०४) २३. किन्तु पूर्वं ते उदीर्य पुलाकतां गच्छति, (वृ. प. ९०४) *लय : दान कहै जग हूं बड़ो श.२५, उ०६,डा.४५. १४१ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. इम वकुशादि कहेह, जेह कर्म नीं प्रकृति प्रति । उदीरणा न करेह तसु अध्यवसाय अभाव थी ।। २५. जे कर्मप्रकृति प्रति तेह, पहिला उदीरणा करी । पर्छ बकु बकुश प्रमुखेह, जाये पा छै तिको || २६. कुछ जिन कहै, उदीरक सप्त प्रकार ललना । अथवा उदीरक अठविधा, अथवा षटविध धार ललना । ललना । ललना ।। ललना । २८. अष्ट कर्म में उदीरतो, अष्ट कर्म नीं प्रकृति प्र २७. सात कर्म नें उदीरतो, वर्जी आयु कर्म सप्त कर्म नी जे प्रकृति तास उदीरण धर्म प्रतिपूर्ण पहिचान जेह उदीरे जाण ललना ।। २९. घट कर्म प्रर्त उदीरतो आयु वेदनी टाल ललना । षटकर्मनीज प्रकृति प्रतै उदीरखं तसु न्हाल ललना ।। ३०. इमहिज ए प्रतिसेवना, उदीरक सप्त प्रकार ललना । अथवा उदीरक अठविधा, अथवा षटविध धार ललना ।। ३१. कषायकुशील तणीं पृच्छा, भाखे जिन गुणहीर ललना । सप्तविध वा अठविधा, षटविध पंच उदीर ललना ।। J । ३२. सात कर्म में उदोरतो, आऊ वर्णों जेह ललना । खप्त कर्म नीं प्रकृति प्रतं उदीरणा करं तेह ललना ।। ३३. अष्ट कर्म में उदीरतो, प्रतिपूर्ण अवलोय ललना । आठ कर्म नीं प्रकृति प्रत एह उदीरे सोय ललना ॥ ३४. पट कर्म प्र उदीरतो आयु वेदनी टाल ललना । षट कर्म नीं प्रकृति प्रत, उदीरखूं तसु न्हाल ललना ॥ ३५. पंच कर्म नं उदीरतो, मोह आयु वेदनी टाल ललना । पंच कर्मनी प्रकृति प्रत तास उदीरख भाल ललना ।। ३६. निग्रंथ पूछा जिन कहै, उदीरक पंच प्रकार ललना । अथवा द्विविध उदीरको, हिव कहिये विस्तार ललना ।। ३७. पंच कर्म नैं उदीरतो, मोह आयु वेदनी टाल ललना । , 7 पंचकर्म नीं प्रकृति प्रत, तास उदीरखूं न्हाल ललना ।। ३८. दोय कर्म नैं उदीरतो, नाम गोत कहिवाय ललना । ए बिहं नीं प्रकृति प्रति निषेय उदीरे ताय नलना ।। ३९. स्नातक नीं पूछा कियां, भाख श्री जिनराय ललना । द्विविध उदीरक छै तिको, अथवा उदीरक नांय ललना ।। ४० दोय कर्म नै उदीरतो नाम गोत्र उदीरेह ललना । त्रयोदशम गुणस्थान ए अनुदीरक अजोगेह ललना ॥ *लय दान कहै जग हूं बड़ो १४२ भगवती जोड 1 वTo - स्नातक सजोगी अवस्थाये नाम गोत्रनोंज उदीरक हुवै । आयुखां वेदगी तो पूर्वज उदीरघा अनं अयोग अवस्थाये तो अदरक हु २४, २५. एवमुत्तरत्रापि यो या: प्रकृतीनोंदीरयति स ताः पूर्वमुदीर्य बक्शादितां प्राप्नोति, (पु. प. ९०४) २६. बउसे पुच्छा । गोयमा ! सत्तविहउदीरए वा अट्ठविहउदीरए वा, बिउवीर वा २७. सत्त उदीरेमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ उदीरेति, २८. अट्ठ उदीरेमाणे पडिपुण्णाओ अट्ट कम्मप्पगडीओ उदीरेति, २९. छ उदीरेमाणे आउय-वेयणिज्जाओ छ कम्मप्पगडीओ उदीरेति । ३०. पण एवं व ३१. कासीले छा गोयमा ! सत्तविहउदीरए वा अट्ठविहउदीरए वा, उदीर वा पंचविहउदीरए वा ३२. सत्त उदीरेमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ उदीरेति ३३. अट्ठ उदीरेमाणे पडिपुण्णाओ अट्ठ कम्मप्पगडीओ उदीरेगि (२५/३९९ ) ३४. छ उदीरेमाणे आउय वेयणिज्जवज्जाओ छ कम्म पगडीओ उदीरेति, ३५. पंप उदीमा आज पनि मोहणिमयजाओ पंच कम्मप्पगडीओ उदीरेति । (. २५०४००) ३६. नियंठे पुच्छा | नोयमा पंचनदीना बिउदीरए वा ३७. पंच उदीरेमाणे आउय-वेयणिज्ज मोहणिज्जवज्जाओ पंच कम्मप्पगडीओ उदीरेति, ३८. दो उदीरेमाणे नामं च गोयं च उदीरेति । (श. २५०४०१) 1 ३९. सिणाए पुच्छा । गोवमा दुहिउदीरए वा अणुदीरए वा । ४०. दो उदीरेमाणे नामं च गोयं च उदीरेति । (श. २५/४०२) वा० - स्नातकः सयोग्यवस्थायां तु नामगोत्रयोरेवोदीरकः, आयुर्वेदनीये तुपुदी एव अयोग्यवस्थायां त्वनुदीरक एवेति । ( वृ. प, ९०४ ) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थों में उपसंपद्हान ४१. पुलाक हे भगवंतजी ! पुलाकपणां प्रति जे? चलना हु छांडो को छोटे कि, स्यूं अंगीकार करेह ? ललना ॥ ४२. श्री जिन भाखं गोयमा ! पुलाकपणा में छोडत ललना । कपायकुशील प्रत तथा असंजम ने आदरंत लगना । वा० पुलाला दांडी में जीती तेह सरीखा संजमस्थानक नां सद्भाव थकी । इम जेहन जेह सरीखा संजमस्थान छते तिण भाव प्रतै अंगीकार करें। परं कषायकुशीलादिक छाडी नैं कषायकुशीलादिक तो आप सरीखा अथवा असरीखा संजम नां स्थानक पिण पाम । जिम कषायकुशील आप सरीखा संयमस्थान छं जेह ने विषे ते पुलाकादिक ने पिण अंगीकार करें अथवा आप सरीखा संयमस्थान नहीं जेहने विषे तिण निर्ग्रन्थ नैं पिण अंगीकार करें। अनै निग्रंथ कषायकुशीलपणां प्रतै पामै । अथवा स्नातकपणा ते पामै स्नातक तो सी हीज । । ४३. * बकुश हे भगवंतजी ! बकुशपणां प्रति जेह ललना । चांडो को छांटे कि स्यूं परिवर्ज तेह ? ललना ।। ४४, जिनकी छांडे कक्षपणो, पडिसेबणा पडियज्जत ललना। कपायकशील प्रत तथा असंजम प्रति आदरत ललना ।। ४५. संजमासंजम प्रति वलि एह करें अंगीकार ललना । बक्शपणां प्रति छोडने, पडिवजे ए प्यार ललना ।। ४६. पडि सेवणा नीं पूछा कियां, श्री जिन भाखै सार ललना । डिसेबणा में तर्ज तिको, करै च्यार स्थानक अंगोकार ललना ॥ ४७. बकुश वा कषायकुशील ने तथा असंजम प्रवेह ललना । तथा संजमासंजम प्रतै, एक अंगीकार करेह ललना । ४८. कषायकुशील तणीं पृच्छा, भावे जिन जगतार ललना ॥ कषायकुशील ते तर्ज करें षट स्थानक अंगीकार ललना || ४९. पुलाकपणां प्रति आदरे, अथवा वकुश हंत ललना । पडवणा में आवे वली, अथवा निग्रंय ललना ।। ५०. अथवा असंजमी, तथा संजमासजमी होय ललना । साधु न श्रावक हुवै, ए प्रत्यक्ष दोष सुजोय ललना || ५१. निग्रंथ पूछा जिन कहे, निर्बंधपण तजेह ललना । कषायकुशल में, तथा स्नातकपणुं पडिवजेह ललना ॥ ५२. अथवा असंजम आदरै, एकादशम गुणस्थान ललना । उखो पूरी करी, ऊपजे अनुत्तर विमान ललना ॥ वा० -निग्रंथपणुं छांडी ने कषायकुशील प्रत अथवा स्नातक प्रत अथवा असंजम प्रतै पडिवजे तिहां उपशमनिग्रंथ श्रेणि थकी पड़तो थको सकषाय हुवै अ क्षपक हुवै ते स्नातक हुवै अने श्रेणि नैं मस्तके मूओ थको एह देवपण ऊपनों *लय दान कहै जग हूं बड़ो ४१. पुलाए णं भंते! पुलायत्तं जहमाणे किं जहति ? किं उवसंपज्जति ? ४२. गोयमा ! पुलायत्तं जहति । अस्संजमं वा उवसंपज्जति । वा० - पुलाक: पुलाकत्वं त्यक्त्वा संयतः कषायकुशील एवं भवति तत्सदृशसंयमस्थानसद्भावात्. एवं यस्य मत्सदृशानि संगमस्थानानि सन्ति स तद्भावमुपसम्पद्यते मुक्त्वा कषायकुशीलादीन्, पापकृती हि विद्यमानवसदृशसंयम स्थानकान् पुलाकादिभावानुपसम्पद्यते, अविद्यमानसमानसंयमस्थानकं च निर्ग्रन्थभावं निर्ग्रन्थस्तु कषायित्वं वा स्नातकत्वं वा याति स्नातकस्तु सिद्धयत्येवेति । ( बु. प. ९०४) ४३. बउसे णं भंते ! बउसत्तं जहमाणे कि जहति ? कि उपसंपति ? F वा कसायकुसीलं (श. २५/४०३) ४४. गोयमा ! वसत्तं जहति । पडिसेवणाकुसीलं वा कसायकुसील वा अस्संजम वा ४५. संजमासंजमं वा उवसंपज्जति । (श. २५/४०४) ४६. षं पुछा गोयमा ! पडिसेवणाकुसीलत्तं जहति । ४७. बसं वा कसायकुसीलं वा अस्संजमं वा संजमासंजमं वा उवसंपज्जति । (श. २२/४०५) ४८. कसायकुसीले गं पृच्छा। गोयमा ! कसायकुसीलत्तं जहति । ४९. पुलायं वा बउ वा पडिसेवणाकुसीलं वा नियंठ वा ५०. अस्संजम वा संजमासंजमं वा उवसंपज्जति । (२५०४०६) ५१. नियंठे पुच्छा । गोषमा ! नियंठतं जहति कसायकुसील वा विणाय वा ५२. अस्संजमं वा उवसंपज्जति । (श. २५/४०७ ) वा०] निर्धन्यसूत्रे कसायकुशीलवाणा वा इह भावप्रत्ययलोपात् कषाय कुशीलत्वमित्यादि दृश्यं, एवं पूर्वसूत्रेष्वपि तत्रोपनिन्य श्रेणीतः प्रययमानः सकषायो भवति, श्रेणीमस्तके तु मृतोऽसौ श० २५, उ० ६, ढा० ४५० १४३ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंजत हवै पिण संजतासंजत न हुदै, देवपणां नै विषे ते श्रावकपणां नां अभाव थकी। अनै श्रेणि थकी पड़ियो उपशमनिग्रंथ संयतासंयती पिण हवै, पिण तेह नों इहां उल्लेख नहीं । ते किम ? ग्यारमा थी अनन्तर दसमें ज आवै ए माट। देवत्वेनोत्पन्नोऽसंयतो भवति नो संयतासंयतो, देवत्वे तदभावात्, यद्यपि च श्रेणीपतितोऽसौ सयतासंयतोऽपि भवति तथाऽपि नासाविहोक्तः, अनन्तरं तदभावादिति । (वृ. प. ९०४,९०५) ५३. सिणाए-पुच्छा। गोयमा ! सिणायत्तं जहति । सिद्धिगति उवसंपज्जति। (श. २५१४०८) ५३. स्नातक पूछयां जिण कहै, स्नातकपणां प्रति छंड ललना । सिद्ध गति प्रतै अंगीकरै, सुख आत्मिक अखंड ललना ।। ५४. बेसौ छप्पन नों देश ए, च्यारसी में पचासमी ढाल ललना। भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल ललना ।। ढाल:४५१ निर्ग्रन्थों में संज्ञा दूहा १. पुलाए गं भंते ! कि सण्णोव उत्ते होज्जा ?नोसण्णो वउत्ते होज्जा? १. पुलाक स्यूं प्रभुजो ! हुव, सण्णोवउत्ता मांय ? के नोसण्णोवउत्ता विषे ? गोयम प्रश्न सुहाय ॥ सोरठा २. इहां संज्ञा कहिवाय, आहारादिक संज्ञा विषे । जे उपयुक्तज थाय, मोह कर्म नां उदय करि ।। ३. किणहि प्रकार करेह, आहारादिक में गद्ध जे । भाव आसक्तपणेह, संज्ञोपयुक्त का तिको ।। ४. फुन आहारक सोय, उपभोगे पिण जेह विषे। लंपट गृद्ध न होय, नोसण्णोवउत्ता तिके । २,३. इह सज्ञा--आहारादिसञ्ज्ञा तत्रोपयुक्त:कथञ्चिदाहाराद्य भिष्वङ्गवान् सज्ञोपयुक्तः, (व. प. ९०५) ४. नोसज्ञोपयुक्तस्त्वाहाराा पभोगेऽपि तत्रानभिष्वक्तः, (वृ. प. ९०५) ५ गोयमा ! नोसण्णोवउत्ते होज्जा। (श. २०४०९) ५. जिन भाख सुण गोयमा! सण्णोवउत्ते नाय । नोसण्णोवउत्ते हवे, नहीं संज्ञाध्यवसाय ।। ६. बकुश पूछयां जिन कहै, सण्णोवउत्ते होय । नोसण्णोवउत्ते हवै, ए बिहं विषे सुजोय ।। ६. बउसे णं भंते !-पुच्छा । गोयमा ! सण्णोवउत्ते वा होज्जा, नोसण्णोवउत्ते वा होज्जा। ७. एवं पडिसेवणाकुसीले वि । एवं' कमायकुसीले वि । ७. प्रतिसेवनाकुशील पिण, कहिवं बकुश जेम ! कषायकुशील पिण इमज, बकुश भाख्यो तेम ।। वा० बकुश पडिसेवणाकुशील कषायकुशील किणहि वेला आहारादिक नै विषे गृद्ध हुवै ते वेला सण्णोव उत्ते हुवै नै किणहि वेला आहारदिक नै विषे गृद्ध न हुवे तिवारै नोसण्णोवउत्ते कहिये । *लय : दान कहै जग हूं बड़ो १४४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. इहा निग्रंथ नें स्नातक वली, पुलाक जेम कहेह । सपणोवउ है नहीं, नहीं, नोसण्णोवउत्तेह || सोरठा ९. निर्ग्रथ स्नातक ताहि, पुलाक जेम कह्या प्रभु । आहारक र मोहि गृद्धपणे न खं वसु ॥ १०. निग्रंथ स्नातक बेह, वीतराग भावे करी । नोसण्णोवउत्तेह, आख्यो ते तो युक्त है। ११. पुलाक राग सहीत, सराग भाव विषे तिको । पण करि रहीत, किम कही सकिये सर्वथा ।। १२. वकुश आदि पिण ताय, सराग भावे तिके। नोसण्णोवउत्ता थाय, सराग कारण नहीं इहां ॥ दशमा गुणठाणा लगे । इहां कषाय तणं अच्छे ॥ अप्रमत्त गुणठाणा विषे । श्रेणि विषे पिण वर्त्तता ॥ में 1 १३. सराग भावज होय, उदय निरंतर जोय, १४. धर्म शुक्ल वर ध्यान, उपशम क्षायक जान, १५. तिहां विण सराग भाव, तिणसूं सराग भाव संज्ञा रहितज साव, हुवै तास कारण नथी ॥ पुलाक अरु निर्बंध में। नोसण्णोवउत्ता कह्या ॥ १६. फुन को चूर्णिकार, बली स्नातक ने सार, १७. ज्ञाने करी प्रधान, छै उपयोगजवान ए । पिण आहारादिक जान, संज्ञा करि उपयुक्त नहीं ॥ १८. वकुश आदि पण तीन, ज्ञान करी उपयुक्त हुवे। ते ॥ कुन आहारादिक चीन, संज्ञा करि उपयुक्त १९. तथाविध अवधार, संजमस्थानक भाव थी। इम को चूर्णिकार, बुद्धिवंत न्याय मिलाइये ।।' (ज.स.) बा० भूमिकार कह्यो पुलाक निर्बंध स्नातक नो- संशोपयुक्ताज्ञाने करी प्रधान उपयोगवंत छे पिण वली ते आहारादिक संज्ञोपयुक्ता नथी । अनें बकुशादिक ज्ञानप्रधान उपयोगवंत पिण अने आहारादिक संज्ञोपयुक्ता पिण ए बिहुं हु तथाविध संजमस्थान नां भाव थकी इति इहां चूर्णिकार रो ए अभिप्रायपुलाक, निग्रंथ, स्नातक ते ज्ञानप्रधान उपयोगवंत छे पिण आहारादिक संज्ञा नैं विधे उपयोग नहीं एव ज्ञान नां न प्रधानपकरी उपयोग पिष आहाराविक संज्ञा में उपयोगवंत नहीं, तिणसू नोगोवत्ता का अनं कुश पविमाशील कायशीन ए जि जिवारे मानकरी ज्ञान में उपयोग वर्त्त तिवारै नोसण्णावउत्ता कहीजै अनै जिवार प्रधानपणे करी ज्ञान नैं उपयोगे न व अ आहारादिक संज्ञा नैं विषे गृद्धपणां नैं भावे वर्त्त तिवार सण्णोवउत्ता कहिये इति । 1 ८. नियंठे सिणाए य जहा पुलाए । ९. तत्र पुलाक निर्ग्रन्थस्नातका नोसञ्ज्ञोपयुक्ता भवन्ति, आहारा दिष्वनभिष्वङ्गात्, ( वृ. प. ९०५ ) १०. ननु निर्ग्रन्थस्नातकावेवं युक्तौ वीतरागत्वात्, (श. २५/४१० ) ( वृ. प. ९०५ ) ११. पुसा सरायत्वात् नैवं न हि सरापले निरभिष्वङ्गता सर्वथा नास्तीति वक्तुं शक्यते, १२. बकुशादीनां सरागत्वेऽपि प्रतिपादितत्वात् (बृ. प. ९०५) निःसङ्गताया अपि ( वृ. प. ९०५) बा०पूर्णिकारस्वाह 'मोसन्ना नामसन' ति, तत्र च पुलाक निर्ग्रन्थस्नातकाः नोसज्ञोपयुक्ताः, ज्ञानप्रधानोपयोगवन्तो न पुनराहारादिसहोपयुक्ताः, कुशादयस्तुभवथाऽपि तथाविधसंयमस्या नसद्भावादिति । (बु.प. ९०५) श० २५, उ०६, ढा० ४५१ १४५ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्रंथों में आहारक अनाहारक * सूरिजन सुणजो निग्रंथ स्वरूप | ( ध्रुपदं ) २०. पुलाक प्रभुजी ! स्यूं हुवै आहारके ? के अनाहारके होय ? श्री जिन भाख आहारक विषे ह्वै, अनाहारक में नहीं कोव रे ॥ २१. एवं जाव निग्रंथ में कहिवु, हुवे आहारक माहि for अनाहारक ने विषे नहीं पावै, घुर पंच नियंठा ताहि ॥ गीतक छंद २२. पुर पंच ने विग्रहगत्यादिक, अनाहारक नां जिके कारण तणांज अभाव थी, मुनि अनाहारक नहीं तिके ।। २३. स्नातक पूछयां श्री जिन भाखे, आहारक नैं विषे होय । अथवा अनाहारक ने विषे ह्वै, तास न्याय अवलोय || यतनी २४ केवली समुद्घात करेह, तीज तुर्य पंचम समयेह । तथा अजोगीकेवली जोय, ए अनाहारका होय ॥ २५. तेही अन्यत्र केवलनाणी, तसु आहारक कहिये पिछाणी । इण न्याय स्नातक जिन ताय, आहारक अनाहारक विहं थाय ॥ नियों में भव २६. "किते भव ग्रहणे पुलाक प्रभु ! जिन कहै जघन्य थी एक । उत्कृष्टा भव तीन विषे हे सुर भव विच संपेख ॥ , सोरठा २७. पुलाक जघन्य संवादि, इक भव ग्रहण विषे थइ । कषायकुशीलत्वादि, अन्य संजतपणुं आदरं || २८. ते अन्य नियंठो सार, तिगज भवे वा अन्य भवे । एक तथा बहु वार, पामी ने सिद्ध हूं तिको । २९. उत्कृष्ट विण भव मांय, पुलाकपणां प्रतै लहै। ए लेखा में नहिं गिण्या || भाखै, जघन्य थकी भव एक । ह्वे, तसु इम न्याय संपेख || बीच अमर भव थाय, ३०. * बकुश पूछयां श्री जिन उत्कृष्टा भव अष्ट विषे सोरठा ३१. वकुश जघन्य संवादि, कोइक इक भव में लही। कषायकुशीलत्वादि, पामी ति भव मेंज सिद्ध । ३२. कोइक इक भव मांय वकुशपणां प्रति लही करी । भवांतरे कहिवाय, अन्य नियंठो प्राप्य सिद्ध ॥ *लय: रे मुनिवर ! जीव दया व्रत पालो १४६ भगवती जोड २०. पुलाए णं भंते ! कि आहारए होज्जा ? अणाहारए होन्डा ? गोयमा ! आहारए होज्जा, नो अणाहारए होज्जा । २१. एवं जाव नियंठे । (. २५०४११) २२. पुजाकानिन्यान्तस्य कत्वकारणानामभावादाहारकत्वमेव । विग्रहगत्यादीनामनाहार २३. सिणाए - पुच्छा । गोयमा ! आहारए वा होज्जा, अणाहारए वा होज्जा | (श. २५/४१२ ) २४. स्नातकः केवलिसमुद्घाते समयेषु अयोग्यवस्थायां चानाहारकः स्यात्, २५. ततोऽन्यत्र पुनराहारक इति । ( वृ. प. ९०५ ) तृतीयचतुर्थपञ्चम ३०. बउसे पुच्छा । २६. पुलाए णं भंते ! कति भवग्गहणाएं होज्जा ? गोयमा । जहोणं एक्कं उक्कोसेणं विणि । (२५०४१३) २९. उत्कृष्टतस्तु देवादिभवान्तरितान् पुलाकत्वमवाप्नोति । ( वृ. प. ९०५ ) ( वृ. प. ९०५ ) २७, २८. पुलाको जन्यत एकस्मिन् भवग्रहणे भूत्वा कषायकुशीलत्वादिकं संयतत्वान्तरमेकशोऽनेकशो वा तत्रैव भवे भवान्तरे वाऽवाप्य सिद्धघति, (बु. प. ९०५) त्रीन् भवान् ( वृ. प. ९०५ ) गोयमा ! जहणेणं एक्कं उक्कोसेणं अट्ठ । " ३१. इह कश्चिदेकत्र भवे बकुशत्वमवाप्य कषायकुशीलस्वादिप सिद्धपति, ( वृ. प. ९०५ ) ३२. कश्चित्कत्रैव बकुशत्वमवाप्य भवान्तरे तदनवाप्यैव सिद्धयति (बृ. प. ९०५) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. उत्कृष्ट अठ भव मांय, बकुशपणां प्रति आदरे । चरम भवे शिव पाय बुद्धिवंत न्याय विचारिये ॥ ३४. पटिसेवा पिग इमहीज कहिभुं एवं कषायकुशील जघन्य थकी इक भवने विषे ह्वै, उत्कृष्ट अष्ट सुमील ॥ ३५. पुलाक जेम निग्रंथ कहीजे, जघन्य थकी भव एक । उत्कृष्टा भव तीन ग्रहण करि चरम भवे शिव पेख ॥। ३६. स्नातक पूछयां श्री जिन भाखे, एकहीज भव होय । कर्म खपावी ने सिद्ध गति जावं, केवलज्ञानी सोय ॥ निर्ग्रन्थों के आकर्ष- चारित्र की प्राप्ति ३७. पुलाक प्रभुजी ! एक भव मांहे, श्री जिन भाखं जघन्य बकी इक 1 सोरठा ३८. जघन्य थकी इक वार पुलाक लब्धि फोड़वे । तीन वार अवधार, उत्कृष्ट इक भव नैं विषे ॥ ३९. * बकुश प्रभुजी ! इक भव मांहै, वार किती अवधार ? जिन कहै जघन्य थकी इक वारज जेष्ठ पृथक सौ वार ।। अनुयोगद्वार में कहां वा० सम्यक्त्व सामायिक ते तत्वश्रद्धा रूप लक्षण १ । श्रुत सामायिक ते जीव अजीवादिक नों जाणवो ए ज्ञान रूप लक्षण २ । देशविरति सामायिक ते देश थकी त्याग रूप लक्षण ३ । ए त्रिण एक भव में पृथक सहस्र वार आवे अन सर्व विरति सामायिक पृथक सौ वार आवै । ४०. डिसेवणा पिण इमहिज कहिवु, आवे कितरी बार ? उत्कृष्टो त्रिण वार ॥ इम कषायकुशील विचार । जेष्ठ पृथक सौ बार ॥ इक भव में सुविचार | उत्कृष्टो बे वार ॥ जघन्य बकी इक बारज आवे, ४१. निर्बंध पूछयां श्री जिन भाखं जघन्य थकी इक वारज आवै, गोलक संद ४२. इक भव विषे निग्रंथ फुन, उत्कृष्ट बे वेला लहै । द्वय वार उपशम श्रेणि चढ, गुणठाण वर ग्यारम गहै ।। ४३. इम श्रेणि उपशम करण थी, निग्रंथ उपशम नां कह्या । आकर्षक भव विषे, उत्कृष्ट थी इहविध लह्या ।। ४४. * स्नातक पूछयां थी जिन भाखे इक भव में अवधार एक बार आवै तसु प्राप्ति, पछे जावै मोक्ष मझार ॥ ४५. बहु भव मांहै पुलाक प्रभुजी ! आवै कितरी बार ? जिन कहै जघन्य आवं वे वारेज, उत्कृष्ट सप्त विचार ।। *लय रे मुनिवर ! जीव दया व्रत पालो : ३३. 'उक्कोसेणं अट्ठ' त्ति किलाष्टो भवग्रहणानि उत्कृष्टतया चरणमात्रमवाप्यते, ( वृ. प. ९०५ ) ३४. एवं पडिसेवणाकुसीले वि । एवं कसायकुसीले वि । ३५. नियंठे जहा पुलाए । (श. २५/४१४ ) ३६. सिणाए – पुच्छा । गोयमा ! एक्कं । ३७. पुलागस्स णं भंते! एगभवग्गहणीया केवतिया आगरिसा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणेणं एक्को, उक्कोसेणं तिण्णि । (२५०४१६) (म. २५/४१५) ३९. बउसस्स णे- पुच्छा । गोवमा ! कष्येणं एक्को, उनकोमेणं सतग्मसो । वा० तिन्हं सहसपुत्तं सयपुहुत्तं च होंति विरईए । एगभवे आगरिसा एवइया होंति णायव्वा ॥ ( वृ. प. ९०५ ) ४०. एवं पडिसेवणाकुसीले वि, कसायकुसीले वि । ४१. नियंठस्स णं - पुच्छा। गोमा ! जहणं एक्को, उक्कोसेन दोणि (श. २५/४१८) ४४. सिणायस्स णं पुच्छा । गोयमा ! एक्को । ४५. पुलागस्य णं ते आगरिसा पण्णत्ता ? (श. २५/४१७) ४२,४३. एकत्र भवे वारद्वयमुपशमश्रेणिक रणादुपशमनिर्ग्रन्थत्वस्य द्वावाकर्षाविति । ( वृ. प. ९०५ ) (श. २५/४१९ ) नागाभवग्गणीया केवतिया गोमा ! जहणेणं दोण्णि, उक्कोसेणं सत्त । (श. २५/४२०) श० २५, उ० ६, ढा० ४५१ १४७ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ४६. इक भव में इक वार, फुन दूजो आकर्ष ते। अन्यत्र भवे विचार, इम अनेक भव जघन्य बे॥ ४६. एक आकर्ष एकत्र भवे द्वितीयोऽन्यत्रेत्येवमनेकत्र भवे आकर्षी स्यातां, (वृ. प. ९०५,९०६) स्याद् गीतकछंद ४७. उत्कृष्ट थी आकर्ष सप्तज, तास न्याय कहावही। उत्कृष्ट थीज पुलाक छै ते, तीन भव में आवही ।। ४८. इक भव विषे उत्कृष्ट थी, ते तीन बार लहै वही। त्रिण वार लब्धि पुलाक फोड़े, इक भवे उत्कृष्ट ही ।। ४९. धुर भव विषे इक वार फुन, बे भव विषे त्रिण-त्रिण लही। इम प्रमुख विकल्प करि बहु भव, सप्तवारज जेष्ठ ही ।। ४७. 'उक्कोसेणं सत्त' ति पुलाकत्वमुत्कर्षतस्त्रिषु भवेषु (वृ. प. ९०६) ४८. एकत्र च तदुत्कर्षतो वारत्रयं भवति। (वृ. प. ९०६) ४९. ततश्च प्रथमभवे एक आकर्षोऽन्यत्र च भवद्वये त्रयस्त्रय इत्यादिभिर्विकल्पैः सप्त ते भवन्तीति । (व प. ९०६) ५०. बउसस्स—पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं सहस्सग्गसो । ५०. *बकुश पूछयां श्री जिन भाखै, जघन्य थकी बे वार । उत्कृष्ट बोहितर सो वेला, पाठ सहस्सग्गसो सार । सोरठा ५१. बकुशपणुं समील, जघन्य वार द्वय बे भवे । पर्छ कषायकुशील, लही श्रेणि चढ शिव गमन ।। गीतकछंद ५२. उत्कृष्ट सप्तज सहस्र बे सौ, तास न्याय कहावही। इक भव विषे उत्कृष्ट थी जे, वार नव सय आवही ।। ५३. उत्कृष्ट भव तसु अष्ट आख्या, एक-एक भवे वही। आकर्ष नव सय नव सये, इम सप्त सहस्र बे सौ सही ।। वा.-बकुश ना आठ भव ग्रहण उत्कृष्ट थकी कह्या । तिहां एक भव नै विषे उत्कृष्ट थकी शत पृथक कह्या । तिहां जिवार आठ भव ग्रहण नै विषे उत्कर्ष थकी प्रत्येके नवस आकर्ष हुवै। तिवारं नवस नै आठगुणा करतां ७२०० आकर्ष सम्यक्त्व सामायिक १, श्रुत सामायिक २, देशविरति सामायिक ३-ए त्रिण उत्कृष्ट घणां भव में असंख्याता हजार वार आवे अन सर्वविरति पृथक हजार वार आवै। वा.-'उक्कोसेणं सहस्सग्गसो' त्ति बकुशस्याष्टो भवग्रहणानि उत्कर्षत उक्तानि, एकत्र च भवग्रहणे उत्कर्षत आकर्षाणां शतपृथक्त्वमुक्तं, तत्र च यदाऽष्टास्वपि भवग्रहणेषत्कर्षतो नव प्रत्येकमाकर्षशतानि तदा नवानां शतानामष्टाभिर्गुणनात्सप्तसहस्राणि शतद्वयाधिकानि भवन्तीति । (व. प. ९०६) तिण्ह सहस सहस्समसंखा पुहुत्तं च होइ विरईए। नाणाभवे आगरिसा एवइया होंति णायव्वा । (अनुयोग वृ. प. २४१) ५४. एवं जाव कसायकुसीलस्स। (श. २५४२१) ५५. नियंठस्स णं-पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं पंच । (श २५४४२२) ५४. *एवं जाव कषायकुशीलज, बह भवे जघन्य बे वार । बार बोहितर सौ उत्कृष्टो, न्याय पूर्ववत सार ।। ५५. निग्रंथ पूछयां श्री जिन भाखै, जघन्य थकी बे वार । पंच वार उत्कृष्टो आवै, तास न्याय अवधार ।। सोरठा ५६. धुर भव उपशम श्रेण, क्षपक श्रेणि द्वितीये भवे । बहु भव बे वारेण, इम लही शिव पद संचरै ।। *लय : रे मुनिवर ! जीव क्या व्रत पालो १४८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. 'उक्कोसेणं पंच' त्ति निर्ग्रन्थस्योत्कर्षतस्त्रीणि भवग्रहणान्युक्तानि, (वृ. प. ९०६) ५८. एकत्र च भवे द्वावाकर्षावित्येवमेकत्र द्वावन्यत्र च द्वौ ५९. अपरत्र के क्षपकनिर्ग्रन्थत्वाकर्ष कृत्वा सिद्धयतीति कृत्वोच्यते पञ्चेति । (वृ. प. ९०६) ६०. सिणायस्स-पुच्छा। गोयमा ! नत्थि एक्को वि। (श. २५४२३) ६१. पुलाए णं भंते ! कालओ केवच्चिर होइ ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि भंतोमुहुत्तं । (श. २४२४) ५७. उत्कृष्ट वारज पंच, ते किण रीत कहीजिये। त्रिण भव विषेज संच, निग्रंथपणुं लहै कां ।। ५८. इक भव में बे वार, उपशम श्रेणि लहै वली। द्वितीय भवे सुविचार, उपशम श्रेणिज वार बे।। ५९. तृतीय भवे तहतीक, क्षपक श्रेणि गहि सिव लहै । इम बहु भवे सधीक, वार पंच इम वृत्तौ ।। ६०.*स्नातक पूछयां श्री जिन भाखै, ते बहु भव रै मांय ? __ स्नातक बहु भव में नहिं आवै, इक भव मेंज इक बार आय ।। निर्ग्रन्थों का काल ६१. पुलाक प्रभुजी ! काल थकी जे, किता काल लग होय? जिन कहै जघन्य अने उत्कृष्टो, अंतर्मुहूर्त जोय ।। सोरठा ६२. पुलाक काल जघन्न, अंतर्मुहर्त न्याय तसं। पुलाकपणुं प्रपन्न, इतरै पुलाक पडिवज्यो ।। ६३. अंतमुहत्त काल, परिपूर्तिज थयां बिना। न मर न पड़े न्हाल, अंतर्मुहुर्त जघन्य इम ।। ६४. अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट, एह प्रमाणपणां थकी। तसु स्वभाव ने इष्ट, तिणसं अधिको काल नहीं ।। ६५. *बकुश पूछयां श्री जिन भाखै, समयो एक जघन्य । उत्कृष्ट देश ऊण पुव्व कोड़ि, तास न्याय इम जन्य ।। सोरठा ६६. कषायकुशील आदि, बकुशपणां प्रति पडिवजी। समय रही संवादि, मरण लह्यां इक समय धुर ।। ६२,६३. 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' ति पुलाकत्वं प्रतिपन्नो ऽन्तर्मुहूर्तापरिपूर्ती पुलाको न म्रियते नापि प्रतिपततीतिकृत्वा जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमित्युच्यते, (वृ. प. ९०६) ६४. उत्कर्षतोऽप्यन्तर्महुर्तमेतत्प्रमाणत्वादेतत्स्वभावस्येति । (वृ. प. ९०६) ६५. बउसे-पुच्छा। गोयमा ! जहणणं एक्कं समय, उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी। ६६. 'जहन्नेणमेक्कं समयं' ति बकुशस्य चरणप्रतिपत्त्यनन्तरसमय एव मरणसम्भवादिति, (वृ. प. ९०६) ६७,६८. 'उक्कोतेणं देसूणा पुब्व कोडि' त्ति पूर्वकोट्यायुषोऽष्टवर्षान्ते चरणप्रतिपत्ताविति । (व. प ९०६) ६७. अठ वर्ष जाझे जोय, तेह चरण लेतो छतो। कषायकुशील होय, बकुशपणं पाछै ग्रह्यं ।। ६८. तसु स्थिति पूर्व कोड़, देश ऊण आखी तस् । बकुशपणूंज जोड़, अंत लगै इम जेष्ठ स्थिति ।। ६९. *पडिसेवणा नै कषायकुशीलज, इमहिज कहि जोड़ । जघन्य समय इक फून उत्कृष्टो, देसूण पूर्व कोड़। ७०. निग्रंथ पूछयां श्रीजिन भाखै, जघन्य समय इक जाण । उत्कृष्ट अंतर्मुहर्त अद्धा छै, तास न्याय पहिछाण ।। गीतकछंद ७१. गुणठाण ग्यारम समय इक रहि, मरण पाम्यां जाणियै । इक समय इम निग्रंथ अद्धा, जघन्य थी पहिछाणियै ।। ६९. एवं पडिसेवाणाकुसीले वि, कसायकुसीले वि। (श. २५४२५) ७०. नियंठे-पुच्छा। गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । (श. २५:४२६) ७१. 'जहन्नेणं एक्कं समयं' ति उपशान्तमोहस्य प्रथमसमयसमनन्तरमेव मरणसम्भवात्, (वृ. प. ९०६) *लय : रे मुनिवर ! जीव दया व्रत पालो श० २५, उ०६,ढा० ४५१ १४९ dain Education Intemational Jain Education Intemational For Private & P Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. उत्कृष्ट अद्धा अंतमुंह, तसु एतलाज प्रमाण थी पिण, ७३. * स्नातक पूछघां श्री जिन भाखे आखियो निर्ग्रथनं । एहथी नहीं छं धनुं । अंतर्मुहुर्त जघन्य । उत्कृष्ट अद्धा देश ऊण जे, पूर्व कोड़ि सुजन्य ॥ सोरठा ७४. आऊखा नैं अंत. थाकते । अंतर्मुहूर्त वर केवल उपजंत, अंतर्मुहतं जघन्य इम ॥ साधिक अठ वर्षे लहै । ७५. कोड़ पूर्व स्थिति जास, केवलज्ञान प्रकाश, देश ऊण ७६. इक वचने करि काल हिव बहुवचने म्हाल, पुम्बकोड़ि इम ॥ पुलाक प्रमुख नों 1 अद्धा तेनुं ॥ आयो कहिये ७७. काल की प्रभु ! घणां पुलाका, रहे जपन्य समय इक श्री जिन भाखं काल केतलो इष्ट ? अंतर्मुहूतं उत्कृष्ट ॥ यतनी ७८. कहूं एक समय नों न्याय, जेह एक पुलाक नों ताय । कह्यं अंतर्मुहूर्त्त काल, तेहनां चरम समय विषे न्हाल ॥ ७९. पुलाकपणुं अनेरो पामेह, जघन्यपणां नीं वंछा विषेह । थयो दोनं पुलाक नों भाव, एक समय विषे इण न्याय ।। ८०. प्रथम पुलाक नुं जोय, जे चरम समय अवलोय । द्वितीय पुलाक नौ तेह, ओ तो प्रथम समय कहां जेह ॥ ८१. हम एक समय रे मांय, दोय पुलाक कहिवाय । प्राकृत भाषा मांय, दोन पिन बहुवचने कहाय ॥ सोरठा उत्कृष्ट, २. अंतर्मुह यद्यपि घणां पुलाक नों। इक काले ते इष्ट, पृथक सहस्र जे पामियं ॥ ८३. ते अंतर्मुहूर्त्त थकीज, तास काल नों बहुत्व पिण । अंतर्मुहूर्त हीज, तेहिज बहु नीं स्थिति विषे ॥ ८४. इक पुलाक स्थिति जोय, अंतर्मुहूर्त काल जे तेहची महत्तर होय, अंतर्मुहूर्त बहू तनुं ॥ वा०--- इहां घणां पुलाक जघन्य थकी एक समय ते किम ? एक पुलाक नों जे अंतर्मुहूर्त काल तेहनां अंत समय नैं विषे अनेर पुलाकपणुं पाम्यो इम जघन्यत्व विवक्षा नै विषे दोय पुलाक नों एक समय नैं विषे सद्भाव थयो, द्वित्व नै विषेज जघन्य पृथक हुवै । उत्कृष्ट थकी अंतर्मुहूर्त - यद्यपि पुलाक उत्कृष्ट थी एकदा सहस्र पृथक परिमाण पामियं ते अंतर्मुहूर्तपणां थकी तेहनां काल नों बहुत्व, तो पिण तेह अंतर्मुहूर्त तेहि ते काल । केवल घणां नीं स्थिति नैं विषे जे अंतर्मुहूर्त्त ते एक पुलाक स्थिति अंतर्मुहूर्त थकी महत्तर जाणवुं । एतले एक पुलाक नां अंतमुहूर्त काल की पणा पुलाक नुं अंतर्मुहुर्त मोटो जावं । *लय: रे मुनिवर ! जीव दया व्रत पालो १५० भगवती जोड़ ७२. 'उक्कोसे अंतोमुहुत्त' ति निर्ग्रन्थाद्वाया एतत्प्रमाणत्वादिति । (बृ. प. ९०६) ७३. सिणाए- पुच्छा । गोवमा ! जो अंतगत उपो देगा पुष्कोडी | (म. २५०४२७) ७४. 'जने अंतगृहतं ति आयुष्कान्तिमेतहूर्ते केवलोत्पत्तावन्त स्यादिति । जघन्यतः स्नातककालः (बृ. प. ९०६) ७६. गुलाकादीनामेकत्वेन कासमानमुक्त अथ पृथक्त्वेनाह(बृ. प. ९०६) ७७. पुलाया णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होंति ? गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुतं । (श. २५४२८ ) 1 वा०-- ' जहन्नेणं एक्कं समयं ति, कथम् ? एकस्य पुलाकस्य योऽन्तर्मुहूर्त्तकालस्तस्यान्त्यसमयेऽन्यः पुलाकत्वं प्रतिपन्न इत्येवं जपन्वत्वविवक्षायां द्वयोः पुलाकयोरेकत्र समये सद्भावो द्वित्वे च जघन्यं पृथक्त्वं भवतीति । 'उबको अंतोमुहूर्त' ति यद्यपि पुलाका उत्कर्षत एकदा सहस्रपृथक्त्वपरिमाणा: प्राप्यन्ते तथाऽप्यन्तत्वात्तदद्वावा महुत्वेऽपि तेषामन्तर्मुहुर्तमेव तत्काल केवल बहूनां स्थितौ यदन्त तदेकपुलाकस्थित्यन्त महतमहत्तरमित्यवसेयं, (बृ. प. ९०६,९०७) 2 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५. बउसा णं-पुच्छा। गोयमा ! सव्वद्धं । एवं जाव कसायकुसीला। ८५. *घणां बकुश नीं पूछा कीधां, जिन भाखै सर्व काल । एवं जाव कषायकुशीलज, बहु वचने करि न्हाल ।। सोरठा ८६. बकुस आदि संवादि, सर्व काल बहु सासता । एक-एक बकुशादि, बहुस्थितिक नां भाव थी। ८७. निग्रंथ बहु वच पुलाक नी परि, समयो एक जघन्य । उत्कृष्ट अंतर्मुहर्त अद्धा, न्याय पुलाक ज्यूं जन्य ।। ८८. बहु वच स्नातक बकुश तणी परि, सदा काल ते जोय । केवलज्ञानी पृथक कोड़ थी, ओछा कदेय न होय ।। ८९. शत पणवीसम देश छठा नं, च्यारसौ एकावनमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशाल । ८६. बकुशादीनां तु स्थितिकालः सर्वाद्धा, प्रत्येक तेषां बहुस्थितिकत्वादिति। (वृ. प. ९०७) ८७. नियंठा जहा पुलागा। ८८. सिणाया जहा बउसा । (श. २१४२९) ढाल:४५२ निर्ग्रन्थों में अन्तर १. पुलाक में प्रभु ! केतलो, काल अंतरो जेह ? पुलाक थइ कितै अद्धा, फुन पुलाक है तेह ? २. श्री जिन भाख जघन्य थी, अंतर्मुहूर्त जेह । उत्कृष्ट काल अनंत मुं, अंतर इकवचनेह ।। वा०-- जघन्य थकी अंतर्मुहूर्त रही नै वली पुलाक हीज हुवै । उत्कृष्ट थकी। वली अनंत कालपणे पाम ते काल नों अनंतपणों हीज काल थी नियम करतो कहै १. पुलागस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ ? तत्र पुलाकः पुलाको भूत्वा कियता कालेन पुलाकत्वमापद्यते? (व. प. ९०७) २. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं। वा.-जघन्यतोऽन्तर्मुहूतं स्थित्वा पुनः पुलाक एव भवति, उत्कर्षत: पुनरनन्तेन कालेन पुलाकत्वमाप्नोति, कालानन्त्यमेव कालतो नियमयन्नाह (वृ. प. ९०७) ३. अणंताओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ कालओ, ४. इदमेव क्षेत्रतोऽपि नियमयन्नाह- (वृ.प. ९०७) ३. काल थकी अंतर हुवै, अवसर्पिणी अनंत । उत्सर्पिणी अनंत ही, भाखी श्री भगवंत ।। ४. तेह अनंतो काल फुन, क्षेत्र थकी पहिछाण । मिणतां छतांज मान थी, सुणियै तेह सुजाण ।। ५. परावर्त-पुद्गल अर्द्ध, देश ऊण अवलोय । इक यावत निग्रंथ ने, इक वच अंतर होय ।। वा०-खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियटै देसूणं एवं जाव नियंठस्स--खेत्तओ कहितां क्षेत्र थकी, अवड्ढे कहितां अपगत अर्द्ध ते गयो छै अर्द्ध ते अर्द्ध मात्र, पो० कहिता पुद्गलपरावर्त ते अर्द्ध पुद्गलपरावर्त पूर्ण पिण हुई ते माटै आगल कहै छै ५. खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियट देसूर्ण । एवं जाब नियंठस्स। (श. २५१४३०) वा.-'खेत्तओ' इति, स चानन्तः कालः क्षेत्रतो मीयमानः किमान: ? इत्याह-'अवड्ढ' मित्यादि, 'अपार्द्धम्' अपगतार्द्धमर्द्धमात्रमित्यर्थः, अपार्दोऽप्यर्द्धत: *सय : रे मुनिवर ! जीव दया व्रत पालो श० २५, उ.६, ढा० ४५१,४५२ १५१ Jain Education Intemational Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूणः स्यादत न्यूनमिति । आह- 'देसूण' ति देशेन भागेन (वृ. प. ९०७) देसूर्ण कहिता देश भागे करी ऊणों एतले देश ऊणों अर्द्ध पुद्गलपरावर्त्त क्षेत्र थकी उत्कृष्ट इक वचने पुलाक नों अंतर हुदै । इम जाव निग्रंथ नुं अंतर जाणवू । ६. स्नातक नीं पूछा कियां, भाखै तब भगवंत । तेह तणुं अंतर नथी, स्नातक नहीं पड़त ।। दूहा ७.हे प्रभु ! घणां पुलाक नों, अंतर कितरो थात? जिन कहै समय एक धुर, जेष्ठ वर्ष संख्यात ।। ६. सिणायस्स-पुच्छा। गोयमा ! नत्थि अंतरं। (श. २५॥४३१) 'सिणायस्स नत्थि अंतरं' ति प्रतिपाताभावात् । (वृ. प. ९०७) ७. पुलायाणं भंते ! केवतियं कालं अंतर होइ? गोयमा ! जहण्णणं एक्कं समय, उक्कोसेण संखेज्जाई वासाई। (श. २५।४३२) वा०-बहुवचने पुलाक नों अंतर जघन्य एक समय नों उत्कृष्ट संख्याता वर्ष । पछै तो कोई पुलाक लब्धि फोड़वं हीज । बहुवचने ते घणा जीव आश्रयी। ८.हे प्रभु ! बहु बकुश पृच्छा, जिन कहै अंतर नांहि। एवं यावत जाणवू, कषायकुशील ताहि ।। ८. बउसाणं भंते !-पुच्छा। गोयमा! नत्थि अंतरं । एवं जाव कसायकुसीलाणं । (श. २५४३३) वा-बकुश, पडिसेवणाकुशील, कषायकुशील सदा शाश्वता घणां लाध ते माट एहनों अंतर नथी। ९.प्रश्न घणां निग्रंथ नों, जिन कहै जघन्य विमास । एक समय नों अंतरो, उत्कृष्टो षट मास ।। ९. नियंठाणं-पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं छम्मासा। एक्कं समयं, उक्कोसेण वा०--घणां जीव आश्रयी निग्रंथ नुं अंतर जघन्य एक समय, ते एक समय नों विरह थइ कोइ जीव इग्यारमों तथा बारमों गुणस्थान फर्श ते माटै जघन्य एक समय, उत्कृष्ट थकी षट मास । ते षट मास तांइ कोइ जीव इग्यारमों तथा बारमों गुणस्थान न फर्श । अनै छ मास पछै तो अवश्यमेव फर्शहीज ते माट उत्कृष्ट छ मास नुं अंतर। १०. बहवचने स्नातक तणं, बकूश जेम कहिवाय । घणां केवली शाश्वता, तिणसूं अंतर नांय ।। निर्ग्रन्थों में समुद्घात *सुणज्यो भव्य प्राणी ! नियंठा षट भाख्या नाणी ।। (ध्रुपदं) ११. प्रभु ! समुद्घात किति पुलाक मांय?जिन कहै तीनज पाय । प्रथम वेदना नैं दूजी कषाय, मारणांतिक फुन थाय ।। १०. सिणायाणं जहा बउसाणं । (श. २५॥४३४) ११. पुलागस्स णं भंते ! कति समुग्धाया पण्णत्ता? गोयमा ! तिण्णि समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा--- वेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्घाए। (श. २५॥४३५) सोरठा १२. पुलाक नैं इहां ख्यात, मरण अभावे पिण तस । मारणांतिक समुद्घात, आखी तेह विरुद्ध नहीं। १३. समुद्घात थी वादि, निवृत्त नैं ए आखियो । कषायकुशील आदि, परिणामे मृत्यु हुवै ।। *लय : पुन्यवंतो जीव १५२ भगवती जोड़ Jain Education Intenational Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०--- वेदनासमुद्घात १, कषायसमुद्घात २ चारित्रवंत ने सज्वलन कषाय उदय संभवे करी कषायसमुद्घात हुवै । इहां पुलाक नै मरण अभावे पिण मारणांतिक समुद्धात विरुद्ध नहीं। समुद्घात थकी निवृत्त नै कषायकुशीलस्वादि परिणाम थकां मरण नां भाव थकी। एतले मारणांतिकसमुद्घात पुलाक में कर, करी नै पछै निवृत्त ते वेला कषायकुशीलादिकपणां प्रति पामी नै मरै तिणसू पुलाक में ए समुद्घात पावै । १४. *बकुश पूछयां थी कहै जिन संच, समुद्घात छै पंच । वेदना जाव तेजस समुद्घात, इम पडिसेवणा अवदात ।। वा.-'कसायसमुग्धाए' त्ति चारित्रवतां सज्वलनकषायोदयसम्भवेन कषायसमुद्घातो भवतीति, 'मारणंतियसमुग्घाए' त्ति, इह पुलाकस्य मरणाभावेऽपि मारणान्तिकसमुद्घातो न विरुद्धः समुद्घातान्निवृत्तस्य कषायकुशीलत्वादिपरिणामे सति मरणभावात्, (वृ. प. ९०७) वि । १५. कषायकुशील पूछयां कहै नाथ, पावै षट समुद्घात । वेदना जावत आहारक जाणी, लब्धि फोड्यां रो दंड पिछाणी ।। १६. निग्रंथ पूछयां कहै जिनराय, इक पिण पावै नाय । स्नातक पूछयां कहै जगनाथ, पावै केवल समुद्घात ।। १४. बउसस्स णं भंते!-पुच्छा। गोयमा ! पंच समुग्घाया पण्णता, तं जहा- वेयणा समुग्घाए जाव तेयासमुग्घाए । एवं पडिसेवणाकुसीले (श. २५४४३६) १५. कसायकुसीलस्स--पुच्छा । गोयमा ! छ समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा-वेयणा समुग्धाए जाव आहारसमुग्घाए। (श. २५४३७) १६. नियंठस्स णं-पुच्छा। गोयमा ! नत्थि एक्को वि। (श २५१४३८) सिणायस्स-पुच्छा। गोयमा ! एगे केवलिसमुग्घाए पण्णत्ते । (श. २५१४३९) १७. पुलाए णं भंते ! लोगस्स कि संखेज्जइभागे होज्जा ? असंखेज्जइभागे होज्जा? १८. संखेज्जेसु भागेसु होज्जा? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? सव्वलोए होज्जा ? निग्रन्थों का क्षेत्र १७. पुलाक हे प्रभु ! लोक नैं सोय, स्य संख्यातमें भाग होय ? के असंख्यातमें भागे कहेह, पुलाक साधु जेह ? १८. कै घणां संख्याता भाग विषे थाय ? के बह असंख्याता भाग मांय ? सर्व लोक में कहीजै संच? प्रश्न पूछया ए पंच ।। १९. श्री जिन भाखै गोतम ! सुणजे, थिर चित्त करिक थुणजे । संख्यातमें भागे नहिं कोय, असंख्यातमें भागे होय ।। २०. घणां संख्याता भाग विषे नाहिं, नहीं घणां असंख भाग मांहि । सर्व लोक में विषे नहीं थाय, पुलाक साधु ताय ।। वा०-पुलाक शरीर नै लोक ना असंख्यात भाग मात्र अवगाहीपणां थकी लोक नै असंख्यातमें भागहीज कहिये शेष च्यार बोल न हुवै । २१. एवं जाव' निग्रंथ लगेह, स्नातक पूछयां कहेह। संख्यातमें भाग नहीं होय, असंख्यातमें भाग जोय ।। १९. गोयमा ! नो संखेज्जइभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे होज्जा, २०. नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो सव्वलोए होज्जा। वा.-'असंखेज्जइभागे होज्ज' त्ति पुलाकशरीरस्य लोकासंख्येयभागमात्रावगाहित्वात् । (व. प. ९०७) २१. एवं जाव नियंठे। (श. २५॥४४०) सिणाए णं-पुच्छा। गोयमा ! नो संखेज्ज इभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे होज्जा, २२. नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, सव्वलोए वा होज्जा। (श. २५१४४१) वा.-'असंखेज्जइभागे होज्ज' त्ति शरीरस्थो दण्डकपाटकरणकाले च लोकासंख्येयभागवत्तिः केवलिशरीरादीनां तावन्मात्रत्वात् 'असंखेज्जेसु भागेसु २२. घणां संख्याता भाग में नाहि, हुवै घणां असंख भाग मांहि । सर्व लोक में विषे तथा ताम, ए बोल तीन इहां पाम ।। वा० स्नातक संख्यातमा भाग नै विषे न हुवै अनं घणां संख्याता भाग ने विर्षे पिण न हुवे । अनं लोक ना असंख्यातमा भाग नै विषे हुवै ते शरीर आश्रयी नै । शरीर नै विषे रह्यो वली दंड, कपाट करिवानां काल नै विषे लोक नै *लप : पुन्यवंतो जीव ०२५, ७०६, ढा०४५२ १५३ Jain Education Intemational Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होज्ज' त्ति मथिकरणकाले बहोलॊकस्य व्याप्तत्वेन स्तोकस्य चाव्याप्ततयोक्तत्वाल्लोकस्यासंख्येयेषु भागेषु स्नातको वर्तते, लोकापूरणे च सर्वलोके वर्तत इति । (वृ. प. ९०७,९०८) असंख्यातमें भागवत्ति केवली शरीरादिक नों तेतलो मानपणां थकी असंख्यातमें भाग का । तथा घणां असंख्याता भाग नै विषे हवं ते मंथकरण काल नै विष घणों लोक व्याप्यो हुदै, थोड़ो अव्याप्यो रहै। तिण करिके कहो लोक ने पणा असंख्याता भाग में विषे स्नातक बत्तै। तथा सर्व लोक ने विषे हवं ते लोक ने पूर नै सर्वलोक में वर्त। निर्ग्रन्थों द्वारा लोक को स्पर्शना २३. पुलाक लोक नैं हे भगवंत ! स्यूं संख्यातमें भाग फर्शत ? के असंख्यातमें भाग फर्शह? इत्यादिक प्रश्न उत्तर एह ।। २४. इम जिम अवगाहना कही सोय, भणवी तिमज फर्शना जोय । क्षेत्र नी परै फर्शना कहिवी, जाव स्नातक लग लहिवी ।। वा०-स्पर्शना क्षेत्र नी परै कहिवी । एतलो विशेष - क्षेत्र ते अवगाह्यो तेतलो हीज अनै स्पर्शना तो अवगाढ नी तथा तेहन पास व तेहनी पिण हुवै इति विशेष। निर्ग्रन्थ किस भाव में २५. पुलाक हे भगवंत जी ! सोय, किसा भाव विषे होय । श्री जिन भाखै क्षयोपशम भावे, पुलाक चरित्त कहावे ।। २६. एवं जाव कषायकुशील, निग्रंथ पूछयां सुमील । उपशम भाव विषे अवलोय, तथा क्षायिक भावे होय ।। २३. पुलाए णं भंते ! लोगस्स कि संखेज्जइभागं फुसइ ? असंखेज्जइभागं फुसइ? २४. एवं जहा ओगाहणा भणिया तहा फुसणा वि भाणियव्वा जाव सिणाए। (श. २५।४४२) वा.-स्पर्शना क्षेत्रवन्नवरं क्षेत्र अवगाढमात्रं स्पर्शना त्ववगाढस्य तत्पार्श्ववर्तिनश्चेति विशेषः। (वृ. प. ९०८) २५. पुलाए णं भंते ! कतरम्मि भावे होज्जा? गोयमा ! खओवसमिए भावे होज्जा। २६. एवं जाव कसायकुसीले । (श. २५४४४३) नियंठे-पुच्छा। गोयमा ! ओवसमिए वा खइए वा भावे होज्जा। (श. २५४४४) सोरठा २७. इग्यारम गुणठाण, उपशम चारित्र पाइये । ते निग्रंथ पिछाण, उपशम भाव विषे हुवै ।। २८. फुन बारम गुणठाण, क्षायिक चारित्र है तिहां । निग्रंथ तेह पिछाण, क्षायिक भावे चरण तसु ।। २९.* स्नातक पूछयां कहै जगस्वाम, क्षायिक भावे पाम । ___क्षायिक चारित्र तास कहीजै, तेह विषे वर्तीजै ।। निग्रंथों का परिमाण ३०. पुलाक हे भगवंत जी ! सोय, एक समय किता होय ? जिन कहै पड़िवजता थका तेह.ते वर्तमान आश्रयी जेह ।। ३१. कदाचित ह कदा नहीं होय, जो हुवै तो इम अवलोय । जघन्य एक तथा बे तथा तीन, उत्कृष्ट पृथक सौ चीन । २९. सिणाए-पुच्छा। गोयमा ! खइए भावे होज्जा। (श. २६।४४५) ३०. पुलाया णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा? गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च ३१. सिय अत्थि, सिय नत्थि । जइ अस्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं । सोरठा ३२. पड़िवजता वर्तमान, जघन्य एक बे त्रिण हुवै । उत्कृष्टा पहिछान, हुवै पृथक सौ ते कदा।। वा०–वर्तमान समय किवार पुलाकपणां प्रति पड़िवज किवार न पड़िवज । जो पड़िवज तो जघन्य एक तथा बे तथा त्रिण, उत्कृष्ट पृथक सो एक समय समकाले पुलाक प्रतै पड़िवजे । *लय : पुण्यवन्तो जीव १५४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. * पूर्व पड़िवज्या आश्रयी जोय, कदा हुवै कदा नहीं होय । जो तो जघन्य इक वे विण सार, उत्कृष्ट पृथक हजार ।। सोरठा ३४. गया काल नां जेह, पुलाक सहु भेला गिण्यां । पूर्व - प्रतिपन्न तेह, उत्कृष्ट उत्कृष्ट पृथक सहस्र है ॥ ३५. *वकुश है भगवंतजी ! सोय, एक समय किता होय ? जिन कहै पड़िवजता थका जान, ए वर्तमान आश्रयी मान ।। ३६. कदाच हुवै कदाच न होय, जो हुवै तो इम अवलोय । जघन्य एक तथा बे तथा तीन, उत्कृष्ट पृथक सौ चीन ।। वा० वर्तमान समय किवारे बकुशपणां प्रति पड़िवजे किवारै न पड़िवजे । जो पड़िवर्ज तो जघन्य एक तथा बे तथा त्रिण, उत्कृष्ट पृथक सौ एक समय समकाले बकुश प्रत पड़िवजे । ३७. पूर्व पड़िया आश्रयी जघन्य, पृथक सौ को सुमन्य । उत्कृष्ट पिन ते पृथक सौ कोड़, इम पढिसेवणा जोड़ || वा० इहां पूर्व पड़ियज्या से अतीत काले बहुज्ञपणां प्रति पडिवच्या ते लेखवितो तेहनों विरह नथी । जघन्य पृथक सौ कोड़ हुवै पिण तेहथी ओछा न हुवै । उत्कृष्ट पि पृथक सौ कोड़ पामियै । बे, त्रिण मांडी नव नैं पृथक संज्ञा कहिये । ३८. कषायशील तणीं करो पृच्छा, जिन कहै सुण धर इच्छा । परिवजताज थका पहिचान, ए वर्तमान आथयो जान || ३९. कदाच हुवै कदा हुवै नांय, जो हुवै तो इम कहिवाय । जघन्य एक तथा वे तथा तीन, उत्कृष्ट पृथक सहस्र चीन ॥ ४०. पूर्वप्रतिपन आश्रयी जोड़, जघन्य पृथक सहस्र कोड़ उत्कृष्ट पृथक सहल कोड़ पाय, हिवे निसुणो तेहनों न्याय ॥ aro - कषायकुशील पूर्वप्रतिपन्न जघन्य थकी कोड़ सहस्र पृथक उत्कृष्ट थकी पिण कोड़ सहस्र पृथक । इहां कोइ एक पूछस्यै - सर्व संजत नैं कोड़िसहस्र पृथक सांभलिये छे। अने इहां तो एकहीज कषायकुशील ने तेह मान को तिवारी पुलाकादि मान तेहथी अधिक हुवं । इहां विशेष किम नहीं ? इहां उत्तरकापशील ने जेह को सहस्र पृथक कहा, तेह दोय सत आदि कोहि सहस्र रूप इम कल्पी ने पुलाक, बकुशादि संख्या तिहां प्रवेश कीर्ज तिवारे समस्त संजम मान जे कह्यं, तेह थकी अधिक नहीं ते मार्ट विशेष नहीं । ४१. निग्रंथ पूछयां कहै जिनराय, पड़िवजता थका आश्रयी ताय । कदाच हवे कदाच न होय, जो हुवे तो इतरा जोय ॥ ४२. जघन्य एक दोय तीनज इष्ट, एकसी ने बासठ उत्कृष्ट । ते मांहे एकसौ आठ क्षपक नां, मुनि चउपन श्रेणि उपशम नां । *लय पुण्यवन्तो जीव ३२ पुण्यपडिए पक्व सिप अस्थि, सिय न जइ अत्थि जहणेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा उक्कणं सहस्तं । (श. २५/४४६ ) ३५. बउसा णं भंते ! एगसमएणं पुच्छा । गोयमा ! पडिवज्जमाणए पहुच्च ३६. सिय अस्थि, सिय नत्थि । जइ अत्थि जहणणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं । ३७. पुव्व पडिवण्णए पडुच्च जहणेणं कोडिसयपुहत्तं, उक्कोण व कोडिसपुहतं एवं पविणाकुसीले (श. २५/४४७) वि । - ३८. सायकुसीला पुच्छा गोवमा ! पडियमाणए पहुण्य ३९. सिय अस्थि, सिय नत्थि । जइ अत्थि जहणेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं सहस्रपुहत्तं । ४०. पुयपडिए पहुच जहले कोडिसहसपुहतं, उनकोसे व कोडसहसपुहतं ( . २५४४८) । वा० ननु सर्व संयतानां कोटीसहस्रपृथक्त्वं श्रूमते, इह तु केवलानामेव कषायकुशीलानां तदुक्तं ततः पुलाकादिमानानि ततोऽतिरिच्यन्त इति कथं न विरोध: ? उच्यते, कषायकुशलानां यत् कोटीसहस्रपृथक्त्वं तद्विशादिकोटीसहस्ररूपं कल्पयित्वा लवकुशादिसंख्या तर प्रवेश्यते ततः समस्तसंयतमानं यदुक्तं तन्नातिरिच्यत इति (इ. प. ९०८ ) ४१. नियंठाणं पुच्छा । गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नत्थि । जइ अत्थि ४२. जो एक्की वा दो वा तिमि वा उक्को चउप्पन्न बावट्ठ सतं अट्ठसयं खवगाणं, उवसामगाणं । - श० २५, ३० ६, डा० ४५२ १५५ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. पुव्वपडिवण्णए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नत्थि । जइ अत्थि जहण्णणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयपुहुत्त । (श. २५१४४९) ४४. सिणायाणं-पुच्छा। गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नत्थि । जइ अस्थि ४५. जहण्णे णं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं अट्ठसतं । ४३. पर्वप्रतिपन्न आश्रयी जोय, कदा हवै कदाच न होय । जो है तो जघन्य इक बे त्रिण जानी, उत्कृष्ट पृथक सय मानी ।। ४४. स्नातक पूछयां कहै जिनदेव, पड़िवज्जता थका आश्रयी भेव । जो कदाच हुवै कदाच न होय, जो है तो इतरा जोय ।। ४५. जघन्य एक दोय तीन सुवट, उत्कृष्ट एक सौ अठ। ए क्षायिक श्रेणि तणां मुनि जाण, इक समय लहै केवलनाण ।। ४६. पूर्वप्रतिपन्न आश्रयी जोड़, जघन्य थकी पृथक कोड़। होय उत्कृष्टा पिण पृथक कोड़, केवलनाणी जोड़ ।। निर्ग्रन्थों में अल्पवहुत्व ४७. हे प्रभु ! एह पुलाक नैं पेख, बकुश नैं फुन लेख । प्रतिसेवनाकुशील ने फेर, कषायकुशील सुमेर ।। ४८. निग्रंथ नै स्नातक ने निहाल, कुण-कुण थी सुविशाल । अल्प तथा बहु अथवा तुल्य, तथा विशेष अधिक अमूल्य ? ४९. श्री जिन भाखै सर्व थी थोड़ा, निग्रंथ मुनि नां जोड़ा । निग्रंथ उत्कृष्ट थी अवलोय, पृथक सत मुनि होय ।। ४६. पुव्वपडिवण्णए पडुच्च जहणणं कोडिपुहत्तं, उक्को सेण वि कोडिपुहत्तं । (श. २५५४५०) ५०. तेहथी पुलाक संख्यातगुणां छै, ___ अंतर्मुहूर्त में इतरा कह्या छ । उत्कृष्ट थकी पृथक हजार, लब्धि फोड़वता धार ।। ५१. तेहथी स्नातक संख्यातगुणां छै, ए केवलज्ञानी थुण्या छ । उत्कृष्ट पृथक कोड़ उदार, स्नातक नियंठे सार ।। ४७. एएसि णं भंते ! पुलाग-बउस-पडिसेवणाकुसील कसायकुसील४८. नियंठ-सिणायाण कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? ४९. गोयमा! सब्वत्थोवा नियंठा, 'सव्वत्थोवा नियंठ' त्ति तेषामुत्कर्षतोऽपि शतपृथक्त्वसङ्खयत्वात्, (व. प ९०८) ५०. पुलागा संखेज्जगुणा, __'पुलागा संखेज्जगुण' त्ति तेषामुत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वसङ्ख्यत्वात्, (व. प. ९०८) ५१. सिणाया संखेज्जगुणा, 'सिणाया संखेज्जगुण' त्ति तेषामुत्कर्षतः कोटीपृथक्त्वमानत्वात्, (वृ. प. ९०८) ५२. बउसा संखेज्जगुणा 'बउसा संखेज्जगुण' त्ति तेषामुत्कर्षत: कोटीशत पृथक्त्वमानत्वात्, (वृ. प. ९०८,९०९) ५३. पडिसेवणाकुसीला संखेज्जगुणा, ५२. बकुश तेहथी संख्यातगुणा छै, ए मुनि इतरा कह्या छ । जघन्य उत्कृष्ट पृथक सौ कोड़, ए छठे गुणठाणे जोड़ ।। ५३. तेह थकी प्रतिसेवना ताय, संखेजगुणा कहिवाय । प्रतिसेवणाकुशील पिण इष्ट, पृथक सौ कोड़ जघन्य उत्कृष्ट ।। सोरठा ५४. कह्यो इहां वृत्तिकार, प्रतिसेवनाकशील जे। उत्कृष्टा अवधार, पृथक शत कोड़ज कह्या ।। ५५. बकुश पिण उत्कृष्ट, पृथक कोड़ शत आखिया । ते किम बकुश थी इष्ट, संखगुणा प्रतिसेवना ।। ५६. बकुश ने शत कोड़, पृथकपणुंज आखियो । तास मान इम जोड़, बे त्रिण आदिक कोड़ शत ।। ५७. प्रतिसेवना जोड़, पृथक कोड़ शत मान जे । जे चिहुं षट शत कोड़, संखगुणा इम वृत्ति में ।। ५४,५५. 'पडिसेवणाकुसीला संखेज्जगुण' त्ति, कथमेतत् तेषामप्युत्कर्षतः कोटीशतपृथक्त्वमानतयोक्तत्वात् ?, (व. प. ९०९) ५६,५७. किन्तु बकुशानां यत्कोटीशतपृथक्त्वं तद्विवादि कोटीशतमानं प्रतिसेविनां तु कोटीशतपृथक्त्वं चतुःषट्कोटीशतमानमिति न विरोधः, (व. प. ९०४) १५१ भगवती जोर dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. * तेहथी कषायकुशील तहतीक, संख्यातगुणा सधीक । इह नियंठे संत उत्कृष्ट पृथक सहस्र को इष्ट । धर्मसी कृत प्रथम प्रमाणद्वार ३५ मों । तेनां मूल भेद ४ - वर्तमान समय आश्री जघन्य ( १ ) अने उत्कृष्टा (२) । पूर्वपडिवज्या आश्री जधन्य (३) अनं उत्कृष्टा (४) । अनैं उत्तर भेद तो इम वत्र्तमान समय नां छ ही नियंठा नां जो जीव जघन्य ६ हुवे (१) अनैं वर्त्तमान समय नां उत्कृष्ट जीव छही नियंठा नां ११ हजार ९ सौ ७० हुवे (२) अनै पूर्वपडिवज्या आश्री छ ही नियंठा नां जघन्य जीव २ हजार ४ सौ २ कोड़ि पामै (३) अन पूर्वपडिवज्या आश्री उत्कृष्ट छ ही नियंठा नां जीव हवे तो नवस को हुई साधुजी एह तो समुच्चय श्री का हिवै प्रत्येक नियंठा आश्री कहै छे पुलाक नियंठा मांहै वर्तमान नवा प्रव्रज्या पडिवज्या आश्री एक समय मांहै द्रव्य अन भावे कदाचित हुवै, कदाचित हुवै। जो हुवे तो जघन्य १,२,३ जीव अनें उत्कृष्टा हुवै तो दोय सभी में नबसवतां हुवे ते पृथक कहिये जने पूर्वपविण्या आधी किवारे हुवे, किवारे न हुवे । अनें जो हुवे तो जघन्य १, २, ३, यावत उत्कृष्टा हु तो पृथक सहस्र हुवै दोय सहस्र थी मांडी नव सहस्र तांइ जावणा | १| हिवे बकुश नियंठो वर्तमान एक समय नवी द्रव्य अने भाव प्रव्रज्या पविण्या आधी तो कदापि हुने, कदाचि न हुवै १,२,३ जाव उत्कृष्टा हुवै तो दोय सय थी मांडी नैं पृथक कहिये । अ पूर्वपड़िवज्या आश्री ते द्वितीयादि देश ऊणां पूर्व कोड़ि नां हुवे तो जघन्य २०० कोड़ि हुवे अने उकृष्टा हुवे तो साढा च्यार सय कोड़ि हुवें । ओछा नैं पिण पृथक सय कोड़ कहिये अन इहां नव पकोड़ नहीं कहिये |२| नव अने जो हुवे तो न्य सय तांइ हुवै । समय वाला लेइ यावत J हि पडि सेवणाकुशीलवर्त्तमान एक समय नां द्रव्ये, भावे अन प्रव्रज्या नवी पड़िया आधी कदाचित वे कदाचित न हुवे। अने जो हु तो जपन्य १,२,३ यावत उत्कृष्ट हुवै तो दोय सय थी मांडी नैं नव सय तांइ हुने छं । ते पृथक सय कहियै । अनं पूर्वपड़िवज्या आश्री द्वितीयादि समय वाला लेइ नैं यावत देश ऊणां पूर्व कोड़ि न आउ नां जघन्य २०० कोड़ि हुवै अने उत्कृष्टा नव सय कोडि ते पृथक कोहि कहिये |२| हिर्व कषायकुशील वर्त्तमान एक समय में द्रव्ये, भावे रूप नवी प्रव्रज्या पड़िवजतां थकां तो कदाचित हुवै, कदाचित न हुवै विरह पड़िवा आश्री । जो हुवै जघन्य १,२,३ यावत उत्कृष्टा नव सहस्र हुवै ते पृथक सहस्र कहियै । अ पूर्वपड़िवज्या आश्री जघन्य २००० कोड़ि एह चारित्र नां धणी अन उत्कृष्टा हुवै तो इम छं- जे बीजा ५ संजया नां उत्कृष्टा हुवे तो एहनां उत्कृष्टा ७ हजार ६ सौ ४० कोड ९९ लाख ९० हजार अने १ सौ इम पिण हुवै। अनं बीजा पांच संजया नां जघन्य हुवै तिवारै एहनां उत्कृष्टा ८ हजार ५ सौ ९८ कोड़ हु |४| हिर्व निर्ग्रथ नियंठो वर्त्तमान एक समय नां द्रव्य अनं भाव प्रव्रज्या नवी विज्या आश्री कदाचि हुवै, कदाचि न हुवे। अने जो हुवै तो जघन्य १, २, ३ यावत उत्कृष्ट १६२ । इम ५४ जीव उपशम श्रेणि ११ मां गुणठाणा वाला अ १०८ क्षपक श्रेणि १२ मां गुणठाणा वाला - एवं १६२ जीव हुवै १ । अनें ५८. सायकुसीला सज्जनुगा । (२५४५१) कषायिणां तु सङ्ख्यातगुणत्वं व्यक्तमेवोत्कर्षतः कोटीसहस्रपृथक्त्वमानया तेषामुक्तत्वादिति । (बृ. प. ९०९ ) श० २५, उ० ६, डा० ४५२ १५७ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व प्रा पढ़िया आधी कदापि हुने, कदाचि न हुवे जो हुने हो जघन्य १,२,३ यावत उत्कृष्टा ९०० हुवै ते पृथक सय कहिये |५| स्नातक नियंठो वर्त्तमान एक समय नवी पड़िवज्या आश्री कदाचि हवं, कदाचि न हुवै। अनैं जो हुवै तो १,२,३ यावत उत्कृष्टा १०८ हुवं । अन पूर्व पड़िवज्या आश्री तो जघन्य दोय कोड़ केवली हुवे ते माटै पृथक कोड़ि कहिये । अनै उत्कृष्टा तो नव कोड़ि केवली हुवे ते मार्ट पृथक कोड़ कहिये ते भवस्थ केवली जाणवा | ६ | नियों का अल्पबहुत्व तेनां मूल भेद २ अल्प १ बहु २ । तेहनां उत्तर भेद ६ । अन सर्व साधां नीं वर्त्तमान उत्कृष्टी संख्या तो ९ हजार कोड़ि हुवै छै, एह समुच्चय कह्या । हिवे अल्पाबहुत्व कहै छ - सर्व स्तोक नियंठा नां धणी ते इम एह नियंठा नां जीव कदाचित उत्कृष्ट हुवे तो ९०० ते मार्ट थोड़ा ते इम उपशम श्रेणि जीव २९९ व अ क्षपक श्रेणि जीव ५९८ ते मार्ट पृथक सय तथा ८९७ जीव । तेह थकी पुलाक नियंठा नां धणी संख्यातगुणा ते इम उत्कृष्टा नव सहस्र हुवै ते माटै। तेह थकी स्नातक नां धणी संख्यातगुणा अधिक ते इम जो ए जीव हुवै तो उत्कृष्ट कोहि ते मार्ट तेह की वकुश नां धणी संख्यातगुणा अधिक ते इम उत्कृष्टा ४।। साढा च्यार सय कोड़ि हुवे ते माटे । तेह थकी पड़िसेवणा नां धणी संख्यातगुणा ते इम जे उत्कृष्टा हुवे तो ९०० कोड़ि हुवै । तेह थकी कषायकुशील संख्यातगुणा ते इम उत्कृष्टा हुवे तो ७ हजार ६ सय ४० कोड़ि ९९ लाख ९० हजार अनैं एक सौ तथा ८ हजार ५ सय ९८ कोड़ि हुवै ते माटै। सर्व साधां नों धड़ो नव हजार कोड़ि जाणवो । ५९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! स्वाम, शत पणवीसम ताम । छठा उद्देशा नो अर्थ अनूप, आख्यो सरस स्वरूप ॥ ६०. च्यारसी दोय पचासमी ढाल, सुदि भाद्रव छठ सुविशाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसाय, 'जय जय' हरष सवाय ॥ पंचविशतितमते पोशकार्य: ।।२५।६।। ढाल : ४५३ दूहा १. छठे उदेशे आखियो, संतज अथ सप्तम उद्देश के, तेहिज २. पनवण प्रमुख द्वार पट तीस इहां प्रथम द्वार प्रज्ञापना कहिये छे संयत के प्रकार ३. हे प्रभु ! कितरा संजया ? संजम भाख्या सार । श्री जिन कहै परूपिया, संजम पंच उदार ॥ १५५ भगवती बो तणों स्वरूप | कहूं अनूप ॥ पिण होय । अवलोय || ५९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । १. षष्ठोद्देशके संयतानां स्वरूपमुक्तं, तदेवोच्यते २. हा प्रज्ञापनादीनि द्वाराणि प्रज्ञापनाद्वारमधिकृत्योक्तम् ( . २५०४५२) ३. कति णं भंते! संजया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच संजया पण्णत्ता, सप्तमेऽपि ( वृ. प. ९०९ ) वाप्यानि त तत्र ( वृ. प. ९०९ ) तं जहा Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४,५. सामाइयसंजए, 'सामाइयसंजए' त्ति सामायिकं नाम चारित्रविशेषस्तत्प्रधानस्तेन वा संयतः सामायिकसंयतः, एवमन्येऽपि, (वृ. प. ९०९) ६. छेदोवट्ठावणियसंजए, परिहारविसुद्धियसंजए, सुहुमसंपरायसंजए, अहक्खायसंजए। (श. २५५४५३) ४. धुर सामायिक आखियो, सामायिक जे नाम । चारित्र विशेष नं अछ, दीक्षा - लेतां पाम ।। ५. सामायिक चरणे करी, प्रधान संजत जेह। ते सामायिक संजती, एम अन्य पिण लेह ।। ६. संजत छेदोपस्थापनिक, फुन परिहारविशुद्ध । वली सूक्ष्मसंपराय है, यथाख्यात संसुद्ध । _ *सुगुणा ! भजल रे मुनिराज । (ध्रुपदं) ७. सामायिक संजत हे भगवंत ! कितले भेदै ख्यात? ___ श्री जिन भाखै दोय प्रकारे, कहिये तसुं अवदात । ८. इत्तर थोड़ा काल तणों ए, प्रथम चरम जिन वार । जावकथिक ते जावजीव रो, विदेह मझिम जिन सार ।। वा० - इत्वर नै भावि अन्य ववहारपणे करी छेदोपस्थापनीय ग्रहण रूपे करी अल्पकालिक सामायिक नै अस्तिपणां थकी इत्वरिक कहिये । एतले सामायिक जघन्य सात अहोरात्रि, मज्झिम ४ मास, उत्कृष्ट षट मास तथा ६।। मास ए अल्प काल रहै। पछ छेदोपस्थापनीय रूप अन्य बवहार प्रत अंगीकार कर ते माटै । जे प्रथम सामायिकपणे अल्पकाल रह्य ते इत्वरिक । ए सामायिक नों प्रथम भेद कहिये । अनैं यावतकथिक ते बावीस तीर्थकर ने वार तथा महाविदेह क्षेत्र में, सामायिक चारित्र दीक्षा दिन थी मांडी जावजीव लग रहै । ए सामायिक नों द्वितीय भेद । ७. सामाइयसंजए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा८. इत्तरिए य आवकहिए य। (श. २१४५४) वा.---'इत्तरिए य' त्ति इत्वरस्य–भाविव्यपदेशान्तरत्वेनाल्पकालिकस्य सामायिकस्यास्तित्वादित्वरिकः, स चारोपयिष्यमाणमहाव्रतः प्रथमपश्चिमतीर्थकरसाधुः, 'आबकहिए य' ति यावत्कथितस्य-भाविव्यपदेशान्तराभावाद् यावज्जीविकस्य सामायिकस्यास्तित्वाद्यावत्कथिकः, स च मध्यमजिनमहाविदेह जिनसम्बन्धी साधुः, (व. प. ९०९) ९. छेदोवट्ठावणियसंजए णं-पुच्छा। गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सातियारे य निरतियारे य। (श. २५५४५५) ९. छेदोपस्थापनी संजम नीं पूछा, जिन कहै दोय प्रकार । अतिचार करि सहित भेद धुर, दूजो निरतिचार ।। वा.-'साइयारे य' त्ति सातिचारस्य यदारोप्यते तत्सातिचारमेव छेदोपस्थापनीयं, तद्योगात्साधुरपि सातिचार एव, (वृ. प. ९०९) सोरठा १०. जे अतिचार सहीत, तेहने छेदोपस्थापनीय । आरोपिय सुवदीत, सातिचार छेदोप. ते॥ वा०-सामायिक चारित्रवंत साधु नै अतिचार लागै छते जे छेदोपस्थापनीय आरोपिय ते सातिचार छेदोपस्थापनीय कहिये । इहां अतिचार शब्दे मोटो दोष कहिये ते दोष लागां सर्व सामायिक चारित्र जाय तेहन छेदोपस्थानीय चारित्र आरोपिय ते सातिचार छेदोपस्थापनीय कहिय । ते चारित्र ना जोग थकी साधु पिण छेदोपस्थापनीयक हुवै । ११. निरतिचार कहेह, नव शिष्य जिन धुर चरम नों। दोष रहित पिण जेह, छेदोपस्थापनीय दै तसु॥ १२. तथा पार्श्व तीर्थात, वीर तीर्थ में संक्रमै । छेदोपस्थापनीय दात, ते पिण निरतिचार है।। वा०-नवदीक्षित ने गुरु प्रथम सर्वसावधयोग विरतिरूप सामायिक चारित्रईज ग्रहण कराव । तिवार पछै केतले काल गये छत पंच महाव्रत आरोपण *लय : सीता आवे रे धर राग ११. एवं निरतिचारच्छेदोपस्थापनीययोगान्निरतिचारः स च शैक्षकस्य (व. प. ९०९) १२. पार्श्वनाथतीर्थान्महावीरतीर्थसङ्क्रान्तौ वा (व. प. ९०९) श• २५, उ•७, ढा० ४५३ १५९ Jain Education Intemational Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप छेदोपस्थापनीय ग्रहण करावं । ते अतिचार अभाव छत पिण फेर छेदोपस्थापनीय नुं देवं जे ते निरतिचार ईज छेदोपस्थापनीय कहिये । अनै प्रथम जिन नां तथा चरम जिन नां साधु सामायिक चारित्र नै विषे तथा छेदोपस्थानीय चारित्र नै विषे नवी दीक्षा आवे इसो दोष सेव्या तेहन छेदोपस्थापनीयज देव ते सातिचार छेदोपस्थानीय कहिये । ववहार सूत्र उदेशे १ बोल ३२ असंजम सेवी आव तेह शिष्य नै उपस्थान कर, पंच महाव्रत आरोपण करै, ते छेदोपस्थापनीय देवू इम कह्य, पिण तिहां सामायिक देवू नथी कह्य । ते माट ए पिण सातिचार छेदोपस्थानीय जणाय छ । १३. ए दोनूंइ वेद, प्रथम चरम जिन नां मुनि । तेह तणे संवेद, पिण अन्य मुनि ने 8 नथी ।। १४. *परिहारविशुद्धि संजत पूछा, जिन कहै दोय प्रकार । निविसमाणए निविट्ठकाइए, ए बिहुँ भेद उदार ।। गीतक छंद १५. परिहार तप वर्तमान करतो, निविसमाण कहीजिये । तप करी निकस्यो थयु पूर्णज, निविट्ठकायिक लीजिये । १३. छेदोपस्थापनीयसाधुश्च प्रथमपश्चिमतीर्थयोरेव भवतीति, (वृ. प. ९०९) १४. परिहारविसुद्धियसंजए --पुच्छा। गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा -निव्विसमाणए य, निविट्ठकाइए य। (श. २५४५६) १६. "सूक्ष्मसंपराय नी पूछा, जिन कहै दोय प्रकार । संकिलिस्समाण फुन विसुज्झमाणए, उभय भेद अवधार ।। १५. "णिव्विसमाणए य' त्ति परिहारिकतपस्तपस्यन् 'निम्विट्ठकाइए य' त्ति निविशमानकानुचरक इत्यर्थः, (व. प. ९०९) १६. सुहुमसंपरायसंजए -पुच्छा । गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--संकिलिस्समाणए य, विसुज्झमाणए य। (श. २५।४५७) १७. 'संकिलिस्समाणए' त्ति उपशमश्रेणीत:प्रच्यवमानः (वृ. प. ९०९) १८. 'विसुद्धमाणए य' त्ति उपशमश्रेणी क्षपकश्रेणी वा समारोहन्, (वु. प. ९०९) १९. अहक्खायसंजए-पुच्छा । गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-छउमत्थे य, केवली य। (श. २०४५८) गीतक छंद १७. गुणठाण ग्यारम थकी पड़ता, दशम गुणठाणे वही। संकिलिस्समाण कहीजिये ते, श्रेणि उपशम पड़त ही ।। १८. उपशमज अथवा क्षपक श्रेणि, चढत दशम गुणे लही । __ वर विशुद्धमान कहीजिये ते, द्वितीय भेदज ए सही ॥ १६. *यथाख्यात संजत नीं पूछा, जिन कहै दोय प्रकार । भेद प्रथम छद्मस्थ द्वितीय फुन, केवलज्ञानी सार ।। सोरठा २०. ग्यारम बारम ठाण, चारित्र जे छदमस्थ नों। तेरम चवदम जाण, केवलज्ञानी नुं कह्य ।। संयतों का स्वरूप २१. *सामायिक चारित्र पड़िवजिय, च्यार महाव्रत जाम । श्रमण धर्म त्रिणविधे पालतो, व ए अभिराम ।। ___ सोरठा २२. ए गाथा करि ख्यात, संजत यावतकथिक वर । ___ इत्वर मुनि अवदात, ते पोतेज विचार ।। २३. *प्रथम पर्याय प्रतै छेदी ने, पंच याम धर्म जेह । तेह विषे स्थापै आतम नै. छेदोपस्थापनीय तेह ।। *लय : सीता आवे रे धर राग २१. सामाइयम्मि उ कए, चाउज्जामं अणुत्तरं धम्म । तिबिहेणं फासयंतो, सामाइयसंजओ स खलु ॥१॥ २३. छत्तण उ परियागं, पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । धम्मम्मि पंचजामे, छेदोवट्ठावणो स खलु ॥२॥ १६० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० -- एतले पूर्व पर्याय नै छेदी ने उपस्थापवो व्रत नै विषे छेदोपस्थापनीय योग थकी साधु पिण छेदोपस्थापनीय । इण गाथाये सातिचार तथा निरतिचार बीजो चारित्र कह्य २ । गीतक छंद २४. इह द्वितीय गाथा करि चरण वर, सातिचार तथा वली । वर निरतिचार चरित्रनीं विध २५. * तप परिहार विषे धर्म अनुत्तर विविध एहिज गाथा करि भली ॥ सुवर्त्ततो विशुद्ध होज पंच व्रत । फर्णतो, परिहारविशुद्ध संजत ॥ गीतक छंद २६. पंच याम कहिवै एह चारित्र, प्रथम चरम जिनेंद नें । तसुतीर्थ ज विषे हुये पिण, अन्य मुनि ने नहि बनें ॥ २७. * सूक्ष्म लोभ प्रतै वेदंतो, उभय श्रेणि ए थाय । यथाख्यात थी किंचित ऊणों ए सूक्ष्मसंपराय || २८. मोह कर्म उपशांत विषे छद्मस्थ मुनि वर्त्तेह वा क्षीण विषे छद्मस्थ केवली, यथाख्यात छै जेह ॥ ।। संयत में वेद २९. सामायिक संगत हे भगवंत ! तथा अवेदक विषे हुवै ए ? ३०. श्री जिन भाखे सवेदके ह्वै, नवमं वेद क्षीण या उपशम, ३१. जो ए हुवे सवेदक में इम, कषायकुशील जेम | तिमहिज समस्तपर्ण करि कहिवं, छेदोपस्थापनीय एम ॥ सोरठा सवेदके स्यूं होय ? गोयम प्रश्न सुजोय ॥ अवेदके पिण हुंत । सामायिक नवमंत ॥ ३२. पुर ए चारित्र दोय, सवेदके विहं वेदके। अवेदके अवलोय, उपशम-वेदे क्षीण वा ॥ ३३. परिहारविशुद्ध पुलाक तणी परि, अवेदके ए नांहि । सवेदके पुरुष वेद वा पुरुष नपुंसक मांहि । ३४. संपराव सूक्ष्म संजत पुन निग्रंथ जैम अवेदी कहिये, *लय सीता आवे रे धर] राग अवलोय । होय ।। यचाख्यात उपशम क्षीणे वा. - 'छेदोवट्ठावणे' त्ति छेदेन- पूर्व पर्यायच्छेदेन उपस्थापनं व्रतेषु यत्र तच्छेदोपस्थानं तद्योगाच्छेदोपस्थापनः, अनया च गाथया सातिचारः इतरश्च द्वितीयसंयत उक्तः । ( वृ. प. ९१० ) २५. पहिजो विद्धं तु पंचयामं अणुत्तरं धम्मं । तिविहे फासतो, परिहारियोस खनु || ३ || २६. पञ्चयाममित्यनेन च प्रथमचरमतीर्थयोरेव तत्सत्तामाह । (बृ. प. ९१०) २७. लोभाणू येतो, जो खलु उवसामओ व पपभी वा सो सुमसंपराओ अहखाया ऊणओ किंचि ॥४॥ २८. उवसंते खीणम्मि व, जो खलु कम्मम्मि मोहणिज्जम्मि । छउमत्थो व जिणो वा, अहखाओ संजम स खलु ||५|| (श० २४/४५०) २९. सामाइयसंजए णं भंते ! किं सवेदए होज्जा ? अवेदर होना ? ३०. गोयमा ! सवेदए वा होज्जा, अवेदए वा होज्जा । सामायिकसंयतोऽवेदकोऽपि भवेत् नवमगुणस्थानके हि वेदस्योपशमः दायो वा भवति, नवमगुणस्थानक च यावत्सामायिकसंयतोऽपि व्यपदिश्यते, ( वृ. प. ९११) २१. सवेद एवं जहा काही निर सेसं । एवं दागियसंजए वि ३२. 'जहा कसायकुसीने' ति सामायिकसंयतः सवेदस्त्रिवेदोऽपि स्यात्, अवेदस्तु क्षीणोपशान्तवेद इत्यर्थः । (बृ. प. ९११) ३३. परिहारविमुद्विजाला । 'परिहारविसुद्धिय संजए जहा पुलागो' त्ति पुरुषवेदो वा पुरुषनपुंसकवेदो वा स्यादित्यर्थः ३४. सुहुमसंपरायसंजओ नियंठो । 'जहा नियंठो' इत्यर्थः । त्ति (बु. प. ९११) अहखाय संजओ य जहा (श. २५/४५९ ) क्षीणोपशान्तवेदत्वेनावेदक ( वृ. प. ९११ ) श० २५, उ०७, ढा० ४५३ १६१ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयत में राग ३५. सामायिक प्रभु ! हुवै सरागे, के वीतराग रैमाहि ? जिन कहै हुवै सराग विषे ए, वीतराग में नांहि ।। ३५. सामाइयसंजए णं भंते ! कि सरागे होज्जा? वीयरागे होज्जा? गोयमा ! सरागे होज्जा, नो वीयरागे होज्जा । ३६. एवं जाव सुहुमसंपरायसंजए । अहक्खायसंजए जहा नियंठे। (श. २।४६०) ३६. जाव सूक्ष्मसंपराय लगै इम, यथाख्यात मुनिराय । निग्रंथ भणी कह्यो तिम कहिवं, उपशम क्षीण कषाय ।। संयत में कल्प ३७. सामायिक संजत हे प्रभुजी ! स्यं स्थितकल्प विषेह । के ते अस्थितकल्प विष है? भाखो जी गुणगेह ।। ३८. जिन भाखै स्थितकल्प विषे लै, वा अस्थितकल्पेह । प्रथम चरम जिन मुनि स्थितकल्पे, अस्थित अन्य मुनि लेह ।। ३९. छेदोपस्थापनीय संजत पूछा, आखै श्री जिनराय । स्थितकल्प ने विषे हुवै ए, अस्थितकल्पे नांय ।। ३७. सामाइयसंजए णं भंते ! किं ठियकप्पे होज्जा? अट्ठियकप्पे होज्जा? ३८. गोयमा! ठियकप्पे वा होज्जा, अट्ठियकप्पे वा होज्जा। (श. २५२४६१) ३९. छेदोवट्ठावणियसंजए-पुच्छा। गोयमा ! ठिय कप्पे होज्जा, नो अट्ठिय कप्पे होज्जा। गीतकछंद ४०. बावीस जिन मुनि फुन विदेहे, कल्प अस्थित तसु सही। छेदोपस्थापनीय चरित्त बीजो, तास तीर्थ विषे नहीं ।। ४१. *इम परिहारविशुद्ध संजत पिण, शेष चरित्त जे दोय । ____सामायिक संजत जिम कहिवा, बिहुं कल्पे ए होय ।। ४२. सामायिक संजत हे प्रभुजी ! स्यूं जिनकल्प विषेह ? के ते स्थविरकल्प में है छ, के कल्पातीतेह ? ४३. जिन भाखै जिनकल्प विष है, कषायकुशील जेम। तिमहिज सर्व प्रकारे कहिवं, त्रिहुं कल्पे वै तेम ।। ४४. छेदोपस्थापनीय फुन परिहारज, बकुश जेम कहिवाय । जिनकल्पी फून स्थविरकल्प है, कल्पातीते नांय ।। ४५. शेष दोय चारित्र ते कहिवा, जिम आख्यो निग्रंथ । धुर बे कल्प विषे ए नहीं है, कल्पातीत ते हुंत ।। संयत में निग्रंथ वा० -पुलाकादि परिणाम नै चारित्रपणां थकी चारित्रद्वार कहिये । ४०. 'णो अट्ठिय कप्पे' त्ति अस्थितकल्पो हि मध्यमजिन महाविदेहजिनतीर्थेषु भवति, तत्र च छेदोपस्थापनीयं नास्तीति। (व. प. ९११) ४१.एवं परिहारविसुद्धियसंजए वि । सेसा जहा सामाइयसंजए। (श. २०४६२) ४२. सामाइयसंजए णं भंते ! कि जिणकप्पे होज्जा ? थेरकप्पे होज्जा ? कप्पातीते होज्जा ? ४३. गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा, जहा कसायकुसीले तहेव निरवसेसं। ४४. छेदोवट्ठावणिओ परिहारविसुद्धिओ य जहा बउसो। ४५. सेसा जहा नियंठे। (श. २५।४६३) ४६. सामायिक संजत प्रभुजी ! स्यं हवै पुलाक विषेह ? के ए बकुश विषे है यावत स्नातक विषे कहेह ॥ ४७. जिन कहै है पुलाक विषे ए, बकुश विषे वा थाय । । जाव कषायकुशील विषे है, निग्रंथ स्नातक नाय । वा. चारित्रद्वारमाश्रित्येदमुक्तम्""पुलाकादिपरिणामस्य चारित्रत्वात्। (वृ. प. ९११) ४६. सामाइयसंजए णं भंते ! किं पुलाए होज्जा ? बउसे जाव सिणाए होज्जा ? ४७. गोयमा ! पुलाए वा होज्जा, बउसे जाव कसाय कुसीले वा होज्जा, नो नियंठे होज्जा, नो सिणाए होज्जा। ४८. एवं छेदोवट्ठावणिए वि। (श. २५४६४) परिहारविसुद्धियसंजए णं-पुच्छा। गोयमा ! नो पुलाए, नो बउसे, ४८. छेदोपस्थापनीय इमहिज कहिवं, बली पूछ परिहार । श्री जिन कहै पुलाक विषे नहीं, वलि नहिं बकुश मझार ।। *लय : सीता आवे रे धर राग १६२ भगवती जोड़ Jain Education Intenational Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४९. पविणा विषे पिण नहीं हूं. कषायकुशोते होय । हुवै नहीं निग्रंथ विषे फुन, स्नातक विषे न कोय ।। ५०. एवं सूक्ष्मसंपराय पिण, कषायकशीले होय । शेष पंच जे का नियंठा, तेह विर्ष नहि कोय ।। ५१. यथाख्यात पूछयां जिन भाखं पुला में नहि कोय । | जाव कषायकुशील विषे नहीं, निग्रंथ स्नातक होय ॥ संयत में प्रतिसेवना ५२. सामायिक संजत स्युं प्रभुजी अप्रतिसेवक विवं ए ? गोयम ५३. जिन भाखं प्रतिसेव विषे से, फुन सेवं दोष तथा नहिं सेवै, इम कहिये बिहुं भेव ॥ ५४. जो प्रतिसेवक विधे हुवे तो पवर मूलगुण खेम तेह विषे ए दोष लगाये, शेष पुलाकज जेम ॥ ५५. प्रतिसेवक जो थाय, तो फुन उत्तरगुण मांय मूलगुण मांय, आश्रव पंच कहाय, ५७. वलि उत्तरगुण मांय ५६. ह प्रतिसेवक में होय ? प्रश्न सुजोय || अप्रतिसेव । सोरठा पवर मूलगुण नैं विषे । सेवे दोष हिं दोषण प्रतंज विधे ॥ सेवतो । *लय सीता आवं रे घर राग : तिनमें कोइक दोषण प्रतं दश पक्या सुहाय स्पांमें कोइक पच्चक्खाण ५८. *जिम सामायिक आवयो ते विध, दोपस्थापनीय जाण । प्रतिसेवक फुन अप्रतिसेवक, पूर्व रीत पिछाण || ५९. परिहारविशुद्धिक पूछयां जिन कहै, प्रतिसेवके न थात । अप्रतिसेवक विषे हुवै ए, इम यावत यथाख्यात ।। सेवतो || ॥ वा० - इहां परिहारविशुद्ध नै अपडिसेवक कह्यो, ते आदरतां थकां संभव । जे छेदोपस्थापनीय चारित्र नों धणी ते परिहारविशुद्ध प्रत अंगीकार करें, ते नित्य पडिकमणो करें। जो दोष न लागे तो नित्य पडिकमणां रो कांइ काम ? जे यथाख्यात चारित्र नां धणी पडिकमणो न करें, तेहने दोष न लागे ते मा । तिवार कोइ कहै - जे परिहारविशुद्ध में तीन भली लेश्या आगल कहि ते मार्ट ए अप्रतिसेवी छ । तेहनुं उत्तर ए तीन भली लेश्या परिहारविशुद्ध आदरतां हुवै। ए आदरता एहवं किहां का छे ? तेहनुं उत्तरपन्नवणा प्रथम पद में विषे अर्थ में का छं ते लिखियं छं से किं तं परिहारविमुनिरितारिया ? परिहारविमुद्धियचरितारिया यदुविहा पण्णत्ता तं जहा निविसमाजपरिहारविसुमिरितारिया य निव्काइयपरिहारविसुद्धियचरितारिया य । ( पण्ण० १।१२७ ) परिहारविशुद्धि चारित्र स्वरूप यथादृष्टान्ते करि कहे नवनों गच्छ हुवै । तिहां एक वाचनाचार्य, च्यार निर्विशमान उग्र तपकारी अनैं प्यार तेहनां सेवाकारी एवं ९ । लगावतो । भांगतो ॥ 1 ४९. तो पडवासीले होज्जा कसावकुसीले होगा, नो नियंडे होना, नो सिमाए होना । ५०. एवं सुहुमसंपराए वि । ( . २५/४६५) ५१. पुना । गोयमा ! नो पुलाए होज्जा जाव नो कसायकुसीले होना, निपडे वा होण्या, सिजाए वा होण्या (श. २५/४६६ ) ५२. सामाइयसंजए णं भंते! कि पडिसेवए होज्जा ? अपविए होगा ? ४३. गोमा ! पडिसेवए या होना, अपविए वा होला । १४. जद परिसेवाए होज्जा कि मूलगुणपटिसेवाए होज्जा, सेसं जहा पुलागस्स । ५८. जहा सामाइजए एवं छेदोवद्वावणिए वि (श. २५/४६७) ५९. परिहारविमुद्धिपसंजए -पुचड़ा। गोमा ! तो परिसेवर होण्या, अपविसेवाए होला । एवं जाव अहखायसंजए । (म. २५/४६८) इह नवको गणः चत्वारो निर्विशमानकाश्चस्वारश्वानुचारिणः एकः कल्पस्थिती वाचनाचार्य । यद्यपि च सर्वेऽपि श्रुतातिशयसम्पन्नाः तथापि कल्पत्वात् तेषामेकः कश्चित् कल्पस्थितोऽज्यस्थाप्यते । श० २५, उ० ७, ढा० ४५३ १६३ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहा प्यार निर्विशमान ते उन्हाले जघन्य चउथ, मध्यम छठ, उत्कृष्टो अठम करें। सीयाले जघन्य छठ, मझम अठम, उत्कृष्टो दशम करें । वरसाले जघन्य अठम, मध्यम दशम, उत्कृष्टो दुवालसम करें। पारणे आंबिल करें। इम छ मास लगे तपस्या करें। छ मास पर्छ च्यार सेवाकारी हुवं । ते तपस्या करें अन तपस्या वाला च्यार सेवाकारी हुवै। अनैं बीजा छ मास पर्छ वाचनाचार्य हुवे ते तपस्या करें। सात सेवाकारी और एक वाचनाचार्य । एवं अठारेमा परिहारविशुद्धि चारित्र पूर्ण हुने तिवारी ते न साधु जिनकल्प आदरं । तथा गच्छ मां आवं । जो गच्छ मां आवे तो तीर्थंकर तथा तीर्थंकर सदृश पास आवे । बीजा पास न आवै । हिवे एह परिहारविशुद्धि चारित्र दोसद्वारे कहे - क्षेत्रद्वारे जन्म ने सद्भाव आबी ए परिहारविशुद्ध चारित्र ते पांच भरत, पांच एरवत मांहिज हुवै पिण महाविदेहे न हुवें । अने एहने संहरण विण न हुवै। जिम जिनकल्पी संहरणपर्णं सर्वत्र पामिये, तिम ए न हुवै १ । कालद्वारे - जन्म आश्रयी अवसर्पिणी ने तीजे, चोथे अरके अनं छता भाव आश्रयी तीजे, चोथे, पांचमें अरके हुवै । उत्सर्पिणी ने जन्म आश्रयी बीजे, तीजे, चोथे अरके । छता भाव आश्रयी तीजे, चोथे अरके हुवै २ । संजमस्थानद्वारे - सामायिक, छेदोपस्थापनीय चारित्र नां जे जघन्य संजमस्थान तेहथी असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण संजम स्थानक अतिक्रमी ने ते ऊपर जे संजम-स्थान ते परिहारविशुद्धि चारित्र नां ते पिण असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण छँ । ते ऊपर वली असंख्याता सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात चारित्र नां संजमस्थान छ । तिहां पोता नैं संजमस्थानेज वर्त्तता परिहारविशुद्धि चारित्र आदर, आदरघां पछै पोता नां तथा बीजाई संयमस्थान हुवे जे भणी ए चारित्र पूर्ण पर्व बीवाद पारि ३ १६४ भगवती जो निर्विशमानकानां चायं परिहार: परिहारियाण उ तवो जहन्नमज्झो तहेव उक्कोसो। सहवासकाले भणिओ धीरेहि पत्तेयं ॥ १ ॥ ● तत्थ जहन्नो गिम्हे चउत्थ छट्ठे तु होइ मज्झिमओ । अट्टममिह उक्कोसो एत्तो सिसिरे पवक्खामि ||२|| • सिसिरे उ जहन्नाई छट्टाई दसम चरिमगो होइ । वासासु अट्टमाई बारसपज्जतगो नेओ ॥ ३ ॥ • पारणगे आयामं पंचसु अगहो ० दोरोभि o कपडिया पविणं करेंति एमेव आयाम ॥४॥ • एवं छम्मासतयं परिडं परिहारगा अणुचरंति । अणुचरगे परिहारियपयट्टिए जाव छम्मासा ॥५॥ कप्पट्ठिए वि एव छम्मासतवं करेइ सेसा उ । अपरिहारिगभावं वयंति कपट्टियां च ॥६॥ एवेसो अट्टारसमामागो उ वणिलो कप्पो । ससेवम विसेसी बिसेसत्ता नापथ्यो ||७|| ० कप्पसम्मत्तीए तयं जिणकप्पं वा उर्विति गच्छं वा । पडिवज्जमाणगा पुण जिणस्सगासे पवज्जंति ॥ ८॥ तित्थयरसमीवासेवगस्स पासे व नो उ अन्नस्स । एएस पर परिहारविमुद्धियं तं तु ॥ ९ ॥ अथ एते परिहारविशुद्धिकाः कस्मिन् क्षेत्रे काले वा भवंति ? उच्यते इह क्षेत्रादिनिरूपणार्थं विि द्वाराणि तद्यथा o ० , ( क्षेत्रद्वारे ) - तत्र जन्मतः सद्भावतश्च पंचसु भरतेषु पंचस्वंशवतेषु न तु महाविदेहेषु न चैतेषां संहरणमस्ति येन निकल्पिक इव संहरणतः सर्वामु कर्मभूमिषु अकर्मभूमिषु वा प्रादेरन् । कालद्वारे अवसपियां तृतीये चतुर्थे वारके जन्म, सद्भाव पंचमेऽपि उत्सर्पिष्य द्वितीये तृ चतुर्थे वा जन्म, सद्भावः पुनः तृतीये चतुर्थे वा । चारित्रद्वारे - संयमस्थानद्वारेण मार्गणा तत्र सामायिकस्य छेदोपस्थापनस्य च चारित्रस्य यानि जघन्यानि संयमस्थानानि तानि परस्परं तुल्यानि समानपरिणामत्वात्, ततोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि संयमस्थानान्यतिक्रम्यं यानि संस्थानानि तानि परिहारविशुद्धियोग्यानि तान्यपि च केवलिप्रज्ञया परिभाव्यमानानि असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, तानि प्रथमद्वितीयचरिताविरोधीनि तेष्वपि संभवात् तत ऊर्ध्वं यानि संख्यातीतानि संयमस्थानानि तानि सूक्ष्मपरायचायतचारित्रयोग्यानि, तत्र परिहारविशुद्धि कल्पप्रतिपत्तिः स्वकीयेष्वेव संयमस्थानेषु वर्तमानस्य भवति न शेषेषु द त्वतीतनयमधिकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो विवक्ष्यते तदा शेषेष्वपि संगमस्थानेषु भवति, परिहारविशुद्धकल्प Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थद्वारे-निश्चये तीर्थ प्रवत्तेज हुवै तीर्थ प्रवां विना तथा तीर्थ विच्छेदे न हुवै । कदाचित हुवै तो जातिस्मरणादिके हुवै ४ । समाप्त्यनन्तरमन्येष्वपि चारित्रेषु संभवात्, तेष्वपि च वर्तमानस्यातीतनयमपेक्ष्य पूर्वप्रतिपन्नत्वाविरोधात्, तीर्थद्वारे-परिहारविशुद्धिको नियमतस्तीर्थे प्रवर्तमाने एव सति भवति, न तच्छेदे नानुत्पत्त्यां वा तद्भावे जातिस्मरणादिना, पर्यायद्वारे-पर्यायो द्विधा--गृहस्थपर्यायो यतिपर्यायश्च, एककोऽपि द्विधा-जघन्यत उत्कृष्टतश्च, तत्र गृहस्थपर्यायो जघन्यत एकोनत्रिंशद् वर्षाणि, यतिपर्यायो विंशतिः, द्वावपि च उत्कर्षतो देशोनपूर्वकोटिप्रमाणी, पर्यायद्वारे-पर्याय बे भेदे गृहस्थपर्याय अन यतिपर्याय-तिहां ग्रहस्थपणां थी लेइ वय जघन्य गुणत्रीस वर्ष, यतिपर्याय जघन्य बीस वर्ष, उत्कृष्टपणे गुणतीस वर्ष ऊणी पूर्व कोडि वर्ष हुवै ते किम? इहां ए अर्थ-पूर्व कोटि आउखावते गर्भ समय थी आरंभी नव वर्षे दीक्षा लीधी, तिवारै पछै वीस वर्ष प्रवा पर्याये जघन्य नवमा पूर्व नीती जी आचार वत्थु, उत्कृष्ट देश ऊणां दश पूर्व भण्यो। तिवारै पछ परिहारविशुद्धिक प्रत पड़िवज्यो ते परिहारविशुद्धि अठार मास प्रमाण छै । तो पिण तेणे अविछिन्न परिणामे करी परिहारविशुद्धि आजन्म लग पाल्यो ५। ___ आगमद्वारे-नर्बु भण नहीं जे भणी ते गृहीत योग नै आराधवैज कृतकृत्य थावै अनै पूर्वाधीत तो विस्मृत नां भय थी एकाग्र मने संभार ६। वेदद्वारे प्रवृत्ति काले पुरुष वेद तथा पुरुष-नपुंसक वेद थाव, स्त्री वेदे न हुवै ७। कल्पद्वारे-अचेलकादि दश कल्प सहित हुवै ते स्थितकल्पी हुवै पिण अस्थितकल्पी न हुवै ८। लिंग द्वारे-द्रव्य लिंग साधु रै वेषे स्वलिंगी हुवै अने भाव लिंग आश्रयी पंच महाव्रत हुवै ९। आगमद्वारे-अपूर्वमागमं स नाधीते, यस्मात् तं कल्पमधिकृत्य प्रगृहीतोचितयोगाराधनत एव स कृतकृत्यतां भजते, पूर्वाधीतं तु विस्रोतसिकाक्षयनिमित्तं नित्यमेवैकाग्रमनाः सम्यक् प्रायेणानुस्मरति, वेदद्वारे-प्रवृत्तिकाले वेदतः पुरुषवेदो वा भवेत् नपुंसकवेदो वा, न स्त्रीवेदः स्त्रियः परिहाविशुद्धिकल्पप्रतिपत्त्यसंभवात्, कल्पद्वारे-स्थितकल्पे एवायं नास्थितकल्पे, "ठियकप्पंमि य नियमा" इति वचनात्, तत्राचेलक्यादिषु दशस्वपि स्थानेषु ये स्थिताः साधवः तत्कल्पः स्थितकल्प उच्यते, ये पुनश्चतुर्षु शय्यातरपिण्डादिष्वस्थितेषु कल्पेषु स्थिताः शेषेषु चाचेलक्यादिषु षट्स्वस्थिताः तत्कल्पोऽस्थितकल्पः, लिङ्गद्वारे-नियमतो द्विविधेऽपि लिने भवति, तद्यथा--द्रम्यलिङ्ग भावलिङ्गे च एकेनापि विना विवक्षितकल्पोचितसामाचार्ययोगात् । लेण्याद्वारे-तेजः प्रभुतिकासूत्तरासु तिसृषु विशुद्धासु लेश्यासु परिहारविशुद्धिक कल्पं प्रतिपद्यते । पूर्वप्रतिपन्नः पुनः सर्वास्वपि कथंचिद् भवति तत्रापीतरास्वविशुद्धलेश्यासु नात्यन्तसंक्लिष्टासु वर्तते । तथाभूतासु वर्तमानोऽपि न प्रभूतकालमवतिष्ठते किन्तु स्तोकं, यतः स्ववीर्यवशात् झटित्येव ताभ्यो व्यावर्तते । अथ प्रथमत एवं कस्मात् प्रवर्तते ? उच्यते--कर्मवशात्; उक्तञ्च-- लेसासु विसुद्धासु पडिवज्जई तीसु न उण सेसासु । पुव्वपडिवन्नओ पुण होज्जा सव्वासु वि कहंचि ।। नच्चंतसंकिलिट्ठासु थोवं कालं स हंदि इयरासु । चित्ता कम्माण गई तहा विवरीयं फलं देइ । ध्यानद्वारे-धर्मध्यानेन प्रवर्धमानेन परिहारविशुद्धिक, कल्पं प्रतिपद्यते । पूर्वप्रतिपन्नः पुनरातरौद्रयोरपि भवति, केवलं प्रायेण निरनुबन्धः । लेण्याद्वारे आदरतां तेजू, पद्म, सुक्ल-ए तीन विशुद्धपण हुवै अनै पछै तो कदाचित छह पिण हुदै । पिण माठी लेश्या आवै तो स्तोक काल लग रहे ते पिण अत्यंत तीव्र परिणामे न हुदै १० । ध्यानद्वारे-आदरतां धर्म ध्यानज हुवै अनै आदरयां: पछै तो कदाचित आर्त, रोद्र पिण हुवै पिण प्राये निरनुबंधज हुवै ११ । श० २५, उ०७, ढा०४५३ १६५ Jain Education Intemational Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह च---- झाणम्मि वि धम्मेणं पडिवज्जइ सो पवड्ढमाणेणं । इयरेसु विझाणेसु पुवपवन्नो न पडिसिद्धो।। एवं च झाणजोग उद्दामे तिव्वकम्मपरिणामा। रोटेसु वि भावो इमस्स पायं निरनुबंधो ।। ___ गणनाद्वारे - जघन्यतः प्रतिपद्यमाना: सप्तविंशतिः उत्कर्षतः सहस्र, पूर्वप्रतिपन्नकाः पुनर्जघन्यतः शतशः उत्कर्षतः सहस्रशः, गणनाद्वारे-परिहारविसुद्धिक हे भगवंत ! एक समय केतला हुवै ? इति प्रश्न । प्रतिपद्यमान एतले पड़िवजता थका आश्रयी नै कदाचित हुवै, कदाचित न हवै । जो हवं तो जघन्य थकी एक अथवा दोय अथवा तीन गण हुवै, उत्कृष्ट थकी शत पृथक हुवे । पूर्वे पडिवज्या आश्रयी नै कदाचित हुवै, कदाचित न हुवे। जो हुवे तो जघन्य थकी एक अथवा दोय अथवा तीन गण, उत्कृष्ट थकी सहस्र पृथक १२ । अभिग्रहद्वारे-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादि अभिग्रह परिहारविशुद्धि चारित्रिया नै न हुवे । जे भणी एहनों आचार तेहिज आकरो अभिग्रह छै १३ । प्रव्रज्याद्वारे-एह बीजां नैं दीक्षा न देव उपदेश तो दै १४ । मुंडापनद्वारे-एह बीजां ने मूंड नहीं १५ । प्रायश्चितद्वारे एहन मन थी पिण सूक्ष्म अतिचार लागे तो निश्चय चतुर्थ उपरांत प्रायछित हुवै, जे भणी एह एकाग्रचित्त हुवे। अन तेहन भंगे मोटो दोष लागै १६ । आलंबनद्वारे एहन ज्ञानादि आलंबन न हुवे। एह सर्वत्र निरापेक्षी थको विधि सहित गृहीताचारज पालतो थको महात्मा हुवै १७ । अभिग्रहद्वारे--अभिग्रहाश्चतुर्विधाः, तद्यथाद्रव्याभिग्रहाः क्षेत्राभिग्रहाः कालाभिग्रहाः भावाभिग्रहाश्च, एते चान्यत्र चचिता इति न भूयश्चच्यन्ते, तत्र परिहारविशुद्धिकस्यतेऽभिग्रहा न भवन्ति, यस्मादेतस्य कल्प एव यथोदितरूपोऽभिग्रहो वर्तते, प्रव्रज्याद्वारे-नासावन्यं प्रव्राजयति, कल्पस्थितिरेषेतिकृत्वा,""उपदेशं पुनर्यथाशक्ति प्रयच्छति १४ । मुण्डापनद्वारेऽपि नासावन्यं मुण्डयति। प्रायश्चित्तविधिद्वारे-मनसाऽपि सूक्ष्ममप्यतिचारमापन्नस्य नियमतश्चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तमस्य, यत एष कल्प एकाग्रताप्रधानः ततस्तद्भङ्गे गुरुतरो दोष इति १६ । कारणद्वारे-तथा कारणं नामालम्बनं तत्पुन:सुपरिशुद्धं ज्ञानादिकं तच्चास्य न विद्यते येन तदाश्रित्यपवादसेविता स्यात्, एष हि सर्वत्र निरपेक्षः क्लिष्टकर्मक्षयनिमित्तं प्रारब्धमेव स्वं कल्पं यथोक्तविधिना समापयन् महात्मा वर्तते, निष्प्रतिकर्मताद्वारे-एष महात्मा निष्प्रतिकर्मशरीरः अक्षिमलादिकमपि कदाचिन्नापनयति, न च प्राणान्तिकेऽपि समापतिते व्यसने द्वितीयं पदं सेवते, भिक्षाद्वारे - भिक्षा विहारक्रमश्च तृतीयस्यां पौरुष्यां भवति शेषासु च पौरुषीषु कायोत्सर्ग: निद्राऽपि चास्याल्पा द्रष्टव्या, यदि पुनः कथमपि जङ्काबलमस्य परिक्षीणं भवति तथाऽप्येषोऽविहरन्नपि महाभागो न द्वितीयपदमापद्यते, किन्तु तत्रैव यथाकल्पमात्मीयं योगं विदधातीति, एते च परिहारविशुद्धिका द्विविधाः, तद्यथाइत्वरा यावत्कथिकाश्च, तत्र ये कल्पसमाप्त्यनन्तरं तमेव कल्पं गच्छं वा समुपयास्यन्ति ते इत्वराः, ये पुनः कल्पसमाप्त्यनन्तरमव्यवधानेन जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते यावत्कथिकाः, तत्रत्वराणां कल्प निःप्रतिकर्मता द्वारे-एह महात्मा शरीर शुश्रूषा सर्वथा न कर, आंख नों मेल पिण परहो न करे, प्राणांत कष्ट पडयां पिण बीजो प्रकार से नहीं १८ । भिक्षाद्वारे-गोचरी अनं विहार ते एहन दिवस नी तीजी पोरसीइं। बीजा सात पोहर कायोत्सर्ग हुवे, सर्वथा बेस नहीं। निद्रा पिण अल्प हवै। कदाचित जंघाबल क्षीण हुवै तो पिण विहार करतो थको तिहांज पोता नों योग राक्ष पिण बीजे प्रकारे रहै नहीं १९ । बंधद्वारे-एह परिहारविशुद्धिक चारित्रिया बे भेदे हुवै--इत्वरिक अनै यावत्कथिक । तिहां इत्वरिक ते ए चारित्र पूर्ण थय थकै गच्छ मां आवस । अमैं ए चारित्र पूर्ण थय जिनकल्प आदरस तथा परिहारविशुद्धि में जावजीव लगे वर्तस ते यावत्कथिक । तिहां इत्वरिक नै आकरा उपसर्ग आंतिक वेदना ऊपज नहीं अन यावत्कथिक नै आकरा उपसर्ग रोगादिक कदाचित हुवे, पिण जे भणी १६६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते जिनकल्प आदरसै अनैं जिनकल्पी नै तो आकरा उपसर्गादिक हुवे ते माट एह परिहारविशुद्धि चारित्र नुं विवरण कह्य। प्रभावाद देवमनुष्यतैर्यग्योनिकृता उपसर्गाः सद्योघातिन आतङ्का अतीवा विषयाश्च वेदना न प्रादुष्षन्ति, यावत्कथिकानां संभवेयुरपि, ते हि जिनकल्पं प्रतिपत्स्यमाना जिनकल्पभावमनुविदधति, जिनकल्पिकानां चोपसर्गादयः संभवन्तीति । (पण्णवणा वृ. प. ६७,६८) इहां पन्नवणा नी वृत्ति में तथा टबा में परिहारविशुद्ध चारित्र पड़िवजे आदरै ते वेला तीन भली लेश्या तथा धर्म ध्यान कह्यो। अनै पड़िवज्यां पछ किणही वेला कृष्णादिक माठी लेश्या तथा आर्त्त, रोद्र ध्यान पिण आवै । ते पिण थोड़ो काल रहै एहवू कह्य, तिण न्याय परिहारविशुद्ध चारित्र नै अपडिसेवी कह्यो । ते पड़िवज्जे ते वेला अपडिसेवीपणों संभवै अथवा बहुलपणां नी अपेक्षाये अपडिसेवी हुवै । जे सामायिक छेदोपस्थापनिक चारित्र बहुलपण पड़िसेवी पिण हुवै अपड़िसेवी पिण हुवै ते भणी सामायिक, छेदोपस्थापनिक चारित्र प्रतिसेवक अप्रतिसेवक बेहुं कह्या। अनै परिहारविशुद्ध चारित्र बहुलपणे अप्रतिसेवक हीज संभव अनै बहुलपण भली लेश्या हीज संभवै ते मार्ट परिहारविशुद्ध चारित्र नै अप्रतिसेवक हीज कह्यो अनै तीन भली लेश्या हीज कही, एह जणाय छ। वली केवली कहै सो सत्य २० । संयत में ज्ञान ६०. *सामायिक संजत प्रभु ! कितरा, ज्ञान विषे है एह ? जिन कहै दोय विषे वा त्रिण में, अथवा च्यार विषेह ॥ ६१. एम कषायकुशील कह्य जिम, तिणहिज विध कहिवाय । च्यार ज्ञान नी भजना भणवी, इम जाव सूक्ष्मसंपराय ।। ६२. यथाख्यात संजत नै कहिवा, पंच ज्ञान भजनाय । जेम कह्य छै ज्ञान उद्देशे, तेम इहां कहिवाय ।। वा.--यथाख्यात चारित्र नां धणी तेरमें चवदमें गुणठाणे । तिहां तो निश्चय एक केवलज्ञान हीज पावै । अनैं यथाख्यात चारित्र नां धणी छमस्थ वीतराग इग्यारमें बारमें गुणठाणे । तिहां बे ज्ञान हुवै तो मति १, श्रुत २ । तथा ३ ज्ञान हुवै तो मति १, श्रुत २, अवधि ३ तथा मति १ श्रुत २ मनपर्यव ३। अथवा ४ ज्ञान हुवै तो मति १, श्रुत २, अवधि ३, मनपर्यव ४ । संयत में श्रुत की अर्हता ६०. सामाइसंजए णं भंते ! कतिसु नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होज्जा । ६१. एवं जहा कसायकुसीलस्स तहेव चत्तारि नाणाई भयणाए । एवं जाव सुहुमसंपराए। ६२ अहक्खायसंजयस्स पंच नाणाई भयणाए जहा नाणुद्देसए। (श २५४६९) वा०भजना पुन: केवलियथाख्यातचारित्रिणः केवलज्ञानं छद्मस्थवीतरागयथाख्यातचारित्रिणो द्वे वा श्रीणि वा चत्वारि वा ज्ञानानि भवन्तीत्येवंरूपा, (वृ. प. ९११) ६३. सामाइयसंजए णं भंते ! केवतियं सुयं अहिज्जेज्जा? गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठ पवयणमायाओ, ६३. *सामायिक संजत हे भगवंत ! श्रत केतलं पढंत ? जिन कहै जघन्य थकी अठ प्रवचन माता भणे सुसंत ।। ६४. कह्य कषायकुशील भणी जिम, सामायिक मैं तेम । उत्कृष्ट पूर्व चवद भणे ए, छेदोपस्थापनीय एम ।। ६५. फुन परिहारविशुद्धिज पूछयां, श्री जिन कहै जघन्य । नवम पूर्व नी तीजी वत्थु, नाम आचार सुजन्य ।। ६४. जहा कसायकुसीले । एवं छेदोवट्ठावणिए वि । (श. २५१४७०) ६५. परिहारविसुद्धियसंजए-पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं नवमस्स पुन्वस्स ततियं आयारवत्थु, *लय : सीता आवे रे धर राग श०२५, उ०७, ढा०४५३ १६७ Jain Education Intemational Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. उक्कोसेण असंपुण्णाई दस पुवाई अहिज्जेज्जा। ६६. उत्कृष्ट असंपूर्ण दश पूर्व, इतर इम अवलोय । देश ऊण दश पूर्व भणे इम, अधिक भणे नहिं कोय ।। ६७. संपराय-सूक्ष्म नै कहि, जिम सामायिक इष्ट ।। जघन्य थकी अठ प्रवचन माता, चउद पूर्व उत्कृष्ट ।। ६८. यथाख्यात पूछयां जिन भाखै, धुर अठ प्रवचन माय । उत्कृष्ट पूर्व चवद पढे ए, ए निग्रंथ कहाय ।। ६७. सुहुमसंपरायसंजए जहा सामाइयसंजए । (श. २५१४७१) ६८ अहक्खायसंजए-पुच्छा । गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठ पवयणमायाओ, उक्कोसेणं चोद्दस पुव्वाइं अहिज्जेज्जा, यथाख्यातसंयतो यदि निर्ग्रन्थस्तदाऽष्टप्रवचनमात्रादिचतुर्दशपूर्वान्तं श्रुतं । (व. प. ९११) ६९. सुयवतिरित्ते वा होज्जा। (श. २५४७२) यदि तु स्नातकस्तदा श्रुतातीतः। (वृ. प. ९११) ६९. अथवा श्रुतव्यतिरिक्त हुवै जे, स्नातक केवल नाण । श्रुतातीत कहियै छै तेहने, तेरम चवदम ठाण ।। ७०. शत पणवीसम सप्तम देशज, चिहंसौ तेपनमीं ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमाल ।। ढाल:४५४ दहा १. सामाइयसंजए णं भंते ! कि तित्थे होज्जा ? अतित्थे होज्जा? २. गोयमा ! तित्थे वा होज्जा, अतित्थे वा होज्जा, जहा कसायकुसीले। ४. छेदोवट्ठावणिए परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए। संयत तीर्थ में या अतीर्थ में १. सामायिक संजय प्रभु ! तीर्थ विषे स्यूं होय ? के अतीर्थ विषे हुवै ? हिव जिन उत्तर जोय ।। २. तीर्थ विषे ए है तथा, जेम कषायकुशील । हुवै अतीर्थ विषे वली, इम बिहुं विष सुमील । ३. अतीर्थ विषे है छै तिके, प्रत्येकबुद्ध विषेह । अथवा तीर्थंकर विषे, हुवै सामायिक जेह ।। ४. छेदोपस्थापनिक चरित्त जे, वलि परिहारविशुद्ध । जेम पुलाक तणी परै, कहियै ए अविरुद्ध । वा.-'छेदोपस्थापनी, परिहारविशुद्धि तीर्थ विषे हुवे, अतीर्थ विष नहीं है। जो तीर्थ विषे हुवे तो प्रत्येकबुद्ध के विषे वा तीर्थंकर ने विषे हुवै ? इम पूलाक नीं पूछा नथी करी, ते मार्ट पुलाक प्रत्येकबुद्ध तीर्थंकर नै विषे न संभव, एहवं जणाय छ। तिम छेदोपस्थापनिक, परिहारविशुद्धि पिण प्रत्येकबुद्ध तीर्थंकर विषे न संभव । जद कोइ पूछ-करकंड चेडा राजा नों दोहीतो ए भणी च्यारे *लय : सीता लाव रे धर राग १६८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येकबुद्ध महावीर स्वामी ने वारे थया मास रहे पर्छ छेदोपस्थापक तेहने बारे सामायिक चारित्र तो उत्कृष्ट ते दोपस्थापनिक प्रत्येकबुद्ध जो नभ भने ए ४ प्रत्येकबुद्ध महावीर स्वामी ने वारे या तेहने सामायिक चारित्र किम हुवे ? तेह्नों उत्तर- ए प्रत्येकबुद्ध सामायिक चारित्र विषे हीज छ मास मांहै मोक्ष गया हुस्यै, ए पिण ज्ञानी जाणै, तथा प्रत्येकबुद्ध तीर्थंकर नों आचार जुदो हुवै, ते तीर्थंकर ने सामायिक चारित्र हुवै तिमहिज प्रत्येकबुद्ध नैं सामायिक चारित्र हुवै, ते पिण केवलज्ञानी जाणें ।' [ज० स०] ५. शेष रह्या बे संजती बलि सूक्ष्मसंपराय । यथाख्यात संजत वलि, सामायिक जिम धाय ॥ वा. - सूक्ष्मसंप राय, यथाख्यात संजत तीर्थ के विषे हुवे अथवा अतीर्थ के विषे हुवे ? जे अतीर्थ के विषे ते प्रत्येकबुद्ध के विषे ह्वै छँ अथवा तीर्थंकर नैं विषे पिण हुने छ । संयत में लिंग * सरस भाव संजया नो सुणजो ॥ (ध्रुपदं ) ६. सामायिक संजत ए प्रभुजी ! स्यूं स्वलिंगे होय । अन्य लिंग विषे एह्वै छै ? पुलाक जिम अवलोय || गीतक छंद ७. द्रव्य लिंग आश्रित्य एह सामायिक, स्वलिंगे मुनि वेष हा । अथवा हुवै अन्य लिंग विषे फुन, ग्रहस्थ लिंग विषे वही ॥ ८. वलि भाव लिंग पच्च नियमा, स्वलिगेज ह्वं सही । वर महाव्रत अवितथ्य संजम, भाव लिंग तिको नही ॥ ९. * छेदोपस्थापनी इमहिज कहि, त्रिहुं द्रव्य लिंग विषेहो । भाव लिंग आश्रयी निश्च करी, सलिगेज कहेहो || १०. फुन परिहारविशुद्धिज पूछयां भाखं तब जगभाणो । द्रव्य लिंग भाव लिंग आश्रयी, एह सलिगे जाणो ॥ ११. वर परिहारविशुद्धि चारित्रियो, अन्य लिंगे नहि होय । गृह लिंगे पिण ए नहि होवे, अदल न्याय अवलोय ॥ १२. शेष ये चारित्र सामायिक जिम, द्रव्य लिंग तीनूंह थायो । भाव लिंग ते चारित्र आश्रयी, सलिगे सुखदायो ॥ संपत में शरीर १३. सामायिक संजत हे प्रभुजी! किता शरीर विषे होइ ? जिन कहैत्रिण चिहुं पंच विषे वा, कषायकुशील जिम जोइ ॥ वा. — त्रिण शरीर विषे हुवै ते ओदारिक १, तेजस २, कार्मण ३ विषे हुवे अथवा व्यार शरीर विषे हुवै ते औदारिक १, वैक्रिय २, तेजस ३, कार्मण ४ विषे *लय पर नारी नों संग न कीजं ५. सेसा जहा सामाइयसंजए । ६७. सामाहयसंजए णं भते । कि सलिगे होगा ? अलि हो । विहिनि होला ? जहा पुलाए । ९. एवं ए बि । (. २२०४०३) (म. २५/४७४) १०. परिहारविमुजिए । पुच्छा। गोयमा ! दव्वलिंगं पि भावलिगं पि पहुच्च सलिंगे होज्जा, ११. नो लगे होना, नो गिहिलिगे होन्या । १२. सेसा जहा सामाइजए । (स. २५०४०५) १२. सामाइयसंजए णं भंते ! कतिसु सरीरेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसु वा चउसु वा पंचसु वा जहा कसायकुसीले । श० २५, उ० ७, डा० ४५३ १६९ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवै । अथवा पंच शरीर विषे ह ते ओदारिक १, वैक्रिय २, आहारिक ३, तेजस ४, कार्मण ५ विषे हुवे। १४. छेदोपस्थापनिक इमहिज कहिवो, शेष चारित्र त्रिण जाणी। जेम पुलाक कह्यो तिम कहि, तीन शरीरे माणी ।। संयत किस क्षेत्र में १५. सामायिक संजत स्यूं प्रभुजी ! कर्मभूमि विषे थायो ? के अकर्मभूमि विषे ए है छै ? जिन कहै सांभल न्यायो ।। १४. एवं छेदोवट्ठावणिए वि । सेसा जहा पुलाए । (श. २०४७६) १५. सामाइयसंजए णं भंते ! किं कम्मभूमीए होज्जा? अकम्मभूमीए होज्जा? गोयमा ! १६ जम्मण-संतिभावं पडुच्च जहा बउसे । १६. जन्म अने छता भाव आश्रयी, कर्मभूमि विषे होइ । अकर्भभूमि विषे नहीं ए, बकुश जिम अवलोइ ।। सोरठा १७. साहरण आश्री एह, द्वै कर्मभूमि विषे वलि । अकर्मभूमि विषेह, सामायिक संजत हुवै ।। १८. * छेदोपस्थापनीक इमहिज कहिय, पुलाक जेम परिहारो । जन्म अने छता भाव आश्रयी, ह्व कर्मभूमि मझारो॥ १९. शेष बे चारित्त सामायिक जिम, जन्म छतै भाव जोइ । कै कर्मभूमि, अकर्मभूमि नहीं, साहरण विषे बिहुँ होइ । संयत किस काल में २०. * सामायिक संजत हे प्रभुजी ! कै अवसप्पिणी कालो? के उत्सप्पिणी काल विषे है, के बिहुँ नहिं तिहां न्हालो ? १८. एवं छेदोवट्ठावणिए वि। परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए। १९. सेसा जहा सामाइयसंजए। (श. २५१४७७) २०. सामाइयसंजए णं भंते ! कि ओसप्पिणिकाले होज्जा? उस्सप्पिणिकाले होज्जा? नोओसप्पिणि नोउस्सप्पिणिकाले होज्जा? २१. गोयमा ! ओसप्पिणिकाले जहा बउसे । २१. श्री जिन भाखै सांभल गोयम ! ह अवसप्पिणी कालो। जेम बकुश ने कह्यो तिम कहि, वारू रीत विशालो। सोरठा २२. है अवप्पिणी काल, उत्सप्पिणी काले हवै। बिहुं नहीं तिहां न्हाल, ह सामायिक संजती ।। २३. जो ह अवसप्पिणी काल, तो जन्म छता भाव आश्रयी । तीजै आरै न्हाल, फुन ह चोथै पंचमै ॥ २४. साहरण आश्रयी होय, तो कोइक आरा जिसो। काल जिहां अवलोय, त्यां सामायिक चरित्त है। २५. जो है उत्सप्पिणी काल, तो जन्म ऊपजवा आश्रयी । दजै आरै न्हाल, वलि तीजै चउथै हुवै॥ २६. छता भाव आश्रित्त, तृतीय तुर्य आरै हुवै । शेष विषे न कथित्त, ए सामायिक संजती ॥ २७. साहरण आश्रयी होय, तो कोइक आरा जिसो । काल जिहां है सोय, ज्यां सामायिक संजती ।। २८. अवउत्सप्पिणी नांहि, त्यां सामायिक चरित्त है। तो दुषमसुषम सम ताहि, तेह विदेह विषे हुवे ।। * लयः पर नारी नों संग न कीज १७. भगवती बोर Jain Education Intemational Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. एवं छेदोवट्ठावणिए वि, नवरं-जम्मण-संतिभावं पडुच्च चउसु वि पलिभागेसु नत्थि, __ वा०-'एवं छेओवट्ठावणिएवि' त्ति, अनेन बकुशसमानः कालतश्छेदोपस्थापनीयसंयत उक्तः, तत्र च बकुशस्योत्सपिण्यवसप्पिणीव्यतिरिक्तकाले जन्मतः सद्भावतश्च सुषमसुषमादिप्रतिभागत्रये निषेधोऽभिहितः दुष्षमसुषमाप्रतिभागे च विधि: छेदोपस्थापनीयसंयतस्य तु तत्रापि निषेधार्थमाह'नवर' मित्यादि । (वृ.प. ९१३) ३१. साहरणं पडुच्च अण्णयरे पडिभागे होज्जा, २९. विदेह सामायिक होय, जो तेहनों साहरण ह्र । तो अरा कोइक सम जोय, तिहां देवादिक मेल दै।। ३० * छेदोपस्थापनी इमहिज कहिवं, णवरं जन्म छतै भावै । च्यारूं अरा जिसो काल वत्त जिहां, तिण क्षेत्र नहि थावै ।। वा. -इम छेदीपस्थापनीक पिण एणे वचने करी बकुश समान काल थकी छेदोपस्थापनिक संजत कह्यो । वलि तिहां बकुश अवसप्पिणी-उत्सप्पिणी-व्यतिरिक्त काल नै विषे जन्म थकी अन छता भाव थकी सुषमसुषमा सरीखो देवकुरू, उत्तरकुरू क्षेत्र नै विषे १ । सुषमा सरीखो हरीवास, रम्यकवास क्षेत्र नं विषे २ । सुषमदुषमा सरीखो हेमवत, एरणवत क्षेत्र नं विषे ३ । ए क्षेत्रे अवसप्पिणी उत्सप्पिणी काल नहीं, तिहां बकुश नों निषेध कह्यो । दुषमसुषमा सरीखो महाविदेह क्षेत्र इहां पिण अवसप्पिणी उत्सप्पिणी काल नथी । ते महाविदेह क्षेत्रे बकुश कह्य छ। अनै छेदोपस्थापनीक ते महाविदेह क्षेत्र नै विष पिण निषेध नै अर्थे आगल एहवं का। नवरं कहितां एतलो विशेष जन्म अनै छता भाव आश्रयी च्यारूं अरा जिसो काल वत्तै तिहां पिण नथी । ३१. साहरण आश्रयो सुषमसुषमादिक, अद्धा जिसो जिहां कालो । तेह मांहिलो कोइक क्षेत्रे, द्वितीय चारित्त हुवै न्हालो ।। सोरठा ३२. सुषमसुषमा सम खेत्त, देवकुरु उत्तरकुरु । सुषमा सदृश्य तेथ, हरिवास रम्यक वली ।। ३३. सुषमादुसम सरीस, हेमवत फुन एरणवत । दुषमसुषम सम इंस, क्षेत्र महाविदेह जाणवं ।। ३४. ए च्यारूंइ मांय, कोइक क्षेत्र विषे तसु । तिहां उठाय, देव प्रमुख कृत संहरण ।। ३५. * शेष विस्तार सामायिक नी परि, कहिवो सर्व उदंतो । चारित्र छेदोपस्थापनीक नों, भाख्यो श्री भगवंतो।। ३६. चरित्त परिहारविशुद्धि नीं पूछा, भाखै दीनदयालो । अवसप्पिणी काले पिण होवै, उत्सप्पिणी कालो ।। ३७. नोअवसप्पिणी नोउत्सप्पिणी, महाविदेहादिक माह्यो । तेह क्षेत्र विषे ए नहिं होवै, परिहारविशुद्धि सुहायो ।। ३८. जो अवसप्पिणी काल विष ह्व, पुलाक जिन कहिवायो । जो उत्सप्पिणी काल विषे है, ए पिण पुलाक ज्यं थायो ।। सोरठा ३९. जन्म आश्रयी जोय, तो अवसप्पिणी काल में । तीजे आरै होय, वलि चोथै आरै हुवै ।। ४०. छता भाव आश्रित्य, तीज चोथै पंचमें । अन्य अरै न कथित्य, काल अवसप्पिणी ने विषे ।। ४१. जो उत्सप्पिणी में होय, तो ए जन्मज आश्रयी । दूजे आरै जोय, वलि तीजै चोथै हवै ॥ * लय पर नारी नों संग न कीज ३५. सेसं तं चेव। (श. २५१४७८) ३६. परिहारविसुद्धिए-पुच्छा । गोयमा ! ओसप्पिणिकाले वा होज्जा, उस्सप्पिणि काले वा होज्जा, ३७. नोओसप्पिणि-नोउस्सप्पिणिकाले नो होज्जा। ३८. जइ ओसप्पिणिकाले होज्जा-जहा पुलाओ। उस्स प्पिणिकाले वि जहा पुलाओ। श. २५, १०७,41.४५४ ११ Jain Education Intemational Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. सुहुमसंपराइओ जहा नियंठो। एवं अहक्खाओ वि। (श. २५॥४७९) ४२. छता भाव आथित्य, तृतीय तुर्य आरै हुवे । अन्य आरै न कथित्य, हुवै नहीं साहरण तसु ॥ ४३. * सूक्ष्मसंपराय निग्रंथ नी परि, यथाख्यात पिण एमो । ते निग्रंथ प्रतेज विचारी, कहिवं सगलो तेमो । सोरठा ४४. निग्रंथ स्नातक न्हाल, ह अवप्पिणी काल में । वलि उत्सप्पिणी काल, बिहुँ नहीं त्यां पिण हुवै ॥ ४५. जो अवसप्पिणी काल, तो जन्म आश्रयी जाणवू । तोजै चोथै न्हाल, अन्य अरै जनमें नथी। ४६. छता भाव आश्रित्य, तीजै चोथै पंचमें । काल विषेज कथित्य, ए अवप्पिणी नैं विषे । ४७. जो उत्सप्पिणी काल, जन्म आश्रयी जे हुवे । बीजै तीजै न्हाल, वलि चोथै आरै हवै। ४८. छता भाव आथित्य, तृतीय तुर्य आरै हुवे । अन्य अरैन कथित्य, अद्धा उत्सप्पिणी विषे ।। ४९. क्षेत्र महाविदेह मांय, अव-उत्सप्पिणी त्यां नथी। तिण क्षेत्रे पिण थाय, जन्म छता भाव आश्रयो । ५०. साहरण आश्रयी सोय, जिम निग्रंथ तणं कां । तिम एहनों पिण होय, यथाख्यात मूक्यां पछै । ५१. * शत पणवीसम देश सप्त नों, चिहुंसौ चउपनमीं ढालो । भिक्षु भारोमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश हरष विशालो ।। ढाल : ४५५ संयत की गति दूहा १. संजत सामायिक प्रभु ! काल कियां थी ताय । किण गति में जावै तिको? जिन कहै सुरगति जाय ॥ १. सामाइयसंजए णं भंते ! कालगए समाणे के गति गच्छति? गोयमा ! देवगति गच्छति । (श. २५॥४८०) २. देवगति गच्छमाणे किं भवणवासीसु उववज्जेज्जा? वाणमंतरेसु उववज्जेज्जा? । ३,४. गोयमा ! नो भवणवासीसु उववज्जेज्जा-जहा कसायकुसीले । २. सुरगति में जाते छत, भवनपति में जाय ? ___ के व्यंतर के ज्योतिषी, के वैमानिक थाय? ३. जिन भाखै नहि ऊपजै, भवनपती रै माय । ___ नहिं ह व्यंतर ज्योतिषी, वैमानिक में जाय ॥ ४. कषायकुशील ने कह्य, तेम इहां पिण इष्ट । जघन्य सौधर्मे ऊपज, सव्वदसिद्ध उत्कृष्ट ।। ५. छेदोपस्थापनी पिण इमज, पुलाक जिम परिहार । ___ जघन्य सुधर्मे ऊपजै, उत्कृष्टो सहसार ॥ *लया पर नारी नो संग न कीजे ५. एवं छेदोवढावणिए वि। परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए। १७२ भगवती जोर Jain Education Intemational Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. सुहुमसंपराए जहा नियंठे। (श. २५॥४८१) ६. संपराय-सूक्ष्म तिको, निग्रंथ जेम कहेह । जघन्य नहीं उत्कृष्ट नहीं, वैमान अनुत्तरेह ।। ७. यथाख्यात संजत पृच्छा, यथाख्यात इम थात । जाव जघन्य उत्कृष्ट नहीं, अनुत्तरे उपपात ।। ७. अहक्खाए-पुच्छा। गोयमा ! एवं अहक्खायसंजए वि जाव अजहण्ण मणुक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववज्जेज्जा, ८. अत्थेगतिए सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । (श. २०४८२) ९. सामाइयसंजए णं भंते ! देवलोगेसु उववज्जमाणे किं इंदत्ताए उववज्जति-पुच्छा। १०. गोयमा ! अविराहणं पडुच्च एवं जहा कसाय कुसीले। ८. कोइ एक सीझै वलि, यावत अंत करेह । ए क्षायिक चारित्र धणी, उपशम अनुत्तरेह ।। *पवर संजया पंच कडा प्रभ, देव जिनेंद्र दिनिंदा । देव जिनेंद्र दिनिंदा, म्हैं वारी जाऊं सेवै सुर नर वदा हो ।। [ध्रुपदं] ९. सामायिक संजत हे प्रभुजी ! सुरलोके उपजतो। स्यं उपजै छै इंद्रपणे ते? इत्यादिक पूछतो ।। १०. जिन कहै अविराधना आश्रयी, जेम कषायकुशीलं । तसु आख्यो तिम पिण ए भणवू, ज्ञान पयोद सलील । सोरठा ११. अविराधक छै जेह, इंद्रपणे ते ऊपजै । जाव अहमिद्रपणेह, सा.' ता.' लो.' जावत रवै ।। वा.-इहां कोइ पूछ-आराधक साधु ए पांच पदवी विना अन्य देवतापर्ण स्य नथी ऊपज ? तेहर्नु उत्तर-आराधक साधु अन्य देवतापणे पिण ऊपजतो दीस छ। पदवी पामवा नों नियम नथी संभव । ठाम-ठाम सूत्र में साधु मर देवता थया तिहां देवपण ऊपना कह्या, पिण पदवी रो नाम घणे ठिकाण नथी कह्यो ते मारी। अने इहां गोतम स्वामी पंच पदवी नुं हीज प्रश्न पूछयो ते मार्ट पंच पदवी नुं हीज उत्तर दीडूं। १२. विराधना आश्रित्त, भवनपत्यादिक कोइक में । ___विराधक एह कथित्त, सम्यक्त्व चारित्र नुं कह्य॥ वा०-ए भवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी नों आउखो बांधे ते सम्यक्त्व चारित्र बिहु गमाय नै तेहनों आउखो बांधी तिहां ऊपज । जे चारित्र रहित थयु अनै सम्यक्त्व रहै तेहनै पिण वैमानिक बिना और गति नों बंधन न पड़े ते माटै ते बिहुँ नों सर्व थकी विराधक ते भवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी में ऊपज । १३. *कहिq इम छेदोपस्थापनी, पुलाक जिम परिहारं । अविराधक के वली विराधक, पुलाक जेम प्रकारं ।। १३. एवं छेदोवट्ठावणिए वि। परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए। गीतक छंद १४. अविराधना आश्रित्य पदवी. इंद्र सामानिक लही। फुन तावतीसक लोकपालक, एह पद आश्रित्य ही ॥ सोरठा १५. पद अहमिंद्र सुहाय, कल्पातीत कहीजिये । तेह विषे नहिं जाय, ए परिहारविशुद्धिको । १. सामानिक २. प्रायस्त्रिश ३. लोकपाल *लय : पूज भीखणजी तुम्हारा दर्शण श• २५, उ•७, डा. ४५५ १७३ Jain Education Intemational Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७, सेसा जहा नियंठे। (श. २५४८३) गोतक छंद १६. फुन विराधक आश्रित्य उपजै भवनपत्यादिक महीं । ___ चिहुं जाति में कोइक विषे, सम्यक्त्व चरण वमी सही ।। १७. *संपराय-सूक्ष्म चारित्रियो, यथाख्यात वलि जाणी । ए बिहं संजत शेष रह्या ते, निग्रंथ जेम पिछाणी ।। गीतकछंद १८. अविराधना आश्रित्य इंद्र, सामानिके त्रास्त्रिशके । नहिं ऊपज फुन लोकपाले, हुवै ए अहमिदके ।। १९. फुन विराधक उत्पत्ति भवनपत्यादिक सुर कोइक विषै । वर श्रेणि थी पड़ हुवै विराधक मोह कर्म तणे धकै ।। २०. *सामायिक संजत हे प्रमजी! ऊपजतो सुर लोगे । किता काल नी स्थिति कही तसु, ते सुर नी शुभ योगे? २१. श्री जिन भाखै जघन्य थकी ते, दोय पल्य नी स्थित । उत्कृष्टी तेतीस उदधि नी, अविराधक आश्रित ।। २२. कहिवू इम छेदोपस्थापनी, पूछ फुन परिहारं । श्री जिन भाख जघन्य दोय पल्य, उत्कृष्ट उदधि अठारं ।। लोकपालदिक सुर का धकै ।। २०. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! देवलोगेसु उववज्ज माणस्स केवतियं कालं ठिती पण्णता? २१. गोयमा ! जहणणं दो पलिओवमाइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। २२. एवं छेदोवढावणिए वि। (श. २५।४८४) परिहारविसुद्धियस्स ---पुच्छा। गोयमा ! जहणणं दो पलिओवमाई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई, २३. सेसाणं जहा नियंठस्स । (श. २५।४८५) २३. दोय संजती शेष रह्या ते. निग्रंथ जेम निहाली । तेह अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थित, तेतीस सागर भाली ।। संयत के संयम-स्थान २४. सामायिक नैं प्रभु ! केतला, संजम स्थानक भाख्या ? श्री जिन भाखै असंख्यात ही, स्थान चरित्र नां दाख्या ।। २५. इम यावत परिहारविशुद्ध नां, प्रश्न सूक्ष्मसंपराय । संजम-स्थानक असंख्यात है, अंतर्मुहुर्त मांय ।। २४. सामाइयसंजयस्स णं भंते! केवतिया संजमट्ठाणा पण्णत्ता? गोयमा ! असंखेज्जा संजमट्ठाणा पण्णत्ता । २५. एवं जाव परिहारविसुद्धियस्स। (श. २५१४८६) सुहमसंपरायसंजयस्स--पुच्छा। गोयमा ! असंखेज्जा अंतोमुहुत्तिया संजमट्ठाणा पण्णत्ता। (श. २५४८७) सोरठा २६. अंतर्महुर्त प्रमाण, संपराय-सूक्ष्म अद्धा । समय-समय प्रति जाण, चरण विशुद्ध विशेष थी ।। २७. ते माटै असंख्यात, संजम नां स्थानक तस् । अंतर्महर्ते थात, तिणसू अंतर्मुहूत्तिका ।। वा०-अंतमहत ने विषे थया ते अंतर्महुत्तिया निश्चय करिक अंतर्मुहूर्त प्रमाण ते सूक्ष्मसंपराय नों अद्धा। अने तेहनै प्रतिसमय चरण विशुद्ध विशेष भाव थकी असंख्याता ते संजमस्थान हुवै ते माटै असंख्याता अंतर्मुत्तिया संजमस्थान कह्या। २८. *यथाख्यात संजत नीं पूछा, श्री जिन कहै संपेख । अजघन्य-अनुत्कृष्ट संजम नों स्थानक भाख्यो एक ।। *लय : पूज भीखणजी तुम्हारा दर्शण वा०–'असंखेज्जा अंतोमुहुत्तिया संजमट्ठाण' त्ति अन्तर्मुहूर्तं भवानि आन्तर्मुहुत्तिकानि, अन्तर्मुहूर्तप्रमाणा हि तदद्धा, तस्याश्च प्रतिसमयं चरणविशुद्धिविशेषभावादसङ्खये यानि तानि भवन्ति, (व. प. ९१३) २८. अहक्खायसंजयस्स-पृच्छा। गोयमा ! एगे अजहण्णमणुक्कोसए संजमट्ठाणे पण्णत्ते। (श. २५१४८८) १७४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. यथाख्याते त्वेकमेव, तदद्धायाश्चरणविशुद्धेनिविशेषत्वादिति । (वृ. प. ९१३) सोरठा २९. तेहनां काल विषेह, चारित्र तणों विशुद्ध जे । ___ निरविशेष भावेह, तेहथी संजम-स्थान इक ।। संयमस्थानों का अल्पबहुत्व ३०. हे प्रभुजी! ए सामायिक नां. छेदोपस्थापनी केरा । वलि परिहारविशुद्ध तणां जे, संजमस्थान सुमेरा ।। ३१. संपराय-सूक्ष्म नां स्थानक, यथाख्यात नां जोइ । कुण-कुण थकी जाव अथवा जे, विसेसाहिया होइ ? ३२. श्री जिन कहै सर्व थी थोड़ो, यथाख्यात नों जाणी । अजघन्य-अनुत्कृष्ट संजम नों, स्थानक एक पिछाणी ।। ३३. तेह थी सूक्ष्मसंपराय नां, संजमस्थानक जाणी। अंतर्महत्तिया ते आख्या, असंखगूणा पहिछाणी ।। ३४. तेह थकी परिहारविशुद्ध नां, संजम केरा स्थानं । असंख्यातगुण अधिका कहिये, पवर रीत पहिछानं ।। ३५. सामायिक छेदोपस्थापनिक, बिहुं नां संजमस्थानं । मांहोमां तुला पूर्व थी, असंख्यातगुण मानं ।। वा०-संजमस्थान अल्पबहुत्व चिंता नै विषे इहां असद्भाव स्थापनाये समस्त संजमस्थानक इकवीस कल्पीय । तिहां ऊपरलो एक ते यथाख्यात नों तेहथी नीचला च्यार ते सूक्ष्मसंपराय नां । तिके तेहथी असंख्यातगुणा देखवा। तेहथी नीचला च्यार परहा छांडवा । वलि आठ अनेरा पारिहारिक । तेह पूर्व थकी असंख्येयगुण देखवा। तिवार पर्छ परिहरथा ४ । आठ पूर्वोक्तहीज तेहथी अनेरा ४ । इति इम ते सोले सामायिक छेदोपस्थापनीय संजत नां हुवै । पूठला थकी एह असंख्यातगुणा इति । ३०. एएसि णं भंते ! सामाइय-छेदोवट्ठावणिय-परिहार विसुद्धिय३१. सुहुमसंपराग-अहक्खायसंजयाणं संजमट्ठाणाणं कयरे ___ कयरेहिंतो जाव (सं. पा.) विसेसाहिया वा ? ३२. गोयमा ! सव्वत्थोवे अहक्खायसंजयस्स एगे अजहण्ण मणुक्कोसए संजमट्ठाणे, ३३. सुहुमसंपरागसंजयस्स अंतोमुहुत्तिया संजमट्ठाणा असंखेज्जगुणा, ३४. परिहारविसुद्धियसंजयस्स संजमट्ठाणा असंखेज्जगुणा, ३५ सामाइयसंजयस्स छेदोवट्ठावणियसंजयस्स य एएसि णं संजमट्ठाणा दोण्ह वि तुल्ला असंखेज्जगुणा । (श. २५५४८९) वा०-संयमस्थानाल्पबहुत्वचिन्तायां तु किलासद्भावस्थापनया समस्तानि संयमस्थानान्येकविशतिः, तत्रैकमुपरितनं यथाख्यातस्य, ततोऽधस्तनानि चत्वारि सूक्ष्मसम्परायस्य, तानि च तस्मादसङ्खये यगुणानि दृश्यानि, तेभ्योऽधश्चत्वारि परिहृत्यान्यान्यष्टौ परिहारिकस्य, तानि च पूर्वेभ्योऽसङ्खये यगुणानि दृश्यानि, तत: परिहृतानि, यानि चत्वार्यष्टौ च पूर्वोक्तानि तेभ्योऽन्यानि च चत्वारीत्येवं तानि षोडश सामायिकच्छेदोपस्थापनीयसंयतयोः, पूर्वेभ्यश्चतान्यसङ्खघातगुणानीति । (वृ. प. ९१३) ३६. शत पणवीसम सप्तम देशज, चिहुं सौ पचपन ढालं । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय-प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमालं ।। श.२५, .७ .४५५ १७५ Jain Education Intemational Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयत के निकर्ष - चारित्रपर्यव ढाल ४५६ दूहा वा. · तिहां निकषं कहितां सन्निकर्ष सामायिकादिक नों परस्पर संयोजन संबंध तेनां प्रस्ताव ते अवसर थकी कहै छै - १. सामायिक संजत तणां, कितला हे भगवंत ! चारित नां पर्याय ते ? जिन कहै कह्या अनंत ।। २. एवं यावत जाणवा, यथाख्यात चारित्र नां पर्याय तसु कह्या * स्वाम प्रकारे, संजत पंच प्रकारे ।। (ध्रुपदं) ३. सामायिक सामायिक में प्रभु स्वस्थान संयोजन ताय । चारित्र नां पर्याय करीनें, स्यूं हीण तुल्य अधिकाय ? ! अति शुद्ध । अनंता बुद्ध ।। ४. श्री जिन भावे हीण कदाचित, चट्टानवडिया कहिये । संख असंख अनंत भाग गुण, हीण अधिक करि लहियै || ५. हे प्रभु ! सामायिक संजत नैं, छेदोपस्थापनी नैं इच्छा । परस्थानक जोगे करिनें ए, परित्त पज्जव नीं पृच्छा ॥ ६. श्री जिन भाखे हीण कदाचित वाणवडिय कहाय । इम परिहारविशुद्ध परस्थानक योगे करि सामाय ॥ ७. हे प्रभु! सामायिक संजत में जे सूक्ष्मसंपराय । परस्थानक योगे करिनें ए, चरित पज्जव पूछाय ? ८. श्री जिन भाखं हीण सामायिक, पण तुल्य अधिक नवि यात । अनंतगुण ते हीण कहीजे, तिणहिज विध यथाख्यात || वा. - सामायिक सामायिक चारित्र नां पज्जवे करी कदा हीण, कदा तुल्य, कदा अधिक जो ही अधिक तो दागवडिए कही। अने सामायिक चारित्र नां पज्जवा ते छेदोपस्थापनी चारित्र नां पज्जवे करी मींढै तो इमज छट्टाणवडिए कहीजे ने सामायिक चारिष नो जवा ते परिहारविशुद्ध चारिष नौ प करी मींढे तो इम छट्टाणवडिए । अनैं सामायिक चारित्र नां पज्जवा ते सूक्ष्मसंपराय चारित्र नां पज्जवा करिकै मीढं तो सूक्ष्मसंपराय चारित्र नैं पज्जवे करी सामायिक चारित्र नां पज्जवा हीण, पिण तुल्य नहीं, अधिक नहीं । हीण तो अनंतगुण । इमज यथाख्यात चारित्र नां पज्जवा थकी सामायिक चारित्र नां पज्जवा अनंतगुण हीण छे, पिण तुल्य अधिक नथी । ९. इम छेदोपस्थापनी कहि, घुर त्रिण छट्टाग थात ऊपरले वे चरण पज्जवे करी हीण अनंतगुण ख्यात ।। , वा०- छेदोपस्थापनी चारित्र नां पज्जवा ते सामायिक चारित्र नां पज्जवा की छाणवडिए छेदोपस्थापी चारित्र नां पञ्जवा अनेरा छेदोपस्थापनीय लय बंद निहाल हो १७६ भगवती जोड़ १. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! केवइया चरितपज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अनंता चरित्तपज्जवा पण्णत्ता । २. एवं जाव अहक्खायसंजयस्स । ( . २५०४९० ) ३. सामाइयसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयस्स सट्टाणसणिमात्रेण परितपजहि कि ही? तुल्ले ? जन्महिए ? ४. गोयमा ! सिय हीणे - छट्टाणवडिए । (म. २५ ४९१) छेदोद्राभियजस्व ५. सामाइसंग भंते परद्वाणसण्णिगासेणं चरितपज्जवेहि पुच्छा । ६. गोयमा ! सिय हीणे छट्टाणवडिए । एवं परिहारविसुद्धिस्स वि । (श. २५/४९२ ) ७. सामाइजए णं ते! हमसंपरागसंजयस्त भंते पराणसगावे परिपनहि पुन्हा ८. गोमा ही नो तुल्ले, नो अनंतगुणहीणे। 7 एवं अवाय संजयस्स वि । सामाइय वा० सामाइयसं जमे णं भंते ! संजयते' यादी 'सिप होणे' ति असद्धपातानि तस्य संगमस्थानानि तत्र च यदेको नदिय वितरण वर्णते तपैको होनोऽयस्त्वभ्यधिकः यदा तु समाने स्वानेव तदा तुल्ये, हीनाधिक च षट्स्थानपतितत्वं स्यादत एवाह' छट्टाणवडिए ' त्ति । (बु. प. ९१३, ९१४) ९. एवं छेदोद्वाणि वि हेल्लेसु तिसु वि डिए उपर दो तहेव होने Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिनो पञ्जा छागवडिए छेदोपस्थापनीय चारित्र नां पज्जता परिहारविशुद्ध चारित्र नां पज्जवा थकी छट्टाणवडिए । अनैं छेदोपस्थापनी नां पज्जवा सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात ए बिहूं चारित्र नां पज्जवा थकी अनंतगुण हीण, पिण तुल्य अधिक नथी । १०. जिम छेदोपस्थापनीय आख्यो, तिमज परिहार सुचीन । रहिं चरित पज्जव छाणज, चरम उभय थी हीन ॥ वा. परिहारविशुद्ध चारित्र न पश्वा ते सामायिक, छेदोपस्वानीय परिहारविशुद्ध चारित्र नां पज्जवा थकी मींढ्यां छट्टाणवडिए अनैं सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात चारित्र नां पज्जवा थकी अनंतगुण हीण, पिण तुल्य अधिक नथी । ११. जेह सूक्ष्मसंपराय संजत ते, हे भगवंत ! कृपाल ! सामायिक परस्थान योगे करि, पृच्छा ए सुविशाल || १२. श्री जिन भाखे हीण नहीं ए, तुल्यपणुं पिण नांय । अधिक अछे सूक्ष्मसंपरायज, अनंतगुण अधिकाय । १३. इम छेदोपस्थापनीय करिकै, परिहारविशुद्ध करि ताय । सूक्ष्मसंपराय हीण तुल्य नांही, अनंतगुण अधिकाय ।। १४. संप राय- सूक्ष्म स्वस्थाने, हीण कदाचित थाय । नो तुल्ले नहि तुल्य कहीजै, कदाचित अधिकाय ।। १५. स्वस्थानक करि हीण हुवे जो तो कहिये अनंतगुण हीण । अधिक हुये तो अनंतगुण अधिकज, दश गुणठाण सुचीन | में १६. प्रभु ! सूक्ष्मसंपराय चरित नां, पज्जव तणी जे इच्छा । यथाख्यात परस्थान चरित नैं, पज्जव योग करि पृच्छा ॥ श्री जिन भावं यथाख्यात थी, हीण सूक्ष्मसंपराव तुल्य अधिक नहिं कहिये एहने हीण अनंतगुण थाय ॥ 1 वा. सूक्ष्मसंपराय चरित नां पज्जवा ते सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्ध चरित्र नां पज्जवा थकी हीण नहीं, तुल्य नहीं, अनंतगुण अधिक छै । अनं यथाख्यात चारित्र नां पज्जवा थकी सूक्ष्मसंपराय चरित्त नां पज्जवा अनंतगुण हीण, पिण तुल्य अधिक नहीं । १८. * यथाख्यात चारित्र नां पज्जव, धुर चिहुं चरित्त संघात । होण हवे नहि तुल्य हुवे नहीं अधिक अनंतगुण स्वात ।। १९. यवख्यात चारित्र नां पज्जन, ते यथाख्यात संघात । स्वस्थाने नहि हीण अधिक नहीं, तुल्य इहां आख्यात || वा यथाख्यात चरित नां पज्जवा ते सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापनी चारित्र परिहारविव चारित्र, सूक्ष्मसंपराय चारितनोपज थकी अनंतगुण अधिक हुवै, पिण हीण तुल्य न हुवै। अनं यथाख्यात चारित्र नां पज्जवा यथाख्यात संचाते हुवे अधिक नथी। संपतों के चारित्र-पत्रों का अल्पवत्व २०. हे प्रभु! एह सामायिक चारित, छेदोपस्थापनी जोय । परिहारविशुद्ध सूक्ष्मसंपरायज, यथाख्यात जवलोय ॥ *लय : रु चन्द निहालै हो १०. जहा छेदोवद्वावणिए तहा परिहारविसुद्धिए वि । (श. २५/४९३ ) ११. परागसंजय भंते! परद्वाण पुच्छा । १२. गोपमा ! नो होगे, नो तुम्, अन्यहिए अनंतगुणमभहिए। १२. एवं छँदा परिहारविसुडिएस वि समं । सामाइयसंजयस्स १४. सट्टाणे सिय हीणे, नो तुल्ले, सिय अन्भहिए । १५. जी अती, अह अम्महिए अगंतगुणमहिए। (श. २५/४९४) १६. पराजयरस यायसंजयस्व परद्वायपुच्छा । १७. गोमा नो गुल्ले, नो जन्महिए, अनंतगुणहीणे । १८. अहखाए हेडला च वि नो हीणे, नो तुल्ले, अब्भहिए - अनंतगुणमब्भहिए । १९. सट्टा नो हीणे, तुल्ले, नो अहिए। ( . २५/४९५) २०. एएस भंते! सामाइय-छेदोवडावणिय- परिहारविसुद्धिय सुहुमसंप राय- अहक्खायसंजयाणं श० २५, उ० ७, ढा० ४५६ १७७ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. ए पांचं चारित्त नां पज्जवा, जघन्य अने उत्कृष्ट । कवण-कवण थी जावत कहिये, विशेष अधिक सइष्ट ।। २२. श्रीजिन भाख सामायिक चारित्त, छेदोपस्थापनीक जोय। बिहुं नां जघन्य पज्जव है तुला, सर्व थी थोड़ा होय ।। २१. जहणुक्कोसगाणं चरित्तपज्जवाणं कयरे कयरेहितो जाव (सं० पा०) विसेसाहिया वा ? २२. गोयमा ! सामाइयसंजयस्स छेओवट्ठावणियसंजयस्स य एएसि णं जहण्णगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला सव्वत्थोवा, २३. परिहारविसुद्धियसंजयस्स जहण्णगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा, २४. तस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा, २३. तेह थकी परिहारविशुद्ध नां, जघन्य चरित्त पर्याय । तेह अनंतगुणा कहिये छै, अधिक क्षयोपशम ताय ।। २४. तेहिज फुन परिहारविशुद्धज, चारित्र नां सुविशेख । उत्कृष्टा पज्जवा अधिकेरा, अनंतगुणा संपेख ।। २५. तेह थकी सामायिक नां फून, छेदोपस्थापनी केरा । उत्कृष्ट चरित्त पज्जवा है तुला, अनंतगुणा है सुमेरा ।। २५. सामाइयसंजयस्स छेओवट्ठावणियसंजयस्स य एएसि णं उक्कोसगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुणा, २६. सुहुमसंपरायसंजयस्स जहण्णगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा, २७. तस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा, २६. तेहथी सूक्ष्मसंपराय तणां जे. जघन्य चरित्त पर्याय । एह अनंतगुणा कहियै छ, इम भाखै जिनराय ।। २७. तेहथी सूक्ष्मसंपराय तणां फून, चरित्त पज्जव उत्कृष्ट । अमल अनंतगुणा कहियै छ, वर जिन वचन विशिष्ट ।। २८. तेह थकी यथाख्यात संजत नां, नहिं जघन्य नहीं उत्कृष्ट । चारित्त पज्जव अनंतगुणा छै. सर्व थकी ए इष्ट ।। २९. शत पणवीसम देश सप्तम नों, चिहं सौ छपनमीं ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमाल ।। २८. अहक्खायसंजपस्स अजहण्णमणुक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा। (श. २५॥४९६) ढाल : ४५७ १. सामाइयसंजए णं भंते ! किं सजोगी होज्जा ? अजोगी होज्जा? २. गोयमा ! सजोगी जहा पुलाए। एवं जाव सुहुम संपरायसंजए। ३. अहक्खाए जहा सिणाए। (श. २५/४९७) संयत में योग दूहा १. सामायिक संजत प्रभु ! स्यूं सजोगी होय? ____ अथवा अजोगी हुवै ? प्रश्न गोयम सुजोय ।। २. जिन कहै सजोगी हुवै, पुलाक जिम कहिवाय । एवं जावत जाणवू, वर सूक्ष्मसंपराय ।। ३. यथाख्यात संजत जिको, स्नातक जिम कहिवाय । सजोगी पिण ते हवै, अजोगी पिण थाय ।। संयत में उपयोग _ *संजत भाव सुहामणा रे लाल ।। (ध्रुपदं) ४. सामायिक संजत प्रभ ! रे, सागारोवउत्ते होय हो ? जिनेंद्र देव ! कै अनाकारोवउत्ते हुवै रे लाल ? हिव जिन उत्तर जोय हो ।। जिनेंद्र देव ! * लय : धोज कर सीता सती रे लाल १७८ भगवती बोड ४. सामाइयसंजए णं भंते ! कि सागरोवउत्ते होज्जा ? अणागारो उत्तं होज्जा? गोयमा ! Jain Education Intemational Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. सागारोवउत्ते जहा पुलाए। एवं जाव अहक्खाए, नवरं ६. सुहुमसंपराए सागारोवउत्ते होज्जा, नो अणागारोवउत्ते होज्जा। (श. २५१४९८) सूक्ष्मसम्पराय: साकारोपयुक्तस्तथास्वभावत्वादिति । (व. प. ९१४) ७. सामाइयसंजए णं भंते ! कि सकसायी होज्जा? अकसायी होज्जा? गोयमा ! सकसायी होज्जा, नो अकसायी होज्जा ८. जहा कसायकुसीले । एवं छेदोवट्ठावणिए वि। ९. परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए। (श. २५१४९९) ५. सागारोवउत्ता हुवै रे, पुलाक जिम संपेख रे । गोयम शीस! इम यावत यथाख्यात ही रे लाल, नवरं इतरो विशेख रे ॥ गोयम शीस ! ६. सूक्ष्मसंपराय संजती रे, सागारोवउत्ते होय रे । गो० ! अनागारोवउत्ते नहीं रे लाल, तथाविध स्वभाव थी जोय रे ।। गो० ! संयत में कषाय ७. प्रभु ! सामायिक सकषाइ विषे रे ? के अकषाइ मांहि हो ? जिनेंद्र देव ! जिन कहै सकषाइ विषे रे लाल, अकषाइ में नांहि रे ॥ गो० ! ८. कषायकुशोल तणीं पर रे, छेदोपस्थापनी एम रे । गो० ! च्यार कषाय विषे हव रे लाल, त्रिण बे इक विषे तेम रे ॥गो ! ९. परिहारविशुद्ध संजत तिको रे, _ पुलाकवत अवलोय रे । गो०! हुवै संजल चिहुं नैं विषे रे लाल, ___ अकषायी में न होय रे ।। गो.! १०. पूछा सूक्ष्मसंपराय नी रे, उत्तर दे जिनराय रे । गो० ! सकषाइ नै विषे हवे रे लाल, अकषाइ में नाय रे । गो. ! ११. जो सकषाइ नै विषे हवै रे, तो किती कषाय में थाय हो? जि.! जिन कहै एक संजल तणों रे लाल, लोभ विषे कहिवाय रे ।। गो० ! १२. यथाख्यात संजत तिको रे, निग्रंथ जिम अवलोय रे । गो० ! सकषाइ में नहीं हुवै रे लाल, अकषायी में होय रे ।। गो० ! सोरठा १३. है उपशांत कषाय, गुणठाणे एकादशम । क्षीणकषायी थाय, बारम तेरम चवदमें ।। संयत में लेश्या १४. *प्रभु ! सामायिक सलेशी विषे हुवै रे? तथा अलेशी मांय हो ? जि० ! जिन कहै सलेशी विषे हुवै रे लाल, अलेशी में नहीं थाय रे ।। गो० ! १०. सुहुमसंपरागसंजए-पुच्छा। गोयमा ! सकसायी होज्जा, नो अकसायी होज्जा । (श. २५१५००) ११. जइ सकसायी होज्जा, से णं भंते ! कतिसु कसायेसु होज्जा? गोयमा ! एगम्मि संजलणलोभे होज्जा। १२. अहक्खायसंजए जहा नियंठे। (श. २५१५०१) १४. सामाइयसंजए णं भंते ! किं सलेस्से होज्जा? अलेस्से होज्जा? गोयमा ! सलेस्से होज्जा * लय : धीज कर सीता सती रे लाल श० २५, उ०७, दा० ४५७ १७९ Jain Education Intemational Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. जहा कसायकुसीले । एवं छेदोवट्ठावणिए वि। १६. परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए । १५. कषायकुशील तणी परै, कहवी इहां षट लेश रे । गो.! इमहिज छेदोपस्थापनी रे लाल, जिन वच पवर विशेष रे ।। गो० ! १६. परिहारविशुद्ध संजत तिको रे, पुलाक नी परै जोय रे । गो.! तीन विशुद्ध लेश्या विषे रे लाल, एह हुवै अवलोय रे ॥ गो० ! वा... एह बहुलपणे ए तीन भली लेश्या हुवै अनै छद्मस्थपणां ना जोग थी किणहिक वेला अशुभ लेश्या पिण आवती दीस छ । नित्य प्रथम चरम जिन नं वार ए हवे ते पडिकमणो पिण नित्य करै छ पंच महाव्रत सप्रतिक्रमणपणां थकी। १७. संपराय सूक्ष्म जिको रे, निग्रंथ नी परि न्हाल रे । गो! सलेशी नैज विष हुवै रे लाल, एक शुक्ललेशी विषे भाल रे ।। गो० ! १८. यथाख्यात संजत जिको रे, स्नातक जिम अवलोय रे । गो. ! नवरं इतरो विशेष छै रे लाल, आगल कहिये सोय रे । गो.! १९. जो सलेशी नै विषे हुवै रे, तो इक शुक्ललेश्या विषे होय रे । गो.! तिहां परम शुक्ल कही रे लाल, इहां शुक्ल कही सोय रे ।। गो० ! १७. सुहुमसंपराए जहा नियंठे । १८. अहक्खाए जहा सिणाए, नवर १९. जइ सलेस्से होज्जा, एगाए सुक्कलेस्साए होज्जा। (श. २५१५०२) २०. यथाख्यातसंयतः स्नातकसमान उक्तः, स्नातकश्च सलेश्यो वा स्यादलेश्यो वा, (व. प. ९१४) २१. यदि सलेश्यस्तदा परमशुक्ललेश्य: स्यादित्येवमुक्तः, (वृ. प. ९१४) २२. यथाख्यातसंयतस्य तु निर्ग्रन्थत्वापेक्षया निविशेषे___णापि शुक्ललेश्या स्याद् (वृ. प. ९१४) सोरठा २०. स्नातक मैं इम ख्यात, सलेशी में पिण हवै। अलेशी पिण थात, स्नातक में गुणठाण बे॥ २१. जो सलेशी होय, तो परम शुक्ललेशी विषे । त्यां ए आख्यो सोय, ए तेरम गुणठाण छै ।। २२. यथाख्यात ने जाण, निग्रंथ तणी अपेक्षया । निविशेषण पिछाण, शुक्ल विषे है इम कह्य ।। संयत में परिणाम २३. *सामायिक संजत प्रभु ! रे, स्यूं वर्द्धमान परिणामें होय हो ? जि. ! के घटता परिणाम विषे हवै रे लाल ? __कै अवस्थित विषे जोय हो ? जि० ! २४. जिन कहै वर्द्धमाने हुवै रे, पुलाक जिम अवलोय रे । गो० ! हायमान नै विषे वलि रे लाल, अवस्थित विषे जोय रे ।। सुजाण शीस ! २३. सामाइयसंजए णं भंते ! कि वड्ढमाणपरिणामे होज्जा ? हायमाणपरिणामे ? अवट्ठियपरिणामे ? २४. गोयमा ! वड्ढमाणपरिणामे जहा पुलाए। *लय :धीज कर सीता सती रे लाल १८० भगवती जोड Jain Education Intemational Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. एवं जावत जाणवु दे, परित परिहारविशुद्ध रे । गो० ! तीनं परिणाम विषे हुर्वरे श्री जिन वच अविरुद्ध रे ।। सु० ! २६. सूक्ष्मसंपराय पूछयां कहै, वर्द्धमाने पिण होय रे । गो० ! पुन हायमान विषं हुवे रे लाल, पिंग अवस्थिते नहीं कोय रे ॥ सु० ! गीतकछंद २७. इह श्रेणि जे चढतो थको, ते वर्द्धमानपणे कां । पड़तो थको जे हायमाने, दशम गुणठाणे रां ॥ २८. *निर्ग्रथ जिम यथाख्यात छै रे, वर्द्धमाने सोय रे । सु० ! अवस्थित पिण होय रे ॥ सु० ! सोरठा घटते परिणाम हुवे नहीं रे लाल, २९. हायमान तिण वेर, यथाख्पात में हेर, हायमान ३०. *सामायिक संजत प्रभु ! वर्द्धमान परिणाम में रे लाल ? संपराय सूक्ष्म परिणाम काल केतली होय हो ? जि० ! ३१. श्री जिन भावे जघन्य थी रे, गोथम प्रश्न सुजोय हो । जि० ! एक समय अवलोय रे | सु० ! तिमहिज कहिवो सोय रे ।। सु० ! गीतकछंद ३२. बड़मान परिणामें जघन्य थी, समय एक वखाणिये । उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त कहिये, हृदय जिन वच आणिये ॥ ३२. फुन हायमाणे जघन्य थी, जे एक समय अहीजिये । जेम पुलाक भी कह्यो रे लाल, हुवे । नहि ॥ उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त्त ए पिण, पवर न्याय लहीजिये || ३४. वलि अवस्थिते पिण एक समयो, जघन्य थी जिन आखियै । उत्कृष्ट थी जे सप्त समया, आण थी अभिलाखियै || वा. -- तीनूं परिणाम जघन्य एक समय कह्या ते किम ? जे एक समय रही मरण पामैं एहवुं जणाय छ । ३५. * एवं जावत जाणवुं रे, पडिहारविशुद्ध लगेह रे । सु० ! स्थित तीनू परिणाम नीं रे लाल, * लय : धोज करं सीता सती रे लाल सामायिक जिम लेह रे ॥ सु० 1 २५. एवं जाव परिहारविसुद्धिए । २६. पराएपुडा | गोयमा ! वहमाणपरिणामे वा होना, हायमाणपरिणामे या होज्जा, नो अवट्ठियपरिणामे होज्जा । २७. सूक्ष्म सम्परायसंयतः श्रेण समारोहन् वर्द्धमानपरिगामस्ततो अस्थम् हीयमानपरिणामः २८. अहवखाए जहा नियंठे । ( ( . २५०५०३ ) ३०. सामाइयसंजए णं भंते ! केवइयं कालं वड्ढमाणपरिणामे होज्जा ? ३५. एवं जाव परिहारविसुद्धिए। ( वृ. प. ९१४ ) (श. २५/५०४ ) ३१. गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं जहा पुलाए (. २५५०५) शि० २५, उ०७, ढा० ४५७ १८१ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. सुहुमसंपरागसंजए णं भंते ! वड्ढमाणपरिणाम होज्जा ? केवतियं कालं ३७. गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं अंतोमुहुत्तं। समय, उक्कोसेणं (श. २५१५०६) ३६. संपराय-सूक्ष्म प्रभु रे! वर्द्धमान परिणामेह हो । जि० ! केतला काल लगे हुवै रे लाल ? प्रश्न गोयम गुणगेह रे ।। गो० ! ३७. श्रीजिन भाखै गोयमा रे! जघन्य समय इक इष्ट रे । गो० ! स्थित वर्द्धमान परिणाम नी रे लाल, ____ अंतर्मुहर्त उत्कृष्ट रे ॥ सु० ! ३८. हायमान कितलो अद्धा रे? एवं चेव उदिष्ट रे । सु० ! जघन्य समय एक जाणवू रे लाल, अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट रे ॥ गो० ! सोरठा ३९. ए सूक्ष्मसंपराय, वर्द्धमान परिणाम में । समय रही मृत्यु पाय, जघन्य थकी इक समय इम ।। ४०. अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट, ते गुणस्थानक नैज जे । इतो प्रमाणज इष्ट, हायमान पिण इह विधै ।। ३८. केवतियं कालं हायमाणपरिणामे होज्जा? एवं चेव । (श. २५।५०७) ३९. 'जहन्नेणं एक्कं समयं' ति सूक्ष्मसम्परायस्य जघन्यतो वर्द्धमानपरिणाम एक समयं प्रतिपत्तिसमयानन्तरमेव मरणात्, (व. प. ९१४) ४०. 'उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं' ति तद्गुणस्थानकस्यै तावत्प्रमाणत्वात्,एवं तस्य हीयमानपरिणामोऽपि भावनीय इति । (वृ. प. ९१४) ४१. अहक्खायसंजए णं भंते ! केवतियं कालं वडढमाण परिणामे होज्जा? ४२. गोयमा ! जहणणं अंतोमहत्त, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । (श. २५१५०८) ४१. *यथाख्यात चारित्त प्रभु ! रे, काल केतलो जेह हो । जि.! वर्द्धमान परिणामे हुवै रे लाल, चढतै परिणामेह हो ? जि. ! ४२. श्री जिन भाखै जघन्य थी रे, अंतर्महर्त जोय रे । गो० ! उत्कृष्टो पिण तसु अद्धा रे लाल, ___अंतर्मुहर्त होय रे ॥गो ! गीतकछंद ४३. उपजावस्यै ए ज्ञान केवल, यथाख्यात विषे सही । वर द्वादशम गुणस्थान में ए, वर्द्धमानपणुं लही। ४४. अथवाज सेलेशी सुप्रतिपन्न, वर्द्धमान हवै वही । इम जघन्य थी उत्कृष्ट थी पिण, काल अंतर्मुहूर्त ही ।। ४३. यो यथाख्यातसंयत: केवलज्ञानमुत्पादयिष्यति । (बृ. प. ९१४) ४४. यश्च शैलेशीप्रतिपन्नस्तस्य वर्द्धमानपरिणामो जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तमहत्तं तदूत्तरकालं तद्वयवच्छेदात्, (बृ. प. ९१४) ४५. केवतियं कालं अवट्टियपरिणामे होज्जा? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी। (श. २५१५०९) ४५. *अवस्थित काल केतलो रे ? जिन कहै समय जघन्य रे । सु० ! उत्कृष्ट पूर्व कोड़ ही रे लाल, देश ऊण ते जन्य रे ।। सु०! सोरठा ४६. उपशम काल तणेह, समय एक रही मरण है। जघन्य समय इक जेह, यथाख्यात अवस्थित अद्धा । ४६. अवस्थितपरिणामस्तु जघन्येनैक समयं, उपशमाद्धाया: प्रथमसमयानन्तरमेव मरणात्, (वृ. प. ९१४) *लय:धीज कर सीता सती रे लाल १८२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. उत्कृष्ट जे काल, देश ऊण पुज्यको हो । वर्द्धमान विग न्हाल, अवस्थित उत्कृष्ट अद्ध ।। ४८. * देश बे सौ सतावन तणों रे, चिहुं सौ सतावनमी ढाल रे । सु० ! भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे लाल, 'जय जय' हरष विशाल रे । सु० ; ढाल : ४५८ संयत के कर्मप्रकृति का बन्ध १. प्रभु ! सामायिक संजती प्रकृति ते बांधे अच्छे ? तब भाखे २. बंधक सप्तविधे तिको, तिको, बकुश जेम अठविध बंधक पिण वली, दम बाबत भावे वहा ३. संप राय-सूक्ष्म पृच्छा ? तब आयु मोहनी वर्ज नें, षट किता कर्म नीं जाण । लय: बाड़ी फूली अति भली १. गुणस्थान प्रकृति ४. आउखा नों बंध जे, अप्रमत्त अंत लगे। बादर कषाय उदय थी, मोह बंध नवम गुणेह || ५. ते मार्ट षटविध बंधक, ए सूक्ष्मसंपराय । आयू ने बलि मोहनी, वे न बंधे इण न्याय || ६. यथाख्यात फुन जाणवुं, स्नातक जिम इक बंध । तथा अबंधक पिण हुने, सेलेशी गुण' संघ ॥ संयत के कर्मप्रकृति का वेदन जगभाण || अवधार । परिहार | जिनराय । बंधाय ॥ ७. सामायिक संजत प्रभु ! जिनराया है, किती कर्म प्रकृति वेदेह ? शीस सुखदाया रे । जिन है अष्ट वेदै सही, मुनिराया रे, निश्चे करीने एह, संत सुखदाया रे || ६. इम जान सूक्ष्मसंपराय है, मुनिराया है, यथाख्यात सुविचार, संत सुखदाया रे । कर्म प्रकृति वेद सप्त ही, मुनिराया रे, अथवा वेदे प्यार, संत सुखदाया रे ॥ ९. सप्त कर्म प्रति वेदतो मु०, मोहनी वर्जी सात, संत० । एकादशम गुणठाण ही मु०, पुन द्वादशम विख्यात, संत० ॥ १. सामाइयसंजए णं भंते! कइ कम्मप्पगडीओ बंधइ ? गोयमा ! २. सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा एवं जाव परिहारविसुद्धिए । एवं जहा बउसे । ( श० २५/५१० ) ३. सुहुम संपरागसंजए पुच्छा । गोयमा ! आउय मोहणिज्जवज्जाओ छ कम्मप्पगडीओ बंधति । ४५. सूक्ष्मपरायसंपतो ह्यायुर्न यानाति अप्रमतान्तत्वात्तद्बन्धस्य मोहनीयं च बादरकषायोदयाभावान्न बनातीति तव कर्मप्रकृतीनातीति ( पू. प. ९१५ ) ६. अहक्खायसंजए जहा सिणाए । ( . २५/५११ ) ७. सामाइयसंजए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ वेदेति ? गोयमा ! नियमं अट्ठ कम्मप्पगडीओ वेदेति । (२५५१२) ८. एवं जान गुमपराए । अहम्खाए पुच्छा । गोयमा ! सत्तविवेदए वा, चउब्विवेदए वा । ९. यथाख्यातसंयतो निर्ग्रन्थावस्थायां 'मोहवज्ज' त्ति मोजांना सप्तानां कर्मप्रकृतीनां वेदको मोहनीयस्योपशान्तत्वात् क्षीणत्वाद्वा । (बृ. प. ९१५) शं० २५, उ० ७, ढा० ४५७, ४५८ १८३ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. च्यार कर्म प्रति वेदतो मुनि०, वेदनी आयू जाण, संत० । नाम अनैं वलि गोत्र नै मुनि०, तेरमें चवदम ठाण, संत० ॥ संवत के कर्म प्रकृति की उदीरणा ११. सामायिक किता कर्म नीं, जिनराया रे, प्रकृति उदीरं तेह ? स्वाम सुखदाया रे । जिन भाये सतविध तिको मुनि०, जिम बकुश तिम एह, संत 'सुखदाया गीतकचंद रे ॥ १२. इम सप्त वा अठ षट तथा जे, कर्म विध सप्त कर्म उदीरतो ते आयु १३. अठ कर्म प्रति उदीरतो, प्रतिपूर्ण अष्ट उदीरना । षट कर्म प्रति उदीरतो ते वेदनी आयू बिना || १४. * एवं जावत जाणवुं मुनि०, परिहारविशुद्ध सुसंच, संत० । सूक्ष्मसंपराय पूछियां मुनि०, जिन कहे पट वा पंच, संत ॥ १५. छ कर्म प्रकृति उदीरतो मुनि०, आयू वेदनी टाल, संत० ॥ मोह आयू वेदनी वर्ज में मुनि०, पंच उदीरतो न्हाल, संत० ॥ १६. यथा ने पूछयां जिन०, अथवा उदीरं वे कर्म ने मुनि०, अथवा उदीरे नाहि, सं० ॥ १७. पंच कर्म नं उदीरतो मुनि, आयू वेदनी मोह, संत० । ए तीन वर्जी करी मुनि०, शेष निग्रंथ जिम सोह, संत० ॥ सोरठा १८. उदीरतो जे दोय, नाम गोत्र कर्म प्रकृति | एह निग्रंथ जिम सोय सेलेशी अनुदीरका || संयत के उपसंतहान १९. * प्रभु ! सामायिक संजती जिन०, प्रकृति उदीरही । वर्जी सप्त ही ॥ जिन कहै पंचविध ताहि, संत० । *लय : बाड़ी फूली अति भली १८४ भगवती जोड़ स्यूं छांडै स्यूं आदरें ? जिन०, तजतो सामायिक भाव, स्वाम० । भाखे भवदधि नाव, स्वाम० ।। १०. चत्तारि वेदेमाणे वेयणिज्जाउय-नामगोयाओ चत्तारि कम्म पगडीओ वेदेति । (. २५०५१३) स्नातकवस्थायां तु चतसृणामेव, घातिकर्म्मप्रकृतीनां तस्य क्षीणत्वात् । ( वृ. प. ९१५ ) ११. सामाइयसंजए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ उदीरेति ? गोयमा सतविहउदीरए वा जहा दउसो ( . २५०५१४) १४. एवं जान परिहारनियुद्धिए हमसंपराए पुग्छ। गोयमा ! छवि उदीरए वा, पंचविहउदीरए वा । १५. छ उदीरेमाणे आउय वेयणिज्जवज्जाओ छ कम्म पगडीओ उदीरेइ, पंच उदीरेमाणे आउय वेयणिज्जमोहजिवाजी पंचकम्मणगडीओ उदीरे । (२५०५१५) १६. अहखायसंजए -पुच्छा । गोयमा | पंचविदीरए वा विउदी वा अदीरए वा । १७. आय-वेणि सेसं जहा नियंटस्स 1 मोहनाओ (स. २०५१६) १९. सामाइयसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयत्तं जहमाणे कि जहति ? कि उवसंपज्जति ? Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०,२१. गोयमा ! सामाइयसंजयत्तं जहति। छेदोवट्ठा वणियसंजय वा, सहमसंपरागसंजयं वा, असंजमं वा, संजमासंजमं वा उवसंपज्जति । (श. २०५१७) २०. जिन कहै सामायिक तजै मुनि०, छेदोपस्थापनी सार, संत । वलि सूक्ष्मसंपराय ने मुनि०, करै तिको अंगीकार, संत० ॥ २१. वलि असंजम आदरै मुनि०, श्रावकपणु आदरंत, संत० । ए चिहुं स्थानक पड़िवज मुनि०, मुनि सामायिकवंत, संत ।। वा० --इहां सामायिकपणों तजै अनैं छेदोपस्थापनीय संजतपणां प्रत पड़िवज, चतुर्याम धर्म थकी पंचयाम धर्म संक्रमैं पार्श्वनाथ शिष्य नी पर। अथवा शिष्यक महाव्रत आरोपण नै विषे १, अथवा सूक्ष्मसंपरायपणों पड़िवजे श्रेणि नां पड़िव जवा थकी २, अथवा असंजम प्रति अगीकार कर सामायिक में कान करी देवता हुवै ते माट तथा सामायिक चारित्त भांगी अविरती हुदै ते मार्ट ३ अथवा सामायिक चारित्र भांगी देशव्रत आदरै ए संजमासंजम में आवै। २२. छेदोपस्थानीय पूछियां मुनि०, भाखै तब भगवंत, संत०। छेदोपस्थापनीक – तजै मुनि०, सामायिक आदरंत, संत० ॥ २३. वलि परिहारविशुद्ध नैं मुनि०, सूक्ष्मसंपराय सुसंच, संत० । असंजम श्रावकपणां प्रतै मुनि०, पड़िवज ए पंच, संत० ।। वा० ---सामायिकसंयतः सामायिकसंयतत्वं त्यजति छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं प्रतिपद्यते, चतुर्यामधर्मात्पञ्चयामधर्मसङ्कमे पार्श्वनाथशिष्यवत्, शिष्यको वा महाव्रतारोपणे, सूक्ष्मसम्परायसंयतत्वं वा प्रतिपद्यते श्रेणिप्रतिपत्तितः असंयमादिर्वा भवेद्भावप्रतिपातादिति । (वृ. प. ९१५) वा०-छेदोपस्थापनीय संजत नों प्रश्न । उत्तर-छेदोपस्थापनीय संजम प्रत त्यज-छांडीनै सामायिक सजम प्रतै पड़िवजे । ते आदिदेव तीर्थ ना साधु अजितनाथ नां तीर्थ प्रत पड़िवजता थका १ तथा परिहारविशुद्धिक संजम प्रत छेदोपस्थापनीयवंत हीज परिहार विशुद्ध संजम नै योगपणां थकी २, अथवा सूक्ष्मसंपराय संजत प्रतै ३, अथवा असंजम पड़िवजे ४, अथवा संजमासंजम प्रते पड़िवज ५। २४. पूछा परिहारविशुद्ध नी मुनि०, जिन कहै तजै परिहार, संत। आदरै छेदपस्थापनी मनि०, अथवा असंजम धार, संत० ॥ २२,२३. छेदोवट्ठावणिए-पुच्छा। गोयमा ! छेओवट्ठावणियसंजयत्तं जहति । सामाइयसंजयं वा, परिहारविसुद्धियसंजयं वा, सुहुमसंपरागसंजयं वा असंजमं वा, संजमासंजमं वा उवसंपज्जति । (श. २५१५१८) वा०---तथा छेदोपस्थापनीयसंयतश्छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं त्यजन् सामायिकसंयतत्वं प्रतिपद्यते, यथाऽऽदिदेवतीर्थसाधुः अजितस्वामीतीर्थं प्रतिपद्यमानः, परिहारविशुद्धिकसंयतत्वं वा प्रतिपद्यते, छेदोपस्थापनीयवत एव परिहारविशुद्धिसंयमस्य योग्यत्वादिति । (व. प. ९१५) २४. परिहारविसुद्धिए-पुच्छा। गोयमा ! परिहारविसुद्धियसंजयत्तं जहति । छेदोवट्ठावणियसंजय वा असंजमं वा उवसंपज्जति । (श. २५१५१९) वा०-तथा परिहारविशुद्धिकसंयतः परिहारविशुद्धिकसंयतत्वं त्यजन् छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं प्रतिपद्यते पुनर्गच्छाद्याश्रयणात् असंयम वा प्रतिपद्यते देवत्वोत्पत्ताविति । (वृ. प. ९१५) २५,२६. सुहुमसंपराए-पुच्छा । गोयमा ! सुहुमसपरायसंजयत्तं जहति । सामाइयसंजयं वा, छेओवट्ठावणियसंजयं वा, अहक्खायसंजयं वा, असंजमं वा उपसंपज्जइ। (श. २५॥५२०) वा०–तथा सूक्ष्मसंपरायसंयतः सूक्ष्मसंपरायसंयतत्वं श्रेणीप्रतिपातेन त्यजन् सामायिकसंयतत्वं प्रतिपद्यते यदि पूर्व सामायिकसंयतो भवेत् छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं वा प्रतिपद्यते यदि पूर्व छेदोपस्थापनीयसंयतो भवेत्, यथाख्यातसंयतत्वं वा प्रतिपद्यते श्रेणीसमारोहणत इति, (बु.प. ९१५,९१६) वा० -परिहारविशुद्धिक संजम प्रतै छाडै छेदोपस्थापनीय संजतपणों पड़िबजे गच्छादिक ना आश्रयण थकी १, अथवा असंजमपणों पड़िवज ते देवपण ऊपजवा थकी आउखो पूरो करी देवता हुवे ते असंजमी हुवै ते भणी असंजम प्रति पड़िवजे एहवं कह्यं । २५. सूक्ष्मसंपराय पूछियां जिनराया रे, भाखै जिन जगतार, संत० । तजै सूक्ष्मसंपराय नैं मुनि०, करै सामायिक अंगीकार, संत ।। २६. अथवा छेदोपस्थापनी मुनि०, फुन आदरै यथाख्यात, संत० । वलि असंजम पड़िवजै मुनि०, ए चिहुं स्थाने आत, संत० ॥ वा०-सूक्ष्मसंपराय संजतपणे श्रेणि नै पड़वो छांडवो सामायिक संजतपणों पड़िवजै १, अथवा छेदोपस्थापनीय संजमपणां प्रतै पड़िवजै २, अथवा यथाख्यात चारित्रपणों पड़िवज श्रेणि नै समारोहणे ३ अथवा असंजमपणों पड़िवज ते देवपण ऊपजवा थकी ४। *लय : बाड़ी फूली अति भली श०२५, उ०७, ढा०४५८ १८५ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. अहक्खायसंजए-पुच्छा । गोयमा ! अहक्खायसंजयत्तं जहति। सुहुमसंपराग संजय वा, २८. असंजमं वा, सिद्धिगति वा उवसंपज्जइ । (श. २२५२१) २७. यथाख्यात मुनि पूछियो जिन०, ___भाखै तब जिनराय, स्वाम० । यथाख्यात चारित्र तजै मुनि०, आदरै सूक्ष्मसंपराय, संत० ।। २८. वलि असंजम प्रति ग्रहै मुनि, अथवा सिद्धगति जाय, संत० । यथाख्यातपणुं तजि करी मुनि०, ए त्रिहुं स्थानक पाय, संत० ॥ वा०-यथाख्यात संजमपणों छांडे श्रेणि प्रतै पतन थकी सूक्ष्मसंपराय संजम प्रतै पड़िवज १, उपशांतमोहपणे मरण थकी देव उत्पत्ति नै विषे २, अथवा सिद्ध गति पामैं स्नातकपणां थकी ३। वा०–तथा यथाख्यातसंयतो यथाख्यातसंयतत्वं त्यजन् श्रेणिप्रतिपतनात् सूक्ष्मसंपरायसंयतत्वं प्रतिपद्यते असंयम वा प्रतिपद्यते, उपशान्तमोहत्वे मरणात देवोत्पत्ती, सिद्धिगति वोपसम्पद्यते स्नातकत्वे सतीति । (वृ. प. ९१६) २९. सामाइयसंजए णं भंते ! कि सण्णोवउत्ते होज्जा? नोसण्णोवउत्ते होज्जा? ३०. गोयमा ! सण्णोवउत्ते जहा बउसो। एवं जाव परिहारविसुद्धिए। ३१. सुहमसंपराए अहक्खाए य जहा पुलाए। (श. २५१५२२) संयत में संज्ञा २९. प्रभु ! सामायिक संजती जिन०, स्यू सण्णोवउत्ते होय? स्वाम। के नोसण्णोवउत्ते हवै ? जिन०, पूछ गोयम सोय, स्वाम० ।। ३०. जिन कहे सण्णोवउत्ते हुवै मुनि०, बकुश जेम विचार, संत। नोसण्णोवउत्ते पिण हुवै मुनि०, इम जाव विशुद्धपरिहार, संत० ।। ३१. संपराय-सूक्ष्म वली मुनि०, यथाख्यात अवलोय, संत० । कहिये पुलाक तणीं पर मुनि०, नोसण्णोवउत्ते होय, संत।। संयत आहारक या अनाहारक ३२. प्रभु ! सामायिक संजती जिन०, स्यूं आहारक में होय ? स्वाम। के अनाहारक नै विषे हुवै ? जिन०, पुलाक जिम ए जोय, स्वाम० ॥ सोरठा ३३. सामायिक मुनिराय, आहारक नैंज विषे हवै। अनाहारके नाय, छठा थी नवमें गुणे ।। ३४. *एवं जावत जाणवं मुनि०, वर सूक्ष्मसंपराय, संत०। यथाख्यात चारित्र तिको मुनि०, स्नातक जिम कहिवाय, संत०॥ ३२. सामाइयसंजए णं भंते ! किं आहारए होज्जा? अणाहारए होज्जा ? जहा पुलाए। ३४. एवं जाव सुहमसंपराए । अहक्खायसंजए जहा सिणाए। (श. २५१५२३) सोरठा ३५. जे केवल समुद्घात, अनाहारके समय त्रिण । फुन शैलेसी ख्यात, शेष संजती आहारके ।। ३६. *पणवीसम देश सप्त नुं मुनि०, चिहं सौ अठावनमीं ढाल, संत। भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी मुनि०, 'जय-जश' हरष विशाल, संत०॥ *लय : बाड़ी फूली अति भली... १८६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल:४५९ संयत के भव दूहा १. सामायिक संजत प्रभु ! कति भव ग्रहणे इष्ट ? जिन कहै इक भव जघन्य थी, अठ भव कै उत्कृष्ट ।। १. सामाइयसंजए णं भंते ! कति भवग्गहणाई होज्जा? गोयमा ! जहणणं एक्कं, उक्कोसेणं अट्ठ । २. एवं छेदोवट्ठावणिए वि। (श. २५१५२४) २. इमहिज छेदोपस्थापनी, जघन्य एक भव आय । भव उत्कृष्टा अष्ट है, मरण चरण में थाय ।। ३. परिहारविशुद्ध तणीं पृच्छा, जघन्य एक भव आत । उत्कृष्टा भव ग्रहण त्रिण, इम यावत यथाख्यात ।। ३. परिहारविसुद्धिए--पुच्छा। गोयमा ! जहणणं एक्कं, उक्कोसेणं तिण्णि । एवं जाव अहक्खाए। (श. २५१५२५) ४. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवतिया आगरिसा पण्णता? गोयमा ! जहाणे णं जहा बउसस्स । (श. २५१५२६) संयत के आकर्ष-चारित्र की प्राप्ति *परम वच आपरा प्रभुजी ।। (ध्रुपदं) ४. सामायिक संजत तणें साहिब जी, तेह एक भव मांय हो निसनेही । वार किती आवै तिको ? साहिब जी, बकुश जेम कहिवाय हो ससनेही ।। गीतकछंद ५. इक भव विषे इक वार जघन्यज वार नव सय जेष्ठ ही। वर चरित्त सामायिक तणु __ आकर्ष जिन वच श्रेष्ठ ही ।। ६. *छेदोपस्थापनी पूछियां साहिबजी ! जिन कहै इक भव इष्ट हो ससनेही ! एक वार आवै जघन्य थी गोयमजी! पृथक्त्व बीस उत्कृष्ट हो ससनेही ! वा०-इहां पंच, षट आदि ने पिण पृथक कहिय ते माटे छेदोपस्थापनीय चारित्र उत्कृष्ट छबीसी वार एतले एकसौ बीस वार जणाय छै ६. छेदोवट्ठावणियस्स-पुच्छा । गोयमा ! जहणणं एक्को, उक्कोसेणं वीसपुहत्तं । (श. २५१५२७) वा०-'वीसपुहत्तं' ति छेदोपस्थापनीयस्योत्कर्षतो विशतिपृथक्त्वं पञ्चषादिविंशतयः आकर्षाणां भवन्ति । (वृ. प. ९१६) ७. परिहारविसुद्धियस्स-पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं एक्को, उक्कोसेणं तिण्णि। (श. २५१५२८) ७. परिहारविशुद्ध तणीं पृच्छा साहिबजी ! जिन कहै इक भव सार हो ससनेही। एक वार आवै जघन्य थी गोयमजी ! उत्कृष्टो त्रिण वार हो ससनेही ।। ८. संपरायसूक्ष्म पृच्छा साहिबजी ! __ जिन कहै इक भव इष्ट हो स० ! एक वार कै जघन्य थी गोयमजी ! च्यार वार उत्कृष्ट हो स० ! लय : माई डूं देवा मोलंभवा सासूजी ८. सुहुमसंपरायस्स-पुच्छा । गोयमा ! जहण्णणं एक्को, उक्कोसेणं चत्तारि। (श. २५२५२९) २० २५, .७, डा० ४५९ १८७ Jain Education Intemational Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.१०. 'उक्कोसेण चत्तारि' त्ति एकत्र भवे उपशमश्रेणीद्वयसम्भवेन प्रत्येक सक्लिश्यमान विशुद्धघमानलक्षणसूक्ष्मसम्परायद्वयभावाच्चतस्रः प्रतिपत्तय: सूक्ष्मसम्परायसंयतस्वे भवन्ति, (वृ. प. ९१६) गीतकछंद ९. इक भव विषे जे श्रेणि उपशम, दोय वार संभाव ही। इक बार में गुणठाण दशमज, चढत उत्तरता लही ।। १०. इम वार बे जे श्रेणि उपशम, ग्रहण थी पहिछाण ही। चिहुं वार एह चरित्र चउथो, वृत्तिकार बखाण ही ।। वा०-एक भव नै विषे उपशमश्रेणि दोय नै संभवै करि प्रत्येके संक्लिश्यमान विशुद्धिमान लक्षण सूक्ष्मसंपराय नां दोय नां भाव थकी च्यार वार पड़िवजे। ११. *यथाख्यात नै पूछियां सा० ! ___ जिन कहै इक भव धार हो स० ! एक वार आवै जघन्य थी गो० ! उत्कृष्टो दोय वार हो स० ! ११. अहक्खायस्स–पुच्छा । गोयमा ! जहण्णणं एक्को, उक्कोसेणं दोण्णि ।। (श. २१५३०) १२. 'अहक्खाए' इत्यादी 'उक्कोसेणं दोन्नि' त्ति उपशम श्रेणीद्वयसम्भवादिति। (वृ. प. ९१६) १३ सामाइयसंजयस्स णं भंते ! नाणाभवग्गहणिया केवतिया आगरिसा पण्णत्ता? गोयमा ! जहा बउसे। (श. २५१५३१) गीतकछंद १२. इक भव विषे वर श्रेणि उपशम, उभय वार संभावियै । गुणठाण ग्यारम वार बे, इम वृत्तिकार बखाणियै ।। १३. *प्रभु ! सामायिक चरित ही सा० ! __ अनेक भव रै माय हो नि ! कतिवार आवै तिको?सा०! बकूश जिम कहिवाय हो स० ! सोरठा १४. उत्कृष्ट इक भव मांहि, नव सौ वारज आवही । ___ अठ भव लेखै ताहि, बोहिंतर सो वार ही ॥ १५. *छेदोपस्थापनी पूछियां सा० ! जिन कहै जघन्य थी दोय हो स० ! उत्कृष्ट नव सय ऊपरै सा०! सहस्र मांहि अवलोय हो स० ! गीतकछंद १६. इक भव विषे उत्कृष्ट इक सौ वीस वारज आवियै । इम अठ भवे अठगुणां कोधां, नव सय साठज भाविये ।। १५. छेदोवट्ठावणियस्स-पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं उरि नवण्हं सयाणं अतो सहस्सस्स। वा०-तेह थकी अनेरै प्रकार करिक पिण जिम नव सय थी अधिक हुवै तिम कहिवो। १६. किलकत्र भवग्रहणे षड्विंशतय आकर्षाणां भवन्ति, ताश्चाष्टाभिर्भवगुणिता नव शतानि षष्टघधिकानि भवन्ति, (वृ. प. ९१६) वा० -इदं च सम्भवमात्रमाश्रित्य सङ्खयाविशेषप्रदर्शनमतोऽन्यथाऽपि यथा नव शतान्यधिकानि भवन्ति तथा कार्यम (व. प. ९१६) १७. परिहारविसुद्धियस्स जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं सत्त। १७. *परिहारविशुद्ध बहु भव विषे गो०! आवै जघन्य थकी दोय वार हो स० ! सप्त वार उत्कृष्ट थी गो०! पवर न्याय सुविचार हो स० ! सोरठा १८. ते इक भव रै माय, तीन वार कहिवा थकी। वलि त्रिण भव में आय, ते माट तसु भंग इम ।। *लय : आई छू देवा ओलम्भड़ा सासूजी १८. एकत्र भवे तेषां त्रयाणामुक्तत्वात् भवत्रयस्य च तस्याभिधानाद् (व. प. ९१६) १८८ भपवती जोड़ Jain Education Intemational Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतक छद १९. इक भव विषे परिहारविशुद्धज, वार त्रिण उत्कृष्ट ही। भव द्वितीय में बे वार फुन, भव तृतीय वारज बे लही ।। १९. एकत्र भवे वयं द्वितीये द्वयं तृतीये द्वयमित्यादिविकल्पतः सप्ताकर्षा: परिहारविशुद्धिकस्येति, (वृ. प. ९१६) २६. सुहमसंपरागस्स जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं नव । २०. अथवा प्रथम भव वार दोयज, द्वितीय भव त्रिण वार ही । तृतीयेज भव में वार बे फुन, द्वितीय विकल्प ए लही ।। २१. अथवा प्रथम भव एक वारज, द्वितीय भव त्रिण वार ही। तृतीयेज भव में वार त्रिण फुन, तृतीय विकल्प ए लही।। २२.अथवा प्रथम भव तीन वारज, द्वितीय भव इक वार ही। फून तृतीय भव त्रिण वार आवै, तुर्य विकल्प ए लही।। २३. अथवा प्रथम भव दोय वारज, द्वितीय भव बे वार ही। फुन तृतीय भव त्रिण वार आवै, पंचमो विकल्प लही ।। २४. अथवा प्रथम भव तीन वारज, द्वितीय भव त्रिण वार ही। फुन तृतीय भव इक वार आवै, छठो विकल्प ए लही ।। परिहार विशुद्ध नां विकल्प -- ३२२, २३२, १३३, ३१३, २२३, ३३१ । २५. इम पवर विकल्प जेह बहुश्रुत कीजिये वर न्याव ही। बहु भव विषे परिहार इहविध, सप्त वारज भाव ही ।। २६. *सखर सूक्ष्मसंपराय जे गो० ! ___ बहु भव में अवधार हो स० ! जघन्य थकी बे वार ही गो० ! उत्कृष्टो नव वार स० ! सोरठा २७. वर सूक्ष्मसंपराय, इक भव आवै वार चिहुं । फुन त्रिण भव में पाय, पूर्वे आख्यो तेहथी ।। गोतकछंद २८. इक भव विषे चिहुं वार आवै, द्वितीय पिण चिहं वार ही। तृतीयज भवे इक वार आवै, इम को वृत्तिकार ही।। २९. *यथाख्यात संजत भलो गो० ! बहु भव में सुविचार हो स० ! जघन्य थकी बे वार ही गो० ! उत्कृष्टो पंच वार हो स० ! ___सोरठा ३०. यथाख्यात सुखदाय, इक भव आवै वार बे। फुन त्रिण भव में आय, पूर्वे आख्यो तेहथी। *लय : आई डूं देवा मोलम्मड़ा सासूजी २७. सूक्ष्मसम्परायस्यैकत्र भवे आकर्षचतुष्कस्योक्तत्वाद् भवत्रयस्य च तस्याभिधानात् (बृ.प. ९१६) २८. एकत्र चत्वारो द्वितीयेऽपि चत्वारस्तृतीये चैक इत्येवं नवेति । (वृ. प. ९१६) २९. अहक्खायस्स जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं पंच । (श. २५१५३२) ३०,३१. यथाख्यातसंयतस्यैकत्र भवे द्वावाकर्षी द्वितीये च द्वावेकत्र चैक इत्येवं पञ्चेति । (व. प. ९१६) श० २५, उ० ७, दा० ४५९ १८९ Jain Education Intemational Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. सामाइयसंजए णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं, गीतकछद ३१. इक भव विषे बे वार आवै, द्वितीय पिण बे वार ही। फुन इक भवे इक वार ए, इहविध कां वृत्तिकार ही ॥ वा० ... इहां सूक्ष्मसंपराय पहिले, दूजे भवे च्यार-च्यार वार कही अनं तीजे भवे क्षपक श्रेणि आवै ते माट एक वार -इम एक विकल्पहीज कां । पिण इम नथी का प्रथम भवे च्यार वार द्वितीय भवे बे वार, इग्यारमें गुणठाणे जातां आवतां दशमें आवे ते माट। अनै तीजे भवे तीन वार, इग्यारमें गुणस्थान जातां आवतां दशमों बे वार आवै । अनै तेहिज भवे अपकश्रेणि च. तिवारै दशमों आवै-इम एक भव में दोन श्रेणि चढे तिवारै ए विकल्प हुवै । पिण वृत्तिकार ए विकल्प नथी का । बलि परिहारविशुद्धि में एक विकल्प कही नै इत्यादि का तिम इहां इत्यादि पिण नथी का ते माटै एक भव में उपशम, क्षपक बे श्रेणि न चढे, एहवं वृत्तिकार नों पिण अभिप्राय जणाय छै। अने पन्नवणा ना टबा में कह्य-कर्म ग्रंथ ने अभिप्राये तो एक भव में उपशमश्रेणि, क्षपकश्रेणि बिहुं आवै अन आगम ने अभिप्राये एक भव में उपशमश्रेणि आवै तो वलि तिण भव में क्षपकणि नहीं आवै एहवं कां ।' (ज. स.) संयत का काल ३२. *प्रभु ! सामायिक संजमी सा० ! हुवे काल थकी कितो काल हो ? नि० ! श्री जिन भाख जघन्य थी गो०! एक समय तसु न्हाल हो स० ! वा० प्रतिपत्ति समय अनंतरहीज मरण थकी जघन्य थकी एक समय, इम वृत्तिकार का ते पंडित विचारी जोयजो। भगवती शतक १२, उदेशा ९, सू. १८० धर्मदेव नी स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट देश ऊण कोड़ि पूर्व कही। तेहy अर्थ वृत्तिकार कह्य जे अंतर्मुहत्त अवशेष आयु छत चारित्र प्रत अंगीकार कर तेहनी अपेक्षाये जघन्य अंतर्मुहूर्त जाणवं । इण न्याय सामायिक चारित्र केतलो काल रहै ? तिहां जघन्य एक समय कह्य। ते दशमां थी नवमें गुणस्थान आवी एक समय रही मरै ते सामायिक चारित्र जघन्य एक समय काल थकी संभवै । अथवा सामायिक चारित्रवंत प्रथम गुणस्थान आबी तखिण शंका मेटी निशंक थई सम्यक्त्व अनै सामायिक चारित्र बिहं समकाले फरसी एक समय रही मरण पामै, इण न्याय पिण जघन्य एक समय संभव। वलि जीवाभिगम - विषे कह्य-मनुष्य स्त्री काल थकी केतलु काल रहै ? तेहर्नु उत्तर क्षेत्र आश्रयी जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन पल्प पृथक कोड़ पूर्व अधिक । पूर्वे सात भव कोड़ पूर्व नै आउखै पाली में देवकुरु प्रमुख क्षेत्र मां ३ पल्य नै आउखै काज, तिवारै त्रिण पल्य पूर्व कोड़ि पृथक्स अधिक था। अनै धर्मचरण आश्रयी जघन्य एक समय उत्कृष्टो देश ऊण पूर्व कोड़ि। इहां एक समय का ते पिण संजमी प्रथम गुणस्थान आवी तत्खिण शंका मेटो चारित्र फरस ते एक समय रही मरण पामै इहां पिण ए न्याय संभवै । वृत्ति में ए न्याय नथी कह्यो। वा०-'सामाइय' इत्यादी सामायिकप्रतिपत्तिसमयसमनन्तरमेव मरणादेकः समयः, (व. प. ९१७) मणुस्सित्थी णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुवकोडीपुहत्तमभहियाई । धम्मं चरणं पडुच्च जहण्णणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। (जीवाजीवाभिगम २२५४) १९० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वलि जीवाभिगम में कह्यं मनुष्य- स्त्री नीं केतला काल नीं स्थिति परूपी ? क्षेत्र आश्रयी जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन पल्य पृथक कोड़ पूर्व अधिक न्याय पूर्ववत । अनं धर्म चरण आश्रयी जघन्य अंतर्मुहूर्त्त उत्कृष्ट देश ऊण कोडि पूर्व । इहां पिणस्थिति री पूछा में जघन्य अंतर्मुहूर्त्त ही । अंतर्मुहूर्त नीं स्थिति कही ते न्याय इहां पिण संभव । केवच्चिरं होई ? तिहां तो जघन्य एक समय का छे पण्णत्ता ? एहवी पूछा में जघन्य अंतर्मुहूर्त का छे एहनुं संभवे । यति बहुत कड़े ते सत्य (ज.स.) जे धर्मदेव नीं जघन्य इहां पूछा में कालओ अने केवई कालं ठिती न्याय पूर्वे का तिम ३३. उत्कृष्टो देश ऊण जे गो०! नव वर्ष ऊणों न्हाल पूर्व कोड़ कहीजिये गो० ! हिव कहूं न्याय विशाल हो सोरठा ३४. नवमो लामो तास, आख्यो तसु नव वास, ३५. सूत्र उनवाई मांय, जघन्य बकी कहिवाय देश वर्ष नवमा तणों । देशप्रतं वर्ष संग्रह्यो । साधिक अठ वर्षायुखो । ते सिवपद में संचरं । ३६. आयू कहियै आम, ते पामे शिवधाम, ३७. जे साधिक अठ वास, इहां कह्या छे तास, ३८. उत्कृष्टो पुव्व कोड़, पामै शिव सुख जोड़, ३९. * इमहिज छेदोपस्थापनी गो० ! हो स० ! गर्भ काल पिण संग्राह्यो । प्रत्यक्ष देखो पाठ में || तेहिज ने नव वर्ष प्रभु । वर्ष नवम नुं देश ग्रह्यं ॥ देश ऊण आयू धणी । ए पिण गर्भ सहीत है ॥ जघन्य समय इक जाणवुं गो० ! स० ! हिव परिहार कहिवाय हो स० ! ४०. उत्कृष्टो देश ऊण जे गो० ! ए समय रही मृत्यु पाय हो स० ! ए ऊणों वर्ष गुणतीस हो स० ! विशुद्धपरिहार जगीस हो स० ! सोरठा अद्ध ऊण जे । ४१. उत्कृष्ट वर्ष गुणतीस, तेह देश कर पूर्व कह्य, कोड़ जगीस, का परिहारविशुद्ध अढ ॥ ४२. कोड़ पूर्व स्थितिवंत, साधिक अष्टज वर्ष नं । लियो चरण कर खंत, बीस वर्ष तेहने ४३. पूर्वाधीत कहीज, ते पिण गुरु आज्ञा तप परिहार वहीज, ऊण वर्ष थया ।। गुणतीस *लय : आई हूं बेवा ओलम्भड़ा सासूजी पूर्व कोड़ हवं तिको गो० ! थकी । इम ॥ ३३. उनकोसे पुव्यकोडी । देणएहि नवह वाहि रुपिया ३५. जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सिति ? गोवमा ! जगेणं सारे ( ओवाइयं सू. १८८ ) ३६-३८. उक्कोण देणएहिं नहि वाहि ऊणिया पुष्कोडी' ति यदुक्तं तद्गर्भसमवादारभ्यावसेयम्, अन्यथा जन्मदिनापेक्षयाऽष्टवर्षोनिकैव सा भवतीति, (बु. प. ९१७) ३९. एवं दोषावणिए वि परिहारविमुद्धिए जह एक्कं समयं परिहारविद्धिए जहने एक समर्थ' ति मरणापेक्षमेतत्, ( वृ. प. ९१७ ) ४०. उक्कोसेणं देणएहि एकूण तोगाए बानिया पुष्कोडी | ४१-४४. 'उक्कोसेणं देसूणएहि ' ति अस्यायमर्थ:देशोननववर्षजन्मपर्यायेण केनापि पूर्वकोट्यायुपा प्रव्रज्या प्रतिपन्ना, तस्य च विंशतिवर्षप्रव्रज्यापर्यायस्य दृष्टिवादोऽनुज्ञातस्ततश्चासौ परिहारविशुद्धिक प्रतिपन्नः, तच्चाष्टादशमासमानमप्यविच्छिन्नतत्परिणामेन तेनाजन्म पालितमित्येवमे कोनत्रशद्वर्षोनां पूर्वकोटि तस्वादिति, (बृ. प. ९१७.९१८) श० २५, उ० ७, ढा० ४५९ १९१ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. सुहमसंपराए जहा नियंठे। ४७. अहक्खाए जहा सामाइयसंजए। (श. २५१५३३) ४४. छ तस मास अठार, पिण अविछिन्न परिणाम करि । जीवै ज्यां लग सार, लै परिहारविशुद्ध जे ॥ वा०–'इहां कोइ पूछ परिहारविशुद्धिक चारित्र अठार मास - कह्य। अने एक भव में उत्कृष्ट तीन वार पिण आवतुं कह्य तो ए अठार मास रै लेखे तो देशूण कोड़ पूर्व तांइ ए चारित्र रहै, तिवारै तीन वार आवा रो नियम रह्यो नथी । अठारै मास रै लेखै घणी वार आयो जोइये, तेहनु उत्तर ए परिहारविशुद्धिक चारित्र छेदोपस्थापनिक में आवी परिहारविशुद्धिकपणुं अंगीकार कर तिवार तीन बार उत्कृष्ट हुवे। अनै ए परिहारविशुद्धिक अठार मास पर्छ छेदोपस्थापनिक में आव्यु नथी अन तेणे परिहारविशुद्धिक चारित्र नै अविछिन्न परिणा मेंज देशूणो कोड़ पूर्व ताइ रहै।' (ज. स ) ४५. *संपरायसूक्ष्म तिको गो०! निग्रंथ जेम सुदृष्ट हो स० ! समय एक हुवै जघन्य थी गो० ! ___अंतर्मुहुर्त उत्कृष्ट हो स० ! सोरठा ४६. ए दशमें गुणठाण, समय एक रहीने मुओ । जघन्य समय इक जाण, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त अद्ध ॥ ४७. *यथाख्यात संजत तिको गो.! सामायिक जिम जोय हो स० ! समय एक हुवै जघन्य थी गो० ! समय रही मृत्यु होय हो स०! ४८. उत्कृष्टो देश ऊण जे गो०! पूर्व कोड़ अवलोय हो स० ! नव वर्षे करि ऊण जे गो० ! ___ अष्ट वर्ष जाझो होय हो स० ! ए एक वचन आश्री कह्यो। हिव बहुवचन आश्री कहै छ४९. बहुवचने सामायिका सा० ! हुवै काल थकी कितो काल हो ? नि ! जिन कहै सर्व काले हवै गो० ! विदेह शाश्वता न्हाल हो स० ! ५०. बहु वच छेदोपस्थापनी सा० ! प्रश्न कियां कहै स्वाम हो स० ! जघन्य थकी रहे एतलो गो०! वर्ष अढीसौ आम हो स. ! गीतकछंद ५१. उत्सप्पिणी धुर तीर्थंकर नै, तीर्थ ज्यां लग जाणिय । वर द्वितीय एह चरित्त है ते, विमल न्याय बखाणिय ।। ५२. फुन तास तीर्थ हुवै अछै ए, वर अढीसौ वास ही। इह कारणे ए जघन्य अद्धा, कालथीज प्रकाश ही। *लय : आई छू देवा ओलम्भड़ा सासूजी ४९. सामाइयसंजया णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होंति? गोयमा ! सव्वद्धं । (श. २५२५३४) ५०. छेदोवट्ठावणिय संजया-पुच्छा। गोयमा! जहणेणं अड्ढाइज्जाई वाससयाई, ५१. तत्रोत्सप्पिण्यामादितीर्थकरस्य तीर्थ यावच्छेदोपस्थापनीयं भवतीति, (बृ. प. ९१८) ५२. तीथं च तस्य साढे द्वे वर्षशते भवतीत्यत उक्तं 'अड्ढा इज्जाई' इत्यादि, १९२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. *उत्कृष्टो सागर एतलो गो०! पचास लक्षज कोड़ हो स०! अवसप्पिणी धुर जिन तणों गो० ! तीर्थ ऋषभवत जोड़ हो स० ! ५३. उक्कोसेणं पण्णासं सागरोवमकोडिसयसहस्साई । (श. २५१५३५) तथाऽवसप्पिण्यामादितीर्थकरस्य तीर्थ यावच्छेदोपस्थापनीयं प्रवर्तते तच्च पञ्चाशत्सागरोपमकोटीलक्षा इत्यतः 'उक्कोसेणं पन्नास' मित्याधुक्तमिति । (वृ. प. ९१८) ५४. परिहारविसुद्धीयसंजया- पुच्छा । गोयमा ! जहण्णेणं देसूणाई दो वामसयाई ५५. उत्सप्पिण्यामाद्यस्य जिनस्य समीपे कश्चिद्वर्षशतायुः परिहारविशुद्धिकं प्रतिपन्नः (वृ. प. ९१८) ५६,५७. तस्यान्तिके तज्जीवितान्तेऽन्यो वर्षशतायुरेव ततः परतो न तस्य प्रतिपत्तिरस्तीत्येवं द्वे वर्षशते, (वृ प. ९१८) ५८ ५९. तयोश्च प्रत्येकमेकोनविंशति वर्षेषु गतेषु तत्प्रति पत्तिरित्येवमष्टपञ्चाशता वर्षेयूँने ते इति देशोने इत्युक्तं, (बृ. प. ९१८) ५४. वलि परिहारविशुद्ध नी सा.! बहु वच पूछयां तास हो नि ! श्री जिन भाखै जघन्य थी गो० ! देशूणी दोय सौ वास हो स० ! यतनी ५५. उत्सप्पिणी काले तास, वर प्रथम तीर्थंकर पास । ___ कोइ सौ वर्ष आयुषवंत, परिहारविशुद्ध पड़िवजंत ॥ ५६. वलि तेहनै समीपे सोय, तसु जीवित अंते जोय । ते पिण सौ वर्ष आयुवंत, परिहारविशुद्ध पड़िवजंत ।। ५७. इम बिहुं नों परिहारविशुद्ध, थया दोय सौ वर्ष संसुद्ध । तेहथी आगल अद्धा मांय, परिहारविशुद्ध न थाय ।। ५८. देश थकी ऊणों इहां आख्यो, तेहनों न्याय वृत्ति में दाख्यो। वर्ष गुणतीस ऊणों तेह, परिहारविशुद्ध पड़िवजेह ।। ५९. इम बीजो पिण परिहार चारित्तियो, वर्ष गुणतीस ऊणों गिणियो । इतरै दोय सौ वर्षां मांय, ऊणा वर्ष अठावन थाय ।। ६०. ए टीकाकार व्याख्यान, वृत्ति विषे कही इम वान । चणिकार पिण इमहिज आखै, पिण इतरो विशेषज भाखै ।। ६१. अवप्पिणी काल रै माय, एह चरम जिनेंद्र अपेक्षाय । इम जघन्य थकी सुविमास, देश ऊणों दोय सौ वास ।। वा० उत्सप्पिणी काले प्रथम तीर्थंकर नै समीपे कोइ एकसौ वर्ष नां आउखा नों धणी परिहारविशुद्ध पड़िवज्यो वलि तेह- समीप तेहनै अंतकाले कोइ एक सौ वर्ष नै आऊख परिहारविशुद्धपणों पड़िवज्यो एतल बे सय वर्ष थया । तेहथी आगै तेह चारित्र नी प्रतिपत्ति नथी। देश थकी ऊणों ते गुणतीस वर्ष नों ते पडिवज इम बीजो पिण । एतल बे सय मांहि ५८ वर्ष ऊणा कीधा ए टीकाकार नों व्याख्यान । वलि चूर्णिकार व्याख्यान पिण इम ईज कर। एतलो विशेष-अवसप्पिणी अंतिम जिन अपेक्षाये कह्य । ६२. *उत्कृष्टो अद्धा तस गो० ! दोय पूर्व कोड़ देख हो स० ! ते पिण देश ऊणों कह्यो गो० ! हिव तसु न्याय उवेख हो स०! यतनी ६३. अवप्पिणी काले विमास, वर प्रथम तीर्थकर पास । कोइ कोड़ पूर्व आयुवंत, परिहारविशुद्ध पड़िवजंत ।। *लय : आई छू देवा ओलम्भड़ा सासूजी ६०,६१. एतच्च टीकाकारव्याख्यानं, चुणिकारव्याख्यान मप्येवमेव, किन्त्ववसप्पिण्यन्तिमजिनापेक्षमिति विशेष:, (वृ. प. ९१८) ६२. उक्कोसेणं देसूणाओ दो पुवकोडीओ। (श. २२५३६) ६३. अवसप्पिण्यामादितीर्थकरस्यान्तिके पूर्वकोटघायुः कश्चित्परिहारविशुद्धिकं प्रतिपन्नः (व. प. ९१८) श० २५, ०७, हा०४५९ १९३ Jain Education Intemational Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. वलि तेहनें समीपे सोय, तसु जीवित अंते जोय । ते पिन कोड़ पूर्व आयुक्त, परिहारविशुद्ध पड़िवजंत ।। ६५. इम बिहुं नों परिहारविशुद्ध, थया बे पुव्व कोड़ संशुद्ध । तेहथो आगल अद्धा गांव, परिहारविशुद्ध न थाय ।। ६६. इहां देश थकी ऊणों ताय, हिव कहिये तेहनों न्याय । धुर ऊणों जे गुणतीस वास, पडिहार पड़िवज्यो तास ॥ ६७. इम बीजो पिण विशुद्धपरिहार, वर्ष गुणतोस कणों सार । इतर दोय पूर्व कोड़ मांय, ऊणा वर्ष अठावन धाय ।। ६८. इम उत्कृष्ट थकी सुजोड़, देश ऊण दोय पुस्वको । बहुवचन सिद्धांत मकार, तिणसूं दोय संजत परिहार ॥ ६९. * पूछा सूक्ष्मसंपराय नीं सा० ! भाखे जिन वच श्रिष्ठ हो स० ! समय हुवे इक जघन्य थी गो० ! अंतर्मुहूर्त्त उत्कृष्ट हो स० ! वा० - बे आदि सम काले दशम गुणस्थान र समय रही मरण पामै ए जघन्य थी एक समय अनैं उत्कृष्ट तेहिज अंतमुहूर्त रहे ते माटै उत्कृष्ट अंतर्मुहुतं । ७०. बहु वचने यथारूपात ने गो० ! सदा काल हुवै शाश्वता गो० ! बहु वच सामायिक जेम हो स० ! संयत का अन्तर ७१. पणवीसम देश सप्तनुं साहिबजी ! चिसो गुणसठमी ढाल हो गुणगेही ! भिक्षु भारीमाल ऋषिराम की साहिबजी ! 'जय - जश' हरष विशाल हो गुणगेही ! विदेह केवलधर खेम हो स० ! ढाल ४६० दूहा १. इक व सामायिक तणों, जिन कहै इक वचने करी, अंतर हितो भदंत ? पुलाक नों जिम हुंत ॥ २. इम जावत इक वचन करि, अंतर्मुहूर्त जघन्य थी, ३. बहु वच सामायिक तणों, यथाख्यात नों मंत । उत्कृष्ट काल अनंत || अंतर कितो भदंत ? जिन भाखे अंतर नथी, सदा शाश्वता मंत ।। * लय: आई छं देवा ओलम्भड़ा सासूजी १९४ भगवती जोड़ ६४. तस्यान्ति तज्जीवितान्तेऽन्यस्तादृश एव तत्प्रतिपन्न ( वृ. प. ९१८ ) ६५. इत्येवं पूर्व कोटीद्वयं तथैव देशोनं परिहारविशुद्धिकसंयतत्वं स्यादिति । (बृ.प. ९१८) ६९. सुहुमसंपरागसंजया -पुच्छा । गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुह ७०. अक्खायसंजया जहा सामाइयसंजया । १. सामाइयसंजयस्स णं भंते! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहणेणं जहा पुलागस्स । २. एवं जाव अहक्वायसंजयस्स । ३. सामाइयसंजयाणं भंते ! गोयमा ! 'नत्थि अंतरं' । (प्र. २५/५३७) पुच्छा ! (म. २५/५३०) (२५५३९) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. छेदोवट्ठावणियाणं-पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं तेवढि वाससहस्साई, ४. क्षेत्र महाविदेह नै विषे, जघन्य थकी पिण जोड़ । हुवै सामायिकवंत ही, पृथक सहस्रज कोड़ ।। ५. *बहवचने करि जाणी जी, जिनवरजी जयवंत, छेदोपस्थापनी माणी जी, जिनवरजी जयवंत । तास प्रश्न पहिछाणी जी, जिनवरजी जयवंत, उत्तर दै वर नाणी जी, जिनवरजी जयवंत । जघन्य थकी तसु अंतर इतरो, तेसठ सहस्रज वास ।। बहुवचने करि जाणी जी, जिनवर जी जयवंत ।। सोरठा ६. जघन्य अंतर जास, छेदोपस्थापनी चरित्त नों। वेसठ सहस्रज वास, तास न्याय कहिये अछै ।। ७. जे अवसप्पिणी मंत, पंच भरत पंच एरवत । __पंचम दुसमा अंत, छेदोपस्थापनी चरित्त है ।। ८. तठा पछै सुविचार, तेहिज अवसप्पिणी तणों । __वर्ष इकवीस हजार, दुस्सम-दुसमा अर छठो ।। ९. फुन उत्सप्पिणी धार, दुष्षम-दुषमा प्रथम अर । वर्ष इकवीस हजार, द्वितीय दुस्सम अर एतलो ।। १०. इम वर्ष त्रेसठ हजार, छेदोपस्थापनी चरित्त नों। जघन्य थकी अवधार, अंतर न्यायज आखियो ।। ११. उत्सप्पिणी नैं आम, तीजे आरे जिन जनम । चारित्त केवल पाम, छेदोपस्थापनी ह पछै ।। १२. ए अधिकेरा वास, अल्पपणां थी ते इहां । वंछथा नहीं विमास, वर्ष तेसठ सहस्रज कह्या ।। १३. *छेदोपस्थापनी इष्टो जी गोयमजी गुणवंत, अंतर तसं उत्कृष्टो जी। गोयम० । भाखै जिन वच श्रिष्ठो जी गोयम०, सांभलतां अति मिष्टो जी ।। गो० ।। जे अष्टादश कोडाकोड़ज सागर तणोज भास, छेदोपस्थापनी इष्टो जी ।। गो० ।। ६. 'जहन्नेणं तेवढेि वाससहस्साई' ति, कथम् ? (वृ. प. ९१८) ७. अवसप्पिण्या दुष्षमा यावच्छेदोपस्थापनीय प्रवर्तते (वृ. प. ९१८) ८-१०. ततस्तस्या एवैकविंशतिवर्षसहस्रमानायामेकान्त दुष्षमायामुत्सपिण्याश्चैकान्तदुष्षमायां च तत्प्रमाणायामेव तदभाव: स्यात् एवं चैक विंशतिवर्षसहस्रमानत्रयेण त्रिषष्टिवर्षसहस्राणामन्तरमिति, (वृ. प. ९१८) १३. उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ। (श. २५२५४०) सोरठा १४. उत्कृष्ट अंतर धार, छेदोपस्थापनी चरित्त नों। कोड़ाकोड़ अठार-सागर नों तसु न्याय इम ।। १५. जे उत्सप्पिणी माय, दूसम-सुसम तृतीये अरे । जिन तेवीसज थाय, कोडाकोड़ दधि ऊण ए।। १६. तुर्य सुसम-दुसमार, हुवै जिनेंद्र चउवीसमा । तास तीर्थ सुविचार, कहियै छै ते सांभलो। १७. ऋषभ तणों सुविमास, जितरो जिन पर्याय छै । तितरो तीर्थ तास, छेदोपस्थापनी त्यां लगै ।। *लय : माता सुत ने भाख जी श० २५, उ०७, डा०४६० १९५ Jain Education Intemational Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. ते तुर्य सुषम- दुषमार, बे कोड़ाकोड़िज उदधि । फुन पंचम सुषमार, सागर कोड़ाकोड़ि त्रिण || १९. छठो सुषम-ग्रुपमार चिहूं कोड़ाकोडिज उदधि । उत्सपिणी धार, ए दधि कोड़ाकोड़ि नव ॥ २०. इम अवसपिणी जोड़, प्रथम द्वितीय तृतीय अरे । दधि नव कोड़ाफोड़, कहिये छे लेखो तसु । २१. प्रथम सुषम-सुषमार, हिं कोड़ाकोडिज उदधि । द्वितीय सुषम अर धार, सागर कोड़ाकोड़ि त्रिण ॥ २२. तृतीय सुषम दुपमार वे कोड़ाकोडिज उदधि । अवसप्पिणी नां धार, ए दधि कोड़ाकोड़ि नव ।। २३. तृतीय अरे में छह, ऋषभ जन्म चारित्र फुन । केवल प्रथम कहेह, छेदोपस्थापनी चरित नहीं ।। २४. कोड़ाकोड़ अठार-सागर नों ऊणा दहां विचार, अल्प भणी अंतरो । बंधा नथी । ए वा. इहां उत्सपिणीनों चोथो अरो २ कोड़ाकोड़ि सागर नो, पंचमो अरो ३ कोड़ाकोड़ि सागर नों, छठो अरो ४ कोड़ाकोड़ि सागर नों, ए नव कोड़ाकोड सागर छेदोपस्थापनी चारित्र नथी लेखव्यो, परंतु जे चउथा अरा नैं विषे चवीसमा तीर्थंकर हुवै तेनां तीर्थ में छेदोपस्थापनी हुवे । तठा पर्छ छेदोपस्थापनीं नों विरह । ते भणी चरम तीर्थंकर नां तीर्थं लगे छेदोपस्थापनी चारित्र रहे । ते वर्ष नव कोड़ाकोड़ि सागर में ऊणा हुवै ते वर्ष अल्पपणां थी वंछया नथी । अन अवसर्पिणीनां प्रथम, द्वितीय, तृतीय अरा नां नव कोड़ाकोड़ सागर थया । तेहमें पिण छेदोपस्थापनी चारित्र गिण्यो नथी । परंतु इहां तीजा अरा ने आदितीर्थकर ने तीचे पानी चारित्र हवे ते वर्ष पण नव कोड़ाकोड़ सागर में घटया । ते पिण अल्पपणां थी ऊणपणों लेखव्यो नथी । इम अठार कोड़ाकोड़ सागर केतला एक वर्ष ऊणां छेदोपस्थापनी चारित्र नों उत्कृष्ट अंतर जाणवूं । २५. * परिहारविशुद्ध सुवासी जी, जिनवर०, पूछयां वाण प्रकाशी जी, जिनवर० । अंतर जघन्य विमासोजो, गोयमजी, वर्ष सहस्र चउरासी जी, गोयमजी। उत्कृष्टो सागर अष्टादश, कोटाकोड़ कहाय ॥ परिहार० ॥ गीतकछंद २६. अवसप्पणी दुषमार पंचम, दुषमदुषमा फुन वही । उत्सप्पणी धुर दुषमदुषमा, द्वितीय फुन दुषमा मही ॥ २७. इक इक अरो इकवीस सहस्रज, वर्ष सहस्र चउरासी । परिहार अंतर जघन्य थी ए, न्याय जिन वच वासी ॥ वा० - ए अवसर्पिणीनां पंचमा अरा नै विषे वीर निर्वाण पर्छ चउसठ *लय : माता सुत नं भाखे जी १९६ भगवती जोड़ वा० - 'उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ' त्ति विलोपियां चविशतितमविनतीचे छेदोपस्थापनीयं प्रवर्तते ततश्च सुषमदुष्यमादिसमाजये क्रमेण द्वित्रिचतुः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणे अतीते अवसप्पिण्याश्चैकान्तसुषमादित्रये क्रमेण चतुस्त्रिद्विसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणे अतीतप्राये प्रथमजिनती छेदोपस्थापनीयं प्रवर्त्तत इत्येवं यथोक्तं छेदोपस्थापनीवस्यान्तरं भवति, यह विचिन पूर्वते वन पूर्वसूत्रेऽतिरिष्यते तदस्यस्यान्न विवक्षितमिति, (बु. प. ९१०) २५. परिहारविद्धिवाणं पुच्छा गोयमा ! जहणेणं चउरासीइं वाससहम्साई, २६.२७ अवसादृष्यमेकादुष्पि कान्तदुष्यमा दुष्यमयोः प्रत्येकमेव ह प्रमाणत्वेन चतुरशीभिति तत्र प परिहारविशुद्धिक न भवतीतिकृत्वा जघन्यमन्तरं तस्य यथोक्तं स्यात्, (बु. ९१८) वा०यश्वान्तिमजिनानन्तरो दुमाया परिहार Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षे जंबू मोक्ष गया । तठा पर्छ केवल पिण विछंद थयो । अनैं परिहारविशुद्ध चारित्र पिण विछेद थयो । ए चउरासी हजार वर्ष मांहि थी ए चउसठ वर्ष ऊणां थया । अने उत्सप्पिणी नैं विषे तीजा अरा नां तीन वर्ष साढा आठ मास गयां प्रथम तीर्थंकर जन्मस्य ते तीस वर्ष घर में रहिस्यै । दीक्षा ग्रही बारे वर्ष तेरे पखवाडां छद्मस्थ रही केवल पामस्यै पर्छ तेहने आदेशे परिहारविशुद्ध चारित्र हु तो अटकाव नहीं । ए तीजा अरा नां वर्ष पूर्व चउसठ वर्ष मांहि थी काढियां लार अल्पहीज चउरासी हजार वर्ष में ऊणा इम हुवै तो किंचित मार्ट गिण्या नथी । गीतकछंद २६. उत्कृष्ट कोटाकोड़ि अष्टादश उदधि जिन आखियो । तसु न्याय द्वितीय चरित्रवत, इह द्वार मांहिज दाखियो || २९. बहुवच सूक्ष्मसंपरायो जी, जिन०, जघन्य समय इक पायो जी, गो०, निग्रंथ जिम कहिवायो जी, गो० । यथाख्यात सामायिक नीं पर, उत्कृष्ट मास षट थायो जी, गो० । बहुवचने एथाय ॥ बहुवच सु० ।। वा० - 'सिद्ध गमन नुं विरह उत्कृष्ट पट मास नों हुवं ते षट मास तांइ कोई क्षपकश्रेणि न चढ़ें ते मार्ट सूक्ष्मसंपराय नुं अंतर उत्कृष्ट षट मास नों हुवे । अ यथाख्यात बहुवचने केवली सामायिक नीं पर सदा शाश्वता लाभ।' (ज. स ) संयत में समुद्धात ३० *सामायिक में स्वामी जी, जिन०, समुद्घात कति धामी जी ? जिन० । जिन भाखे पट पामी जी, मो०, छेदोपस्थापनी इमहिज कहिवो, कषायकुशील ज्यं नामी जी, गो० । इक केवल नहि पाय ।। सामायिक ० ।। ३१. परिहारविशुद्ध नैं ताह्यो जी, गो०, *लय माता सुत नें भाई जी धुर समुद्घात त्रिण पायो जी, गो०, पुलाक जिम कहिवायो जी, गो० । निग्रंथ नीं परि समुद्घात नहीं, हिव सूक्ष्मसंपरायो जी, गो० । स्नातक जिम अक्खाय ॥ परिहार० ॥ सोरठा ३२. यथाख्यात है मांय, स्नातक नीं परि जाणवुं । समुद्घात इक पाय, केवल कोइक में विषे ।। विशुद्धिककालो यश्वत्सपिण्यास्तृतीयायां परिहारविशुद्धिप्रतिपत्तिकाला कालो नासी विक्षितत्वादिति, (बृ. ९१०) २८. उक्को सेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ 1 छेदोपस्थापनीयोत्कृष्टान्तरवदस्य भावना कार्येति । (बृ. प. ९९०) २९. सुहुमसंपरायाणं जहा नियंठाणं । अहखायाणं जहा सामाइयसंजयाणं । (. २५०५४१) ३०. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! पण्णत्ता ? कति समुग्धाया गोयमा ! छ समुग्धाया पण्णत्ता जहा कुसीलस्त एवं घेोषावि २१. परिहारविस्स जहा गुलामरस हुबसंपरामस्स जहा नियंठस्स । अक्खायस्स जहा सिणायस्स । (२५५४२) कषाय श० २५, उ० ७, ढा० ४६० १९७ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयत का क्षेत्र ३३. "प्रभु ! सामायिक स्यूं जाणां जी, जिन०, लोक तणें पहिचाणी जी, जिन० । भाग संख्यातमै माणी जी, जिन०, के असंख पृच्छा ठाणी जी ? जिन० । जिन कहै नहीं संख्या में भागे, पुलाक' जिम अवलोय || प्रभु ! सामा० || सोरठा ३४. सामायिक घर माग, लोक वर्ग असंख्यातमें भाग, नयी शेष ३५. *इम जाव सूक्ष्मपरायो जी, गो०, स्नातक जिम कहिवायो जी, गो०, यथास्यात हिव आयो जी, गो० । ए चिहुं नं तीन भेद में थायो जी, संख्याता नां बोल अछे बे, इम० ॥ तेह विषे नहीं होय ॥ बा०—यथाख्यात लोक नां संख्यातमा भाग नै विषे न हुवै, घणां संख्याता भाग नै विषे न हुवै । अनैं लोक नां असंख्यातमा भाग नै विषे हुवै, घणां असंख्याता भाग नै विषे हुवै, सर्व लोक नैं विषै हुवे – इम तीन बोल नैं विषे हुवे अने दोय बोल नैं विषे न हुवे । संयत द्वारा लोक की स्पर्शना ३६. * प्रभु ! सामायिक एहो जी, जिन०, लोकर्णं स्यूं हो जी, जिन० । संख्यातम भागे हो जो, जिन०, फर्म चारित हो जी, जिन० । जिम ह्वै कह्यं बतीसम द्वारे, संगत किस भाव में ? ३७. प्रभु ! सामायिक अवलोई जी, जिन०, तब जिन भाखं सोई जी, जिन०, *लय : माता सुत ने भाखे जी १. श० २५।४४० १९८ भगवती जोड़ । जाणवुं । विषे ॥ एव जाव सूक्ष्मपरायज, ३८. यथाश्वात सुखदायो जी, जिन०, तब भाव जिनरायो जी, गो०, कहि तिम फशह । प्रभु० ! अथवा क्षायक भाव विषे ह्वै, गो० । किस भाव में होई जी ? जिन० । क्षयोपशम भावे जोई जी, गो० । व्यारू चरण कहेह ॥ प्रभु० ! 'तास प्रश्न पूछायो जी, जिन० । उपशम भावे थायो जी, गो० । वारू न्याय विचार || यथाख्यात० ॥ ३२. सामाइए गं भंते! लोगस्स कि होण्डा, असंखेज्जइभागे - पुच्छा । गोमा ! नो संखेज्जइभागे जहा पुलाए । ३५. एवं जाव सुहुम संपराए । सिणाए । ३६. सामाइयसंजए णं भंते! लोगस्स कि संखेज्जइभागं फुस ? जब होगा तब फुल (म. २५०५४४) अहक्खायसंजए जहा ( . २५०५४३) ३७. सामाइए गोपमा सुहुमसंपराए । भंते! कवरम्मि भावे होगा ? बोलिए भावे होगा एवं जाब (T. KIXVX) ३८. अहवाय संजए - पुच्छा । गोयमा ! उवसमिए वा खइए वा भावे होज्जा । (. २५०२४६) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३९. वर उपशम चरित उचित्त, उपशम भाव विषे हवै । क्षायिक चरण पवित्त, क्षायिक भावे ते हुवै ॥ संयत का परिमाण ४०. सामायिक सुखदाई जी, जिन०, एक समय के थाई जी ? जिन । जिन उत्तर वरदाई जी, जिन०, पड़िवजतां ते थाई जी, गो० । जेम कषायकुशील कह्यो तिम, ए पिण कहिवो सार ।। सामायिक० ।। ४०. सामाइयसंजया णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा? गोयमा ! पडिवज्जमाणए य पडुच्च जहा कसायकुसीला तहेव निरवसेसं । (श. २१५४७) ४४. छेदोवढावणिया-पुच्छा। गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अत्थि सिय नत्थि । जइ अत्थि जहण्णणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं । सोरठा ४१. सामायिक अवलोय, पड़िवजतां ने आश्रयी । कदाचित ते होय, कदाचित नहिं व तिके ।। ४२. जो है तो इम जाण, जघन्य एक बे त्रिण हुवै । उत्कृष्टा पहिछाण, पृथक्त्व सहस्र है इक समय ।। ४३. पूर्वप्रतिपन्न जोड़, जघन्य अने उत्कृष्ट पिण । पृथक सहस्रज कोड़, विदेह क्षेत्र में शाश्वता ।। ४४. *छेदोपस्थापनी भावै जी, जिन०, पूछयां जिन फुरमावै जी, गो० । पड़िवजतांज कहावै जी, गो०. सिय है सिय नहि थावै जी, गो० । है तो जघन्य एक बे त्रिण ह्व, पृथक सौ उत्कृष्ट ।। छेदोप० ।। ४५. पूर्वप्रतिपन्न सारो जी, गो०, ते आश्रयी अवधारो जी, गो० । कदा हुवै सुखकारो जी, गो०, हुवै नहीं किणवारो जी, गो० । है तो जघन्य अनैं उत्कृष्ट ही, कोड़ पृथक सौ इष्ट ।। पूर्वप्रतिपन्न ।। सोरठा ४६. वृत्ति विषे इम जोड़, उत्कृष्ट छेदोपस्थापनी । कह्या पृथक सौ कोड़, धुर जिन तीर्थ आश्रयी ।। ४७. जघन्य कह्या छै जेह, तेह सम्यग प्रकार करि । नथी जाणियै तेह, न्याय पृथक सौ कोड़ नों।। ४८. दुःषम अंते देख, दश क्षेत्र इक-इक विषे । इक मुनि समणी एक, सांभलियै छै वीस इम ।। ४९. के इक इम कहै ताय, ए पिण जे धुर जिन तणां । तीर्थ काल अपेक्षाय, जघन्य पृथक सौ कोड़ है ।। ४५. पुव्वपडिवण्णए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि । जइ अत्थि जहण्णेणं कोडिसयपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिसयपुहत्तं। ४६. इहोत्कृष्ट छेदोपस्थापनीयसंयतपरिमाणमादितीर्थकर तीर्थान्याश्रित्य संभवति, (व. प. ९१८) ४७. जघन्यं तु तत्सम्यग् नावगम्यते, (वृ. प. ९१८) ४८. यतो दुष्षमान्ते भरतादिषु दशसु क्षेत्रेषु प्रत्येक तद्वयस्य भावाद्विशतिरेव तेषां श्रूयते, (वृ. प. ९१८) ४९,५०. केचित्पुनराहुः --- इदमप्यादितीर्थकराणां यस्तीर्थ कालस्तदपेक्षयव समवसेयं, कोटी शतपृथक्त्व च *लय : माता सुत ने भाख जी श०२५, उ०७, ढा०४६० १९९ Jain Education Intemational Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघन्यमल्पतरमुत्कृष्टं च बहुतरमिति । (वृ.प. ९१८) ५१. परिहारविसुद्धिया जहा पुलागा । ५४. सुहुमसंपराया जहा नियंठा । (श. २५.५४८) ५०. जघन्य मान ए जोय, पृथक बे त्रिण कोड़ सौ । उत्कृष्टा अवलोय, हुवै अष्ट नव कोड़ शत ।। ५१. *बहुवचन विशुद्धपरिहारो जी, गो०, पुलाक जेम विचारो जी, गो० । पड़िवजतां अवधारो जी, गो०, पूर्वप्रतिपन्न सारो जी, गो० । 1. कदाचित ह कदाचित नहीं है, जो है तो इम होय । बहुवचन ।। सोरठा ५२. पड़िवजतां अवधार, ह तो इक बे त्रिण जघन्य । उत्कृष्टा सुविचार, पृथक शत पहिछाणियै ।। ५३. पूर्वप्रतिपन्न पेख, ह तो इक बे त्रिण जघन्य । फुन उत्कृष्ट विशेख, पृथक सहस्र बखाणियै ।। ५४. *बहु सूक्ष्मसंपराया जी, गो०, निग्रंथ जेम कहाया जी. गो० । पड़िवजतां सुखदाया जी, गो०, पूर्वप्रतिपन्न पाया जी, गो० । कदाचित ह कदाचित नहीं है, है तो इम अवलोय ।। बहु सु० ।। सोरठा ५५. पड़िवजतां वर्तमान, जघन्य एक बे तीन ह। उत्कृष्टा पहिछाण, इकसौ बासठ ऊपर ।। ५६. इको बासठ मांय, इकसौ अष्टज क्षपक नां । फून चोपन मुनिराय, उपशम श्रेणि तणां हुवै॥ ५७. पूर्व-प्रतिपन्न पाय, जघन्य एक बे तीन ह । उत्कृष्टो कहिवाय, पवर पृथक शत दशम गुण ।। ५८. *बहुवच अहक्खाय सुजन्नो जी, जिन०, इम पूछयां कहै भगवन्नो जी, गो० । पड़िवजतांज सुमन्नो जी, गो०, सिय अस्थि सिय नत्थि पन्नो जी, गो। उत्कृष्ट इक सौ बासठ होवै, उपशम क्षपक अमंद ।। बहुवच० ।। ५९. पूर्व-प्रतिपन्न माणी जी, गो०, ___ जघन्य थकी जे जाणी जी, गो० । पृथक कोड़ पिछाणी जी, गो०, वर केवलधर नाणी जी, गो० । उत्कृष्टा पिण पृथकज कोडि, विदेहक्षेत्र जिन वृंद ।। पूर्वप्रतिपन्न० ॥ *लय : माता सुत नै भाख जी ५८. अहक्खायसंजया णं-पुच्छा। गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अत्थि सिय नत्थि । जइ अत्थि जहणणं एकको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं बाबठ्ठ सयं-अठ्ठत्तरसयं खवगाणं, चउप्पण्णं उवसामगाणं । ५९. पुवडिवण्णए पडुच्च जहण्णेणं कोडिपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिपुहत्तं। (स. २५२५४९) २०० भगवती जोड Jain Education Intemational Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. एएसि णं भंते ! सामाइय-छेओवढावणिय परिहारविसुद्धिय-सुहुमसंपराय-अहक्खायसंजयाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? [सं. पा] विसेसाहिया वा? ६१. गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहमसंपरायसंजया, परिहार विसुद्धियसंजया संखेज्जगुणा, संयत का अल्पबहुत्व ६०. प्रभु ! सामायिक सुखदायो जी, जिन०, छेदोपस्थापनी ताह्यो जी, जिन० । परिहार सूक्ष्मसंपरायो जी, जिन०, वलि चारित्र अहक्खायो जी, जिन। कुण-कुण थकी जाव प्रभु ! कहिये, - विशेष अधिक विचार ।। प्रभु ! सामायिक० ॥ ६१. तब भाख जिनरायो जी, गो०, सहु थी थोड़ा थायो जी, गो० । मुनि सूक्ष्मसंपरायो जी, गो०, दशम गुणे दीपायो जी, गो० । तेह थकी परिहारविशुद्धक, संखगुणा अधिकार ।। तब भाखै० ॥ ६२. तेह थकी अहक्खायो जी, गो०, संखगुणा शोभायो जी, गो० । छेदोपस्थापनी ताह्यो जी, गो० संखगुणा कहिवायो जी, गो० । तेह थकी सामायिक मुनि बहु, संखगुणा ऋषिराय ।। तेह थकी। वा०-सर्व थी थोड़ा सूक्ष्मसंपराय संयती ते काल नां स्तोकपणां थकी, वलि निग्रंथ तुल्यपण करी शत पृथक प्रमाणपणां थकी १ । तेहथी परिहारविशुद्धक संयत संख्यातगुणा तेहनों काल घणों ते माट। बलि पुलाक तुल्यपणे करी तेहनै सहस्र पृथक मानपणां थकी २ । तेहथी यथाख्यात संयत संख्यातगुणा, तेहनै कोटि पृथक प्रमाणपणां थकी ३ । तेहथी छेदोपस्थापनीक संयत संख्यातगुणा, कोटि शत पृथक मानपण करी तेहनै कह्या माटै ४। तेहथी सामायिक संजत संख्यातगुणा, तेहनै कषायकुशील तुल्यपण करी कोटि सहस्र पृथक मानपण करी तेहन क ह्या माट ५। ६२. अहक्खायसंजया संखेज्जगुणा, छेओवट्ठावणियसंजया संखेज्जगुणा, सामाइयसंजया संखेज्जगुणा । वा०-'सव्वत्थोवा सुहुमसंपरायसंजय' त्ति स्तोकत्वातत्कालस्य निर्ग्रन्थतुल्यत्वेन च शतपृथक्त्वप्रमाणत्वात्तेषां, 'परिहारविसुद्धियसंजया संखेज्जगुण' त्ति तत्कालस्य बहुत्वात् पुलाकतुल्यत्वेन च सहस्रपृथक्त्वमानत्वात्तेषाम्, 'अहक्खायसंजया संखेज्जगुण' त्ति कोटीपृथक्त्वमानत्वात्तेषां, 'छेदोवट्ठावणियसंजया संखेज्जगुण' त्ति कोटीशतपृथक्त्वमानतया तेषामुक्तस्वात्, 'सामाइयसंजया सखेज्जगुण' त्ति कषायकुशीलतुल्यतया कोटीसहस्रपृथक्त्वमानत्वेनोक्तत्वातेषामिति । (वृ. प. ९१८,९१९) सोरठा ६३. संयत पंच प्रकार, षट तीसे द्वारे करी । आख्यो प्रभु अधिकार, ग्रहण करै सुगुणा गुणी ।। ६४. धुर बे चरित्त उदार, छठा थी नवमा लगे । मुनि विशुद्धपरिहार, षष्टम सप्तम गुण हुवे ।। ६५. वलि दशमें गुणठाण, संपराय-सूक्ष्म कह्यो । यथाख्यात फुन जाण, ऊपरलै गुणठाण चिहुं ।। ६६. पणवीसम शत पेख, सप्तमुद्देशक देश ए । अर्थ थकी सुविशेख, आख्यो अधिक घमंड' करि' ।। १. गौरव २. श्रीमज्जयाचार्य रचित कृतियो में दो कृतियां हैं-'नियंठा नी जोड़' एवं 'सजया नी जाड़' । भगवती सूत्र के २५ वें शतक से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें प्रस्तुत ग्रन्थ के परिशिष्ट में रखा गया है । श०२५, उ०७, ढा० ४६० २०१ Jain Education Intemational Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. *ढाल च्यार सौ चारू जी, मुनिवरजी गुणवंत, ऊपर अधिक उदारू जी। मुनिवरजी गुणवंत । सखर साठमी वारू जी, मुनिवरजी गुणवंत, समय वचन सुखकारू जी। मुनिवरजी गुणवंत । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष सवाय ।। ढाल च्यार सौ० ॥ ढाल : ४६१ १-३. अनन्तरं संयता उक्तास्तेषां च केचित्प्रतिसेवावन्तो भवन्तीति प्रतिसेवाभेदान् प्रतिसेवा च निर्दोषमालोचयितव्येति आलोचनादोषान् आलोचनासम्बन्धादालोचकगुणान् गुरुगुणांश्च दर्शयन्नाह (वृ. प. ९१९) दूहा १. कह्या अनंतर संजया, ते संयत रै मांहि । केइक है प्रतिसेवका, दोष लगावै ताहि ।। २. प्रतिसेवा नां भेद थी, दोष लगायो जेह । ते निर्दोषज थायवा, आलोइयै गुणगेह ।। ३. आलोचना संबंध थी, आलोचक गुण ताय । वली गुरू नां गुण प्रतै, देखाड़तो कहिवाय ।। ४. प्रतिसेवना दोष जे, वलि आलोयण लेह । फून आलोयणा जोग्य जे, गुरु तसु शुद्ध करेह ।। ५. वलि सामाचारी पवर, प्रायश्चित तप फेर । ए सहु नों विस्तार हिव, निसुणो सुगुण सुमेर ।। प्रतिसेवना पद प्रभु नां वच सुणजो ।। (ध्रुपदं) ६. केतलै भेदै प्रभ ! कही रे, प्रतिसेवना पहिछाण ? ___ संजम तणीं विराधना रे, ते पडिसेवणा जाण रे ।। ७. जिन भाखै प्रतिसेवना रे, दशविध दाखी देख । दोष लगावै दश विधे रे, कहिये तस् सूविशेख रे ।। ८. दोष लगावै दर्प थी रे, चित्त तणों उन्माद । चित्त विह्वलता तेहथी रे, चारित्त देवै विराध रे ।। ४,५. पडिसेवण दोसालोयणा य, आलोयणारिहे चेव । तत्तो सामायारी, पायच्छित्ते तवे चेव ।।१।। (श. २५२५५०) ६. क इविहा णं भंते ! पडिसेवणा पण्णत्ता? ७ गोयमा ! दसविहा पडिसेवणा पण्णत्ता, तं जहा - ८. दप्प __ तेन द सति प्रतिसेवा भवति, दर्पश्च-वल्गनादिः, __ (वृ. प. ९१९) ९. प्पमाद तथा प्रमादे सति, प्रमादश्च मद्यविकथादिः, (वृ. प. ९१९) ९. अथवा प्रमाद करी वली रे, मद विषय नै कषाय । निद्रा नै विकथा वली रे, ए पंच प्रमाद थी ताय रे ।। सोरठा १०. 'मद अठ जाति कुलादि, विषय तेवीसज सेवतो । __कषाय चिहुं क्रोधादि, करै उदीरी नैं जिको ।। *लय : माता सुत नै भाख जो लिय : पुन्य रा फल जोयजो २०२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. भावे निद्रा जेह, निद्रा तेह कही इहां । हिंसादिक वर्तेह, ते भाव निद्रा धुर अंग वृत्तौ ।। १२. विकथा च्यार प्रकार, इत्थी भक्त रु देश नप । ए चिहुं विकथा धार, करै प्रमाद करिनै जिको । ११. सुप्ता द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च.. भावसुप्तास्त्वमुनयो-गृहस्था मिथ्यात्वाज्ञानावृता हिंसाद्याश्रवद्वारेषु सदा प्रवृत्ताः । (आ. व. प. १३८) १२. चत्तारि विकहाओ पण्णत्ताओ, तं जहाइत्थिकहा, भत्तकहा, देसकहा, रायकहा। ' (ठा. ४१२४१) १३. आख्या पंच प्रमाद, अशुभ जोग ए जाणवा । चारित्त दिय विराध, ए प्रमाद करि जीवड़ो।। १४. शत सोलम प्रथम उद्देश, लब्धि आहारक फोड़वै । प्रमाद कह्यो जिनेश, जोग अशुभ ए जाणवू ।। १४. जीवे णं भंते ! आहारगसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी-पुच्छा। गोयमा ! अधिकरणी पि, अधिकरणं पि । से केणठेणं जाव अधिकरणं पि? गोयमा ! पमायं पडुच्च। (भ. श. १६।२३,२४) १५. तिम ए निद्रा भाव, अशुभ जोग मिथ्यात्व वा । तेह प्रमाद कहाव, द्रव्य निद्रा प्रमाद नहिं ।। १६. फुन द्रव्य निद्रा मांहि, अशुभ जोग स्वप्नाज में । ____ ते पिण प्रमाद ताहि, पंचम आश्रव योग ते ।। १७. तीजो आश्रव ताम, अणओछाहज रूप जे । प्रमाद तिण रो नाम, पंचम आश्रव थी जुदो ।। १८. उदय निरंतर ताय, क्रोधादिक च्यारूं जिके । आश्रव तुर्य कषाय, जोग आश्रव थी ए जुदो। १९. करै उदीर कषाय, जोग रूप प्रमाद ए। पंचम आश्रव थाय, पिण तृतीय तुर्य आश्रव नहीं । २०. करै उदीर कषाय, ए अशुभ जोग नां त्याग छ । पिण चोथो आश्रव ताय, किया त्याग नहि है तसु ।। २१. कषाय नां पचखाण, उत्तरज्झयण गुणतीसमें । __ ते कर्म घटयां थी जाण, अकषाई हतिण समय ।। २२. जोग तणां पचखाण, अजोगी व तिण समय । ए चवदम गुणठाण, योग सर्वथा रूधियां ।। २१. कसायपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कसायपच्चक्खाणणं वीयरागभावं जणयइ""। (उत्तर. २९।३७) २२. जोगपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? जोगपच्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणयइ""। (उत्तर. २९।३८) २३. सरीरपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे कि जणयइ? सरीरपच्चक्खाणेणं सिद्धाइसयगुणत्तणं निव्वत्तेइ । (उत्तर. २९।३९) २३. तनु पचखाण पिछाण, शरीर रहित हवै तदा । तिम कषाय पचखाण, अकषायी ह तिण समय ।। २४. तिम तृतीय आश्रव नां ताय, कीधा त्याग हुवै नथी । अप्रमत्तपणुंज थाय, सप्तम गुणठाणे गयां । २५. जोग रूप प्रमाद, किया त्याग ह तेहनां । ए पंचम आश्रववाद, पिण तीजो आश्रव नहीं ।। २६. सर्व सावज्ज जोग पचखाण, अशुभ योग नां त्याग इम । दीक्षा लेता जाण, मुनि सामायिक-चरित्तधर ।। २७. इम बहु न्याय विचार, द्रव्य निद्रा प्रमाद नहिं । भावे निद्रा धार, तेह प्रमाद कहीजिये। २८. द्रव्य निद्रा आवंत, दर्शणावरणी उदय थी। तिण सं जीव दबंत, पिण कर्म न बंधै तेहथी। श० २५, उ०७, ढा० ४६१ २०३ Jain Education Intemational Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. भावे निद्रा हुंत, दर्शण चारित्र बिगड़े जीव अत्यंत, पाप बंधे छे ३०. द्रव्य निद्रा नीं आण, जयणा सू सूतां थकां । पाप तणों न बंधाण, दशवैकालिक तुर्य ए ॥ ३१. सूतो थकोज सोय, स्वप्न प्रत देखे नथी । afe जागरो होय, ते पिण नहिं देखे स्वपन | ३२. गुप्तजागरो ताहि स्वप्न प्रत देख कह्यो । शतक सोलमा मांहि, षष्ठमुद्देशे भगवती । ३३. मेघकुमर नीं माय, राणी धारणी आदि दे । सुप्तजागरी ताय, स्वपनुं देख्यो इम कह्यं ॥ ३४. तिणसूं निद्रा नाम, सुप्त शब्द एजाणवुं । अमर कोश' में आम, सुप्त नाम निद्रा तणुं ॥ ३५. सूता अमुनि नित्य मुनि सदाई जागता । धुरंग विषे कथित्य सुप्त नाम ए नींद नुं ॥ ३६. इहां वृत्ति माहि द्रव्य भाव निद्रा कही । जीव हिंसादिक ताहि, पंचाश्रव भावे निद्रा ॥ ३७. निद्रा द्रव्ये भाव, तेह भणी ओलखायवा । प्रमाद ने प्रस्ताव, ए विस्तारज आखियो || ३८. पंच प्रमाद करेह, दोष लगावं जाण ने । प्रमत्त अशुभ जोगेह, द्वितीय बोल ए आखियो ।' (ज.स.) ३९. *अजाणपण करी वली रे, तीजो बोल कहेह । ईर्ष्या सुमति चालता रे, इत्यादिक अजाणेह रे ।। सोरठा मोह थी । तेहथी ॥ 1 ४०. 'ईर्या सहित गमन, जीव मूआं पिण पाप नहीं । भाव अहिंसक जन्न, नहीं अजाणपणुं तिको ।। ४१. जिन आणा विण जेह, चालतां हिंसक कह्यो । असावधानपणे गमन अजाणपणं तिको । ४२. आधाकर्मी आहार, शुद्ध ववहार करी लियो । सूयगडांग मकार, पाप न लागे तेहनँ । ४३. सुमति गुप्त रे मांय, खामी पड़ेज तेहमें । अजाण दोष कहाय, पण आण सहित में दोष नहीं ॥ ४४. हिंसादिक प्रति ताय, सेवै जेह ऊदीरनं । ते जाण दोष कहिवाय, न्याय दृष्टि अवलोकिये || ४५. इहां अजाण हिसादि, आकूटी न कियो तिणे । असावधान संवादि तेह अजाणे दोष छे ।' (ज.स.) १. अमरकोश में नहीं, अभियानचिन्तामणिकोश में सुप्त नाम निद्रा का मिला है । उसका अर्थ है गहरी नींद । २०४ भगवती जोड़ ३०. जयं सए । ? जागरे सुवि । ..... पावं कम्मं न बंधइ । ३१,३२. मुले भने सुविणं पासति ? पासति ? सुत्तजागरे सुविणं पासति गोमा ! नो सुतं सुविषं पासति पासति जागरे सुवर्ण पासति (भ. १६००७) ३३. ''''पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा गयं पासिता परिवृद्धा । ( नाया. १|१|१८ ) ३४. निद्रा प्रमीला शयनं संवेश-स्वापसलया: नन्दीमुखी श्वासहेतिस्तन्द्रा सुप्तं तु साधिका ॥ ( अभिधानचिन्तामणि २२२२६) ३५. सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरंति । ३९. भोगे ( दस. ४1८) जागरे सुवि (आयारो ३११) तथाऽनाभोगे सति अनाभोगश्चाज्ञानम् (बु. प. ९१९) ४२. अहामणिभूति अगमध्ये सकम्युणा । उवलित्ते त्ति जाणिज्जा अणुवलित्ते त्ति वा पुणो ॥ (सूयनदो २०४८ ) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. आउरे 'आतुरे' त्ति आतुरत्वे सति, आतुरश्च बुभुक्षापिपासादिबाधितः, (वृ. प. ९१९) ४७. आवतीति य । 'आवईय' त्ति आपदि सत्यां, आपच्च द्रव्यादिभेदेन चतुविधा, (वृ. प. ९१९) ४६.*भूख तृषा करि पीडियो रे, तथा रोगादि पीड़यो जेह। करै चारित्त नी विराधना रे, आतुर दोष कहेह रे ।। ४७. आपद पड़ियां आकरी रे, ते आपदा च्यार प्रकार । द्रव्य क्षेत्र काल भाव नी रे, आपद दोष विचार रे ।। गीतकछंद ४८. द्रव्य आपद प्रासुकादिक द्रव्य नै अणपायवै । फुन क्षेत्र आपद अरण्यक्षेत्रे पड़यां चित्त चलायवै ।। ४९. अद्ध आपदा दुभिक्षकालज प्राप्तचित्तज बाधना । फुन भाव आपद ग्लान भावे करै चरित्त-विराधना ॥ ५०. *स्वपक्ष परपक्ष व्याकूले रे, क्षेत्र छते पहिछाण । दोष तणीं प्रतिसेवना रे, ते संकोण जाण रे ।। ४८. तत्र द्रव्यापत् प्रासुकादिद्रव्यालाभः, क्षेत्रापत् कान्तारक्षेत्रपतितत्वं, (वृ. प. ९१९) ४९. कालापत् दुभिक्षकालप्राप्तिः, भावापद् ग्लानत्वमिति, (वृ. प. ९१९) ५०. संकिण्णे 'संकिणे' त्ति सङ्कीर्णे स्वपक्षपरपक्षव्याकुले क्षेत्रे सति, (व. प. ९१९) ५१. 'सकिय' त्ति क्वचित्पाठस्तत्र च शङ्किते-आधा कर्मादित्वेन शङ्कितभक्तादिविषये, (बृ. प. ९१९) वा०--स्वपक्ष परपक्ष व्याकुल क्षेत्र थकी संकीर्णपणां थकी। ५१. संकिय पाठ किहां अछ रे, आधाकर्मादिपणेह । तथा सूझता विषे असूझता रे, लियै शंक सहित भत्ता देह रे ।। वा० - वली नशीत' पाठे तितणे इसो कहिय । तिहां तितिणपणे करी वली ते आहारादि अणलाभे छतो खेद सहित वचन बोल तितिणाटा करै। वा-निशीथपाठे तु तितिण' इत्यभिधीयते, तत्र च तिन्तिणत्वे सति, तच्चाहाराद्यलाभे सखेदं वचनं, (वृ. प. ९१९) ५२. सहसक्कारे, 'सहसक्कारे' त्ति सहसाकारे सति-आकस्मिकक्रियायां, (वृ. प. ९१९) ५२. सहसात्कार छत वली रे, क्रिया विषे अकस्मात । पहिला तो कांइ दीठो नथी रे, __पछै दीठो पिण तज्यो न जात रे ।। सोरठा ५३. पहिला देख्यो नाहि, पात्रादिक प्रक्षेपतां । सदोष जाण्युं ताहि, पिण टालण समर्थ नथी ।। वा० --'इहां पहिला पूरी गवेषणा में खामी रही हुवे तिणसुं पहिला न दीठो एहवं जणाय छ। अने जो तीर्थंकरे कह्यो तिम गवेषण कीधी हुवे ते इहां नथी जणाय छ।' (जस) सोरठा ५४. प्रथम न दीठो जंत, पग मूकंतो पेखियो । तजण समर्थ न हुंत, सहसाक्कारे दोष ते ।। ५४. पुब्वि अपासिऊणं पाए छुढंमि जं पुणो पासे । न तरइ नियत्तेउं पाय सहसाकरणमेय । (वृ. प. ९१९) वा० 'इहां पिण तीर्थकरे कह्यो जिम प्रथम विध न साचवी। देखवा में खामी पड़ी । अनै पछै जीव देखियो पिण टाली सकियो नहीं। पहिलाईज खामी पड़ी तिणसुं सहसक्कारे दोष जणाय छ। अनै पहिला जीव न दीठो, तीर्थकर कह्यो तिमन जोयो असावधानपणे विण उपयोगे चाले तथा देखवा में खामी १ 'निसीहज्झयणं' में तितिणे पाठ नहीं मिला। यह प्रसंग कप्पो ६।१९ श० २५, उ०७, ढा० ४६१ २०५ Jain Education Intemational Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढ़ी जने पर मूकता पि न दीठो ते अजाणपणे दोष संभवे जने आफु ऊदीरी नैं जाणने हिंसा करें, मृषावादादिक बोलै ते जाण दोष ।' (ज.स.) ५५. भय करने प्रतिसेवना रे, नृप चोरादि भवेण । करे चारित्र नी विराधना रे, ते भय दोष कहेण रे ।। ५६. अथवा बीतो ग्रहस्थ भणी रे मार्ग दिखावे जेह अथवा सिंघादिक थकी रे, डरतो वृक्ष चढेह रे ।। ५७. द्वेष ते क्रोधादि थकी रे, दोष लगावे जेह | इहां प्रदोष शब्द ग्रहोवे करी रे, ब्यार कषाय बंधेह रे ।। ५८. करिया शिष्यादिक नीं पारखा रे, दोष लगावै सोय पृथ्वी प्रमुख विराधना रे, संघटादि रूप जे होय रे ।। ५९. प्रतिसेवा ए दश विधे रे तेह विषे सुविचार | आलोयण करवी वली रे, तन मन सूं धर प्यार रे ।। ६०. ते आलोयण में विषे रे, वलि जे ते परहरवा कारणें रे, देखाड़े ६१. दश दोष आलोयणा नां कह्या रे, आलोवतो छतो आम । दोष लगाव दश वली रे, कहिये तेहनां नाम रे ॥ आलोचना के दोष दोष आख्यात | जगनाथ रे ॥ ६२. गुरु थोड़ो प्रायश्चित देस्यै मुझ भणी रे, इम धारी मन मांहि । आलोयण अर्थ करें रे. वैयावचादिक ताहि रे ।। ६२. वैयावचादि करिवे करी रे, आचार्य ने सोय । आवज्जी ने आलोयण करै रे, तथा घूजतो थको आलोय रे ।। ६४. थोड़ो अपराध कहै हुते रे, देस्यै गुरु अल्प दंड । मन अनुमान करी इसो रे, करं आलोयण खंड रे ।। ६५. अथवा अनुमान करी इसो रे, स्यूं ए मृदु दंड होय । तथा उदंड स्यूं अछे रे, इम जाणी पूछे सोय रे ।। सोरठा अल्प दंड जाणें कदा | नहि आलोवे अन्यथा ॥ तेहिज दोष आलोय | तृतीय दोष ए होय रे ।। ६६. इहां ए अभिप्राय, आलोवे गुरु पाय, ६७. * दीठो आचार्यादिके रे अन्य दोष आलोवे नहीं रे, सोरठा ६५. 'आचार्य में एह रंजन मात्र करें आलोयण जेह, पिण वैराग्य तत्परपर्णं । की नथी । ६९. प्रगट दोष पर दृष्ट, करे तास गुरु जाणस्यै इष्ट, दोष इतोइज *लय पुन्य रा फल जोयजो २०६ भगवती जोड़ आलोयणा । एहनें || ५५. भय ५६. भयात् सिंहादिभयेन प्रतिसेवा भवति, (बु. प. ९१९) ५७. प्पओसा य तथा प्रद्वेषाच्च, प्रद्वेषश्च - क्रोधादि:, (वृ. प. ९१९ ) ५८. वीमंसा ॥ १॥ (२५०५५१) 'वीमंस' ति विमर्शात् शिक्षकादिपरीक्षणादिति, (बृ. प. ९१९) - ५९. एवं कारणभेदेन दश प्रतिसेवाभेदा भवन्ति । ( वृ. प. ९१९) ६१. दस आलोयणादोसा पण्णत्ता, तं जहा ६२, ६३. आकंपइत्ता 'आकंपइत्ता' गाहा, आकम्प्य आवर्जितः सन्नाचार्य : स्तोकं प्रायश्चित्तं मे दास्यतीतिबुद्धयाऽऽलोचनाऽऽचार्यं वैयावृत्यकरणादिनाऽऽवयं यदालोचनमसावालोचनादोषः । ( वृ. प. ९१९ ) ६४,६५. अणुमाणइत्ता, 'अणुमाणइत्त' त्ति अनुमान्यत्ति अनुमान्य अनुमान - अनुमानं कृत्वा लघुतरायानिवेदनेन मृदुदण्डादित्वमाचार्यस्याकालय्य यदालोचनमसौ तद्दोष:, ( वृ. प. ९१९) ६७. जं दिट्ठ 'जं विक' ति यदाचार्यादिना दृष्टमपराधजातं तदेवालोचयति । (बु.प. ९१९) ६ दिति यदेव दृष्टमाचार्यादिना दोषजात तदेवामोचपति नान्यं दोषं आचार्यजनमाषपरत्वेनासंविग्नत्वादस्येति । 1 [स्वा. मु. प. ४६०] ६९. दिट्ठा व जे परेणं दोस। वियडेइ ते चिय न अन्ने । सोहिया जाणंतु त एसो एयावदोषो उ ॥ (स्था. बु. प. ४६०) Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. ठाणांगे वृत्ति मांहि, तेह थकी ए आखियो । तृतीय दोष ए ताहि, आलोयण नों जाणवुं ॥ ७१. *बादर मोटा दोष ने रे, निंदा सूं डरतो आलोय । पिण सूक्ष्म दोष आलोवं नहीं, तुर्य दोष ए जोय रे ।। ७२. सूक्ष्म न्हाना दोष ने रे, करें आलोयण तास । मोटा दोष आलोवं नहीं, उपजावं विश्वास रे ।। सोरठा ७३. सूक्ष्म दोष आलोय, तो मोटो किम राखसी । आचार्य ने जोय, विश्वास इम उपजायवा ॥ ७४. *छानो अति लज्जा करी रे, जिम पोतंज सुणेह । पिण गुरु पूरो सुर्णे नहीं रे, तिण विध आलोयेह रे ।। ७५. कुन मोठे शब्दे करी रे करे आलोयण ताम । जिम अन्य अगीतार्थं तिके रे, सांभजिन कहै आम रे ।। ७६. इक अपराधज आपरो रे, बहु जन पास आलोय । आलोचनाचार्य बहु रे, दोष अष्टमों होय रे ॥ ७७. अव्यक्त अगीतार्थ कने रे, करें आलोयण जेह तास संबंध थकी इहां रे, अव्यक्त दोष कहेह रे ॥ ७८. जे अपराध आलोयस्य रे, तेहिज दोष नां ताय । सेवणहारा गुरु कने रे, करे आलोयण जाय रे ॥ सोरठा ७९. एहवो अभिप्राय बिहूं सरीखा ते भणी । थोड़ो प्राश्चित ताय, मुज में ए गुरु आपस्य || ८०. गुरु शील समान, निज अपराध सुखे करी । कहिया समर्थ जान, तत्सेवी दशमों कह्यो । आलोचक की अर्हता ८१. * दश गुण ते स्थाने करो रे, संपन्न जे अणगार । ते निज दोष आलोया रे जोग्य को जगतार रे ।। ८२. जातिसंपन्न धुर गुण कह्यो रे, जातिवंत जे जोय । बहुलपणे दोष सेवे नहीं रे, कदा सेन्वो हवं तो आलोय रे ।। *लय पुन्य रा फल जोयजो ७१. बादरं व 'बायरं व' त्ति बादरमेवातिचारजातमालोचयति न सूक्ष्मं तावज्ञापरत्वात् ( वृ. प. ९१९) ७२. सुमं वा । 'सुहुमं व' त्ति सूक्ष्ममेवातिचारजातमालोचयति, ( वृ प ९१९) ७३. यः किल सूक्ष्मं तदालोचयति स कथं बादरं तन्नालोचयतीत्येवंरूपभावसम्पादनायाऽऽचार्यस्येति, ( वृ. प. ९१९ ) -अतिलज्जालु - एवमालोचयति ( बु. प. ९१९,९२०) ७४. छन्नं 'छन्नं' ति छन्नं प्रतिच्छन्नं प्रच्छन्नं तयाऽव्यक्तवचनं यथा भवति यथात्मनंव शृणोति, ७५ साल 'सद्दा उलय' ति शब्दाकुलं - बृहच्छब्दं यथा भवत्येवमालोजयति, अमीतार्थान्नित्यर्थः ( वृ. प. ९२० ) ७६. बहुजण 'बहुजण' त्ति बहवो जना-आलोचनागुरवो यत्रालोचने तद्बहुजनं यथा भवत्येवमालोचयति, एकस्याप्यपराधस्य बहुभ्यो निवेदनमित्यर्थः, ( वृ. प. ९२० ) ७७. बव्वत्त 'अव्वत्त' त्ति अव्यक्तः -- अगीतार्थस्तस्मै आचार्याय यदालोचनं तदध्यस्यत्तमि (बृ. प. ९२०) ७८. तस्सेवी । ( २४/५५२) 'तस्सेवि' त्ति यमपराधमालोचयिष्यति तमेवासेवते यो गुरुः स तत्सेवी तस्मै यदालोचनं तदपि तत्सेवीति, (बु. ९२०) ७९,८०. यतः समानशीलाय गुरवे सुखेनैव विवक्षितापराधो निवेदयितुं शक्यत इति तत्सेविने निवेदयतीति । (बृ. प. ९२९) 1 ८१. दसह ठाणेहिं संपणे अणगारे अरिहति अत्तदोसं आलोइए तं जहा ८२. जातिसंपणे जातिसम्पन्न: प्रायो कृत्यं न करोत्येव कृतं च सम्यगालाचयतीति, ( वृ. प. ९२० ) श० २५, उ० ७, ढा० ४६१ २०७ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. कुलसंपन्न कह्यो तसु रे, दंड कियो अंगीकार । वहिणहार तेहनों हुवै रे, ए गुण द्वितीय उदार रे ।। ५४. विनयसंपन्न कह्यो वली रे, वंदनादिक सुविचार । आलोयण समाचारी तणों रे, प्रयोक्ता हवे सार रे ।। ५५. ज्ञानसंपन्न कह्यो वली रे, कार्य करिवा जोग । फुन करिवा जोग्य कार्य नहीं रे, बिहुँ नों जाण प्रयोग रे ।। ८६. दर्शणसंपन्न गुण पंचमो रे, प्रायश्चित थी शुद्ध । ___ आत्म है छै आपणी रे, इम सद्दहै वर बुद्ध रे ।। ८७. चरित्तसंपन्न ए गुण छठो रे, प्रायश्चित प्रति सार। अंगीकार कर तिको रे, चरण आराधना धार रे ।। ८३. कुलसंपण्णे, कुलसम्पन्नोऽङ्गीकृतप्रायश्चित्तस्य वोढा भवति, (वृ. प. ९२०) ८४. विणयसंपण्णे, विनयसम्पन्नो वन्दनादिकाया आलोचनासामाचार्याः प्रयोक्ता भवतीति, (वृ. प. ९२०) ८५. नाणसंपण्णे, ज्ञानसम्पन्नः कृत्याकृत्यविभागं जानाति; (वृ. प. ९२०) ८६. सणसंपण्णे, दर्शनसम्पन्नः प्रायश्चित्ताच्छद्धि श्रद्धत्ते, (वृ. प. ९२०) ८७. चरित्तसंपण्णे, चारित्रसम्पन्न: प्रायश्चित्तमङ्गीकरोति, (वृ. प. ९२०) ८८. खते, क्षान्तो--गुरुभिरुपालम्भितो न कुप्यति, (व. प. ९२०) ८९. दंते, दान्तो-दान्तेन्द्रियतया शुद्धि सम्यग् वहति, (वृ. प. ९२०) ९०. अमायी, अमायी-अगोपयन्नपराधमालोचयति, (वृ. प. ९२०) ९१. अपच्छाणुतावी। (श. २५॥५५३) अपश्चात्तापी आलोचितेऽपराधे पश्चात्तापमकुर्वनिर्जराभागी भवतीति । (वृ. प. ९२०) ८८. क्षम्यावंत तिको खरो रे, गुरु ओलुभो देह । न धरै कोप क्षम्या करै रे, सप्तम गुण छै एह रे ।। ८९. दंत कह्यो गुण आठमों रे, इंद्रिय दमनपणेह। शुद्ध सम्यक वहै तिको रे, योग्य आलोयण जेह रे ।। ९०. जे अपराध कीधो तिको रे, अणगोपवतो जान । आलोयणा करै शुद्ध मने रे, तेह अमाई स्थान रे ।। ९१. आलोयण कीधे छते रे, न करै पश्चात्ताप । निर्जरा नों भागी हुवै रे, ए दशमों गुण व्याप रे ।। ९२ ९३. 'अमायी अपच्छानुतावी' ति पदद्वयमिहाधिक प्रकटं च, नवरं ग्रंथान्तरोक्तं तत्स्वरूपमिदं-'नो पलिउंचे अमायी अपच्छायावी न परितप्पे' ति। [स्था. वृ. प. ४६१] सोरठा ९२. दशमें ठाणे देख, वृत्ति विषे इम आखियो। चरम बोल बिहं पेख, ग्रंथांतरे स्वरूप तम् ।। ९३. नो पलिउंचे न्हाल, स्वरूप अमाई तणों। अपच्छायावी भाल, अपरितप्पेत्ति दशम ।। आलोचनादायक की अर्हता ९४. *मुनि अष्ट ठाणे करि सहित छै रे, आलोयण करणी तसु पास । ते प्रायश्चित्त देवा जोग्य छै रे, धीर गंभीर विमास रे ।। ९५. आचारवंत मुनि गुणी, पंच आचार सहीत । करवी आलोयण ते कनै रे, ए गुण प्रथम वदीत रे ।। ९४. अट्ठहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा - ९५. आयारवं, 'आचारवान्' ज्ञानादिपञ्चप्रकाराचारयुक्तः। (वृ. प. ९२०) ९६. आहारवं, 'आहारवं' ति आलोचितापराधानामवधारणावान् । (व. प. ९२०) ९६. आधारवंतज दूसरो रे, आलोयो दोष धारंत । पिण तसु वीसारै नहीं रे, धारयां थी शुद्ध करत रे ।। *लय : पुन्य रा फल जोयजो २०८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७. ववहार पंच कह्या वली रे, पंच ववहार रै मांहि । इक ववहार सहित हुवै रे, आलोयq ते पाहि रे ।। ९८. अतिचार प्रतिगोपवै रे, कहितां लज्जा आय । मृदु वच लाज खोलाय नैं रे, आलोयणा जू कराय रे ।। ९९. जे अपराध आलोवियो रे, प्राश्चित्त देइ तास । विशुद्ध प्रतै करिवा जिको रे, समर्थ छै गुणरास रे ।। १००. अपरिश्रावी गुण वली रे, दोष आलोया जेह । अनेरै पास कहै नहीं रे, छठो गुण छै एह रे ।। ९७. ववहारवं, 'ववहारवं' ति आगमश्रुतादिपञ्चप्रकारव्यवहाराणामन्यतमयुक्तः। (वृ. प. ९२०) ९८. उन्वीलए, 'उध्वीलए' ति अपव्री डक: लज्जयाऽतीचारान् गोपायन्तं विचित्रवचनविलज्जीकृत्य सम्यगालोचनां कारयतीत्यर्थः (वृ. प. ९२०) ९९. पकुव्वए. 'पकुब्बए' ति आलोचितेष्वपराधेषु प्रायश्चित्तदानतो विशुद्धि कारयितुं समर्थः। (वृ. प. ९२०) १००. अपरिस्सावी, 'अपरिस्सावि' त्ति आलोचकेनालोचितान् दोषान् योऽन्यस्म न कथयत्यसावपरिश्रावी । (वृ. प. ९२०) १०१. निज्जवए, 'निज्जवए' त्ति " निर्यापक:' असमर्थस्य प्रायश्चित्तिन: प्रायश्चित्तस्य खण्डशः करणेन निर्वाहकः । (वृ. प. ९२०) १०२. अवायदंसी। (श. २५२५५४) 'अवायदंसि' त्ति आलोचनाया अदाने पारलौकिकापायदर्शनशील इति। (३. प. ९२०) १०१. निर्यापक गुण सातमों रे, प्रायश्चित्त वहिवा जेह । समर्थ जो जाण नहीं रे, तो खंड-खंड करि देह रे ।। १०२. अपायदर्शी आठमों रे, न करै आलोयण जेह । परलोके दुख भोगवै रे, नरक निगोदादिकेह रे ।। सोरठा १०३. 'अनिर्वाहादि न्हाल, चित्त भंग शिष्य तेहनें । उभय भवे दुख भाल, देखाई अनर्थ प्रति ।। १०४. आलोयण न करेह, इह भव मांहै ते सही। दुर्भिक्षे दुख लेह, रोग सोग दुर्बलपणुं ।। १०५. फुन परलोके पेख, दुर्लभ बोधपणुं लहै । नरक निगोद विशेख, उत्कृष्ट काल अनंत दुख ।। १०६. इम अनर्थ देखाय, सम्यक आलोयण भली। ___ वर शिष्य प्रत कराय, शुद्ध करै गुण आठमों ।। १०७. ए अठ गुणे सहीत, है पास तसु आलोयणा । कर शीस सुविनीत, गुण उत्कृष्टपणेज ए।। १०८. अल्प गुण व तिण पास, आलोयण करी शुद्ध हुवै । तेह तणों सुविमास, कथन इहां दीसै नहीं ।। १०९. सुत्त ववहार विमास, प्रथमुद्देशक नै विषे । आचार्यादिक पास, आलोयण करवी कही ।। ११०. पच्छाकड़ो पहिछाण, श्रावक पै आलोवणा। भेषधारी वलि जाण, तिण पासे करवी कही ।। १११. चारित्त गुणे रहीत, पिण बहुश्रुत आगम बहु । आख्या वीर वदीत, कही आलोयण तिण कन्है ।। ११२. ए पिण देखै नांहि, तो सम्यक भावित चैत्य पै। कही आलोयण ताहि, बहुश्रुत पाठ इहां नथी ।। ११३. ते माटै अवलोय, ए अठ गुण उत्कृष्ट थी। संभावियै छै सोय, सुत्त ववहार विलोकतां ।। तेट १०९-११२. भिक्खू य अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं सेवित्ता, इच्छेज्जा आलोएत्तए, जत्थेव अप्पणो आयरियउबउझाए पासेज्जा, ते संतियं आलोएज्जा"..." | [ववहारो १।३३] शः ५, उ०७, हा० ४६१ २०९ Jain Education Intemational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४. पणवीसम देश सप्त न रे, चिहुं सौ इगसठमी ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थो रे, 'जय-जश' मंगलमाल रे ।। ढाल : ४६२ १,२. दसविहा सामायारी पण्णत्ता, तं जहा अनन्तरमालोचनाचार्य उक्तः, स च सामाचार्याः प्रवर्तको भवतीति तां प्रदर्शयन्नाह .(व. प. ९२०) १. अनंतरे आलोचना, आचार्य आख्यात । ते सामाचारी तणां, पवर प्रवर्तक थात ।। २. अथ सामाचारी प्रतै, देखाड़तो कहिवाय । सामाचारी दशविधा, दाखी श्री जिनराय ।। सामाचारी पद *मुनीश्वर ! सामाचारी आराध ॥ (ध्रुपदं) ३. इच्छाकार प्रथम कही जो, इच्छा हवै भगवान ! तो निमंत्रणादि कार्य करूं जी, इम कहि तज मान ।। सोरठा ४. रूंधी निज अभिप्राय, तिण करिके जे कार्य नं । करिवू तिण रै माय, कथन रूप इच्छा कही ।। वा० - इच्छा-इच्छाकारेण सदिस्सह भयवं इत्यादिक कथनरूपा । ५. *खलणा चूक पड़यो थके रे, मिच्छा मि दुक्कडं देह । __ मैं कार्य भूडो करच रे, निज आतम निदेह ।। ६. तहत्तिकार तीजी कही रे, पामी गुरु-आदेश। कर अंगीकार गुरु वचन ने रे, तहत्ति कहै सुविशेष ।। ७. आवस्सही कही स्थान थी रे, गोचरियादिक जाय । अवश्य गमन ए मुनि तणुं रे, पिण निफल गमन नहिं थाय ।। ८. स्थानक माहै पेसतां रे, निसीहिया कहिवाय । गमनादिक नां निषेध थी रे, तेह विषे ए थाय ।। ९. पोता नां सर्व कार्य करै रे, गुरु ने पूछी ताम । ए कार्य करूं कै नहिं करूं रे, आपुच्छणा तसु नाम ।। १०. कार्य करै अन्य मुनि तणं रे, गुरु नों लही आदेश । कार्य करतां पूछे वली रे, ते पडिपुच्छणा कहेस ।। ११. असनादिक द्रव्य जाचिया रे, अन्य साधु नै आम । निमंत्रिय गुरु-आण थी रे, छंदणा तिणरो नाम ।। ५. मिच्छा ६. तहक्कारो, ७. आवस्सिया य ८. निसीहिया। ९. आपुच्छणा य आपृच्छा कार्य प्रश्न इति, (वृ. प. ९२०) १०. पडिपुच्छा, प्रतिपृच्छा तु पूर्वनिषिद्धे कार्य एव, (व प. ९२०) ११ छंदणा य छन्दना-पूर्वगृहीतेन भक्तादिना (व. प. ९२०) *लय : कपूर हुवै अति ऊजलो रे २१. भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. असनादिक नहिं जाचिया रे, ते जाची नं ताय । अन्य साधु ने निमंत्रिये रे ते निमंत्रणा कहिवाय || १३. ज्ञानादिक ने कारण रे, अन्य आचार्य पाय । जेतला काल लगे रहे रे, उपसंपदा कहिवाय ॥ १४. ए सामाचारी दश आचरी रे, भव दधि तिरचा निग्रंथ । उत्तराध्ययन छबीसमें रे, सहु दुख नों करें अंत || वा० 'उत्तराध्ययन छम्बीस में छंदणा कही अनं निमंत्रणा न कही ते छंदणा में आवी । अनैं अब्भुट्ठाण नवमीं कही इहां अब्भुट्ठाण न कही । अन छंदणा निमंत्रणा बे जुदी कही । जे उत्तराध्ययन में आयरसही १ निसोहिया २ आणा, पा ४, छंदणा ५, इच्छाकारो ६, मिच्छाकारो ७, तह्क्कारो ८ अ भुट्ठाण ९, उपसंपदा १० । इहां भगवती में इच्छाकार, मिच्छाकार जाव उपसंपदा दशमी कही । इम अनुक्रम कही तेहनों दोष नथी । अनुयोगद्वारे ऋषभ जाव महावीर ए पुर्वानुपूर्वी (सू. २२७ ) कही। अनं महावीर जाव ऋषभ पश्चानुपूर्वी (सू. २२८ ) । अन आमा सहमां गिणियां अनानुपूर्वी (सू. २२९) । वलि अनुयोगद्वारे इच्छा, मिच्छा, तहक्कार जाव उपसंपदा ए तो पूर्वानुपूर्वी (सू. २३९ ) । कही अने उपसंपदा जाव इच्छा ए पश्चानुपूर्वी ( सू २४० ) । अन आमी साहमी कियां अनानुपूर्वी ( सू २४१ ) कही । ते मार्दै भगवती (२५५५५) विषे कही ते पूर्वानुपूर्वी अने उत्तराध्ययने कही ते अनानुपूर्वी इम कह्यां दोष नथी ।' (ज०स० ) सोरठा , १५. सामाचारी विशेख तेनां भाव की हिवे । प्रायश्चित्त संपेख, तेह प्रतं कहिये अच्छे प्रायश्चित पद १६. प्रायश्चित्त दशविध कह्यो रे, प्रायश्चित रव एह अपराध तथा शुद्धि नैं विषे रे, इहां अपराध विषेह || १७. गुरु आगल निवेदवं रे आतम शुद्ध होय । आलोयण जोग्य कह्यो तिको रे, एवं अन्य पिण जोय ।। १८. केवल मिच्छामि दुक्कडं रे, दीये छते शुद्ध थाय । किमण जोग्य कह्यो तसु रे, द्वितीय प्रायश्चित्त ताय ॥ १९. आलोयणमिच्छामि दुक्कडं रे, बिहुं लीधां शुद्ध होय । उभय जोग तसु आखियो रे, तृतीय प्रायश्चित्त जोय || २०. अशुद्ध भक्ताविक छांवं रे, शुद्ध हुवे सुखदाय । प्रायश्चित्त चोथा भणी रे, विवेक जोग कहाव ॥ *लय : कपूर हुवै अति ऊजलो । १२. निमंतणा । निमन्त्रणा त्वगृहीतेन १३. उवसंपया य काले, उपसम्पच्च ज्ञानादिनिमित्तमाचार्यान्तराश्रयणमिति । १४. सामायारी भवे दसहा । एसा सामायारी समासेण वियाहिया । जं चरिता बहू जीवा तिण्णा संसारसागरं ॥ ( उत्तर० २६।५२) पढमा आवस्सिया नाम बिइया य निसीहिया । आपुच्छणा य तइया चउत्थी पडिपुच्छणा ॥ पंचमा छंदणा नाम इच्छाकारो य छट्टओ । सत्तमो मिच्छाकारो य तह्क्कारो य अट्टमो ॥ अनुहा नवमं दसमा उवसंपदा । एसा दसंगा साहूणं सामायारी पवेइया ॥ (उत्तर० २६।२-४ ) वा. १६. सविहे पाहिले ते वहा इह प्रायश्चित्तदोराधे पराधे दृश्यः, १७. आलोयणारिहे, १५. अर्थ समाचारीविशेषत्वात्प्रायश्वित्तस्य तदभिधातुमाह(. प. ९२०) ( वृ. प. ९२० ) २०. विवेगारिहे, (बृ. प. ९२० ) (श. २५। ५५५ ) तत्र 'आलोयणारिहे' त्ति आलोचना निवेदना तत्क्षण शुद्धि यदत्यतिचारजायं तदालोचनाहं एवमन्यान्यचि ( वृ. प. ९२० ) १८. पडिक्कमणारिहे, केवलं प्रतिक्रमणं - मिथ्यादुष्कृतं तदुभयं आलोचनामिथ्यादुष्कृते ( वृ. प. ९२० ) १९. तदुभयारिहे, विवेक अशुद्ध भक्तादित्यामः, दृश्यते तदिहा(बु. प. ९२०) (पु. प. ९२०) श० २५, उ०७, ढा० ४६२ २११ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. स्वप्न पंचाश्रव सेवियां रे, काओसग्गे शुद्ध थाय । लोगस्स प्यार गुण गुणी रे, कालसम्म जोग्य कहाय ।। २२. विनय त्याग प्रमुख करी रे, आतम हुवे निर्दोष ते तप जोग्य छठो कह्यो रे, हुवै कर्म नों शोष ।। २३. ह्रस्वीकरण प्रव्रज्या तणों रे, पर्याय थी पहिछाण । लहई करिये शुद्ध हुवे रे, छेद जोग्य ते जाण ।। २४. महाव्रत वलि आरोप रे, नवी दीक्षा दियां शुद्ध वाय। प्रायश्चित्त ए आठमों रे, मूल जोग्य कहिवाय ।। २५. तप कीधां नैं व्रत आरोपवे रे, आतम निर्मल थाय । araठप्प जोग्य ते कह्यो रे, नवम प्रायश्चित्त ताय ॥ सोरठा २६. 'ठाणांगे वृत्ति मांहि, अणवठप्पा नो अर्थ इम । किता काल लग ताहि, गण बाहिर राखी करी ॥ २७. तप करावी तास, दोष थकी ते निवत्र्यो । पछे दीक्षा दे जास, अनवस्थापन जोग्य ए ।।' (ज० स० ) २८. *पारांचिक जोग्य दशम कह्यो रे, काढी नैं गणबार । गृहलिंग तपस्या कराय में रे, दीक्षा देवे सार || सोरठा २९. नवम प्रायश्चित्त मांय, गृहीभूत न को हो । गृहीभूत इण न्याय, सूत्र देखता जोइये || ३०. द्वितीय उदेशा मांहि पाठ विषे ववहार में। गृहीभूत ने ताहि नवम दशम देणो कह्यो ।। ३१. अणवठप्प पारंच, गृहोभूत वा कारणे । अगृहीभूतज संच, चरित विषे तसु स्थापवो || ३२. जिम ते गण ने जाण, प्रीत ऊपजै तिम करें। वज्रहारे ए वाण, निपुण विचार न्याय तसु ।। ३३. पाचिक ने पेख, तपादि ठाणांग वृत्ति में मिलतो न्याय विशेख, दशम प्रायश्चित्त ते भणी ।। ' ( ज. स. ) ३४. प्रायश्चित्त तप ख्यात, हिव कहिये तप भेद थी। दाखे श्री जगनाथ, चित्त लगाई सांभलो || ३५. *पणवीसम देश सात में रे, पार सौ नं बासठमी बाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय भी रे, 'जय जय' हरप विशाल रे ।। लय: कपूर हूर्ब अति ऊजलो २१२ भगवती जोड़ २१. व्युत्सर्गः - कायोत्सर्गः (बृ. प. ९२०) ( वृ. प. ९२० ) ( वृ. प. ९२० ) (बृ. प. ९२०) २४. अर अनावस्थाप्यं कृतपसो प्रतारोपणं (बु. प. ९२० ) २२. तवारिहे, तपोनिविकृतिकादि, २१. छेदारि छेदः प्रव्रज्यापर्याय ह्रस्वीकरण २४. मूलारिहे, मूलं महावतारोपण २६.२७. रहे' पनित्रासेविते कंचन व्रतेष्वनवस्थाप्यं कृत्वा पश्चाम्बीर्णतपास्तदोषोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थाप्यार्हम् । २८. पारंपारि ( स्था. वृ. प. ४६१) (रु. २५०५२९) (पु. १. १२० ) पाराचिकं निङ्गाविभेदमिति ३०. अणवटुप्पं भिक्खुं गिहिभूयं कप्पइ तस्स गणावच्छेइस उबट्टावेत्तए । पारंचियं भिक्खुं गिहिभूयं कप्पइ तस्स गणावच्छइस उवद्वावेत्तए । (ववहारो २।१९, २१) ३१.२२. गभम जगहियं वा विहिवा कप्पड़. जहा तस्स गणस्स पत्तियं सिया । पारंचियं वकुं जगहियं वा हिभूयं वा कप्पद ....जहा तस्स गणस्स पत्तियं सिया । ( यवहारो २४२२, २३) ३३. पारदारिहे' एतदधिकमिह तत्र यस्मिन् प्रतिषेविते लिंगक्षेत्रकालतपोभिः पाराञ्चिको बहिर्भूतः तिमिति । (स्वा. बु. प. ४६२) ३४. प्रायश्चित्तं च तप उक्तं, अथ तप एव भेदत आह(बृ. प. ९२०) Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल :४६३ तप पद दूहा १. अथ तप नों अधिकार जे, वर जिन वचन विशेख । दोय प्रकारे तप कह्यो, बाह्य अभितर पेख ।। २. बाह्य शरीर प्रतै अपि, तापन थकीज ताम । बाह्य तप आख्यो प्रभु, ए गुणनिप्पन नाम ।। १. दुविहे तवे पण्णत्ते, तं जहा–बाहिरए य, अभितरए य । (श. २०५५७) २. 'बाहिरिए य' त्ति बाह्य-बाह्यस्यापि शरीरस्य तापनात् मिथ्यादृष्टिभिरपि तपस्तयाऽभ्युपगमाच्च । (व. प ९२४) ३. 'अभितरिए य' त्ति आभ्यन्तरम् अभ्यन्तरस्यैव कार्मणाभिधानशरीरस्य प्रायस्तापनात्सम्यग्दृष्टिभिरेव प्रायस्तपस्तयाऽभ्युपगमाच्चेति । (वृ. प. ९२४) ३. अभितर तप कार्मण, शरीर तेहिज कर्म । तापन थकीज आखिय, अभितर तप पर्म ।। वा०-अभितर कार्मण शरीर नै हीज बहुलपणं तापन थकी अभितर तप । आठ कर्म नै कार्मण शरीर कहिये । बाह्य तप के प्रकार ४. अथ स्यूं ते तप बाह्य वर, षटविध बाह्य उदार ? अणसण भक्तादिक तजै, ऊणोदरिया सार ।। ५. ऊणो करिवो उदर नों, उणोदरिया नाम । __ व्युत्पत्ति मात्रज ए का, शब्द अर्थ अभिराम ।। ६. उपकरणादिक नों अपि, ऊणो करिवो जेह । ऊणोदरिका पिण तिका, कही अर्थ करि एह ।। ७. भिक्षाचरिका तृतीय तप, समवायांगे जान । वृत्तिसंक्षेप कह्यो अछ, भिक्षाचरिया स्थान ।। ४. से किं तं बाहिरए तवे ? बाहिरए तवे छविहे पण्णत्ते, तं जहा- अणसणं ओमोदरिया, ५,६. 'ओमोयरिए' त्ति अवमस्य-ऊनस्योदरस्य करण मवमोदरिका, व्युत्पत्तिमात्रमेतदितिकृत्वोपकरणादेरपि न्यूनताकरणं सोच्यते, (वृ. प. ९२४) ७. भिक्खायरिया, छविहे बाहिरे तवोकम्मे पण्णत्ते, तं जहा- अणसणे ओमोदरिया वित्तिसंखेवो" (समवाओ ६।३) ८. रसपरिच्चाओ, कायकिलेसो, पडिसंलोणता। (श. २५१५५८) ८. रसपरित्यागज तुर्य तप, पंचम कायकिलेश । षष्टम प्रतिसंलीनता, ए षट बाह्य कहेस ।। अनशन ९.*अथ स्यूं ते अणसण अवधार? अणसण आख्यो दोय प्रकार। इत्वर अल्प काल नों जेह, जावजीव यावतकथिकेह ।। १०. अथ स्यूं ते इत्वर सुविचार? अल्पकालीन अनेक प्रकार । चउथ भक्त ते इक उपवास, छठ भक्त ते बेलो जास ।। ११. अठम भक्त तेला नै कहिय, दशम भक्त ते चोलो लहिये । द्वादश भक्त पंचोलो पेख, चवदै भक्त ते षट दिन देख ।। १२. अर्द्धमास फुन मास प्रकाश, दोय मास त्रिण मास उजास । यावत षटमासिक तप चीन, ए अणसण इत्वर अल्पकालीन ।। ९. से कि तं अणसणे ? अणसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा -इत्तरिए य आवकहिए य। (श. २५.५५९) १०. से किं तं इत्तरिए ? इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-च उत्थे भत्ते, छठे भत्ते, 'इत्तरिए य' त्ति अल्पकालीनं (व. प. ९२४) ११. अट्ठमे भत्ते, दसमे भत्ते, दुवालसमे भत्ते, चोदसमे भत्ते १२. अद्धमासिए भत्ते, मासिए भत्ते, दोमासिए भत्ते, तेमासिए भत्ते जाव छम्मासिए भत्ते : सेत्तं इत्तरिए। (श. २५१५६०) *लय : इण पुर कंबल कोय न लेसी श०२५, उ०७, ढा. ४६३ २१३ Jain Education Intemational Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. अथ स्यं यावतकथिक उदार ? यावतकधिक द्विविध अवधार पाओवगमन भक्तपचखाण, जावजीव ए वे विध जाण ।। सोरठा १४. पादप वृक्ष पिछाण, तेहनी परि निश्चल रहे । दूजो भक्तपचखाण, त्रिचि आहार त तिको । १५. *पाओगमन हि स्यूं तेह ? दोष प्रकारे दाख्यो जेह नीहारम अनीहारम जोय, अप्रतिकर्म निश्चय अवलोय ।। सोरठा १६. आश्रय नें इक देश, तेह का तनु सुविशेष, तेह १७. गुफा प्रमुख में सोय तास कलेवर नों तदा। निकालat नहि होय, कहिये अनिहारम जिको ॥ १८. प्रतिकर्म तनु नीं सार, निश्चय करि न करें ि इतरे ए अवधार पाओपगमन कहां १९. *अथ हिव स्यूं ते भत्तपचक्खाण, तिको । भत्तपचक्खाण दोय विध जाण । नीहारम अनीहारम धार, २०. आख्यो छे ए भत्तपच्चखाण, जे तप बाह्य विषे सुविचार, विषे जे आदरें । नीहारम जाणवुं ॥ सप्रतिकर्म निश्चय तनु सार ॥ यावतकथिक कह्यो फुन जाण । आख्यो अणसण प्रथम उदार ॥ अवमोदरिका २१. अब स्यूं अवमोदरिका तेह ? अमोरिका द्विविध जेह । धुर द्रव्य अवमोदरिका दाखी, भाव अवमोदरिका भाखी ।। २२. अब स्यूं घुर अवमोदरिका ते? दोय प्रकार प्रभु आख्याते । धुर उपकरण द्रव्य नीं जेह, भक्त पाण द्रव्य नीं द्वितीयेह || २३. अथ स्यूं उपकरण द्रव्य नीं जेह, अवमोदरिका भाखी तेह ? एक वस्त्र फुन पात्रज एक, राखे संजत परम विवेक ॥। २४. ययोक्त लक्षण महितपणेह, भोगवीर्य वस्त्रादिक जेह । ते पण ममत्व रहित आचरिया, ए उपकरण द्रव्य अवमोदरिया || *लय : इण पुर कंबल कोय न लेसी २१४ भगवती जोड १३. से कि आकहिए ? आवकहिए दुविहे पण तं जहा - पाओवगमणे य, भत्तपच्चक्खाणे य । ( श. २५/५६१ ) १४. 'पाओवगमणे' त्ति पादपवन्निस्पन्दतयाऽवस्थानं, (बृ. प. ९२४) १५. से किं तं पाओवगमणे ? पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - नीहारिमे य, अणीहारिमे य। नियमं अपडिकम्मे । सेत्तं पाओवगमणे । (श. २५/५६२) १६ 'नीहारिमे' त्ति यदाश्रयस्यैकदेशे विधीयते, तत्र हि कडेवरमायान्निर्हरणीयं स्यादितिकृत्वा निहरिम, (बु. ९२४) १७. 'अणीहारिमे य' त्ति अनिहरिमं यद् गिरिकन्दरादी प्रतिपद्यते, (बु. प. ९२४) १९. से कि तपस्थाणे ? भप्तपञ्चस्याने दुनि पण्णत्ते, तं जहा - नीहारिमे य, अणीहारिमे य । नियमं सपsिकम्मे । २०. सेत्तं भत्तपच्चक्खाणे । सेत्त आवकहिए । सेत्तं अणसणे । (श. २५/५६३) य । २१. से किं तं ओमोदरिया ? ओमोदरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा दव्वोमोदरिया य, भावोमोदरिया (श. २५/५६४ ) २२. से किं तं दव्वोमोदरिया ? दव्वोमोदरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा— उवगरणदव्वोमोदरिया य भत्तपाणदव्वोमोदरिया य । (म. २५/५६५) २३. से कि तं उवगरणदव्वोमोदरिया ? उवगरणदव्वोमोदरिया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा -- एगे वत्थे, एगे पाए, २४. चियत्तोवगरणसातिज्जणया । सेत्तं उवगरणदव्वोमोदरिया । (म. २५/५६६) 'चियत्तोवगरणसा इज्जणय' त्ति 'चियत्तस्स' त्ति लक्षणोपेततया संयतस्यैव 'साइज्जणय' त्ति स्वदनता परिभोजनमिति' ( वृ. प. ९२४) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. से कि त भत्तपाणदब्वोमोदरिया ? २५. अथ स्यूं भात पाणी नी तेह, द्रव्य अवमोदरिका जेह ? उत्तर तास कहै जिनराय, __सांभलजो भवियण ! चित ल्याय ।। २६. अष्ट कुकुड़ि अंडग कहिवाय, तेह प्रमाण मात्र जे ताय । कवल नां आहार प्रत आहारेह, ___ अल्प आहार कहियै छै एह ।। २७. जिम सप्तम सत प्रथम उदेश, तेह विषे आख्यो सुविशेष । जाव घणों रसभोजी नाही, कहिq इतरा लगैज यांही ।। २६. भत्तपाणदब्बोमोदरिया अटकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अप्पाहारे, २७. जहा सत्तमसए पढमोद्देसए (७॥२४) जाव नो पगाम रसभोजी ति वत्तव्वं सिया। (पाटि. ३ पृ. ९६९) २८. दुवालस कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारे माणे अवड्ढोमोदरिए, २९. सोलस कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारे माणे दुभागप्पत्ते, ३० चउव्वीसं कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहार माहारेमाणे ओमोदरिए, सोरठा २८. द्वादश कुकुड़ि अंड-प्रमाण मात्रज कवल नों। आहार करै मुनि मंड, अपार्द्ध ते अवमोदरी ॥ २९. सोलै कुकुड़ि अंड-प्रमाण मात्रज कवल नों। आहार करै ऋषि मंड, दुभाग पत्त अवमोदरी ।। ३०. कुकुडि अंड चउवीस, प्रमाण मात्रज कवल नों। आहार करै मुनि ईश, तिका प्राप्त अवमोदरी ।। वा०-बीजा अर्द्ध नै मध्य भाग प्राप्त कहिय बत्तीस कवल आहार नी अपेक्षाय। चउवीस कवल ते त्रिण भाग लीधा, चउथो भाग न लीधो ते प्राप्त ऊणोदरी जाणवी। ३१. कुकुड़ि अंड इगतीस-प्रमाण मात्रज कवल नों। आहार करै मुनि ईश, किंचि ऊण अवमोदरी ।। ३२. कुकुड़ि अंड बत्तीस-प्रमाण मात्रज कवल नों। कीधां आहार मुनीश, पूर्ण प्रमाण प्राप्त ते ।। ३३. एह थकी इक ग्रास, एक शीत पिण ऊण मूनि । ___ आहार कियां गुणरास, प्रकामरसभोजी न ते ॥ ३४. *से तं भक्त अनै वलि पाण, द्रव्य तणी अवमोदरी जाण। एह द्रव्य अवमोदरी आखी, अर्थ रूप अरिहते भाखो ।। ३५. अथ ते स्य् अवमोदरो भाव ? तेह अनेक प्रकार कहाव । अल्प क्रोध जावत अल्प लोभ, अल्प शब्द अल्प झंझ सुशोभ ।। सोरठा ३६. क्रोधादिक नों ख्यात अल्पपणों अवमोदरिक । अभेद-उपचारात, नर पिण अवमोदरिक है। ३७. रात्र्यादिक में जेह, असंजती जागरण नां । भय थी अल्प लवेह, अल्प शब्द नों अर्थ ए।। वा०-पोहर रात्रि उपरंत गाढे शब्दे न बोल, रखे असंजती जाग ते माटै तथा दिवसे पिण विचारी अल्प शब्द बोल। ३२. बत्तीस कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारे माणे पमाणमेत्ते, ३३. एत्तो एक्केण वि घासेणं ऊणगं आहारमाहारेमाणे समणे निग्गथे नो पकामरसभोजीति वत्तव सिया। ३४. सेत्तं भत्तपाणदब्बोमोदरिया। सेत्तं दब्वोमोदरिया । (श. २५२५-७) ३५. से कि तं भावोमोदरिया? भावोमोदरिया अणेग विहा पण्णत्ता, तं जहा- अप्पकोहे जाब (सं. पा.) अप्पलोभे, अप्पसद्दे, अम्पझझे, ३६. 'अप्पकोहे' त्ति अल्पक्रोधः पुरुषोऽवमोदरिको ___ भवत्यभेदोपचारादिति। (वृ प. ९२४) ३७. 'अप्पसद्दे' त्ति अल्पशब्दो राठ्यादावसंयतजागरणभयात् (बृ. प. ९२४) * लय : इण पर कंबल कोयनले सी श००५, उ० ७ हा०४३ २१५ Jain Education Intemational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. झंझ अर्थ इम हुंत, कोप विशेष थकी जिको। वचन-श्रेणि बोलंत, ते झंझा पिण अल्प छै ।। ३९. चूणि विषे इम वाय, झंझा अर्थ विना जिको। वदै वचन बहु ताय, तेह झंझा जेहने नथी । ४०. *अल्प तुमंतुम अर्थ संबोध, हृदय विषेज रह्यं जे क्रोध । से तं अवमोदरिका भाव, से तं अवमोदरिका कहाव ।। ३८. 'अप्पझंझे' त्ति इह झञ्झा-विप्रकीर्णा कोपविशेषाद्वचनपद्धतिः, (वृ. प. ९२४) ३९. चूां तूक्तं-'झंझा अणत्थयबहुप्पलावित्तं' (वृ. प. ९२४) ४०. अप्पतुमंतुमे । सेत्तं भावोमोदरिया। सेत्तं ओमोदरिया। (श. २५५५६८) 'अप्पतुमंतुमे' त्ति तुमन्तुमो-हृदयस्थः कोपविशेष एव, (वृ. प. ९२४) बा०—किंचित कोप हिया नै विषेहीज रां, पिण बाहिर प्रकाश ४१. से किं तं भिक्खायरिया ? भिक्खायरिया अणेगविहा पण्णता? तं जहा-दव्वाभिग्गहचरए, १ (सं. पा.) अप्पकोहे जाव अप्पलोभे। भिक्षाचर्या ४१. अथ हिव स्यूं ते भिक्खायरिया ? भिक्खायरिया बहविध चरिया। द्रव्य अभिग्रह द्रव्य आश्रित्य, करै अभिग्रह संत उचित्त्य ।। सोरठा ४२. द्रव्य आश्रयी जाण, अभिग्रह ते भिक्षाचरी। लेपकृतादि पिछाण, द्रव्य विषे जे जाणवं ।। वा. जे भिक्षाचर्या अनै भिक्षाचर्यावत अभेद बछवा थकी पुरुष पिण द्रव्य अभिग्रहचारक भिक्षाचर्य इम कहिये। अने द्रव्य अभिग्रह लेपकृतादिक द्रव्य विषय खरडये हाथे देव तो लेऊ तथा अमु को द्रव्य देव तो लेऊ इत्यादिक द्रव्य अभिग्रह । ४३. *जिम उववाइ विषे आख्यात, कहिवं तेम इहां अवदात । यावत शुद्ध एषणिक पिंड, ग्रहिवं त्यां लग कहिवं अखंड ।। वा.–दव्वाभिग्गहचरए' त्ति भिक्षाचर्यायास्तद्वतश्चाभेदविवक्षणाद्व्याभिग्रहचरको भिक्षाचर्येत्युच्यते, द्रव्याभिग्रहाश्च लेपकृतादिद्रव्यविषयाः । (वृ. प. ९२४) ४३. जहा ओववाइए [सू. ३४] जाव सुद्धेसणिए । (पाटि. २ पृ. ९७०) ४४-४६. अनेनेदं सूचितं-'खेत्ताभिग्गहचरए कालाभिग्गहचरए भावाभिग्गहचरए' इत्यादि, (वृ. प. ९२४) सोरठा ४४. जाव शब्द थी ताम, क्षेत्र अभिग्रह करि चरै। स्व ग्राम फुन पर ग्राम, आदि विषय जे क्षेत्र नों।। ४५. काल अभिग्रहण सार, प्रथम पोहर आदिक विषय । भावाभिग्रह धार, गान हसन आदिक दिये ।। ४६. इत्यादिक अवलोय, जाव शब्द में जाणवा । किहां लगै ते होय, शुद्ध एषणीक अर्थ लग ।। ४७. 'शुद्ध एषणा संकित आदि, दोष तजी लै पिंड संवादि । संख्या पंच षटादि दात, भिक्षाचर्या ए आख्यात ।। ४७. सुद्धसणिए, संखादत्तिए । सेत्तं भिक्खायरिया । (श. २५२५६९) 'सुद्धेणिए' त्ति शुद्धषणा-शङ्कितादिदोषपरिहारतः पिण्डग्रहस्तद्वांश्च शुद्धषणिक: 'संखादत्तिए' त्ति सङ्खयाप्रधाना: पञ्चषादयो दत्तयो-भिक्षाविशेषा यस्य स तथा, (वृ. प. ९२४) *लय : इण पुर कंबल कोय न लेसी २१६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. बे सौ सत्तावन देश विशाल, च्यारसौ ने तेसठमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसाय, 'जय-जश' संपति हरष सवाय ।। ढाल : ४६४ रसपरित्याग दूहा १. अथ ते स्यूं परित्याग रस, रसपरित्याग संगीत ? अनेक भेद परूपिया, 'नीवी' विगय रहीत ॥ २. जिम उववाई में कह्यो, यावत लक्खो आहार। जाव शब्द में जाणवो, आंबिल प्रमुख विचार ।। १. से किं तं रसपरिच्चाए ? रसपरिच्चाए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा -निविगितिए; २. जहा ओववाइए (सू. ३५) जाव लूहाहारे । (पाटि. ३ पृ. ९७०) 'जहा उववाइए' त्ति अनेनेदं सूचितम्–'आयंबिलिए आयामसित्थभोई अरसाहारे' इत्यादि, (व. प. ९२४) कायक्लेश ३. आख्यो रसपरित्याग ए, अथ स्यं कायक्लेश? कायक्लेश अनेकविध, दाख्यो अर्थ जिनेश ।। ४. अतिसय करि कायोत्सर्ग, पिण उत्कट आसन । जिम उववाई सूत्र में, आख्यो तेम कथन ।। ५. जावत सर्व शरीर नीं, तजी शुश्रुषा जेह। उववाइ में आखियो, प्रतिमा आदिक तेह ।। ६. द्वादश प्रतिमा पालवी, वीरासण फून सार । वलि पालठी वाल ने, बेस हरष अपार ।। ३. सेत्तं रसपरिच्चाए। (श. २५१५७०) से किं तं कायकिलेसे? कायकिलेसे अणेगविहे पण्णत्ते तं जहा४,५. ठाणादीए, जहा ओबवाइए (सू. ३६) जाव सव्वगायपरिकम्म-विभूसविप्पमुक्के । 'ठाणाइय' त्ति स्थानं कायोत्सर्गादिकमतिशयेन ददाति गच्छतीति वा। (व. प ९२४) ६. अनेनेदं सूचितं -'पडिमट्ठाई वीरासणिए नेसज्जिए' इत्यादि, इह च प्रतिमाः-मासिक्यादयः, वीरासनं च-सिंहासननिविष्टस्य भून्यस्तपादस्थ सिंहासनेऽपनीते यादृशमवस्थानं, निषद्या च-पुताभ्यां भूमावुपवेशन, (वृ. प. ९२४) ७. सेत्तं कायकिलेसे । (श. २५१५७१) ७. इत्यादिक ए आखिया, जाव शब्द रै माय । दाख्यो कायक्लेश ए, पंचम तप अधिकाय ।। प्रति सलीनता *षष्टम तप तुम्हें सांभलो ।। (ध्रुपदं) ८. अथ स्यं प्रतिसंलीणता? प्रतिसंलीणता जेहो जी। आखी च्यार प्रकार नीं, जु-जूआ भेद सुणेहो जी। ९. इंद्रियप्रतिसंलीनता, कषायप्रतिसंलीनो जी। जोगपडीसंलीणता, विविक्तसयनासन चीनो जी ।। ८. से कि तं पडिसलीणया? पडिसंलीणया च उब्विहा पण्णत्ता, तं जहा९. इंदियपडिसंलीणया, कसायपडिसंलीणया, जोगपडिसंलीणया, विवित्तसयणासणसेवणया। (श. २५।५७२) *लय : धर्मदलाली चित्त धरै श. २५, उ०७, ढा• ४६३,४६४ २१७ Jain Education Intemational Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.से किं तं इंदियपडिसलीणया? इंदियपडिसंलीणया पंचबिहा पण्णत्ता, तं जहा - ११. सोइंदियविसयप्पयारणिरोहो या, १०. इंद्रियप्रतिसंलीनता, अथ स्यं ते सुखकारो जी ? इंद्रियपडिसंलीणया, दाखी पंच प्रकारो जी ।। ११. श्रोतेंद्रिय नी विषय जे, इष्ट अनिष्ट शब्द विषेहो जी। श्रवण प्रवृत्ति नों रूंधवं, इतरै शब्द सुणवो वर्जेहो जी ।। सोरठा १२. इष्ट अनिष्ट कथित्त, जे रव सुणवा नै विषे । राग द्वेष धर चित्त, सुण नहीं ते महामुनि ।। १२. श्रोत्रेन्द्रियस्य यो विषयेष- इष्टानिष्टशब्देषु प्रचारः -श्रवणलक्षणा प्रवृत्तिस्तस्य यो निरोधो-निषेध: स तथा शब्दानां श्रवणवर्जनमित्यर्थः (वृ. प. ९२४) १३. सोइंदियविसयप्पत्तेसु वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो। १३. *तथा श्रोतेंद्रिय नीं विषय जे, ते पाम्या जे अर्थ विषहो जी। शब्द गमता अणगमता सांभल्यां, तिण में राग द्वेष न करेहो जी ।। सोरठा १४. अथवा इष्ट अनिष्ट, शब्द पड़या जे कान में। ___ तेह विष मिष्ठ, राग द्वेष न करै मुनि ॥ १५. *इम विषय चक्षु इंद्रिय तणी, एवं जावत जाणो जी। फर्शद्रिय विषय प्रवृत्ति, रूंधे संत सुजाणो जी ।। १६. तथा फर्शइंद्रिय नी विषय जे, पाम्या अर्थ विषेहो जी। राग द्वेष नों रूंधवो, इंद्री-प्रतिसंलीनता एहो जी ।। १७. कषायप्रतिसंलीनता, हिवै किसी ते आखी जो ? च्यार प्रकारे ते कही, सांभलजो चित्त राखी जी ।। १८. क्रोध उदय नों निरोध जे, कोध प्रतै न करेहो जी। अथवा उदय प्राप्त क्रोध नै, निर्फल करै गुणगेहो जी ।। १९. एवं जावत लोभ नों, उदय निरोध करेहो जी। लोभ उदय थया नै निर्फल करै, कषायपडिसंलोण एहो जी ।। २०. अथ हिवं स्यूं ते आखियो, जोगप्रतिसंलीनो जी? तीन प्रकारे ते का , मन वच काय सुचीनो जी।। १४. थोत्रेन्द्रियविषयेषु प्राप्तेषु च 'अर्थेषु' इष्टानिष्टशब्देषु रागद्वेषविनिग्रहो रागद्वेषनिरोधः।। (वृ. प. ९२४) १५. चक्खिदियविसयप्पयारणिरोहो वा एवं जाव __फासिदियविसयप्पयारणिरोहो बा, १६. फामिदियविसयप्पत्तेसु वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो। सेत्तं इंदियपडिसलीणया। (श. २०५७३) १७. से कि तं कसायपडिसलीणया? कसायपडिसंलीणया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा१८. कोहोदयनिरोहो वा, उदयप्पत्तस्स वा कोहस्स विफली करणं । १९. एव जाव लोभोदय निरोहो वा, उदयपत्तस्स वा लोभस्स विफलीकरणं । सेत्तं कसायपडिसलीणया। (श. २५१५७४) २०. से कि तं जोगपडिसलीणया? जोगपडिसलीणया तिविहा पण्णत्ता, त जहा-मणजोगपडिसलीणया, वइ जोगपडिसंलीणया, कायजोगपडिसंलीणया। (श. २५।५७५) २१. से कि त मणजोगपडिसलीणया ? २२. मणजोगपडिसलीणया अकुसलमणनिरोहो वा, २१. अथ हिव स्यूं ते आखियो, जे मन जोग व्यापारो जी। __ तेहन प्रतिसंलीनता? उत्तर दै जगतारो जी।। २२. अकुशल मन जे पाडुओ, करिवो तास निरोधो जी। सावज मन वर्ताव नहीं, अघभीरू दिल सोधो जी ।। २३. तथा कुशल जे मन छै तेहनी, कर उदीरणा आपो जी। तथा मन नै विशिष्टपणे करी, ___करिव एकाग्र भाव सुथापो जी ।। २३. कुसलमणउदीरण वा, मणस्स वा एगत्तीभाव करणं । सेत्त मणजोगपडिसलीणया। (श. २५१५७६) 'मणस्स वा एगत्तीभावकरण' मनसो वा 'एगत्त' त्ति विशिष्ट काग्रत्वेनै कता तद्रूपस्य भावस्य करणमेकताभावकरण, (वृ. प. ९२४) *लय : धर्मदलाली चित्त धरै २१८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. आत्मना वा सह यैकता-निरालम्बनत्वं तद्पो भावस्तस्य करणं यत्तत्तथा (व. प. ९२४) २५. से कि तं वइजोगपडिसंलीणया ? २४. अथवा आत्म सहित एकता, निरालबनपणुं जेहो जी। तद्रूप भाव छ तेहनें, करिवं हरष घणेहो जी। २५. अथ हिवै स्यूं ते आखियो, वचन जोग नों वारू जी। प्रतिसलीनता पवर ही ? उत्तर दै जगतारू जी ।। २६. अकुशल वचन जोग रूंधवो, न वदै सावज्ज वाणी जी। तथा कुशल वचन नी ऊदीरणा, निर्वद्य बोल जाणी जी ।। २७. तथा विशिष्ट एकाग्रपणे करी, एकता रूप जे भावो जी। करिवं जे वच जोग नै, ए वचपडिसलीण सावो जी । २८. हिवै कायपडिसलीणया किसी? तनु पडिसंलीणता तेहो जी। पाम्यो समाधि भली परै, बाह्य वृत्ति करि जेहो जी ।। २९. वलि अंतरवृत्ति करी जिको, प्रशांत चित्त सवायो जी। कर पग संहरचा छै जिणे, पिण विक्षिप्त कर पग नांह्यो जी ।। ३०. गुप्त इंद्रिय काछवा नी परै, किसी अवस्था नै विषे संतो जी। पूर्व थोड़ो-सो लीन आलीन ते, पछै अति लीनपण रहंतो जी ।। २६. वइजोगपडिसंलीणया अकुसलवइनिरोहो वा, कुसल वइउदीरणं वा, २७. वईए वा एगत्तीभावकरणं। सेत्तं वइजोगपडिसंलीणया। _ (श. २५।५७७) 'वईए वा एगत्तीभावकरणं' ति वाचो वा विशिष्ट काग्रत्वेनै कतारूपभावकरणमिति (व. प. ९२४) २८,२९. से किं तं काय जोगपडिसलीणया ? कायजोग पडिसलीणया जण्णं सुसमाहियपसंत-साहरियपाणिपाए 'सुसमाहियपसंतसाहरियपाणिपाए'त्ति सुष्ठ समाहितःसमाधिप्राप्तो बहिर्वृत्त्या स चासौ प्रशान्तश्चान्तर्वृत्त्या यः स तथा संहृतं-- अविक्षिप्ततया धृतं पाणिपादं येन स तथा (व. प. ९२४) ३०. कुम्मो इव गुत्तिदिए अल्लीण-पल्लीणे चिट्ठति । 'कुम्मो इव गुत्तिदिए' त्ति गुप्तेन्द्रियो गुप्त इत्यर्थः, क इव ? कुर्म इव, कस्यामवस्थायामित्यत एवाह'अल्लीणे पल्लीणे' त्ति आलीनः-ईषल्लीनः पूर्व प्रलीनः पश्चात् प्रकर्षेण लीनः । (वृ. प. ९२४) ३१. सेत्तं कायपडिसंलीणया । सेत्तं जोगपडिसलीणया। (श. २५१५७८) ३२. से कि तं विवित्तसयणासणसेवणया ? ३३. जण्णं आरामेसु वा ३४. उज्जाणेसु वा ३५,३६. जहा सोमिलुद्देसए [१८।२१२] जाव सेज्जा... [श. २५२७९ पाटि] ३१. कही ए तनुप्रतिसंलीनता, जोग तणी वलि एहो जी। आखी प्रतिसंलीनता, ए तीन भेद कहेहो जी ।। ३२. अथ हिवै स्यूं ते सेविवो, विविक्तसयनासन्नो जी ? ए तुर्य भेद कहिये हिवै, सांभलजो धर मन्नो जी ।। ३३. उत्तम पवर प्रधान जे, पुष्प तणों वन जाणो जी। तेह आराम कहीजिय, जेह विषे पहिछाणी जी। ३४. दाता पुष्प ने फल तणां, महावृक्ष समुदायो जी। तेह उद्यान कहीजिय, जेह विषे मुनिरायो जी। ३५. जिम सोमल उद्देशके, शतक अठारमा मांडो जी। दशम उद्देशक नै विषे, आख्यो तिम कहिवायो जी ।। ३६. जाव सेज्जा संथारा प्रतै, अंगीकार करी विचरंतो जी। जाव शब्द में पाठ जे, जाणे पंडित बुद्धिवंतो जी ।। सोरठा ३७. जाव शब्द में जाण, देवकुल देहरा विषे । सभा विष पहिछाण, पवा प्रपा पाणी तणीं ।। ३८. स्त्री पशु पंडग रहीत, एहवी वस्ती नै विषे । फासु तिहां संगीत, एषणीक पीढादि जे ।। ३९. पीढ बाजवट जान, फलग पाटिया ने कह्यं । सेज्जा जायगा मान, संथारो दर्भादि नों।। *लय : धर्मदलाली चित्त धरै ३७. देवकुलेसु वा सभासु वा पवासु वा ३८. इत्थी-पसु-पंडगविवज्जियासु वा बसहीसु फासु एसणिज्ज ३९. पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं श००५, उ०७, हा०४६४ २१९ Jain Education Intemational Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. अंगीकार करी तेह, विचरै मुनि समभाव थी । जाव शब्द में जेह, पाठ कह्या ते जाणवा ॥ ४१. विविक्तसयनासन सेवणया, तुर्य भेद ए से तं पडिलीणता, बाहिर तप ए ४२. शत पणवीसम देश सात नों, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, आभ्यन्तर तप के प्रकार प्यार सौ चउसठमी बालो जी । दूहा १. अथ स्यूं भितर तप तिको? भितर तप पट भेद । प्रायश्चित्त शब्दे करी, शुद्ध आराधन वेद ।। ज्ञान विनय आख्यो जी । भारुयो जी ।। ढाल : ४६५ २. विनय वेयावच मुनि तणों, सज्झाय नें फुन ध्यान । विसग्ग छठी कह्यो, हिव तसु भेद पिछान ॥ प्रायश्चित 'जय जय' मंगलमालो जी ।। ३. हिवे तेह स्यूं प्रायश्चित ? प्रायश्चित्त दश भेद । पुर आलोयण जोग्य जे, इत्यादिक संवेद || , ४. जाव पारंचिक जोग्य जे कह्यो प्रायश्चित्त एह । हिवे विनय विस्तार जे तास प्रश्न पूछेह ॥ विनय के प्रकार , *लय: धर्मदलाली चित्त धरं लय: नमूं अनंत चवीसी २२० भगवती जोड़ ५. अथ विनय किस ते? विनय सप्तविध वारू । घुर ज्ञान विनय पुन, दर्शण विनय उदारू ॥ ६. बलि चारित विनयज मन विनय श्रीकार । वच काय विनय फुन, विनय लोक उपचार ।। , ७. जय स्यूं ते कहिये ज्ञान विनय गुणधार ? जे ज्ञान विनय नां, दाख्या पंच प्रकार ।। ८. धुर आभिनिबोधिक ज्ञान विनय गुणहीर । जाय केवलज्ञानज, ए ज्ञान विनय कहां वीर ॥ ४०. उवसंपज्जित्ताणं विहरइ । ४१. सेत्तं विवित्तसयणासण सेवणया । सेत्तं पडिसंलीणया । तं बाहिरए तवे । (श. २५/५७९) १. से कि तं अमितरए त ? अमितरए तवे छब्बि पण्णत्ते, तं जहा - पायच्छित्तं, 'पायच्छित्ते' त्ति इह प्रायश्चित्तशब्देनापराधशुद्धियज्यते, (बृ. प. ९२४ ) २. विओपाय सुझाओ, मार्ग, विग्यो। (रु. २५०५८०) ३. सेकितं पाते? पायच्छिते सविहे पण तं जहा आलोवणारिहे ४. जाव पारंचियारिहे । सेत्तं पायच्छिते । ५. से कि तं विए ? विषए सत्तविहे पण्यते त जहानामविषए, दंसणविषए, (श. २५/५८१) ६. परितगिए, मणविषए, बलिए कार्याविणए, लोगोवारविए (श. २५५८२ ) ७. से कि तं नाविणए ? नाणविणए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा ८. आभिणिबोहियाणविणए जाव (सं.पा.) केवलनाणविगए। गए। (श. २५/५८३) Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९,१०. 'नाणविणए' त्ति ज्ञानविनयो-मत्यादिज्ञानानां श्रद्धानभक्तिबहुमानतददृष्टार्थभावनाविधिग्रहणाभ्यासरूपः। (बृ. प. ९२४) १३. मे किं तं दसणविणए ? दसणविणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा१४. सुस्सूसणाविणए य, अणच्चासादणाविणए य । (श. २५।५८४) १५. से किं तं सुस्सूसणाविणए ? सुस्सूसणाविणए अणेग विहे पण्णत्ते, तं जहा१६,१७. सक्कारे इ वा सम्माणे इ वा (सं० पा०) जहा चोद्दसमसए ततिए उद्देसए (१४।३२) जाव पडिसंसाहणया। सोरठा ९. को वत्ति रै मांहि, ज्ञान विनय नों अर्थ जे। ज्ञान मत्यादिक ताहि, शुद्धपणे श्रद्धे तसु ।। १०. तास भक्ति बहुमान, दृष्ट अर्थ तसु भावना । विधि ग्रहण करि जान, फुन अभ्यास तद्रूप जे ।। ११. 'पिण मति ज्ञानी जेह, समदृष्टि श्रावक तणों। करिव विनयज तेह, न कां वृत्ति विषे इहां ।। १२. ज्ञान तणां गुणग्राम, फुन अभ्यास तेह करें। __ वलि तसु श्रद्ध ताम, ज्ञान विनय कहिये तिको ॥' (ज.स.) दर्शन विनय १३. *अथ स्यूं ते कहिये, दर्शण विनय उदार? जे दर्शण विनयज, दाख्यो दोय प्रकार ।। १४. सुश्रूषाज सेवा, दाख्यो ए धुर भेद । न करै आसातन, द्वितीय भेद संवेद ।। १५. अथ स्यूं ते कहियै, सुश्रुषा विनय उदार? सुश्रूषा विनय नां, कह्या अनेक प्रकार ।। १६. सत्कार नों देवो, वलि देवं सन्मान । जिम चवदम शतके, ततीय उद्देशे जान ।। १७. जाव चरम भेद ए, पहुंचावण ने जाय । इहां जाव शब्द में, दाख्या ते कहिवाय ।। सोरठा १८. कितिकर्म कहिवाय, करवी वंदन कार्य वा। अभ्युत्थानज ताय, आसण छोडी ऊठवो ।। १९. अजली ते अवलोय, हाथ बिहू नों जोड़वो । सुगुरू मुनि नै सोय, आसन नों जे धामवो ।। २०. तसु काजे आसन्न, अन्य स्थान संचारि । गौरव जोग्यज मुन्न, आवत सन्मुख जायवो ।। २१. मुनि रह्या जे स्थान, करै तास पर्युपासना । जाव शब्द में जान, कहिय बोलज एतला ।। २२. * इतर ए आख्यो, विनय सुश्रुषा सार । ते जोग्य श्रमण नो, करिवो धर अति प्यार ।। २३. अथ स्यं ते विनय, अण-अतिआसातन ? आसातन न कर, कहियै तेह सुजन ।। २४. आसातन न करे, तसु पैतालीस प्रकार । अरिहंत तणीं जे, आसातन परिहार ।। २५. अरिहंत परूप्या धर्मतणी सुविचार । आसातन टाले, अवर्णवाद निवार ।। २६. वलि आचार्य नी, आशातन न करेह । मन वचन काय करि, प्रतिकूलपणुं तजेह ।। *लय : नम अनंत चउवीसी १८. किइकम्मे इ वा अब्भुटाणे इ वा १९. अंजलिपग्गहे इ वा आसणाभिग्गहे इ वा २०. आसणाणुप्पदाणे इ वा, एतस्स पच्चुग्गच्छणया, २१. ठियस्स पज्जुबासणया, २२. सेत्तं सुस्सूसणाविणए। (श, २५१५८५) २३. से कि त अणच्चासादणाविणए ? २४. अणच्चासादणाविणए पणयालीसइविहे पण्णत्ते, तं जहा - अरहताणं अणच्चासादणया, २५. अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणच्चासादणया, २६. आयरियाणं अणच्चासादणया, श० २५, उ०७, ढा० ४६५ २२१ Jain Education Intemational al Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. उवज्झायाणं अणच्चासादणया, थेराणं अणच्चा सादणया, कुलस्स अणच्चासादणया, गणस्स अणच्चासादणया, संघस्स अणच्चासादणया, २७. इम उपाध्याय नी, स्थविर तणी पिण जेह। कुल गण नैं संघ नीं, आशातन न करेह ।। सोरठा २८. कुल गण संघ नों ताहि, अर्थ इहां नहिं वत्ति में। अष्टम शत वृत्ति माहि, अष्टमुद्देशे अर्थ इम ।। २९. कुल इक गणपति शीस, त्रिण कुल नों इक गण हुदै । मुनि-समुदाय जगीस, संघ कहीजे तेहने ।। ३०. *परलोक आत्म छै, शिव आस्तिक थापेह । कहिये तसु क्रिया जसु, आसातन न करेह ।। ३१. जसु धर्म सरीखो, लिये दियै भक्तादि । ते सांभोगिक नीं, वजं आशातन वादि ।। २८,२९. एल्थ कुलं विन्नेयं एगायरियस्स संतई जा उ । तिण्ह कुलाण मिहो पुण सावेक्खाणं गणो होइ ।। सम्वो वि नाणदंसणचरणगुणविहूसियाणसमणाणं । समुदाओ पुण संघो गणसमुदाओ त्ति काऊणं ॥ (भ. वृ. प. ३८२) ३०. किरियाए अणच्चासादणया, 'किरियाए अणच्चासायणाए' त्ति इह क्रिया-अस्ति परलोकोऽस्त्यात्माऽस्ति च सकलक्लेशाकलङ्कितं मुक्तिपदमित्यादिप्ररूपणात्मिका गृह्यते । (वृ. प. ९२५) ३१. संभोगस्स अणच्चासादणया, 'संभोगस्स अणच्चासायणाए' त्ति सम्भोगस्य - समानम्मकाणां परस्परेण भक्तादिदान ग्रहणरूपस्थानत्याशातना--विपर्यासवत्करणपरिवर्जन (वृ. प. ९२५) ३२. आभिणिबोहियनाणस्स अणच्चासादणया, जाव केवलनाणस्स अणच्चासादणया, ३३. एएसि चेव भत्ति-बहुमाणेणं, 'भत्तिबहुमाणेणं' ति इह भक्त्या सह बहुमानो भक्तिबहुमान: भक्तिश्च इह बाह्या परिजुष्टिः बहुमानश्चआन्तर: प्रीतियोगः। (वृ. प. ९२५) ३४. एएसि चेव वण्णसंजलणया। 'वन्नसंजलणय' त्ति सद्भूतगुणवर्णनेन यशोदीपनं । (वृ. प. ९२५) ३५. सेत्त अणच्चासादणयाविणए । सेतं दसणविणए । (श. २५२५८६) ३२. वलि मतिज्ञान नी, जावत केवलज्ञान । तेहनीं नहीं करवी, अत्याशातन जान ।। ३३. वलि ए पनरै नीं, भक्ति सहित बहुमान । भक्ति बाह्य सुप्रीती, बहुमान अंतर प्रीति जान ।। ३४. वलि एह पनर ने, छता गुण वर्णन करि जेह। जश नुं दीपाविद्, भेद पैंतालीस एह ।। ३५. ए अणआशातन, विनय पूर्व आख्यात । ए दर्शण विनयज, दाख्यो श्री जगनाथ ।। सोरठा ३६. 'चरित्त सहित श्रद्धान, विनय सुश्रूषा तेहनों। दर्शण विनय सुजान, तेह तणीं जिन आगन्या ।। ३७. आराधना त्रिणविद्ध, ज्ञान दर्शण चारित्त तणीं। अष्टम शते प्रसिद्ध, दशम उद्देशक नै विषे ।। ३८. जघन्य ज्ञान नी जोय, वलि जघन्य दर्शण तणीं। आराधना तसु होय, सप्त अष्ट उत्कृष्ट भव ।। ३९. कह्यो तिहां वृत्तिकार, चारित्त करि ए सहित छै। तसु भव पनर विचार, ए छै फल चारित्त तणों ।। ४०. चारित्त रहित सुइष्ट, देशविरति समदृष्टि नां । भव असंख उत्कृष्ट, एहवं आख्यो वृत्ति में ।। *लय : नमु अनंत चउवीसी २२२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. तेम इहां पिण धार, दर्शण विनय संभावियै । चरित्त सहित सुविचार, करवी सुश्रूषा तसु ।। ४२. ग्रहस्थ तणींज ताहि, सुश्रुषा करवा तणीं। श्री जिन आज्ञा नांहि, तिण सूं चारित्त सहित ए॥ चारित्र विनय ४३. *अथ स्यं ते कहिये, चारित्त विनय सूचंग? ए पंच प्रकारे दाख्यो, सखर सुरंग ।। ४४. सामायिक जावत, यथाख्यात सुविचार । तस गुण वर्णविय, ए चारित्त विनय उदार ।। मन विनय ४५. अथ स्यूं मन विनयज ? ते मन विनय द्विविद्ध । पसत्थ मन विनयज, अपसत्थ मन सुप्रसिद्ध ।। ४३. से कि तं चरितविणए ? चरित्तविणए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा४४. सामाइयचरितविणए जाब अहक्खायचरित्तविणए । सेतं चरित्तविणए। (श. २५५८७) ४५. से कि तं मणविणए ? मणविणए दुबिहे पण्णत्ते, तं जहापसत्थमणविणए य, अप्पसत्थमणविणए य। (श. २५५५८८) सोरठा ४६. प्रशस्त मन कहिवाय, तेहिज प्रवर्तन द्वार करि। विनय कर्म क्षय ताय, तास उपाय कहीजिये ।। ४७. अपसत्थ मन कहिवाय, तेहिज निवर्तन द्वार करि । विनय अर्थ सुखदाय, अघ क्षय करण उपाय जे ।। ४८. *अथ स्यं ते कहिये, विनय प्रशस्त मन ? ते सप्त प्रकारे, सांभलजो गुणीजन ।। ४९. सामान्य करीन, पाप रहित मन जास। ए का अपापक, ए धुर भेद विमास ।। ५०. वलि विशेष करिक, क्रोधादि अवद्य रहीत । ते कह्यो असावज्ज, द्वितीय भेद संगीत ।। ५१. वलि काइयादिक जे, क्रिया रहित मन ताय । ए तृतीय भेद फुन, अकिरिये कहिवाय ।। ४६. 'पसत्थमण विणए' त्ति प्रशस्तमन एव प्रवर्तनद्वारेण विनयः -कर्मापनयनोपाय: प्रशस्तमनोविनयः, (वृ. प. ९२५) ४७. अप्रशस्तमन एव निवर्तनद्वारेण विनयोऽप्रशस्तमनोविनयः। (बृ. प. ९२५) ४८. से कि तं पसत्यमणविणए ? पसत्थमणविणए सत्त विहे पण्णत्ते, जं जहा४९. अपावए, 'अपावए' ति सामान्येन पापवजितं । (व.प. ९२५) ५०. असावज्जे, विशेषतः पुनरसावधं-क्रोधाद्यवद्यजितं । (वृ. प. ९२५) ५१. अकिरिए, 'अकिरिए' त्ति कायिक्यादि क्रियाऽभिष्वङ्गवजितं । (वृ. प. ९२५) ५२. निरुवकेसे, 'निरुवक्केसं' ति स्वगतशोकायुपक्लेशवियुक्तं । (वृ. प. ९२५) ५३. अणण्हवकरे, 'अणण्हयकरे' त्ति अनाश्रवकरं प्राणातिपाताद्याथवकरणरहितमित्यर्थः । (वृ. प. ९२५) ५४. अच्छविकरे, 'अच्छविकरे' ति क्षपि:-स्वपरयोरायासो यत् तत्करणशीलं न भवति तदक्षपिकर (वृ. ५. ९२५) ५५. अभूयाभिसंकणे । 'अभूयाभिसंकणे' त्ति यतो भूतान्यमिशन्ते - बिभ्यति तस्माद्यदन्यत्तदभूताभिशङ्कन, (बृ. प. ९२५) ५२. वलि मन शोकादिक, आत्म कलेश रहीत । ते भेद चतुर्थो, निरुपक्लेश संगीत ।। ५३. प्राणातिपातादिक, आश्रव करण रहीत । ए अणआश्रव करि, पंचम भेद पुनीत ।। ५४. निज पर नै खेद जे, करण शील जसु नाय । एहवं मन जेहन, अछवीकर कहिवाय ।। ५५. जेह थकी जीव नैं, संका भय नहीं जन्न । एहवं मन जेहनं, अभूताभिसंकन्न । *लय : नमु अनंत चउवीसी श० २५, उ० ७, ढा० ४६५ २२३ Jain Education Intemational Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. सेत्तं पसत्थमणविणए । (श. २२१५८९) ५७. से कि त अप्पसत्थमणविणए ? अप्पसत्थमणविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा५८. पावए, ५९. सावज्जे, ६०. सकिरिए, ६१. सउवक्के से, ६२. अण्हयकरे, ६३. छविकरे, ६४. भूयाभिसंकणे । ५६. इतले ए आख्यो, प्रशस्त मन विनयेह । शुद्ध मन प्रवर्ताव, प्रशस्त मन को तेह ।। ५७. अथ स्यूं ते अपसत्थ, मन विनय अधिकार? अपसत्थ मन विनयो, दाख्यो सप्त प्रकार ।। ५८. सामान्य करीने, पापकारिक जे मन । ते नाम पापको, ए धुर भेद कथन ।। ५९. विशेष थकी जे, क्रोधादिक करि सहीत । एहवं मन जेहन, सावज्ज नाम संगीत ।। ६०. वलि काइयादिक जे, किरिया सहित मन ताय । ए तृतीय भेद फुन, सकिरिये कहिवाय ।। ६१. वलि मन शोकादिक, आत्म कलेश सहीत । ते भेद चतुर्थो, सउपक्लेश संगीत ।। ६२. प्राणातिपातादिक, आथव करण सहीत । ते आश्रव करि, पंचम भेद कथीत ।। ६३. निज पर नै खेद जे, करण शील छै जास । एहवं मन जेहनु, का, छविकर तास ।। ६४. जे थकी जीव नै, संका भय उपजत । एहवं मन जेहनु, भूताभिसंक नमत ।। ६५. इतलै ए आख्यो, अपसत्थ मन विनयेह । मन असुद्ध निवार, तेह विनय गुणगेह ।। वचन विनय ६६. अथ स्यूं ते कहियै, वच विनय सुविचार ? वच विनय अछै ते, दाख्यो दोय प्रकार ।। ६७. प्रशस्त वचन जे, वच विनय धुर भेद । अपसत्थ वच विनयो, द्वितीय भेद संवेद ।। ६८. अथ स्यू ते प्रशस्तज, वचन विनय कहिवाय? ते सप्त प्रकारे, सांभलजो चित ल्याय ।। ६९. धुर भेद अपापक, जाव सातमों जन्न । अभूताभिसंकन, ए विनय प्रशस्त वचन्न ।। ७०. अथ स्यं ते अपसत्थ, वचन विनय कहिवाय? ते सप्त प्रकारे, दाख्यो श्री जिनराय ।। ७१. पापक फुन सावज्ज, जाव भूताभिसंकन्न । ए अपसत्थ वच विनयो, ए वच विनय कथन्न ।। ६५. सेतं अस्पसत्थमण विणए । सेत्तं मणविणए । (श. २५१५९०) ६६. से कि तं वइविणए ? वइविणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा६७ पसस्थवइविणए य, अप्पसत्थवइविणए य । (श. २५।५९१) ६८. से कि तं पसत्यवइविणए ? पसत्थवइविणए सत्तविहे पण्णत्त, तं जहा। ६९. अपावए, असावज्जे जाव अभूयाभिसंकण। सेत्तं पसत्थवइविणए। (श. २५२५९२) ७०. से कि त अप्पसत्थवइविणए ? अप्पसत्थवइविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा--- ७१. पावए, सावज्जे जाव भूयाभिसंकणे । सेत्तं अप्पसत्थ वइविणए । सेत्तं वइविणए। (श. २५१५९३) ७२,७३. 'अपावए' त्ति अपापवाक्प्रवर्त्तनरूपो वाग् विनयोऽपापक इति, एवमन्येऽपि, (व. प. ९२५) सोरठा ७२. अपापकारी ताय, वचन प्रवर्तन रूप जे। अघ क्षय करण उपाय, तेह अपापक वच विनय ।। ७३. इम अन्य पिण कहिवाय, जिम मन नां पूर्वेकह्या । तेम वचन नां थाय, जाव अभूताभिसंकन ।। २२४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्याविनय ७४. *अथ स्यूं ते कहिये, काय-विनय जे ताय ? ते दोय प्रकारे, पसत्थ अपसत्य काय ॥ ७५. अथ स्यं ते सप्त प्रकारे ७६. 'आउतं गमणं", ते प्रशस्त कार्याविनय सुखदाय ? सांभनजो पित ल्याय || गमणं', गमन उपयोग जिण आण सहित जे चाले रूड़ी सहीत । रीत ॥ सोरठा ७७. आगुप्त संजत सार, ते आगुप्तज धार ७८. * ' आउत्तं ठाणं तेह संबंधि जेह छ । वृत्ति विषे इम आखियो || उपयोगे करि स्थान । जे ऊभो रहिवुं, आण सहित पहिछान ॥ ७९. 'आउ निम्रियण', जे उपयोग सहीत महि विषे बेस आण सहित घर प्रीत || ८०. 'आउत्तं तुयट्टणं, सुबुं उपयोग सहीत । जिन आण सहित ए, सूअं रूड़ी ८१. 'आउ उत्तपर्ण', आगल द्वार आदिक उलंघवो, आज्ञा सहित अखंड || २. आपलंघणं' विस्तीर्ण भू जाण । जे खाइ प्रमुख नों, अति उलंघवो आण ।। रीत ॥ वरंड ८३. उपयोग सहित फुन, सर्वेन्द्रिय व्यापार । तेहनाज प्रयोगज, तास योजना सार ॥ ८४. ए प्रशस्त कायज-विनय को जिनराय । सह आण सहित है, जानें समदृष्टि न्याय ॥ वाo 'इहां गमनादिक सात प्रकारे प्रशस्त कार्याविनय कां, तिहां सातूं मैं विषे आउत्तं पाठ कह्यो, ते आउत्तं रो अर्थ टीका में कह्यो ते लिखिये छेआगुप्तस्य संजतस्य संबंधि यत्तदागुप्तमेव । हिवं एहनों अर्थ - आगुप्तस्य संगतस्य कहि गुप्त संबंध हितां ते संगती संबंधि, पत कहितां जे तत कहाँ से आगुप्त एव कहिता आगुप्तईनकहिये। , इहां वृत्तिनों अर्थ देखतां तो आगुप्त संजती नों हीज चालिबुं १ ऊभो रहि २ ३ ४ उपविशेष उलंघ ६ अ सर्व इंद्रिय व्यापार नां प्रयोग नीं योजना जाणवी ७ आगुप्त संजत कहिव साधु पिण उपयोग सहित ए सातू कार्य करें ते प्रशस्तकाय विनय कहिये । ए सजत संबंधि टीकाकार कह्या ते मार्ट गमनादिक साधु नों जाणवुं । अनें टबा नै करणहार आउत्तं नों अर्थ उपयोग सहित समुच्चय कियो, पिण साधु ग्रहस्थ रो नाम खोल्यो नथी । ते भणी कोइ ग्रहस्थ नों गमनादिक थाप, तेहनों उत्तर- जो ग्रहस्थ नों उपयोग सहित *लय : नमूं अनंत चडवीसी ७४. से कि कार्याविणए ? कार्याविगए दुविहे पण्णसे, तं जहा पसत्कार्याविणए य, अप्पसत्यकायविणए य । (श. २५।५९४ ) ७५. से पिसत्यकामविष ? पसत्यकवि सत्त विहे पण्णत्तं तं जहा · ७६. आउत्तं गमणं, ७७. 'आउत्तं' ति आगुप्तस्य - संयतस्य सम्बन्धि यत्तदागुप्तमेव । ( वृ. प. ९२५) ७८. आउत्तं ठाणं, ७९. निसीयर्ण, ८०. आउत्तं तुयट्टणं, ८१. आउत्तं उल्लंघणं, 'उल्लघणं' ति ऊर्ध्वं लङ्घनं द्वारागंलावरण्डकादेः ( वृ. प. ९२५) ८२. आउत्तं पल्लंघणं, 'पल्लंघणं' ति प्रलङ्घनं भूखातादे ८३. आज सव्विदियोगा प्रकृष्टं लङ्घनं विस्तीर्ण( वृ. प. ९२५) सविदिजगति सामिन्द्रियव्यापाराणां प्रयोग इत्यर्थः ८४. सेत्तं पसत्यकायविणए । ( वृ. प. ९२५) (२५५९५) श० २५, उ०७, ढा० ४६५ २२५ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्त काय विनय हुवै तो जिन आज्ञा सहित गमनादिक करें तो ते पिण मिल, ते कहिये छे जे साधु ने वंदना ने अर्थे अथवा बहिरावा ने अर्थों उपयोग सहित - जयणा सहित गमनादिक करें, तिहां जिन आज्ञा छ । जे साधु ने वहिरावा जयणा सहित पगला भरिया ते गमन १ । तथा वंदना, बहिरावा ने अर्थ ऊभो रहिवुं २ | इम वंदना बहिरावा हेठो बेसवुं ३ । इम वंदना ने अर्थ अधो थइ पगां में मस्तक देह कहेम्हारे बहिरो ४ इमहिन साधु ने बांदवा तथा बहिरावा डेली प्रमुख उल्लंघयं । इमहिन साधु ने वंदना तथा बहिराचा विस्तीर्ण भूमिका बाड प्रमुख विशेष उप ६ इमहिज साधु ने बंदवा तथा बहिरावा सर्व इंद्रिय व्यापार नां प्रयोग नीं योजना करवी ए सातूंइ उपयोग सहित जयणा सहित इम इत्यादिक जिन आज्ञा सहित निरवद्य काया नां जोग प्रवर्त्तावं, ते पिण प्रशस्त कार्याविनय जाण, पिण ग्रहस्थ व्यापारादिक सावद्य कार्य नैं अर्थे जयणा सहित जे काय नां जोग प्रवर्त्तावं त्यां तीर्थंकर नीं आज्ञा नथी । ते प्रशस्त कायविनय न कहिये, जे आगलो निरवद्य कार्य वंदना करिवा रूप तथा साधु नैं दान देवादिक नों छे तेहने अर्थे जयणा सूं गमनादिक करें तथा भो बेस बहिरा, बैठो हवं ते कमी व बहिरा, ए गमनादिक निरवद्य है तेहने साधु चाल, ऊभो था तथा बैस इम न कहै संभोग नहीं ते मार्ट पिण गमनादिक कार्य नी आज्ञा देवं जे साहमो असणादिक पडियो ते बहिरावे । तथा रसतादिक बतावै इण रसत होय बहिरावे तो अटकाव नहीं, उण रसते होय न जाणो सचित है ते मार्ट, सचित नहीं ए रखते होव ने बहिराव, त्यां बात दाणो लगे तो ते घर असूझतो हुवं तेनुं चालणो अंगीकार कियो मा तथा कुड़छी सूं बहिराव इम कह्यां जयणा सहित कुड़छी हाथ में लेणी ठांम में घालणी इत्यादिक सर्व नीं आज्ञा थइ तथा पांचू अंग नमाय वंदना करणी तथा पडिकमणा री विध सिखाव अहोकायं कायसंफासं इहां हाथ जोड़ने वंदना करणी, इम पंच पदां री वंदना करणी, काउसग्ग करणो इम नमोत्थुणं गुणणो, पोत कायरा जोग प्रवर्त्तावी बतावै इम निरवद्य कार्य मांहि घाली आज्ञा दे तिहां गमनादिक नीं आज्ञा थइ । - जे ग्रहस्थ पूछे - मन, वचन, काया राजोग भला प्रवर्त्तावु तिवारी ? साधु कहै प्रवर्त्ता । इम साधु आज्ञा देव, ते काया भली किम प्रवत्तं । ऊभो हुवै तो बैस बहिरा, बेठो हुवे तो ऊभो थइ बहिरावं, साहमी वस्तु पड़ीं तो चालन बहरावं इत्यादिक निरवद्य चालवो प्रमुख आज्ञा मांहि आयो, इम उपयोग सहित निरवद्य गमनादिक प्रशस्त कार्याविनय जाणवो । अने व्यापारादिक सावज्ज कार्य अर्थे जयणा सहित जोय-जोय ने चाले ते चालवो सावज्ज छे। अने रसत में जीव ऊपर पग न दियो तो ते हिंसा नों पाप न लागो, पिण ते पगलो भरं ते छ । | पगले पगले व्यापार रूप सावज्ज सावज्ज कार्य नजदीक करें छं ते भणी ए गमनादिक प्रशस्त कार्याविनय नथी ।' हि अपसत्थ कार्याविनय कहै - ' ( ज. स. ) ८५. अथ स्यूं ते अपसत्थ- कार्याविनय कहिवाय ? अपसत्थ तनु-विनयो, सप्त प्रकारे ताय ॥ ८६. 'अणाउत्तं गमणं, गमन उपयोग रहीत । घुर भेद कह्यो ए. अर्थ वा नों संगीत || ८७. जावत अणाउत्तं, सर्व इंद्रिय व्यापार । तेनांज प्रयोग नीं, संयोजना अवधार ॥ भगवती जोड़ २२६ ८५. से कि अपत्य कायविए ? अध्ययत्यकारविर सत्तविहे पत्ते, जहा ८६. अणाउत्तं गमणं ८०. जाब अणाउतं सन्विदियजोगणा । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८. सेत्तं अप्पसत्थकायविणए । सेत्तं कायविणए । (श. २५१५९६) ८९. से कि तं लोगोवयारविणए ? लोगोवयारविणए सत्तविहे पत्ते, तं जहा - ९०. अब्भासवत्तियं, वा.-'अब्भासवत्तियं' ति अभ्यासो गौरव्यस्य समीपं तत्र वत्तितुं शीलमस्येत्यभ्यासवर्ती तद्भावोऽभ्यासवर्तित्वं, अभ्यासे वा प्रीतिक-प्रेम, (वृ प. ९२५) ९१. परच्छंदाणुवत्तियं, वा.---'परछंदाणवत्तियं' ति परस्य-आराध्यस्य छन्द : अभिप्रायस्तमनुवर्तयतीत्येवंशीलः परच्छन्दा नुवर्ती तद्भावः परच्छन्दानुवत्तित्वं (बृ. प. ९२५) ९२. कज्जहेउं, वा०-ए अप्रशस्त कायविनय निवर्तन द्वार करिक जाणवो। ८८. इतरै ए अपसत्थ-कायविनय आख्यात । का कायविनय ए, वारू रीत विख्यात ।। लोकोपचार विनय ८९. अथ स्यूं ते कहिये, विनय लोक-उपचार ? ते सप्त प्रकारे, दाख्यो श्री जगतार ।। ९०. 'अब्भासवत्तिय', गौरव्य समीप ताय । वर्तिवा नुं शील जसु, तास भाव सुखदाय ।। वा०-अभ्यास कहिय गौरव्य नै समीप तेहन विषे वर्तवा नुं शील जेहनु इति अभ्यासवर्ती । तेहनों भाव ते अभ्यासवर्तीपणुं । अथवा अभ्यास नै विष प्रीति प्रेम । जिम सेठ नै समीपे वाणोत्तर रहितो हुँतो द्रव्य लाछ पाम, तिम गुरु समीपे शिष्य रहितो ज्ञानादिक पामै । ९१. आराधन जोग्यज, तसु छंदै अभिप्राय । वर्त्तवा नुं शील जसु, 'परच्छंदाणुवत्तियं कहाय ।। वा०–पर कहिये आराधवा जोग्य, तेहर्नु छंद कहिये अभिप्राय, तेह प्रति अनुवर्तन नुं शोल जेहन ते परच्छंदानुवर्ती, तेहगें भाव ते परच्छदानुवर्तीपणुं । जिम वाणोत्तर सेठ नै छांदै चाल, तिम शिष्य गुरू ने कड़े प्रवत् । ९२. ज्ञानादि निमित्तज, भक्तादिक नुं दान । देवू ते कहिये, कार्य हेतु जान ।। वा०-'कज्जहेउं' कहितां ज्ञानादि कार्य निमित्त भक्तादिक दान इसो जाणवो । जिम वाणोत्तर नै धनादि कारणे सेवै तिम शिष्य ज्ञानादिक कारणे सेवै गुरु नै भात-पाणी आणी आपै । ९३. कयपडिकइया ते, विनय थकी गुरुराय । चित्त प्रसन्न थयां मुझ, श्रुत भणावस्यै ताय ।। ९४. इण अभिप्राय करि, असनादिक दै आण । भगवती वृत्ति में, आख्यो इह विध जाण ।। ९५. कयपडिकिरिया इम, मुझ ने एण भणायो। इम जाण भक्तादिक, दिये उववाइ मांह्यो । वा० - सेठ महिरै अति गुण कीधो तो हइ सेठ नां कार्य करूं तिम जिणे गुरु भणाव्यो तो हूंइ गुरु नों विनय भक्ति करूं । ९६. आत तेह ग्लान नै, ओषधादिक नों जेह । शुद्ध करै गवेषण, आर्तगवेषण तेह ।। वा० .. 'अत्तगवेसणया' नों अर्थ - आर्त ते ग्लानीभूत प्रति गवेस ओषधि भेषजादि करिक जे ए आतंगवेषण तेहनु भाव ते आत-गवेषणता । जिम लोकिक पक्षे कोइ अनाथ हुवे, तेहनों कार्य कर सहाज्य दीय, तिम कोइ अनाथ यति हुदै तेहनै आर्त ऊपनी जाणी तेहनी गवेषणा कर तेहनों वेयावच्च करै । ९७. प्रस्ताव अने वलि, अवसर जाणी जेह । कर गुरु नी व्यावच, देश कालज्ञ तेह ।। वा०-- 'कज्जहेउ' ति कार्यहेतोः-ज्ञानादिनिमित्तं भक्तादिदानमिति गम्यं । (व.प. ९२५) ९३,९४. कयपडिक इया, 'कयपडिकइय' त्ति कृतप्रतिकता नाम विनयात्प्रसादिता गुरवः श्रुतं दास्यन्तीत्यभिप्रायेणाशनादिदानप्रयत्नः। (वृ प. ९२५) ९५. ..."कयपडिकिरिया... [ओवाइयं सू ४०] 'कयपडिकिरिय' त्ति अध्यापितोऽहमनेनेति बुद्ध्या भक्तादिदानमिति । [औप. व. प. ८१] ९६. अत्तगवेसणया, वा०-'अत्तगवेसणय' त्ति आर्त्त-ग्लानीभूतं गवेषयति भैषज्यादिना योऽसावात्तगवेषणस्तद्भाव आर्तगवेषणता । वृ. प ९२५) ९७. देसकालण्णया, 'देसकालण्णय' त्ति प्रस्तावज्ञता-अवसरोचितार्थसम्पादनमित्यर्थः (व. प. ९२५) देशकालण्णता -देश काल प्रति जाणे प्रस्ताव नै जाणपणे अवसर जोग्य अर्थ उपजायवो इत्यर्थ । श० २५, उ०७, ढा० ४६५ २२७ Jain Education Intemational Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८. आराधवा जोग्य नां, सर्व प्रयोजन विषेह । अनुकूलपणुं जेहनु, प्रतिकूल नहीं वह ।। ९८. सव्वत्थेसु अप्पडिलोमया, 'सब्वत्थेसु अपडिलोमय' त्ति सर्वप्रयोजनेष्वाराध्यसम्बन्धिष्वानुकल्यमिति । (व, प. ९२५) ९९. सेत्तं लोगोवयारविणए । सेत्तं विणए। (श. २०५९७) ९९. इतलै ए आख्यो, विनय लोक-उपचार । तप विनय का ए, वारू करि विस्तार ।। १००. च्यारसौ नैं पैसठमी, आखी ढाल उदार । भिक्षु भारी रायशशि, 'जय-जश' हरष अपार ।। ढाल : ४६६ वैयावत्य दूहा १. अथ स्यं वेयावच्च ते ? वेयावच्च दश भेद । भक्त पान आदे करी, उपष्टंभ संवेद ।। २. वेयावच्च आचार्य न, उपाध्याय नुं ताय । त्रिविध स्थविर जन्मादि जे, वय अरु श्रुत पर्याय ।। १. से कि तं वेयावच्चे ? वेयावच्चे दसविहे पण्णत्ते, तं जहा ३. तप अठमादिक कारको, तेह तपस्वी जाण । ग्लान रोगी मुनि तणुं, नव शिष्य नुं पहिछाण ।। २. आयरियवेयावच्चे, उवज्झायवेयावच्चे, थेरवेयावच्चे, 'थेरवेयावच्चे' त्ति इह स्थविरो जन्मादिभिः। (व. प. ९२५) ३. तवस्सिवेयावच्चे, गिलाणवेयावच्चे, सेहवेयावच्चे, 'तवस्सिवेयावच्चे' त्ति तपस्वी चाष्टमादिक्षपकः । (व. प. ९२५) ४. कुलवेयावच्चे,गणवेयावच्चे, संघवेयावच्चे, ५. साहम्मियवेयावच्चे। ६. सार्मिक: साधुः साध्वी वा, (औप. व. प. ८१) ४. फुन कुल गण संघ नुं का , इहां अर्थ नहीं ख्यात । अष्टम शत ने अष्टमें, आख्यो पूर्व सुजात ।। ५. फुन सार्मिक नुं कां, वृत्तिकार इह स्थान । ___ अर्थ प्रगट खोल्यो नथी, अन्य सूत्र थी जान ।। ६. उववाई वृत्ति में कां, चिहुं पद अर्थ पिछाण । साधु अथवा साधवी, ते साधर्मिक जाण ।। ७. कुल ते गछ-समुदाय छै, गण ते कुल-समुदाय । ___ संघ ते गण-समुदाय छै, इम आख्यो वृत्ति मांय ।। ८. दशमें ठाणे वत्ति में, नव पद अर्थ न ख्यात । सार्मिक साधु कह्या, सदृश्य धर्म सुजात ।। ९. इतलै वेयावच्च कह्यो, षटविध भितर माय । तृतीय भेद ए आखियो, अथ वर तुर्य सज्झाय ॥ ७. कुलं गच्छसमुदायः गणः कुलानां समुदायः संघो गणसमुदाय इति । (औप. वृ. प. ८१) ८. 'साहम्मिय' त्ति समानो धर्मः सधर्मस्तेन चरन्तीति सार्मिका:-साधवः । [स्था. वृ. प. ४४९] ९. सेत्तं वेयावच्चे। (श. २५१५९८) स्वाध्याय *सांभल हो गुणीजन, वारू तो तप विध श्री जिन वागरै ।। (ध्रुपदं) *लय : महिला तो बैठो हो राणी कमलावती २२८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. से कि त सज्झाए ? सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा वायणा, ११. पडिपुच्छणा, परियट्टणा, १२. अणुप्पेहा, धम्मकहा । से तं सज्झाए । (श. २२५९९) १३. से कि त झाणे? झाणे चाउम्बिहे पण्णत्ते, तं जहा - अट्टे झाणे, रोहे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे । (श. २५।६००) १४. अट्टे झाणे चउविहे पण्णत्ते, त जहा १५. अमणण्णसंपयोगसंपउत्ते तस्स विप्पयोगसतिसमन्ना गए यावि भवइ, १०. अथ स्यूं पवर सज्झाय कहीजिये ? स्वाध्याय पंच प्रकार । प्रथम वाचना ते तो वाचवू, सीखै सुगुरु पै सार ।। ११. दूजो तो भेद कह्यो पडिपुच्छणा, पुछवू अर्थ प्रकार। परियट्टणा बार-बार भणिवू तिको, भणिया नों गुणवू सार ।। १२. अनुप्रेक्षा वर अर्थ नं, चितववं मन माय । धर्मकथा ते कहिवं धर्म , ए पंच प्रकार सझाय ।। ध्यान के प्रकार १३. अथ स्यूं ते ध्यान कवण ? इम पूछियो, ध्यान ते चतुर प्रकार। आर्त रोद्र अशुभ बे टालिय, धर्म शुक्ल दिल धार ।। आर्तध्यान १४. आर्त ध्यान प्रथम आखियो, विषय नं रजत जेह । चतुर प्रकार कह्या छै तेहनां, सांभलजो चित्त देह ॥ १५. अणगमता शब्द रूपादिक तेहनं, संजोग ऊपनों तिवार। तेहन विजोग तीव्र चित्त वांछिय, जाणे ए परहा जास्य किणवार ।। १६. मनगमता शब्द रूपादिक तेहन, संजोग ऊपनों तिवार । तेहनां अविजोग तीव्र चित्त चितवै, एहनुं विरह म थावो किवार ।। १७. आतंक रोग सूलादिक तेहनु, " संजोग मिलियो तिवार । तेहनं विजोग तीव्र चित्त वांछवं, एहनुं विरह थास्य किणवार ।। १८. सेविवा जोग्य काम अरु भोग र्नु, संजोग ऊपनों तिवार । तेहनं अविजोग चितवै मन विषे, एहन विजोग म थावो किवार ।। १९. आत ध्यान तणां जिनराज ए, लक्षण आख्या चार। कंदणया ते मोटै शब्दे करी, रडिवो आक्रंद करिवो अपार ।। २०. सोयणया कहितां दोनपणुं धरै, तिप्पणया कहितां ताम । विमनपणे आंसू नों न्हाखवो, ए तृतीय लक्षण कह्यो आम ।। २१. विलवणया कहितां जेह वली, बोलवो क्लिष्ट वचन । जंपैहा देव! वलि हा देव! जी, इत्यादि वयण कथन ।। १६. मणुण्णसंपयोगसंपउत्ते तस्स अविप्पयोगसतिसमन्ना गए यावि भवइ, १७. आयंकसंपयोगसंपउत्ते तस्स विप्पयोगसतिसमन्नागए यावि भवइ, १८. परिझसियकामभोगसंपयोगसंपउत्ते तस्स अविष्पयोग सतिसमन्नागए यावि भवइ। (श. २५।६०१) १९. अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा-कंदणया, 'कंदणय' त्ति महता शब्देन विरवणं । (वृ. प. ९.६) २०. सोयणया, तिप्पणया 'सोयणय' त्ति दीनता 'तिप्पणय' त्ति तेपनता तिपः क्षरणार्थत्वादश्रुविमोचनं (वृ. प. ९२६) २१. परिदेवणया। (श. २५६०२) 'परिदेवणय' ति परिदेवनता-पुनः पुनः क्लिष्टभाषणतेति। (व. प. ९२६) श० २५, उ० ७, ढा०४६६ २२९ Jain Education Intemational Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रौद्रण्यान २२. चिहुं विध रोद्र ध्यान जिन आखियो, हिसानुबंधी जान | जीव हिंसा नुं चितविवु जिको, तेह निरंतर ध्यान ॥ २३. सत्व भणी जे सोय, अनेक प्रकारे जोय, २४. जे निरंतर जान प्रवर्ती करिया तणुं । तास शील प्रणिधान, छै जसु ते हिसानुबंध || वा० सत्वां ने वधबंधनादि प्रकारे करी पीड़ा तेह प्रतं अनुबंध निरंतर प्रवर्त्ती प्रत करें एहवो शील जेह प्रणिधान ते चितविवूं ते हिसानुबंधी अथवा हिसानुबंध जिहां छं ते हिसानुबंधी । - सोरठा वध बंधन बेघादि । उपजावं पीड़ा प्रते । २५. मोसाणुबंधी जेह मृषा तणुं चितवितुं मन मांहि । पिशुन अलीक वचन अछते करी चित्त अनुबंध ताहि ॥ २६. तेयाणुबंधी ते चोरी तणुं चितव मन मांहि । चोर नुं कर्म तीव्र क्रोधादि जे, आकुलपणें करि ताहि ॥ २७. सारवणानुबंधी' ए कहां सर्व उपाय करेह । विषय नां कारण तणोंज राखवो, तसु अनुबंधी एह ॥ २३० २८. लक्षण च्यार कह्या फुन रोद्र नां, उसन्न दोष धुर भेद । 'हिंसामोसा तेयाणुबंधी' जे, 'सारस्वणानुबंधी' संवेद || २९. पूर्व आख्या या मांहिलो दोष एक सेवेह बहुलपणेज तीव्र भावे करी, उसन्न दोष कह्यं, तेह ॥ ३०. हिसाणुबंधी आदि व्याहं विपे, प्रवर्तका रूप दोष । ते बहु दोष भेद दूजो कह्यो, ए च्यारूं विषे चित्त पोष ।। ३१ कुशास्त्र संस्कार जे ते थकी, हिंसादि अधर्म विषेह धर्म जाणी प्रवर्ती दोष जे, ते अज्ञान दोष कहेह || ३२. आमरणंत दोष चोथो कह्यो, मरण अंत लग जोय । कालशोकरिकादिक तेहनीं परै, हिंसादि प्रवृत्ति होय ॥ भगवती जाड़ 1 २२. रोहे भागे पिते तं जहा हिसा बंधी, वा० - 'हिंसाणबंधि' त्ति हिंसा-सत्त्वानां वधबन्धयन्नादिभिः प्रकारैः पीडामनुबध्नाति सतत प्रवृत्तां करोतीत्येवंशीलं यत्प्रणिधानं हिसानुबंधो वा यत्रास्ति तद्धिसानुबन्धि (बृ. प. ९२६) २५. मोसाणुबंधी, 'मोसाणुबंधि' त्ति मृषा --असत्यं तदनुबध्नाति पिशुनासत्या सद्भूतादिभिर्वचनभेदैस्तन्मृषानुबन्धि ( वृ. प. ९२६) २६. तेयाणुबंधी, 'तेयाणुबंधि' ति स्तेनस्य चीरस्य कर्म स्तेयं ती कोणाला तदनुबन्धयत् स्तेयानुबन्धि । २७. सारखणाणुबंधी । (बु.प. ९२६) (२५६०३) 'सारखवणाधिति संरक्षणे सर्वोपायैः परिवा विषयसाधनस्य धनस्यानुबन्धो यत्र तरसंरक्षणानुबन्धि, ( वृ. प. ९२६ ) २८, २९. रोट्स्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा - ओस्सन्नदोसे, 'ओस्सन्नदोसे' त्ति 'ओस्सन्नं' ति बाहुल्येनअनुपतत्वेन दोषो हिसाऽनृतादत्ता दानस रक्षणानामन्यतम ओसन्नदोषः (बु. प. ९२६) ३०. बलदो 'बहुदो' तिष्यपि सर्वेष्वपि हिंसादिषु ४ दोषः प्रवृत्तिलक्षणो बहुदोषः। (पु. प. ९२६) ३१. अण्णाणदोसे, 'अन्नाणदोसे' त्ति अज्ञानात् कुशास्त्र संस्कारात् हिसादिषु अधम्मैस्वरूपेषु धर्मबुद्धया या प्रवृत्तिस्तल्लक्षणो दोषोऽज्ञानदोषः । (पु.प. ९५६) ३२. आमरणंतदोसे । (स. २२/६०४) 'आमरणं तदोसे' त्ति मरणमेवान्तो मरणान्तः आमरणान्ताद्-आमरणान्तमसं जातानुतापस्य कालकशौकरिकादेवि या हिंसादिप्रवृत्तिः सैव दोषः आमरणान्तदोषः । ( वृ. प. ९२६ ) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. धम्मे झाण चउब्बिहे च उप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा धर्मध्यान ३३. चिहुं विध धर्म ध्यान वर च्यार जे, भेद लक्षण अवधार । आलंबन अनुप्रेक्षा में अवतरै, तिण सुं प्रत्यवतार कह्या च्यार ।। वा.-धम्मे झाणे-ध्यान चतुरविध तथा च्यार प्रत्यवतार एतल भेद १, लक्षण २, आलबन ३, अनुपेक्षा ४ ए च्यार पदार्थ नै विषे प्रत्यवतार कहितां विचारवा जोग्यपण करी समवतार छ जे धर्मध्यान नै ते चतुर प्रत्यवतार कहिये अथवा चतुरविध शब्द नों हीज ए पर्याय । ३४. आज्ञा कहितां जिन प्रवचन तेहर्नु, विचय निर्णय जिहां होय । प्राकृत भाव थको विजए का , ते आणाविजए जोय ।। वा० --'चउप्पडोयारे' त्ति चतुर्ष भेदलक्षणालम्बनानुप्रेक्षा ४ लक्षणेषु पदार्थेषु प्रत्यवतारः समवतारो विचारणीयत्वेन यस्य तच्चतुष्प्रत्यवतारं, चतुर्विध शब्दस्यैव पर्यायो वाऽयम्, (वृ. प. ९२६) ३४. आणाविजए, 'आणाविजते' त्ति आज्ञा--जिनप्रवचनं तस्या विचयो-निर्णयो यत्र तदाज्ञाविचयं प्राकृतत्वाच्च 'आणाविजए' त्ति, (वृ. प. ९२७) ३५. अवायविजए, अपाया -रागद्वेषादिजन्या अनर्थाः (वृ. प. ९२६) ३६. विवागविजए, विपाक:- कर्मफलं (वृ. प. ९२६) ३५. राग द्वेषादिक थी जे ऊपनों, अनर्थ जेह अपाय । तेहर्नु जे निर्णय चिंतन तेह विषे, ते अपायविजए कहिवाय ।। ३६. विपाक कहितां जे कर्म नां फल तणुं, विचय निर्णय जिहां होय । भेद तीजो ए धर्मज ध्यान नों, विवागविजए जोय ।। ३७. संस्थान लोक द्वीप दधि आदि जे, तेह तणों आकार । तेह तणं जे निर्णय छै जिहां, ए संठाणविजए विचार ।। धर्मध्यान के लक्षण ३८. फुन धर्मज ध्यान तणां लक्षण चिहं, __आज्ञा ते सूत्र नों व्याख्यान । तेह विष वा तिण करिक रुचि, आज्ञारुचि ते जान ।। ३७. संठाणविजए। (श. २५।६०५) संस्थानानि लोकद्वीपसमुद्राद्याकृतयः । (वृ. प. ९२६) ३८. धम्मस्स णं झाणम्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा--आणारुयी, 'आणारुइ' त्ति आज्ञा-सूत्रस्य व्याख्यानं नियुक्त्यादि तत्र तया वा रुचिः श्रद्धानं साऽऽजारुचिः । ३९. निसग्गरुयी 'निसग्गरुइ' ति स्वभावत एव तत्त्वश्रद्धानं ३९. निसर्ग कहितां जेह स्वभाव थी, तत्व तणोंज श्रद्धान । ए उपदेश विना जे सद्दह, निसर्गरुचि ए जान ।। सोरठा ४०. अथवा ए अवधार, स्वमति जातिस्मरण करि । तत्व तणों सुविचार, सद्दहै ते निसर्गरुचि ।। ४१. *आगम सूत्र थकी तत्व नु, सद्दहिवं शुद्ध उदार । तीजो ए लक्षण धर्मज ध्यान नों, सूत्ररुचि सुखकार ।। ४२. द्वादश अंग भणी अवगाहवे, विस्तार अधिगम जान । तिण करि रुचि जे श्रद्धा तत्व नीं, ते अवगाहरुचि मान ।। ४३. अथवा जे साधु तणे नजीक है, तसु उपदेश दै मुनिराय । तेह उपदेश थकी रुचि सद्दहणा, ते अवगाढरुचि कहिवाय ।। ४१. सुत्तरुयी, _ 'सुत्तरुइ' त्ति आगमात्तत्त्वश्रद्धानम (वृ. प. ९२६) ४२. ओगाढरुयी। (श. २५२६०६) 'ओगाढरुइ' त्ति अवगाढनमवगाढं द्वादशाङ्गाव गाहो विस्ताराधिगमस्तेन रुचिः (व. प. ९२६) ४३. अथवा 'ओगाढ' त्ति साधुप्रत्यासन्नीभूतस्तस्य साधू पदेशाद् रुचिरवगाढरुचि:, (वृ. प. ९२६) श० २५, उ०७, ढा०४६६ २३१ Jain Education Intemational Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान के आलम्बन ४४. च्यार आलंबन धर्मज ध्यान नां, धर्मध्यान रूप सौध जान । शिखरे चढतो आलंबिये, दोरड़ी जिम पहिछाण || ४५. वाचना घुर आलंबन जाणवो, पडिपुच्छणा प्रश्न पूछेह । परियट्टा गुणवो भणिया तणों, धर्मकथा तुर्य लेह || धर्मध्यान की अनुप्रेक्षा ४६. चारू जे धर्मध्यान छै तेहनीं, अनुप्रेक्षा कही च्यार । सर्व प्रकार करी आलोचना, कहियै छे ते सार ॥ ४७. जीव परभव थी आयो एकलो, एकलो जास्यै सोय । एहवी विचारण चिंतन रूप जे, ते एगत्ताणुप्पेहा जोय ।। ४८. ए संसारिक सर्व पदार्थ अनित्य छै, एक धर्म छै नित्त । एहवी विचारण चिंतन रूप जे, ते अनिप्पेा पवित्त ॥ ४९. एह संसार विषे जे जीव नं. एहवी विचारण चितन रूप जे, ए असरणाणुप्पेहा कहाय ॥ ५०. गति आगति फिरवो संसार छे, जनक मरी सुत वाय । इत्यादि विचारणा जे भावना, ते संसाराणुप्पेहा कहाय ॥ धर्म विना सरण कोइ नांव शुक्लध्यान ५१. चिहुं विध शुक्लध्यान वर प्यार जे आलंबन अनुप्रेक्षा में अवतरै, २१२ भगवती जोड भेद लक्षण अवधार । वा० शुक्ल ध्यान निरंजन रूप तेहवो, तेनां व्यार प्रकार १, च्यार लक्षण २, प्यार आलंबन ३, च्यार अनुपेक्षा रूप ४ – ए च्यारविध ते च्यार पदार्थ नैं विषे प्रत्यवतार अवतारो छ जेहनुं ते एक-एक नां च्यार च्यार प्रकार एतल च्यार चउक सोलै प्रकार कह्या । एतले शुक्लध्यान च्यारविध तथा भेद १, लक्षण २, आलंबन ३, अनुपेक्षा ४ – ए प्यार ने विषे शुक्लध्यान अवतरं । ते मार्ट शुक्लध्यान च्यार प्रत्यवतार कह्यो। ए चतुरविध शब्द नों हीज पर्यायवाची जाणवुं । तिणसूं प्रत्यवतार कह्या च्यार ॥ ५२. पृथकवितर्कसविचारी को एक द्रव्य रेमांव उत्पन्न ध्रुव विगम भेद करि विचारवं ते पृथकवितर्क कहिवाय ॥ ४४. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा; पण्णत्ता, तं जहा ''धियान सोपशिखरारोहणार्थं यान्यासम्स्यन्ते तान्यालम्बनानि वाचनादीनि (बृ. प. ९२६) ४५. वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्टणा, धम्मकहा । (श. २५६०७ ) ४६. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा 'अप्पेह' त्ति धम्मंध्यानस्य पर्यालोचनान्यनुप्रेक्षा ४०. एगलाहा, ४८. अभिवाहा, ४९. असरणाणुप्पेहा, ५०. संसाराहा 1 पश्चात्प्रेक्षणानि - ( बु. प. ९२६) (श. २५४६०८ ) ५१. झाणे उम्हेि चउडोवारे पणते तं जहा १२. विपारी, 'पुहुत्तवियक्के सवियारे' त्ति पृथक्त्वेन – एकद्रव्याश्रितानामुत्पादादिपर्यायाणां भेदेन वितर्कों—विकल्पः (बृ. प. ९२६) Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. पूर्वगतश्रुतालम्बनो नानानयानुसरणलक्षणो यत्र तत्पृथक्त्ववितर्क (वृ. प. ९२६) ५३. ए पूर्वगत श्रुत आलंबन नै विषे, नानाविध नय नुं तास । पवर अनुसरणहार जेहनै विषे, ए पृथकवितर्क विमास ॥ ५४. अर्थ थकी जे व्यंजण नै विषे, व्यंजन थकी अर्थ माय । विचार सहित मन संचारिवं, ते सविचारी कहिवाय ।। ५४. तथा विचारः - अर्थाद्वयजने व्यञ्जनादर्थे मन: प्रभृतियोगानां चान्यस्मादन्यस्मिन् विचरणं सह विचारेण यत्तत्सविचारि, (वृ. प. ९२६) वा०-पुहत्तवित्तक्के सवियारे-ए एक द्रव्य नै विषे रह्या पृथक ते उत्पाद, ध्रुव, विनासादि पर्याय नै भेदे करी। उप्पन्ने कहिता ए पर्याय किम ऊपनों १, ध्रुवे कहिता केतला काल नी स्थित ते केतला काल लग रहिस्य २ विगए कहिता ए विणसस्य ३ इम पृथक कहितां जूओ-जूओ, वितर्क कहिता विचारिवं, ए पर्याय नुं विचार ते पूर्वगत श्रुत आलंबन नै विषे नानाविध नय नु अनुसरण लक्षण एहवं छ तेहनै विषे ते पृथक वितर्क कहिये । अनै सवियारी कहितां अर्थ थकी व्यंजन – विषे, व्यंजन थकी अर्थ नै विषे, मनादिक जोग नों अनेरा थकी अनेरा नै विषे संचारिवं ते विचार अनै विचार सहित प्रवत्त ते सविचारी एतले द्रव्य पर्याय नां भेद नो विचार ए पहिलो भेद शुक्ल ध्यान नों १।। ५५. एकत्ववितर्कअविचारी कां.. उत्पादादिक पर्याय । ते माहै एक पर्याय आलंबन, वितर्क विचारवं ताय ।। ५६. ए पूर्वगत श्रुत पूर्वगत मति विषे, व्यंजन रूप सहाय । ___ अथवा जे अर्थ रूप चिंतन जसु, ते एकत्ववितर्क कहाय ।। ५५,५६. एगत्तवितक्के अवियारी, 'एगत्तवियक्के अवियार' त्ति एकत्वेन अभेदेनोत्पादादिपर्यायाणामन्यतमैकपर्यायालम्बनतयेत्यर्थः वितर्क:पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तदेकत्ववितर्क, (व. प. ९२६) सोरठा ५७. भगवती वृत्ति मझार, पूर्वगत श्रुत अश्रुत जे। ए दोन अवधार, तिणसुं श्रुत मति बिहुँ कह्या ।। ५८. वत्ति तणी पर्याय, तेह विषे इम लेख है। पूर्वगत श्रुत ताय, अश्रुत पूर्वगत मति ।। ५९. उववाई वृत्ति मांहि, पूर्वगत श्रुत आश्रय । व्यंजन रूपज ताहि, अर्थ रूप वा छै जसु ॥ ६०. *नहीं छै विचार अर्थ व्यंजन तणों, अन्य थी अन्य विषे धारि। अविचारी तणों अर्थ ए आखियो, ___ए एकत्ववितर्क अविचारि ॥ ६१. तथा नहीं छै विचार मनादिक जोग न, ___ अन्य थी अन्य विषे जसु धारि । अविचारी तणों अर्थ ए आखियो, एकत्ववितर्क अविचारि ॥ ६२. एकत्ववितर्कअविचारी तणुं, एह अर्थ आख्यात । इक पर्याय अवलंबी थिर रहै, जिम दोपज घर निर्वात ।। ५९. वितर्कः पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यंजनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तदेकत्ववितर्कम् । (औप. वृ. प. ८४) ६०. तथा न विद्यते विचारोऽर्थव्यञ्जनयोरितरस्मादितरत्र (वृ. प. ९२६) ६१. तथा मन:प्रभृतीनामन्यस्मादन्यत्र यस्य तदविचारीति २, (व. प. ९२६) *लय : महिला तो बैठी हो राणी कमलावती श० २५, उ० ७, ढा० ४६६ २३३ Jain Education Intemational ation Interational Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. सुहुमकिरिए अणियट्टी, 'सुहम किरिए अणियट्टि' त्ति सूक्ष्मा क्रिया यत्र निरुद्धवागमनोयोगत्वे सत्यर्द्धनिरुद्धकाययोगस्वात्तत्सूक्ष्मक्रियं न निवत्तंत इत्यनिवति । (व. प. ९२६) ६४. वर्द्धमानपरिणामत्वात्, एतच्च निर्वाणगमनकाले केवलिन एव स्यादिति (वृ. प. ९२६) वा० –'एगत्तवितक्के अवियारे' एहनों अर्थ-एकपण करी ते अभेदे करी ते भेद नहीं एकज उत्पादादिक तीन मांहिलो एक ने उप्पन्ने वा १ धुवे वा २ क्गिए वा ३ एती पर्याय मांहिली एक पर्याय नै आलंबव करी एहवा जे वितर्क चितवन ए पूर्वगत श्रुत अश्रुत नै विषे व्यंजनरूप अथवा अर्थरूप जेहन ते एकन्ववितर्क । तथा नहीं छै विचार अर्थ व्यंजन नै अन्य थकी अन्य नै विषे जेहन । तथा नहीं छ विचार मनादिक जोग नों अनेरा थकी अनेरा नै विषे संचारिव जेहनु, ते वायु रहित घर नै विषे दीवा नी परै। ते अविचारी एतल उत्पाद, स्थिति, विनाशादिक नां पर्याय माहिलों एक पर्याय नै विषे निरवाय घर दीवा नी पर निःप्रकंप चित्त, ते एकत्ववितर्कअविचारी ए बीजो भेद २। ६३. सुहुमकिरिये अनियट्टी का , सूक्ष्म किरिया छै जेह विषेह । मन वच जोग निरुद्धपणे छतै, अर्द्ध तनु जोग निरुद्ध थी जेह ।। ६४. प्रवर्द्धमान परिणामपणां थकी, पाछो निवर्तवू न होय । ए ध्यान निर्वाण-गमन काले हुवै, तेरमें गुणठाणे छेहड़े जोय ।। ६५. समुच्छन्नकिरिये अपडवाइ का, काय किरिया सर्वथा क्षीण । चवदमें गुण ए जोगज रुंधर्व, अपडवाइ ते न पड़े प्रवीण ।। शुक्ल ध्यान के लक्षण ६६. शुक्ल ध्यान तणां लक्षण चिह, क्षमा ते जीपवो क्रोध । मुक्ति निर्लोभपणुं सरलपणु, माईव नर्माइपणुं सोध ।। शुक्ल ध्यान के आलम्बन ६७. आलंबन शुक्ल ध्यान तणां चिहं, देवादिक उपसर्ग थी उपन्न । भय तथा चलणपणं तसु नहीं हुवै, ते अव्वहे अव्यथा सुजन्न ।। ६८. देवादिक कृत माया थी ऊपनां, फुन सूक्ष्म पदार्थ विषयो विचार । एहन जे मूढपणुं नहीं छै जसु, ते असंमोहे अवधार ।। ६५. समोछिण्णकिरिए अप्पडिवायी। (श २५।६०९) 'समुच्छिन्नकिरिए अप्पडिवाइ' त्ति समुच्छिन्ना क्रिया-कायिक्यादिका शैलेशीकरणनिरुद्धयोगत्वेन यस्मिस्तत्तथा अप्रतिपाति- अनुपरतस्वभावम्, (वृ. प. ९२६) ६६. सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा - खंती, मुत्तो, अज्जवे, मद्दवे । (श. २५२६१०) ६७. सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता, तं जहा- अब्बहे, 'अव्वहे' त्ति देवाधुपसर्गजनितं भयं चलनं वा व्यथा तदभावोऽव्ययम् (वृ. प. ९२६) ६८. असंमोहे, 'असमोहे' त्ति देवादिकृतमायाजनितस्य सूक्ष्मपदार्थविषयस्य च संमोहस्य -- मूढताया निषेधोऽसंमोहः । (वृ. प. ९२६) ६९. विवेगे, 'विवेगे' त्ति देहादात्मनः आत्मनो वा सर्वसंयोगानां विवेचनं-बुद्ध या पृथक्करणं विवेकः । (व. प. ९२६) ७० विउसग्गे। (श. २५।६११) 'विउसग्गे' त्ति व्युत्सर्गो-निस्सङ्गतया देहोपधित्यागः (बृ. प. ९२६) ६९. तनु थी आत्म बुद्धि करि जुदो करै, आत्म थी सर्व संजोग। बुद्धचा पृथक करिवू तेहन, एह विवेक प्रयोग ।। ७०. निसंगपणे करि देह उपधि न, त्याग ते तजव होय । विउसग्ग तास श्री जिन भाखियो, अमल चित्त अवलोय ।। २३४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ठाणांग ठाणे चउथे उद्देशे पहिले च्यार लक्षण कह्या - तिहां अव्वहे, असंमोहे, विवेगे, विउसग्गे । अन च्यार आलंबन कह्या खंत्ती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे । अनैं उबवाइ में शुक्लध्यान नां च्यार लक्षण कह्या - विवेग, विउसग्ग, अवहे, असंमोहे । अ इहां भगवती में क्षमादि च्यार लक्षण कह्या । अन अवहे प्रमुख च्यार आलंबन कह्या । एतलं फेर छँ तेहनुं न्याय बहुश्रुत विचार लेसी । शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षा " ७१. अनुप्रेक्षा शुक्लध्यान नीं चिहुं कही, वा० रुलियो अनंत भवे इम चित ७२. पुद्गल प्रमुख सह वस्तु तणु, क्षण-क्षण पलट परिणाम । बलि देवादिक नी ऋद्धि अस्थिर चितवे, ए 'विपरिणामापेहा' ताम ॥ ७३. संसार नुं अशुभपणुं चित्त चितव, पोतानां कलेवर मांहि कीड़ो हवं, रूप गर्वित मरी जेह । इत्यादिक चितवणाज करेह । सांभ हो गुणीजन ! ए 'असुभाणुप्पेहा' भेद तीजो को । ७४. हिंसादिक आश्रव थी अनर्थ हुवै, रागद्वेष थी दुक्ख ते अपाय । सांभल हो गुणीजन ! ते 'अनंतबत्तियाणुप्पेहा' मन्न || एहवी जे चित्त में चितवणा करें, भवसंतति नुं चितन्न । ते 'अवावाणुप्पेहा' कहाय । सेत्तं ए शुक्लध्यान प्रभु आखियो ।। ७५. इहां तप ने अधिकार, पसत्य सेविवे सार तप सोरठा अप्रशस्त ध्यानज वर्जवं । हम कहां वृत्ति में । 5 ७६. सेत्तं ए ध्यान अभितर तप तणुं, पंचम भेद आख्यात | शत पणवीसम सप्तमुद्देशके, कह्यो अर्थ रूप जगनाथ ॥ ७७. आखी ए च्यारसौ छासठमी, तास प्रसादे संपति गणवृद्धि, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय । 'जय जश' हरष सवाय ॥ ७१. सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा अतवत्तियाणुपेहा, 'अतवतिया' ति भवसन्तानस्यानन्तवृत्तिताऽनुचिन्तनं (बृ. प. ९२६,९२७) ७२. विपरिणामा 'विष्परिणामाणुप्पेह' त्ति वस्तूनां परिणामगमनानुचिन्तनम् ७२. अनुभा प्रतिक्षणं विविध( वृ. प. ९२७ ) " 'असुभाष्ये' ति संसाराभानुचिन्तनम् (बृ. प. ९२७) ७४. जवाया। 'अवायाणुप्पेह' त्ति अपायानां प्राणातिपाताद्याश्रवद्वारजन्यानर्थानामनुप्रेक्षा- अनुचिन्तनमपायानुप्रेक्षा, ( वृ. प. ९२७ ) ७५. इह च यत्तपोऽधिकारे प्रशस्ताप्रशस्तध्यानवर्णनं तदप्रशस्तस्य वर्जने प्रशस्तस्य च तस्यासेवने तपो भवतीति कृत्वेति । (बृ. प. ९२७) (श. २५.६१२) ७६. सेत्तं झाणे । श० २५, ३० ७ ० ४६५ २३५ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल:४६७ व्युत्सर्ग १. से कि तं विउसग्गे ? विउसग्गे दुबिहे पण्णत्ते, तं जहा-- दव्वविउसग्गे य, भावविउसग्गे य । (श. २५२६१३) २. से कि तं दववि उसग्गे? दध्वविउसग्गे चउम्विहे पण्णत्ते, तं जहा--गणविउसग्गे, ३. सरीरविउसग्गे, उवहिविउसग्गे, भत्तपाणविउसग्गे। सेत्त दम्वविउसग्गे। (श. २५।६१४) दूहा १. अथ स्यूं ते विउसग्ग को ? द्विविध विउस्सग देख । द्रव्य विउसग्ग धुर का, भाव विउस्सग पेख ।। *वारू जिन वागरे, भेद विउस्सग नां सुखकार रे ।। (ध्रुपदं) २. अथ द्रव्य विउस्सग स्यूं का ? द्रव्य विउस्सग च्यार प्रकार रे । गण-विउस्सग ते तजै गण प्रतै, जिनकल्पी प्रमुख अणगार रे ।। ३. तनु-विउस्सग तजै तनु भणी, उपधि-विउस्सग उपधि न त्याग रे । भक्त-पान-विउस्सग वली, का ए द्रव्य विउस्सग माग रे ।। वा०-शरीर नी सार-संभाल तज ते कायोत्सर्गादिक २। उपधि विउस्सग उपधि तज, एक वस्त्र एक पात्र उपरंत न राखै, कोइ एक पात्र पिण न राखै, चोलपटो तथा कडबंधण उपरंत वस्त्र पिण न राखै ३। भत्त-पाण विउस्सग ते भात-पाणी पचखी संथारो कर। ए सर्व निर्जरा री करणी छै ४। ए द्रव्य विउस्सग कह्यो। ४. अथ भाव-विउस्सग स्यूं कह्य ? भाव विउस्सग तीन प्रकार रे । कषाय संसार नै कर्म नं, तजव ते विउस्सग सार रे ।। ५. अथ कषाय-विउसग स्यूं का ? __ कषाय-विउसग च्यार प्रकार रे । क्रोध-विउसग धुर का, __तिको क्रोध न तजवो सार रे ।। ६. मान-विउस्सग दूसरो, माया-विउस्सग माया तजत रे । लोभ-विउस्सग लोभ प्रतै तज, ___ एह कषाय विउस्सग हुँत रे ।। ७. अथ संसार-विउस्सग स्यू तिको ? संसार-विउस्सग च्यार प्रकार रे। नारक-संसार-विउस्सग, आख्यो ए धुर भेद उदार रे ।। ८. जावत देव-संसार नु, तजवं ते विउस्सग जाण रे । देव-संसार-विउस्सग तिको, ए संसार विउस्सग माण रे ।। ४. से किं तं भावविउसग्गे ? भावविउसग्गे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- कसायविउसग्गे, संसारविउसग्गे, - कम्मविउसग्गे। (श. २५॥६१५) ५. से कि तं कसायविउसग्गे? कसाय विउसग्गे चउब्बिहे पण्णत्ते, त जहा-कोहविउसग्गे, ६. माणवि उसग्गे, मायाविउसग्गे, लोभविउसग्गे। सेतं कसायविउसग्गे। (श. २५।६१६) ७. से कि तं संसारवि उसग्गे ? संसारविउसग्गे चउम्विहे पण्णत्ते, तं जहा–नेरइयसंसारविउसग्गे ८. जाव देवसंसारविउसग्गे । सेत्तं संसारविउसग्गे । (श. २५।६१७) *लय : श्रेयांस जिनेश्वरू प्रणमं नित बेकर जोड़ २३६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. से किं तं कम्मविउसग्गे? कम्मविउसग्गे अदविहे पण्णत्ते, तं जहा-नाणावरणिज्जकम्मविउसग्गे १०. जाव अंतराइयकम्मविउसग्गे। सेत्तं कम्मविउसग्गे। सेत्तं भावविउसग्गे। वा.-'संसारविउसग्गो' ति नारकायुष्कादिहेतूनां मिथ्यादृष्टित्वादीनां त्यागः 'कम्मविउसग्गो' त्ति ज्ञानावरणादिकर्मबन्धहेतूना ज्ञानप्रत्यनीकत्वादीनां त्याग इति। (वृ. प. ९२७) ९. अथ कर्म-विउस्सग स्यूं तिको? कर्म-विउसग्ग आठ प्रकार रे। ज्ञानावरणी कर्म न तजिवं ते विउस्सग सार रे ।। १०. जाव अंतराय कर्म न तजवू ते विउस्सग जाण रे । कर्म-विउस्सग ए का , इतरै भाव-विउस्सग माण रे ॥ वा०-नारकादिक आयुखा नां हेतु मिथ्यादृष्टि आदि नों त्याग ते संसारविउस्सग । अनै कर्मविउस्सग ते ज्ञानवरणादि कर्म बंधन हेतु जे ज्ञानप्रत्यनीकादिकपणु तेहर्नु त्याग, इम वृत्ति में कह्यं । इहां कोइ पूछ-देव-संसार-विउस्सग किणनै कहीजै ? उत्तर- जे देव आयुखा नां बंध नां हेतु जे अध्यवसाय उलंघी श्रेणि चढ्यो तेहनै सुर आयुबंध हेतु नथी, ते माट देव-संसार-विउस्सग संभव । ए पिण निर्जरा री करणी जाणवी। कर्म-विउस्सग ते ज्ञानावरणी आदि कर्मबंध नों हेतु तजै तथा शुभध्यान शुभजोग सूं ज्ञानावरणीयादि कर्म हीणा करै ते कर्मविउस्सग । ए पिण निर्जरा री करणी जाणवी ३ । ११. एह अभितर तप कां, सेवं भंते ! सेवं भंत ! रे। अर्थ पणवीसम शत तणु, का, सप्तमुद्देशक तंत रे ।। १२. ढाल च्यार सौ ऊपरे, कही सतसठमी तंत सार रे । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, कांइ 'जय-जश' हर्ष अपार रे ।। पंचविंशतितमशते सप्तमोद्देशकार्थः ॥२५७।। ११. सेत्तं अभितरए तवे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. २५१६१८) (श. २०६१९) ढाल : ४६८ १. सप्तमोद्देशके संयता भेदत उक्तास्तद्विपक्षभूताश्चासंयता भवन्ति (वृ. प. ९२७) २. ते च नारकादयस्तेषां च यथोत्पादो भवति तथाऽष्टमेऽभिधीयते (वृ. प. ९२७) १. सप्तमुद्देशक नै विषे, आख्या संजत भेद । तेहनां विपक्षभूत जे, असंजता संवेद ।। २. तेह फुन नारक आदि छै, जिम व तसु उत्पाद । तिम अष्टम उदेशके, कहियै छै विधवाद ।। नरयिक आदि के पुनर्भव ३. नगर राजगृह नै विषे, जाव बदै इम वान । हे प्रभुजी ! जे नेरइया, ते किम ऊपजै जान ? _ *वीर कहै सुण गोयमा ! (ध्रुपदं) ४. वीर कहै सुण गोयमा ! से जहानामए जेहो रे । पवय कहितां जीव जे, कदतो जावै तेहो रे ।। ३. रायगिहे जाब एवं वयासी नेरइया णं भंते ! कह उववज्जति? ४. गोयमा ! से जहानामए पवए 'पवए' त्ति प्लवक:-उत्प्लवनकारी। (वृ. प. ९२७) *लय : चंदगुप्त राजा सुणे श०२५, उ०७, ढा० ४६७,४६८ २३७ Jain Education Intemational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ते उत्प्लुति करतो छतो, कूदी जाय अमक ठामो रे। एहवा तसु अध्यवसाय जे, निपजायवै करि तामो रे ।। ६. उत्प्लवन लक्षण जे क्रिया, तेहिज कही छै उपायो रे। ते अन्य स्थान प्राप्ति हेतु, कारण उपाय करि ताह्यो रे॥ ७. रह्यो हुँतो जे स्थानके, ते स्थानक छोड़ी तामो रे । काल अनागत नै विषे, पूर्व चितित स्थानक पामो रे।। ८. ते पूर्व चितित स्थान नैं, अंगीकार करी विचरंतो रे । इण दृष्टांते गोयमा ! कहिये ते पिण जंतो रे ।। ५. पवमाण अज्झवसाणनिव्वत्तिएणं 'पवमाणे' त्ति प्लवमानः- उत्प्लुति कुर्वन् 'अज्झवसाणनिव्वत्तिएण' ति उत्प्लोतव्यं मयेत्येवंरूपाध्यवसायनिवतितेन (व. प. ९२८) ६. करणोवाएण 'करणोपायेणं' ति उत्प्लवनलक्षणं यत्करण क्रियाविशेषः स एवोपायः- स्थानान्तरप्राप्ती हेतुः करणोपायस्तेन (व.प. ९२८) ७,८. सेयकाले तं ठाणं विप्पजहित्ता पुरिमं ठाणं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ, एवामेव एए वि जीवा 'सेयकाले ति एष्यति काले विहरतीति योगः, किं कृत्वा ? इत्याह'तं ठाणं' ति यत्र स्थाने स्थितस्तत्स्थानं 'विप्रजहाय' प्लवनतस्त्यक्त्वा 'पुरिम' ति पुरोवर्तिस्थानम् 'उपसम्पद्य' विहरतीति योग: 'एवमेव ते जीव' त्ति दार्टान्तिकयोजनार्थः, (वृ प. ९२८) ९. पवओ विव पबमाणा अज्झवसाण निव्वत्तिएणं 'अज्झवसाण निव्वत्तिएणं' ति तथाविधाध्यवसायनिर्वत्तितेन (वृ प. ९२८) १०,११. करणोवाएणं सेयकाले 'करणोवाएणं' ति क्रियते विविधाऽवस्था जीवस्यानेन क्रियते वा तदिति करणं कर्म प्लवनक्रियाविशेषो वा करणं करणमिव करणं - स्थानान्तरप्राप्तिहेतुतासाधात्कमैव तदेवोपायः करणोपायस्तेन । (वृ. प. ९२८) १२. तं भवं विप्पज हित्ता पुरिमं भवं उवसंपज्जित्ताणं विहरति । (श २२६२०) 'त भव' ति मनुष्यादिभवं 'पुरिमं भवं' ति प्राप्तव्यं नारकभवमित्यर्थः । (व. प. ९२८) ९. प्लवक नी परै जाणवा, उत्प्लूति करता जेहो रे । तथाविध अध्यवसाय जे, निपजायवै करि तेहो रे ।। १०. कर्म प्लवन क्रिया विशेष जे, करण तिको कहिवायो रे। अन्य स्थानक पामवा तणां, हेतुपणे करि ताह्यो रे ।। ११. तिणसं करण ने कर्म कहीजिये, तेह उपाय छै ताह्यो रे। तिण करण उपाय करी तिको, काल आगामिक मांह्यो रे ।। १२. ते मनुष्यादिक भव छोडने, पामवा जोग्यज जेहो रे । नारक नां जे भव प्रतै, अंगीकार करी विचरेहो रे ।। वा०-इहां गोतम पूछचो-नारक हे भगवन किम ऊपज ? हे गोतम ! यथानामे पबए कहितां कूदण वालो जीव ते पवमाण कहितां उत्प्लुति करतो अनै कुदी अमुक ठाम जायवो एहवै अध्यवसाय विशेषे निपजाब्या जे उत्प्लवन लक्षण जे क्रिया विशेष तेहिज उपाय ते स्थानंतर प्राप्ति हेतु तेणे करी आगामि काल नै विष जेह स्थानक नै विष रह्यो तेह स्थानक प्रत छांडी नै एतलै पूर्व चितित ठाम प्रत अंगीकार करिन विहरै। इण दृष्टांते तेह पिण जीव प्लवक नी पर उत्प्लुति करता थका तथाविध अथवा अध्यवसाय निवत्तित करण अथवा कर्म प्लवन क्रिया विशेष तेह कारण स्थानातर प्राप्ति हेतुपण करी आगामि काल नै विषे तेह मनुष्यादि भव प्रत छांडी नै पामवा जोग्य नारक भव प्रत अंगीकार करिने विहरै। १३. हे प्रभुजी ! ते जीव नें, किसी शीघ्र गति होयो रे । वलि शीघ्र गति नों किसो, विषय गोचर अवलोयो रे ।। १३. तेसि णं भते ! जीवाणं कह सीहा गती, कह सीहे गतिविसए पण्णत्ते? २३८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं १५. एवं जहा चोद्दसमसए पढमुद्देसए (१४॥३) जाव तिसमएण वा विग्गहेणं उववज्जंति १६. तेसि णं जीवाणं तहा सीहा गई, तहा सीहे गतिविसए पण्णत्ते। (श. २५२६२१) १४. श्री जिन भाखै गोयमा ! यथादृष्टांते जाणी रे । कोइ पुरुष तरुणो अछ, वलि बलवंत पिछाणी रे ।। १५. इम जिम चवदम शतक रे, कह्यो प्रथम उद्देशक मांह्यो रे । जावत तीन समय तणी, तथा विग्रह करि उपजायो रे ।। १६. ते जीव नी तिम शीघ्र गति कही, तिम शीघ्र गति में एहो रे । गोचर विषय परूपियो, वलि गोतम पूछेहो रे ।। १७. हे भगवंत ! ते जीवड़ा, किस प्रकार करेहो रे । परभव नां आयु प्रत, पकड़े बांधे तेहो रे ? १८. जिन कहै अध्यवसाय जे, जीव तणां परिणामो रे । योग ते मन वच काय नां, व्यापार कहिये तामो रे ।। १९. ए बिहुं करि निपजावियो, तथा करण उपाय कहायो रे । ते कर्मबंध हेतु करी, परभव आयु बंधायो रे ।। १७. ते णं भंते ! जीवा कह परभवियाउयं पकरेंति ? १८,१९. गोयमा ! अज्झवसाणजोगनिब्वत्तिएणं करणो वाएणं, 'अज्झवसाणजोगनिव्वत्तिएणं' ति अध्यवसानंजीवपरिणामो योगश्च-मन:-प्रभूतिव्यापारस्ताभ्यां निर्वत्तितो यः स तथा तेन 'करणोवाएणं' ति करणोपायेन-मिथ्यात्वादिना कर्मबन्धहेतुनेति । (वृ. प. ९२८) २०. एवं खलु ते जीवा परभवियाउय पकरेंति । (श. २५४६२२) २१ तेसि णं भंते ! जीवाणं कहं गती पवत्तइ ? २०. इम निश्चै ते जीवड़ा, परभव आयु बांधे रे । कर्म तणां जे बंध नां, हेतु करिक सांधे रे ।। २१. हे प्रभुजी ! ते जीव नै, किस प्रकार करेहो रे। गति प्रवत्तै छै तसु, परभव जाय जेहो रे? २२. जिन कहै आयुक्षय करी, भवक्षय स्थितिक्षय कीधै रे । इम निश्चै ते जीव नी, गति प्रवत्र्तं सीधै रे ।। २३. हे प्रभु ! स्यूं ते जीवड़ा, निज ऋद्धि करि ऊपजतारे। ___पर ऋद्धि करि ऊपजै, उत्पत्ति स्थान पावंता रे ? २४. जिन कहै आत्म ऋद्धि करी, परभव में ऊपजता रे । पर ऋद्धि करि नहीं ऊपजै, वलि गोतम पूछता रे ।। २५. हे प्रभु ! स्यूं ते जीवड़ा, निज कर्म करी उपजता रे । ___ के पर कर्मे करि जिके, परभव स्थान पामता रे ? २६. जिन कहै आत्म कर्म करि, परभव में उपजता रे । पर कमें नहीं ऊपजै, वलि गोतम पूछता रे ।। २७. हे प्रभु ! स्यूं ते जीवड़ा, आत्म प्रयोगे जाणी रे । परभव मांहै ऊपजै, पर प्रयोगे पिछाणी र? २८. जिन कहै आत्म प्रयोग करि, ऊपजै परभव मांह्यो रे। पिण पर प्रयोगे करी, परभव में नहीं जायो रे ।। २९. हे प्रभु ! असुर किम ऊपजै ? __ जिम नारक तिम ज्यांही रे ।। सह विस्तार कहीजिये, जाव पर प्रयोगे ऊपज नाही रे । ३०. इम एकेंद्रिय वर्ज नै, जाव वैमानिक धारो रे। इमज छै एगिदिया, णवरं विग्रह समया च्यारो रे ।। २२. गोयमा ! आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं, एव खलु तेसि जीवाणं गती पवत्तति । (श. २५॥६२३) २३. ते णं भंते ! जीवा कि आइड्ढोए उववज्जति ? परिड्ढीए उववज्जति ? २४. गोयमा ! आइड्ढीए उववज्जति, नो परिड्ढीए उववज्जति । (श. २५२६२४) २५. ते ण भंते ! जीवा कि आयकम्मुणा उबवज्जति ? परकम्मुणा उववज्जति ? २६. गोयमा ! आयकम्मुणा उववज्जति, नो परकम्मुणा उववज्जति। (श. २१६२५) २७. ते णं भते ! जीवा किं आयप्पयोगेणं उववज्जति ? परप्पयोगेणं उववज्जति ? २८. गोयमा ! आयप्पयोगेणं उववज्जति, नो परप्पयोगेणं उववज्जति। (श. २५१६२६) २९. असुरकुमारा णं भंते ! कहं उववज्जति? जहा नेरइया तहेव निरवसेसं जाव नो परप्पयोगेण उववज्जति । ३०. एवं एगिदियवज्जा जाव वेमाणिया। एगिदिया एवं चेव, नवर-चउसमइआ विरगहो । श० २५, उ०८,९ ढा०४६८ २३९ Jain Education Intemational Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. सेसं तं चेव। ३२. सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (श. २५।६२८) ३३. भवसिद्धियनेरइया णं भंते ! कहं उबवज्जंति ? गोयमा ! से जहानामए ३४. पवए पवमाणे, अवसेसं तं चेव जाव वेमाणिए । (श. २५।६२९) ३५. सेवं भंते ! सेवं भते ! ति। (श. २५१६३०) ३१. शेष तिमज कहि सह, उगणीस दंडक माह्यो रे । विग्रह गति तीन समय नीं, चिहं समय एकेंद्रिय थायो रे ।। ३२. सेवं भंते ! स्वामजी, जाव गोयम विचरंतो रे । पणवीसम शत अर्थ थी, अष्टमुद्देश ओपतो रे ।। पंचविंशतितमशते अष्टमोद्देशकार्थः ॥२५॥८॥ भवसिद्धिक का पुनर्भव ३३. भवसिद्धक जे नेरइया, किम ऊपजे जिनरायो रे ? जिन भाखै सुण गोयमा! यथादष्टांते ताह्यो रे ।। ३४. प्लवक कूदणहार जे, कूदंतो इत्यादो रे। शेष तिमज कहिवं सह, जाव वैमानिक वादो रे ।। ३५. सेवं भंते ! स्वामजी, पणवीसम शत पेखो रे । नवमुद्देशक न भलो, अर्थ अनुप विशेखो रे ।। __ पंचविंशतितमशते नवमोद्देशकार्थः ॥२५॥६॥ अभवसिद्धिक का पुनर्भव ३६. अभवसिद्धक नेरइया, किम ऊपजै जिनरायो रे ? प्रभु भाखै सुण गोयमा ! यथादृष्टांते ताह्यो रे ।। ३७. प्लवक कूदणहार जे, कूदंतो इत्यादो रे । शेष तिमज कहि सह, जाव वैमानिक वादो रे ।। ३८. सेवं भंते ! स्वामजी, पणवीसम शत पेखो रे। दशमुद्देशक नों भलो, अर्थ अनूप विशेखो रे ।। पंचविंशतितमशते दशमोद्देशकार्थः ॥२५॥१०॥ सम्यकदृष्टि का पुनर्भव ३९. समदष्टि जे नेरइया, किम ऊपजै जिनरायो रे ? जिन भाखै सुण गोयमा ! यथादृष्टांते ताह्यो रे ।। ४०. कूदणहारो कूदतो, शेष तिमज सहु कहियै रे । इक एकेंद्रिय वर्ज नै, जाव वैमानिक लहिये रे ।। ४१. सेवं भंते ! स्वामजी, पणवीसम शत पेखो रे। ग्यारमुद्देशक नों भलो, अर्थ अनूप विशेखो रे ।। पंचविंशतितमशते एकादशोद्देशकार्थः ॥२५॥११॥ मिथ्यादृष्टि का पुनर्भव ४२. मिथ्यादृष्टि नेरइया, किम ऊपज जिनरायो रे ? प्रभु भाख सुण गोयमा ! यथादष्टांते ताह्यो रे ।। ४३. प्लवक कूदणहार जे, कदंतो इत्यादो रे। शेष तिमज कहिवो सह, इम जाव वैमानिक वादो रे ।। ४४. सेवं भंते ! स्वामजी! पणवीसम शत पेखो रे। बारमुद्देशक नों भलो, अर्थ अनुप विशेखो रे ।। २४० भगवती जोड़ ३६. अभवसिद्धियनेरइया णं भंते ! कहं उववज्जति ? गोयमा ! से जहानामए ३७. पवए पवमाणे, अवसेसं तं चेव । एवं जाव वेमाणिए । (श. २५१६३१) ३८. सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति । (श. ३५.६३२) ३९. सम्मदिट्टिनेरइया ण भंते ! कह उवबज्जति ? गोयमा ! से जहानामए ४०. पवए पवएमाणे अवसेस तं चेव । एवं एगिदियवज्ज जाव वेमाणिए। (श. २५॥६३३) ४१. सेवं भंते ! संबं भंते ! ति। (श. २५/६३४) ४२. मिच्छदिट्टिनेरइया णं भंते ! कह उववज्जति ? गोयमा ! से जहानामए ४३. पवए पवमाणे, अवसेसं तं चेव । एवं जाव वेमाणिए । (श. २५१६३५) ४४. सेवं भंते ! सेवं भंते !!त्ति। (श. २५१६३६) Jain Education Intemational Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. कह्यो अर्थ पणवीसम शत तणों, च्यारसौ अड़सठमीं ढालो रे । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशालो रे ।। ४६. उगणीस चउवीस में, आसोज सुदि बीज रविवारो रे । ठाणा पचवन परवरा, सुजाणगढ सुखकारो रे ।। पंचविंशतितमशते द्वादशोद्देशकार्थः॥२५॥१२॥ गीतकछंद १. पणवीसमें शत न्याय बहुला क्वचित टीका थी कह्या। क्वचित चुणि क्वचित ही जे रव प्रवृत्ती थी लह्या ।। २. वलि क्वचित गम वाच्यविषयं । __ क्वचित विद्वत-वयण ही। फुन क्वचित ही महाशास्त्र अपरं आश्रयीज कह्या सही। १,२. क्वचिट्टीकावाक्यं क्वचिदपि वचश्चौर्णमनघं क्वचिच्छाब्दी वृत्ति क्वचिदपि गर्म वाच्यविषयम । क्वचिद्विद्वद्वाचं क्वचिदपि महाशास्त्रमपरं समाश्रित्य व्याख्या शत इह कृता दुर्गमगिराम् ।।१।। (वृ. प. ९२८) शा० २५, उ० १२, डा० ४६८ २४१ Jain Education Intemational Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशतितम शतक Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशतितम शतक ढाल : ४६९ १. नमो सुयदेवयाए भगवईए २. व्याख्यात पञ्चविंशतितमं शतम्, अथ षड्विंशतितम_मारभ्यते, (व. प. ९२८) ३. अनन्तरशते नारकादिजीवानामुत्पत्तिरभिहिता सा च कर्मबंधपूविका। (वृ. प. ९२८) ४,५. षड्विंशतितमशते मोहकर्मबन्धोऽपि विचार्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्य कादशोद्देशक प्रमाणस्य प्रत्युद्देशक द्वारनिरूपणाय तावदगाथामाह-- (व. प. ९२८) दूहा १. नमस्कार थावो निमल, श्रुतदेवता प्रतेह । भगवती ज्ञानवती प्रतै, भावे गुणनिधि गेह ।। सम्बन्ध योजना २. अनंतरे पणवीसमों, शतक बखाण्यो सार । ___ अथ षटवीसम शत तणुं, कहूं अर्थ अधिकार ।। ३. नारक आदिक जीव नीं, उत्पत्ति पूर्व आख्यात । कर्मबंधपूर्वक तिका, संसारिक नै थात ।। ४. ते माटै षटवीसमें, कर्मबंध सुविचार । इण संबंध कर एहनां, पवर उद्देश इग्यार ।। ५. इक-इक उद्देशा तणां, द्वार निरूपण अर्थ । गाथा प्रथम कहीजिये, जीव लेश्यादि तदर्थ ।। विषयवस्तु ६. जीव प्रति उद्देशके, बंध वक्तव्यता स्थान । __ लेश्या पाक्षिक दृष्टि फुन, ज्ञान अने अज्ञान ।। ७. संज्ञा वेद कषाय फुन, जोग अनें उपयोग । बंध वार्ता स्थान ए, एकादश सुप्रयोग ।। वा.–तिहां अनंतरोत्पन्नादिक विशेष रहित जीव आश्रयी एकादश उक्त रूप द्वार करिक बंध वक्तव्यता प्रथम उदेशक नै विषे कहै छपाप-कर्म बन्ध-अबन्ध पद ८. तिण काले नै तिण समय, नगर राजगृह जाण । जावत गोतम वीर नैं, वदं पवर इम वाण ।। _ *बंधी शत अर्थ सांभलो ।। (ध्रुपदं) ९. जीव प्रभु ! पाप कर्म स्यू, पूर्वे बांध्या ताय । हिवडां बांधै वलि बांधस्य ? ए धुर भंग कहाय ।। १०. काल अतीतज बांधिया, बांधै फुन वर्तमान । अनागते नहि बांधस्यै? द्वितीय भंग ए जान ।। ११. काल अतीतज बांधिया, नहिं बांधै वर्तमान । __अनागते वलि बांधस्य ? तृतीय भंग पहिछान ।। १२. काल अतीतज बांधिया, नहिं बांधै वर्तमान । अनागते नहि बांधस्यै? तुर्य भंग पहिछान ।। *लय : सीता दे रे ओलंभड़ा ६,७. १ जीवा य २. लेस्स ३. पक्खिय, ४. दिट्टि ५. अण्णा ण ६. नाण ७. सण्णाओ। ८. वेय ९. कसाए १०. उवओग ११. जोग एक्कारस वि ठाणा । १॥ वा०-तत्रानन्तरोत्पन्नादिविशेषविरहित जीवमाश्रित्य कादशभिरुक्तरूपरिबन्धवक्तव्यतां प्रथमोद्देशकेऽभिधातुमाह- (व. प. ९२९) ८. तेणं कालेणं तेण समएण रायगिहे जाव एवं वयासी ९. जीवा गं भंते ! पावं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ? १०. बंधी बंधइ न बंधिस्सइ ? ११. बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ? १२. बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ? श० २६ उ. १, ढा० ४६९ २४५ Jain Education Intemational Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १३. ए च्यारूं ही भंग, अतीत काले बांधिया । ए पद थकी प्रसंग, लाधा ते आख्या इहां ॥ १४. अने अतीत काल, नहिं बांध्या ए पद थकी । भांगा प्यार निहाल, अन्य स्थानके आखिया ॥ १५. ते इहां संभवे नाहि, अतीत अघ नहि बांधिया । तेह जीव नें ताहि, नहीं संभवे ते भणी ॥ १६. जिन कहे कोइक जीव जे वांच्या पूर्व पाप । हिवड़ा बांधे बलि बांधस्यै, अभव्य आधी स्थाप ।। १७. कोइक अतीत ते बांधिया, फुन बांधे वर्तमान अनागते नहि बांधस्ये, शिवगामी भव्य जान ॥ १८. कोइक अती बांधिया, नहि बांध वर्तमान । अनागते फुन बांधस्यै, ए ग्यारम गुणस्थान ॥ १९. कोइक अती बांधिया, नहि बांधे वर्तमान । अनागते नहि बांधस्यै, क्षोणमोह पिछान ॥ लेश्याद्वार पाप कर्म सुजोय । पुर भांगो होय ॥ बांधै २०. राशी स्युं भगवंतजी ! aiser बांधे बांधस्थे ? २१. कै काल अतीते बांधिया, वर्तमान । अनागते नहि बांधस्य ? वा प्रश्न पिछान || २२. जिन कहै कोइक जीव जे, बांध्या काल अतीत । हिवड़ा बांध्या वलि बांधस्यै, इम चिहुं भंग संगीत ।। सोरठा २३. सलेशी नें जोय, भांगा च्यारू ही हुवै । शुक्ललेसी ने सोय, पाप कर्म पिण अबंध छै ॥ २४. ति कारण आख्यात, चिहुं भंग सलेशी विषे । वारू न्याय विख्यात, बुद्धिवंत आलोची कहै || २५. *कृष्णलेशी प्रभु! जीव जे पाप कर्म पिछान । बांध्या बांध बांधस्यै ? प्रश्न पवर सुविधान ॥ २६. जिन कहे कोइक जीव जे बांध्या काल अतीत। हिवड़ा बांधे वलि बांधस्यै, ए धुर भंग प्रतीत || २७. कोइक बांध्या पूर्व ही बांधे वर्तमान अनागते नहि बांधस्थं क्षपक अबंध पिछान ॥ । लय : सीता दे रे ओलंभड़ा २४६ भगवती जोड़ 1 १३-१५. इत्येवं चत्वारो भङ्गा बद्धवानित्येतत्पदन्या 'बंधी तत्वदभ्यास्त्विह न भवन्ति अतीतकालेऽवस्य जीवस्यासम्भवात् (बृ. प. ९२९) १६. गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, तत्र च बद्धवान् बध्नाति भन्त्स्यति चेत्येष प्रथमोSभव्यमाश्रित्य (बृ. प. ९२९) १७. अत्येगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, बद्धवान् बध्नाति न भन्त्स्यतीति द्वितीयः प्राप्तव्यअपकत्वं भव्यविशेषमाश्रित्य (बृ. प. ९२९) १८. अत्येगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ, " बद्धवान् न बध्नाति भन्त्स्यतीत्येष तृतीयो मोहोपशमे वर्त्तमानं भव्य विशेषमाश्रित्य ततः प्रतिपतितस्य तस्य पापकर्मणोऽवश्यं बन्धनात्, ( वृ. प. ९२९) १९. अत्येति धीन बंधन बंधिस्स (म. २६१) बद्धवान् न बध्नाति न भन्त्स्यतीति चतुर्थः क्षीणमोहमाश्रित्येति । (बृ. प. ९२९) २०. सलेस्से णं भंते! जीवे पावं कम्मं कि बंधी बंधइ बंधिस्सइ ? २१. बंधी बंधइन बंधिस्सइ -पुच्छा । २२. गोयमा ! अत्येतिए बंधी बंध बंधिस्सर, अत्येतिए एवं चउभंगो । (श. २६ २ ) २३. सजीवस्य चत्वारोऽपि स्युर्वस्थायुक्तश्यस्य पापकर्मणोऽन्धकत्वमप्यस्तीति ( वृ. प. ९२९ ) २५. कण्हलेस्से णं भंते! जीवे पावं कम्मं कि बंधीपुच्छा । २६. गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, २७. अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २८. एवं जावत जाणवुं, जाणबुं पद्मलेशी पर्यंत सर्वत्र ए पंच लेश में, प्रथम द्वितीय भंग हुंत ॥ सोरठा २९. कृष्णादिक जे पंच लेश्यावंतज जीव जे तृतीय तुर्य जे संच, ए बिहं भंग न संभवे ॥ ३०. वर्त्तमान में तास, मोह कर्म नों क्षय नथी । उपशम पिण नहि जास, तिणसूं बे भंग चरम नहीं ॥ ३१. द्वितीय भंग फुन तास, कृष्णादि लेशी तिको। कालांतरे विमास, क्षपक विषे नहि बांधस्यै ॥ ३२. *शुक्ल लेश्या नें वलि, जिम सलेशी मांय । प्यार भांगा का तिम चिह्नं पूर्ववत न्याय || पाप कर्म पिछान । स्यूं बांध्या बांधे बांधस्थे ? इम पूछा जान ॥ ३४. जिन कहै बांध्या अतीत ही, न वांधे वर्तमान । अनागते नहि बांधस्यै तुर्य भंग ए जान ॥ ३३. अलेशी प्रभु! जीव जे 1 , सोरठा ३५. एह अजोगी साव, तुर्य हीज भांगो तसु । लेश्या तणें अभाव, बंधक तणां अभाव थी । पाक्षिक द्वार ३६. * कृष्णपाक्षिक प्रभु ! जीव जे, पाप कर्म पूछेह । जिन भाखे सुण गोयमा ! प्रथम द्वितीय भंग बेह || सोरठा ३७. वर्त्तमान कालेह, अबंध तणां अभाव थी । कृष्णपाक्षिक ने जेह, दोय भंग छेहला नथी || ३५. घुर भंग अभव्य विषेह, शिवगामी भव्य ने विषे । द्वितीय भंग पावेह, पिण छेला वे भंग नयी ॥ ३९. * शुक्लपाक्षिक नीं पूछा कियां भाखं भगवान । भांगा प्यार भणोजियै, वर न्याय प्रधान || सोरठा ४०. प्रश्न समय बंध तास, तेह अपेक्षा भंग धुर । पूर्व बांध्यां जास, वर्तमान बांधे वलि ।। ४१. अंतररहित कहेह, समय आगामिक में विये । वलियांधस्य जेह, प्रथम भंग इण न्याय है ॥ ४२. बांध्या बांधताय, आगामिक नहि बांधस्थे । ए द्वितीय भंग नुं न्याय, क्षपकथेणि प्राप्ती विषे ॥ *लय : सीता दे रे ओलंभड़ा २८. एवं जात्र पम्हलेस्से । सव्वत्थ पढम-बितियभंगा । २९. कृष्णलेश्यादिपञ्चकयुक्तस्य त्वाद्यमेव भङ्गकद्वयं, (इ.प. ९२९) ३०. तस्य हि वर्त्तमानकालिको मोहलक्षणपापकर्मण उपशमः क्षयो वा नास्तीत्येवमन्त्यद्वयाभावः, (पु.प. ९२९) कृष्णाविण्यात भन्त्स्यतीत्येतस्य (बृ. प. ९२९) ३२. सुक्कले से जहा सलेस्से तहेव चउभगो । (श. २६ ३) ३१. द्वितीयस्तु तस्य संभवति कालान्तरे क्षपकत्वप्राप्ती न सम्भवादिति, ३३. अलेस्से णं भंते ! जीवे पाव कम्म कि बंधी पुच्छा 1 ३४. गोयमा ! बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ । (श. २६/४) ३५. अलेश्य :- अयोगिकेवली तस्य च चतुर्थ एव, लेश्याभावे बन्धकत्वाभावादिति । (बृ. प. ९२९) ३६. कण्हपक्खिए ण भंते ! जीवे पावं कम्मं पुच्छा । गोमा ! अत्थेगतिए बंधी, पढम-बितिया भंगा । (म. २६०५) ३७. कृष्णपाक्षिकस्याद्यमेव भङ्गकद्वयं भावस्य तस्याभावात्, वर्तमाने बन्धा(बृ. प. ९५९) ३९. सुक्कपक्खिए णं भंते ! जीवे पुच्छा । गोयमा ! चउभंगो भाणियव्वो । ( श (श. २६/६ ) ४०, ४१. स हि बद्धवान् बध्नाति भन्त्स्यति च प्रश्नसमयापेक्षयाऽनन्तरे भविष्यति समये १ । ४२. तथा बद्धवान् बध्नाति न भन्त्स्यति क्षपकत्वप्राप्ती २। (बृ. प. ९२९) श० २६, उ० १, ४०४६९ २४७ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. पूर्वे जे बद्धवान, नहिं बांधे ग्यारम गुणे । प्रश्न समय ए जान, पड़ी बांधस्य तृतीय भंग ।। ४४. पूर्वे जे बद्धवान, क्षपकपणे बांधै नथी। प्रश्न समय ए जान, अनागते नहिं बांधस्यै ।। वा० -जो कृष्णपाक्षिक न बांधस्यै एहने संभव थकी इम एहन द्वितीय भंग वांछयो तो शुक्लपाक्षिक नै अबंधकपणां नै अवश्य संभव थकी प्रथम भंग किम हुवै ? एहनों उत्तर कहै छ-पृच्छा अनंतर अनागत काल नै विषे अबंधकपणां नां अभाव थकी प्रथम भंग हुवं । वलि को छ वृद्धे-इहां साक्षेपसपरिहारस आक्षेप ते प्रश्न सहित, परिहार कहितां उत्तर । वृद्ध इम कहैबंधी शतक नै कृष्णपाक्षिकादिक नै दूजो भांगो जो हुवे तो शुक्लपाक्षिकादिक नै प्रथम भंग किम हुवै ? इति आक्षेप कहितां प्रश्न । हिव एहनों परिहार कहितां उत्तर कहै छै प्रतिपच्छा अनतर काल आश्रयी नै शुक्लपाक्षिकादि नै प्रथम भंग हुवै। अनै कृष्ण पाक्षिकादि नैं विशेष-रहित काल आश्रयी ने द्वितीय भंग हुवै इति। ४३. तथा बद्धवान् न बध्नाति चोपशमे भन्त्स्यति च तत्प्रतिपाते ३ (व. प. ९२९) ४४. तथा बद्धवान्न बध्नाति न च भन्स्यति क्षपकत्व इति ४, (वृ प. ९२९) वा०-ननु यदि कृष्णपाक्षिकस्य न भन्स्यतीत्यस्यासम्भवाद्वितीयो भङ्गक इष्टस्तदा शुक्लपाक्षिकस्यावश्यं सम्भवात्कथं तत्प्रथमभङ्गक: ? इति, अत्रोच्यते, पृच्छानन्तरे भविष्यत्कालेऽबन्धकत्वस्याभावात् उक्तं च वृद्धैरिहसाक्षेपपरिहारं ..... "बधिसयबीयभंगो जुज्जइ जइ कण्हपक्खियाईणं । तो सुक्कपक्खियाणं पढमो भंगो कहं गेज्झो ?॥१२॥ उच्यतेपुच्छाणंतरकालं पइ पढमो सुक्कपक्खियाईणं । इय रेसि अवसिठं काल पइ बीयओ भंगो ॥२॥ (वृ०प० ९२९,९३०) ४५. सम्मद्दिट्ठीणं चत्तारि भंगा, सम्यग्दृष्टेश्चत्वारोऽपि भङ्गाः शुक्लपाक्षिकस्येव भावनीयाः, (व.प. ९३०) ४६. मिच्छादिट्ठीणं पढम-बितिया, सम्मामिच्छादिट्ठीणं एव चेव । (श. २६७) ४७,४८. मिथ्यादृष्टिमिश्रदृष्टीनामाद्यो द्वावेव, वर्तमान काले मोहलक्षणपापकर्मणो बन्धभावेनान्त्यद्वयाभावात्, (व. प. ९३०) दृष्टि द्वार ४५. *समदृष्टि में विष हवे, च्यारूंई भंग । शुक्लपाक्षिक जिम जाणवू, वर न्याय सुचंग ।। ४६. मिथ्यादण्टि नै विषे, प्रथम द्वितीय बे भंग। समामिथ्यादृष्टि इमज ही, तसु न्याय सुचंग ।। ___ सोरठा ४७. मिथ्या मिश्रज दृष्ट, तेह विषे धुर भंग बे। मोह लक्षण तसु इष्ट, प्रश्न समय अघ बंध तसु।। ४८. तिण कारण थी तास, अंतिम बे भांगा नथी । धुर बे भंग विमास, बुद्धिवंत न्याय विचारियै ।। ज्ञान द्वार ४९. 'ज्ञानवंत ज्ञानी विषे, च्यारूं ही भंग । समदृष्टि जिम जाणवो, वारू न्याय सुचंग ।। ५०. आभिनिबोधिक ज्ञान जे, जाव मनपर्याय । ए चिहुं नाणी नै विषे, च्यारूं भंग कहाय ।। ५१. केवलज्ञानी नै विषे, इक चरम सुभंग । अलेशी ज्यू जाणवो, वर न्याय सुअंग ।। सोरठा ५२. वर्तमान कालेह, वलि अनागत काल में । बंध अभावपणेह, चरम भंग इक ते भणी ।। ४९. नाणीणं चत्तारि भंगा। ५०. आभिणिबोहियनाणीणं जाव मणपज्जवनाणीणं चत्तारि भंगा। ५१. केवलनाणीणं चरिमो भंगो जहा अलेस्साणं । (श. २६८) ५२. 'केवलनाणीणं चरिमो भंगो' त्ति वर्तमाने एष्यत्काले च बन्धाभावात् । (व. प. ९३०) *लय : सीता दे रे ओलंमड़ा २४८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. अण्णाणीणं पढम-बितिया, एवं मइअण्णाणीणं, सुयअण्णाणीणं, विभंगनाणीण वि। (श. २६९) ५४. 'अन्नाणीणं पढमबीय' त्ति, अज्ञाने मोहलक्षणपाप कर्मणः क्षपणोपशमनाभावात् । (व. प. ९३०) ५५. आहारसण्णोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ताणं पढम-बितिया। अज्ञान द्वार ५३. *अज्ञानी में धुर भंग बे, कृष्णपाक्षिक जेम । मति श्रुत विभंग विषे वलो, कहि छै एम ।। सोरठा ५४. जे अज्ञान विषेह, मोह कर्म नं क्षय नथी । फुन उपशम नहिं लेह, ते माटै धुर भंग बे॥ संज्ञोपयुक्त द्वार ५५. *आहारसण्णोवउत्ता विष, जाव परिग्रह जोय । च्यारूं संज्ञा-उपयुक्त में. धुर भांगा दोय ।। सोरठा ५६. संज्ञा नां उपयोग, गद्धपणां नां काल में। उपशम क्षपक प्रयोग, अभाव थी बे भंग धुर ।। ५७. *नोसण्णवउत्ता नै विषे, संज्ञा आहारादि धार । गृद्ध भाव करि रहित ए, तिण में भांगा च्यार ।। सोरठा ५८. आहारादिक नां जेह, गद्धपणां करि रहित छै । तिण में चिहुं भंग लेह, उपशम क्षपक संभव थकी ।। वेद द्वार ५९. *सवेदी में धुर भंग बे, वेद उदय विषेह । उपशम क्षपक हुवै नथी, इम त्रिहुं वेद कहेह ।। ५६. 'पढमबीय' त्ति आहारादिसज्ञोपयोगकाले क्षप कत्वोपशमकत्वाभावात् । (व. प. ९३०) ५७. नोसण्णोव उत्ताणं चत्तारि । (श. २६।१०) ५८. 'नोसन्नोवउत्ताणं चत्तारि' त्ति नोसज्ञोपयुक्ता आहारादिषु गृद्धिवजितास्तेषां च चत्वारोऽपि क्षपणोपशमसम्भवादिति। (वृ. प. ९३०) ५९. सवेदगाणं पढम-बितिया । एवं इत्थिवेदगा, पुरिस वेदगा, नपुंसगवेदगा वि । 'सवेयगाणं पढमबीय' त्ति वेदोदये हि क्षपणोपशमी न स्यातामित्याद्यद्वयम् । (व. प. ९३०) ६०. अवेदगाणं चत्तारि । (श. २६।११) ६०. अवेदी में भंग चिहं हवे, जेह उपशांत वेद । अथवा क्षीणवेदी भणी, कह्या अवेदी संवेद ।। सोरठा ६१. पूर्व काल बद्धवान, उपशमवेदे नवम गुण० । बांधे छै वर्तमान, वलि बांधस्य ते तिहां ।। ६२. मोह कर्म जे पाप, त्यां लग नहिं है दशम गुणः । त्यां लग मोह बंध स्थाप, बांध्या बांध बांधस्यै ।। ६३. तथा दशम गुण० थीज, पड़ी नवम गुण० – विषे । बांध्यो बांधे हीज, वलि बांधस्यै प्रथम भंग ।। ६४. पूर्व अघ बद्धवान, क्षीणवेद नवमें गुणे । बांध छै वर्तमान, मोह पाप कर्म आश्रयी ।। ६५. फुन सूक्ष्मसंपराय, आदि विषे नहिं बांधस्यै । बांध्यो बांध ताय, नथी बांधस्य द्वितीय भंग ।। ६६. पूर्वे बांध्यो जोह, दशमें गुण० बांधै नथी। वलि बांधस्यै मोह, उपशमश्रेणी तृतीय भंग ।। *लय : सीता दे रे ओलंभड़ा ६१. 'अवेदगाणं चत्तारि' त्ति स्वकीये वेदे उपशान्ते बध्नाति भन्त्स्यति च। (बु. प. ९३०) ६२,६३. मोहलक्षणं पापं कर्म यावत्सूक्ष्मसम्परायो न भवति प्रतिपतितो वा भन्स्यतीत्येवं प्रथमः । (वृ. प. ९३०) ६४. तया वेदे क्षीणे बध्नाति । (वृ. प. ९३०) ६५. सूक्ष्मसंपरायाद्यवस्थायां च न भन्त्स्यतीत्येवं द्वितीयः । (वृ. प. ९३०) ६६. तथोपशान्तवेदः सूक्ष्मसम्परायादौ न बध्नाति प्रति पतितस्तु भन्त्स्यतीति तृतीयः। (वृ. प. ९३०) शा० २६, उ०१. ढा० ४६९ २४९ Jain Education Intemational Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. पूर्वे जे बद्धवान, क्षीणवेद दशमादिके । नहि बांधे वर्त्तमान, नथी बांधस्यै तुर्य भंग || कषाय द्वार ६८. चिहुं भंग सकषाई विषे, क्रोध मान माया धार । प्रथम द्वितीय भंग जाणवा, लोभ कषाई में च्यार ॥ सोरठा ६९. सकवाई में प्यार, घुर भंग अभव्य आथयी । द्वितीयभंग अवधार, शिवगामी भव्य मोह क्षय ॥ ७०. उपशम दशम गुणेह, तृतीय भंग तेहने विषे । तुर्य भंग फुन लेह, क्षपक सूक्ष्मसंपराय में ।। ७१. लोभकषाई ताय, सकषाई जिम भंग चिहुं । दोय विचारवा ॥ क्रोधी मानी माय, घुर भंग ७२. *प्रभु | अकपाई जीव स्यूं ! 1 पाप कर्म प्रसीध बांध्य बांध बांधस्यै ? पूछा चिहुं भंग कीध | ७३. जिन कहै कोइक जीव जे, बांध्यो बांधे नांहि । अनागते कुन बांधस्यै, उपथम आश्रयी ताहि । ७४. कोयक पूर्व वांधियो अनागते नहि बांधस्यै, नहि बांधे वर्तमान || क्षपक जखमी जान || सोरठा ७५. अकवाई में दोय, भांगो तीजो चतुर्थी । क न्याय तसु सोय, प्रथम द्वितीय भंग बे नथी ॥ योग द्वार ७६. चिहुं भंग सजोगी विषे, मनजोगी पिण एम । वच काय जोगी विषे, वलि भणवा चिह्नं भंग तेम || सोरठा ७७. धुर भंग अभव्य मांय, शिवगामी भव्य द्वितीय भंग । तृतीय उपशम पाय, क्षपक विषे फुन तुर्य भंग ॥ ७८. * चरम भांगो अजोगी विषे, पूर्वे बांध्यो ताहि । वर्त्तमान बांधे नहीं, फुन बांधस्यै नांहि || उपयोग द्वार ७९. सागारो उत्ता विषे, भांगा अनाकारोवउत्ते अपि चि *लय : सीता दे रे ओलंभड़ा २५० भगवती जोड़ च्यारूं उक्त । मुयुक्त ।। भंग ६७. तथा क्षीणे वेदे सूक्ष्मसम्परायादिषु न बध्नाति न चोत्तरकालं भन्त्स्यतीत्येवं चतुर्थः । (बृ. प. ९३०) ६८. सकसाईण चत्तारि, कोहकसाईणं पढम- बितिया भंगा, एवं माणकसायिस्स वि, मायाकसाथिस्स वि । लोभकसायिस्स चत्तारि भंगा । (श. २६/१२) ६९. 'सकसाई तारि सितायोमध्यस्य द्वितीयो भव्यस्य प्राप्तव्यमोहक्षयस्य । (बृ. प. ९३०) ७०. तृतीय उपशमक सूक्ष्मसम्परायस्य चतुर्थः क्षपकसूक्ष्म( वृ. प. ९३० ) ( वृ. प. ९३० ) सम्परायस्य । ७१. एवं लोभकषायिणामपि वाच्यं । ७२. अकसायी णं भंते ! जीवे पावं कम्म कि बंधीपुच्छा । ७३. गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बधिस्सइ, 'अकसाईण' मित्यादि तत्र 'बंधी न बंधइ बंधिस्सइ' त्ति उपशमकमाश्रित्य । (बु. प. ९३०) बंधिस्सइ । ७४. अत्येगतिए बंधी न बंधइन (श. २६ । १३) 'बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ' त्ति क्षपकमाश्रित्येति । ( वृ. प. ९३० ) ७६. सजोगिस्स चउभंगो, एवं मणजोगिस्स वि, वइजोगिस्स वि, कायजोगिस्स वि । . ७७. 'सजोगिस्स चउभगो' त्ति अभव्यभव्य विशेषोपशम क क्षपकाणां क्रमेण चत्वारोऽप्यवसेयाः । ७८. अजोगिस्स चरिमो । ( वृ. प. ९३० ) (श. २६ । १४ ) 'अजोगिस्स चरमो' त्ति बध्यमान भन्त्स्यमानत्वयोस्तस्याभावादिति । (बृ. प. ९३०) ७९ सागा रोवउत्ते चत्तारि, अणागारोवउत्ते वि चत्तारि भंगा । (२६।१५) Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-पांच ज्ञान, तीन अज्ञान सागारोव उत्ता कहीजे अन च्यार दर्शण अणागारोव उत्ता कहीजै । वा०-अट्टविहे सागारोवओगे .....। चउबिहे अणागारोवओगे........। (पण्णवणा ३१।१,२) ८०. छबीसम धुर देश ए, चिहुंसौ गुणंतरमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल ।। दाल:४७० चौबीस दण्डकों के बन्ध-अबन्ध वा-हिवं चउवीस दंडके एकीका दंडक विष इग्यारे-इग्यारे द्वारे करी कहै छ। नारकी में बोल पा ३५, तेहनों अधिकार कहै छ १. नेरइए णं भंते ! पावं कम्म कि बंधी बंधइ बंधिस्सइ? २. गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी, पढम-बितिया । (श. २६।१६) 'पढमबीय' त्ति नारकत्वादौ श्रेणीद्वयाभावात् प्रथमद्वितीयावेव। (व.प. ९३१) १. नारक हे भगवतजी! पाप कर्म जे पंक। बांध्या बांध बांधस्यै, चिहं भंग प्रश्न अवंक ।। २. जिन भाखै सुण गोयमा ! प्रथम द्वितीय भंग दोय । उपशम क्षायक श्रेणि नां, अभाव थी अवलोय ।। ३. इम सलेशादिक जिके, विशेष करिके जेह । नारक पद धुर दंडके, सांभलियै चित देह ।। *सुणजो रे भव प्राणी ! मत भमजो रे चिहं गति दुख अंग के । सेवो रे जिन वाणी, तुम्हे रमजो रे संजम सुख संग कै ।। चेतो रे भव प्राणी ! (ध्रुपदं) ४. सलेशी प्रभु ! नेरइयो जी, पाप कर्म पूछेह । इमहिज धुर भंग बे हुवै, समुच्चै नारक रै कह्यो तेम कहेह के ।। ५. इम कृष्णलेशी नारक विषे रे, नीललेशी नै विषेह। कापोतलेशी नारक विषे, धुर भंगा रे भणवा इम बेह कै॥ ६. इम कृष्णपाक्षिक नारक विषे रे, शुक्लपाक्षिक में एम । समदृष्टि नारक विषे, मिथ्यादष्टि रे मिश्रदष्टि तेम कै। *लय : सुरतरु नी पर दोहिलो लही मानव अवतार ४. सलेस्से णं भंते ! नेरइए पावं कम्म? एवं चेव । ५. एवं कण्हलेस्से वि, नीललेस्से वि, काउलेस्से वि । ६. एवं कण्हपक्खिए सुक्कपक्खिए, सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी। श० २६, उ०१, ढा० ४६९.४७० २५१ Jain Education Intemational Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. नाणी आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी। ८. अण्णाणी मइअण्णाणी सुयअण्णाणी विभंगनाणी। ९. अाहारसण्णोवउत्तं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ते, सवेदए नपुंसकवेदए । १०. सकसायी जाव लोभकसायी, सजोगी मणजोगी वइ जोगी कायजोगी। ११. सागारोवउत्ते अणागारोवउत्ते--एएसु सम्वेसु पदेसु पढम-बितिया भंगा भाणियव्वा । १२. एवं असुरकुमारस्स वि वत्तब्वया भाणियब्वा । नवर ७. इम ज्ञानी नारक विषे रे, आभिनिबोधिकवंत । श्रुत फुन अवधिज्ञानी विषे, धुर भांगा रे दोय भणवा मंत कै । ८. अज्ञानी नारक विषे, मति अज्ञानी मांहि । श्रुत विभंग नारक विषे, धुर भंगा रे बे भणवा ताहि कै ।। ९. आहारसण्णोवउत्ता विषे रे, जाव परिग्रह जाण । सवेदी नारक विषे वली, नपंसक रे वेद बे आण के। १०. सकषाई नारक विषे रे, जावत लोभकषाय । बे भंग सजोगी नारके, मन वच जोगी रे कायजोगी मांय कै। ११. सागारोवउत्त नारक विषे रे, उपयुक्त फुन अनाकार । ए सहु पद नै विषे हवै, प्रथम बीजो रे भांगा बे धार के ।। वा० ... हिवं भवणपति में ३७ बोल पावै तेहन अधिकार कहै छै-- १२. इमहिज असुरकुमार नी रे, वक्तव्यता सूविधान । णवरं इतरो विशेष छ, तिको कहिये रे सुणजो धर कान कै ।। - १३. तेजुलेशी स्त्रीवेदगा रे, पुरुष वेद पिण पाय । नपुंसक वेद भणवो नथी, शेष तिमहिज रे नारक जिम ताय कै।। १४. सगलाई स्थानक विषेरे, धूर बे भंगा धार । एवं जावत जाणवा, ___ जिन भाख्या रे ए तो थणियकुमार कै ।। हिवै पथ्वी पाणी आदि नों अधिकार---- १५. पृथ्वीकायिक पिण इह विधे रे, इमहिज फुन अपकाय । इम जाव पंचेंद्री तिर्यंच में, सहु ठामे रे धुर बे भंग पाय के। १६. णवरं जेहने लेश्या जिका रे, दृष्टि रु ज्ञान अज्ञान । वेद जोग जेहने जसु, तसु कहिवो रे शेष तिमहिज जान कै ।। वा-पृथ्वी, पाणी, वनस्पति में २७ बोल पावै । तेऊ, वाऊ में २६ । विकलेंद्री में ३१ । तिर्यंच पंचेंद्री में ४० बोल पावै। मनुष्य में ४७ बोल पावै, तेहनों अधिकार कहै छ - १७. वक्तव्यता जिका जीव नी रे, सलेश आदि पदेह । चतुर भंगादिक नी कही, तिमहिज कहिवी रे, सह मनुष्य विषेह के ।। १३. तेउलेसा, इत्थिवेदग-पुरिसवेदगा य अब्भहिया, नपुंसगवेदगा न भण्णं ति, सेसं तं चेव । एव जाव पणिय १४. सव्वत्थ पढम-बितिया भंगा। कुमारस्स। १५. एवं पुढविकाइयस्स वि, आउकाइयस्स वि जाव पंचिदियतिरिक्ख जोणियस्स वि सम्वत्थ वि पढमबितिया भगा। १६. नवरं --जस्स जा लेस्सा । दिट्ठी, नाणं, अण्णाणं, वेदो, जोगो य अस्थि तं तस्स भाणियब्ब, सेसं तहेव । १७. मणूसस्स जच्चेव जीवपदे वत्तव्वया सच्चेव निरवसेसा भाणियब्वा । .... २५२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १८. जीव मनुष्य नैं जाण, समान धर्मपणां थकी । तिन कारण पहिछाण, जीव कह्यो तिम मनुष्य पिण । १९. *व्यंतर असुर तणीं परं रे, गवरं लेश्या जे जाणवी, शेष तिमहिज रे कहि तहतीक के समुच्चय जीव में पाप कर्म बंध-अबंध नां भांगा १. समुच्चय जीव में २. सलेशी में ३. कृष्णलेशी में ४. नीललेशी में ५. कापोतलेशी में ६. ७. पद्मलेशी में ८. शुवली में ९. अलेशी में १०. कृष्णपाक्षिक में ११. शुक्ल पाक्षिक में १२. समदृष्टि में १२. में १४. मिष्टि में १५. सनाणी में १६. मतिनाणी में हम ज्योतिषि वैमानीक । १७. श्रुतनाणी में १८. अवधिनाणी में १९. मनपर्यवनाणी में २०. केवलनाणी में २१. अनाणी में २२. मतिअनाणी में २३. नामी में २४. विभंगअनाणी में २५. आहारसोबत्ता में २६. भयसण्णोवउत्ता में २७. मेणा में २२. परिभ्रमणवत्ता में २९. नोसण्णोवउत्ता में ३०. सवेदी में ३१. स्त्रीवेदी में ३२. पुरुषवेद में ३३. नपुंगवेद में ३४. अवेदी में ३५. सकषायी में *लय सुरतरुनी परं दोहिलो १ भंग बंधी बंध बंधि स्सइ २ ४ १ २ ૪ २ २ ૪ १ २ २ २ पार्व पार्व पार्व पाये .1111111111111141111 नहीं पार्व पार्व पार्व पार्व पार्व पाव २ बंधी बंधइ ३ बंधी नबंध न बंधि | बंधि - स्सइ स्सइ पार्व पार्व नहीं नहीं नहीं नहीं पार्व पार्व पार्व पार्व पार्व पाव पार्व TTTTTTTTTTTTTEETE नहीं नहीं नहीं नहीं पाव पार्व पार्व नहीं पार्व नहीं नहीं पार्व पार्व नहीं नहीं पार्व पाव पार्व पाव पार्व पार्व पाव पार्व पाव पार्व पार्व 1 पार्व पार्व पार्व पार्व पार्व नहीं पाव पार्व पार्व नहीं पार्व पार्व पाव पार्व पार्व पाव पार्व पार्व पार्व पार्व नहीं नहीं नहीं नहीं पायें नहीं पार्व नहीं पार्व नहीं पार्व नहीं पार्व पार्व पार्व नहीं ४ बंधी | न बंधइ न बंधि - स्सइ पार्व नहीं पार्व नहीं नहीं पार्व पार्व पार्व पाव पार्व पार्व नही नहीं नहीं केके के कैसे कैसे कैसे बचे. के.के. नहीं पार्व १८. 'बणसस्मे' स्यादि, या जीवस्य निर्विशेषणस्य सलेश्यादिपदविशेषितस्य च चतुर्भग्यादिवक्तव्यतोक्ता सा मनुष्यस्य तथैव निरवशेषा वाच्या, जीवमनुष्ययोः समानधर्मत्वादिति । (बु.प. ९३१) १९. वाणमंतरस्स जहा असुरकुमारस्स । जोसियस वैमाणियस्स एवं चेव । नवरं - लेस्साओ जाणियव्वाओ, सेसं तव भाणियव्वं । (श. २६/१२) प्रश० २६, उ० १. ढा० ४७० २५३ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. क्रोधकषायी में ३७. मानकषायी में ३८. मायाकषायी में ३९ लोभकषायी में ४०. अकषायी में ४१. सजोगी में ४२. मनजोगी में ४३. वचनजोगी में ४४. कायजोगी में ४५. अजोगी में ४६. सागारोवउत्ता में ४७. अनागा रोवउत्ता में १. समुच्चय नारकी में २. सलेशी नारकी में ३. कृष्ण लेशी नारकी में ४. नीललेशी नारकी में ५. कापोतलेशी नारकी में ६. कृष्णपाक्षिक में पाक्षिक में ७. ८. समदृष्टि में ९. मियादृष्टि में १०. मिश्र दृष्टि में ११. सनी में १२. मतिनाणी में १३. नाणी में १४. अवधिनाणी में १५. अनाणी में १६. मतिअनाणी में १७. श्रुतअनाणी में १८. विभंगअनाणी में १९. आहारता में २०. भयसण्णोवउत्ता में २१. मेनसोउत्ता में २२. परिग्रहसण्णोवउत्ता में २३. सवेदी में २४. नपुंसक वेदी में २५. सकषायी में २६. क्रोधकषायी में २७. मानकषायी में २८. मायाकषायी में २९. लोभकपायी में ३०. सजोगी में ३१. मनजोगी में ३२. वचनजोगी में ३३. कायजोगी में ३४. सागारोवउत्ता में ३५. अनागारोवत्ता में भंग १ ४ * २ २ २ २ २ २ २ २ १ बंधी बंधइ बंधि स्सइ २ पार्व पाव पार्व नहीं पाव पार्व पार्व नहीं पार्व यावे पार्व २ बंधी बंधइ नबंधि स्सइ पार्व पार्न पार्व पार्व नहीं पाव पार्व पार्व नारकी में ३५ बोल पावै २ पाव पाव नहीं पार्थ पाव नहीं पार्व पाव नहीं पार्व नहीं पाव नहीं नहीं पाव पा पार्व पार्व नहीं पार्व पाव नहीं पाव पार्व नहीं पाव पाव नहीं पाव पार्व नहीं पार्व पाव नहीं पार्व पार्व नहीं पार्व पाव नहीं पार्व पाव नहीं पाव पाव नहीं पार्व पार्व पार्व पार्व २ पार्व २ पार्व २ पार्व पार्व पार्व पाव पार्व पा नहीं पाव पार्व पार्व पाव ३ बंधी बंधो न बंधइ | न बंधइ बंधि नबंधि स्सइ स्सइ नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं पार्व पाव नहीं पाव नहीं पार्व पार्व पाव पाव पार्व नहीं पाव पार्व पार्व पार्व पार्व पार्व पार्व पाव पाव पाव नहीं पार्व पार्व पाव पार्व पार्व पार्व पार्व नहीं पाव पार्व पार्व पार्व पार्व पार्व पार्व पाव पाव नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं 楚楚楚楚楚楚楚楚楚楚楚楚楚楚楚楚楚楚楚港制造制控制制的 नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं पाव नहीं पार्व नहीं पार्व नहीं पार्व नहीं पाव नहीं नहीं पाव पाव नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं पाव नहीं नहीं पाव नहीं पाव नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ बोल टलिया ते कहै छ१. तेजुलेशी ५. मनपर्यवज्ञानी ९. पुरुषवेदी २. पद्मलेशी ६. केवलज्ञानी १०. अवेदी ३. शुक्ललेशी ७. नोसण्णोवउत्ता ११. अकषायी ४. अलेशी ८. स्त्रीवेदी १२. अजोगी। असुरकुमार आदि १० भवनपति में ३७ बोल पावै । तिण में भांगा २--- पहलो, दूजो। १० बोल टलिया ते कहै छै १. पद्मलेशी ४. मनपर्गवज्ञानी ७. नपुंसकवेदी २. शुक्ललेशी ५. केवलज्ञानी ८. अवेदी ३. अलेशी ६. नोसण्णोवउत्ता ९. अकषायी १०. अजोगी। पृथ्वी, पानी, वनस्पति में २७ बोल पावै । तिण में भांगा २-पहलो, दूजो। २० बोल टालिया कहै छ १. पद्मलेशी ८. श्रुतज्ञानी १५. पुरुषवेदी २. शुक्ललेशी ९. अवधिज्ञानी १६. अवेदी ३. अलेशी १०. मनपर्यवज्ञानी १७. अकषायी ४. समदृष्टि ११. केवल ज्ञानी १८. मन जोगी ५. मिश्रदृष्टि १२. विभंगअनाणी १९. वचनजोगी ६. सनाणी १३. नोसण्णोव उत्ता २०. अजोगी। ७. मतिज्ञानी १४. स्त्रीवेदी तेजसकाय, वायुकाय में २६ बोल पावै पृथ्वीकायवत। एक तेजोलेशी वर्जी । भांगा २-पहलो, दूजो। तीन विकलेन्द्रिय में ३१ बोल पावं । २६ बोल तो तेजसकायवत । अनै ५ बोल बध्या ते कहे छ१. सम्यक्दृष्टि ३. मतिनाणी ५. वचनजोगी। २. सनाणी ४. श्रुतनाणी तिर्यंचपंचेन्द्रिय में ४० बोल पावै । तिण में भांगा २-पहलो, दूजो। ७ बोल टलिया ते कहै छै-- १. अलेशी ३. केवलज्ञानी ५. अवेदी २. मनपर्यवज्ञानी ४. नोसण्णोवउत्ता ६. अकषायी ७. अजोगी। मनुष्य में बोल ४७ ही पावै समुच्चय जीववत । भांगा समुच्चय जीववत कहिवा। व्यंतर में ३७ बोल पावै असुरकुमारवत । भांगा २-पहलो, दूजो। ज्योतिषी में ३४ बोल पावै । तिण में भांगा २-पहलो, दूजो। १३ बोल टलिया ते कहै छ१. कृष्णलेशी ६. अलेशी १०. नपुंसकवेदी २. नीललेशी ७. मनपर्यवज्ञानी ११. अवेदी ३. कापोतलेशी ८. केवलज्ञानी १२. अकषायी ४. पद्मलेशी ९. नोसण्णोवउत्ता १३. अजोगी ५. शुक्ललेशी श. २६, उ०१, ढा.४७. २५५ Jain Education Intemational Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला, दूजा देवलोक में ३४ बोल पावै ज्योतिषीवत । भांगा २--पहलो, दूजो। तीज, चौथ, पंचमे देवलोक में स्त्रीवेदी वर्जी ३३ बोल पावै ज्योतिषीवत । भांगा २- पहलो, दूजो। इहां तेजुलेश्या के स्थान पर पद्मलेश्या कहणी । छठा देवलोक सूं लेइ बारमा देवलोक तांई ३३ बोल पावै । तीज देवलोकवत । इहां पद्मलेश्या के स्थान पर शुक्ललेश्या कहणी। भांगा २-पहलो, दूजो। नव ग्रीवेयक में मिश्रदृष्टिवर्जी ३२ बोल पावै पूर्ववत । भांगा २–पहलो, दूजो। पंच अनुत्तर विमान में २६ बोल पावै। भांगा २ -पहलो, दूजो। २१. बोल टलिया ते कहै छै१. कृष्णलेशी ८. मिथ्यादृष्टि १५. विभंगअनाणी २. नीललेशी ९. मिश्रदृष्टि १६. नोसण्णोवउत्ता ३. कापोतलेशी १०. मनर्यवज्ञानी १७. स्त्रीवेदी ४. तेजुलेशी ११. केवलज्ञानी १८. नपुंसकवेदी ५. पद्मलेशी १२. अनाणी १९. अवेदी ६. अलेशी १३. मतिअनाणी २०. अकषायी ७. कृष्णपाक्षिक १४. श्रुतअनाणी २१. अजोगी। २०. तदेवं सर्वेऽपि पञ्चविंशतिर्दण्डकाः पापकर्माश्रित्योक्ता:। (वृ. प. ९३१) २१. एवं ज्ञानावरणीयमप्याश्रित्य पञ्चविंशतिर्दण्डका वाच्याः , एतदेवाह - (वृ. प. ९३१) सोरठा २०. समुच्चय जीव जगीस, नारकादि चउवीस फून । इम दंडक पणवीस, पापकर्म आश्रयी कह्या ।। २१. इमहिज वली जगीस, ज्ञानावरणी आश्रयी । दंडक जे पणवीस, कहियै छै हिव आगलै ।। आठ कर्मों के सन्दर्भ में बन्ध-अबन्ध २२. जीव ज्ञानावरणी कर्म में प्रभ! स्यं बांध्यो गये काल । हिवड़ा बांध फुन बांधस्यै? इम पूछयां रे कहै दीनदयाल कै ।। २३. इम जिम वक्तव्यता कही रे, पाप कर्म नी पेख । ज्ञानावरणी कर्म नीं, आतो कहिवी रे तिमहीज उवेख कै ।। २४. णवर जीव-पद मनु-पदे रे, सकषाई रै माय । जाव लोभकषाई विषे, पहिलो जो रे भांगा बे पाय कै ।। सोरठा २५. तिहां जीव-पद मांहि, तथा मनुष्य-पद नै विषे । सकषाई में ताहि, वलि जे लोभकषाइ में ।। २६. तिहां दशमें गुणठाण, मोह लक्षण अघ कर्म ते । अबंधकपणे पिछाण, भांगा च्यार कह्या तिहां ।। २७. इहां तो धुर भंग दोय वीतराग नहिं तेहनें । ज्ञानावरणी जोय, बंधकपणां थकी कह्या । २२. जीवे णं भंते ! नाणावरणिज्ज कम्मं कि बंधी बंधइ बंधिस्सइ? २३. एवं जहेव पावकम्मस्स वत्तव्वया तहेव नाणावर णिज्जस्स वि भाणियव्वा । २४. नवरं-जीवपदे मणुस्सपदे य सकसाइम्मि जाव लोभकसाइम्मि य पढम-बितिया भंगा । २५. पापकर्मदण्डके जीवपदे मनुष्यपदे च यत्सकषायिपदं लोभकषायिपदं च । (व, प ९३१) २६. तत्र सूक्ष्मसम्परायस्य मोहलक्षणपापकर्माबन्धकत्वेन चत्वारो भङ्गा उक्ताः । (वृ. प. ९३१) २७. इह त्वाद्यावेव वाच्यो अवीतरागस्य ज्ञानावरणीयबन्धकत्वादिति । (व. प. ९३१) *लय : सुरतरु नी पर दोहिलो २५६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. अवसेसं तं चेव जाव वेमाणिया। एवं दरिसणावरणिज्जेण वि दंडगो भाणियब्बो निरवसेसो । (श. २६।१८) २९. जीवे णं भंते ! वेयणिज्ज कम्मं किं बंधी पुच्छा । ३०. गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, प्रथमे भङ्गेऽभव्यः । (वृ. प. ९३१) ३१. अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, द्वितीये भव्यो यो निर्वास्यति । (व. प.९३१) ३२. अत्थेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ । ३३. तृतीयो न संभवति वेदनीयमबद्ध्वा पुनस्तद्बन्धनस्या सम्भवात् । (वृ. प. ९३१) ३४. सलेस्से वि एवं चेव ततियविहूणा भंगा। २८. *अवशेष तिमज कहिवो सह रे, जाव वैमानिक जान । इम दर्शणावरणी संघात ही, दंडक भणवो रे सगलो सुविधान के ।। २९. जीव प्रभुजी ! वेदनी रे, स्यं बांध्यो बांधेह । कै काल अनागत बांधस्यै? इम पूछयां रे चिहुं भांगा तेह के ।। ३०. जिन कहै जीव कोइक जिको रे, बांध्यो बांधे जेह । काल अनागत बांधस्य, धुर भांगो रे अभव्य आश्रयी लेह कै ।। ३१. कोइक जीव पूर्वे बांधियो रे, बांधे वली वर्तमान । अनागते नहि बांधस्यै, शिवगामी रे भव्य आश्रयी जान कै ।। ३२. कोइक पूर्व बांधियो रे, नहिं बांध वर्तमान । अनागते नहिं बांधस्यै, एतो कहिय रे चवदम गुणस्थान के ।। सोरठा ३३. तृतीय भंग नहिं पाय, कर्म वेदनी छै तिको । अबंध थई नै ताय, बंधकपणुं हुवै नथी ।। ३४. *सलेशी जीव विषे वली रे, एवं चेव कहाय । तृतीय भंग विण थाकता, तीन भांगा रे कह्या सूत्र रै माय ।। सोरठा ३५. तृतीय भंग अभाव, युक्ति पूर्ववत जाणवी । तुर्य भंग विण फुन साव, आख्यो ? सूत्र इहां ।। ३६. वृत्तिकार कहै न्याय, सम्यक जाण्यो जाय नहीं । बांध्यो बांधे नांय, नथी बांधस्यै तुर्य भंग ।। ३७. जोग रहितपणेज, तुर्य भंग ए संभवै । तेह अजोग विषेज, लेश्या सहितपणं नथी ।। ३८. केइ कहै इह वचनेन, अजोगी ने धुर समय । घंटा लाला न्यायेन, परम-शुक्ल लेश्या हुवै ।। ३९. इण हेतु करि होय, सलेशी में तुर्य भंग । वली तत्व अवलोय, बहुश्रुत जाणे इम वृत्तौ ।। ४० *कृष्णलेश्यी जावत वली रे, पद्मलेशी रै माय । __ अजोगीपणां रा अभाव थी, पहिलो दूजो रे भांगा दोय पाय कै ।। ४१. शुक्ललेशी में तीजा विना रे, तीन भांगा कहिवाय । सलेशी जीव विषे कह्या, तिम कहिवो रे वलि एहनों न्याय के ।। ४२. चरम भांगो अलेशी विषे रे, शेलेसी फुन सिद्ध तेह । पूर्व वेदनी बांधियो, नहिं बांधे रे नहि बांधस्य जेह के ।। ३५,३७. इह तृतीयस्याभावः पूर्वोक्तयुक्तेरवसेयः चतुथ: पुनरिहाभ्युपेतोऽपि सम्यग् नावगम्यते, यत: 'बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ' इत्येतदयोगिन एव संभवति, स च सलेश्यो न भवतीति । (वृ. प. ९३१) ३८,३९. केचित्पुनराहुः-अत एव वचनादयोगिताप्रथम समये घण्टालालान्यायेन परमशुक्ललेश्याऽस्तीति सलेश्यस्य चतुर्भङ्गकः संभवति, तत्त्वं तु बहुश्रुतगम्यमिति। (वृ. प. ९३१) ४०. कण्हलेस्से जाव पम्हलेस्से पढम-बितिया भंगा। कृष्णलेश्यादिपञ्चकेऽयोगित्वस्याभावादाद्यावेव । (वृ प. ९३१, ९३२) ४१. सुक्कलेस्से ततियविहूणा भंगा। शुक्ललेश्ये जीवे सलेश्यभाविता भङ्गा वाच्याः । (वृ. प. ९३२) ४४. अलेस्से चरिमो भंगो । अलेश्य:-शैलेशीगत: सिद्धश्च, तस्य च बद्धवान्न बध्नाति न भन्त्स्यतीत्येक एवेति । (वृ. प. ९३२) ४३. कण्हपक्खिए पढम-बितिया। 'कण्हपक्खिए पढमबीय' त्ति कृष्णपाक्षिकस्यायोगित्वाभावात् । (वृ. प. ९३२) ४३. कृष्णापक्षिक जंतु विषे रे, धुर बे भांगा होय । अजोगीपणां नां अभाव थी, कर्म वेदनी रे बंधकपणुं जोय कै ।। * लय : सुरतरु नी पर दोहिली श० २६, उ०१, ढा० ४७० २५७ Jain Education Intemational Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. शुक्लपाक्षिक जंतु विषे रे, तृतीय भंग विण तीन । तेह अजोगी पिण हुवै, इण कारण रे भंग तुर्य सुचीन के ।। ४५. इमहिज समदृष्टि तणे रे, तृतीय बिना त्रिहं भंग । अजोगीपणु पिण ह तसु, कर्म वेदनी रे अबन्ध प्रसंग के ।। ४६. मिथ्यादष्टि मिश्रदष्टि नै रे, प्रथम द्वितीय भंग बेह । अजोगीपणां रा अभाव थी, वेदनी नों रे अबंधक न तेह के ।। ४४. सुक्कपक्विया ततियविहूणा । 'सुक्कपक्खिए तईयविहूण' त्ति शुक्लपाक्षिको यस्मादयोग्यपि स्यादतस्तृतीयविहीना: शेषास्तस्य स्युरिति । (वृ. प. ९३२) ४५. एवं सम्मदिहिस्स वि । 'एवं सम्मदिहिस्सवि' त्ति तस्याप्ययोगित्वसम्भवेन बन्धासम्भवात् । (वृ. प. ९३२) ४६. मिच्छादिट्ठिस्स सम्मामिच्छादिविस्स य पढम-बितिया मिथ्यादृष्टिमिश्रदृष्टयोश्चायोगित्वाभावेन वेदनीयाबन्धकत्वं नास्तीत्याद्यावेव स्याताम् । (वृ० प० ९३२) ४७. नाणिस्स ततियविहूणा । ज्ञानिनः केवलिनश्चायोगित्वेऽन्तिमोऽस्ति । (वृ०प० ९३२) ४८. आभिणिबोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी पढम बितिया । आभिनिबोधिकादिष्वयोगित्वाभावान्नान्तिमः । (वृ. प. ९३२) ४९. केवलनाणी ततियविहूणा । ४७. ज्ञानवंत ते ज्ञानी तणे रे, तृतीय बिना भंग तीन । चरम भांगो अजोगीपणं, कर्म वेदनी रे नहिं बांधै सुचीन कै ।। ४८. मति जावत मनपज्जव में रे, प्रथम द्वितीय भंग दोय । इहां अजोगी भाव हुवै नहीं, __ तिण कारण रे चरम भंग न होय कै ।। ५०. एवं नोसण्णोवउत्ते, अवेदए, अकसायी। सागारोव उत्तं अणागारोवउत्ते। ५१. एएसु ततियविहूणा। अजोगिम्मि य चरिमो। सेसेसु पढम-बितिया। (श० २६।१९) ४९. केवलज्ञानी जीव में रे, तृतीय विना त्रिहुं भंग। तेह अजोगी पिण हुवै, तिण कारण रे भंग चरम सुचंग के ।। ५०. इम नोसण्णोवउत्ते का रे, अवेदी ने अकषाय ।। सागारोव उत्त विष वली, अनाकारोवउत्तारै मांय के ।। ५१. एह सहु स्थानक विषे रे, तृतीय भंग विण तीन । चरम भांगो अजोगी विषे, शेष पद में रे भंग बे धुर चीन के। वा.--अज्ञानी १, मतिअज्ञानी २, श्रुतअज्ञानी ३, विभंगअज्ञानी ४, आहारसण्णोव उत्ते ५ जाव परिग्गहसण्णोवउत्ते ८, सवेदी ९ जाव नपुंसकवेदी १२, सकषाई १३, जाव लोभकषाई १७, सजोगी १८. जाव कायजागी २१, शेष पद में ए २१ बोल आया । तिण में पहिलो दूजो भांगो पावै । ५२. इम जिहां अजोगीपणों हवं रे, चरम भांगो तिण मांय । जिहां अजोगी भाव हुवै नहीं, तिहां भांगा रे धुरला बे पाय कै ।। ५३. नारक हे भगवंतजी ! रे, वेदनी कर्म प्रतेह । स्यं बांध्यो बांध बांधस्यै ? इत्यादिक रेचिहं भंग पूछेह के ।। ५४. इम नारक आदि देई करी रे, जाव वैमानिक अंत । जेह विषे जे बोल छ, सह ठामे रे धुर बे भंग हुंत कै ।। ५५. नवरं इतरो विशेष छै रे, मनुष्य विषे पहिछान । जीव विषे जिम आखियो, तिम कहिवो रे कर्म वेदनी जान के ।। ५६. जीव अहो भगवंतजी ! मोहणी कर्म प्रतेह । स्यूं बांध्यो बांध बांधस्य ? इत्यादिक रे भंग चिहुं पूछेह के ।। ५७. पापकर्म जिमहिज का रे, मोहणी पिण तिमहीज । समस्तपणे भांगा चिहुं, जाव वैमानिक रे पर्यंत कहीज के ।। ५२. एवं सर्वत्र यत्रायोगित्वं संभवति तत्र चरमो यत्र तु तन्नास्ति तत्राद्यौ द्वावेवेति भावनीयाविति । (पृ. प. ९३२) ५३. नेरइए णं भंते ! वेयणिज्ज कम्मं किं बंधी बंधइ ? ५४. एवं नेरइया जाव वेमाणिय त्ति । जस्स जं अस्थि सम्बत्थ वि पढम-बितिया । ५५. नवरं-मणुस्से जहा जीवे । (श. २६।२०) ५६. जीवे णं भंते ! मोहणिज्ज कम्मं किं बंधी बंधइ ? ५७. जहेव पावं कम्मं तहेव मोहणिज्ज पि निरवसेस जाव वेमाणिए । (श. २६।२१) २५८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. जीवे णं भते ! आउयं कम किं बंधी बंधइ--- पुच्छा । ५९. गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी चउभंगो। ५८. जीव अहो भगवंतजी! रे, आयु कर्म प्रति जेह । स्यूं बांध्यो बांधे बांधस्यै ? इत्यादिक रे चिहुं भंग पूछेह के ।। ५९. जिन भाखै सुण गोयमा ! रे, कोइक जीव सुजोय । बांध्यो बांधे बांधस्यै, इत्यादिक रे चिहुं भांगा होय के ।। सोरठा ६०. आउ कर्म अवलोय, धूर भग अभव्य आश्रयी । द्वितीय भंग फुन जोय, चरमशरीरी जे हुस्यै ।। ६१. तृतीय उपशम संध, आयू पूर्वे बांधियो । उपशम समय अबंध, पड़ये छते फुन बांधस्यै ।। ६२. तुर्य क्षपक नै जान, पूर्वे आयू बांधियो । बांधै नहिं वर्तमान, अनागते नहि बांधस्यै ।। ६३. *सलेशी जाव शुक्ल विषे रे, भणवा भांगा च्यार । जाव शब्द में जाणवा, कृष्णादिक रे लेश्या अवधार के। सोरठा ६४. प्रथम भंग इम लेह, शिव नहिं जास्यै तेह विषे । चरमशरीरपणेह, जन्म होस्य तसु द्वितीय भंग ।। ६०. तत्र प्रथमोऽभव्यस्य द्वितीयो यश्च रमशरीरो भविष्यति तस्य । (वृ. प. ९३२) ६१. तृतीयः पुनरुपशमकस्य, स ह्यायुर्बद्धवान् पूर्व उपशमकाले न बध्नाति तत्प्रतिपतितस्तु भन्त्स्यति । (व. प. ९३२) ६२. चतुर्थस्तु क्षपकस्य, स ह्यायुर्बद्धवान् न बध्नाति न च भन्त्स्यतीति । (वृ. प. ९३२) ६३. सलेस्से जाव सुक्कलेस्से चत्तारि भंगा। 'सलेस्से' इह यावत्करणात् कृष्णलेश्यादिग्रहः । (वृ. प. ९३२) ६४. तत्र यो न निर्वास्यति तस्य प्रथम: । यस्तु चरमशरीरतयोत्पत्स्यते तस्य द्वितीय । (वृ. प. ९३२) ६५. अबन्धकाले तृतीयः, चरमशरीरस्य च चतुर्थः । (वृ. प. ९३२) ६६. एवमन्यत्रापि । (वृ. प. ९३२) ६५. आयु अबंध काल, तृतीय भंग तेहनै विषे । भंग चतुर्थो न्हाल, चरमशरीरी जीव में ।। ६६. अन्य स्थान पिण एम, कहिवा भंग विचार नै । पवर न्याय धर प्रेम, आगल इम अवलोकियै ।। ६७. *चरम भांगो अलेशी विषे रे, शैलेशी सिद्ध एह । वर्तमान अनागत अद्धा, कर्म आयु रे तसु अबंधपणेह के ।। ६७. अलेस्से चरिमो भंगो (श. २६१२२) 'अलेस्से चरमो' त्ति अलेश्य:--शैलेशीगतः सिद्धश्च तस्य च वर्तमानभविष्यतकालयोरायुषोऽबन्धकत्वाच्चरमो भङ्गः। (व. प. ९३२) ६८. कण्हपक्खिए णं-पुच्छा । गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ । ६८. पूछा कृष्णपाक्षिक तणों रे, जिन कहै भांगा दोय । प्रथम अने तीजो हुवै, दूजो चउथो रे पावै नहीं कोय के ।। सोरठा ६९. धुर भंग अभव्य न्हाल, तृतीय भंग बांधै नथी । __ आयु अबंध काल, उत्तर-काले बांधस्य ।। ६९ कृष्णपाक्षिकस्य प्रथमस्तृतीयश्च संभवति, तत्र च प्रथमः प्रतीत एव, तृतीयस्त्वायुष्काबन्धकाले न बध्नात्येव उत्तरकालं तु तद् भन्त्स्यतीत्येवं स्यात्, (वृ. प. ९३२) ७०. द्वितीयचतुर्थी तु तस्य नाभ्युपगम्येते, (व. प. ९३२) ७०. द्वितीय तुर्य भंग जाण, अंगीकार न कियो इहां । तास न्याय पहिछाण, कहियै छै ते सांभलो ।। ७१. कृष्णपाक्षिक छै जेह, कृष्णपक्ष नां भाव में । ___आगामिक कालेह, आयु अबंध न सर्वथा ।। *लय : सुरतरु नों परै वाहिलो ७१,७२. कृष्णपाक्षिकत्वे सति सर्वथा तदभन्त्स्यमानताया अभाव इति विवक्षणात्, (व. प. ९३२) श०२६, उ०१, ढा० ४७० २५९ Jain Education Intemational Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. इ छा करि ताथ, द्वितीय न कह्या श्री जिनराय, एहवुं ७३. *शुक्लपाक्षिक समदृष्टि में रे, भागा च्यार भणिय, आयु कर्मज रे सोरठा ७४. शुक्लपाक्षिक पूर्व काले इष्ट, प्रथम भंग नों न्याय इम । आऊ कर्मज बांधियो । ऊपरे ।। ७८. बंध काल पुन जेह, ७९. बांध्यो पूर्व जेह, ७५. बांधे फुन बंध काल, अनागते जे अन्य भवे । वली वधस्यै म्हाल, अबंध काल ने ७६. बांध्यो पूर्व भवेह, बांधे छै वर्त्तमान आगामिक भव जेह नयी बांधस्पै चरम ७७. वांध्यो पूर्व जे हिवड़ों जे बांधे अबंध काल विषेह, अथवा उपशम अथवा उपशम थी आगामिक कालेह वली बांधस्य तृतीय वर्त्तमान नथी बांधस्यै तेह, क्षपकपणे ए ८०. मिध्यादृष्टी ताहि द्वितीय भंग नहि आगामि भव मांहि चरम तनु ८१. तृतीय बांधै नाहि, एह अबंध बंध काल रे मांहि बलि बांधस्यै पूर्व जेह, २. यो वर्तमान नवी बांधस्थे तेह, चरम तनु ८३. * समा- मिथ्यादृष्टि पूछियां रे, जिन कहै कोइक जीव । पूर्व बांध्या हिवड़ा बांधे नहीं, तुर्य प्राप्ति अद्धा वलि बांधस्य तृतीय भंग कहीव के ।। २४. कोइक जीव अतिको रे, वांध्यो पूर्व काल । वर्तमान बांधे नहीं, नथी बांधस्यं रे भंग तुयं निहाल के || सोरठा समदृष्ट * ८७. 'प्यार भांगा ज्ञानी विषे जावत अवधिज्ञानी विषे, चतुर्थो भंग बे। न्यायज वृत्ति में ॥ मिष्यादृष्टी मांग आश्रयी कहिवाय के || *लय रतन परं दोहिलो २६० भगवती जोड़ भव । तनु ॥ नहीं । अवस्था || पड़यां । भंग ॥ नथी । ८५. पूर्व बांध्यो जेह, मिश्रपणे बांधं नयी । वली बांधस्यै तेह, तृतीय भंग नुं स्वाय ए ॥ ६. पूर्वे बांध्य ताहि, वर्त्तमान बांध वली बांधस्यै नांहि, चरम-शरीरपणां नथी । विषे ॥ रे पूर्वजी परि न्याय । भंग ।। बांधस्ये । विषे ॥ विषे । तृतीय भंग | बांध नथी । प्राप्ति विषे ॥ च्यार भांगा रे भाख्या जिनराय के || ७२. कखिए सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी चत्तारि भंगा। (. २६०२३) तत्र ७४, ७५. शुक्ल पाक्षिकस्य सम्यग्दृष्टेश्चत्वारः, बद्धवान् पूर्वं बध्नाति च बन्धकाले भन्त्स्यति चाबन्ध कालस्योपरीत्येकः १ । (बृ. प. ९३२) ७६. बद्धवान् बध्नाति न भन्त्स्यति च चरमशरीरत्वे इति द्वितीयः २ । (बु. प. ९३२) ७७,७८. तथा बद्धवान् न बध्नात्यबन्धकाले उपशमावस्यायां वा भरस्यति च पुनर्वन्धकाले प्रतिपतितो वेति तृतीयः ३ । (बृ. प. ९३२) ७९. चतुर्थस्तु क्षपकस्येति ४ ८०. मिध्यादृष्टिस्तु द्वितीयन शरीरप्राप्ती । ८१. तृतीये न बध्नात्यबन्धकाले । ८२. चतुर्थे न बध्नात्यबन्धकाले न भन्त्स्यति चरमशरीरप्राप्ताविति । (बु. २३२) ( वृ. प. ९३२) भरस्वति परम ( वृ. प. ९३२ ) (बृ. प. ९२२) ३. सम्मामिच्छाविडी पुच्छा गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ । - ८४. अत्थेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ । ८५. 'सम्मामिच्छे' त्यादि, सम्यग्मिथ्यादृष्टिरायुर्न बध्नाति । ( वृ. प. ९३२ ) ८६. चरमशरीरत्वे च कश्चिन्न भन्त्स्यत्यपीतिकृत्वा । ( वृ. प. ९३२ ) ८७. नाणी जाव ओहिनाणी चत्तारि भगा । (श. २६।२४ ) ज्ञानिनां चत्वारः प्राग्वद्भावयितव्याः । (बृ. प. ९३२, ९३३) Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० समचं नाणी, मति, श्रुत, अवधिज्ञानी में दुजो भांगो को ते देवता, नारकी अवधिज्ञानी आश्रयी जाणवुं । जे अवधिज्ञानी देवता, नारकी पूर्व भवे आऊ बांध्यो, वर्तमान भवे मनुष्य नों आऊ बांधे अने अनागत भवे चरमशरीरी मार्ट आऊ न बांधस्यै । पिण मनुष्य तिर्यंच आश्रयी न संभवे । जे मति, श्रुत अवधिज्ञानी पूर्व भने बायो वर्तमान भवे देव आऊ व ते तो देवता ने भवे अवश्य आऊ बांधस्य ते मार्ट बांध्यो, बांधे, न बांधस्यै ज्ञानी, मति, श्रुत, अवधि नाणी मनुष्य, तिर्यंच ₹ न संभवं । ए दूजो भांगो मनपर्यय तणी पृच्छा रे, तब भाखं जिनराय । कोइ पूर्वे बांधियो, हिवड़ां बांधे रे वली बांधस्यै ताय के || ८९. कोइक पूर्वे बांधियो रे, नहि बांधे वर्त्तमान । अनागते फुल बांधस्यै भंग तीजो रे कहिये पहिचान के ॥ ९०. कोइक पूर्व बांधियो रे, बांधे नहीं वर्त्तमान | अनागते नहि बांध तुर्य भांगो रे कहिये सुविधान के || , सोरठा ९१. पूर्वे वांड्यो ताहि, फुन बांधे सुर आउखो । देव तषां भव मांहि मनुष्य आउ फुन बांधस्य ॥ ९२. पूर्व बांध्यो ताहि, हिवड़ों बांधे छेतिके । वली बांधस्पे नाहि ए द्वितीय भंग नहि संभवे ॥ ९३. देव तणां भव मांहि अवश्य मनुष्य नों आउखो । तेह बांधस्यै ताहि द्वितीय भंग नहि ते भणी ॥ ९४. पूर्वे बांध्यो जेह नहि बांध उपशम विषे । । पड़ियां पछेज तेह, वली बांधस्यै तृतीय भंग ॥ ९५. पूर्वे बांध्यो ताहि, क्षपक विषे बांधे नहीं । बलि वधस्य नाहि, तुर्य भंग नों न्याय ए ॥ बांधस्यै चरम भांगो पहिचान । ॥ ९६. *केवलज्ञानी ने कह्यो रे, तिके आउ कर्म बांध नहीं, नहीं बांध रे वल ते सुजान के ९७. इम इण अनुक्रमे करी रे, नोसण्णोवउत्ते चीन । मनपर्यव तणी परै, भांगा कहिये रे बीजा विण तीन कँ ।। ९८. अवेदी अकषाई विषे रे, तृतीय तुर्य भंग दोय । जिम मदृष्टि विषे कला, तिम कहिया रे इम सूत्रे जोय के सोरठा ९९. अवेदक अकषाय ए बि उपशम क्षपक वा । कर्म आउखो ताय, वर्त्तमान बांधे नवी ॥ १००. क्षपक बांधस्य नांय, उपशम पड़ियां बांधस्यै । अवेदको अकषाय, तृतीयो भंगक इम हुवे ॥ *लय : सुरतरु मीं परं बोहिलो ८८. मणपज्जवनाणी - पुच्छा । गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ । ८९. अत्येतिए बंधी न बधइ बंधिस्स | ९०. अत्थे गतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ । ९१. मनः पर्यायज्ञानिनो द्वितीयवर्णास्तत्रासी पूर्वमायुर्बद्धवान् इदानीं तु देवायुर्बध्नाति ततो मनुष्यायुर्भन्त्स्यतीति प्रथमः । (बु.प. ९३३) ९२. बध्नाति न भन्त्स्यतीति न संभवति । ( वृ. प. ९३३) ९३. अवश्यं देवत्वे मनुष्यायुषो बन्धनादितिकृत्वा द्वितीयो नास्ति । (बु. प. ९३३) ९४. तृतीय उपशमकस्य स हि न बध्नाति प्रतिपतितश्च भन्त्स्यति । (बु. प. ९३३) (बृ. प. ९३३) ९५. क्षपकस्य चतुर्थ, ९६. केवलनाणे चरिमो भंगो । 'केवलनाणे चरमो' त्ति केवली ह्यायुनं बध्नाति न च भरस्वतीतिकृत्वा, ( वृ. प ९३३) बितिय विहूणा जहेव ९७. एवं एएणं कमेणं नोसण्णोवउत्ते मणपज्जवनाणे | ९८. अवेदए अकसाई थ ततिय चउत्था जहेव सम्मामिच्छते । ९९. अवेदकोऽकषायी च क्षपक उपशमको वा तयोश्च वर्तमानबन्धो नास्त्यायुषः । (बृ. प. ९३३) १००. उपशमकश्च प्रतिपतितो भन्त्स्यति क्षपकस्तु नैवं भन्त्स्यतीति कृत्वा तयोस्तृतीयचतुर्थी, (वृ प. ९३३) श० २६, उ० १, ढा० ४७० २६१ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१. *चरम भांगो अजोगी विषे रे, शेष पदे चिउं भंग । जाव अनाकारोवउत्ते, अर्थ चारू रे जिन वचन सूचंग कै । १०१. अजोगिम्मि चरिमो, सेसेस पदेस चत्तारि भंगा जाव अणागारोवउत्ते। (श. २६।२५) १०२-१०४. 'सेसेसु' त्ति शेषपदेषु–उक्तव्यतिरिक्तेषु अज्ञान १ मत्यज्ञानादि ३ सज्ञोपयुक्ताहारादिसज्ञोपयुक्त ४ सवेद १ स्त्रीवेदादि ३ सकषाय १ क्रोधादिकषाय ४ सयोगि १ मनोयोग्यादि २ साकारोपयुक्तानाकारोपयुक्तलक्षणेषु चत्वार एवेति । (वृ.प. ९३३) सोरठा १०२. अन्य पद एह पिछाण, समुच्चय अनाणी प्रथम । वलि जे तीन अनाण, आहारादि संज्ञोपयुक्त ।। १०३. सवेद स्त्री-वेदादि, सकषाई क्रोधादि चिहुं । सजोगी मनजोगादि, साकार नै अनाकार फुन ।। १०४. ए तेवीसं बोल, शेष पद में आविया । तिणमें चिहुं भंग तोल, कहिवा जिन वचने करी ॥ ए समुच्चय जीव दंडक आश्रयी कह्यो। हिवै नारकादि चउवीस दंडक ते आयु कर्म आश्रयी कहै छ१०५. *नारक हे भगवंतजी! रे, आउखा कर्म प्रतेह । स्यूं बांध्यो बांध बांधस्य? इत्यादिक रे चिउं भंग पूछेह के। १०६. श्री जिन भाखै गोयमा ! रे, कोइक नारक जेह । बांध्यो बांधे बांधस्यै, इत्यादिक रे चिउं भंग लहेह कै ।। १०५. नेरइए णं भंते ! आउयं कम्म कि बंधी-पुच्छा। १०६. गोयमा ! अत्थेगतिए चत्तारि भंगा, १०७. तत्र नारक आयुर्बद्धवान् बध्नाति बन्धकाले भन्त्स्यति भवान्तर इत्येक: १, (वृ. प. ९३३) १०८. प्राप्तव्यसिद्धिकस्य द्वितीयः, (वृ. प. ९३३) १०९,११०. बन्धकालाभावं भाविबन्धकालं चापेक्ष्य तृतीयः, (वृ. प. ९३३) १११. बद्धपरभविकायुषोऽनन्तरं प्राप्तव्यचरमभवस्य चतुर्थः, (वृ. प. ९३३) ११२. एवं सब्वत्थ वि नेरइयाणं चत्तारि भंगा, नवरं सोरठा १०७. नारक आऊ जेह, बांध्यो पूर्व भव विषे । बांध वंध-कालेह, भवांतरे फुन बांधस्य ।। १०८. बांध्यो पूर्व भवेह, बंध-काल बांधे वली । नथी बांधस्य जेह, मनुष्य थइ नै सीझस्यै ।। १०९. पूर्वे बांध्यो ताहि, वर्तमान बंध-काल नहीं । तिणसू बांधे नाहि, जे नारक नां भव विषे ।। ११०. होणहार बंध-काल, तिण वेला ते बांधस्य । तेह अपेक्षा न्हाल, तृतीय भंग ए जाणवू ।। १११. बांध्यो परभव आयु, अंतर रहित मनुष्य थइ । वर शिव-गमन करायु, नहिं बांधै नहि बांधस्य ।। ११२. *इम सर्वत्र सर्व स्थानक विषे रे, नारक नै भंग च्यार । णवरं इतरो विशेष छै, तिको कहिय रे आगल अधिकार के ।। ११३. कृष्णलेशी कृष्णपाक्षिके रे, ए बिहं नारक माय । बे भंग तास भणीजिय, धुर तीजो रे भांगा ए पाय के ।। सोरठा ११४. लेश्या पद रै माय, कृष्णलेशी नारक विषे । प्रथम तृतीय भंग पाय, तास न्याय कहिये अछै ।। ११५. कृष्ण लेश्यावंत ताहि, नारक छै ते मरि करी । उपजै तिर्यंच मांहि, वा अचरम तनु मनुष्य में ।। ११६. कृष्ण पंचमी मांहि, छठी सातमी में वली । तेहथो नीकल ताहि, अनंतरे शिव गति नथी ।। "लय : सुरतरु नों पर दोहिलो २६२ भगवती जोड़ ११३. कण्हलेस्से कण्हपक्खिए य पढम-ततिया भंगा, ११४. लेश्यापदे कृष्णलेश्येषु नारकेषु प्रथमतृतीयो, तथाहि -- (वृ. प. ९३३) ११५. यतः कृष्णलेण्यो नारकस्तिर्यसूत्पद्यते मनुष्येषु चाचरमशरीरेषु, (वृ. प. ९३३) ११६. कृष्णलेश्या हि पञ्चमनरकपृथिव्यादिषु भवति न च तत उद्वत्तः सिद्धयतीति, (वृ. प. ९३३) Jain Education Intemational Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७. तेहिज नारक जान, बांध्यो नै बांधै तिको । वली बांधस्यै मान, तिरि मनु अचरम तनु भणी ॥ ११८. नारक जे कण्हलेश, अबंध-काल बांधे नथी । बंध-काल सुविशेष, वली बांधस्य तृतीय भंग ।। ११९. द्वितीय तुर्य भंग नांय, आउ अबंधपणां तणां । अभाव थी कहिवाय, वली बांधस्य ते भणी ।। वा.-हिवं कृष्णपाक्षिक में प्रथम भांगो प्रसिद्ध अन बीजो भांगो न पावै । ते कृष्णपाक्षिक पूर्वे बांध्यो, वर्तमान बांध अनै अनागते न बांधस्य-ए तीजो पद न संभव । अन तेहन चरम भव नां अभाव थी तीजो भांगो पावै ३ । अनै चोथो पिण न पावै । ११७. तदेवमसौ नारकस्तिर्यगाद्यायुर्बद्धवा पुनर्भन्त्स्यति अचरमशरीरत्वादिति । (वृ. प. ९३३) ११८. तथा कृष्णलेश्यो नारक आयुष्काबन्धकाले तन्न बध्नाति बन्धकाले तु भन्त्स्यतीति तृतीयः, (वृ. प. ९३३) ११९. चतुर्थस्तु तस्य नास्ति आयुरबन्धकत्वस्याभावादिति । (वृ. प. ९३३) वा. तथा कृष्णपाक्षिकनारकस्य प्रथमः प्रतीत एव, द्वितीयो नास्ति, यत: कृष्णपाक्षिको नारक आयुर्बद्धवा पुनर्न भन्स्यतीत्येतन्नास्ति, तस्य चरमभवाभावात् , तृतीयस्तु स्यात् चतुर्थोऽपि न उक्तयुक्तेरेवेति। (वृ. प. ९३३,९३४) १२०. सम्मामिच्छत्ते ततियचउत्था। 'सम्मामिच्छत्त तइयचउत्थ' त्ति सम्यग्मिथ्यादृष्टे रायुषो बन्धाभावादिति । (वृ. प. ९३४) १२१. असुरकुमारे एवं चेव, नवरं-कण्हलेस्से वि चत्तारि भंगा भाणियब्वा, १२०. *समामिथ्यादृष्टि विषे रे, तृतीय तूर्य बे भंग । आउ बंध नां अभाव थी, ए तो आख्यो रे नारक नों अंग के ।। १२१. इमहिज असुरकुमार ने, नवरं इतरो विशेष । कृष्णलेशी जे असुर अछ, तेहमें पिण रे चिहुं भंग लहेस के ।। सोरठा १२२. नारक दंडक मांय, कृष्णलेशी नारक विषे । प्रथम तृतीय भंग पाय, कृष्णलेशी असुरे चिहुं ।। १२३. असुर मनुष्य गति पाय, सिद्धि संभवै कर तसु । द्वितीय तुर्य भंग थाय, तिणसं असुरे भंग चिहुं ।। १२२. नारकदण्डके कृष्णलेश्यनारकस्य किल प्रथमतृतीयावुक्तो, __ (वृ. प. ९३४) १२३. असुर कुमारस्य तु कृष्णलेश्यस्यापि चत्वार एव, तस्य ही मनुष्यगत्यवाप्तौ सिद्धिसम्भवेन द्वितीयचतुर्थयोरपि भावादिति। (व. प. ९३४) १२४. एवं जाव थणियकुमाराणं । १२४. *एवं जावत जाणवा रे, थणियकूमार विचार । असुरकुमार तणीं परै, ओ तो कहिवो रे सगलोइ' प्रकार के । १२५. पृथ्वी ने सर्व स्थानक विषे रे, भणवा भांगा च्यार । नवरं कृष्णपाक्षिक विषे, पहिलो तीजो रे भांगो अवधार कै ।। १२५. पुढविक्काइयाणं सव्वत्थ वि चत्तारि भंगा, नवरं--- कण्हपक्खिए पढम-ततिया भंगा। (रा. २६/२६) १२६. पृथिवीकायिकदण्डके 'कण्हपक्खिए पढमतइया भंग' त्ति, इह युक्तिः पूर्वोक्तैवानुसरणीया । (वृ. प. ९३४) १२७. तेउलेस्से पुच्छा। गोयमा ! बंधी न बंधइ बंधिस्सइ, सोरठा १२६. कृष्णपाक्षिक महिकाय, प्रथम तृतीय बे भंग तसु । युक्ति पूर्ववत थाय, कहिवी तेह विचार नैं ।। १२७. *तेजुलेशी पृथ्वी नीं पृच्छा रे, तब भाखै जिनराय । बांध्यो न बांध बांधस्यै, तीजो भांगो रे आउ नी अपेक्षाय के ।। ___ सोरठा १२८. तेजूलेशी देव, पृथ्वी विषे समुपजै । तेजुलेशी कहेव, अपर्याप्त भावेज है। *लय : सुरतरु नी परै दोहिलो १२८. तेजोलेश्यापदे तृतीयो भङ्गः, कथं ,?, कश्चिद्देव स्तेजोलेश्यः पृथिवीकायिकेषूत्पन्न: स चापर्याप्तकावस्थायां तेजोलेश्यो भवति, (वृ. प. ९३४) श०२६, उ०१, ढा० ४७० २६३ Jain Education Intemational Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९-१३१ तेजोलेश्याद्धायां चापगतायामायुर्बध्नाति तस्मा तेजोलेश्यः पृथिवीकायिक आयुर्बद्धवान् देवत्वे न बध्नाति तेजोलेश्यावस्थायां भन्त्स्यति च तस्यामपगतायामित्येवं तृतीयः, (व. प. ९३४) १२९. ते तेजू अद्धा मांय, आउखो बांधे नथी । तथा पछै बंधाय, तिणसं तीजो भंग इक ।। १३०. तेजू पृथ्वीकाय, बांध्यो पूर्व सुर-भवे । पृथ्वी तेजू मांय, वर्तमान बांधै नथी। १३१. तेजू मिटयांज ताय, वलि बांधस्यै आउखो। तृतीय भंग इण न्याय, तेजलेशी महि विषे ।। १३२. *कहिवं इम अपकाय नै, इमज वणस्सइकाय । भणवा समस्तपण करी, जिम पृथ्वी रे तिम कहिवं ताय के ।। वा०--पूर्वे पृथ्वी नै विषे न्याय कह्य तिम कृष्णपाक्षिक अप वनस्पति नै विषे प्रथम तृतीय भंग अनै तेजूलेशी नै विषे तीजो भांगो। अन्य स्थानके च्यार भांगा। १३२. एवं आउक्काइय-वणस्सइकाइयाण वि निरवसेसं । वा......एवं आउक्काइयवणस्सइकाइयाणवि' त्ति उक्तन्यायेन कृष्णपाक्षिकेषु प्रथमतृतीयौ भङ्गो, तेजोलेश्यायां च तृतीयभङ्गसम्भवस्तेष्वित्यर्थः, अन्यत्र तु चत्वारः, (वृ प. ९३४) १३३ तेउकाइय-वाउक्काइयाणं सब्वत्थ वि पढम-ततिया भंगा। १३३. तेउकाय वाऊकाय ने रे, सर्वत्र सगलै स्थान । प्रथम तृतीय भंग जाणवा, __ वारू जिन वच रे वर न्याय सुजान के । यतनी १३४. तेउ वाऊकाय मैं ताहि, सर्व स्थान एकादश मांहि । प्रथम तृतीय भंग बे पाय, अंतर रहित मनुष्य नहिं थाय ।। १३५. तिणसू सिद्ध गमन हुवै नांय, तेऊ वाउ मरि तिर्यंच थाय । इण न्याय थकी अवलोय, द्वितीय तुर्य भंग नहिं कोय ।। सोरठा १३६. तेऊ वाऊकाय, सप्तम पृथ्वी नेरइया । सर्व युगलिया ताय, निकल मनुष्य हुवै नथी। १३४,१३५. तेजस्कायिकवायुकायिकानां सर्वत्र एकदशस्वपि स्थानकेष्वित्यर्थः प्रथमतृतीयभङ्गो भवतस्तत उद्वृत्तानामनन्तरं मनुष्येष्वनुत्पत्त्या सिद्धिगमनाभावेन द्वितीयचतुर्थासम्भवाद्, (वृ. प. ९३४) १३६. मनुष्येषु अनुत्पत्तिश्चैतेषां 'सत्तममहिनेर इया तेउवाऊ अणंतरुत्वट्टा । न य पावे माणुस्सं तहेवऽसंखाउआ सब्वे ॥' (व. प.९३४) १३७. बेइंदिय-ते इंदिय-चरिदियाणं पि सम्वत्थ वि पढम ततिया भंगा, नवरं ... १३८. सम्मत्ते, नाणे, आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे ततिओ भंगो । १३७. *बे ते चउरिद्री जीव ने रे, सर्व स्थानक रै माय । प्रथम तृतीय भंग जाणवा, ___णवरं इतरो रे विशेषज पाय कै ।। १३८. सम्यक्त्व मति श्रुत ज्ञान में रे, तृतीय भंग ए पाय । ए चिहुं आउ बांधै नथी, तिण कारण रे, तीजो भंग कहिवाय के । यतनी १३९. तेहन विकलेंद्री थी ताय, अंतर रहित मनुष्य तो थाय । पिण शिवगति पामै नांय, तिण सुं अवश्य आउ बंधाय ।। १३९. यतस्तत उद्वत्तानामानन्तर्येण सत्यपि मानुषत्वे निर्वाणाभावस्तस्मादवश्यं पुनस्तेषामायुषो बन्ध इति, (व. प. ९३४) १४०. तदुक्त विकलेन्द्रियाणां सर्वत्र प्रथमतृतीयभङ्गाविति तदपवादमाह (वृ. प. ९३४) १४०. तिण कारण सर्वत्र स्थान, प्रथम तृतीय भंग जिन वान । सूत्रे णवरं विशेष संवाद, वृत्तिकार कह्यो अपवाद ।। *लय : सुरतरु नों पर वोहिलो २६४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Education International Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१,१४२. सम्यक्त्वे ज्ञाने आभिनिबोधिके श्रुते च विक लेन्द्रियाणां तृतीय एव, यतः सम्यक्त्वादीनि तेषां सासादनभावेनापर्याप्तकावस्थायामेव, तेषु चापगतेष्वायुषो बन्ध इत्यतः पूर्वभवे बद्धवन्त: (बृ. प. ९३४) १४३,१४४. सम्यक्त्वाद्यवस्थायां च न बध्नन्ति तदनन्तरं च __ भन्त्स्यं तीति तृतीय इति : (वृ. प. ९३४) १४१. सम्यक्त्व ज्ञान मति श्रुत रै माय, एक तीजो भांगो हीज पाय । सास्वादन मति श्रुत ज्ञान, ह विकलेंद्रिय में जान ।। १४२. अपर्याप्तक अवस्था मांहि, तिण वेला आऊ बांधै नांहि । ते मिटयां पछै आऊ बंध, तिण सं पूर्व भवे बांध्यो संध ।। १४३. सम्यक्त्वकादिक रै मांहि, विकलेंद्री आऊ बांधै नांहि । सम्यक्त्वकादिक मिटियां जेह, आऊ कर्म बांधस्य तेह ।। १४४. बांध्यो पूर्व भव में ताहि, नहीं बांधै सम्यक्त्वकादि मांहि । ते मिटयां बांधस्यै सोय, तिणसुं तृतीय भंग इम होय ।। १४५. *पंचेंद्रिय तिर्यंच में रे, कृष्णपाक्षिक रे मांय । भांगा दोय भणीजिय, पहिलो तीजो रे सुणजो तसु न्याय के ।। वा० -पंचेंद्रिय तिर्यंच नै कृष्णपाक्षिक पद विषे पहिलो, तीजो भांगो पावै, निश्च करी कृष्णपाक्षिक आयुष्क बांधी नै अथवा अणबांधी नै ते आयुष्क नां अबंधक अनंतर हीज न हुवं ते कृष्णपाक्षिक नै सिद्धिगमन अयोग्यपणां थकी इति । १४६. समामिथ्या दृष्टि विषे रे, तृतीय तुर्य भंग दोय । तेह आउखो बांधे नथी, ए तो पूर्वे रे आख्यो ते जोय के ।। १४५. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हपविखए पढम ततिया भंगा। वा.- पञ्चेन्द्रियतिरश्चां कृष्णपाक्षिकपदे प्रथमतृतीयौ, कृष्णपाक्षिको ह्यायुर्बध्वाऽबद्ध्वा वा तदबन्धकोऽनन्तरमेव भवति तस्य सिद्धिगमनायोग्यत्वादिति । (वृ. प. ९३४) १४६. सम्मामिच्छत्ते ततियचउत्थो भंगो। 'सम्मामिच्छत्ते तईयचउत्थ' त्ति सम्यग्मिथ्यादृष्टेरायुषो बन्धाभावात्तृतीयचतुर्थावेव, भावितं चैतत्प्रागेवेति। (वृ. प. ९३४) १४७. सम्मत्ते, नाणे, आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे, ओहिनाणे---एएसु पंचसु वि पदेसु बितियविहूणा भंगा, १४७. सम्यक्त्व समुच्चय ज्ञान में रे, मति श्रुत अवधि सुज्ञान । ए पांचूंइ पद विषे, त्रिण भांगा रे द्वितीय विण पहिछान के ।। सोरठा १४८. तिरि पंचेंद्रिय तेह, सम्यक्त्वादि पांचू पदे । आऊ बांधी जेह, वैमानिक में ऊपजै ।। १४९. तेह पुनरपि देव, निश्च आऊ बांधस्य । ते कारण थी भेव, द्वितीय भंग नहिं संभवे ।। १४८,१४९. पञ्चेन्द्रियतिरश्चां सम्यक्त्वादिषु पञ्चसु द्वितीयवर्जा भंगा भवन्ति, कथं ? यदा सम्यग्दृष्ट्यादिः पञ्चेन्द्रियतिर्यगायुर्भवति तदा देवेष्वेव स च पुनरपि भन्स्यतीति न द्वितीयसम्भवः, (व. प. ९३४) १५०. प्रथमतृतीयो तु प्रतीतावेव, चतुर्थः पुनरेव (वृ. प. ९३४) १५१,१५२. यथा मनुष्येषु वद्धायुरसो सम्यक्त्वादि प्रतिपद्यते अनन्तरं च प्राप्तस्य चरमभवस्तदैवेति । (वृ. प. ९३४) १५०. पहिलो तीजो पेख, ते तो प्रसिद्ध हीज छै । तुर्य भंग सुविशेख, तास न्याय इम सांभलो। १५१. मनुष्य तणों संवादि, आऊखो बांध्या पर्छ । पाम्यो सम्यक्त्वादि, अनंतरे वलि मनुष्य है। १५२. चरमशरीरी जेह, मनुष्य चरण ले सिद्ध हस्य । नथी बांधस्यै तेह, तुर्य भंग इण न्याय है।। १५३. सम्यक्त्व आदिज पंच, प्रश्न काल थी पूर्व तिण । बांध्यो आऊ संच, नहिं बांधै नहिं बांधस्य ।। वा०-पंचेंद्रिय तिर्यच नै सम्यक्त्वादि पंच पद विष दूजो भांगो वर्जी तीन भांगा हुवै, ते किम ? जिवार सम्यगदृष्टि आदि पंचेंद्रिय तिथंच आयु बांध *लय : सुरतरु नी पर दोहिलो श० २६ उ० १, ढा० ४७० २६५ Jain Education Intemational Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४. सेसेसु चत्तारि भंगा। तिवार वैमानिक देव नों हीज आउखो बांध ते वैमानिक देव वलि बांधस्य इति । इम द्वितीय भंग न संभव । प्रथम, तृतीय भंग प्रसिद्ध हीज छ। अनै चतुर्थो भंग इम –जे तिर्यंच पंचेंद्रिय पहिला चरमशरीरी मनुष्य नों आउखो बांधी पर्छ सम्यक्त्वादि ज्ञान पामी काल करी चरमशरीरी मनुष्य थयो। इण न्याय पूर्वे बांध्यो, वर्तमान आउखो न बांध, अनागते न बांधस्य । इम चतुर्थ भंग संभव । १५४. *शेष रह्या पद नै विषे रे, च्यार भांगा संपेख । ते शेष पद तेतीस छै, . तिके कहिवा रे जुआ-जुआ उवेख कै ।। वा०—तियंच पंचेंद्रिय में अलेशी १, मन:पर्यायज्ञानी २, केवलज्ञानी ३, नोसण्णोवउत्ते ४, अवेदी ५, अकषाई ६, अजोगी ७ . ए सात बोल वर्जी ४० बोल पावै तिणमें कृष्णपाक्षिक १, समामिथ्यादृष्टि २, समदृष्टि ३, ज्ञानी ४, मतिज्ञानी ५, श्रुतज्ञानी ६, अवधिज्ञानी ७-ए सात बोल तो पूर्वे इहां कह्या हीज छ । शेष बोल ३३ समुच्चय तियंच पंचेंद्री जीव १, सलेशी तिथंच पंचेंद्री २ जाव शुक्ललेशी तिथंच पंचेंद्रिय ८, शुक्लपाक्षिक ९, मिथ्यादृष्टि १०, अनाणी ११, मतिअनाणी १२, श्रुतअनाणी १३, विभंगअनाणी १४, आहारसण्णोवउत्ता १५ जाव परिग्रहसण्णोवउत्ता १८. सवेदी १९ जाव नपुंसकवेदी २२, सकषाई २३ जाव लोभकषाई २७, सजोगी २८ जाव कायजोगी ३१, सागारोवउत्ता ३२, अनाकारोबउत्ता ३३ - ए शेष ३३ में भांगा पावै च्यार। १५५. मनुष्य नैं कहिवं इहविधे रे, जिम जीव नै आख्यात । नवरं इतरो विशेष छै, तिको कहिये रे सुणजो अवदात के । १५६. सम्यक्त्व ओधिक ज्ञान में रे, मति श्रुत अवधि सुज्ञान । यांमे त्रिण भंग द्वितीय विना हुवै, शेष तिमहिज रे कहिवो सुविधान के। १५५. मणुस्साणं जहा जीवाण, नवरं १५६. सम्मत्ते, ओहिए नाणे, आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे ओहिनाणे- एएसु बितियविहूणा भंगा, सेसं तं चेव । १५७. सम्यक्त्वसामान्यज्ञानादिषु पञ्चसु पदेष मनुष्या द्वितीयविहीनाः (व. प.०३४) १५८. भावना चेह पञ्चेन्द्रियतिर्यसुत्रवदवसेयेति । (वृ. प. ९३४) १५९. बाणमंतर-जोइसिय-बेमाणिया जहा असुरकुमारा। सोरठा १५७. सम्यक्त्वादिक पंच, पद पावै ते मनुष्य में । भांगा तीन विरंच, द्वितीय भंग पावै नहीं। १५८. तास न्याय अवलोय, पंचेंद्रिय-तिर्यंचवत । ___ बंधायु मनु जोय, मनुष्य थइ शिव तुर्य भंग ।। १५९. *वानव्यंतर नै जोतिषी रे, वैमानिक ए तीन । जिम कडा असुरकुमार ने, तिम कहिवा रे एहनै पिण चीन के ।। १६०. नाम गोत्र अंतराय ने रे, ज्ञानावरणी जिम जान । सेवं भंते ! सेवं भते ! स्वामजी, जाव विचरै रे गौतम वर ध्यान के ।। १६१. बंधी शत प्रथम उदेशको रे, चिहुं सौ सित्तरमी ढाल कै । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, सुख संपति रे 'जय-जश' सुविशाल कै ॥ षडविंशतितमशते प्रथमोद्देशकार्थः ॥२६॥१॥ *लय : सुरतरु नी पर दोहिलो १६०, नाम गोयं अंतरायं च एयाणि जहा नाणावरणिज्ज । (श. २६/२७) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (श. २६/२८) २६६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ४७१ दूहा १. प्रथम उद्देशक नै विषे, जीवादिक पणवोस । स्थानक द्वार इग्यार करि, आख्या अधिक जगीस ।। १. प्रथमोद्देशके जीवादिद्वारे एकादशकप्रतिबद्धन्वभिः पापकर्मादिप्रकरणर्जीवादीनि पञ्चविंशति जीवस्थानानि निरूपितानि (व. प. ९३४) २. द्वितीयेऽपि तथैव तानि चतुर्विशतिनिरूप्यन्ते (वृ. प. ९३४) ३. अणंतरोववन्नए णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं कि बंधी-पुच्छा तहेव । ४. गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी, पढम-बितिया भंगा। (श. २६/२९) २. द्वितीय उद्देशे पिण तेहिज, कहियै पद चउवीस । धुर पद जीव तणों तिहां, कहिवो नहीं जगीस ।। अनन्तरोपपन्नक : बन्ध-अबन्ध *प्रश्नोत्तर परवरा, बंधी शतक में द्वितीय उदेश ।। (ध्रुपदं) ३. प्रथम समय नां ऊपनां, तिके नारक हे भगवान ! पापकर्म स्यं बांधियो? - तिमहिज चिहुं भंग प्रश्न पिछान ।। ४. जिन कहै कोइक नारकी, गोयम प्रथम द्वितीय भंग दोय। बांध्यो बांधे बांधस्यै, बांध्यो बांधे नहिं बांधस्यै सोय ।। सोरठा ५. पापकर्म पूछेह, ते मोह कर्म अपेक्षया । प्रथम समय नों जेह, अनंतरोत्पन्न नारकी ।। ६. मोह लक्षण अघ वादि, अबंधपणं नहि छै तिहां । सूक्ष्मसंपरायादि, मोह अबंधक छै जिहां ।। ७. ते सूक्ष्मसंपरायादि, नारक विषे हवै नहीं । तिण कारण संवादि, चरम भंग बे नहिं तिहां ।। ८. *जे सलेशी नारकी, प्रभु ! प्रथम समय उत्पन्न । पापकर्म स्यूं बांधियो? गोयम इत्यादि प्रश्न कथन्न ।। जिन कहै धुर भंग बे हवै, गोयम ! इम सगल अवलोय। कृष्ण लेश्यादिक पद विषे, गोयम ! प्रथम द्वितीय भंग दोय ॥ वा० लेश्यादि पद नै विषे सामान्य थकी नारकादिक नै पिण हुवे जे पद प्रथम समयोत्पन्न नरकादि नै अपर्याप्तकपण करी न हवं ते पद प्रथम समयोत्पन्न नैं न पूछणा ते देखाड़तो थको कहै छै-- ५,६. इहाद्यावेव भङ्गो अनन्तरोपपन्ननारकस्य मोहलक्षणपापकर्माबन्धकत्वासम्भवात्, तद्धि सूक्ष्मसम्परायादिषु भवति, तानि च तस्य न संभवन्तीति । (वृ. प. ९३५) ८ सलेस्से णं भंते ! अणंतरोववन्नए नेरइए पावं कम्म कि बंधी-पुच्छा। ९. गोयमा ! पढम-बितिया भंगा । एवं खलु सव्वत्थ पढम-बितिया भंगा, १०. नवरं इतरो विशेष छ, गोयम ! मिश्रदष्टि मन जोय । वचन जोग नहि पूछवा, गोयम ! प्रथम समय नहि होय ।। वा०-प्रथम उद्देशके समुच्चय नारकी नै मिश्रदृष्टि १, मन जोग २, वचन जोग ३-ए त्रिहं बोल कह्या छ । इहां ए न कहिवा। यद्यपि नारकी ने ए त्रिहुं पद छ तो पिण प्रथम समयोत्पन्नपणे करी ते नारकी नै ते त्रिहुं बोल नहीं। *लय : जीवा ! तूं तो भोलो रे प्राणी इम वा. - लेश्यादिपदेषु, एतेषु च लेश्यादिपदेषु सामान्यतो नारकादीनां संभवन्त्यपि, यानि पदान्यनन्तरोत्पन्ननारकादीनामपर्याप्तकत्वेन न सन्ति तानि तेषां न प्रच्छनीयानीति दर्शयन्नाह (वृ. प. ९३५) १०. नवरं सम्मामिच्छत्तं मणजोगो वइजोगो य न पुच्छिज्जइ। वा.--तत्र सम्यग्मिथ्यात्वाद्युक्तत्रय यद्यपि नारकाणामस्ति तथाऽपीहानन्तरोत्पन्नतया तेषां तन्नास्तीति न पृच्छनीयं, एवमुत्तरत्रापि। (वृ. प ९३५) श०२६, उ०२. ढा० ४७१ २६७ Jain Education Intemational Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. एवं जाव थणियकुमाराणं । ते भणी ए त्रिहुं बोल नहीं पूछवा । इम आगल पिण जाणवा । ११. एवं जावत जाणवू, गोयम ! थणियकूमार लगेह । बोल पावै जे एह में, तिके नारकि नीं परै लेह ।। वा०-प्रथम उदेशे समुच्चय नारकी नै ३५ बोल कहा। अने इहां प्रथम समयोत्पन्न नारकी नै मिश्रदृष्टि १, मन जोग २, वचन जोग ३–ए तीन बोल वर्जी शेष ३२ बोल कहिवा। अने प्रथम उद्देशे समुच्चय भवनपति में ३७ बोल कह्या । नारकी में ३५ बोल पावै । ते माहिलो नपुंसक वेद वर्जी ३४ बोल अनै तेजूलेशी १, स्त्री वेद २, पुरुष वेद ३ ए तीन बोल घाल्या । एवं ३७ बोल समुच्चय पावै। ते ३७ बोल माहिलो मिश्रदष्टि १, मन जोग २, वचन जोग ३ --ए तीन बोल वर्जी शेष ३४ बोल प्रथम समयोत्पन्न भवनपति में कहिवा । १२. धुर समय विकलेंद्रिय जीव ने, गोयम ! वचन जोग न भणेह । प्रथम समय नां ऊपनां, तिण वेला वचन न कहेह ।। वा.-समुच्चय बेइंद्री में प्रथम उदेशे ३१ बोल कह्या । ते माहिला वचन जोग वर्जी शेष ३० बोल इहां प्रथम समयोत्पन्न में कहिवा। ते माट वचन जोग वयों। १३. धुर समय पंचेंद्री तिर्यच , गोयम ! मिश्रदष्टि अवधिज्ञान । विभंग जोग मन वच नहीं, ए तो पंच न भणवा जान ।। १२. बेइंदिय-तेइ दिय-चरिदियाणं वइजोगो न भण्णइ । १३. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पि सम्मामिच्छत्तं, ओहिनाणं, विभंगनाणं, मणजोगो, वइजोगो-. एयाणि पंच न भण्णं ति। १४,१५. मणुस्साणं अलेस्स-सम्मामिच्छत्त-मणपज्जवनाण केवल नाण-विभंगनाण-नोसपणोवउत्त-अवेदग-अकसायमणजोग-बइजोग-अजोगि-एयाणि एक्कारस पदाणि न भण्णति । वा - समुच्चय पंचेंद्री तिर्यच में प्रथम उदेशे ४० बोल कह्या । ते माहिला मिश्रदृष्टि १, अवधिज्ञान २, विभंगअज्ञान ३, मन जोग ४, बचन जोग--ए ५ बोल वर्जी शेष ३५ बोल इहां प्रथम समयोत्पन्न में कहिवा । १४. प्रथम समयोत्पन्न मनुष्य ने गोयम ! अलेशी समामिथ्यात । मनपज्जव केवल वली गोयम ! विभंगअज्ञान विख्यात ।। १५. नोसण्णोवउत्त अवेदगे, गोयम ! अकषाई मन जोय । वचन जोग अजोगी वली, गोयम ! पद ग्यारै नहिं होय ।। वा० समुच्चय मनुष्य में प्रथम उदेशे ४७ बोल कह्या । ते माहिला अलेशी आदि ११ बोल बर्जी शेष ३६ बोल इहां प्रथम समयोत्पन्न मनूष्य में कहिवा। १६. वाणव्यंतर नै ज्योतिषी, गोयम! वैमानिक ने ताहि । जिम नारक तिम जाणवा, तिमहिज त्रिण पद भणवा नांहि ।। वा०-समुच्चय व्यंतर में प्रथम उदेशे बोल ३७ क ह्या । ते माहिला मिश्रदृष्टि १, मन जोग २, वचन जोग ३-ए ३ बोल वर्जी शेष ३४ बोल इहां प्रथम समयोत्पन्न व्यंतर में कहिवा । अनै समुच्चय ज्योतिषी में प्रथम उदेशे ३४ बोल कह्या ते माहिला ए ३ बोल वर्जी शेष ३१ बोल इहां प्रथम समयोत्पन्न ज्योतिषी में कहि वा । अन वैमानिक प्रथम समयोत्पन्न में पिण ए तीन बोल न कहिणा । १७. सर्व नै जे शेष स्थानके, इतर जेह थकी शेष स्थान । सर्वत्र दोय भांगा हवे, ए तो प्रथम द्वितीय पहिछाण ।। १८. प्रथम समय नां ऊपनां गोयम ! एकेद्रिय नै जोय । सर्वत्र स्थानक में विषे गोयम ! प्रथम द्वितीय भंग दोय ।। जहा नेर इयाणं १६. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं तहेव ते तिण्णि न भण्णंति । १७. सव्वेसि जाणि सेसाणि ठाणाणि सव्वत्थ पढम बितिया भंगा। १८. एगिदियाणं सव्वत्थ पढम-बितिया भंगा। २६८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. जहा पावे एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ, एवं आउयवज्जेसु जाव अंतराइए दंडओ। (श. २६/३०) २०. अणंतरोववन्नए णं भंते ! नेरइए आउयं कम कि बंधी - पुच्छा। २१. गोयमा ! बंधी न बंधइ बंधिस्सइ । (श. २५/३१) २२. सलेस्से णं भंते ! अणंतरोववन्नए नेरइए आउयं कम्मं कि बंधी ? एवं चेव ततिओ भंगो। २३. एवं जाव अणागारोवउत्ते । सव्वत्थ वि ततिओ भंगो। हिवं आठ कर्म आश्रयी जूओ-जूओ कहै छै तिहां प्रथम आउखो वर्जी सात कर्म आश्रयी जूओ-जूओ कहै छ१९. जिम पापकर्म विष आखियो, तिम दंडक ज्ञानावरणी ताय । इम आउखो वर्जी करी, यावत कहिवं दंडक अंतराय ।। हिवै आउखा कर्म आश्रयी कहै छ२०. प्रथम समय नां ऊपनां, तिके नारक हे भगवान ! आयु कर्म स्यूं बांधियो? कांइ प्रश्न इत्यादिक जान ।। २१. जिन कहै पूर्व बांधियो, कांइ बांधे नहीं वर्तमान । अनागते फुन बांधस्यै, गोयम ! तृतीय भंग इक जान ।। २२. नारक सलेशी धुर समय नै, स्वामी! आयु कर्म नों अंग । स्यूं बांध्यो? इत्यादिक पूछियां गोयम ! इमहिज तीजो भंग ।। २३. इम जाव अणागारोवउत्त नै, गोयम ! सर्वत्र सगलै स्थान । तृतीय भंग कहिवू इहां गोयम ! आयू कर्म आश्रयी जान ।। २४. एवं मनुष्य वर्जी करी, गोयम ! जाव वैमानिक अंत । मनुष्य ने सर्व स्थानक विषे, गोयम ! तृतीय तुर्य भंग हुंत ।। सोरठा २५. प्रथम समय नां ताहि, मनुष्य ऊपनां आयु प्रति । बांध्यो बांधे नाहि, अचरम तनु कुन बांधस्यै ।। २६. चरमशरीरी ताहि, बांध्यो – बांधै नथी । वलि बांधस्य नाहि, तुर्य भंग इण न्याय है। २७. 'नवरं कृष्णपाक्षिक विषे गोयम ! तृतीय भंग इक पाय । मनुष्य में शेष बोलां विषे, गोयम ! तृतीय तुर्य भंग थाय ।। २८. सर्व नारकादि जीव नैं, जिके पापकर्म दंडकेह । नानात्व भेद का अछ, तेहिज आयू विषे पिण लेह ।। वा०-सर्व नारकादिक जीव नै जे पाप कर्म दंडक नै विषे कां नानापणुं तेहिज आयु दंडक नै विष पिण इति । २४. एवं मणुस्सवज्ज जाव वेमाणियाणं । मणुस्साणं सव्वत्थ ततिय-चउत्या भंगा, २५. यतोऽनन्तरोत्पन्नो मनुष्यो नायुबंधनाति भन्त्स्यति पुनः (वृ. प. ९३५) २६. चरमशरीरस्त्वसौ न बध्नाति न च भन्स्यतीति । (वृ. प. ९३५) २७. नवरं-कण्हपक्खिएसु ततिओ भंगो। २८. सव्वेसि नाणत्ताइ ताई चेव। (श. २६/३२) वा.-नारकादिजीवानां यानि पापकर्मदण्डकेऽभिहितानि नानात्वानि तान्येवायूदण्डकेऽपीति । (वृ. प. ९३५) २९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. २६/३३) द्वितीयोद्देशकोऽनन्तरोपपन्नकान्नारकादीनाश्रित्योक्तस्तृतीयस्तु परम्परोपपन्नकानाश्रित्योच्यते (वृ. प. ९३५) २९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ते स्वामजी, बंधी शतक नों द्वितीय उदेश । अनंतरोत्पन्न आखियो, हिवै परंपरोत्पन्न कहेस ।। षड्विंशतितमशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥२६॥२॥ परम्परोपपन्नक :बन्ध-अबन्ध ३०. बे आदि समय नां ऊपनां, स्वामी ! परंपरोत्पन्न जेह । नारक पापकर्म स्यूं बांधियो ? गोयम इत्यादि प्रश्न पूछेह ।। ३१. जिन कह कोयक बांधियो, गोयम ! इम धुर भांगा बेय । बांध्यो बांधे बांधस्य, बांध्यो बांध्य न बांधस्यै केय ।। ३२. इम जिम प्रथम उदेशके, कह्या जीव नारकादि साथ । तिमहिज तृतीय उदेशके, कहिवो परंपरोत्पन्न संघात । ३०. परंपरोववन्नए णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा। ३१. गोयमा ! अत्थेगतिए पढम-बितिया । ३२. एवं जहेव पढमो उद्देसओ तहेव परंपरोववन्नएहि वि उद्देसओ भाणियब्वो। श० २६ उ०३, ढा०४७१ २६९ Jain Education Intemational Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३३. प्रथम उदेशक मांहि जीव नारकादि केवल आख्यो ताहि, पंचवीस पद ३४. वहां नारकी आदि, कहिया विध संवादि, संवादि, ३५. *का नारक आदि देइ करी, तिमहिज नव दंडक संगृहीत समुच्चय पापकर्म नों प्रथम हि, ज्ञानावरणादि आठ प्रतीत ।। ३६. इम नव दंडक पूर्वे कह्या, गोवम! तिण करि युक्त पिछाण । कहिवो एह उदेशके, गोयम! वारू रीत विनाम ।। वा० - नेरइयाओत्ति नारकादिक इहां कहिवा इत्यर्थः । तहेव नव दंडगसंगहिओत्ति पापकर्म ज्ञानावरणादि प्रतिबद्धा जे नव दंडक पूर्वे कह्या तेणे करी संगृहीत युक्त जे उदेशक ते तथा । ३७. आठूं कर्म प्रकृति तणीं, हीणी नहीं अधिक नहीं, ३८. जावत वैमाणिक तणें तिहां लगे कहियो सह, ३९. बंधी दावोसम शतक नों जिका वक्तव्यता कही जास । तिका वक्तव्यता कहिवी तास ।। गोयम ! अनाकार उपयोग | सेवं भंते सेवं भंत ! जोग ।। वारू तृतीय उदेशक ताम । वारू जिन वच अति अभिराम ।। आखी ढाल रसाल उदार । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय भी नित्य 'जय जय' मंगलाचार | अर्थ थकी ए आखियो, ४०. चिसौ एकोतरमी भली, 7 यशतितमशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥२६॥३॥ प्यार बीस पद हीण ते । तेहिज तेहिज कहिये छे हि ॥ अनन्तरावगाढ बन्ध-अबन्ध २७० ढाल : ४७२ विषय | जूजुआ ।। १. प्रथम समय जे नारको, अनंतशेवगाढा तिके, २. अनंतशेवगाढक प्रभु ! कहिये नारक पापकर्म स्यं बांधियो ? प्रश्न ३. जिन कहे केवक इम जिमज नव दंडक संगृहीत जे को ४. प्रथम समय अवगाढ पिण, ही नहीं अधिक नहीं, भगवती जोड़ दूहा अवगाह्यो जे सेत । नारक तेथ ॥ जेह निहाल इत्यादिक भाल || अनंतरोत्पन्न देह । उदेशक तेह || नव भणिवो दंडक संगृहीत | तिमज सुरीत || २२. हे पसओ'त जीवनारकादिविषयः केवलं तत्र जीवनारकादिपञ्चविंशतिः पदान्यभिहितानि ( वृ. प. ९३६) ३४. इह तु नारकादीनि चतुर्विंशतिरेवेति एतदेवाह( वृ. प. ९३६) ३५.या तब नवदगसंगहि | ३६. अदृह वि कम्मप्पगडीणं जा जस्स कम्मस्स वत्तव्वया सा तस्स अहीणमतिरित्ता नेयव्वा । बा'रइयाशी' सिनारकादयोऽष वाच्या इत्यर्थः सहेब नयदंडसंगहिओ ति पापकर्मज्ञानावरणादिप्रतिबद्धा ये नव दण्डकाः प्रागुक्तास्तैः सङ्गृहीतो- युक्तो य उद्देशकः स तथा । ( वृ० प० ९२६) ३७. जाव वेमाणिया अणागारोवउत्ता । (श. २६ ३४ ) सेवं भंते! सेव भते ! त्ति । (प्र. २६.३५) २. अनंतरोगाढए णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा । ३. गोयमा ! अत्थेगतिए एवं जहेव अनंत रोष्वन्न एहि नवदंगसंग हिओ उद्देसो भणिओ । वि ४. तहेव अत भाणियन्यो । अहीणमतिरित्तो Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाम || ५. नारक आदि देइ करी, कहिया पद चडवीस ए वा० - इम चतुर्थ आदि एकादशांत लगे नवरं 'अनंतरोगाढे' त्ति उत्पत्ति समय अपेक्षया अत्र अनंतशेवगाढपणुं जाणवो अन्यथा अनंतरोत्पन्न अन अनंतराव गाढ नैं समान स्वरूपपणुं न हुवै । ६. पटवीसम बंधी शतक, तुर्य उदेशक तास । अर्थ थकी ए आखियो, पंचम हिवै प्रकाश ॥ षड्विंशतितमशते चतुर्योद्देश कार्यः || २६|४|| परम्परावगाढ बन्ध-अबन्ध अवगाह्यो जे खेत । छे हिव एष ॥ नारके जान । इत्यादि पिछान ॥ ७. वे आदि समय नां नारकी, परपरोवगाढक तिके, कहिये परंपरोवगाढक प्रभु ! जेह पापकर्म स्यं वांधियो ? प्रश्न ९. जिम परंपरोत्पन्न साथ हि तृतीय उदेशक ख्यात । तेहिज संपूर्ण इहां, भणिवो ए अवदात || १०. से भंते! स्वामजी, बंधी शतके ताम । पंचमुदेशक अर्थ थी, आख्यो अति अभिराम ॥ विंशतितमशते पंचमोद्देशकार्यः ।। २६।५ ।। ८. वैमानिक लग नाम । सेवं भंते ! अनन्तराहारक बन्ध - अबन्ध *बंधी शतक तुम्हें सांभलो (प) ११. प्रथम समय जे नारकी, आहार लिये ते अनंतर आहार के । प्रभु ! पापकर्म स्यूं बांधियो ? इत्पादिक जे प्रश्न प्रकार के ।। १२. जिन भावं जिमहोज जे अनंतरोन्न साथ उदेश के । आयो छे तिमहीज ए, समस्तपणे कहिवो सुविशेष के । १३. सेयं भते! स्वामजी ! बंधी शतक नुं षष्ठमुद्देश के अर्थ थकी इम आखियो, श्रीजिन वचनामृत सुविशेष के ।। विशतितमते षष्ठोशकार्थः ।।२६।६।। परम्पराहारक बन्ध - अबन्ध १४. बे आदि समयवर्ती नारकी, प्रभु ! पापकर्म स्यूं बांधियो ? । आहार लिये ते परंपर आहार के 1 इत्यादिक ने प्रश्न प्रकार के १५. जिन भावे जिमहोज जे परंपरोत्पन्न साथ उदेश के । यो छै तिमी ए. समस्तपणं कहिवो सुविशेष कै ॥ १६. सेव भवे ! स्वामजी ! बचो शतक नौ सप्तमुदेश के अर्थ को ए आखियो, वारू जिन वच अधिक विशेष के ।। वंशतितमशते सप्तमोद्देशकार्यः ॥२६॥७॥ *लय हूं बलिहारी जादवां ५. नेरइयादीए जाव वेणाणिए । (. २६३६) सेवं भंते ! सेवं भते । त्ति । (श. २६/१७) वा० - 'अनंतरोगाढे' त्ति उत्पत्तिसमयापेक्षयात्रानन्त रावगाढत्वमवसेयं, अन्यथाऽनन्तरोत्पन्नानन्तरावगाढयोनिविशेषता न स्यात्, (बृ. प. ९२७) ८. परंपरोगाढ‍ णं भंते! नेरइए पावं कम्म कि बंधी ? ९. जब परंपरोएहि उद्देसो सो बेव निरवसेसो भाणियव्वो । ( म. २६०३८) १०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ( श. २६ / ३९ ) ११. अनंतराहारए णं भंते! नेरइए पावं कम्मं कि बंधी पुच्छा । ( वृ. प. ९३७ ) 'अनंतराहार' त्ति आहारकत्वप्रथमतययवर्ती १२. एवं हे अतरोवएहि उद्देसी सहेब निरवसेसं । (FT. PRIKO) ( श. २६/४१ ) १३. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति । १४. परंपराहारए ण भंते ! नेरइए पावं कम्म कि बंधी - पुच्छा परम्पराहारकस्त्वाहारकत्वस्य द्वितीयादिसमवर्ती, (बृ. प. ९३७) १५. गोयमा ! एवं जहेव परंपरोववन्नएहि उद्देसो तहेव निरवसेसो भाणियव्वो । (श. २६/४२ ) (श. २६ । ४३ ) १६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । श० २६, उ० ४ ७, ढा० ४७२ २७१ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तर पर्याप्तक : बन्ध-अबन्ध १७. प्रथम समयवर्त्ता नारकी, अनंतर पर्याप्तक जेह कै । प्रभु ! पापकर्म स्यूं बांधियो ? , इत्यादिक जे प्रश्न पूछेह कै ॥ १८. जिन भाखे जिमहीज जे अनंतरोत्पन्न साथ उदेश के । आरूप छतिमहीज ए, समस्तपणे कहियो सुविशेष के ।। १९. सेवं भंते! स्वामजी ! बंधी शतक नों अष्टमुद्देश के अर्थ थकी ए आखियो, वारू जिन वच अधिक विशेष के ।। षड्विंशतितमशते अष्टमोद्देशकार्यः ||२६|८|| परम्परपर्याप्तक : बन्ध-अबन्ध २०. द्वितीयादि समववर्त्ती नारकी, परंपर पर्याप्त जेह के प्रभु ! पाप कर्म स्यूं बांधियो ? इत्यादिक जे प्रश्न पूछेह के २१. जिन भा जिमहीज जे परंपरोत्पन्न साथ उदेश के ।। आख्यो छे तिमहीज ए, समस्तपणें कहिवा सुविशेष के ॥ २२. सेवं भते ! स्वामजी ! बंधी शतक नों नवम उदेश के । अर्थ की ए आखियो, वारू जिन वच अधिक विशेष कै ।। विंशतितमशते नवमोद्देशकार्यः ॥ २६६ ॥ चरम : बन्ध-अबन्ध २३. जे वलि ते भव नहि पामस्यै, तेह चरम नारक भगवान ! के । पापकर्म स्यूं बांधियो ? इत्यादिक जे प्रश्न पिछान के || २४. जिन भाखं तिमहीज जे परंपरोत्पन्न साथ उदेश के आयो तिमहीज ए. समस्तपणे कहियो सुविशेष के ।। सोरठा अविशेष करिके कथन । जाणवो || सारिखा । तिको ।। २५. यद्यपि ए अवधार, कीधो सूत्र मकार, तथापि विशेष २६. चरम उदेशक बात, परंपरोत्पन्न कहि इहां अवदात, निर्विशेष करिनँ २७. परंपरोवन्न उद्देश, प्रथम उदेशकवत अछे । तिहां मनुष्य में एस, आयु कर्म कर्म अपेक्षया ।। २८. सामान्य थी सुविचार, भांगा प्यार कह्या तिहां इहां चरम मनु धार, आयु आथवी तुर्य भंग ॥ २९. चरम मनुष्य ए ताहि, पूर्वे हिवड़ां बांधे नाहि, अनागते * लय हूं बलिहारी जादवां भगवती जोड़ २७२ आयू बांधियो । नहि बांधस्यै || १७. अनंतरपज्जत्तए णं भंते! नेरइए पावं कम्मं कि बंधी पुच्छा । ( वृ. प. ९३७ ) 'अगतरपज्जन्त' त्ति पर्याप्तवप्रथमसमवर्ती, १५. गोयमा अहेव अतरो निरवसेसं । १९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । उसो त ( . २६/४४) (श. २६/४५ ) २०. परंपरपज्जत्तए णं भंते! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा । २१. गोमा एवं जहेब परंपरोबबनएहि उसो तब निरवसेसो भाणियव्वो । (श. २६/४६ ) २२. सेवं भंते ! सेव भंते! त्ति जाव विहरइ । (श. २६/४७ ) २३. चरिमे णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा । 'चरमे णं भंते! नेरइए' त्ति इह चरमो यः पुनस्तं भवं न प्राप्स्यति, ( वृ. प. ९३७ ) २४. गोमा ! एवं जब परंपरोएहि उसो तहेब परमेहिनिश्वसे । ( . २६/४६ ) श. २५. इह च यद्यप्यविशेषेणातिदेशः कृतस्तथाऽपि विशेषोऽवगन्तव्यः, ( वृ. प. ९३७ ) २६. तथाहि - चरमोद्देशकः परम्परोद्देश कवद्वाच्य इत्युक्तं, ( वृ. प. ९३७ ) २७. परम्परोद्देशश्च प्रथमद्देिशकवत् तत्र च मनुष्यपदे आयुष्कापेक्षया ( वृ. प. ९३७ ) २८. सामान्यतश्चत्वारो भङ्गा उक्ताः तेषु च चरममनुष्यवान वन्धमा एवं घटते, ( वृ. प. ९३७ ) २९. यतो यश्चरमोsसावायुर्बद्धवान् न बध्नाति न च भन्त्स्यतीति, (बु. प. ९३७) Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा. अन्यथा चरमत्वमेव न स्यादिति, एवमन्य त्रापि विशेषोऽवगन्तव्य इति, (व. प. ९३७) ३०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाब विहरइ। (श. २६।४९) वा०—अन्यथा चरमपणुं हीज न हुवै। इम अन्यत्र स्थानके पिण विशेष जाणवू । ३०. सेवं भंते ! स्वामजी, बंधी शतक नों दशम उद्देश के । अर्थ थकी ए आखियो, जिन वच श्रद्धा मिटिय कलेश कै ।। षविशतितमशते दशमोद्देशकार्थः ॥२६॥१०॥ अचरम : बन्ध-अबन्ध ३१. फुन जे तेहिज भव पामस्यै, ते अचरम नारक हे भगवान ! के । पापकर्म स्यूं बांधियो ? इत्यादिक जे प्रश्न पिछान के ।। ३२. जिन कहै कोइक नारकी, जिमहिज प्रथम उदेशे ख्यात कै। तिमहीज सर्वत्र स्थानके, भणवा बे धुर भंग संजात के । ३३. जाव तिथंच पंचेंद्रिय, तिहां लगै कहि अधिकार के । हे प्रभु ! अचरम मनुष्य स्यूं, पापकर्म बंध ? प्रश्न प्रकार के । ३१. अचरिमे णं भंते ! नेर इए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा । अचरमो यस्तं भव पुनः प्राप्स्यति, (व. प. ९३७) ३२. गोयमा ! अत्थेगइए एवं जहेव पढमोद्देसए, पढम बितिया भंगा भाणियध्वा सव्वत्थ ३३. जाव पंचिदियतिरिक्खजाणियाणं । (श० २३।५०) अचरिमे णं भंते ! मणस्मे पावं कम्म कि बंधी-- पुच्छा । तत्राचरमोद्देशके पञ्चेन्द्रियतिर्यगन्तेषु पदेषु पापं कर्माश्रित्याद्यो भङ्गको, (वृ. प. ९३७) ३४. गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थे गतिए बंधी बंधइ न बधिस्सइ, ३५. अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बधिस्सइ । (श. २६॥५१) मनुष्याणां तु चरमभङ्गकवर्जास्त्रयो, यतश्चतुर्थश्चरमस्येति, (व. प. ९३७) ३६. सलेस्से णं भंते ! अचरिमे मणुस्से पावं कम्मं कि बंधी? ३४. जिन कहै कोइक बांधियो, बांधै छै वलि बांधस्य तेह के । कोइक बांध्यो बांधे अछ, अनागते नहीं बांधस्यै जेह के ।। ३५. कोइक बांध्यो न बांध, आगमिक फुन बांधस्यै सोय के । पिण चउथो भांगो हुवै नथी, तुर्य भंग मनु चरम में होय कै ।। ३६. सलेशी अचरम मनुष्य स्यूं, पापकर्म प्रति हे भगवान ! के । बांध्यो बांध बांधस्य ? इत्यादिक जे प्रश्न पिछान कै ।। ३७. इमहिज तुर्य भांगा विना, भणवा जे धुर भांगा तीन के । इम जिम प्रथम उदेशके, भाख्यो छै तिम कहि सुचीन कै ।। ३८. नवरं बीस पदे तिहां, जेह विषे कह्या भांगा च्यार के । तेह विष त्रिण भंग इहां, तुर्य भंग विण धुर रा धार कै । सोरठा ३९. कह्या तिहां पद बीस, जीव सलेशी शुक्ल ए। पाक्षिक-शुक्ल जगीस, सम्यकदष्टि पंचमो ।। ३७. एवं चेव तिण्णि भंगा चरमविहूणा भाणियब्वा एवं जहेव पढमुद्देसे, ३८. नवरं-जेसु तत्थ वीससु चत्तारि भंगा तेसु इह आदिल्ला तिणि भंगा भाणियब्वा चरिमभंगवज्जा । ४०. समुच्चय ज्ञानी सोय, मति-श्रुत-ज्ञानी अवधि फुन । मनपज्जव अवलोय, नोसण्णोवउत्ते वली ।। ४१. अवेद ने सकषाय, लोभकषाई चवदमो। सजोगी कहिवाय, मन-जोगी वच काय फुन ।। ४२. सागार में अनागार, बीस पदे भंग चिहुं तिहां । __ इहां अचरम मनु धार, तिणसूं धुर भंग त्रिणज ह ।। ३९. वीससु पएसु'त्ति, तानि चैतानि-जीव १ सलेश्य २ शुक्ललेश्य ३ शुक्ल पाक्षिक ४ सम्यग्दृष्टि ५ (व. प. ९३७) ४०. ज्ञानि ६ मतिज्ञानादिचतुष्टय १० नोसज्ञोपयुक्त ११ (वृ. प. ९३७) ४१. अवेद १२ सकषाय १३ लोभकषाय १४ सयोगि १५ मनोयोग्यादित्रय १८ (वृ. प. ९३७) ४२. साकारोपयुक्तानाकारोपयुक्त १९, २० लक्षणानि, एतेषु च सामान्येन भङ्गकचतुष्कसम्भवेऽप्यचरमत्वान्मनुष्यपदे चतुर्थो नास्ति, चरमस्यैव तद्भावादिति। (वृ. प. ९३७) *लय : हूं बलिहारी जादवां श० २६, उ०१०,११, ढा० ४७२ २७३ Jain Education Intemational Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. अलेशी में केवली, अजोगी नहीं पूछवा तीन कै । ए त्रिण चरम विषेज है, शेष तिमहिज कहिवाज सुचीन के।। ४३. अलेस्से केवलनाणी य अजोगी य-एए तिण्णि वि न पुच्छिज्जति, सेसं तहेव । 'अलेस्से' इत्यादि, अलेश्यादयस्त्रयश्चरमा एव भवन्तीतिकृत्वेह न प्रष्टव्याः । (वृ. प. ९३७) ४४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिए जहा नेरइए। (श. २६१५२) ४५. अचरिमे णं भंते ! नेरइए नाणावरणिज्जं कम्मं किं बंधी पुच्छा। ४६. गोयमा ! एवं जहेव पाव, नवरं-मणुस्सेसु सकसाईसु लोभकसाईसु य पढम-बितिया भंगा, ४७. पापकर्मदण्ड के सकषायलोभकषायादिष्वाद्यास्त्रयो भङ्गका उक्ता इह त्वाद्यो द्वावेव, (वृ. प. ९३७) ४८. यत एते ज्ञानावरणीयमबद्धवा पुनर्बन्धका न भवन्ति, (वृ. प. ९३७) ४९. कषायिणां सदैव ज्ञानावरणबन्धकत्वात्, (वृ. प. ९३७) ५०. चतुर्थस्त्वचरमत्वादेव न भवतीति, (वृ. प. ९३७) ४४. वाणव्यंतर ने ज्योतिषी, वैमानिक ए त्रिण न ताम के । जेम को छै नारकी, तिमहिज ए त्रिण कहिवा तमाम के ।। अचरम के संदर्भ में आठ कर्म : बन्ध-अबन्ध ४५. स्यं प्रभु ! अचरम नारकी, ज्ञानावरणी कर्म विचार के । बांध्यो बांध बांधस्य ? इत्यादिक जे प्रश्न उचार कै ।। ४६. जिन कहै पापकर्म कह्य, तिमहिज नवरं मनुष्य विषेह के । सकषाई लोभकषाय में, प्रथम द्वितीय भंग पावै बेह के ॥ सोरठा ४७. पापकर्म दंडकेह, सकसायी लोभ-कषाइ में । धुर भंग त्रिण तिहां लेह, इहां आदि धुर भंग बे ।। ४८. सकसाई लोभकसाइ, ज्ञानावरणी कर्म में । अणबांधी ने ताहि, पुनः बंधगा नहिं हुवै ।। ४९. सकसाई अवलोय, ज्ञानावरणी कर्म नां । सदा बधगा होय, तृतीय भंग नहिं ते भणी ।। ५०. तुर्य भंग फुन तास, अचरमपणां थकीज ते । सकसाई ने जास, निश्चै करिक है नहीं। ५१. *शेष अठार पद विषे, चरम भंग विण भांगा तीन कै । शेष तिमज कहिवो सह, जावत वैमानिक लग चीन के ।। ५२. दर्शणावरणी कर्म पिण, कहिवं समस्तपणे इमहीज के । ज्ञानावरणी नीं पर, वारू श्री जिन वच सलहीज के।। वेदनी सगले स्थानके, भंग प्रथम द्वितीयो कहिवाय कै । जावत वैमानिक लगै, तृतीय तुर्य भंग पावै नांय कै॥ सोरठा ५४. कर्म वेदनी ताहि, अबंधका थइ नैं वली । तसु बंधग है नांहि, तृतीय भंग नहिं ते भणी ।। ५५. तुर्य भंग अवलोय, अजोगो ने ईज है। ते माटै ए जोय, भंग चतुर्थो पिण नथी ।। ५६. 'नवरं मनुष्य विषे इहां, अलेशी न केवली जोय के । अजोगी ए त्रिहुं नथी, ए तीन अचरम नहिं होय कै॥ ५७. स्यूं प्रभु ! अचरम नारकी, कर्म मोहणी बांध्यो सोय कै। बांधै नै फुन बांधस्यै ? इत्यादिक पूछा अवलोय के ।। ५८. जिन भाखै सुण गोयमा! पापकर्म जिम पूरव ख्यात के। तिमहिज कहि सर्व ही, जाव वैमानिक लग अवदात ।। ५१. सेसा अट्ठारस चरमविहूणा, सेसं तहेव जाव वेमाणियाणं । ५२. दरिसणावरणिज्ज पि एवं चेव निरवसेसं । ५३. वेयणिज्जे सब्वत्थ वि पढम-बितिया भंगा जाव वेमाणियाणं, 'वेयणिज्जे सव्वत्य पढमबीय' त्ति, तृतीयचतुर्थयोरसम्भवात्, (व. प. ९३७) ५४. एतयोहि प्रथमः प्रागुक्तयुक्तेनं संभवति । (वृ. प. ९३७) ५५. द्वितीयस्त्वयोगित्व एव भवतीति। (व. प. ९३७) ५६. नवरं-मणुस्सेसु अलेस्से केवली अजोगी य नत्थि । (श. २६१५३) ५७. अचरिमे णं भंते ! नेरइए मोहणिज्ज कम्मं किं बंधी -पुच्छा । ५८. गोयमा! जहेव पावं तहेव निरवसेसं जाव वेमाणिए । (श. २६।५४) *लय : हूं बलिहारी जादवां २७४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९. अचरम नारक स्यूं प्रभु! आयु कर्म वाध्यो पूछेह कं । जिन भाखे सुण गोयमा ! प्रथम तृतीय भंग पावे बेह के || सोरठा द्वितीय भंग पावे नथी । नरकायु फुन बांधस्यै || ६०. धुर भंग प्रसिद्ध पिछाण, अचरम नारक जाण, ६१. जिम दूजो भंग नांय, तिमज तु नहि पाय, ६२. पूर्वे बांध्यो सोय, अबंध ६३. *सर्व पदे पण नारके, वलि बांधस्यै जोय, अचरम माटे तृतीय इम ।। इम हिज प्रथम तृतीय भंग दोय के । नवरं मिथदृष्टि विषे तीजो भांगो कहिवो सोय के ।। 1 अचरम नारक नें विषे । ते चरम शरीरके ॥ काल बांधे नथी । सोरठा ६४. पूर्व पद आख्यात, तिण अनुसारे न्याय जे शेष पदे अवदात, कहिवुं सर्व विचार नैं || ६५. * इम जावत थणियकुमार नैं, तेजू लेश्या ने विषे, ६६. शेष सर्व पद में विषे ऊ वाउ सर्व स्थानके, ६७. वे ते चउरद्रिय में विषे अत्र पृथ्वी अप वणरसई मांहि कं ॥ तीजो भांगो कहिये ताहि के || प्रथम तृतीय भंग पावे दोष के पहिलो तीजो भांगो होय कै ॥ महज पहिलो तोजो जान के। नवरं इतरो विशेष छे, सांभलजो धोता सुविधान के ॥ 1 ६८. सम्यक्त्व समुचय ज्ञान में, आभिनिबोधिक नै श्रुत ज्ञान कै । ए च्यारू ही स्थानके, भंग तृतीय भाखै भगवान के || ६९. पंचेंद्रिय नियंत्र नं मिश्रदृष्टि में तोजो भंग के । शेष पदे सह स्थानके, प्रथम तृतीय ने भंग प्रसंग के ७०. मनुष्य ने मिश्रदृष्टि विषे, अवेदक अकसाई मांय कै । तीजो भांगो जाणवो, श्री जिन बच वर निर्मल न्याय के । ७१. अशी मे केवली, अजोगी त्रिहुं पूछवा नांय कै । शेष पदे सह स्थानके, प्रथम तृतीय में भंग कहाय के । वा०-- इहां अचरम मनुष्य नो अधिकार छे। अने अलेशी अजोगी केवली ए तीनूं चरम मनुष्य छ। ते मार्ट ए तीनूं न पूछवा । ७२. वाणव्यंतर नैं ज्योतिषी, वैमानिक वली अचरम न्हाल के । आख्या है जिस नारकी, तिमहिज कहिया न्याय विद्याल के ।। ७३. नाम गोत्र अंतराय ए, ज्ञानावरणी जिम आख्यात कै । तिमहिज ए कहियो सह, सेवं भंते! स्वाम सुजात के || *लय: बलिहारी जावां ५९. अचरिमे ण भते ! नेरइए आउयं कम्म कि बंधी पुच्छा । गोयमा ! पढम ततिया भंगा । ६०. तत्र प्रथम: प्रतीत एव द्वितीयस्त्वचरमत्वान्नास्ति, अचरमस्य हि आयुधोऽवश्यं भविष्यत्यन्यथाऽचरमत्वमेव न स्यात्, ६१. एवं चतुर्थोऽपि, ६२. तृतीये बनाया दुस्तदबन्धकाले पुनग्रस्यरथचरमत्वादिति, (बु.प. ९३०) ६२. एवं सत्यपदे विरइया पढमततिया भंगा, नवरं सम्मामिच्छत्ते ततिओ भंगो । (वृ. प. ९३७) (बृ. प. ९३८) ६४. शेषपदानां तु भावना पूर्वोक्तानुसारेण कर्त्तव्येति । (बू प. ९३०) पुढविक्काइ आउ काइय वणस्सइकाइयाणं तेउलेस्साए ततिओ भंगो । ६५. एवं जाव शणियकुमाराणं ६६ सेसेसु पदेसु सव्वत्थ पढम ततिया भंगा । तेउकाइयवाउवकाइयाणं सव्वत्थ पढम-ततिया भंगा । ६७. बेइंदिय-ते इंदिय- चउरिदियाणं एवं चेव, नवरं ६८. सम्मत्ते ओहिनाणे आभिणिबोहियनाणे सुयनाणेएएसु चउसु वि ठाणेसु ततिओ भंगो । ६९. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं सम्मामिच्छत्ते ततिओ भंगो । सेसपदेसु सव्वत्थ पढम-ततिया भंगा। ७०. मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेदए असाइम्मि य भिंगो ७१. अलेस्स केबलनाण-अजोगी य न पुच्छिज्जंति । सेसपदेसु सव्वत्थ पढम-ततिया भंगा। ७२. वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । ७३. नामं गोयं अंतराइयं च जहेव नाणावर णिज्जं तहेव निरवसेसं । (श. २६।५५) सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ । (२६।२६) श० २६, उ० ११, ढा० ४७२ २७५ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. बंधी शतक छावीसमों, एकादशम उदेशक एह कै । अर्थ थकी इम आखियो, चउवीसै आसु सुदि चउदश लेह के । ७५. च्यारसौ बोहत्तरमी भली, आखी ढाल रसाल उदार के। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' संपति नित्य जयकार कै ।। षविंशतितमशते एकादशोद्देशकार्थः ।।२६।११।। गीतक छंद १. जसु वाणि गौ विशदार्थ पयदात्री पवित्रात्मा मुदा । शुभ अलंकार सुसंवरा' शुभ पद सुवर्णयुता सदा ।। वर वदनरूप अनूप गृह-अंगण थकी निकली करी । बुधजन सभामय ग्राम चत्वर विष सोभाये खरी ।। २. एहवा जु भिक्षु भारिमाल सुरायचन्द गणिन्द ही । तसु सखर करुणा दृष्टि थी धर मोद अधिक अमन्द ही ।। वर जोड़ शतक छवीसमा नी वृत्ति न्याय विलोकने । स्वपरोपकार विचार 'जय-जश रची तन-मन हित घने ।। १,२. येषां गौरिव गौ: सदर्थपयसां दात्री पवित्रात्मिका, सालङ्कारसुविग्रहा शुभपदक्षेपा सुवर्णान्विता । निर्गत्यास्यगृहाङ्गणाबुधसभाग्रामाजिरं राजयेद्, ये चास्यां विवृतो निमित्तमभवन्नन्दन्तु ते सूरयः ।। (व. प. ९३८) १. मूविग्रहा, सुशरीरा २७६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितम शतक Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ४७३ (क) १. शत षटवीसम जीव नें, कर्म बंध अवलोय । क्रिया अतीतादिक अद्धा, विशेष कर कही सोय || २. सप्तबीसमें जीन नं. नैं, तथाविधज पहिचान । कर्म करण क्रिया तिका कहिये गुणो सुजान ॥ पापकर्म : करण अकरण पद *सुणजो अर्थ शतक सप्तवीसमों (धुपदं ) २. जीव अहो भगवंतजी ! पापकर्म स्यं तेह कीधो हिवड़ां पिण करें, करिस्यै आगामिकेह ? ४. अथवा काल अतीत कोधो इणे करें वर्तमान । अनागते करिस्यै नहीं ? भंग दूजो जान || ५. अथवा काल अतीत कीधो इणे, न करै वर्त्तमान । अनागते करिस्यै सही ? तृतीय भंग पहिछान || ६. अथवा कीधो काम अतीत हि न करे वर्तमान । अनागते करिस्यै नहि ? भंग चतुर्थी जान || सोरठा ॥ ७. बंध करण नुं जान, उत्तर तास पिछान, ८. तो स्यूं भेद करेह, भिन्न शतक करि एह ९. जीव तणीं जे जान, सप्तविंशतितम शतक दूहा किसो विशेषज भेद जे ? नहीं छं विशेष एहनों ॥ बंध अने फुन करण ने । आख्यो हि उत्तर तसुं ॥ कर्मबंध क्रिया तिका न तु ईश्वरादि कृता ॥ देखाड़वा अर्थे इहां । बंधकरण अवलोय, भेद करीनें भाखिया ॥ ११. अथवा धुर जे बंध, ते तो कह्यं सामान्य थी । करणपणे जे संध, फलदायक निद्धतादि जे ।। कर्ता जीव पिछान, १०. एह अर्थ नें जोय, १२. * जिन कहै कोइक जीव वर्तमान काले करें १३. कोइक कीधो कर अछे कोइक कीधो करें नहीं, *लय : वीरमती कहे चंद नें जे, कीधो काल अतीत । आगे करिस्यै प्रतीत ॥ नहीं नहीं करिस्यै तेह | बलि करिस्ये जेह ॥ १. अनन्तरशते जीवस्य कर्मबन्धनक्रिया भूतादिकालविशेषेणोक्ता (बु. प. ९३८) २. सप्तविंशशते तु जीवस्य तथाविधेव कर्मकरणक्रियोच्यते ( वृ. प. ९३८ ) ३. जीवे णं भंते! पावं कम्मं किं करिंसु करेति करेस्सति ? ४ करिसु करेति न करेस्सति ? ५. करिसु न करेति करेस्सति ? ६. करिंसु न करेति न करेस्सति ? ७. ननु बन्धस्य करणस्य च कः प्रतिविशेष: ?, उच्यते, न कश्चित्, (बृ. प. ९३८) हि किमिति भेदेनोपन्यासः ? उच्यते (वृ प. ९३८ ) ९,१०. येयं जीवस्य कर्म्मबन्धनक्रिया सा जीवकर्तृका न स्वीश्वरादिकृतेत्यस्यार्थस्यपदार्थ (बु. प. ९३८) ११. अथवा बन्धः सामान्यतः करणं त्ववश्यं विपाकदायि त्वेन निष्पादनं निधत्तादिस्वरूपमिति । (वृ. प. ९३८ ) १२. गोमा ! अतिए करि करेति करेस्सति १३. अत्येतिए करिंसु करेति न करेस्सति, अत्थेगतिए करिसु न करेति करेस्सति, श० २७, ढा० ४७३ २७९ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. कोइक कीधो कर नहीं, समुच्चय जीव विषे इहां १५. प्रभु! सलेशी जीव कीधो ? इत्यादिक प्रश्न जे १६. दम इण आलावे करो, 1 जेहिज वक्तव्यता कही १७. तिमहिज नव दंडक कहिवा इग्यार उद्देशका, वलि करिस्यं नांय | भंग व्याई पाय || पापकर्म प्रवेहभंग या पूजेह ॥ बंधी शतक विषेह । २८० भगवती जोड़ जे 1 वा० - इति करिसु इस्यै शब्द उपलक्षित शत प्राकृत भाषा करिकै करि कहिये । सप्तविंशतितम राते प्रथमोद्देशकादारभ्य एकादशोद्देशकार्थः ।।२७।१-११॥ भणवी सगली तेह ॥ करी, संगृहीतज जेह सप्तवीसम शत एह ।। गीतक-छंद १. शत सप्तवीसम आखियो षटवीसमां शत सारिखो । विस्तार न कह्यं तेनों प्रत्यक्ष ही ए पारिखो || २. पेख्याज पंथ सरीष पथ नों वलि स्यूं देखारिवो । षटवीसमो शत आखियो तिमहीज ए विस्तारियो ॥ १४. अत्येतिए करि न करेति न करेस्सति । १५. सलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्मं ? १६. एवं एएवं अभिलावेणं जच्चेव बंधिसए वत्तब्वया सन्वेव निरवसा भागवण्या १७. तहेव नवदंडगसंगहिया भाणियव्वा । (श. २७१) १,२. व्याख्यातशतसमानं एक्कारस उद्देगा (श. २७/२) वा. - 'करिसुयसयं' ति 'करिसु' इत्यनेन शब्देनोपलक्षितं शतं प्राकृतभाषया 'करिसुयसयं' ति । (बु. प. ९३८) शतमिदमित्यस्य नो कृता विवृतिः । दृष्टसमाने मार्गे किं कुरुताद्दर्शकस्तस्य ॥ १ ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविंशतितम शतक Jain Education Intemational Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविंशतितम शतक ढाल : ४७३ (ख) सोरठा १. सप्त वीसम शत ख्यात, वक्तव्यता कर्म अनुगतं । अथ अनुक्रम आयात, शत अठवीसम अर्थ थी। १. व्याख्यात कर्मवक्तव्यताऽनुगतं सप्तविंशं शतम्, अथ क्रमायातं तथाविधमेवाष्टाविंशं व्याख्यायते, (वृ. प. ९३८) २,३. तत्र चैकादशोद्देशका जीवाद्येकादशद्वारानुगतपापकर्मादिदण्डकनवकोपेता भवन्ति, तत्र चाद्योद्देशकस्येदमादिसूत्रम् (वृ. प. ९३८) २. तिहां उद्देश इग्यार, जीव सलेशादिक जिके । एकादश जे द्वार, पापकर्मादि दंडक नव ।। ३. पापकर्म धुर जोय, अष्ट कर्म नां अठ दंडक सहित जीवादि होय, अथ तसु प्रथम उदेशके ।। पापकर्म : समर्जन-समाचरण पद ४. *जीव जिके भगवंतजी! पापकर्म प्रतेह । किण गति मांहि रह्या थका, ग्रह्या उपाा जेह ? सुणजो अष्टवीसम शत अर्थ थी। ५. किण गति मांहि रह्या थका, समाचरितवंत जेह ? हेतु पाप करण तणां, समाचरण करेह ।। ४. जीवा णं भंते ! पावं कम्मं कहिं समज्जिणिसु ? __ 'कहिं समज्जिणेसु' त्ति कस्यां गतो वर्तमानाः 'समजितवन्तः' ? गृहीतवन्तः (व. प. ९३९) ५. कहिं समायरिंसु ? 'कहिं समायरिंसु' त्ति कस्यां समाचरितवन्तः ? पापकर्महेतुसमाचरणेन, (व. प. ९३९) ६. तद्विपानुभवनेनेति वृद्धाः, (व. प. ९३९) ६. ते पापकर्म नां विपाक नें, अनुभव न करेह । किण गति माहै भोगव्या? वद्ध अर्थ करै एह ।। ७. अथवा किण गति में ग्रह्या, वली किण गति माय । पापकर्म में आचा ? बिहुं शब्द पर्याय ।। ८. जिन भाखै सुण गोयमा ! सह जीव पिण जोय । प्रथम तिर्यंचयोनिका विषे, पद दोनई होय ।। ७. अथवा पर्यायशब्दावेताविति, (व. प. ९३९) ८. गोयमा ! १. सब्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्जा सोरठा ९. तिर्यंच निगोद रूप, ते सगला जीवां तणों । मातृस्थान तद्रूप, ते तिरि बहुतपणां थकी ।। १०. तिणसू सहु पिण जेह, तिथंच थी अन्य जीव जे । नारकि प्रमुख तेह, तिरि थी आवी ऊपनां ।। ११. कदाचित इम थाय, पूर्व भाख्यो तिह विधे । ते सह तिर्यंच मांय, पूर्व ऊपनां जाणिय ।। १२. इहां एहवं अभिप्राय, विवक्षित जे समय में । नारक आदि कहिवाय, हुआ तिरिख विण त्रिहं गतौ ।। ९. इह तिर्यग्योनिः सर्वजीवानां मातृस्थानीया बहत्वात् (वृ. प. ९३९) १०,११. ततश्च सर्वेऽपि तिर्यग्भ्योऽन्ये नारकादयस्तिर्य ग्भ्य आगत्योत्पन्नाः कदाचिद् भवेयुस्ततस्ते सर्वेऽपि तिर्यग्योनिकेष्वभूवन्निति व्यपदिश्यन्ते, (वृ. प. ९३९) १२-१४. अयमभिप्राय:-ये विवक्षितसमये नारका दयोऽभूवस्तेऽल्पत्वेन समस्ता अपि सिद्धिगमनेन तिर्यग्गतिप्रवेशेन च निर्लेपतयोवृत्ताः। (व. प. ९३९) लय : वीरमती कहै चंद ने श० २८, उ. १, ढा० ४७३ २८३ Jain Education Intemational Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. अल्पपर्ण करि तेह, समस्त पिण सिद्धि गमन करि । तिर्यच गति में बेह, प्रवेश करिव करिवली ।। १४. इस निर्लेपपणेह, करिकै सगला नीकल्या | केहक सिद्ध गति लेह, केई तिरि गति में गया || १५. तीनूं गति नां जीव, इस निर्लेपपणें करो । जंतू रहित कहीव, तिर्यंच गति विण तीन गति ॥ तिथंच गति में जीव जे । अनिर्लेपन भाव थी । नीकल ने जे जीवड़ा । ते स्थानक में उपनां ॥ नारकि गत्यादिक तणां । पाप कर्म पाप कर्म बांध्या तिहां ॥ १६. तठा पर्छ नि तेह, अनंतपणे करि जेह, १७. तिच गति थी तेह, नारकि आदिपणेह १८. इस तियंच गति मांहि हेतुभूतज ताहि, वा० इहां सगलैइ पहिलां तिर्यंचयोनिक नैं विषे हुवे जेह भणी सर्व जीवा नीं मातृस्थानक तियंच जोनि जाणवी । ते भणी तिर्यंचयोनिक ने विषे सर्व भाव हुवे । इहां ए अभिप्राय-जे जीव विचारथा समय नै विषं नारकादिक हुआ तेह अल्पपण करी सघला ही सिद्धिगमन करि तथा तिर्यग गति प्रवेशे करी निर्लेप करी मीरा ए के एक सिद्धि गति के एक तिच गति मां गया । अनेरी गति ते जीव रहित थइ । तिवारं पछे तियंग गति नैं अनंतपणे करी अनिर्लेपनीयपणां थकी ते तिथंच गति थी नीकल्या तेह स्थानक नै विषे नारकादिकपणे करी अपना तिवारी तिच गति ने विधे नारक मत्यादिहेतुभूत पाप कर्म उपायों ए एक भांगो । १९. * अथवा तिर्यंच योनि विषे, वलि नारकि मांहि । पापकर्म ज्यां उपाय, समाचरया पूर्व ताहि ॥ सोरठा २०. वांछित समय विषेह, मनुष्य देवता जे थया । तिणहिज रीते तेह, निर्लेपपणे करी नोकल्या ॥ २१. मनुष्य देवता मोहि, नारकि तिरि बिहूं गति की । आवी ऊपनां ताहि, ते तिर्यग नरक विषे हुंता || २२. जे वलि नारकि मांहि, तिर्यंच विषे थया तिके । तिणहिज गति में ताहि कर्म उपार्जितवंत था । २३. *अथवा तियोनिक विषे वली मनुष्य गति मांहि । पापकर्म त्यां उपाय, समाचरचा पिण ताहि ॥ सोरठा २४. वांछित समय विषेह, मार्शक ने जे देवता । तिणहिज रीत करेह, निर्लेपपणें करि नीकल्या ॥ २५. नारकि सुर गति मांहि, तिर्यंच मनु बिहुं गति थकी । आवी उपनां ताहि, ते तिरि मनुष्य विषे हुंता ॥ *लय : वीरमती कहै चंद नं २८४ भगवती जोड़ १६. तरच तिर्यग्गतेरनन्तत्वेनानिले पनी यत्वासत् (बु. प. ९३९) १७. तत उत्तास्तिर्यञ्चस्तत्स्थानेषु नारकादित्वेनो( बु.प. ९३९) १५. तिगत नरकगत्यादिहेतुभूतं पापं कर्म समजितवन्त इत्युच्यत इत्येकः, त्पन्नाः ( वृ. प. ९३९ ) १९. २. हा तिरिक्खजोगिए व नेरइए व होला । २०. विवक्षितसमये ये मनुष्यदेवा अभूवंस्ते निर्लेपतया वोवृत्ताः (बृ. प. ९३९) २१. तत्स्थानेषु च तिर्यग्नारभ्य आगत्योत्पन्नाः ते व्यपदिश्यन्ते - तिर्यग्ने रयिकेष्वभूवन्नेते, (बृ. प. ९३९) २२. ये वास्ते तथैव कमयाजितवन्त इत्यर्थी लभ्यत इति द्वितीयः, (बु.प. ९३९) २२. ३ वारिवजोगिएसु य मणुस्सेसु य होगा । २४. विवक्षितसमये ये नैरयिकदेवास्ते तथैव निर्लेपतयोवृत्ताः (बृ. प. ९३९) २५. तत्स्थानेषु च तियंग्मनुष्येभ्य आगत्योत्पन्नाः, ते चैवं व्यपदिश्यन्ते - तिर्यग्मनुष्येष्वभूवन्नेते, ( वृ. प. ९३९ ) Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. ये च यत्राभूवंस्ते तत्रैव कर्मोपार्जितवन्त इति सामर्थ्य गम्यमिति तृतीयः, (वृ. प. ९३९) २७. तदेवमनया भावनयाऽष्टावेते भङ्गाः, (व. प. ९३९) २८. ४. अहवा तिरिक्खजोणिएसु य देवेसु य होज्जा । तत्रैकस्तिर्यग्गत्यैव, अन्ये तु तिर्यग्नरयिकाभ्यां तिर्यग्मनुष्याभ्यां तिर्यग्देवाभ्यामिति त्रयो द्विकसंयोगा:, (वृ. प. ९३९) २९. अहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएसु य मणुस्सेसु य होज्जा ६. अहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएसु य देवेसु य होज्जा ७. अहवा तिरिक्खजोणिएसु य मणुस्सेसु य देवेसु य होज्जा। (श. २८।१) ३०. ८. अहवा तिरिक्ख जोणिएसु य नेरइएसु य मणुस्सेसु य देवेसु य होज्जा । (श. ८।१) ३१. सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्म कहिं समज्जि णिसु? कहिं समायरिंसु ? ३२. एवं चेव । ३३. एवं कण्हलेस्सा जाब अलेस्सा । कण्हपक्खिया, सुक्क पक्खिया। एवं जाव अणागारोवउत्ता। (श. २८२) २६. जे वलि मनु गति मांहि, तिर्यंच विषे थया तिके । तिणहिज गति में ताहि, कर्म उपाजितवंत था । २७. इणहिज न्याय करेह, भांगा अठ ए जाणवा । इक द्विक त्रिक योगेह, चउक-संयोगे पिण जिके ।। २८. *तथा तिर्यंच देव विषे हवै, भंग चतुर्थो चीन । इकसंयोगिक धुर कहूं, द्विकयोगिक तीन । हिवै त्रिकसंयोगे तीन भांगा कहै छ२९. अथवा तिर्यंच नारकि मनु विषे, होवै बिहुं पद हेवे । अथवा तिर्यंच नारकि सुर विषे, तथा तिरि मनु देवे ॥ हिवं चतुष्कसंयोगियो १ भांगो कहै छै---- ३०. तथा तिर्यंच नारकि मनुष्य में, वलि सुर रै मांहि । पापकर्म उपाा समाचरया वलि ताहि ।। ३१. सलेशी जीव भदंत ! जे, पाप कर्म प्रतेह । किण गति मांहि ग्रह्या तिणे, किहां समाचरथा जेह ? ३२. जिन भाखै सुण गोयमा ! इमहिज अवलोय । कहिवा पूर्वली परै, अठ भांगा जोय ॥ ३३. एवं कृष्णलेशी कह्या, जाव अलेशी प्रयुक्त । कृष्णपाक्षिक शुक्लपाक्षिका, इम जाव अनाकारोव उत्त ।। हिवै नारकादि २४ दंडक कहै छ-- ३४. नारकि हे भगवंतजो! पापकर्म प्रतेह । किण गति में वर्ततै ग्रह्या, किहां समाचरया जेह ? ।। ३५. श्री जिन भाखै सर्व ही, प्रथम तिर्यंच रै माय । इमहिज अष्ट भांगा तिके, पूर्ववत कहिवाय ॥ ३६. इम सलेश्यादिक जिके, सह पद में उदंत । भांगा आठ भणीजिये, जाव अनाकार अंत ।। ३७. एवं जाव वेमाणिया, धुर दंडक ख्यात । द्वितीय दंडक इम जाणवू, ज्ञानावरणी संघात ।। ३८. एवं जाव कहीजिय, अंतराय संघात । पापकर्म धुर दंडके, अष्ट कर्म अठ ख्यात ।। ३९. इम एह जीवादिक जिके, वैमानिक पर्यंत । नव दंडक हवे ते इहां, कहिवा धर खंत ।। ४०. सेवं भंते ! स्वामजी, जाव गोयम विहरंत । अष्टवीसम शत अर्थ थी, प्रथम उदेशक तंत ।। अष्टाविंशतितमशते प्रथमोद्देशकार्थः ॥२८।१।। ४१. प्रथम समय नां नारकी, अनंतरोत्पन्न ताम । पापकर्म किण गति ग्रह्या, समाचरया किण ठाम ?।। ४२. श्री जिन भाख सर्व ही, प्रथम तिर्यंच में होय । एम इहां पिण जाणवा, अष्ट भांगा सोय ।। *लय : वीरमती कहै चंद ने ३४. नेरइया णं भंते ! पावं कम्म कहिं समज्जिणिसु ? कहिं समायरिंसु? ३५. गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्जा, एवं चेव अट्ठ भंगा भाणियव्वा । ३६. एवं सव्वत्थ अट्ठभंगा जाव अणागारोवउत्तति । ३७. एवं जाव वेमाणियाणं । एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ। ३८. एवं जाव अंतराइएणं, ३९. एवं एए जीवादीया वेमाणियपज्जवसाणा नव दंडगा भवति । (श. २८१३) ४०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। (श. २८।४) ४१. अर्णतरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया पावं कम्म कहि समज्जिणिसु ? कहिं समायरिंसु ? ४२. गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्जा, एवं एत्थ वि अट्ठभंगा। श०२८, उ० १,२, ढा० ४७३ २८५ Jain Education Intemational Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. एवं अणंतरोववन्नगा, जेह विषे जे बोल छ, ४४. अनाकार उपयुक्त जे, ते सह द्रण भजना करी वा इहां भजनाएं कह्यो ते अथवा शब्द करिकै आठ भांगा कहिवा | नारकी आदि देई । लेख्यादिक जेही ।। पर्यंत पिछाण । कहिया सुविधान ।। ४५. यावत वैमानिक विषे भणवो सुविचार | इम जे नवरं विशेष, ते कहियै अधिकार ॥ ४६. धुर समय नां नारकादिक विषे, जे परिहरवा योग । मिथदृष्टि मन वचन ही, इत्यादिक प्रयोग || ४७. असंभव मार्ट न पूछया, जिम बंधी शतके । आख्या तिमज इहां अपि एह विशेष कहेह || सोरठा ४८. प्रथम भंगके सोय, तिगसूं ए भंग जोय, ४९. आनतादि सुर नेंज, मनुष्य विशेषपणेज, ५०. इम द्वितीयादिक जान सहु तिर्यंच थी ऊपनां । केम संभव हो || छै इहां ॥ फुन तीर्थंकर आदि दे । तिर्यंच मरि नहीं ऊपजे || भंग विषे पिण जाणं । जाणत्रुं इम पूछये सुविधान, उत्तर तास कहीजिये || ५१. सत्य बात ए सोय, पिण बहुलपणां ने आश्रयी । ए भंग ग्रहिवा जोय, फुन ए वृद्ध वचने करी ॥ वा० -इहां शिष्य पूछे - प्रथम भंगके कां सगला तिर्यंच ने विषे कर्म ब्रह्मा उपाय ते किम संभव ? आनतादिक देव ने विशेष ने ते तिर्यच थकी आय नै न ऊपजवा थकी । विषे अनं तीर्थंकरादिक मनुष्य नै विषे तिर्यंच मरीन अने तीर्थंकरादिक मनुष्य एतले आनतादिक सुर नं ऊपजे ते मार्ट सर्व तिर्यंच विषे कर्म उपाय ए प्रथम भांगो किम संभव ? इम द्वितीयादिक भंग ने विषे पिण किम संभव ? जद गुरु कहै ए बात सत्य, किंतु बहुलपणां आश्रयी ए भांगा ग्रहवा ए वृद्ध वचन करिकै । ५२. इम ज्ञानावरणी संपात ही इम जाव अंतराय साथ ही, ५३. ए पि नव दंडके करी, दंडक कहिवाय । सहु कहिवूं ताय ॥ संगृहीत उद्देश | कहिवो रूड़ी रीत सूं, सेवं भंते! जिनेश । अष्टाविशतितमशते द्वितीयोद्देशकार्यः ||२८|२|| जिमहीज विचारी । उद्देशक परिवाड़ी || अष्ट भांगा विषेह । कहिये छे तेह ॥ तसु ते बोल सह पिग ग्यार कहेस । उद्देश ।। ५४. इम इण अनुक्रमे करी, बंधी शतक विषे कही, ५५. तिमज इहां पिण जाणवी, णवरं विशेष जाणयो, ५६. जेह बोल जेहनें अछे, जाव अचरम उद्देशा लगे, * लय : वीरमती कहै चंद ने २८६ भगवती जोड़ ४३. एवं अतरोववन्नगाणं नेरइयाईणं जस्स जं अस्थि लेसादीयं ४४. अणागारोवओगपज्जवसाणं तं सव्वं एयाए भयणाए भाणियव्वं ४५. जाव वेमाणियाणं, नवरं ४६, ४७. अगंतरे जे परिहरिष्यते जहा बंधिसए वहा इहं पि । अनन्तरोपपन्नमारकादिषु यानि सम्यमिध्यात्वमनीयोगवाग्योगादीनि पदानि 'परिहरियव्व' त्ति असम्भवान्न प्रच्छनीयानि तानि यथा बन्धिशते तयेद्वापीति । (बु. प. ९४०) ४८. ननु प्रथमभङ्गके सर्वे तिर्यग्भ्य उत्पन्नाः कथं संभवन्ति, ( पू. प. ९४०) ४९. आनतादिदेवानां तीर्थङ्करादिमनुष्यविशेषाणां च तेभ्य आगतानामनुत्पत्तेः ?, ( वृ. प. ९४० ) ५०. एवं द्वितीयादिभङ्गकेष्वपि भावनीयं (वृ. प. ९४० ) 2 ५१. सत्यं किन्तु बाहुल्यमाथि वृद्धवचनेन दर्शयिष्यामः । 1 भङ्गाह्मा इ ( वृ. प. ९४० ) ५२. एवं नाणावर णिज्जेण वि दंडओ । एवं जाव अंतराइएण निरवसेसं । ५३. एसो वि नवदंडगसंगहिओ उद्देसओ भाणियव्वो । (म. २० / ५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । (W. 2=/4) ५४. एवं एए कमेणं जहेब बंधिसए उद्देशगाणं परिवादी ५५. तहेव इहं पि अट्टसु भंगेसु नेयव्वा, नवरंजाणियव्वं ५६. जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं जाव अचरिमुद्देसो सब्वे वि एए एक्कारस उद्देगा । (श. २८ /७ ) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. सेवं भंते ! स्वामजी, यावत विचरंत । ___ कर्म सजित अर्थ ते, प्रतिपादक हुंत । ए शत अठवीसम अर्थ थी। ५७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। (श. २९/८) 'कम्मसमज्जणणसयं' ति कर्मसमर्जनलक्षणार्थप्रतिपादक शतं कर्मसमर्जनशतम्। (वृ. प. ९४०) ५८. कही च्यार सय ऊपरै, तीन सीत्तरमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल ।। अष्टविंशतितमशते तृतीयादारभ्य एकादशोद्देशकार्थः॥२८॥३-११॥ गीतक छंद १. अठवीसमां शत रूप मंदिर महाअर्थ संचय सही । फुन तेह अनघ अपापनिक गणधरे गूंथ्या सूत्र ही ।। २. वर जोड़ अर्थज वचन रचना रूप जे कची करी । उद्घाटितं म्है पिण पवर सद्गुरु प्रसादे चित धरी ॥ १,२. इति चूर्णिवचनरचना कुञ्चिकयोद्घाटितं मयाप्येतत् । अष्टाविंशतितमशतमन्दिरमनघं महार्घचयम् ॥ (वृ. प. ९४०) श० २८, उ० ११ ढा० ४७३ २८७ Jain Education Intemational Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तम शतक Jain Education Intemational Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तम शतक ढाल:४७४ दहा १. अठवीसम शत पापकर्म-प्रमुख वार्ता ख्यात । अथ क्रम तिणज प्रकार विधि, गुणतीसम आयात ।। १. व्याख्यातं पापकर्मादिवक्तव्यताऽनुगतमष्टाविंश शतम्, अथ क्रमायातं तथाविधमेवैकोनत्रिशं व्याख्यायते, (वृ. प. ९४०) २. तत्र च तथैवैकादशोद्देशका भवन्ति, तेषु चाद्यो देशकस्येदमादिसूत्रम् - (व. प. ९४०) २. ए गुणतीसम शतक पिण, तिमज उद्देश इग्यार । तास आदि जे अर्थ नों, कहियै छै अधिकार ।। हिवं बहुवचन जीव अनै २४ दंडक अतीत काल में कर्म समकाले वेदवा मांड्या अनै समकाले निठाड्या इत्यादिक प्रश्नोत्तर । तिणमें प्रथम बहुवचने जीव नों अतीत काल आश्री प्रश्न गोतम पुछ छपापकर्म : प्रारम्भ और अन्त ३. जीव बहु भगवंत ! स्यूं, पाप कर्म समकाल । प्रथमपणे जे वेदवा, थया प्रारंभता भाल ।। ४. तिमहिज समकाले जिके, पाप कर्म प्रति जोय । नीठाड़ताज हुवै जिके ? प्रथम प्रश्न ए होय ॥ ३. जीवा णं भंते ! पावं कम्मं कि समायं पट्टविसु 'समायं' ति समकं बहवो जीवा युगपदित्यर्थः 'पटुविसु' त्ति प्रस्थापितवन्तः-प्रथमतया वेदयितुमारब्धवन्तः, (व. प. ९४०) ४. समायं निविसु? तथा समकमेव 'निविसु' त्ति 'निष्ठापितवन्त:' निष्ठां नीतवन्त इत्येकः, (वृ. प. ९४०) ५. समायं पट्टविसु विसमायं निविसु ? तथा समकं प्रस्थापितवन्त: 'विसम' त्ति विषम यथा भवति विषमतयेत्यर्थः निष्ठापितवन्त इति द्वितीयः, (. प. ९४०) ६. विसमाय पट्टविसु समायं निट्ठविसु ? । ५. अथवा समकाले जिके, प्रारंभ्याज अतीव । विषमपणेज नीठाड़ता, हुवै जिके बहु जीव ।। ७. विसमायं पटुविसु विसमायं निविस ? ६. अथवा विषमपणे जिके, थया आरंभता आम । समकाले नीठाड़ता, थया जीव बहु ताम ।। ७. तथा विषम काले हुआ, आरंभता पहिछाण । विषम काल में जीव जे, नीठाड़ता हुआ जाण ।। ८. जिन भाखै केइ जीवड़ा, आरंभता समकाल । समकाले नीठाड़ता, थया अतीतज काल ।। ९. जाव केइक विषम अद्धा, प्रारंभता हुआ पेख । विषम काल में जीव बहु, नीठाड़ता सुविशेख ।। १०. किण अर्थे प्रभु ! इम का ?, केइक जीव समकाल । प्रारंभता नीठाड़ता? तिमज प्रश्न चिहुं न्हाल ।। ८. गोयमा ! अत्थेगतिया समायं पट्टविसु समायं निविसु ९. जाव अत्थेगतिया विसमायं पटुविसु विसमाय निविंसु । (श. २९/१२) १०. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगतिया समायं पट्टविसु समायं निर्विसु, तं चेव ? श० २९, उ० १, ढा० ४७४ २९१ Jain Education Intemational ducation Intemational Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *ए गुणतीसम शतक नों, अर्थ अनोपम सुणियै ।। (ध्रुपदं) ११. जिन कहै जीवा चउविधा, तिहां केयक पहिछाणी । समाउया समोववन्नगा, धुर भंग ए जाणी ।। ११. गोयमा ! जीवा चउविवहा पण्णत्ता, तं जहा अत्थेगतिया समाउया समोववन्नगा, सोरठा १२. समआउखावंत, उदय तणींज अपेक्षया । समकालेइज हुँत, आऊखा नों उदय तसु ॥ १३. समोववन्नगा जाण, पूर्व भव स्थिति क्षय करी । समकालेज पिछाण, अन्य भवे जे ऊपनां ।। १४. *जीव केतलाइक जिके, समआउखावंत । विसमोववन्नगा जाणवा, द्वितीय भंग ए हंत ।। १२. 'समाउय' ति समायुषः उदयापेक्षया समकालायुष्कोदया इत्यर्थः । (व. प. ९४१) १३. 'समोववन्नग' । त्ति विवक्षितायुषः क्षये समकमेव भवान्तरे उपपन्नाः समोपपन्नकाः, (वृ. प. ९४१) १४. अत्थेगतिया समाउया विसमोववन्नगा, सोरठा १५. के सदृश-आयुवंत, पूर्व आयु नै क्षये । विषमपणे उपजंत, आगल पाछिल ऊपनां ।। १६. *जीव केतलाइक वली, विषम-आउखावंत । समोत्पन्न साथै ऊपनां, तृतीय भंग ए हुंत ।। १६. अत्थेगतिया विसमाउया समोववन्तगा, १८. अत्यंगतिया विसमाउया विसमोववन्नगा । सोरठा १७. केइ विषम-आउखावंत, पूर्व आयु - क्षये । समकाले उपजंत, तृतीय भंग इम जाणवू ।। १८. *जीव केतलाइक जिके, विषम-आउखावंत । विषमपणे बलि ऊपनां, तुर्य भंग ए मंत ।। सोरठा १९. केइ विषम-आउखावंत, अल्प बहु आयु नां धणी । विषमपणे उपजंत, आगल पाछिल ऊपनां ।। वा० ..केतला एक जीव समाउया ते सरीखे आयुखे-उदय नी अपेक्षाये समकाले आउखा नां उदयवंत इत्यर्थ । समोववनगा ते विवक्षित आउखा नै क्षये समकालेज भवांतर नै विषे ऊपनां ते समोपपन्नका १। केतलाइक जीव सरीखा आउखावंत पूर्व आउखा नै क्षये आगल पाछिल ऊपना २। केतलाएक जीव विषम आउखावंत एतले थोड़ा घणां आउखा ना क्षय थकी समकाले ऊपनां ३ । केतलाएक जीव विषम आ उखावंत विषमपणे ऊपना आगल पाछिल ऊपनां ४। तिहां समआयुष उदय अपेक्षा करिक समकाल आउखा नों उदय वांछित आउखा नै क्षये समकाले हीज भवांतर नै विषे ऊपनां ते समाउया समोववन्नगा। जे एहवा छै ते समकाले हीज भोगवणा प्रारंभ्या समकाले हीज नीठाहता इहां शिष्य पूछ आउखा कर्म नै हीज आश्रयी नै अंगीकार न करिवू हुवे, पिण पाप कर्म नी अपेक्षा न हुवै ते पाप कर्म बिना आउखा नां उदय नी अपेक्षा *लय : प्रणम प्रथम जिनेंद्र – हुआ। वा.-ये चैवंविधास्ते समकमेव प्रस्थापितवन्तः समकमेव च निष्ठापितवन्त:, नन्वायु:कमवाश्रित्येवमुपपन्नं भवति न तु पापं कर्म, तद्धि नायुष्कोदयापेक्ष प्रस्थाप्यते निष्ठाप्यते चेति, २९२ भगवती जोड़ Jain Education Interational Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत प्रस्थापि अन नीठाड़िये इम हुवे जद गुरु कहै— इम न हुवे, जे कारण थकी भव नीं अपेक्षा कर्म नों उदय वांछिये । उक्तं च- 'उदयखयखओवसमेत्यादि जीव नें कर्म नों उदय क्षय क्षयोपशम द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव अने भव आश्रयी हुवे । इण कारण थकीज आगल एहवूं पाठ कहिये छे तत्थ णं जे ते समाज्या समोववण्णया ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविसु समायं निट्टविसुत्ति ए प्रथम भंग हुने, तेही जोड़ पड़े - 1 २०. *तिहां सम आउखावंत जे परभव में ताहि । समकाले हिज ऊपनां, जीव जिके जग मांहि ॥ २१. ते जीवा पाप कर्म में समकाले भोगविवा मांड्या तिणे, समकाल २२. तहां सम उखायंत जे परभव पहिला पछे जे ऊपनां, विषमपणे ए देख || कहाया । नीठाया || में पेख । २३. मरण काल नां विषम थकी, पाप कर्म कहाया । समकाले भोगवणा प्रारंभ्या विसमकाले नीठाया || वा० तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगत्ति समकाल आउखा नां उदयवंत विषमपणे परभव ने विषे ऊपनां मरणकाल नां विषमपणां थकी । ते समायं पट्ठवित्ति ते समकाले भोगवणा मांडया आयु विशेष उदय पामवा थी पाप कर्म वेदन विशेष ने विसमायं निट्ठविसुत्ति तिके विषमपणे नीठाड़ता हुआ मरण नै विषमपणे करी पाप कर्म वेदन विशेष नै विषमपणे करी नीठाड़वा नां संभव थकी । 1 २४. तहां विषम आउखावंत जे अल्प बहु आयुवंत । , परभव में ते जीवड़ा, समकाले उपजंत ॥ २५. ते जीवा पाप कर्म नैं, विषम काले भोगविवा मांड्या जिणे, समकाल वा० विसमाउया समोववन्नगत्ति-विषम काल आयु उदयवंत समकाले भवांतर में विषे अपना ते गं पाय कम्मं विसमायं पविमुत्ति समय निविमुत्ति तेणे विषमपणे करी भोगवणा मांडया समकाले नीठाड़ता हुआ । कहाया । नोठाया || , २६. तिहां विषम आउखावंत जे अल्प बहु उदयवंत विषमपणे परभव विषे आगे पाछे उपजंत || २७. ते जीवा पाप कर्म नं विषम काले भोगवणा मांडया जिणे, विषमपणं २८. तिण अर्थे करि गोयमा ! तं चैव पूर्व च्या प्रश्न तणों, उत्तर इम २९. प्रभु! सलेशी जीवड़ा, पाप कर्म प्रारंभ्या समकाल ही, एवं चेव कहेह || ३०. इम सहु स्थानक नै विषे यावत अनाकार | हि वक्तव्यता करी, ते सहु पद अवधार ॥ *लयः प्रणमूं प्रथम जिनेंद्र नं कहाया । नीठाया || पिछाणी । जाणी ॥ प्रतेह | J अत नयं यतो भयापेक्षः कर्मणामुदयः शयश्वेष्य उक्तञ्च -- 'उदयक्ख यक्खओवसमेत्यादि, एवाह 'तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नया ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविसु समायं निट्ठविसृ' त्ति (बृ. प. ९४१) प्रथमः, २०. तत्थ णं जे ते समाज्या समोववन्नगा २१. ते णं पावं कम्मं समायं पट्ठविसु समायं निदुविसु । २२. तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा २२. पाकम् समायं पविसमा निवि वा. -तथा 'तत्थ णं जे ते समाउया विसमोव'वन्नग' त्ति समकाला युष्कोदया विषमतया परभवोत्याना मरणासत्तेसमा पनि ति आयुष्यविशेषोदयसम्पाद्यत्वात्पापमेवेशेषस्थ 'विसमा निट्टविसु' त्ति मरणवैषम्येण पापकर्मवेदनविशेषस्य विषमतया निष्ठासम्भवादिति द्वितीय:, ( वृ. प. ९४१ ) २४. तत्थ णं जे ते विसमाउया समोववन्नगा २५. ये पाकविसावं पर्विस समायं निवि वा. तथा 'विसमाउया समोववन्नग' त्ति विषमकालाष्कोदयाः समभवान्तरोत्पत्तयः 'ते णं पावं कम्म विसमाय पट्टविस समायं निट्टर्विस' त्ति तृतीय, (व. प. ९४१) २६. तत्थ णं जे ते विसमाउया विसमोववन्नगा २७. ते णं पाव कम्मं विसमायं पट्टविसु विसमाय निदुविसु । २८. से तेणट्ठेणं गोयमा ! तं चेव । (श. २९ / २ ) २९. सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्मं ? एवं चेव, ३०. एवं सम्बद्वासु वि जाव अणागारोवउत्ता । एए सव्वे वि पया एयाए वत्तव्वयाए भाणियव्वा । (श. २९ / ३ ) श० २९, उ० १, ढा० ४७४ २९३ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. प्रभु ! नारकि स्यूं पाप कर्म ने प्रारंभ्या समकाल ? समकालेज नीठाड़िया ? प्रश्न इत्यादिक न्हाल ॥ ३२. जिन भाखे केइ नारकी, प्रारभ्या समकाल | जिम आख्यो जीव नैं तिमहिज कहिवो न्हाल || ३३. इम यावत अनाकार ही इम यावत वैमानीक । जेहनें जेह छै ते इहां, अनुक्रम कथीक ।। ३४. जिम पाप कर्मे करी दंडक कह्यं, इम इण अनुक्रमेह | आइ कर्म प्रकृति तर्णा, अष्ट दंडक वैमानिक कहेह || पर्यंत । ३५. जीव आदि देई करी, नव दंडक संगृहीत ए. प्रथम उद्देशक हुंत ॥ ३६. सेवं भंते ! स्वामीजी, अर्थ थकी सुविशेष | ए गुणतीसम शतक नों, आख्यो प्रथम उद्देश || जय जय देव जिनेंद्र नो वचनामृत वारू ॥ एकोनत्रिंशत्तमशते प्रथमोद्देशकार्थः ॥ २६ ॥१॥ ३७. प्रथम समय नां नारकी, पाप कर्म प्रतेह | स्यूं प्रारंभ्या समकाल ही ? प्रश्न इत्यादि पूछेह || ३८. जिन कहै केइक नारकी, प्रारंभ्या समकाल | समकाले नोठाड़िया, प्रथम भंग ए म्हाल ॥ ३९. बलि किताइक नारकी, प्रारंभ्या समकाल । विसमकाले नीठाड़िया, द्वितीय भंग ए भाल ।। ४०. किण अर्थ प्रभु ! इम कह्यो, केइयक सम काल । प्रारंभ्या ने नीठाड़िया ? कहिवूं तिमज नीहाल ।। ४१. जिन भाखे र समय नां, नारकि द्विविध न्हाल | के सम-आयुक्त जे, उपनां पिण समकाल ।। नहींज ह्वै ॥ सोरठा ४२. अनंतरोत्पन्न जेह, समहिज आयु आयु विषमपणेह, जनंतरोत्पन्न ४३. तेहने आयु विमास प्रथम समयवन्तों अनंत रोत्पन्न तारा समहिज आयु उदय ४४. समोववन्नगा तेह, तास अर्थ हिव आखियं । मरण अनंतर जेह, परभव उत्पत्ति आश्रयी ॥ ४५. ते फुन मरण कालेह, भुतपूर्व जे गति करी । आवी ऊपनां जेह, तेह अनंतरोत्पन्नका ।। वा समाउया समोवन्नगत्ति अनंतरोत्पन्न नै समहीज आयु उदय , आयु विषमपण विषे अनंतरोत्पन्न नहींज ह्वं । आयु प्रथम समयवर्त्तीपणां थकी तेह समोवणगत्ति मरण अनंतर परभव उत्पत्ति आश्रयी । वलि ते मरण काले भूनपूर्व गति करिकै अनंतरोत्पन्नका कहिये । ४६. * के धुर समय नां विषमपणे जे अपना *लय : प्रणमूं प्रथम जितेंद्र नं २९४ भगवती जोड़ उदय ह्वै । ह्वै ॥ को। नारकी, सम आउखावंत | मरण विषम थकी मंत ॥ ३१. नेरइया णं भंते ! पावं कम्मं किं समायं पट्टविस समायं निदुविसु पुछा। ३२. गोयमा ! अत्थेगतिया समायं पट्टविस्, एवं जहेब जीवाणं तहेव भाणियध्वं ३३. जाव अणागारोवउत्ता एवं जाव वेमाणियाणं जस्स जं अत्थि तं एएणं चैव कमेणं भाणियव्वं । एएण कमेणं अट्ठसु वि कम्मदंडगा भाषिया ३४. जहा पावेण दंडओ । प्पगडी ३५. जीवादीया वैमाणियपज्जवसाणा । संगहि हो उद्देो भाषियो ३६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । एसो नवदंडग(. २९ / ४) (श. २९/५ ) ३७. अनंत रोववन्नगा णं भंते ! नेरइया पावं कम्मं किं समायं पविसमा निदुविसु पुच्छा ३८. गोयमा ! अत्थेगतिया समायं पटुविसु समायं निट्टविसु, ३९. अत्येतिया समायं पट्टविसु विसमायं निट्ठविसु । (श. २९/६) ४०. से भंते एवं बुम्बद अत्येतिया समा? ४१. गोयमा ! अनंतशेववन्नगा नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - अत्थेगतिया समाज्या समोववन्नगा, ४२, ४३. 'समाउया समोववन्नग' त्ति अनन्तरोपपन्नानां सम एवायु भवतम्रोपपन्नत्वमेव नस्यादायुः प्रथमसमयवर्तित्वात्तेषां (वु. प. ९४१ ) ४४. 'समोववन्नग' त्ति मरणानन्तरं परभवोत्पत्तिमाश्रित्य ( वृ. प. ९४२ ) ४५. ते च मरणकाले भूतपूर्व गत्याऽनन्तरोपपन्नका उच्यन्ते ( वृ. प. ९४२ ) ४६. अत्थेगतिया समाउया विसमोववन्नगा । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ४७. तृतीय तुर्य भंग बेह, अनतरोत्पन्न नथी संभव जेह, अनंतरोत्पन्नपणां ४८. * तिहां समाजया समोववन्नगा, पाप कर्म कहाया || प्रारंभ्या समकाल ही, समकाल मीठाया || ४९. जे समाउया विसमोववन्नगा, पाप कर्म समकाल । प्रारंभ्या भोगविवा भणी, विषम नीठाया न्हाल || ५०. तिण अर्थो करि गोयमा ! कहिवो तिमहीज । अनंतरोत्पन्न नारके, घुर वे भंग लहीज || ५१. प्रभु ! सलेशी नारकी, धुर समय नां पाप कर्म एवं चैव जे पावत ५२. एवं असुरकमार ही इम यावत गवरं जेहनें जेह छे, ते छै, ते बोल ५३. ज्ञानावरणी संघात ही, ॥ धार । विधे थकी ॥ अनाकार ॥ वैमानीक । कथीक ॥ इमहीज । कहीज ॥ विचरंत दंडक समस्तपणे इम जाव ही अंतराय ५४. सेब भंते! स्वामजी यावत ए गुणतीसम अर्थ थी, द्वितीय उद्देशक त । एकोनत्रिंशत्तमशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥ २६२॥ शतेह | कहेह | देख ५५. इम इण अनुक्रमे करी, जेहिज बंधी परिपाटी उद्देशक तणीं, ते सहु इहां ५६. कहियो जाय अचरम लगे, अनंतरोश च्यारूं तणीं इक वारता, शेष सात नीं एक ॥। सोरठा ५७. अनंतरोत्पन्न धार, अनंतरावगावा द्वितीय तृतीय अनंतर आहार, अनंतर पर्याप्त तुयं ॥ ५८. एक सरीखी होय, वक्तव्यता ए चिहुं तणीं । शेष सात नीं सोय, एक सरीखी वारता । दूहा ५९. कर्म प्रस्थापन आदि ही प्रतिपादन अर्थ ताम । तिणसुं नाम ए शतक नों, कर्म प्रस्थापन नाम ।। एकोनत्रिशतमशते तृतीयादारभ्य एकादशोद्देश कायः ।। २६।३-११।। ६०. चिहुं सय चीमोतरमी कही, वारू ढाल विशालं । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जश जय' मंगलमा | घरी । गीतक एव १. गुणतीसमा ए शतक नीं मतिवंत नीं पर मन रचि जोड़ रचना समय न्याय रु वृत्ति मारग अनुसरी ॥ २. अप्रकट पाटव पिग मनुज पटुगमपचे परिवर्ततां । लहे शोध पटुता नाश कटुता कर्म दूर धयां छतां । *लय प्रणमूं प्रथम जिनेंद्र नें ४७. तृतीयचतुर्थभङ्गावनन्तरोपपन्नेषु अनन्तरोपपन्नत्वादेवेति ४८. तत्थ णं जे ते समाज्या समोववन्नगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविस समायं निट्टविस् । न संभवतः, ( वृ. प. ९४२ ) ४९. तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा ते णं पावं कसमा विविनमाय निदुविसु । ५०. से तेणट्ठेणं तं चेव । (श. २९/७ ) ५१. सलेस्सा णं भंते ! अनंतशेववन्नगा नेरइया पावं ? एवं चेव, एवं जाव अणागारोवउत्ता । ५२. एवं असुरकुमारा वि । एवं जाव वैमाणिया, नवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं । ५३. एव नाणावर णिज्जेण वि दंडओ । एवं निरवसेसं जाव अंतराइएणं । (श. २९ / ८ ) ५४. सेवं भंते! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ । (श. २९/९ ) ५५. एवं एएणं गमएणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगपरिवाडी सच्चेव इह विभाणियव्वा ५६. जाव अचरिमो त्ति । अनंतर उद्देसगाणं चउण्ह वि एक्का वत्तव्त्रया, सेसाणं सत्तण्हं एक्का । (श. २९/१० ) ५७.५० अनंत रोसमा हदि ति अनन्तरोपपत्रानन्तरावगाढानन्तराहारकानन्तर पर्याप्तिको शकानाम् । ( वृ. प. ९४२ ) ५९. 'कम्मपतिस्थापनाचतिपादन परं शतं कम्मैप्रस्थापनम (बु. प. ९४२) १,२. अनुसृत्य मया टीकां टीवेयं टिप्पिता प्रपटुनेव । अप्रकटपाटवोsपि हि पटूयते पटुगमेनाटन् ॥ (बृ. प. ९४२) श० २९, ३०२-११, ढा० ४७४ २९५ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तम शतक Jain Education Intemational Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण पद ढाल : ४७५ १. ए गुणतीसम शतक तेह आश्रयी जीव , २. इहां तीसमा वस्तुवाद प्रति ३. इण संबंध करि एहनां एकादश शतक में कर्म-बंध आयी, जीव विचार आश्रयी, आदि उद्देशक अर्थ जे, में, जे त्रिंशत्तम शतक ८. कई अन्य आचार्य अस्ति आदिक वहा प्रस्थापन आद । कर्म विचारिया विधिवाद ।। नां हेतु। कक्षेतु ॥ ४. समोसरण प्रभु ! केतला ? भाखे तब भगवान । , प्यार प्रकार परूपिया कहिये तसु अभिधान ।। २. क्रियावादी अनाणवादी तृतीय प्रथम जे, अक्रियावादी जान । फुन, विनयवादी मान ॥ यतनी ६. बहु जीव नाना परिणाम, किणहि प्रकारे तुल्यपणें ताम । समवसरे जे मत रं मांय ते समोसरण कहिवाय ॥ 1 , उद्देश । कहियं छं सुविशेष || ॥ वा. समवसरे प्रवेश करें नाना परिणाम जीव किणहि प्रकारे तुल्यपणे करी जे मत नैं विषे, ते समवसरण । यतनी ७. क्रिया कर्त्ता विण संभव नाहि, तिका आत्मसमवायिनी ताहि । इसोक तेहि जसु शील, ते क्रियावादी समील ॥ वाय, क्रिया कहितां जीवादिक ताय । दवा नों शील. ते त्रियावादी समील ॥ १०. ए समोसरण का प्यार, ते पिण विशिष्ट सम्यक्त्व ९. जे क्रिया न माने ताय, ते अक्रियावादी अज्ञानवादी भलो कहे अज्ञान, कहाय । विनयवादी कहै विनय प्रधान ॥ तिणमें घुर समदृष्टि सार । मांय, तिणरो आगल कहिसे न्याय || १. प्राक्तनशते कर्म्मप्रस्थापनाद्याश्रित्य जीवा विचारिताः (बृ. प. ९४२) २. इह तु कर्म्मबन्धादिहेतुभूतवस्तुवादमाश्रित्य एव विचार्यते (बु. प. ९४२) ३. इत्येयं सम्बद्धस्यास्यैकादशोकात्म कर प्रथमो देशकादिसूत्रम् — (बृ. प. ९४२) ४. कइ णं भंते ! समोसरणा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि समोसरणा पण्णत्ता, तं जहा 1 ५. करियाबादी बकरियावादी अपवाद (श. २०११) desयवादी । ६. 'समोसरण' त्ति समवसरन्ति नानापरिणामा जीवाः कथञ्चित्तुल्यतया येषु मतेषु तानि समवसरणानि, ( बु. प. ९४४) " ७. 'किरियावाइ' त्ति क्रिया कर्त्तारं विना न संभवति सा चात्मसमवायिनीति वदन्ति तच्छीलाश्च ये ते कियावादिनः (पु.प. ९४४) अन्ये तु व्याख्यान्ति क्रियां जीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः । (बृ. प. ९४४) ९. 'अकिरियावाइ' त्ति अक्रियां - क्रियाया अभाव ये वदन्ति यवादिनः, (बु. प. ९४४) ८. श० ३०, उ० १, ढा० ४७५ २९९ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. वली मिश्रदृष्टि में सोय, कह्या अज्ञानवादी जोय । वली विनयवादी अवधार, तिणरो आगल कहिस्यै विचार ।। १२. जीवा णं भंते ! किं किरियावादी ? अकिरिया___ वादी ? अण्णाणियवादी ? वेणइयवादी? जीव की क्रियावादिता आदि *सुगुण जन हो, समवसरण अर्थ सांभलो ।। १२. प्रभु ! जीवा स्यूं क्रियावादी अछ ? के अक्रियावादी जोय ? सुगुण जन हो। कै अज्ञानवादी कहीजिये? कै विनयवादी अवलोय? सुगुण जन हो। १३. जिन कहै क्रियावादी अछ, अक्रियावादी पिण जोय । ___ अनाणवादी पिण अछ, विनयवादी पिण होय । १४. सलेशी प्रभु ! जीवड़ा, स्यूं क्रियावादी कहाय ? ___अक्रियावादी आदि नों, प्रश्न पूछ्यो ताय ।। १५. जिन भाखै सुण गोयमा ! क्रियावादी पिण होय । जाव विनयवादी हुवै, इम जाव शुक्ललेशी जोय ।। १३. गोयमा ! जीवा किरियावादी वि, अकिरियावादी वि, अण्णाणियवादी वि, वेणइयवादी वि। (श. ३०१२) १४. सलेस्सा णं भंते ! जीवा कि किरियावादी पुच्छा । १५. गोयमा ! किरियावादी वि, अकिरियावादी वि, अण्णाणियवादी वि, वेणइयवादी वि। एवं जाव सुक्कलेस्सा। (श. ३०१३) १६. अलेस्सा णं भंते ! जीवा-पुच्छा। गोयमा ! किरियावादी, नो अकिरियावादी, नो अण्णाणियवादी, नो वेणइयवादी। (श. ३०१४) १६. अलेशी तणीं पूछा कियां, तब भाखै जिनराय । क्रियावादीज हुवै अछै, शेष तीनं नहिं थाय ।। सोरठा १७. अलेशी सलहीज, अजोगी वा सिद्ध छ । तेह क्रियावादीज, समवसरण अन्य त्रिण नथी ।। १८. क्रियावादि नों जाण, हेतुभूत जे जिम रह्य । द्रव्य पर्याय पिछाण, परिच्छेद करि युक्त थी। १९. *कृष्णपाक्षिक हे भगवंतजी! स्यं क्रियावादी कहाय । के अक्रियावादी कहीजियै ? इत्यादिक पूछा ताय ।। २०. जिन कहै क्रियावादी नहीं, अक्रियावादी होय । अनाणवादी पिण अछ, विनयवादी पिण सोय ।। २१. सलेशी जिम शुक्लपाक्षिका, समदष्टि सुखदाय । अलेशी जिम जाणवा, इक क्रियावादी कहिवाय ।। २२. मिथ्यादृष्टि जीवड़ा, कृष्णपाक्षिक जिम तेह । क्रियावादी कहियै नथी, शेष तीनूंई पावेह ।। २३. मिश्रदृष्टि नीं पूछा कियां, जिन कहै बे धुर नांय । अनाणवादी हवै अछ, विनयवादी पिण थाय ।। सोरठा २४. सम्यक मिथ्यादृष्ट, साधारण परिणाम थी। आस्तिक भाव न इष्ट, वलि नहिं नास्तिक भाव पिण ।। *लय : श्री जिनधर्म जिन आगन्या दीयां १७. 'अलेस्सा ण' मित्यादि, 'अलेश्याः' अयोगिनः सिद्धाश्च ते च क्रियावादिन एव (वृ. प. ९४४) १८. क्रियावादहेतुभूतयथाऽवस्थितद्रव्यपर्यायरूपार्थपरिच्छेदयुक्तत्वात्, (वृ. प. ९४४) १९. कण्हपक्खिया ण भते ! जीवा किं किरियावादी पुच्छा । २०. गोयमा ! नो किरियावादी, अकिरियावादी, अण्णाणियवादी वि, वेणइयवादी वि । २१. सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा । सम्मदिट्ठी जहा अलेस्सा । २२. मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया। (श. ३०१५) २३. सम्मामिच्छादिट्ठी णं--पुच्छा। गोयमा ! नो किरियावादी, नो अकिरियावादी, अण्णाणियवादी वि, वेण इयवादी वि। २४,२५. 'सम्मामिच्छादिट्ठी ण' मित्यादि, सम्यग्मिथ्या दृष्टयो हि साधारणपरिणामत्वान्नो आस्तिका नापि नास्तिकाः किन्तु अज्ञानविनयवादिन एव स्युरिति । (बृ. प. ९४४) ३०० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे तिके । २५. फुन ते मिश्रपणेह, विनयवादी पिण जेह, २६. समुच्चय ज्ञानी यावत अनाणवादी समवसरण इण न्याय बे ॥ वलि, केवलज्ञानी जोय । अलेशी जेम कहीजिये, क्रियावादी इक होय || २७. समुच्चय अज्ञानी यावत वलि, विभंग अज्ञानी ताय । कृष्णपाक्षिक जिम जाणवो, धुर विण तीन कहाय ॥ २. आहारसंज्ञा उपयुक्त जे जाव परिग्रहसंज्ञा उपयुक्त । सशो जैम कहीजिये, समवसरण चिहूं उक्त ॥ २९. नोसोवडता छंतिके, अलेशी जेम कहाय । तीन नहि एक क्रियावादी हीज छे, शेष ३०. सवेदी जाव नपुंसका, सलेशी जिम अवेदी अवेशी नीं परं क्रियावादी इक ३१. सकषाई यावत वली, एक ॥। लोभकवाई सशी जिम चिह्नं जाणवं अकसाई अलेशी जिम ३२. सजोगी नैं यावत वली, कायजोगी चिहुं तेम | सलेशी जेम कहीजिये, अजोगी अजोगी अलेशी जेम ॥ ३३. सागरोत्ता नं बली, अनाकार उपयुक्त / कहवा सलेशी तणी पर, समवसरण चिह्न उक्त ॥ हिवे नारको आदि चउवीस दंडके जे बोल ने विषे समवसरण पार्व ते कहे २४ दंडकों में क्रियावादिता आदि ३४. नेरवा है भगवंतजी ! स्यूं क्रियावादी कहिवाय ? इत्यादिक पूछा किया, जिन कहै च्या पाय || पाय ॥ चिहुं पाय । ३५. सलेशी नारकि हे प्रभु ! क्रियावादी स्यूं तेह ? कहेह | इमहि समवसरण चिहूं, इम जाव कापोत लगेह || ३६. कृष्णपाक्षिक जे नारकी, क्रियावादी न समवसरण शेष त्रिण हुवे इम इण अनुक्रम ३७. जेहिज वक्तव्यता कही जीव नीं, करेह ॥ हिज नारकी नीं सहु जाण । यावत अनाकारवउत्ता लगे, णवरं विशेष पिछाण || ४१. क्रियावादी अपवादी चाय ॥ वेव । ३८. जे नारकि में बोल पावे अछे, तेहिज शेष बोल कहिवा नथी, नथी, बोल ३९. जेम का नारकी, इम यावत पृथ्वीकायिक हे प्रभु ! स्यूं क्रियावादी प्रश्न सार ॥ ४०. जिन कहै क्रियावादी नहीं, अक्रियावादी अनाणवादी पिण हवं, विनयवादी नहीं सोरठा नांय, पाय, बोल कहेह । न पावे जेह ॥ पणियकुमार तेह | जेह ॥ मिथ्यादृष्टिपणां थकी । अज्ञानवादी पिण हुवं ॥ २६. नाणी जाब केवलनाणी जहा अलेस्से । २७. अण्णाणी जाव विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया । २८. आहारसष्णोववत्ता जान परिग्गहसष्णोवउत्ता जहा सलेस्सा । २९. नोसण्णोवउत्ता जहा अलेस्सा । ३०. सवेदगा जाव नपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा । अवेदगा जहा अलेस्सा। ३१. सकसायी जाव लोभकसायी जहा अकसायी जहा अलेस्सा । ३२. सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा । अजोगी जहा अलेस्सा । ३३. सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता जहा सलेस्सा । (श. २०१६) सस्सा | ३४. नेरइया णं भंते ! कि किरियावादी–पुच्छा। गोयमा ! किरियावादी वि जाव वेणइयवादी वि । (श. ३०1७) ३५. सलेस्सा णं भंते ! नेरइया कि किरियावादी ? एवं चेव । एवं जाव काउलेस्सा | ३६. कपनिया किरियाविवजिया एवं एएवं कमेणं ३७. जच्चेव जीवाणं वत्तव्वया सच्चेव नेरइयाण वि जाव अणावारोवउत्ता, नवरें ३८. जं अत्थि तं भाणियव्वं, सेसं न भण्णति । ३९. जहा नेरइया एवं जाव थणियकुमारा । (श. ३०१८ ) पुढविकाइया णं भंते । कि किरियावादी–पुच्छा । ४०. गोयमा ! नो किरियावादी, अकिरियावादी वि अण्णाणियवादी ति नो वेणइयवादी । ४१. 'नो किरियाबाई' ति मिध्यादृष्टित्वापामा वादिनानिवादिनश्च ते भवन्ति (बृ. प. ९४४) श० ३०, उ० १, ढा० ४७५ ३०१ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. तेहने वाद अभाव, तो पिण वादज जोग्य जे । जीव परिणाम सद्भाव, तेह थकी बिचला बिहुँ ।। ४३. विनयवादी नहिं होय, तथाविध परिणाम नां अभाव थी अवलोय, वृत्ति थकी ए आखियो ।। ४४. * इम पृथ्वीकायिक नैं जे बोल छै, ते सर्व बोल रै मांहि । ए समवसरण बिचला बिहुँ, जाव अनाकार लग ताहि ॥ ४५. इम यावत चरिद्रिय लगे, सर्व स्थानक नै विषेह । एहिज निश्चै करी हुवै, समवसरण बिचला बेह ।। वा० --जे बेइंद्रियादिक में सास्वादन भाव करिक सम्यक्त्व अनै ज्ञान वांछियै तेहनै विषे क्रियावादीपणुं युक्त तेहनां स्वभावपणां थकी, इसी आशंका टालवा नै अर्थे कहै छै४६. सम्यक्त्व ज्ञान विषे अपि, एहिज बिचला दोय । समवसरण पावै अछ, विकलेंद्रिय में जोय ।। ___सोरठा ४७. बेइंद्रियादिक मांय, सास्वादन भावे करी । सम्यक्त्व ज्ञानज पाय, तो क्रियावादी किम नथी ।। ४८. क्रियावादी जोय, विशिष्ट जे सम्यक्त्व नां । परिणामें हिज होय, पिण सास्वादन में नथी ।। ४९. विनयवादी पिण ताम, मिश्र-मिथ्या-दृष्टि तणां । विशिष्ट जे परिणाम, तेह विषेज हुवै अछ ।। ५०. ते माटै अवलोय, बेइंद्रियादिक नै विषे । क्रियावादी नहिं होय, विनयवादी पिण नहिं हवै। ५१. * पंचेंद्रिय तिर्यंच में, जीव तणीं पर जाण । णवरं बोल पावै जिके, कहिवा तेह पिछाण ।। ४२. वादाभावेऽपि तद्वादयोग्यजीवपरिणामसद्भावात्, (वृ. प. ९४४) ४३. वैनयिकवादिनस्तु ते न भवन्ति तथाविधपरिणामादिति, (वृ. प. ९४४,९४५) ४४. एवं पुढविकाइयाणं जं अस्थि तत्थ सव्वत्थ वि एयाई दो मज्झिल्लाइं समोसरणाई जाव अणा गारोवउत्ता वि। ४५. एवं जाव चउरिदियाणं । सन्वट्ठाणेसु एयाई चेव मज्झिल्लगाइं दो समोसरणाइं । वा०---ननु द्वीन्द्रियादीनां सासादनभावन सम्यक्त्व ज्ञानं चेष्यते तत्र क्रियावादित्वं युक्तं तत्स्वभावत्वादित्याशङ्कयाह- (वृ. प. ९४५) ४६. सम्मत्तनाणे हि वि एयाणि चेव मज्झिल्लगाई दो समोसरणाई। ४८,४९. क्रियावादविनयवादी हि विशिष्टतरे सम्यक्त्वादिपरिणामे स्यातां न सासादनरूपे इति भावः, (वृ. प. ९४५) ५१. पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा जीवा, नवरं-- जं अत्थि तं भाणियव्वं । सोरठा ५२. तिरि पंचेंद्रिय तास, अलेशी अकषायि जे । प्रमुख बोल सुविमास, असंभव थी नहिं पूछवा ।। ५३. *मनुष्य ते जीव तणीं पर, तिमज विशेष रहीत । व्यंतर ज्योतिषी वैमानिका, जिम असुरकुमार संगीत ।। ५२. पञ्चेन्द्रियतिरश्चामलेश्याकषायित्वादि न प्रष्टव्यमसम्भवादिति भावः । (व. प. ९४५) ५३. मणुस्सा जहा जीवा तहेव निरवसेसं । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। (श. ३०१९) *लय : श्री जिनधर्म जिन आगन्या दीयां ३०२ भगवती जोड़ Jain Education Intenational Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वे समुच्चय जीव अनें चौबीस दण्डके जे बोल अनं समवसरण कह्या, तेहि यन्त्र की कहिये है समुच्चय जीव में बोल पावे ४७ १. समुच्चय जीव २. सलेशी ३. कृष्णलेशी ४. नीललेशी ५. कापोतलेशी ६. तेजुलेशी ७. पद्मलेशी ८. मुलगी ९. अलेशी १०. कृष्णपाक्षिक ११. पाक्षिक १२. सम्यकदृष्टि १३. मिध्यादृष्टि १४. मिश्रष्टि १५. सनाणी १६. मतिनाणी नारकी में बोल पावे ३५ १. समुच्चय नारकी २. सलेशी ३. कृष्णलेशी ४. नीललेशी ५. कापोतलेशी ६. कृष्णपाक्षिक ७. शुक्लपाक्षिक ८. सम्यकदृष्टि ९. मिथ्यादृष्टि १०. मिश्र दृष्टि ११. समुच्चय ज्ञानी १२. मतिज्ञानी १३. श्रुतज्ञानी १४. अवधिज्ञानी १५. समुच्चय अज्ञानी १६. मतिअज्ञानी १७. १७. श्रुतनाणी १८. अवधिनाणी १९. मनपर्यवनाणी २०. केवलनाणी २१. अनाणी २२. मतिअनाणी २३. श्रुतअनाणी २४. विभंगअनाणी २५. आहारसणीव उत्ता २६. भयसण्णोवउत्ता २०. सो १८. विभंगअज्ञानी १९. आहारसोबत्ता २०. भयसण्णोवउत्ता २१. मैथुनवा २२. उत्ता ३३. नपुंसक वेदी ३४. अवेदी २. परियोजता ४४. २९. नोसण्णोवउत्ता ३०. सवेदी ३१. स्त्रीवेदी ३२. पुरुषवेदी २३. सवेदी २४. नपुंसक वेदी २५. सकषायी २६. कोचकषायी २७. मानकषायी २८. मायाकषायी २९. लोभकषायी ३०. सजोगी ३१. मनजोगी ३२. वचनजोगी ३३. कायजागी ३४. सागारोवउत्ता ३५. अणागारोव उत्ता ३५. सकषायी ३६. क्रोधकषायी ३७. मानकषायी ३८. मायाकषायी ३९. लोभकषायी ४०. अकषायी ४१. सजोगी ४२. मनजोगी ४३. वचनजोगी योगी ४५. अजोगी ४६. सागारोवउत्ता ४७. अनागारोवउत्ता बोल नथी पार्व १. २. पद्मलेशी ३. शुक्ललेशी ४. अलेशी ५. मनपर्यं वज्ञानी ६. केवलज्ञानी ७. नोसण्णोवउत्ता ८. स्त्रीवेदी ९. पुरुषवेदी १०. अवेदी ११. अकषायी १२. अजोगी श० ३०, उ० १, ढा० ४७५ ३०३ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असुरकुमार आदि १० भवनपति में बोल पावै ३७ १. समुच्चय असुरकुमार २. सलेशी ३. कृष्णलेशी ४. नीललेशी ५. कापोतलेशी ६. तेजुलेशी ७. कृष्णपाक्षिक ८. शुक्लपाक्षिक ९. सम्यक दृष्टि १०. मिध्यादृष्टि ११. मिदृष्टि १२. समुच्चय ज्ञानी १३. मतिज्ञानी १४. ज्ञानी १५. अवधिज्ञानी १६. समुच्चय अज्ञानी १७. मतिअज्ञानी १८. तानी ४. नीललेशी ५. कापोतलेशी ६. तेजुलेशी ७. कृष्णपाक्षिक ८. पाक्षिक ९. मिध्यादृष्टि १०. अनाणी ११. मतिअनाणी १२. नाणी १९. विभंग अज्ञानी २०. आहारसण्णोवउत्ता २१. भयसण्णोवउत्ता पृथ्वी, पानी, वनस्पति में बोल पार्व २७ १. समुच्चय पृथ्वी २. सलेशी ३. कृष्णलेशी ३०४ भगवती जोड़ २२. २२. परिग्रहणवत्ता २४. सवेदी २५. स्त्रीवेदी २६. पुरुषवेदी २७. सकषायी २८. क्रोधकषायी २९. मानकषायी ३०. मायाकषायी ३१. लोभकषायी ३२. सजोगी ३३. मनजोगी ३४. वचनजोगी ३५. कायजोगी ३६. सागारोवउत्ता ३७. अणागारोवउत्ता १४. भयसण्णोवउत्ता १५. मैथुनसण्णोवउत्ता १६. परिग्रहणवत्ता १७. सवेदी १८. नपुंसक वेदी १९. सकषायी २०. क्रोधकषायी २१. मानकषायी २५. कायजोगी १३. आहारसण्णोवउत्ता २६. सागारोवउत्ता २७. अणागारोवउत्ता २२. मायाकषायी २३. लोभकषायी २४. सजोगी बोल नथी पावे १. पद्मलेशी २. ३. अलेशी ४. मनपर्यवज्ञानी ५. केवलज्ञानी ६. नोसण्णोवउत्ता ७. नपुंसक वेदी ८. अवेदी ९. अकषायी १०. अजोगी बोल नथी पार्व १. पद्मलेशी २. ३. अलेशी ४. सम्यकदृष्टि ५. मिश्र दृष्टि ६. सनाणी ७. मतिज्ञानी ८. श्रुतज्ञानी ९. अवधिज्ञानी १०. मनपर्यवज्ञानी ११. केवलज्ञानी १२. विभंगअनाणी १३. नोसण्णोवउत्ता १४. स्त्रीवेदी १५. पुरुषवेदी १६. अवेदी १७. अकषायी १५. मनजोगी १९. वचनजोगी २०. अजोगी Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेऊ, वाऊ में बोल पावे २६ । पृथ्वी, पानी, वनस्पति में २७ बोल पावे। त्यां मांहिलो एक तेजुलेशी नथी । तीन विकलेंद्रिय में बोल पार्व ३१ । २६ बोलतो ते वाक में बोल पायें तिके अने १. समष्टि २ सनागी, , ३. मतिनाणी, ४ श्रुतनाणी, ५. वचनजोगी ए ५ बोल बध्या । तियंच पंचेंद्रिय में बोल पार्व ४० ! १.२.३. केवलज्ञानी, ४. नोसोबत्ता, ५. अवेदी ६. अकषायी, ७. अजोगीए ७ बोल नथी पार्व । मनुष्य में बोल पावे ४७ । समुच्चय जीववत । व्यंतर में बोल पार्व ३७ । असुरकुमारवत । ज्योतिषी में बोल पावे ३४ १. समुच्चय ज्योतिषी २. सलेशी ३. तेजुलेशी ४. कृष्णपाक्षिक ५. पाक्षिक ६. सम्यक दृष्टि ७. मिध्यादृष्टि ८. मिश्रदुष्टि ९. सज्ञानी १०. मतिज्ञानी ११. श्रुतज्ञानी १२. अवधिज्ञानी १३. अनाणी १४. मतिअनाणी १५. नाणी १६. विभंगअनाणी १७. आहारसोबत्ता कहिणी । १८. भयसण्णोव उत्ता १९. मैथुनसण्णोवउत्ता २०. परिग्रहसण्णोव उत्ता २१. सवेदी २२. स्त्रीवेदी २२. पुरुषवेदी २४. सकषायी २५. क्रोधकषायी २६. मानकषायी २७. मायाकषायी २८. लोभकषायी २९. सजोगी ३०. मनजोगी ३१. वचनजोगी ३२. कायजोगी ३३. सागारोवउत्ता ३४. अणागारोव उत्ता नव प्रवेयक में बोल पावै ३२ एक मिखदृष्टि नदी पा बोल नयी पार्व १. २. नीललेशी ३. कापोतलेशी ४. पद्मलेशी ५. क्ली ६. अलेशी ७. मनपर्यवज्ञानी पहिला, दूजा देवलोक में बोल पावे ३४ ज्योतिषीवत । तीजं, चौथे, पंचमें देवलोक में बोल पावे ३३ ज्योतिषीवत १. इहां तेजुलेश्या न कहिणी, पद्मलेश्या पावै । ३४ बोलां मांहिलो एक स्त्रीवेदी टल्यो । छठा देवलोक सूं लेई बारमा देवलोक तांई बोल पाये ३३ तीजै, चौथे, पंचमां देवलोकवत । इहां पद्मलेश्या न कहिणी, शुक्ललेश्या ८. केवलज्ञानी ९. नोसण्णोवउत्ता १०. नपुंसक ११. अवेदी १२. अकषायी १३. अजोगी । श० ३०, उ० १, ढा० ४७२ ३०५ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच अनुत्तर विमान में बोल पावै २६ १. समुच्चय अनुत्तर विमान २. सलेशी ३. शुक्लले ४. शुक्लपाक्षिक ५. समदृष्टि ६. सज्ञानी ७. मतिज्ञानी ८. श्रुतज्ञानी ९. अवधिज्ञानी १०. आहारराज्यीयठता ११. भयसण्णोवउत्ता १२. मैणवत्ता १३. परिग्रहसण्णोवउत्ता १४. सवेदी १५. पुरुषवेदी १६. सकषायी १७. क्रोधकषायी १८. मानकषायी १९. मायाकषायी २०. लोभकषायी ३०६ भगवती जोड़ २१. सजोगी २२. मनजोगी २३. वचनजोगी २४. कायजोगी बोल ५४. नरक बोल पैंतीस ज्योतिषी घुर के कल्प, तृतीय कल्प यो जाव, अच्युत संवेवक बत्तीस, अनुत्तर सुरे २५. सागारोवउत्ता १२. अनाणी २६. अणागारोवउत्ता १३. मतिअनाणी छप्पय भवन बोल नथी पार्व १.कृष्णले २. नीललेशी ३. कापोतलेशी ४. तेजुले ५. पद्मलेगी ६. अलेशी ७. कृष्णपाक्षिक ८. मिथ्यादृष्टि ९. मिश्र दृष्टि १०. मनपर्यवज्ञानी ११. केवलज्ञानी १४. १५. विभंग अनाणी १६. नोसण्णोवउत्ता १७. स्त्रीवेदी १८. नपुंसक वेदी १९. अवेदी २०. अकषायी २१. अजोगी । व्यंतर संतीसा | लाभे चउतीसा । कल्पे तेतीसा । छब्बीसा | सत्तावीस पृथ्वी अप वनस्पति, षटवीस तेजु वायु मही । इकतीस विकल असन्नी विषे, सन्नी तिरि चालीस ही ।। सोरठा ५५. समुच्चय जीव जगीस, मनुष्य विषे लाभ वली । बोल सप्त चालीस, पंडित लेखो कीजिये ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिव समुच्चय जीव अनं चउबीस दंडके जे बोल पार्व, तेहमें समवसरण पावै ते कहिये छ। समुच्चय जीव में ४७ बोल पावै । तिण मांही समवसरण समव/ क्रिया | अक्रिया अज्ञान | विनय सरण वावी | वादी । वादी | वादी नहीं पावै पाव पाव पावै पाव नहीं पाव पाव पाव पाव पावै पाव पाव 20 hota पाव पाव पाव पाव नहीं नहीं १. कृष्णपक्षी में २. मिथ्यादष्टि में ३. अज्ञानी में ४. मतिअज्ञानी में ५. श्रुतअज्ञानी में ६. विभंग अज्ञानी में ७. अलेशी में ८. सम्यकदृष्टि में ९. सज्ञानी में १०. मतिज्ञानी में ११. श्रुतज्ञानी में १२. अवधिज्ञानी में १३. मनपर्यवज्ञानी में १४. केवलज्ञानी में १५. नोसण्णोवउत्ता में १६. अवेदी में १७. अकषायी में १८. अजोगी में १९. मिश्रदृष्टि में २०-४७. शेष २८ बोलों में mmmmmmmmmmvduo Moroornvr. नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं पाव | पावै । पावै । पावै पार्व ४ | पावै नारकी में ३५ बोल पावै । तिण मांही समवसरण पाव पावै पाव पाव समव क्रिया अक्रिया अज्ञान | विनय सरण वादी | वादी | वादी | वादी नहीं पावै पाव पाव नहीं पावै पावै नहीं पाव पावै पावै नहीं पाव नहीं पावै पाव पावै नहीं पाव नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं पावै नहीं नहीं पाव नहीं नहीं पावै नहीं नहीं नहीं पाव पावै | पावै | पावै । पावै पावे १. कृष्णपक्षी में २. मिथ्यादष्टि में ३. अज्ञानी में ४. मतिअज्ञानी में ५. श्रुतअज्ञानी में ६. विभंगअज्ञानी में ७. सम्यकदृष्टि में ८. सजानी में ९. मतिज्ञानी में १० श्रुतज्ञानी में ११. अवधिज्ञानी में १२. मिश्रदृष्टि में १३-३५. शेष २३ बोलों में पाव mr mmmmm ~~Morro पाव नहीं नहीं नहीं नहीं पाव श० ३०, उ०१, ढा० ४७५ ३०७ Jain Education Intemational Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ الله الله الله الله له م पाव भवनपति अनें वाणव्यंतर में ३७ बोल पाव। तिण मांही समवसरण | समव | क्रिया अक्रिया अज्ञान | विनय |सरण | वादी वावी वादी वादी १. कृष्णपक्षी में नहीं पावै पावै । पावै २. मिथ्यादृष्टि में नहीं पावै पावै पाव ३. अज्ञानी में नहीं पावै पावै पाव ४. मतिअज्ञानी में नहीं पावै पाव पाव ५. श्रुतअज्ञानी में पाव पाव ६. विभंगअज्ञानी में पावै पाव पावै ७. सम्यकदृष्टि में नहीं नहीं नहीं ८. सज्ञानी में नहीं नहीं ९. मतिज्ञानी में नहीं नहीं नहीं १०. श्रुतज्ञानी में पाव ११. अवधिज्ञानी में नहीं नहीं नहीं १२. मिश्रदष्टि में | नहीं | नहीं पावै पाव १३-३७. शेष २५ बोलों में ।४ । पावै | पावै पावै पृथ्वी, पानी, वनस्पति में बोल २७ । तेऊ, वायु में बोल २६ । तीन विकलेन्द्रिय में ३१ बोल पावै । तिण माही समवसरण आपण-आपण ठिकाण जेतला बोल पावै, ते माही समवसरण २ पावअक्रियावादी, अज्ञानवादो। नहीं नहीं पाव पाव مه नहीं مه مه पाव नहीं नहीं पाव مه له पाव पाव पार्व पाव पाव पाव पाव तिथंच पंचेन्द्रिय में ४० बोल पावै। तिण मांही समवसरण समव | क्रिया | अक्रिया अज्ञान | विनय | सरण | वादी | वादी वादी | वादी १. कृष्णपाक्षिक में नहीं पावै । पावै । पाव २. मिथ्यादष्टि में ३ नहीं पावै पाव ३. अज्ञानी में ३ नहीं ४. मतिअज्ञानी में पाव ५. श्रुतअज्ञानी में पाव ६ विभंगअज्ञानी में पाव पाव ७. सम्यकदृष्टि में ८. सज्ञानी में नहीं नहीं ९ मतिज्ञानी में १०. श्रुतज्ञानी में नहीं नहीं ११. अवधिज्ञानी में नहीं नहीं १२. मिश्रदृष्टि में पाव पावै १३-४०. शेष २८ बोलों में । ४। पावै पावै पाव poro...10000 पाव नहीं EFFFFFFFFFFFFEE नहीं नहीं 199891 नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं पाव पावै ३०८ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Na पाव नहीं मनुष्य में ४७ बोल पावै । तिण मांही समवसरण समय क्रिया | अक्रिया अज्ञान विनय सरण वादी वादी वादी | वादी १. कृष्णपक्षी में नहीं। पाव पावै। पाव २. मिथ्यादृष्टि में पाव पाव पाव ३. अज्ञानी में । नहीं पा पावै पाव ४. मतिअज्ञानी में पाव पावै ५. श्रुतअज्ञानी में पावै पावै ६. विभंग अज्ञानी में पाव ७. अलेशी में पाव नहीं ८. सम्यकदप्टि में पाव नहीं ९. सज्ञानी में १०. मतिज्ञानी में पाव ११. श्रुतज्ञानी में पाव १२. अवधिज्ञानी में पावै १३, मनपर्यवज्ञानी में पाव १४. केवलज्ञानी में पाव १५. नोसघणोवउत्ता में पाव नहीं १६. अवेदी में पावं १७. अजोगी में नहीं १८. अकषायी में पाव नहीं। नहा १९. मिश्रदृष्टि में पाव २०-४७. शेष २८ बोलों में ४. पावै । पावै । पावै पाव व्यंतर में ३७ बोल पावै । तिण मांही समवसरण भवनपतिवत। पाव rrrrrar ormorror.orrorummar नहीं नहीं नहीं नहीं पाव नहीं __नहीं पाव F पाव नहीं पाव पावै ज्योतिषी तथा पहला दूजां देवलोक में ३४ बोल पावै । तिण मांही समवसरण समव क्रिया अक्रिया| अज्ञान | विनय सरण | वादी वावी | वादी | वादी १. कृष्णपक्षी में नहीं | पार्व पावै, पावै २. मिथ्यादृष्टि में नहीं पावै पावै ३. अज्ञानी में नहीं पाव ४. मतिअज्ञानी में पाव ५. श्रुतअज्ञानी में नहीं ६. विभगअज्ञानी में नहीं पाव पाव ७. सम्यकदृष्टि में पावै नहीं ८. सज्ञानी में पावै नहीं नहीं ९. मतिज्ञानी में नहीं नहीं १०. श्रुतज्ञानी में पावै । नहीं ११. अवधिज्ञानी में १२. मिश्रदृष्टि में नहीं पाव १३-३४. शेष २२ बोलों में पावै पावै - पावै । पावै पाव पाव पाव पाव नहीं नहीं EEFFFFFFFFFFFE m marr marrrrrry नहीं पाव नहीं नहीं पाव नहीं नहीं पाव श. ३०, उ०१, ढा०४७५ ३०९ Jain Education Intemational Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरे से बारहवें देवलोक में ३३ बोल पावै । तिण मांही समवसरण १. कृष्णपक्षी में २. मिध्यादृष्टि में ३. अज्ञानी में ४. मतिअज्ञानी में ज्ञानी में ५. ६. विभंगअज्ञानी में ७. सम्यकदृष्टि में ८. सज्ञानी में ९. मतिज्ञानी में १०. श्रुतज्ञानी में ११. अवधिज्ञानी में १२. मिश्र दृष्टि में १३-३३. शेष २१ बोलों में १. कृष्णपक्षी में २. मिध्यादृष्टि में ३. अज्ञानी में ४. मतिअज्ञानी में ५. श्रुतअज्ञानी में ६. विभंगअज्ञानी में ७. सम्यकदृष्टि में ८. सज्ञानी में ९. मतिज्ञानी में में ५६. १०. ११. अवधिज्ञानी में १२- ३२. शेष २१ बोलों में समव क्रिया | अक्रिया | अज्ञान | विनय बादी वारी वादी वादी सरण ३ ३ ३ १ १ १ १ नव ग्रैवेयक में ३२ बोल पावै । तिण मांही समवसरण - ३ ३ ३ ३ नहीं पा नहीं पावे नहीं पार्व १ नहीं पाये पार्व नहीं पार्व पार्व नहीं पार्व *लय : श्री जिनधर्मं जिन आगन्या दीया ३१० भगवती जोड़ पार्व पाव पाव पाव नहीं पाव नहीं पावे नहीं पावे नहीं पार्व नहीं नहीं नहीं पावे पार्व पाव पाव नहीं पाये नहीं पार्व नहीं पाये पार्व नहीं नहीं समव क्रिया । अक्रिया अज्ञान विनय सरण वादी वादी वादी वादी पाव नही पार्व नहीं पायें नहीं नहीं नहीं नहीं पार्व सोरठा जीवादिक पणवीस, पद नैं विषेज आखिया । समवसरण सुजगीस, तस् आयुबंध हिव कहे ॥ पांच अनुत्तर विमान में २६ बोल पावें । तिण मांही समवसरण - सभी बोलों में समवसरण १ क्रियावादी पावे । पार्व पाव पार्व पार्व पार्व पार्व नहीं नहीं पार्व पार्व पाव पार्व पार्श्व पाव नहीं पार्व पाव पाव नहीं पार्व पार्व पार्व नहीं पार्व पार्व पार्व पाव नहीं पार्व नहीं पाव | पार्व पार्व ५७. *शत तीसम नुं देश ए, चिहुं सौ पचितरमी ढाल । भिक्षु भारीमल ऋषिराय थी, 'जय जय' मंगलमाल । नहीं नहीं नहीं पार्व नहीं नहीं नहीं नही नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं पार्व ५६. जीवादिषु पञ्चविंशती पदेषु यद्यत्र समवसरण - मस्ति तत्तत्रोक्तम्, अथ तेष्वेवायुबंध निरूपणावाह( वृ. प. ९४५) Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल:४७६ समवसरणगत जीवों का आयुष्यबन्ध १. प्रभु ! क्रियावादी जीवड़ा, स्यूं नरकायु पकरंत ? तिरि मनु सुर नों आउखो, पकरै ते बांधत ? २. जिन कहै नारकी तिरि तणं, आयु पकरै नांहि । मनुष्य देव नों आउखो, बांधै पकरै ताहि ।। १. किरियावादी णं भंते ! जीवा किं नेरइयाउयं पकरेंति ?तिरिक्खजोणियाउयं पकरेति ? मणुस्सायं पकरेंति ? देवाउयं पकरेंति ? २. गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेंति, मणस्साउयं पि पकरेंति देवाउयं पि पकरेति । (श. ३०।१०) वा.- क्रियावादी नारकी, देवता तिके मनुष्य नों आउखो बांधे अने क्रियावादी मनुष्य, तिथंच एक वैमानिक रो आउखो बांध । सोरठा ३. नारकि वा सुर जाण, क्रियावादी छै तिके। मनुष्य तणों पहिछाण, आउखो बांधे जिके ।। ४. मनुष्य अनै तिर्यंच क्रियावादी छै तिके । सुरवर नों शुभ संच, आउखो बांधे जिके ।। प्रकुर्वन्ति । ३. तत्र ये देवा नारका वा क्रियावादिनस्ते मनुष्यायुः (वृ. प. ९४५) ४. ये तु मनुष्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो वा ते देवायुरिति । (व. प. ९४५) ५. जो सुर नों आयू करै, तो भवणपती नों तेह । ___ यावत वैमानिक तणों, आयु पकरै जेह ? ६. जिन कहै भवनपती तj, आयु नहिं बांधेह । व्यंतर ज्योतिषी नों वलि, आयु नहिं पकरेह ।। ५. जइ देवाउयं पकरेंति किं भवणवासिदेवाउयं पकरेंति जाव वेमाणियदेवाउयं पकरेंति ? ६. गोयमा ! नो भवणवासिदेवाउयं पकरेंति, नो वाणमंतरदेवाउयं पकरेति, नो जोइसियदेवाउयं पकरेंति, ७. वेमाणियदेवाउयं पकरेंति। (श. ३०११) ७. वैमानिक सुर नुं तिको, आयु बांध ताय । मनु तिर्यंच पंचेंद्रिय, आश्रयी ए वाय ।। ८. अक्रियावादी जीवड़ा, नारक आयु स्वाम! ___ बांधे छै इत्यादि जे, पूछयो प्रश्न तमाम ॥ ९. जिन कहै नारक आउखो, बांधे पकरै जेह । जावत देव तणुं अपि, आयु बांधे तेह ।। १०. अनाणवादी पिण इमज, विनयवादी पिण एम । च्यारूं गति नों आउखो, बांध पकरै तेम ।। *च्यारूं समवसरण जिन भाखिया रे लाल ।। (ध्रुपदं) ११. किरियावादी सलेशी जीवड़ा रे लाल, स्यूं नारक आयु पकरेह हो? सुगुण जन । तिर्यंच मनुष्य नै देव नों रे लाल, बांध आउखो जेह हो? सुगुण जन । ८. अकिरियावादी णं भंते ! जीवा किं नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं-पुच्छा। ९. गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेंति जाव देवाउयं पि पकरेंति। १०. एवं अण्णाणियवादी वि वेणइयवादी वि। (श. ३०।१२) ११. सलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी कि नेरइयाउयं पकरेंति-पुच्छा। *लय : पुन्य नोपज शुभ जोग सूं रे श० ३०, उ.१, ढा० ४७६ ३११ Jain Education Intemational Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. जिन कहै न बांधे नारक आउखो रे लाल, इम जिम जीव का तिमहीज हो । सु०। तिमज सलेशी जाणवा रे लाल, समवसरण च्यारूं ही कहीज हो । सु० । १३. कृष्णलेशी क्रियावादी जीवड़ा रे लाल, स्यूं नारक आयु स्वाम हो । सु० । पकरे इत्पादिक पूछियां रे लान, भाखे जिन गुणधाम हो ॥ सु० । १४. नहीं बांधे नारक नों आउखो रे लाल, तियंच नों न बांधत हो । सु० । आयु बांधे मनुष्य नों आउयो रे लाल, १५. मनुष्य आयु अवधार, ते नरक असुरकुमार, १६. क्रियावादी सोरठा भाव कृष्ण वर्तमान बांधे आख्यो हां। छ प्रमुख आश्रयी प्रमुख आथयो जाण, पंचेंद्रिय तिर्यंच आउखो बांधे १७. शुभ लेश्या रं मांहि समदृष्टि मनु पं. तिरि । वैमानिक नुं ताहि, आयु बांधे ते १८. नारक में असुरादि, द्रव्यलेश कृष्णादि में। मनुष्य तणों संवादि, आऊखो बांधे तिके ॥ १९. ते द्रव्यलेश पेक्षाय, मनुष्यायु बांधे कहीं । पिण भावलेश शुभ थाय, तेहनों कथन इहां नथी । २०. कृष्णलेशी अक्रियावादी जीवड़ा रे लाल, भणी ॥ अनाणवादी जेह हो । सु० । कृष्णलेशी विनयवादी पिण तिके रे लाल, चिहुं गति न पिण आउखो बांधे हो । सु० । समीक्षा अशुभलेश्या में आयुबन्ध की सोरठा देवायु नहीं पकत हो । सु० । ॥ जाणवू || मनु 1 नथी । २१. 'अक्रियावादी आदि, कृष्णलेशी तियंच तिर्यंच मनु । व्यंतर व्यंतर करि । तसु आयुबंध लाधि, भवनपती २२. द्रव्यलेश्या छै एह, तिण में सुर आयु अशुभ भाव-लेशेह, देवायु बांध २२. सूत्र भगवती मांहि तृतीय तृतीय शतक में तुर्य उद्देशे ताहि, एहवो पाठ कह्यो २४. जे लेश्या नां जाण, द्रव्य प्रतै जे ग्रहण काल करें तज प्राण, ते लेश्या में ऊपजै ॥ २५. असुर विषे इण न्याय, उपजे तो बेहरासु पाय, कृष्णादिक *लय पुन्य नीपर्ज शुभ जोग सूं रे ३१२ भगवती जोड़ जे तियंच मनु । चिहुं मांहिली ॥ तणं ॥ बंधे । नथी ॥ आखियो । अछे ।। १२. गोयमा ! नो नेरइयाउयं एवं जहेव जीवा तहेव सस्सा विचहिवि समोसरणेहि भाणियया । (श. २०१३) १३. कण्हलेस्सा णं भंते! जीवा किरियावादी कि नेरइयाउयं पकरेंति - पुच्छा । गोयमा ! १४. नो नेरइयाउयं पकरेंति नो तिरिक्खजोणियाउयं देवाउयं पकरेति मणुस्साउयं पकरेंति नो पकरेंति । १५. मप्युपायं पकरेंति' ति यदुक्तं तन्नारकामुरकुमारादीनाथित्वसेयं, (बृ. प. ९४५) १६,१७. यतो ये सम्यग्दृष्टयो मनुष्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यते मनुष्याने वनन्त्येव वैमानिकाबन्ध कत्वात्तेषामिति । ( वृ. प. ९४५) २०. अकिरियावादी अण्णाणियवादी वेणइयवादी य चत्तारि वि आउयाइं पकरेंति । २३.२४. गोमा ! जलेसाई दबाई परिवादत्ता कार्य करेइ, तल्लेसेसु उववज्जइ । भगवई २०१०३-१०५) Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. द्रव्यलेश अवदात, आख्यो हिव कहूं भाव न । उत्तराध्ययने ख्यात, अध्येन चउतीसम विषे ।। २७. धुर त्रिहं अधर्म लेश, ते अधर्म लेश्या करी । दुर्गति विषे प्रवेश, भावनेश ए जाणवी ।। २८. छहली त्रिहं धर्म लेश, तेह धर्मलेश्या करी। सुगति विषेज प्रवेश, ए पिण लेश्या भाव छै ।। २७. किण्हा नीला काऊ,तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गई उववज्जई बहुसो ॥ (उत्तर. ३४१५६) २८. तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइ उववज्जई बहुसो ।। (उत्तर. ३४१५७) ३०. ते णं भंते ! ......."जाहे अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ भवति ताहे अज्झवसाणा पसत्था, (भगवई २४१३३) ३३. देवाण नारयाण य दव्वलेसा भवंति एयाओ। भावपरावत्तीए सुरनेरइयाण छल्लेसा ॥ (उत्तर. व. प. ६५९) ३६. "अज्झवसाणा पसत्था नो अपसत्था" (भगवती २४॥११८) २९. तिरि मनु असुर विषेह, उपजे तेहनें अंत द्रव्य । कृष्णादिक ग्रहणेह, पिण भावे शुद्ध लेश्या तदा ।। ३०. असुर विषेज ताय, जघन्य स्थितिक तिरि ऊपजै । प्रशस्त अध्यवसाय, आख्या शत चउवीसमें ।। ३१. एकेंद्रिय रे मांहि, सौधर्म सुर चवि ऊपजै । द्रव्य तेजु सुर मांहि, भाव अशुद्ध लेश्या तदा ॥ ३२. कृष्णादिक नरकेह, द्रव्यलेश अशुद्ध त्यां। लहिस नर भव जेह, भावे शुक्ल लेश्या करी ।। ३३. नारकि ने सुर मांहि, भावे षट लेश्या कही। उत्तराध्यने ताहि, अध्येन चउतीसम वृत्ती ।। ३४. इण न्याये अवलोय, द्रव्य कृष्णलेशी नर तिरि । __ अक्रियावादी सोय, शुद्ध भावलेश करि असुर ह ॥ ३५. असन्नी नरके जाय, भावलेश जो अशुभ तस । तो असन्नी सुर थाय, तस भावलेश शुभ किम न है। ३६. प्रशस्त अध्यवसाय, असन्नी सुर हुवे तेहनां। धुर त्रिहुं लेश्या ताय, ए द्रव्यलेश्या आश्रयी। ३७. अपसत्थ अध्यवसाय, एकेंद्रिय हुवै सोहम सुर । तेजु लेश तिहाँ पाय, ए पिण द्रव्यलेश्या अर्छ । ३८. नारक मरी जिन थाय, प्रशस्त अध्यवसाय में । ___ अशुभ लेश द्रव्य ताय, तिम ए असन्नी जाणवो ।। ३९. एकेद्रिय मरि ताय, प्रशस्त अध्यवसाय में। पूर्व कोड़ मनु थाय, द्रव्यलेश कृष्णादि तस् । ४.. एकेद्रिया रै ताय, मनु पुव्व कोट्यायु बंधै । स्यूं धर्मलेश्या तसु थाय, कह्य धर्मलेश्या में सुगति बंध ।। ४१. दशवकालिक मांय, संजम नै तप धर्म बे। कायकलेश कहाय, तप धर्म एकेंद्रिय विषे ।। ४२. प्रशस्त अध्यवसाय, एकेंद्रिय रे जिन कह्या । भावलेश शुभ ताय, ते पिण जाणे केवली' ।। (ज० स०) ४३. *इम नील कापोत पिण जाणवी रे लाल, क्रियावादी तेजुलेशी जीव हो । सु० । स्यूं बांधे नारकी नों आउखो रे लाल ?, ___इत्यादि प्रश्न कहीव हो । स०। *लय : पुन्य नीपजे शुभ जोग सं रे ३९. अज्झवसाणा"ततियगमए पसत्था । (भगवती २४।२९९) ४१. धम्मो मंगलमुक्किठें अहिंसा संजमो तवो। (दसवे. १११) ४२. (भगवती २४।१६७) ४३. एवं नीललेस्सा वि, काउलेस्सा वि । (श. ३०।१४) तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी कि नेरइयाउयं पकरेंति-पुच्छा। श० ३०, उ०१, ढा.४७६ ३१३ Jain Education Intemational Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. जिन कहै नारक तिरि तणों रे लाल, मनुष्य अने बलि देव नों रे लाल, आउयो बांधे नहि हो । सु० । ४५. जो बांधे आउखो देव नों रे लाल, ४७. जिन कहै न बांधे बांधे आखो ताहि हो ॥ सु० । तिमहि वैमानिक तणों रे लाल, । बंधे मनुष्य तियंच संवाद हो । सु० । ४६. तेजुलेशी भगवंतजी ! रे लाल, स्वं भवनपति इत्यादि हो । सु० । स्यूं बांधे नार किन आउखो रे लाल ?, अक्रियावादी जीव हो । सु० । बांधे मनुष्य तणों पिण आयो रे लाल, ४८. एवं अज्ञानवादी अछे रे लाल, देवायु पिण करेह हो । सु० । कहिवा विनयवादी पिण एम हो । सु० । तेजुलेशी जिम आखिया रे लाल, वा० पद्म शुक्ल-शी पिण तेम हो । सु० । १. वादी २. जनावादी विनयवादी तेजु पद्म शुक्ललेशी देवता मनुष्य अनें तिर्यंच रो आउखो बांधे। अने ए तीन लेश्यावंत तीन समवसरण वाला मनुष्य, तियंच छँ तिके देवता नों आउखो बांधे ॥ इत्यादि प्रश्न कहीव हो । सु० । नारक आउखो रे लाल, आयु तिर्यच नों बांधे हो । सु० । ४९. बलेशी प्रभु ! जीवड़ा रे बाल, ३१४ भगवती जोड़ स्यूं बांधे नारक नों आउखो रे लाल ? क्रियावादी छै जेह हो । सु० । इत्यादि प्रश्न पूछेह हो । सु० । ५०. जिन कहै अलेशी तणें रे लाल, च्यारूं गति रो आउखो बांध नांय हो । सु० । अलेशी तो अजोगी तथा सिद्ध रे लाल, त्यारे आउखो नहि बंधाय हो । सु० । ५१. कृष्णपक्षी प्रभु ! जीवड़ा रे लाल, अक्रियावादी जेह हो । सु० । स्यूं बांधे नारक न आउयो रे लाल, इत्यादि प्रश्न पूछेह हो । सु० । ५२. जिन कहै च्यारूं ही गति तणों रे लाल, आउचो तेह बांधत हो । स० । इम अज्ञानवादी पिण जाणवा रे लाल, विनयवादी पिण इम हुंत हो ॥ स० । ४४. गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणिया पकरेति मस्साउयं पिपकरेति देवाउय पिपकरेति । ४५. जइ देवाउयं पकरेंति तहेव । (श. ३०/१५) ४. तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियावादी किं नेरइयाउयं पुच्छा । ४७. गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पि कति तिरिखजोगिया पति देवायं पिपकरेंति । ४८. एवं अण्णाणियवादी वि, वेणइयवादी वि । जहा तेलेस्सा एवं पहलेस्सा वि सुक्कलेस्सा वि नायव्वा । (स. २०११६) वा० - ते उलेस्साणं भंते ! जीवा अकिरियावादी कि नेरइयाउयं पुच्छा । मानोयं पकरति मधुस्सा उ वि पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकति, देवाउयं पिपकरेंति । एवं अण्णाणियवादी वि, वेणइयवादी वि । जहा तेउलेस्सा एवं पम्हलेस्सा पि सुक्कलेस्सा वि नायब्वा । (भगवती ३०।१६) ४९. अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी किं नेरइयाउयं पुच्छा । ५०. गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति नो मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवायं पकरेंति । (श. ३०/१७) अलेश्या: - सिद्धा अयोगिनश्च ते चतुर्विधमप्यायुर्न बध्नन्तीति ( वृ. प. ९४५) ५१. कण्हपक्खिया णं भंते ! जीवा अकिरियावादी कि नेरइयाउयं पुच्छा | ५२. गोमा राउयं पिपकरेति एवं विहं पि । एवं अण्णाणियवादी वि, वेणइयवादी वि । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा। (श. ३०।१८) सम्मदिट्ठीणं भंते ! जीवा किरियावादी कि नेरइयाउयं-पुच्छा। ५४. गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति। वा.- सम्यदिट्ठीणं भंते ! जीवा किरियावादी किं नेरइयाउयं - पुच्छा"। जइ देवाउयं पकरेंति... (भगवती ३०।१९।११) ५५. मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया। (श. ३०।१९) सम्मामिच्छादिट्ठी णं भंते ! जीवा अण्णाणियवादी कि नेरइयाउयं ? ५६. जहा अलेस्सा । एवं वेण इयवादी वि । सम्यग्मिथ्यादृष्टिपदे 'जहा अलेस्स' त्ति समस्तायूंषि न बध्नन्तीत्यर्थः । (व. प. ९४५) ५७. नाणी आभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य ओहि नाणी य जहा सम्मदिट्ठी। (श. ३०।२०) ५३. शुक्लपाक्षिका जीवड़ा रे लाल, सलेशी जिम कहिवाय हो । सु० । क्रियावादी समदृष्टि प्रभु ! जीवड़ा रे लाल, __स्यूं नारकायु पूछाय हो । सु० । ५४. जिन कहै नारकि तिर्यंच नों रे लाल, ___ आयु न बांधै जेह हो । सु० । मनुष्य अनै वलि देव नों रे लाल, बांधै आउखो तेह हो ।। सु० । वा० --समदृष्टि क्रियावादी मनुष्य, तिर्यंच तो देवता रोआउखो बांधे । देवतां न विषे पिण वैमानिक नों बांधे। अनै समदृष्टि क्रियावादी नारकी, देवता एक मनुष्य नों हीज आउखो बांधे । ५५. मिथ्यादृष्टि कृष्णपाक्षिक नी परै रे लाल, प्रभु ! समामिथ्यादृष्टि जीव हो । सु० । अज्ञानवादी छै तिके रे लाल, स्यूं नारक आयु पूछीव हो । सु० । ५६. कहिवा अलेशी नीं पर रे लाल, विनयवादी पिण एम हो । सु० । मिथदृष्टि रै च्यारूं गति तणों रे लाल, आयु न बांधै तेम हो ।। सु० । ५७. समुच्चय ज्ञानी मति-श्रुत-ज्ञानो वली रे लाल, अवधिज्ञानी अधिकार हो । सु० । कहिवा समदष्टि नी परै रे लाल, बांधे मनुष्य देवायु सार हो ।। सु० । वा०-समुच्चय ज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी मनुष्य, तियंच छ तिके एक देवता में वैमानिक नों आउखो बांधे । अन नारकी, देवता छ तिके मनुष्य नों आउखो बांधे । ५८. प्रभु ! मनपज्जव तणीं पृच्छा रे लाल, भाखै जिन गुणगेह हो । स० । धुर त्रिण गति आयु नहिं बांध रे लाल, देवायु पकरेह हो । सु० । ५९. जो बांध आउखो देव नों रे लाल, तो स्यं भवनपति नों बांधत हो ? सु० । इत्यादि पूछा कियां रे लाल, भाखै तब भगवंत हो । सु० । ६०. भवनपत्यायु बांधे नहीं रे लाल, व्यंतरायु बांधै नाय हो । सु० । न बांधै आउखो ज्योतिषी तणों रे लाल, वैमानिक नुं बंधाय हो । सु० । ६१. केवलज्ञानी अलेशी तणीं परै रे लाल, अज्ञानी यावत जाण हो । स० । विभंगअज्ञानी तिके वली रे लाल, कृष्णपाक्षिक जिम आण हो । स०। ५८. मणपज्जवनाणी णं भंते !-पुच्छा। गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, नो मणुस्साउयं पकरेंति, देवाउयं पकरेंति । (श. ३०२१) ५९. जइ देवाउयं पकरेति किं भवणवासि-पुच्छा। गोयमा ! ६०. नो भवणवासिदेवाउयं पकरेंति, नो वाणमंतरदेवाउयं पकरेंति, नो जोइसियदेवाउयं पकरेंति, वेमाणियदेवाउयं पकरेंति। ६१. केवलनाणी जहा अलेस्सा। अण्णाणी जाव विभंग नाणी जहा कण्हपक्खिया । श० ३०, उ० १, ढा० ४७६ ३१५ Jain Education Intemational Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. सण्णासु चउसु वि जहा सलेस्सा। नोसण्णोवउत्ता जहा मणपज्जवनाणी । ६३ सवेदगा जाव नपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा । अवेदगा जहा अलेस्सा। ६४. सकसायी जाव लोभकसायी जहा सलेस्सा। अकसायी जहा अलेस्सा। ६२. च्यारूं ही संज्ञा विषे रे लाल, सलेशी जिम सोय हो । सु० । नोसण्णोवउत्ता जिके रे लाल, मनपज्जव जिम जोय हो ।सु० । ६३. सवेदक यावत वली रे लाल, वेद नपुंसक न्हाल हो। सु० । सलेशी नी परै जाणवा रे लाल, अवेदी अलेशी जिम भाल हो ॥ सु० । ६४. सकषाई यावत वली रे लाल, लोभकषाई ताय हो । सु० । कहिवा सलेशी तणों परै रे लाल, अकषाई अलेशी जिम थाय हो । सु० । ६५. सजोगी यावत वली रे लाल, कायजोगी कहिवाय हो।सुन सलेशी नीं परै ए सही रे लाल, __ अजोगी अलेशी जिम आय हो । सु० । ६६. सागारोवउत्ता जिके वली रे लाल, अनाकार उपयुक्त हो । सु० । कहिवा सलेशी तणीं परै रे लाल, ए बोल सैंतालीस उक्त हो । सु० । ६७. शत तीसम देश प्रथम तणुं रे लाल, ___ च्यारसौ नैं छोहतरमी ढाल हो । सु० । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी रे लाल, 'जय-जश' मंगलमाल हो । सु० । ६५. सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा । अजोगी जहा अलेस्सा। ६६. सागारोव उत्ता य अणागारोवउत्ता य जहा सलेस्सा। (श. ३०।२२) ढाल:४७७ समवसरणगत २४ दं कों का आयुबन्ध दूहा १.हिव दंडक चउवीस जे, क्रियावादी आदि । किण गति नों आयू तिके, बांधे प्रश्न संवादि ।। *चतुर नर ! समवसरण जिन ख्यात ।। (ध्रुपदं) २. क्रियावादी नेरइया रे, स्यूं नारकि आयु बांधत । कै तिरि मनु सुर नों आउखो रे, बांधे हे भगवंत ? ३. जिन कहै नारकि तिरि तणुं रे, आयू बांधै नाय । मनुष्यायु बांधे तिको रे, सुर आयु न बंधाय ।। सोरठा ४. तिहां नारकी तेह, नारकि सुर नों आउखो। बिहं नहिं बांधे जेह, ते भव नां अनुभाव थी। *लय : पहिला थी म्है सामली रे ३१६ भगवती जोड़ २. किरियाबादी णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं पुच्छा। ३. गोयमा ! नो नेरइया उयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति। (श. ३०।२३) ४. यन्न रयिकायुर्देवायुश्च न प्रकुर्वन्ति क्रियावादिनारकास्तन्नारकभवानुभावादेव, (व. प. ९४६) Jain Education Intemational Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. यच्च तिर्यगायुर्न प्रकुर्वन्ति तत्कियावादानुभावादित्यवसेयं, (वृ. प. ९४६,९४७) ६. अकिरियावादी णं भंते ! नेरइया-पुच्छा। गोयमा ! ५. तिर्यंच तणूंज तास, आऊखो बांध नथी । क्रियावादी विमास, तेह तणां अनुभाव थी। ६. *प्रभु ! अक्रियावादी नारकी रे, स्यू नारकि आयु बांधत ? इत्यादिक पूछा कियां रे, उत्तर दै अरिहंत ।। ७. नारकि आयु बांधे नहीं रे, तिथंच आयु पकरंत । ___ बांधे मनुष्य नों आउखो रे, देवायु नहीं बांधत ।। ८. एवं अनाणवादी कह्या रे, इम विनयवादी पिण मंत । न बांध नारकि सुर आउखो रे, तिरि मनुष्यायु बांधत ।। ९. सलेशी प्रभु ! नेरइया रे, क्रियावादी जेह । स्यूं बांध नारकि नों आउखो रे? इत्यादिक पूछेह ।। १०. इम सगला पिण नारकी रे, क्रियावादी जेह । ते बांध मनुष्य नों आउखो रे,त्रिहुं गति नों न बांधेह ।। ११. जे अक्रियावादी नारकी रे, अज्ञानवादी जोय । विनयवादी पिण नारकी रे, ए तीनू अवलोय ।। १२. ते सह पद स्थानक विषे रे, नारकायु न बांधेह । बांध तिरि मनु आउखो रे, देवायु नहिं पकरेह ।। ७. नो नेरइयाउयं, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्सा उयं पि पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति । ८. एवं अण्णाणियवादी वि, वेणइयवादी वि। (श. ३०१२४) ९. सलेस्सा णं भंते ! नेरइया किरियावादी कि नेरइयाउयं ? १०. एवं सब्वे वि नेरइया जे किरियावादी ते मणुस्साउयं एग पकरेंति, ११. जे अकिरियावादी अण्णाणियबादी वेणइयवादी १२. ते सव्वदाणेसु वि नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्ख जोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति, १३. नवरं सम्मामिच्छत्ते उवरिल्लेहिं दोहिं वि समो सरणेहिं न किंचि वि पकरेंति १३. णवरं मिश्रदृष्टि नारकी रे, तिणमें समवसरण छहला दोय । ते च्यारूं ही गति तणुं रे, आयु न बांधै कोय ।। १४. मिश्र गुणस्थान स्वभाव थी रे, समवसरण जे बेह। किणही गति रो आउखो बांधै नथी रे, जिम भाख्यो जीव पदेह ।। १५. एवं यावत जाणवा रे, थणियकुमार पर्यंत । जिमज नारकि ने आखियो रे, कहि तिमज उदंत ।। १६. अक्रियावादी भदंतजी ! रे, पृथ्वोकायिक जीव । बांध नारकी नों आउखो रे, इत्यादि प्रश्न कहीव ।। १७. जिन कहै नारकि सुर तणों रे, आयु बांधै नाय । तिर्यंच मनु आयु बंध रे, इम अज्ञानवादी कहाय ।। १४. जहेव जीवपदे। सम्यग्मिथ्यादृष्टिनारकाणां द्वे एवान्तिमे समवसरणे स्तः, तेषां चायुर्बन्धो नास्त्येव गुणस्थानकस्वभावादतस्ते तयोर्न किञ्चिदप्यायुः प्रकुर्वन्तीति । (वृ. प. ९४७) १५. एवं जाव थणियकुमारा जहेव नेरइया । (श. ३०।२५) १६. अकिरियावादी णं भंते ! पुढविक्काइया-- पुच्छा । १७. गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति । एवं अण्णाणियबादी वि। (श. ३०२६) १८,१९. सलेस्सा णं भंते ! एवं जं जं पदं अस्थि पुढविकाइयाणं तहिं तहिं मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु १८. सलेशी पृथ्वीकाइया रे, इत्यादि प्रश्न करेह । उत्तर श्री जिनवर दिय रे, सांभलजो गुणगेह ।। १९. इम जे-जे पद छै जिहां रे, पृथ्वीकायिक मांहि । तिहां-तिहा बिचला बिहुँ रे, समवसरण में ताहि ।। २०. इमहिज तिर्यंच मनुष्य नों रे, आयु बांध तेह । णवरं तेजु लेश्या विषे रे, किणहि गति न आयु न बांधेह ॥ *लय : पहिला थी म्है सांभली रे २०. एवं चेव दुविहं आउयं पकरेंति, नवरं - तेउलेस्साए न कि पि पकरति । श० ३०, उ० १, ढा० ४७७ ३१७ Jain Education Intemational in Education international Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २१. तेज़ लेश्या तेह, अपर्याप्तक पृथ्वी विषे । विगम थयां थी जेह, आयु बंध हुवै अछै ।। २१. 'तेउलेस्साए न किंपि पकरेंति' त्ति अपर्याप्तकाव स्थायामेव पृथिवीकायिकानां तद्भावात्तद्विगम एव चायुषो बन्धादिति, (व.प. ९४७) २२ एवं आउक्काइयाण वि, वणस्सइकाइयाण वि । २२.*अपकायिक पिण इमज ही रे, वनस्पती पिण एम । _ विस्तार कह्यो पृथ्वी तणों रे, कहिवू सगलू तेम ।। २३. तेउ-वाउकाइया रे, सर्व स्थानक - विषेह । समवसरण विचला बिहुँ रे, तेह विषे इम लेह ।। २४. नारकायु बांध नथी रे, तिथंच आयु बांधेह । मनुष्यायु बांधे नहीं रे, देवायु नहीं पकरेह ।। २३ तेउकाइआ वाउकाइआ सब्वट्ठाणेसु मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु २४. नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, नो मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवा उयं पकरेंति । २५. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं जहा पुढविकाइयाणं, नवर -सम्मत्त-नाणेसु न एक्कं पि आउयं पकरेंति । (श. ३०।२७) २५. बे. ते. चउरिद्रिय जीवड़ा रे, पृथ्वी जिम कहिवाय। णवरं सम्यक्त्व ज्ञान में रे, इक पिण आयु न बंधाय ।। २६,२७. 'सम्मत्तनाणेसु न एक्कंपि आउयं पकरेंति' त्ति, द्वीन्द्रियादीनां सम्यक्त्वज्ञानकालात्यय एवायुर्बन्धी भवत्यल्पत्वात्तत्कालस्येति नैकमप्यायुर्बध्नन्ति तयोस्ते इति । (वृ. प. ९४७) २८. किरियावादी णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजाणिया कि नेरइयाउयं पकरेंति-पुच्छा। २९. गोयमा ! जहा मणपज्जवनाणी। सोरठा २६. विकलेंद्रिय ने जाण, सम्यक्त्व ज्ञानज काल नां । नाश थकी पहिछाण, आयु बंध हवै अछ ।। २७. सम्यक्त्व ज्ञान तणांज, अल्प काल नां भाव थी। ते बिहं विषे समाज, इक पिण आयु नहिं बधे ।। २८. *क्रियावादी भगवंतजी ! रे, पंचेंद्रिय तिर्यच । स्यूं बांध नारकि नों आउखो रे? इत्यादि प्रश्न सुसंच ।। २९. जिन भाखै सुण गोयमा ! रे, जिम मनपर्यव ज्ञान । इक वैमानिक देव नों रे, तसु आयु बंध जाण ॥ ३०. अक्रियावादी आदि दे रे, समवसरण जे तीन । चिहं गति नों पिण आउखो रे. तेहनों बंध कथीन ।। ३१. जेम ओघिक आखिया रे, सलेशी पिण तेम । क्रियावादी आदि नों रे, कहिवो पूरव जेम ।। ३२. कृष्णलेशी भगवंतजी! रे, क्रियावादो तेह । पंचेंद्रिय तिरियोनिया रे, स्यूं नारकायु पूछेह ? ३३. जिन कहै च्यारूं गति तणों रे, आयुबंध न थाय । जेह कृष्ण लेश्या विषेरे, ___ समदृष्टि रै आयु न बंधाय ॥ ३०. अकिरियावादी अण्णाणियवादी वेणइयवादी य चउब्विहं पि पकरेंति। ३१. जहा ओहिया तहा सलेस्सा वि। (श. ३०१२८) ३२. कण्हलेस्सा णं भते! किरियावाी पंचिदिय तिरिक्खजोणिया कि नेरइयाउयं-पुच्छा। ३३. गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्ख जोणियाउयं, नो मणुस्साउयं, नो देवाउयं पकरेंति। यदा पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चः सम्यग्दृष्टयः कृष्णलेश्यादिपरिणता भवन्ति तदाऽऽयुरेकमपि न बध्नन्ति, (वृ. प. ९४७) ३४. सम्यग्दृशां वैमानिकायुर्बन्धकत्वेन तेजोलेश्यादित्रयबन्धनादिति । (वृ. प. ९४७) ३५. अकिरियावादी अण्णाणियवादी वेणइयवादी चउब्विहं पिपकरति । सोरठा ३४. समदृष्टि तिर्यंच, तस बंध वैमानिक तणं । तेजु आदिज संच, तेह विष आयु बंधै ॥ ३५. *अक्रियावादी आदि दे रे, समवसरण त्रिण माय। चिहं गति नों पिण आउखो रे, तास बंध कहिवाय ।। *लय : पहिला थी म्है सांभली रे ३१८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 बा० अक्रियावादी तियंच पंचेंद्रिय कृष्णलेशी रं देवायु नों बंध कह्यं । द्रव्य कृष्णलेश्या नैं विषे देवायु बंधे अने भाव कृष्णलेश्या नैं विषे देवता नों आउखो बंधे नहीं । ते मार्ट द्रव्य कृष्णलेशी तिथंच रे देवायु बंधे तो ते पिण भवनपति व्यंतर नं बंधे। ते भवनपति व्यंतर में द्रव्य कृष्णादिक ४ लेश्या छ ते माटे । ३७. तेजुलेशी पं. तिरि रे, ३६. कृष्णलेशी जिम आखिया रे, नीललेशी पिण एम । कापोतलेशी पं. तिरि रे, कहिवा कृष्णज जेम || लेशी जिम कहिवाय । वरं इतरो विशेष छे रे, सांभलजो चित ल्याय ॥ ३८. अक्रियावादी आदि दे रे, समवसरण त्रिण ताय । नारका बांधे नहीं रे, शेष त्रिण गति आयु बंधाय ॥ सोरठा ३९. जुवेशी जास, पंचेंद्रिय तिर्यंच जे । क्रियावादी तास, वैमानिक नुं आयु-बंध || वा०] अभिपावादी, जनापवादी वेणइपवादी तेजुमीनारकिन आउ 1 " न बांधे नारक में द्रव्य तेजुलेश्या नथी ते मा अावादी आदि में भावे तेजुलेश्या में पिण नारकी नो आउखो न बांधे । अन तिथंच नों आउखो द्रव्य तेजुलेश्या रे विषे कोड़ पूर्व स्थितिक तियंच नों आउखो बंधतो संभव, पिण भाव तेजु - लेशी में बंधतो न संभवे । अने मनुष्य नुं शुभ आउखो अनैं देवता नो आउखो ए भावे तेजुलेश्या नैं विषे बंधतो संभवे । ( ज. स. ) ४०. * पद्म लेश्या पिण इहविधे रे, शुक्ललेशी पिण एम । तेजुलेशी नीं परं रे, आयु-बंधज तेम ।। ४१. कृष्णपाक्षिक जे पं. तिरि रे, त्रिण समवसरण करेह । च्या गति न पिण तिके रे, आऊखो बांधेह ॥ ४२. पाक्षिक पतिरि रे, सलेशी जिम कहिवाय । समदृष्टि मनपज्जव नीं परं रे, तिम वैमानिका बंधाय ॥ ४३ मिध्यादृष्टि पं. तिरि रे, कृष्णपाक्षिक जिम ख्यात । समवसरण तीनूं विषे रे, तिमहिज तसु अवदात || ४४. मिथदृष्टि किणही गति तणों रे, आयू बांध नांहि । जेम नारकि तिम अंत ना रे, समवसरण बे मांहि ॥ ४५. ज्ञानी जायत जाणवा रे, अवधिज्ञानी तिच जिम समदृष्टि आखिया रे, कहिवूं तेम सुसंच ॥ *लय : पहिला थी म्हे सांभली रे ३६ जहा कण्हलेस्सा एवं नीललेस्सा वि, काउलेस्सा वि । ३७ तेउलेस्सा जहा सलेस्सा, नवरं ३८. अकिरियावादी, अण्णाणियवादी, वेणइयवादी य नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि परेति, मगुस्सायं पिपकरेति देवाउयं पि पकरेंति । ३९. 'तेउलेसा जहा सलेस' त्ति, अनेन च क्रियावादिनो वैमानिकायुरेव (वृ. प. ९४७) ४०. एवं पम्हलेस्सा वि । एवं सुक्कलेस्सा वि भाणियव्वा । ४१. पति सरह उहि पिआउ पकरेंति । ४२. कप जहा सरता सम्मदिट्ठी जहा मणपज्जवनाणी तहेव वैमाणियाज्यं पकरेति । ४३. मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया । ४४. सम्मामिट्टी ग य एकं पि पति जब नेरइया । ४५. नाणी जाव ओहिनामी जहा सम्मदिट्टी । श० ३०, उ० १, डा० ४७७ ३१९ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. अज्ञानी नैं आदि दे रे, यावत विभंग लगेह । कृष्णपाक्षिक जिम आखिया रे, कहिवा तिमहिज एह || ४७. शेष सर्व जे पद रह्या रे, यावत ही अनाकार । जेम सलेशी आखिया रे, कहिया तिमज विचार ॥ हिये मनुष्य अधिकार कहे ४८. जेम पंचेंद्रिय तिरि तणों रे, व्यक्तव्यता कही जाण । महज मनुष्य तणींसह रे, कहिवी एह पिछाण || ४९. वरं मनपज्जव वली रे, नोसण्णोवउत्ता ताय । जिम समदृष्टि पं. तिरि कह्या रे, तिमहिज ए कहिवाय ॥ ५०. अशी केवलधरा रे, अवेदक अकषाय । अजोगी ए पंच ही रे, इक पिण आयु न बंधाय ।। ५१. जिम अधिक जीवा कह्या रे, कहिवा तिम ए पंच | शेष तिमज कहिवा सह रे, पंचेंद्रिय तिरि जिम संच ॥ हिवे व्यंतरादिक नुं अधिकार कहे - ५२. वाणव्यंतर नं ज्योतिषी रे, वैमानिक अवधार जेम असुर में आखिया रे, कहिवा तेम विचार ॥ ५३. शत तीसम देश प्रथम तणों रे, च्यारसी सितंतरमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय जय' मंगलमाल ॥ ढाल : ४७८ समवसरणगत जीवों का भव्यत्व अभव्यत्व दूहा १. क्रियावादी हे प्रभु ! जीवा स्यूं अवलोय । तेह अछे भवसिद्धिया ? के अभवसिद्धिका होय ? २. जिन कहै छै भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया नांय । अक्रियावादी जीवनीं पूछा है जिनराय ॥ ३. भवसिद्धिका पिण तिके, अभवसिद्धिक पिण तेम । अज्ञानवादी पिण इमज विनयवादी पिण एम ॥ , ३२० भगवती जोड़ ४६. अण्णाणी जाव विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया । ४७. सेसा जाव अणागारोवउत्ता सव्वे जहा सलेस्सा तहा चैव भाणियब्वा । ४८. जहा पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तव्वया भणिया एवं मगुस्साग व भाणिपल्या ४९. नवरं -- मणपज्जवनाणी नोसण्णोवउत्ता य जहा सम्मदिट्ठी तिरिषधजोषिया तव भाया। ५०. अलेस्सा केवलनाणी अवेदगा अकसायी अजोगी य एएन एगं पि आउयं पकरेंति । ५१. जहा ओहिया जीवा से तहेब । ५२. वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । (. ३०।२९) १. किरियावादी णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धीया ? अभवसिद्धीया ? २. गोयमा ! भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया । (श. ३०/३०) अकिरियावादी णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धीयापुच्छा । गोयमा ! ३. भवसिद्धीया वि, अभवसिद्धीया वि । एवं अण्णाणियवादी वि, वेणइयवादी वि । (π. 20121) Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सुगुण जन ! सांभलो, जिन समवसरण कह्या च्यार || ( ध्रुपदं ) । ४. राजेशी हे प्रभु! जीवड़ा जी, क्रियावादी जेह स् छे ते भवसिद्धिया ? के अभवसिद्धिया कहेह ? ५. जिन भावे सुण गोयमा ! जो भवसिद्धिया ते होय । अभवसिद्धिया हुवे नहीं जी ए समदृष्टी सोय || ६. जीव सतेशी हे प्रभु जी, अक्रियावादी जोय स्यूं छे ते भवसिद्धिया ? कै अभवसिद्धिका होय ? ७. जिन है भवसिद्धिया अरिजी ! अभवसिद्धिक पण होय । इम अज्ञानवादी पिच अर्थ जो दिनववादी पिण जीव || ८. जेम सलेशी आखिया जी इस कहिया जाय न लेश। क्रियावादी तो भव्य छै जो, अनं भव्य अभव्य त्रिहुं शेष || ९ अशी हे प्रभु! जीवड़ा जो क्रियावादी तेह 3 स्यूं छै ते भवसिद्धिया ? के अभवसिद्धिया जेह ? १०. जिन भाखे सुण गोयमा ! जो ते भवसिद्धिया था । अभवमिडिया ते नहीं जो इहां सिद्ध गिणिया नांय || । ११. सिद्ध अशी होय, ते माटै ए जोय, १२. * इम इण आलावे करी, कृष्णपाक्षिक जे जीव । समवसरण त्रिहुं विषे, भव्य अभव्य भजनाई कहीव ॥ वा० - कृष्णपाक्षिक ने क्रियावादी न कहिवा । सोरठा भव्य अभव्य विहं नहीं बलेसी चवदम गुणे ॥ १३. शुक्ल पाक्षिक जीव छै तिके, चिहुं समवसरण नें विषेह । तेह अल भवसिद्धिया जी, अभवसिद्धिक नहीं जेह ॥ १४. समदृष्टि अलेशी नीं पर जी, भवसिद्धिया छै तेह | मिच्छदिट्टि जिम कृष्णपाक्षिकाजी, भव्य अभव्य विहं जेह ॥ १५. समामिष्यादृष्टि तिके, छेहला समवसरण वे मांहि । कहिया अशी तभी परे जी, भव्य पिण अभव्य नाहि ॥ १६. समुच्चय ज्ञानी यावत वली जी, केवलज्ञानी जेह । भवसिद्धिकही ते हुवै जी, अभवसिद्धिक नहीं तेह || सोरठा पद छह १७. ज्ञानी यावत जेह. केवलज्ञानी क्रियावादी एह. भव्यहीज कहिये तसु ॥ १८. * अज्ञानी जाव विभंग विषे जी, कृष्णपाक्षिक जिम न्हाल । समवसरण त्रिहुं नैं विषे जी, भव्य अभव्य बिहु भाल || *लय : अभड भड रावणो ४. सलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी किं भवसिद्धीया पुच्छा । ५. गोयमा ! भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया । (स. २०१३२) ६. सलेस्सा णं भंते! जीवा अकिरियावादी कि भवसिद्धीया - पुच्छा । ७. गोयमा ! भवसिद्धीया वि, अभवसिद्धीया वि । एवं अण्णाणियवादी वि, वेणइयवादी वि । ८. जहा सलेस्सा । एवं जाव सुक्कलेस्सा । (श. ३०/३३) ९. अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी किं भवसिद्धीया - पुच्छा । १०. गोयमा ! भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया । १२. एवं एएणं अभिलावेणं कण्हपक्खिया तिसु वि समोसरणेसु भयणाए । १३. सुक्कपक्खिया चउसु वि समोसरणेसु भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया । १४. सम्मदिट्ठी जहा अलेस्सा | मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया । १५. सम्मामिच्छादिट्ठी दो व समोसरणे जहा अलेस्सा | १६. नाणी जाव केवलनाणी भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया । १८. अण्णाणी जाव विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया । श० ३०, उ० १, ढा० ४७८ ३२१ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. च्यारूं संज्ञावंत जीवड़ा, चिहुं समवसरण नें विषेह | कहिया सलेशी नी पर जी, न्याय विचारी लेह ॥ वा०-च्यार संज्ञावंत क्रियावादी तो भव्य, शेष तीन समवसरण भव्य पिण अभव्य पिण जाणवा । २०. नोसण्णोवउत्ता जीवदा, इक क्रियावादी में विषेह । भवसिद्धियाज कहीजिये जी, समदृष्टि जिम एह ॥ २१. सवेदी जाव नपुंसका जी, सलेशी जिम लेख । क्रियावादी तो भव्य छै जी, भव्य अभव्य त्रिण शेख ॥। २२. अवेदगा जे जीवड़ा जी, समदृष्टि जिम ताहि । इक क्रियावादी नैं विषे जी, भव्य पिण अभव्य नांहि ।। २३. सकवाई जावत वली जी लोभकपाई जाण कहिया ससेशी नीं पर जी, न्याय हिया में आण || वा०-- सकषाई जाव लोभकषाई समवसरणे भव्य पिण अभव्य पिण कहिवा । क्रियावादी तो भव्य, शेष तीन २४. अकवाई जे जीवड़ा जी, समदृष्टि जिम कहिवाय । इक क्रियावादी नें विषे जी, भव्य पिण अभव्य नांय || २५. सजोगी ने यावत वली जो कायजोगी के जेह । न्याय पूर्ववत लेह ॥ क्रियावादी तो भव्य, शेष तीन समवसरणे कहिना सलेशी नीं पर जो वा. सजोगी जाव कायजोगी भव्य पिण अभव्य पिण कहिवा २६. अजोगी जे जीवड़ा जी, समदृष्टि जिम जाण । इक क्रियावादी विषे भव्य छे जी, ए चवदम गुणठाण ।। २७. साकारोवउत्ता में वली जी, अनाकार उपयुक्त । कहिवा सलेशी नीं परै जी, न्याय पूर्व जे उक्त ॥ वा० - साकारोवउत्ता अनाकारोवउत्ता क्रियावादी तो भव्य, समवसरणे भव्य पिण अभव्य पिण कहिवा । समवसरणगत २४ दंडकों में भव्यत्व - अभव्यत्व २८. कहिया इमहिज नारकी जी णवरं विशेषज जाण । कहिवूं जेहनें जे अछे, दश भवनपति इम माण | २९. पृथ्वी कायिक सहु स्थानके, बिचला समवसरण बे मांय । भवसिद्धिक पिण तिके जी, अभवसिद्धिक पिण थाय ॥ ३०. इम जाव वनस्पति लगै जी, बे. ते चउरिद्री मांय । एवं वेव कहीजिये जी, नवर विशेष कहाय ।। ३१. सम्यक्त्व समुच्चय ज्ञान में जी, मति श्रुत ज्ञान रे मांहि । बिचला बे समवसरण विषे जी, भव्य पिण अभव्य नांहि ॥ शेष तीन वा० - इहां विकलेंद्रिय समदृष्टि ज्ञानी ने सास्वादन सम्यक्त्व तो छे पिण मिथ्यात्व र सन्मुख छ । वमती सम्यक्त्व मार्ट क्रियावादी न कह्या । क्रियावादी तो विशिष्ट सम्यक्त्ववंत नैं हुवे । ३२२ भगवती जोड़ १९. सणासु चउसु वि जहा सलेस्सा। २०. नोसण्णोवउत्ता जहा सम्मदिट्ठी । २१. सवेदगा जाव नपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा | २२. अवेदना जहा सम्मदिट्टी २३. सकसायी जाव लोभकसायी जहा सलेस्सा । २४. अकसायी जहा सम्मदिट्ठी । २५. सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा | २६. अजोगी जहा सम्मदिट्ठी । २७. सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता जहा सलेस्सा । २९. २८. एवं नेरइया वि भाणियव्वा, नवरं - नायव्वं जं अस्थि । एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा । वि मन्किले दोगुन समोसरणे भवसिद्धीया वि, अभवडीया वि ३०. एवं जाव वणस्सइकाइया । बेइं दिय-तेइं दिय चरिदिया एवं चेव, नवरं३१. सम्मत्ते ओहिनाणे आभिणिबोहियनाणे सुयनाणेएएसु चेव दोसु मज्झिमेसु समोसरणेसु भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया, सेसं तं चैव । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. पंचेंद्रिय तिरिखयोनिया जी, नारकि जिम कहिवाय । णवरं जेहने जे बोल छै जी, ते तसु कहिवा ताय ।। ३३. मनुष्य ओघिक जीवनी परै जी, व्यंतर ज्योतिषी ताम। वैमानिक असुर तणीं पर जी, सेवं भंते ! स्वाम ।। ३२. पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया, नवरं नायव्वं जं अस्थि । ३३. मणुस्सा जहा ओहिया जीवा । वाणमंतरजोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। (श. ३०।३४) सेवं भंते! सेवं भंते ! ति। (श. ३०१३५) ३४. शत तीसम धुर उद्देशो कह्यो, च्यारसौ अठंतरमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी जी, 'जय-जश' मंगलमाल ।। त्रिंशत्तमशते प्रथमोद्देशकार्थः ॥३०॥१॥ ढाल:४७९ अनन्तरोत्पन्न २४ दंडकों में क्रियावादिता आदि १. प्रथम उदेशक में विषे, जीव नारकी आदि । द्वितीय अनंतरोत्पन्नका, नारकादि संवादि ।। _ *गोतम ! समवसरण अर्थ सांभलो ।। (ध्रुपदं) २. अनंतरोत्पन्न नारकी, स्यूं क्रियावादी पूछेह हो ? प्रभुजी ! जिन कहै क्रियावादी अपि, जाव विनयवादी पिण तेह हो गोतम ! ।। ३. सलेशी धुर समय नां, नारकि जे अवलोय हो । स्यूं क्रियावादी पृच्छा? एवं चेव सुजोय हो । ४. जिहिज प्रथम उद्देशके, नारक नीं विख्यात हो। कहिवी तिमज इहां अपि, वक्तव्यता अवदात हो ।। ५. णवरं जेहने जे अछ, अनंतरोत्पन्न ताय हो। नारकि ने जे बोल छ, ते तेहने कहिवाय हो ।। ६. इम सगला ही जीव ने, जाव जिहां लग पेख हो। वैमानिक जे देव ने, णवरं इतरो विशेख हो ।। ७. प्रथम समय उत्पन्न तणे, जेह जिहां छै बोल हो। तेह तिहां कहि सही, बुद्धि सूं जिन वच तोल हो ।। ८. क्रियावादी धुर समय नां, नेरइया में संवादि हो । __स्यूं नारकी नों आउखो बांधे ? प्रश्न इत्यादि हो । ९. जिन भाखै चिहुं गति तणों, आयु न बांधे कोय हो । एम अक्रिया अनाण ही, विनयवादी पिण जोय हो ।। *लय : स्वामी म्हारा राजा नैं धर्म २. अणंतरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया कि किरियावादी -पुच्छा । गोयमा ! किरियावादी वि जाव वेणइयवादी वि। (श. ३०।३६) ३. सलेस्सा णं भंते ! अणंतरोववन्नगा नेरइया कि किरियावादी? एवं चेव । ४. एवं जहेव पढमुद्दे से नेरइयाणं वत्तव्वया तहेव इह वि भाणियव्वा, ५. नवरं-जं जं अत्थि अणंतरोववनगाणं नेरइयाणं तं तं भाणियव्वं । ६. एवं सव्वजीवाण जाव वेमाणियाणं, नवरं ७. अणंतरोववन्नगाणं जं जहिं अस्थि तं तहिं भाणियब्वं । (श. ३०।३७), ८. किरियावादी णं भंते ! अणंतरोववन्नगा नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति-पुच्छा। ९. गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्ख जोणियाउयं, नो मणस्साउयं, नो देवाउयं पकरेंति । एवं अकिरियावादी वि अण्णाणियवादी वि बेणइयवादी वि। (श. ३०।३०) श० ३०, उ०१,२, ढा० ४७८,४७९ ३२३ Jain Education Intemational Education International Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. सलेस्सा णं भते ! किरियावादी अणंतरोववन्नगा नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति -पुच्छा। ११. गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति । एवं जाव वेमाणिया। १२. एवं सव्वट्ठाणेसु वि अणंतरोववन्नगा नेरइया न किंचि वि आउयं पकरेंति जाव अणागारोवउत्तत्ति । १३. एवं जाव वेमाणिया, नवरं-जं जस्स अत्थि तं तस्स भाणियव्वं । (श. ३०/३९) १४. किरियावादी णं भंते! अणंत रोवबन्नगा नेरइया कि भवसिद्धीया? अभवसिद्धीया? १५. गोयमा ! भवसिद्धीया नो अभवसिद्धीया। (श. ३०/४०) १६. अकिरियावादी णं पुच्छा। गोयमा ! भवसिद्वीया वि, अभवसिद्धीया वि । एवं अण्णाणियवादी वि वेणइयवादी वि। (श. ३०/४१) १७. सलेस्सा ण भंते ! किरियावादी अणंतरोववन्नगा नेरइया कि भवसिद्धीया ? अभवसिद्धीया? १८. गोयमा ! भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया । १०. सलेशी प्रभु ! नारकी, धुर समय क्रियावादी जेह हो। स्यं नारकी नों आउखो बांध ? प्रश्न पूछेह हो ।। ११. जिन कहै च्यारूं गति तणों, आऊखो न बंधाय हो । एवं जाव वेमाणिया, धुर समय आयु बंधै नाय हो ।। १२. एवं सर्व स्थानक विषे, नारक धुर समयोत्पन्न हो। ___ कोइ पिण आयु बांधै नथी, इम जाव अनाकार जन्न हो।। १३. एवं जाव वेमानिया, णवरं इतरो विशेख हो। जेह बोल छै जेहनें, ते तसु कहिवो संपेख हो । १४. क्रियावादी नारकी, प्रथम समय उत्पन्न हो। स्यं भवसिद्धिका तेह छै? के अभवसिद्धिया जन्न हो? १५. जिन कहै ते भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया नाय हो। समष्टि तिण कारण, एक भव्यहिज थाय हो ।। १६. अक्रियावादी नों पृच्छा ?जिन कहै बिहं पिण होय हो। एम अज्ञानवादी अपि, विनयवादी पिण जोय हो ।। १७. सलेशी प्रभु ! नारकी, क्रियावादी जान हो। प्रथम समय ना ऊपनां, भव्य अभव्य पहिछान हो । १८. जिन भाखै भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया नाय हो। ___ए चौथे गुणस्थानके, तिणसूं अभव्य न थाय हो । १९. इम इण आलावे करी, प्रथम उदेशा माय हो। कही नारकि नी वारता, इहां पिण तिमज कहिवाय हो। २०. जाव अनाकारवउत्त ही, इम जाव वेमानिक तोल हो । णवरं जेहन जेह छै, ते तसु कहिवा बोल हो । २१. ए लक्षण भव्य अभव्य नों, क्रियावादी जेह हो । शुक्लपक्षि मिश्रदृष्टि ते, ए सहु भव्य अभव्य न एह हो ।। २२. शेष सर्व भव्य पिण अछ, अभव्य पिण अवधार हो। सेवं भंते ! स्वाम जी, तुझ वच तिमज उदार हो । सोरठा २३. वृत्ति विष इम वाय, अलेशी नै समदृष्टि । ___ ज्ञानी अवेदी ताय, अकषाई अयोग फुन । २४. ए सहु ने सुविचार, भव्यपणोंज प्रसिद्ध छ । ते माट अवधार, सूत्र विषे आख्यो नथी। त्रिंशत्तमशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥३०॥२॥ परम्परोत्पन्न २४ दंडकों में क्रियावादिता आदि २५. परंपरोत्पन्न नारकी, स्यं क्रियावादी होय हो? इम जिम प्रथम उद्देशके, आख्यो ते अवलोय हो। २६. तिमज परंपरोत्पन्नके, कहिवो विधि सूं जेम हो। नारकि आदि देई करी, कहिवो समस्तज तेम हो। २७. तिमहिज दंडक तीन जे, नारकादि पद मांय हो। क्रियावादी आदि नीं, परूपणा धुर आय हो । १९. एवं एएण अभिलावेणं जहेव ओहिए उद्देसए नेरइयाण वत्तब्वया भणिया तहेव इह वि भाणियब्वा २०. जाब अणागारोवउत्तत्ति । एवं जाब वेमाणियाणं, नवरंजं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं । २१. इमं से लक्षणं-जे किरियावादी सुक्कपक्खिया ___ सम्मामिच्छदिट्ठीया ए[ सव्वे भवसिडीया, नो अभवसिद्धीया। २२. सेसा सब्बे भवसिद्धीया वि, अभवसिद्धीया वि। (श. ३०/४२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श. ३०/४३) २३,२४. अलेश्यसम्यग्दृष्टिज्ञान्यवेदाकषायायोगिनां भव्यत्वं प्रसिद्धमेवेति नोक्तमिति। (व.प. ९४८) २५. परंपरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया किरियावादी ? __ एवं जहेव ओहिओ उद्देसओ २६. तहेव परंपरोववन्नएसु वि नेरयादीओ तहेव निरवसेसं भाणियव्वं, २७. तहेब तियदंडगसंगहिओ। (श. ३०/४४) "तियदंडगसंगहिओ' त्ति, इह दण्डकत्रयं नैरयिकादिपदेषुक्रियावाद्यादिप्ररूपणादण्डकः १ (व. प. ९४८) ३२४ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. आयुबंन्धदण्डको २ भव्याभव्यदण्डक ३ श्चेत्येवमिति (व. प. ९४८) २९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। (श. ३०/४५) ३०. एवं एएणं कमेणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी ३१. सच्चेव इहं पि जाव अचरिमो उद्देसो, नवरं २८. आयु बंधक छै तिको, दूजो दंडक कहेह हो। भवसिद्धिक अभवसिद्धिका, दंडक तृतीय सुलेह हो । २९. ए तीनूं दंडक करी, संग्रहीत कहिवाय हो। सेवं भंते ! इम कही, यावत विचरै ताय हो । ३०. इम इण अनुक्रमे करी, बंधी शतक विषेह हो। जेहिज उद्देशक तणी, परिपाटी कही तेह हो । ३१. तेहिज इहां पिण आखवी, जाव अचरम उद्देश हो। तिहां लगे कहिवो सही, णवरं इतरो विशेष हो ।। ३२. च्यारूं ही अनंतर तणां, गमा एक सरीष हो। चिहुं गमा परंपर तणां, एक सरीषा ईश हो ।। वा०-अणंतरोववनगा १, अनंतरोवगाढा २, अनंतरआहारगा ३, अनंतर पर्याप्तका ४-ए च्यारूं ही अनंतर उद्देशा एक सरीखा। परंपरोववन्नगा १, परंपरोवगाढा २, परंपर आहारगा ३, परंपरपर्याप्तका ४-ए च्यारूं ही परंपर उद्देशा एक सरीखा, एवं ८ । अनैं एक प्रथम उद्देशो समुच्चय, एवं ९ । अने चरमअचरम बे उद्देशा कहै छ-- ३३. एम चरम पिण जाणवू, अचरम पिण इमहीज हो। णवरं अचरम नै विषे, एह विशेष कहीज हो ।। ३४. अलेशी नें केवली, अजोगी पिण जाण हो। ए तीनूं भणवा नथी, असंभव थी पहिछाण हो ।। ३२. अणंतरा चत्तारि वि एक्कगमगा, परंपरा चत्तारि वि एक्कगमएणं । ३३. एवं चरिमा वि, अचरिमा वि एवं चेब, नवरं ३४. अलेस्सो केवली अजोगी न भण्णं ति, 'अलेस्सो केवली अजोगी य न भण्णति' त्ति, अचरमाणामलेश्यत्वादीनामसम्भवादिति । (वृ. प.९४८) ३५. सेसं तहेव। (श. ३०/४६) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । एए एक्कारस वि उद्देसगा। (श. ३०/४७) ३५. शेष तिमज कहिवो सह, सेवं भंते ! स्वाम हो। ए इग्यारै उद्देशका, समवसरण शत नाम हो । ३६. तीसम शत ए अर्थ थी, उगणीसे चउवीस हो। गुणिजन । ___दीपमालिका वर दिने, सुजाणगढ सुजगीस हो ।गुणिजन। ३७. ढाल च्यार सय ऊपरे, गुणयासिमी न्हाल हो। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल हो । गीतक छंद १.जे वच सुमेरू मथन करिक, शास्त्र रूप समुद्र थी। वर सार भाव सुअर्थ रत्नज, उच्छल्या जे तेहथी। २. मुझ दृष्टि पिण ते रत्न आया, सुगुरु-पद सेवा करी । जय-जय हुओ ते गुरू तणीं, जिह मेटिया मिथ्या अरी।। त्रिशत्तमशते तृतीयादारभ्य एकादशोद्देशकार्थः ॥३०॥३-११॥ १,२. यद्वाङ्महामन्दरमन्थनेन, शास्त्रार्णवादुच्छलितान्यतुच्छम् । भावार्थरत्नानि ममापि दृष्टी, यातानि ते वृत्तिकृतो जयन्ति ॥ (व. प. ९४८) श० ३०, उ०३-११, ढा० ४७९ ३२५ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तम शतक Jain Education Intemational Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तम शतक ढाल : ४८० १,२ त्रिंशत्तमशते चत्वारि समवसरणान्युक्तानीति चतुष्टयसाधाच्चतुर्युग्मवक्तव्यतानुगतमष्टाविंशत्युद्देशकयुक्तमेकत्रिशं शतं व्याख्यायते, (व. प. ९४८) १. शतक तीसमा में कह्या, समवसरण ए च्यार । चिहं संख्या साधर्म्य थी, हिव चिहुं युग्म उदार ।। २. एकतीसमा शतक में, अष्टवीस उद्देश । आदि अर्थ कहिये हिवं, गोयम प्रश्न अशेष ।। क्षुल्लक युग्म के प्रकार ३. नगर राजगृह नै विषे, जाव वदै इम वाय । हे प्रभुजी ! कह्या केतला, क्षुल्लक युग्म जग माय? ४. क्षुल्लक युग्म ते राशि नां, विशेष कहिस्यै एह । महायुग्म पिण तेह छै, तिणसूं क्षुल्लक कहेह ।। ३. रायगिहे जाव एवं वयासी-कति णं भंते ! खडा जुम्मा पण्णत्ता ? ४. खुड्डा जुम्म' त्ति युग्मानि-वक्ष्यमाणा राशिविशेषास्ते च महान्तोऽपि सन्त्यतः क्षुल्लकशब्देन विशेषिताः, (वृ. प. ९५०) ५. गोयमा ! चत्तारि खुड्डा जुम्मा पण्णत्ता, तं जहा कडजुम्मे, ६. तेयोए, दावरजुम्मे, कलियोगे। (श. ३१/१) ७. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ–चत्तारि खुड्डा जुम्मा पण्णत्ता, तं जहा--कडजुम्मे जाव कलियोगे? ८. गोयमा ! जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए सेत्तं खुड्डागकडजुम्मे । ५. जिन भाखै सुण गोयमा ! क्षुल्लक युग्म जे च्यार । परूपिया कहियै तिके, धुर कृतयुग्म प्रकार ।। ६. तेओगे ते व्योज है, द्वापरयुग्म कहाय । कलियोगे कल्योज ए, युग्म च्यार इम थाय ।। ७. किण अर्थे प्रभु! एहवं, कहिये वचन सुसोझ। क्षुल्लक युग्म चिहुं भाखिया, कडजुम्म जाव कल्योज ।। ८.*जिन कहै जेह राशि प्रते, चिहं अपहारज करिक लेह । सुण गोयमा रे। अपहरतां रहै छेहडै च्यार, तेह क्षुल्लक कृतयुग्म प्रकार। सुण गोयमा रे॥ सोरठा ९. धूर जे च्यार विमास, अठ द्वादश इत्यादि जे। संख्यावानज राश, कहियै खुडाग कडजुम्मे ।। १०.*वलि जे राशि प्रतै पहिछाण, चिहुं अपहार करिने जाण । अपहरतां रहै छेहड़े तीन, तेह क्षल्लक तेयोग कथीन । ९. तत्र चत्वारोऽष्टो द्वादशेत्यादिसंख्यावान् राशि: क्षुल्लकः कृतयुग्मोऽभिधीयते, (व. प. ९५०) १०.जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए सेत्तं खुड्डागतेयोगे। सोरठा ११. धुर जे तीन विमास, सप्त ग्यारै इत्यादि जे। ___ संख्यावानज राश, कहियै क्षुल्लक तेयोग जे॥ *लय : खिण गई रे मेरी खिण गई ११. एवं त्रिसप्तकादशादिको क्षुल्लकत्र्योजः, (व. प. ९५०) श० ३१, उ०१, ढा० ४८० ३२९ Jain Education Intemational Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. *वली जे राशि प्रतं सुविचार, बिहुँ अपहार करी अवधार अपहरतां रहै छेहड़े दोय, तेह क्षुल्लक द्वापरयुग्म होय ॥ सोरठा पट अरु दश इत्यादि जे । बुढाग द्वापरयुग्म जे ॥ १३. घुर जे दोय विमास संख्यावानज राश, १४. *बलि जे राशि प्रते अवलोय, हिं अपहार करीने सोय । अपहरतां रहै छेहड़े एक, तेह क्षुल्लक कलिओग संपेख ॥ सोरठा 1 १५. धुर जे एक विमास, पंच अने नव प्रमुख जे संख्यावानज राश, कहिये क्षुल्लक कल्पोज ते ।। १६. * ते तिण अर्थ करीनें जान, हे गोतम ! कहिये इम वान । जाय क्षुल्लक कलिओोग उदंत, क्षुल्लक युग्म नैरयिकों का उपपात १७. क्षुल्लक कउजुम्म नारकि भगवान ! किहां थकी उपजे छे आन ? के तिरिख मनुष्य सुर थी उपजंत ? १८. जिन कहै नारकि थी नहि बात, स्यूं नारकि थी ऊपजवूं हंत ? इम जे नारकि नीं उपपात । आयो तेम इहां कहिवाय || सोरठा पंचेंद्रिय तियंच थी। नारकि विषेज ऊपजं ॥ जिम पन्नवण पद छठा मांय, १९. अर्थ थकी इम जाण, सन्नी मनुष्य थी आण, यति गोतम पूछे घर बंत ॥ वा० - विशेष थकी असन्नी पहिली नरक ने विषे ऊपज इत्यादिक आगल कहिये । २०. विशेष थी इम होय, धुर नरके असन्नी गमन । इत्यादिक अवलोय, गाथा करिकै जाणवूं ॥ २१. * एक समय में ते प्रभु ! जीव, केतला आवी ऊपजे अतीब ? जिन कहै च्यार आठ वा बार, *लय : खिण गई रे मेरी जिण गई ३३० भगवती जोड़ सोले संख असंख विचार ॥ १२. जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए सेत्तं खुड्डागदावरजुम्मे । १३. द्विषट्प्रभृतिक: क्षुल्लकद्वापरः, ( वृ. प. ९५० ) १४. जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेण अवहीरमाणे एगए तालियो १५. एकपञ्चकप्रभूतिस्तु क्षुल्लककल्पोज इति । १६. से तेणट्ठेणं जाव कलियोगे । (बृ. प. ९५० ) (श. ३१/२) १७. डम्मरयाणं भंते! कभी जयवज्जति - कि नेरइएहितो उववज्जंति ? तिरिक्खजोगिए हितोपुच्छा १५. गोपमा ! नो नेरइए हितो उबलब्जति । एवं नेरइयाणं उबवाओ जहावक्कंतीए (प० ६०७०-८० ) तहा भाणियव्वो । (म. २१/२) 'जहा वक्कंती' त्ति प्रज्ञापनाषष्ठपदे, (वृ. प. ९५० ) १९. अवेन्द्रियतियो गर्भजमनुष्येभ्याच नारका उत्पद्यन्त इति, (यू.प. ९५०) २०. विशेषस्तु 'असन्नी चतु पहम मित्यादिगायाभ्यामवसेयः, ( बु. प. ९५० ) २१. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जंति ? गोयमा ! चत्तारि वा अट्ठ वा बारस वा सोलस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उंववज्जति । (श. ३१/४) Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. ते णं भंते ! जीवा कहं उववज्जति ? ... गोयमा ! से जहानामए पवए पवमाणे २३. अज्झवसाणनिव्वत्तिएणं करणोवाएणं, एवं जहा पंचविसतिमे सए (सू. २५२६२०) अट्ठमुद्देसए २४. नेरइयाणं वत्तव्वया तहेव इह वि भाणियव्वा जाव आयप्पओगेणं उववज्जति नो परप्पयोगेणं उववज्जति । (श. ३१/५) २५. रयणप्पभापुढविखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? २६. एवं जहा ओहियनेरइयाणं वत्तव्वया सच्चेब रयणप्पभाए वि भाणियव्वा २२. ते प्रभु ! जीवा किस प्रकार, उपजे नारकि में अवधार? जिन कहै यथादृष्टांत जेह, कूदणहारो कूदतो तेह ।। २३. अध्यवसाय नित्तित जाण, करण उपाये करि पहिछाण । इम जिम पणवीसम शत मांय, अष्टमुद्देश विषे कहिवाय ।। २४. नारकि वक्तव्यता तिहां ख्यात, तिमज इहां पिण कहिवी बात । जाव आत्म-प्रयोग करेह, पिण पर-प्रयोगे नहिं उपजेह ।। २५. रत्नप्रभा पृथ्वी भगवान ! क्षुल्लक कडजुम्म नारकि पहिछान । किहां थकी उपजै छ आय? जिन भाख सांभल चित ल्याय ।। २६. इम जिम ओधिक नारकि तेह, वक्तव्यता तसु कही पूर्वेह । तेहिज वक्तव्यता अवदात, रत्नप्रभा विषे कहिवी बात ।। २७. यावत पर ने प्रयोग करेह, उपजै नांहि इहां लग लेह । सक्कर विष पिण कहिवू एम, इम जाव सप्तमी विषेज तेम ।। २८. इम उपपातज पन्नवणा मांय, जिम छठे पद तिम कहिवाय । असन्नी निश्चै पहिली जाय, भुजपर बीजी लग कहिवाय ।। २९. तिमहिज पंखी तीजी माहि, . "इत्यादिक गाथा करि ताहि । इहविधि उपजाविवं अशेख, - शेष तिमज कहि संपेख ।। ३०. क्षुल्लक तेयोग नारकि भगवान ! __किहां थको उपजै छै आन? स्यूं नारकि थी उपज ताम? इत्यादिक पूछयां कहै स्वाम ।। ३१. उपजवू जिम पन्नवण मांहि, छठा पद में भाख्यो ताहि । तेम इहां पिण कहिवू ताम, वलि पूछ गोयम शिर नाम ।। ३२. ते प्रभ! एक समय रै माय, जीव केतला उपजे आय? जिन कहै त्रिण वा सप्त इग्यार, पनरै संख असंख विचार॥ २७. जाब नो परप्पयोगेणं उववज्जति । एवं सक्करप्पभाए वि एवं जाव अहेसत्तमाए। २८. एवं उववाओ जहा वक्कंतीए। (प. ६/८०) अस्सण्णी खलु पढम, दोच्चं व सरीसवा २९. तइय पक्खी गाहा एवं उववाएयव्वा । (सं. पा.) सेसं तहेव। (श. ३१/६) ३०.खडागतेयोगनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति कि नेरइएहिंतो? ३१. उववाओ जहा वक्कंतीए (प० ६७०-८०) (श. ३१/७) ३२. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जति ? गोयमा ! तिणि वा सत्त वा एक्कारस वा पण्णरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जति । श. ३१,उ.१ .४८० ३३१ Jain Education Intemational Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. सेसं जहा कडजुम्मस्स । एवं जाव महेसत्तमाए । (श. ३१/-) ३४. खुड्डागदावरजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उबवज्जति ? एवं जहेव खुड्डागकडजुम्मे, ३५. नवरं-परिमाणं दो वा छ वा दस वा चोद्दस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा, ३६. सेसं तं चेव जाव अहेसत्तमाए। (श. ३१/९) खड्डागकलिओगनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? ३३. शेष कह्यो कडजुम्म ने जेम, तिमज इहां करिवो धर पेम । इम यावत कहिवो अवधार, अधोसप्तमी लगै विचार ।। ३४. क्षुल्लक द्वापरजुम्म नारकि भंत ! किहां थकी आवी उपजत ? इम जिमहीज क्षुल्लक कडजुम्म, तेह विष का तिम अवगम्म ।। ३५. णवरं तसु परिमाणज एह, बे अथवा षट वा दश लेह । अथवा चउदश संख असंख, ____एक समय उपजै दुख अंक ॥ ३६. शेष तिमज कहिवोज समग्ग, एवं जाव तमतमा लग्ग । क्षुल्लक कल्योज नारकि भगवंत ! किहां थकी आवी उपजत ।। ३७. इम जिमहीज क्षुल्लक कडजुम्म, णवरं परिमाणे इम गम्म । एक पंच नव अथवा तेर, संख असंख ऊपजै हेर ।। ३८. शेष तिमज कहि सुविचार, इम यावत तल सप्तमी धार । सेवं भंते ! जाव विचरेह, " इकतीस मधुर उद्देश एह ।। ३९. ढाल च्यार सौ ऊपर जाण, प्रवर असीमी एह पिछाण । स्वामी शोभता रे।] भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसाद, 'जय-जश' संपति नित अह्लाद ।। [स्वामी शोभता रे ।।] एकत्रिशत्तमशते प्रथमोद्देशकार्थः॥३१॥१॥ ३७. एवं जहेव खुड्डागकडजुम्मे, नवरं-परिमाणं एक्को वा पंच वा नव वा तेरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति, ३८. सेसं तं चेव । एवं जाव अहेसत्तमाए। (श. ३१/१०) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। (श. ३१/११) ढाल : ४८१ १. द्वितीयस्तु कृष्णलेश्याश्रयः, (वृ. प. ९५०) १.द्वितीय उद्देश विषे हिव, लेश्या कृष्ण संबंध । कहिवो तेहिज आश्रयी, खुडागयुग्म प्रबंध ।। २. तिका कृष्ण लेश्या हुवै, नरक पंचमी माय । छठी में फुन सातमी, पृथ्वी विषेज पाय ।। ३. एम करीने तेहनों, सामान्य दंडक जोय । धमप्रभादिक दंडक त्रिण, एह विषे है सोय ।। २,३. सा च पञ्चमीषष्ठीसप्तमीष्वेव पृथिवीषु भव तीति कृत्वा सामान्यदण्डकस्तद्दण्डकत्रयं चात्र भवतीति (व. प. ९५०) ३३२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुल्लक युग्म कृष्णलेश्वी नेरयिकों का उपपात , * क्षुल्लक युग्म अर्थ सांभलो ।। (धुपदं ) ४. हे प्रभुजी ! कृष्ण ने ही बुल्लक युग्म छे जेहो जी नारकि किहां की ऊपजे ? हिव जिन उत्तर देहों जी ॥ ५. इम जिम अधिक गम विषे आयो तिम कहिवायो जी। ऊपजवूं नहि थायो जी ॥ जैम पत्रवणा माह्यो जी। तेम इहां कहिवायो जी ॥ किहां थकी उपजतो जी ? शेष तिमज वृतंतो जी ॥ यावत पर प्रयोगे करी, ६. वरं तसु उपपात जे व्युत्क्रांतिक छठे पदे, ७. धूमप्रभा मही नारकी, इत्यादि पत्रवण जिम इहां, वा० 'धूमपहपुढवीयामिति इहां कृष्णलेश्या प्रांत बली विका कृष्णलेश्या धूमप्रभा ने विषे हुवै इति ते धूमप्रभा ने विषे जे जीव ऊपजं तेहनोंईज उत्पाद कहियो । वली ते असन्नी १, सरीसृप २, पक्षी ३, सिंह ४ दर्जी ने एतले असन्नी तिथंच पहिली नारकि में ऊपजै १ सरिसृप ते भुजपर दूजी में ऊपजै । पक्षी तीजी में ऊपजे ३ । सिंह चउथी में ऊपजै, ४ पिण आगल न ऊपजै । 1 ते मार्ट असन्नी प्रमुख नों उत्पाद वर्ज्यो शेष तिमज । कृष्णलेशी हो जी प्रभु ९. इमहि ते कहिवो सहु, एम अधोसप्तमी विषे १०. णवरं तसु उपपात जे किहां थकी उपजे हो जी ? तमा विषे पिण एमो जी । पूर्व भाथ्यो तेमो जी ॥ सर्व विषे पहिछाणी जी । जिम पत्रवण छठे पदे, दाख्यो तिमहिज जाणी जी ।। ११. हे प्रभुजी | कृष्ण लेश ही, क्षुल्लक तेयोग छ तेही जी। नारकी किहां थकी ऊपजै ? एवं चेव कहेहो जी ॥ १२. नवरं त्रिण सप्त ग्यार हो, पनर संखेज असंखो जी । शेष तिमज कहिवो सहु, ! इम जाव सप्तमी पिण अंको जी ॥ १३. हे प्रभुजी ! कृष्णनेश ही, ८. धूमप्रभा पृथ्वी तणां खुडाग कडजुम्म नारकी, ! क्षुल्लक दावरजुम्म जेहो जी । नारकि किहां थकी ऊपजै ? एवं चेव कहेहो जी ॥ १४. वरंबे षट दश तथा चवदं शेष तिमहीजो जी | इम धूमप्रभा विषे अपि, जाव अधोसप्तमी पिण लीजो जी ॥ १५. हे प्रभुजी ! कृष्णलेस ही, क्षुल्लक कल्योग छे हो जी। नारकि कहां थी ऊपजे ? एवं चैव कहेहो जी ॥ १६ वरं एक पंच नव तथा तेरै संख असंयो जी। शेष तिमज कहिवो सहु, इम धूमप्रभा पिण अंको जी ॥ *लय खुसालांजी मन चितवं ४. कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? ५. एवं चैव जहा ओहियगमो जाय तो परप्ययोदेणं उववज्जंति, ( प. ६/७७) ६. नवरं जहा यक्कतीए - ७. धूमप्यभावुरिया से चैव 7 (. ३१/१२) वा. - ' उववाओ जहा वक्कंतीए धूमप्पभापुढविनेरइयाणं' ति इह कृष्णलेश्या प्रक्रांता सा च धूमप्रभायां भवतीति तत्र ये जीवा उत्पद्यन्ते तेषामेबोत्पादों वाच्यः, ते चासञ्ज्ञिसरीसृपपक्षिसिंहवज इति । ( वृ. प. ९५० ) ८. धूमाभापुविकाकडम्मरइया न भंते ! कओ उववज्जंति ? ९ एवं निरवसे एवं तमाए वि, महेनतमाए वि, १०. नवरं – उववाओ सव्वत्थ जहा वक्कंतीए ( प. ६/७७50 ) 1 (स. ३१।१३) ११.मराठे को उववज्जंति ? एवं चेव, १२. नवरं - तिष्णि वा सत्त वा एक्कारस वा पन्नरस वा संखेज्जा वा असखेज्जा वा, सेसं तं चैव । एवं जाव असत्तमा वि। (श. ३१।१४ ) १३. कण्हलेस खुड्डु गदावरजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति ? एवं चेव, १४. नवरं दो वा छ वा दस वा चोट्स वा, सेसं तं चेव । एवं धूमप्पभाए वि जाव असत्तमाए । (. २१/१५) १५. कण्हलेस्सखुड्डाग कलियोगनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं चेव, १६. नवरं – एक्को वा पंच वा नव वा तेरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा, सेसं तं चेव । एवं धूम्मप्पभाए वि, श० ३१, उ० २, ढा० ४८१ ३३३ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. तमा विषे पिण इमज ही, इमज सप्तमी विषेहो जी। सेव भंते ! इकतीसमें, द्वितीय उद्देशके एहो जी ।। एकत्रिशत्तमशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥३१॥२॥ १७. तमाए वि, अहेसत्तमाए वि। सेवं भंते ! सेवं भत्ते ! त्ति । (श. ३१११६) (श. ३१११७) १८. तृतीयस्तु नीललेश्याश्रयः, (वृ.प. ९५०) १९,२०. सा च तृतीयाचतुर्थीपञ्चमीष्वेव पृथिवीषु भवतीतिकृत्वा सामान्यदण्डकस्तद्दण्डकत्रयं चात्र भवतीति 'उबवाओ जो वालुयप्पभाए' त्ति, (वृ. प. ९५०) २१. नीललेम्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति? २२. एवं जहेव कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मा, नवरं दूहा १८. तृतीय उद्देश विषे हुवै, लेश्या नील संबंध । कहिवो तेहिज आश्रयी, खुडाग युग्म प्रबंध ।। १९. तिका नील लेश्या हुवे, वालुकप्रभाज माय । चउथी नै वलि पांचमी, पृथ्वी विषेज पाय ।। २०. एम करीने तेहनों, सामान्य दंडक जोय । त्रिण दंडक वालुक प्रमुख, एह विषे है सोय ।। क्षल्लक युग्म नीललेश्यो नैरयिकों का उपपात २१. *हे प्रभुजी ! नीललेश ही, क्षुल्लक कडजुम्म छै जेहो जी। नारकी किहां थकी उपजै ? हिव जिन उत्तर देहो जी। २२. इम जिमहिज कृष्णलेश जे, क्षुल्लक कडजुम्मज आख्यो जी। तिम कहिवू णवरं इहां, विशेष इतरो दाख्यो जी ।। २३. इहां नील लेश्या अधिकार में, तिका वालुप्रभा विषे होयो जी। जीव तिहां जे ऊपज, उपपात तेहिज जोयो जी ॥ २४. असन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय, वली सरीसप पहिछाणी जी। ए बिहं वर्जी ऊपजै, शेष तिमहिज सुजाणी जी ।। वा. ----असन्त्री पहिली जाय अन सरीसृप दूजी जाय । ते माट वालुकप्रभा नै विषे असन्नी सरीसृप वर्जी अनेरा ऊपज । एहवू पन्नवणा छठे पदे (सू. ८०) को , ते समुच्चय नीललेगी नारकि नै विषे ऊपजवू का । २५. वालुकप्रभा मही तीसरी, नीललेशी क्षल्लक कडजुम्मो जी। नारकि ने विषे ऊपजै, इत्यादिक अवगम्मो जी। २६. पंकप्रभा नै विषे अपि, कहिवो ते इमहीजो जी। धूमप्रभा में विषे अपि, इणहिज रीत कहीजो जी ।। वा०-जे पूर्व उपपात पन्नवणा ६१७५-७७ नै भलायो तेहिज इहां पंकप्रभा नै विषे अपि । धूमप्रभा नै विषे ऊपजवो पन्नवणा छठा पद नै विषे कह्यो तिम कहिवो। ते पन्नवणा नै विषे इम का छ- वालुकप्रभा नीं पूछा -- जिम सक्करप्रभा नां नारवी कह्या तिम कहिका । णवरं भुजपर ऊपजवा रो निषेध करिवो। पंकप्रभा पृथ्वी नां नारकी नीं पूछा... जिम वालुकप्रभा पृथ्वी ना नेरइया कह्या तिमज ए पिण कहिवा। णवरं खेचर ऊपजवा रो निषेध करिवो। २३. उववाओ जो वालुयप्पभाए, इह नीललेश्या प्रक्रान्ता सा च वालुकाप्रभायां भवतीति तत्र ये जीवा उत्पद्यन्ते तेषामेवोत्पादो वाच्यः, (व. प. ९५०) २४. सेस तं चेव । ते चासज्ञिसरीसृपवर्जा इति । (च. प. ९५०) २५. वालुयप्पभापुढविनीललेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया एवं चेव । २६. एवं पंकप्पभाए वि. एवं धूमप्पभाए वि । *लय :खुसालांजी मन चितवै ३३४ भगवती जोड़ Jain Education Interational Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. एवं चउसु वि जुम्मेसु, नवरंपरिमाणं जाणियव्वं । धूमप्रभा पृथ्वी नां नारकी नीं पूछा-जिम पंकप्रभा पृथ्वी नां नेरइया कह्या तिमज ए पिण कहिवा। णवरं च उपद थकी ऊपजवा रो निषेध करिवो। २७. इम चिहं पिण जुम्म ने विषे, णवर इतरो विशेखो जी। परिमाण तेहनं जाणवं, कहिये तसं करि लेखो जी ।। २८. जिम कृष्णलेश उद्देशके, भाख्यो छै परिमाणो जी। तिमहिज कहिवो छै सह, शेष तिमज पहिछाणो जी। २९. सेवं भंते ! स्वामजी, शत इकतीसम मांह्यो जी। तृतीय उद्देशक नै विषे, वारू अर्थ बतायो जी ।। ___ एकत्रिशत्तमशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥३१॥३॥ २८. परिमाणं जहा कण्हलेस्सउद्देसए । सेसं तहेव । (श. ३१३१८) २९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३२१९) दूहा ३०,३१. चतुर्थस्तु कापोतलेश्याश्रयः, सा च प्रथमा द्वितीयातृतीयास्वेव पृथिवीष्वितिकृत्वा सामान्यदण्डको रत्नप्रभादिदण्डकत्रयं चात्र भवतीति। (बृ. प. ९५०) ३२. काउलेस्सखड्डागकड जुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? ३३. एवं जहेव कण्हलेस्सखड्डागकडजुम्मनेरइया, ३४. नवरं-- उववाओ जो रयणप्पभाए, सेसं तं चेव । (श ३१।२०) ३५. रयणप्पभापुढविका उलेस्सखड्डागकडजुम्मनेरइया णं ___ भंते ! कओ उववज्जति ? ३०. तुर्य उद्देश विषे बली, कापोत आश्रयी जाण । तिका रत्न सक्कर विषे, वालुक विषेज आण ।। ३१. एम करीने तेहनों, सामान्य दंडक जोय । रत्नप्रभादिक दंडक त्रिण, एह विषे है सोय ॥ क्षल्लक युग्म कापोतलेश्यी नैरयिकों का उपपात ३२. *कापोतलेशी नारकी, क्षल्लक कडजूम्म भदंतो जी ! किहां थकी आवी ऊपज ? इत्यादि प्रश्न पूछतो जी ।। ३३. इम जिम कृष्णलेशी तिको, खुडाग कडजुम्म जेहो जी। तेह विषे जे आखियो, तिमहिज इहां कहेहो जी।। ३४. णवरं तसु उपपात जे, रत्नप्रभा नै विषेहो जी। आख्यू तिम कहिवू इहां, शेष तिमहीज कहेहो जी ।। ३५. रत्नप्रभा पृथ्वी तणां, कापोतलेशी तेहो जी। खुडाग कडजुम्म नारकी, प्रभु ! किहां थकी उपजेहो जी ? ३६. एवं चेव कहीजिय, इम सक्कर विष जाणी जी। वालुक विषे पिण इमज ही, कहि सर्व पिछाणी जी।। ३७. इम चिहुं पिण जुम्म मैं विषे, णवरं इतरो विशेखो जी। परिमाण तेहन जाणवं, कहिये तेह संपेखो जी ।। ३८. जिम कृष्णलेश उद्देशके, आख्यो छै परिमाणो जी। तिमहिज कहिवो छै सहु, शेष तिमज पहिछाणो जी ।। ३९. सेवं भंते ! स्वामजी, शत इकतीसम चारू जी। तुर्य उद्देशक अर्थ ए, आख्या अधिक उदारू जी ।। एकत्रिंशत्तमशते चतुर्थोद्देशकार्थः ॥३१॥४॥ क्षल्लक युग्म भवसिद्धिक आदि नैरयिकों का उपपात ४०. भवसिद्धिक प्रभु ! नारकी, कडजुम्म छै जेहो जी। किहां थकी आवी ऊपजै ? । स्यूं नारकी थी उपजेहो जी ।। ३६. एवं चेव । एवं सक्करप्पभाए वि, एवं वालुयप्पभाए वि। ३७. एवं चउसु वि जुम्मेसु, नवरं-परिमाणं जाणियब्वं ३८. जहा कण्हलेस्सउद्देसए, मेसं तं चेव। (श. ३१:२१) ३९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ३१.२२) ४७. भवसिद्धीयखड्डागकड जुम्मनेरइया णं भते ! कओ उववज्जति - किं नेरइएहितो? *लय : खसालांजी मन चितवै श० ३१, उ० ३,४, ढा० ४८१ ३३५ Jain Education Intemational al Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. इम जिमहिज ओधिक कह्यो, तिमहिज सह कहिवायो जी । यावत पर प्रयोगे करी, ऊपजवूं नहिं थायो जी ॥ भवसिद्धिक छे ते हो जी । ४२. रत्नप्रभा पृथ्वी तणां क्षुल्लक कडजुम्म नारकी, प्रभु ! किहां थकी उपजेहो जी ? ४३. इमहिज कहिवो ते सहु, इम जाव सप्तमी जाणी जी । नीच सातमी पृथ्वी लगे, कहिवो ते पहिछाणी जी || ४४. इम भवसिद्धिक नारकी, क्षुल्लक त्र्योज पिण लेहो जी । यावत कलिओ ही, णवरं विशेषज एहो जी ॥ ४५. परिमाण तेहनं जाणवूं, जिम प्रथम उद्देश विषेहो जी । परिमाण पूर्वे आखियो, तिणहिज रीत कहे हो जी ॥ ४६. सेवं भंते ! स्वामजी, शत इकतीसम सारो जी । पंचमुदेशक अर्थ ए, आख्यो अधिक उदारो जी ॥ एकत्रिशत्तमशते पंचमोद्देशकार्थः ॥ ३१॥५॥ ४७. कृष्णलेशी भवसिद्धियो, क्षुल्लक कड़जुम्म छै जेहो जी । नारकि हे भगवंत जी ! किहां थकी उपजेहो जी ? ४८. इम मिहि ओधिक जे, कृष्णलेश उद्देशो जी । तम हो सहू, चिहुं जुम्म विषे अशेषो जी ।। ४९. जाव अधोसप्तमी मही, कृष्णलेशी छँ तेहो जी । खुडाग कलिओग नारकी प्रभु ! किहां थकी उपजे हो जी ? ५०. तिमहिज कहिवो ते सहु, सेवं भंते ! सेवं भंतो ! जी । शत इकतीसम अर्थ थी, षष्ठमुद्देसक तंतो जी || एकत्रिंशत्तमशते षष्ठो देशकार्थः ||३१|६|| ५१. नीललेशी भवसिद्धिको, च्यारू ही युग्म विषेहो जी । तिमहिज कहियो छे इहां, वारू विधि सूं जेहो जी ॥ ५२. जिम अधिक नीललेशी तणां, उद्देशक विषे आमो जी । आख्यो तिम कहिवो सहु, सेवं भंते ! स्वामो जी ॥ ५३. यावत विचरै गुणनिधि, शत इकतीसम सोयो जी । सप्तमुद्देशक नों भलो अर्थ अनोपम जोयो जी ॥ एकत्रिशत्तमशते सप्तमोद्देश कार्थः ||३१|७|| ५४. काउलेशी भवसिद्धियो, चिहुं युग्म विषे कहायो जी । तिणहिज विधि उपजायवो, वारू बुद्धि करि न्यायो जी ॥ ५५. जिम हिज ओघिक आखियो, कापोतलेश उद्देशे जी । उपजायो तिण रीत सूं, वारू विध सुविशेषे जी ।। ५६. सेवं भंते ! स्वामजी, जाव गोयम विचरंतो जी । अर्थ इकतीसम शतक नों, अष्टमुद्देशक तंतो जी ॥ एकत्रिशत्तमश अष्टमोद्देशकार्थः ॥ ३१८ || ३३६ भगवती जोड़ ४१. एवं जहेव ओहिओ गमओ तहेव निरवसेसं जाव नो परप्पयोगेणं उववज्जंति । (श. ३१/२३) ४२. रयणप्पभपुढ विभवसिद्धीयखुड्डा गकडजुम्मनेरइया णं भंते ! ? ४३. एवं चैव निरवसेसं । एवं जाव अहेसत्तमाए । ४४. एवं भवसिद्धीयखुड्डागतेयोगनेरइया वि । एवं जाव कलियोगत्ति, नवरं ४५. परिमाणं जाणियव्वं परिमाणं पुव्वभणियं जहा पढमुद्देसए । (श.. ३११२४) ४६. सेव भते ! सेवं भंते! त्ति । (श. ३११२५ ) ४७. कण्हले सभवसिद्धीयखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? ४८. एवं जहेव ओहिओ कण्हलेस्सउद्देसओ तहेव निरवसेसं च वि जुम्मेसु भाणियव्वो ४९. जाव- (श. ३१।२६) असत्तमपुढविकण्हलेस्सखडाग कलियोगनेरइया ण भंते ! कओ उववज्जंति ? ५०. तहेव सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ५१. नीलले सभवसिद्धीया चउसु वि जुम्मेसु तहेव भाणियव्वा (श. ३१/२९ ) (श. ३१/३० ) ५२. जहा ओहिए नीललेस्स उद्देसए । सेव भते ! सेवं भते ! त्ति ५३. जाव विहरई । ५४. काउले सभवसिद्धीया चउसु उववाण्यव्वा ५५. जब ओहिए काउलेस्स उद्देसए । (श. ३१/२७ ) (श. ३१/२८ ) विजुम्मे तव (श. ३१ । ३१) ५६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (श. ३१/३२) Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. जहा भवसिद्धीएहिं चत्तारि उद्देसगा भणिया एवं अभवसिद्धीएहि वि चत्तारि उद्देसगा भाणियब्वा ५८. जाव काउलेस्सउद्देसओ त्ति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ३१।३३) (श. ३११३४) ५९. एवं सम्मदिट्ठीहि वि लेस्सासंजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगा कायब्वा, नवरं६०. सम्मदिट्ठी पढमबितिएसु दोसु वि उद्देसगेसु अहेसत्तम पुढवीए न उववाएयव्वो, ५७. जिम भवसिद्धिक संघात ही, कह्या च्यार उद्देशक सारो जी। इम अभव्यसिद्धिक संघात ही, भणवा उद्देशक च्यारो जी ।। ५८. जाव कापोतलेशी उद्देशको, कहिवो इतरा लगेहो जी। सेवं भंते ! स्वामजी, बारमुद्देशक एहो जी ।। एकत्रिंशत्तमशते नवमादारभ्य द्वादशपर्यंतोद्देशकार्थः ॥३१॥६-१२॥ ५९. इम समदृष्टि संघात ही, लेश्या संयुक्तज करिक जी। करिवा है च्यार उद्देशका, णवरं विशेष उच्चरिक जी। ६०. सम्यकदृष्टि छै तिको, प्रथम द्वितीय कहिवाई जी। ए बिहुँ पिण उद्देशक विषे, सातमी में उपजायवो नाही जी ।। वा०-समदृष्टि सलेशी संघाते च्यार उद्देशा। तिहा प्रथम उद्देशो ते ओधिक उद्देशो जाण । ते समदृष्टि सलेशी सातमी नरक विषे न ऊपज । अने द्वितीयो उद्देशो ते समदष्टि कृष्णले शी ते पिण सातमी नै विषे न ऊपजै । सातमी नै विषे समदृष्टि सहित नहीं ऊपजै अनं समदृष्टि सातमी थी नीकल पिण नथी। अनै सातमी में ऊपना पछ केइक जीव समदृष्टि पामै छै ते पिण नीकलती वेला समदृष्टि गमाय पछै नीकल छ, एहवी सातमी नारकी नी रीत छ । ते मार्ट समदृष्टि सलेशी ए प्रथम उद्देशक नै विषे, समदृष्टि कृष्णलेशी ए बीजा उद्देशक नै विषे सातमी में ऊपजायवो नथी । णवर पाठ में एतलो विशेष कह्यो। ६१ शेष तिमज कहिवो सहु, सेवं भंते ! स्वामी जी । अर्थ इकतीसम शतक नों, सोलमुद्देशक धामी जी । एकत्रिशत्तमशते त्रयोदशादारभ्य षोडशपर्यन्तोद्देशकार्थः॥३१११३-१६॥ ६२. मिथ्यादष्टि संघात ही, च्यार उद्देशक करिवा जी। जिम भव्यसिद्धिक नां कह्या, तिणहीज रीत उच्चरिवा जी ।। ६३. सेवं भंते ! स्वामजी, शत इकतीसम चोखो जी । बीसमुद्देशक नां भला. अर्थ कह्या निर्दोखो जी ।। एकत्रिशत्तमशते सप्तदशादारभ्य विशोद्देशकार्थः।३१।१७-२०॥ ६४. इम कृष्णपाक्षिक साथ ही, लेश्या संयुक्त विख्यातो जी। करिवा च्यार उद्देशका, जिम कडा भव्य संघातो जी ।। ६५. सेवं भंते ! स्वामजी, शत इकतीसम शुद्धो जी । ए चउवीसमुद्देश नां, अर्थ कह्या अविरुद्धो जी ।। ६६. शुक्लपाक्षिक संघात ही, इमहिज च्यार उद्देशा जी । भणवा तेह किहां लगे, हिवै चरम बोल सुविशेषा जी। ६१. सेसं तं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ३१३५) (श. ३१॥३६) ६२. मिच्छादिट्ठीहि वि चत्तारि उद्देसगा कायब्बा जहा भवसिद्धीयाण। (श. ३११३७) ६३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ३१।३८) ६४. एवं कण्हपक्खिएहि वि लेस्सासंजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगा कायव्वा जहेव भवसिद्धीएहि । (श. ३१॥३९) ६५. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति। (श. ३१।४०) ६६. सुक्कपक्खिएहिं एवं चेव चत्तारि उद्देसगा भाणियव्वा श० ३१, उ०९-२८, ढा०४८१ ३३७ Jain Education Intemational Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. जाव वालुयप्पभपुढविका उलेस्ससुक्कपक्खियखुड्डाग कलिओगनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति? ६८. तहेव जाव नो परप्पयोगेणं उववज्जति ।(श.३१॥४१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ६७. यावत वालुकप्रभा मही, काउलेश शुक्लपाक्षिक तेहो जी । खुडागकलियोग नारकी, प्रभु ! किहां थको उपजेहो जी ? ६८. तिमहिज यावत जाणवू, पर प्रयोगे नहीं उपजतो जी। एतला लगै कहीजिय, सेवं भंते ! सेवं भंतो ! जी ।। एकत्रिशत्तमशते एकविंशादारभ्य अष्टाविंशोददेशकार्थः ३०२१-२८॥ ६९. ए सगलाई आखिया, उद्देशका अठवीसो जी। उपपात शतक इकतीसमू, थयो समाप्ति जगीसो जी ।। ७०. जे उपपात शब्दे करी, उपलक्षित छै तेहो जी । कहिये शत उपपात ए, जोड़ रूप छै जेहो जी। ७१. च्यारसौ इक्यासीमी भली, आखी ढाल अमंदो जी । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जय' परमानंदो जी ।। ६९. सव्वे वि एए अट्ठावीसं उद्देसगा। (श.३१६४२) गोतकछंद १. इकतीसमे शत अर्थ वर, भगवती वाणी चित धरी । मुझ भावितं निर्विघ्न करिक, सद्गुरू अनुग्रह करी ।। २. उत्पाद नों विरतंत आख्यो, च्यार युग्म सुलेखिये । तसु न्याय निर्णय विधि करी वच, जाणवू सुविशेखियै ।। १. शतमेतद्भगवत्या भगवत्या भावितं मया वाण्याः। यदनुग्रहेण निरवग्रहेण सदनुग्रहेण तथा ॥१॥ (वृ. प. ९५१) ३३८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिशत्तम शतक Jain Education Intemational Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तम शतक ढाल : ४८२ दहा १. एकत्रिशे शते नारकाणामुत्पादोऽभिहितो द्वात्रिंशे तु तेषामेवोद्वर्तनोच्यते (वृ. प. ९५१) २. इत्येवं सम्बन्धमष्टाविंशत्युद्देशकमानमिदं व्याख्यायते, (वृ. प. ९५१) ३. खुड्डागकडजुम्मनेर इया णं भंते ! अणंतरं उध्वट्टित्ता ___ कहिं गच्छति ? कहि उववज्जति-- ४. किं नेरइएसु उववज्जति ? तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति ? ५. उध्वट्टणा जहा वक्कंतीए (६।९९,१००)। (श. ३२।१) ६. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उब्वति ? गोयमा ! १. इकतीसम शत नैं विषे, नारकि नों उपपात । हिवै बतीसम नारकी, उद्वर्तन अवदात ।। २. इण संबंध करि एहनां, अष्टवीस उद्देश । प्रथम उद्देशक आदि हिव, कहियै अर्थ विशेष ।। क्षुल्लकयुग्म नैरयिकों का उद्वर्तन । *अर्थ आखिया रे शतक उद्वर्तन नै विषेरे ।। (ध्रपदं) ३. खुडागकडजुम्म नारकी रे, हे जगनाथ ! भदंतो जी । अंतर रहितज नीकली रे, किहां तिके उपजतो जी। ४. स्यं नारकी नै विषे ऊपजै रे? कैतिर्यंच विषेहो रे ? प्रश्न इत्यादि पूछियां रे, श्री जिन उत्तर देहो रे ।। ५. पन्नवण छठा पद विषे रे, उद्वर्त्तना अवलोई रे । नारकी नी आखी तिहां रे, तिम इहां कहि सोई रे ।। ६. हे प्रभुजी ! ते जीवड़ा रे, एक समय रै मांह्यो रे । नरक थकी किता नीकल रे ? जिन कहै सुण चित ल्यायो रे ।। ७. च्यार तथा अठ नीकलै रे, द्वादश सोल अतीवा रे । अथवा संख असंख ही रे, नीकलै छै ते जीवा रे ।। ८. ते जीव प्रभु ! किम नीकलै रे ? जिन कहै जिम दृष्टंतो रे । कुदणहारो कूदतो रे, इत्यादिकज वृतंतो रे । ९. इम तिमहिज पूर्वली पर रे, इम तेहिज गमो यांही रे । जाव आत्म प्रयोगे नीकल रे,पर प्रयोगे नीकले नाही रे ।। १०. रत्नप्रभा मही नारकी रे, क्षुल्लककडजुम्म इत्यादो रे । इम रत्नप्रभा नै विष अपि रे, इम जाव सप्तमी वादो रे ।। ११. इम क्षुल्लक व्योज गमा विषे रे, खुडाग द्वापरजुम्मो रे । खुडाग कलियोगे वली रे, अर्थ इमज अवगम्मो रे ।। १२, णवरं परिमाण जाणवो रे, शेष तिमज कहिवायो रे । सेवं भंते ! स्वामजी रे, प्रथम उद्देशक पायो रे ।। द्वात्रिंशत्तमशते प्रथमोद्देशकार्थः ॥३२॥१॥ १३. कृष्णलेशी कडजुम्म जिके रे, नारकि हे भगवंतो रे ! ___ इत्यादिक जे पूछियां रे, इम इण अनुक्रम मंतो रे ।। *लय : राज पामियो रे करकंडु कंचनपुर तणों ७. चत्तारि वा अट्ट बा बारस वा सोलस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उव्वटेति । (श. ३२२) ८. ते णं भंते ! जीवा कहं उव्वति ? गोयमा ! से जहानामए पवए, ९. एवं तहेव । एवं सो चेव गमओ जाव आयप्पयोगेणं उव्वट्टति, नो परप्पयोगेणं उव्वीति । (श. ३२।३) १०. रयणप्पभापुढविखुड्डागकडजुम्म ? एवं रयणप्पभाए वि । एवं जाव अहेसत्तमाए। ११. एवं खुड्डागतेयोग-खुड्डागदावरजुम्म-खुड्डगकलियोगा, १२. नवरं-परिमाणं जाणियध्वं, सेसं तं चेव । (श. ३२१४) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३२५) १३. कण्हलेस्सकडजुम्मनेरइया ? एवं एएणं कमेणं श० ३२, उ० १,२, ढा० ४८२ ३४१ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. जिमज उपपात शते कह्या रे, अष्टवीस उद्देशा रे । तिमज उवट्टणा शते अपि रे, अठवीस उद्देश अशेषा रे ।। १५. णवरं उवट्टति नीकलै रे, कहिवं आलावे नामो रे । शेष तिमज कहि सहु रे, सेवं भंते ! स्वामो रे।। १४. जहेव उववायसए अट्ठावीसं उद्देसगा भणिया तहेव उव्वट्टणासए वि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियव्वा निरवसेसा, १५. नवरं-उब्वति त्ति अभिलावो भाणियव्वो, सेसं तं चेव । (श. ३२१६) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति १६. जाव विहरइ। (श. ३२१७) १६. यावत गोतम विचरता रे, शत बतीसम दाख्यो रे । उवट्टणा नामे भलो रे, अर्थ थकी ए आख्यो रे ।। १७. च्यारसौ बंयासिमी भली रे, ढाल कही सुखदाई रे । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय-जय' हरष सदाई रे।। द्वात्रिंशत्तमशते द्वितीयोद्देशकार्थः॥३२॥२॥ गीतक छंद १. बत्तीसमे शत उवट्टणा ते, नारकादिक नीं कही । इकतीसमा उत्पाद शत जिम, फेर ते सूत्रे लही ।। २. इक स्थान उदके चंद्र मंडल देखवै करि जाणवू । अन्य स्थान पिण जल विषे चंद्रज पेखिया पहिछाणवू ।। १.२. व्याख्याते प्राक्शते व्याख्या, कृतवास्य समत्वतः । एकत्र तोयचन्द्रे हि, दृष्टे दृष्टाः परेऽपि ते ॥१॥ ३४२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिशत्तम शतक Jain Education Intemational Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिशत्तम शतक ढाल : ४८३ १. द्वात्रिंशे शते नारकोद्वर्तनोक्ता, (वृ. प. ९५१) २. नारकाश्चोद्वृत्ता एकेन्द्रियादिषु नोत्पद्यन्ते, के च ते? (वृ. प. ९५१) ३. इत्यस्यामाशङ्कायां ते प्ररूपयितव्या भवन्ति, (वृ. प. ९५१) ४. तेषु चैकेन्द्रियास्तावत्प्ररूपणीया इत्येकेन्द्रियप्ररूपणपरं त्रयस्त्रिशं शतं (वृ. प. ९५१) ५. द्वादशावान्तरशतोपेतं व्याख्यायते, (व. प. ९५१) दूहा १. शत बत्तीसम नै विषे, नारकी थकी विख्यात । ___ नीकलवो उद्वर्तना, आख्यो तसु अवदात ॥ २. फुन ते नारकि नीकल्या, एकेद्रियादि जात । तेह विषे नहिं ऊपज, वलि ते कवण विख्यात ? ३. इसी आशंका – विषे, एकेद्रियादिक जीव । हुवै परूपण योग्य ए, विवरा शुद्ध अतीव ।। ४. तेह विषे एकेंद्रिया, पहिला परूपीवाज । तिणसू एकेंद्रिय शतक, तेतीसमू समाज ॥ ५. एकेद्रिय जीवां तणी, परूपणा रूपेह । बार अवांतर शत सहित, बखाणिय छै एह ।। एकेन्द्रिय जीवों के प्रकार *हो जिन नां वच म्हांनै प्यारा लागै हो लाल, श्रद्धयां थी भव दुख भागे हो लाल । सुण्यां थी संवेग जागै हो लाल ॥ (ध्रुपदं) ६. कतिविध प्रभु ! एकेन्द्रिया जी ? जिन कहै पंच प्रकार । पृथ्वीकायिक जाणवा जी, जाव वणस्सइ धार ।। ७. प्रभु ! पृथ्वीकाइया कतिविधा जी? जिन कहै दोय प्रकार । सूक्ष्म पृथ्वीकाइया जी, बादर पृथ्वी धार ।। ८. प्रभु ! सूक्ष्म पृथ्वी कतिविधा जी ? जिन कहै द्विविध तेह । पर्याप्त सूक्ष्म मही जी, अपजत्त सूक्ष्म तेह ।। ६. कतिविहा णं भंते ! एगिदिया पण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा एगिदिया पण्णत्ता, तं जहा पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया । ७. पुढविक्काइया ण भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुहुमपुढविक्काइया य, बादरपुढविक्काइया य । (श. ३३१२) ८. सुहमपुढविक्काइया णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा–पज्जत्तासुहुमपुढविक्काइया य, अप्पज्जत्तासुहुमपुढविक्काइया य । (श. ३३३३) ९. बादरपुढविक्काइया णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? एवं चेव। १०. एवं आउक्काइया वि चउक्कएणं भेदेणं भाणियब्वा एवं जाव वणस्सइकाइया । (श. ३३।४) ९. बादर पृथ्वीकाइया जी, कतिविध हे जिनराय ? एवं चेव कहीजियै जी, अपजत्त पजत्तज थाय ।। १०. इम अपकायिक पिण वली जी, चिहं भेद करेह । भणवा पूर्वली परै जी, इम जाव वनस्पति लेह ।। *लय : हो बाईजी रा वीरा रात रा अमला में होको श० ३३, अन्तर श०१, ढा०४८३ ३४५ Jain Education Intemational Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकेन्द्रिय जीवों के कर्म प्रकृति ११. अपज्जत सूक्ष्म मही तणे जी, कर्मप्रकृति किती नाच ? जिन भाख अठ कर्म नीं जी, प्रकृति तास आख्यात || १२. ज्ञानावरणी पर कहा जी यावत ही अंतराव अपज्जत सूक्ष्म मही तणें जी ए अठ कर्म कहाय ।। १३. अपजत्त बादर मही तणें प्रभु ! कर्म प्रकृति किती रुपात ? जिन भाखे गुण गोयमा जी ! एवं वेव आख्यात | १४. इम इण अनुक्रमे करी जी यावत ही पहिछाण । बादर वणस्सइकाय नां जी, पर्याप्ता लग जाण ।। ' १५. अपज्जत्त सूक्ष्म मही प्रभु ! किती कर्म प्रकृति बांधत ? जिन कहै सप्तविध बंधका जी, अविध बंधक हुंत ॥ १६. सात प्रकारे बांधता जी, आयु कर्म विण जेह | सप्त कर्मप्रकृति प्रत जी बांधे पृथ्वी तेह | १७. अष्ट प्रकारे बांधता जी प्रतिपुर्ण पहिचाण । आठ कर्मप्रकृति प्रतै जी, बांध तेह अयाण || १८. अपज्जत सूक्ष्म पृथ्वी प्रभु ! किती कर्म प्रकृति बांधे ? महि सत अठ बंधका जी, इम सगलाइ कहेह || १९. जाव पर्याप्त हे प्रभुजी ! बादर वणस्सइकाय । कर्म प्रकृति बांध केतली जी ? जिन कहै इमज बंधाय ॥ २०. अपजस सूक्ष्म मही प्रभु! किती कर्मप्रकृति वेदंत ? जिन कहै प्रकृति कर्म नीं जी, चउदय वेद त ।। २१. ज्ञानावरणी आदि दे जी, जाव अंतराय पेख श्रोतेंद्रिय वध्य तेहनें जी, ए मति ज्ञानावरणी विशेख || वा. - श्रोतेंद्रिय वध्य ते श्रोतेंद्रिय हणवा योग्य एतले श्रोतेंद्रिय नों आवरण | श्रोतेंद्रिय आवा न दें एहवूं कर्म छं जेहने ते श्रोतेंद्रिय वध्य कहिये ए मतिज्ञानावरण विशेष । २२. चक्षुइंद्रिय वध्य वली जी, जेह कर्म नैं प्रताप । चक्षु आवा दे नहीं, ए चक्षुदर्शणावरण स्थाप ॥ २३. इम घ्राणेंद्रिय वध्य वली जी, जिभ्येंद्रिय वध्य तास । अचक्षुवर्णण तणों जी, आवरण एह विमास ॥ - १. अंगसुतणि भाग २ शतक ३३ के सूत्र ६, ८, १० और ११ की जोड़ नहीं है । संभवतः जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में उक्त पाठ नहीं था । १४ वीं गाथा में वें ८ सूत्र के अन्तिम भाग की जोड़ है । १० और ११ वें सूत्र में पज्जत सूक्ष्म पृथ्वी यावत् पज्जत्त बादर वनस्पतिकाय के जीवों के होने वाली कर्मप्रकृति का उल्लेख है। जोड़ में पुनः अपज्जत्त पृथ्वी यावत् पाठ की जोड़ है। इसलिए १८ वीं और १९ वीं गाथा के सामने पाठ नहीं दिया गया । ३४६ भगवती जोड़ ११. कति कम्म पगडीओ पण्णत्ताओ ? गोमा अटु कम्मपगडीओ पाओ तं जहा १२. नाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं । (श. ३३१५) १३. अपज्जत्ताबादरपुढविक्काइयाणं भंते ! प्पगडीओ पण्णत्ताओ ? एवं चेव । १४. एवं एएणं कमेणं जाव बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ति । १५. पायाभ ! कति कम्म पगडीओ बंधति ? गोपमा ! विधान १६ सत्त बंधमाणा आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ बंध ति, कति कम्म(३३२७) 1 १७. अट्ठ बधमाणा पडिपुण्णाओ अट्ट कम्मप्पगडीओ बंधंति । (श. ३३।९ ) २०. अपत्ताविवाइया भंते! कति कम्म पगडीओ वेदेंति ? गोयमा ! चोइस कम्मप्पगडीओ वेदेति तं जहा२१. नाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं, सोइंदियवज्भं, २२. चक्खिदिवज्भं, २२. पाणिनिि वा० - 'सोइंदियवज्भं' ति श्रोत्रेन्द्रिय वध्यं - हननीयं यस्य तत्तथा मतिज्ञानावरणविशेष इत्यर्थः, ( ( वृ. प. ९५४ ) Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. स्पर्शनेन्द्रियवध्यं तु तेषां नास्ति, तदभावे एकेन्द्रियत्वहानिप्रसङ्गादिति । (वृ. प. ९५४) सोरठा २४. फर्श द्रिय-वध्य नाहि, फर्श द्रिय नां वध्य थकी। एकेन्द्रियपणुं ताहि, तसु हानि तणांज प्रसंग थी ।। वा. - स्पर्शनेंद्रिय-वध्य तो नहीं। तेहनै अभावे एकेद्रियाणां नी हानि नां प्रसंग थकी। २५. *इत्थीवेद-वध्य जाणवू जी, जे उदय थी स्त्री नहिं होय । ते इत्थीवेदज-वध्य का , इम पुरुषवेद-वध्य जोय ।। सोरठा २६. नपंसवेद-वध्य नाहि, अपज्जत्त सूक्ष्म मही तिका । वेद नपुंसक मांहि, वत्तै छै ते कारण ।। २७. *एम चिहं भेदे करी जी, जाव पर्याप्त जेह । बादर वणस्सइकाइया, किती कर्मप्रकृति वेदेह ? २५. इत्थिवेदवज्झ, पुरिसवेदवज्झ । 'इत्थिवेयवझ' ति यदुदयात्स्त्रीवेदो न लभ्यते तत्स्त्रीवेदवध्यम् एवं पंवेदवध्यमपि, (वृ. प. ९५४) २६. नपुंसकवेदवध्यं तु तेषां नास्ति नपुंसकवेदवत्तित्वादिति। (वृ. प. ९५४) २७. एवं च उक्कएणं भेदेण जाव -- (श. ३३।१२) पज्जत्ताबादरवणस्स इकाइया णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ वेदेति ? २८. गोयमा ! एवं चेव चोद्दस कम्मप्पगडीओ वेदेति । (श. ३३।१३) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३३।१४) २८. एवं चेव चवदै जिके जी, कर्मप्रकृति वेदंत । सेवं भते ! तेतीसमें जी, प्रथम उद्देशक तंत ।। २९. कतिविहा णं भंते। अणंतरोववन्नगा एगिदिया पण्णता? ३०. गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववनगा एगिदिया पण्णत्ता, तं जहा --- ३१. पुढविक्काइया जाव वणस्स इकाइया। (श. ३३।१५) ॥इति ३३॥११॥ अनन्तरोपपन्न एकेन्द्रिय जीवों के प्रकार २९. हे प्रभु ! कितरा प्रकार नां जी, प्रथम समय उत्पन्न । एकेन्द्रिया परूपिया, ए अणंतरोत्पन्न जन्न ? ३०. जिन भाख सुण गोयमा जी! पंच प्रकार विख्यात । प्रथम समय नां ऊपना जी, एगिदिया आख्यात ।। ३१. पृथ्वीकायिक आदि दे जी, जाव वनस्पतिकाय । अणंत रोववन्नगा जी, धुर समयोत्पन्न ताय ।। ३२. प्रथम समय नां ऊपना जी, प्रभु ! कतिविध पृथ्वीकाय ? जिन भाखै सुण गोयमा जी ! दोय प्रकारे कहाय ।। ३३. सूक्ष्म पृथ्वीकाइया जी, बादर पुढवी ताय । इम द्विपद भेदे करी जी, जाव वनस्पतिकाय ।। सोरठा ३४. अनंतरोत्पन्न व्याप्त, एकेन्द्रिय छै जेहनें । पर्याप्त अपर्याप्त, ए बे भेद अभाव करि ।। ३५. चतुर्विध जे भेद, तास असंभव थी इहां । द्वि पद भेद करि वेद, कहिवू इह विधि आखियु ।। ३२. अणंतरोववन्नगा णं भंते ! पुढविक्काइया कतिविहा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा३३. सुहुमपुढविक्काइया य, बादरपुढविक्काइया य । एवं दुपएणं भेदेणं जाव वणस्सइकाइया । (श. ३३।१६) ३४,३५. अनन्तरोपपन्नकानामेकेन्द्रियाणां पर्याप्तकापर्याप्तक भेदयोरभावेन चतुविधभेदस्यासम्भवाद् द्विपदेन भेदेनेत्युक्तम् । (वृ. प. ९५४) *लय : हो बाई जी रा वीरा रात रा अमलां में होको श० ३३, अन्तर श०१, ढा०४८३ ३४७ Jain Education Intemational ational Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादर मही जिका । पर्याप्त हवं नयी ॥ ३६. घुर समयोत्पन्न जोय, सूक्ष्म अपर्याप्तक होय, पण ३७. तिण सूं मही नां ख्यात, सूक्ष्म बादर भेद वे । पण अपज्जत्त पर्याप्त, ए बे भेद कह्या नथी ॥ ३८. अपर्याप्ताज जोय, प्रथम समय नां उपनां पर्याप्ता न होय, तसु नहि बे भेद ए ॥ ३९. ते मार्ट अवलोय, सूक्ष्म बादर मही प्रमुख द्विपद भेदे जोय, कहिवो इम आयो इहां ॥ अनन्तरोपपन्न एकेन्द्रिय जीवों के कर्मप्रकृति ४०. * प्रथम समय नां ऊपनां जी, सूक्ष्म पृथ्वीकाय । हे भगवंत जी ! तेहनें, किती कर्मप्रकृति कहिवाय ? ४१. जिन भाखे सुण गोवमा ! अठ कर्मप्रकृति छताव ज्ञानावरणी आदि दे जी, यावत ही अंतराय ॥ ४२. प्रथम समय न अपना प्रभु! बादर पृथ्वीकाय कर्मप्रकृति किती तेहनें जी ? एवं चेव कहाय ॥ ४३. एवं यावत जाणवू जी, पढम समय उत्पन्न । बादर वणस्सइकाइया नें, कर्मप्रकृति अठ मन्न || ४४. प्रथम समय नो ऊपनां जी, सूक्ष्म पृथ्वी जंत हे प्रभुजी ! से केतली जी कर्मप्रकृति बांधत ? ४५. जिन कहै आयु वर्ज नैं सप्त कर्मप्रकृति बांधत । आयु बंध नहि हंत ॥ प्रथम समय उत्पन्न । बादर वणस्सइकाइया जी, इहां लग पाठ सुजन्न || ४७. प्रथम समय नां ऊपनां जी, सूक्ष्म पृथ्वी जंत । हे प्रभुजी ! ते जीवड़ा, किती कर्मप्रकृति वेदंत ? ४८. जिन भाखे सुण गोयमा ! चउदे कर्मप्रकृति वेदत | ज्ञानावरणी तिमहिज इहां, जान पुरुषवेद-वध्य मंत ।। ४९. एवं यावत जाणवूं जी, प्रथम समय उत्पन्न | बादर वणस्सइकाइया जी, इहां लग पाठ सुजन्न ॥ ५०. सेवं भवे! स्वाम जी शत तेतीसम सोय । द्वितीय उद्देशक नां कला जी, अर्थ अनोपम जोय ॥ ।। इति ३३।१।२। घुर समयोत्पन्न काल में ४६. एवं यावत जाणवू जी, परम्परोपपन्न एकेन्द्रिय जीवों के प्रकार ५१. हे भगवतजी ! कतिविधा, वे आदि समय उत्पन्न । एकेंद्रिया परूपिया, ए परंपरोत्पन्न जन्न ? ५२. जिन भाखे सुण गोयमा जी पंच प्रकार विख्यात । बे आदि समय नां उपनां जी, एगिंदिया आख्यात || *लय हो बाईजी रा वीरा रात रा अमलां में होको ३४८ भगवती जोड़ ४०. अता असे ! कति कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ ? ४१. गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहानाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं । (श. ३३।१७ ) ४२. अनंत रोववन्नगवादरपुढविक्काइयाणं भंते ! कति कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? गोमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - नाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं । ४३. एवं जाव अनंत रोववन्नगबादरवणस्सइकाइयाणं ति । (स. २२०१८) ४४. अणंतरोववन्नगसुहुमपुढविक्काइया णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ बंधति ? ४५. दोयमा ! आप बंधंति । ४६. एवं जाव अनंत रोववन्नगबादरवणस्स इकाइयत्ति । (३३०१९) भंते कति सप्त कम्मप्पगडीओ ४७. अनंतमविक्काइया कम्मप्पगडीओ वेदेति ? ४८. गोयमा ! चोद्दस कम्मप्पगडीओ वेदेति, तं जहानाणावरणिज्जं तहेव जाव पुरिसवेदवज्भं । ४९. एवं जाय अवशेववनगवादरवणस्सइकाइयति । (श. २३०२०) (श. २२/२१) ५०. सेवं भंते ! सेव भंते त्ति । २१. विभते परंपरोया एगिदिया पण्णत्ता ? ५२. गोमा ! पंचविहा परंपरोववन्नगा एगिदिया पण्णत्ता तं जहा Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. पृथ्वीकायिक आदि दे जी एवं व्यारज भेद । 1 संवेद || बादर । जिम अधिक उद्देश जी, आख्यो तिम वा० - पृथ्वी जाव वनस्पतिकाय बे भेदे सूक्ष्म, सूक्ष्म नां वे प्रकार अपर्याप्ता, पर्याप्ता । इस बादर का ही बे भेद, अपर्याप्ता, पर्याप्ता, इम च्यार भेद । एबे आदि समय नां ऊपना छे ते मार्ट ४ भेद हुवे । परम्परोपपन्न एकेन्द्रिय जीवों की कर्मप्रकृति ५४. प्रभु ! परंपरोववन्नगा जी, सूक्ष्म पृथ्वीकाय नं किती ५५. इम इण आलावेकरी जी, अपर्याप्ता नैं ताय । कर्मप्रकृति कहिवाय ? जिम ओधिक उद्देश । आख्यो तिहिज रीत सूं जी, कहिवो सर्व अशेष ।। ५६. जाव चय कर्मप्रकृति जी, वेदे इहां लग हुंत | सेवं भंते ! स्वाम जी, तृतीय उद्देशक तंत || ॥इति ३३|१|३|| अनन्तरावगाढ आदि एकेन्द्रिय जीवों की कर्म प्रकृति ५७. अनंत रोगाहक वणों जी, तुर्य उद्देशक ताय । जिम अनंत रोववन्नगा जी, आख्या तिम कहिवाय ॥ वा० प्रथम समय आकाशास्तिकाय नां प्रदेश अवगाह्या तेहने अनंतरावगाढा कहिये । ।। इति ३३|१|४|| ५८. परंपरोगाढा तणों जी, पंचमुदेशक पेख जेम परंपरोववनगा जी, आरुवा तिम ए लेख || वा०-- आकाशास्तिकाय नां प्रदेश अवगाह्या नैं बे आदि समय थया ते माट परंपरावगाढा कहिये । ।।इति ३३।१।५।। ५९. अनंतर आहारक तनों जी, छठो उद्देशो जाण । जिम अनंत ववन्नगा जी, तिम कहिवो पहिछाण || वा० - पहिलै समय आहार लियो, तेहने अनंतर आहारका ते प्रथम समय ऊपनां नी पर कहिवा । ।। इति ३३।१।६।। ६०. परंपर-आहारक तनों जी, सप्तमुद्देशक सोय । जिम परंपरोववन्नगा जी, तिम कहिवो अवलोय ।। वा० - आहार लियां ने बे आदि समय थया, ते परंपर- आहारका परंपरोववन्नगा नीं पर कहिवा । ।। इति ३३|१|७|| ६१. अनंतर पर्याप्त तणों जी, अष्टमुद्देशक आम । जिम जनतरोवयन्नगा जी, आख्या तिम ए ताम || वा०- पर्याय बांध्यां नैं एक समय थयो, ते अनंतर पर्याप्तका अनंतरोववन्नगा नी पर कहिया । ।। इति ३३|१|८|| ६२ . परंपर-पर्याप्त नों जी, नवम उद्देशक न्हाल | जिम परंपरोववन्नगा जी, भाख्यो तिम ए भाल ॥ ५३. पुढवाया एवं चक्क भेदो जहा महि उसए । (रा. २३०२२) ५४. परंपरोव वन्नगअपज्जत्तासु हुमपुढ विक्का इयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ ? ५५. एवं एएवं अनिसावेषं जहा मोहिउद्देसए तहेव निरवसेसं भाणियव्वं ५६. जाव चोट्स वेदेंति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ३३।२३ ) (श. ३३।२४ ) ५७. अपंतगादा जहां अतरोगा (श. २२ २५) १८. परंपरोगाढा जहा परंपरोववना (श. ४२२६) ५९. अनंतराहारगा जहा अणंतरोववन्नगा । ६०. परंपराहारगा जहा परंपरोवा (श. १३०२- ) ( . २२०२७) ६१. अनंत रपज्जत्तगा जहा अनंतरोववन्नगा । ६२ . परंपरपज्जत्तगा जहा परंपरोववन्नगा । (श. ३३।२९) (श. ३३।३० ) श० ३३, अन्तर श० १, ढा० ४८३ ३४९ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. चरिमा वि जहा परंपरोववन्नगा तहेव । (श.३३।३१) एवं अचरिमा वि। वा० --पर्याय बांध्या नै बे आदि समय थया, ते परंपर-पर्याप्तका परंपरोववन्नगा नी पर कहिवा । ॥इति ३३॥१ ॥ ६३. दशम उद्देशक चरम नै पिण, परंपरोत्पन्न जेम। __ एकादशम उद्देशके जी, अचरिमा पिण एम ।। ॥इति ३३।१।१०,११॥ ६४. इम ए ग्यार उद्देशका जी, ए पहिलू पहिछाण । __शतक एकेद्रिय नों कह्यो जी, सेवं भंते ! जाण ।। ६५. इम कही गोतम जाव विचरता, शत तेतीसम मांहि । ___ अंतर शत एकेंद्रिय तणों जी, थयो संपूर्ण ताहि ।। ६६. ढाल च्यार सौ ऊपरै जी, तीन असीमी देख । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी जी, 'जय-जश' हरष विशेख ।। (श. ३३॥३२) ६४. एवं एए एक्कारस उद्देसगा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ६५. त्ति जाव विहरइ। (श. ३३॥३३) ढाल : ४८४ कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के प्रकार १. कृष्णलेशी एकेंद्रिय, कतिविध कह्या जिनेश? जिन कहै पंचविधा कह्या, एगिदिया कण्हलेश ।। २. पृथ्वीकायिक आदि दे. जाव वनस्पतिकाय । कृष्णलेशी एकेंद्रिया, ए पांचूं कहिवाय ।। ३. कृष्णलेशी महीकायिका, कतिविध हे जिनराय ? जिन कहै द्विविध सूक्ष्म मही, फुन बादर महीकाय ॥ १. कतिविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा एगिदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा एगिदिया पण्णत्ता, तं जहा-- २. पुढविक्काइया जाव वणस्स इकाइया । (श. ३३।३४) ३. कण्हलेस्सा णं भंते ! पुढविक्काइया कतिविहा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - सुहुमपुढविक्काइया य, बादरपुढविक्काइया य। (श. ३३।३५) ४. कण्हलेस्सा णं भंते ! सुहुमपुढविक्काइया कतिविहा पण्णत्ता ? ५. एवं एएणं अभिलावेणं चउक्कओ भेदो जहेव ओहिउद्देसए। (श. ३३।३६) ४. कृष्णलेशी भगवंतजी! सूक्ष्म पृथ्वीकाय । कितै प्रकार परूपिया? इत्यादिक कहिवाय ।। ५. इम इण आलावे करी, च्यार भेद कहिवाय । जिम ओधिक उद्देशके, आख्यो तिम कहिवाय ।। कृष्णलेश्यो एकेन्द्रिय जीवों के कर्म प्रकृति ६. कृष्णलेशी अपज्जत्त प्रभु ! सूक्ष्म पृथ्वी ने जाण । कर्मप्रकृति है केतली ? गोयम प्रश्न पिछाण ।। ७. इम इण आलावे करी, जिमहिज आख्यो जेह ।। ओधिक उद्देशक विषे, पूर्व प्रगटपणेह ।। ६. कण्हलेस्सअपज्जत्तासुहुमपुढविक्काइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? ७. एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देसए ३५० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. तिमहिज परूपणा दंडक, तिमहिज वेई एत्रि, ९. सेवं भंते ! स्वाम जी द्वितीय एकेंद्रिय शतक नौ, तिमहिज बंध प्रकार । दंडक कहिवा धार ॥ शत तेतीसम मांय । प्रथम उद्देशक आय || ॥इति ३३।२।१। अनन्तरोपपन्न कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के कर्मप्रकृति १०. * कतिविध हे भगवंतजी ? रे हां, कृष्णलेशी एगिंदिया रे हां, ११. जिन भाखे सुण गोवमा कृष्णलेशी एगिदिया रे हां, १२. इम इण आलावे कसे रे हो, यावत वनस्पति लगे रे हो, १३. अपज्जत्त पज्जत्त सुजोय, सूक्ष्म बादर सोय, १४. *पुर समयोत्पन्न ! *लय: केदारो अनंतरोत्पन्न ताम । जिन वच सुंदरू । आप परूप्या स्वाम ? जिन वच सुंदरू | हां, रे धुर समयोत्पन्न धार । आख्या पांच प्रकार || तिमहिज द्विपद भेद । कहियो आण उमेद ।। सोरठा दोय भेद वर्जित जिके । कहिया वे पद भेद करि ॥ तिके रे हां, कृष्णलेशी जे भगवंत ! सूक्ष्म पृथ्वोकाय ने रे हां, केतली कर्मप्रकृति त ? १५. इम इन आलावेकरी रे हां, जिम अधिक छे जेह अनंतरोत्पन्न उद्देश के रे हां, आख्यो तिमज कहे ।। १६. यावत वेदं इहां लगे रे हां, सेवं भंते ! स्वाम | द्वितीय एकेंद्रिय शतक नों रे हां, द्वितीय उद्देशक आम || ।। इति ३३।२।२।। परम्परोपपत्र कृष्णलेश्वी एकेन्द्रिय जीवों के कर्मप्रकृति १७. केतले भेदे आखिया रे हां, परंपरोत्पन्न धार । कृष्णलेशी एकेंद्रिया रे हो ? कहिये हे जगतार ! १५. जिन भा 'सुण गोयमा ! रे हां, परंपरोत्पन्न जेह कृष्णलेशी एकेंद्रिया रे हां, आख्या पंचविधेह || १९. पुढवीकायिक आदि दे रे हां, इस इण आलावेह चक्क भेद करि जाव ही रे हां, वणस्स काय लगेह | २०. परंपरोत्पन्न छं तिके रे हां, कृष्णलेशी भगवंत ! अपज्जत सूक्ष्म मही तणे रे हां, केतली कर्मप्रकृति त ? तब पत्ता तहे बंधति राय वेदेति । " ९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । १० कतिविहाणं भते । अतरोवरएगिंदिया पण्णत्ता ? पंचवा अगतरोगा कलेस्सा ११. गोयमा ! गिदिया। (श. ३३०३७) ( म. २२।२८) १२. एवं एएवं अभिलावेणं तहेव दुयओ भेदो जाव वणस्स इकाइयत्ति | (श. ३३।३९ ) १४. अनंतराव वन्नग कण्हलेस सुहुम पुढ विक्काइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ ? १५. एवं एएवं अभिलावेणं जहा ओहिओ अणतरोववन्नगाणं उद्देसओ तहेव । १६. जाव वेदेति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ! (स. १३०४०) (श. ३३।४१ ) १७. कतिविभंते! परंपरोववाहले एगिदिया पण्णत्ता ? १८. गोयमा ! पंचविहा परंपरोववन्नगा कण्हलेस्सा एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा - १९. विकाइया एवं एएवं अभिलावे हेच व भेदो जाव वणस्सइकाइयत्ति । (श. ३३।४२ ) २०. परंपषवनले अपत्तविकाइया भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ ? प्रा० ३३, अन्तर श०२, ढा० ४७४ ३५१ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. एवं एएणं ओभिलावेणं जहेव ओहिओ परंपरोववन्नग उद्देसओ तहेव जाव वेदेति । २२. एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिएगिदियसए एक्कारस उद्देसगा भणिया। २३. तहेव कण्हलेस्ससते वि भाणियब्वा जाव अचरिम चरिमकण्हलेस्सा एगिदिया। (श. ३३।४३) २१. मातिय २४. जहा कण्हलेस्सेहि भणियं एवं नीललेस्सेहि वि सयं (श. ३३।४४) सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति। (श. ३३।४५) सवं भते २५. एवं काउलेस्सेहि वि सयं भाणियब्व, नवरं काउलेस्से ति अभिलादो भाणियब्यो। (श. ३६।४६) २१. इम इण अभिलापे करी रे हां, जिमहिज ओधिक जेह । परंपरोत्पन्न उद्देशके रे हां, तिमहिज जाव वेदेह ।। २२. इम इण आलावे करी रे हां, जिमहिज ओधिक जाण । एकेंद्रिय शतके कह्या रे हां, ग्यार उद्देश पिछाण ।। २३. तिमहिज कहिवा छै इहां रे हां, कृष्णलेशी शतकेह। यावत अचरिम जाणवा रे हां, __कृष्णलेशी एकेंद्रिय एह ।। ॥इति ३३।२।३-११॥ नीललेश्यी एकेन्द्रिय के कर्मप्रकृति २४. जिम कृष्णलेश्या संघाते शत कह्यो रे हां, इम नीललेश्या संघात । कहिवं शतकज तीसरो रे हां, सेवं भंते ! नाथ ।। ॥इति ३३॥३॥ कापोतलेश्यो एकेन्द्रिय के कर्म प्रकृति २५. इम कापोतलेश्या संघात ही रे हां, भणिवू शत संलाप। णवरं कापोतलेश्या इसो रे हां, ___कहि नाम अभिलाप ।। ॥इति ३३॥४॥ भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के प्रकार २६. कतिविध हे भगवंतजी ! रे हां, भवसिद्धिक छै जेह । एकेद्रिया परूपिया रे हां? हिव जिन उत्तर देह ।। २७. भवसिद्धिक एकेद्रिया रे हां, दाख्या पंच प्रकार । पृथ्वीकायिक आदि दे रे हां, जाव वनस्पति धार ।। २८. सूक्ष्म बादर जाणवा रे हां, पर्याप्त अपर्याप्त । भेद च्यार ए जेहनां रे हां, जाव वनस्पति आप्त ।। भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के कर्मप्रकति २९. भवसिद्धिक भगवंतजी ! रे हां, अपर्याप्त छै जेह। सूक्ष्म पृथ्वीकायिका रे हां, कति कर्मप्रकृति तसु लेह ? ३०. इम इण अभिलापे करी रे हां, जिमहिज प्रथम पिछाण । एकेंद्रिय शत आखिया रे हां, तिम भवसिद्धि शत पिण जाण ।। ३१. परिपाटी उद्देशा तणी रे हां, तिमहिज कहिवी ताम । यावत अचरिम लग सहु रे हां, सेवं भंते ! स्वाम ।। ॥इति ३३॥५॥ २६. कतिविहा णं भंते ! भवसिद्धीया एगिदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! २७. पंचविहा भवसिद्धीया एगिदिया पण्णत्ता, तं जहा पुढविक्काइया जाव वणस्स इकाइया, २८, भेदो चउक्कओ जाव वणस्सइकाइयत्ति । भंते ! २९. भवसिद्धीयअपज्जत्तासुहमपुढविक्काइयाणं कति कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? ३०. एवं एएण अभिलावेण जहेव पढमिल्लगं एगिदियसयं तहेव भवसिद्धीयसयं पि भाणियव्वं । ३१. उद्देसगपरिवाडी तहेव जाव अचरिमो त्ति । (श. ३३।४८) सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति। (श. ३३१४९) ३५२ भगवती जोड़ Jain Education Intenational Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. कतिविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा भवसिद्धीया एगिदिया पण्णत्ता ? ३३. गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा भवसिद्धीया एगिदिया पण्णत्ता,तं जहा३४. पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया । (श. ३३।५०) ३५. कण्हलेस्सभवसिद्धीयपुढविक्काइया णं भंते ! ____कतिविहा पणत्ता? ३६. गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुहुमपुढवि क्काइया य, बादरपुढविक्काइया य । (श. ३३१५१) ३७. कण्हलेस्सभवसिद्धीयसुहमपुढविक्काइया णं भंते ! ___कतिविहा पण्णत्ता? ३८. गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा य, अपज्जत्तगा य । एवं बादरा वि। ३९. एएणं अभिलावेणं तहेव चउक्कओ भेदो भाणियब्बो। (श. ३३।५२) कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक के प्रकार ३२. कतिविध हे भगवंतजी ! रे हां, कृष्णलेशी छै जेह । भवसिद्धिक एकेद्रिया रे हां, दाख्या जिन गुणगेह ? ३३. जिन भाखै सुण गोयमा ! रे हां, पंच प्रकार विख्यात । कृष्णलेशी भवसिद्धिका रे हां, एगिदिया आख्यात ।। ३४. तेह पंच कहियै अछै रे हां, पृथ्वीकायिक पेख । जाव वनस्पतिकायिका रे हां, ए जिन वच सुविशेख ।। ३५. कृष्णलेशी भवसिद्धिका रे हां, पृथ्वीकायिक स्वाम । कितै प्रकार परूपिया रे हां? आप कहो गुणधाम ! ३६. जिन भाखै सुण गोयमा ! रे हां, दो प्रकार कहाय । सूक्ष्म पृथ्वीकायिका रे हां, बादर पृथ्वीकाय ।। ३७. कृष्णलेशी भवसिद्धिका रे हां, सूक्ष्म पृथ्वीकाय । कितै प्रकार परूपिया रे हां? भाखो जो जिनराय ! ३८. जिन भाखै सुण गोयमा ! रे हां, दोय प्रकारे ख्यात । पर्याप्ता अपर्याप्ता रे हां, इम बादर पिण आत ।। ३९. इम इण अभिलापे करो रे हां, तिमहिज चिहं भेदेह । कहिवा पूर्वली परै रे हां, वारू विधि सूं जेह । कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के कर्मप्रकृति ४०. कृष्णलेशी भवसिद्धिया रे हां, हे भगवंत! अपज्जत्त। सूक्ष्म पृथ्वीकाय नै रे हां, केतली कर्मप्रकृत्त ? ४१. इम इण अभिलापे करी रे हां, जिम ओधिक उद्देश । आख्यो तिम कहिवो इहां रे हां, यावत वेदै एस ।। ४२. कतिविध हे भगवंतजी ! रेहां, अनंतरोत्पन्न जात । कृष्णलेशी भवसिद्धिका रे हां, एगिदिया आख्यात? ४३. जिन भाखै पंचविध कह्या रे हां, अनंतरोत्पन्न ताय । जाव वणस्सइकाइया रे हां, इहां लगै कहिवाय ।। अनंतरोपपन्न कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के कर्मप्रकति ४४. अनंतरोत्पन्न छै तिके रे हां, कृष्णलेशी विख्यात । भवसिद्धिक महीकायिका रे हां, प्रभु ! कतिविध आख्यात ? ४५. जिन भाखै द्विविध कह्या रे हां, सूक्ष्म पृथ्वी जेह । बादर पृथ्वीकायिका रे हां, इम द्विपद भेदेह । ४६. अनंतरोत्पन्न छै तिके रे हां, कृष्णलेशी भगवंत ! भवसिद्धि सूक्ष्म मही तणे रे हां, केतली कर्मप्रकृति हंत ? ४७. इम इण अभिलापे करी रे हां, जिमहिज ओधिक जेह। उद्देशो अनंतरोत्पन्न कां रेहां, तिमज जाव वेदेह ।। ४८. इम इण अभिलापे करी रे हां, एकादश पिण जान । उद्देशक विधि रीत सं रेहां, तिमहिज कहिवामान ।। ४०. कण्ट्लेस्सभवसिद्धीयअपज्जत्तासुहुमपुढविक्काइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? ४१. एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देसए तहेव जाव वेदेति । (श. ३३।५३) ४२. कतिविहा ण भंते ! अणंतरोववन्नगा कण्हलेस्सा भवसिद्धीया एगिदिया पण्णत्ता? ४३ गोयमा! पंचविहा अणंतरोववन्नगा जाव वणस्सइकाइया । (श. ३३.५४) ४४. अणंतरोववन्नगकण्हलेस्सभवसिद्धीयपुढविक्काइया णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? ४५. गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहा सुहुमपुढ विक्काइया, एवं दुयओ भेदो। (श. ३३।५५) ४६. अणंतरोववन्नगकण्हलेस्सभवसिद्धीयसुहुमपुढविक्का इयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? ४७. एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिओ अणंतरोव वन्नउद्देसओ तहेव जाव वेदेति । ४८. एवं एएणं अभिलावेणं एक्कारस वि उद्देसगा तहेव भाणियब्वा। श० ३३, अन्तर श०६, ढा० ४८४ ३५३ Jain Education Intemational Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९. जहा ओहियसए जाव अचरिमो त्ति । (श. ३३।५६) ५०. जहा कण्हलेस्सभवसिद्धीएहि सयं भणियं एवं नील लेस्सभवसिद्धीएहि वि सतं भाणियब्वं । (श.३३६५७) ५१. एवं काउलेस्सभवसिद्धीएहि वि सतं । (श. ३३।५८) ५२. कइविहा णं भंते ! अभवसिद्धीया एगिदिया पण्णता? ५३. गोयमा ! पंचविहा अभवसिद्धीया एगिदिया पण्णत्ता, तं जहा-पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया। ४९. जिम ओधिक शत नी परै रेहां, यावत अचरिम जोय। छट्टो एकेंद्रिय तणुं रे हां, शतक संपूर्ण होय ।। ॥इति ३३॥६॥ नीललेश्यी आदि भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के कर्मप्रकति ५०. जिम कृष्णलेशी भवसिद्धिक ने रे हां, संघाते शत ख्यात । इम नीललेशी भवसिद्धिक ने रे हां, संघाते शतक विख्यात ।। ॥इति ३३॥७॥ ५१. इम कापोतलेशो जिको रे हां भवसिद्धिक संघात । ते पिण शत कहिवो वलि रे हां, ___ अष्टम शत आख्यात ॥ ॥इति ३३॥८॥ ५२. कतिविध हे भगवंतजी! रे हां, अभवसिद्धिया ताय । एगिदिया जे आखिया रे हां? दाखो श्री जिनराय ! ५३. जिन भाखै पंचविध कह्या रे हां, अभव्य एकेंद्रिया ताय । पृथ्वीकायिक आदि दे रे हां, जाव वनस्पतिकाय ॥ ५४. एवं जिमहिज आखियो रे हां, शत भवसिद्धिक अशेष । तिमहिज कहि● ए सह रे हां, णवरं नव उद्देश । ५५. चरम अने अचरम तणां रे हां, वर्जी उद्देशा दोय । शेष तिमज कहिवो सहु रे हां, तास न्याय इम होय ।। सोरठा ५६. अभव्यसिद्धिक नैं जोय, अचरमपणेज आखिया। ते माटै अवलोय, अचरिम चरिम विभाग नहीं ।। ॥इति ३३॥९॥ ५७. *इम कृष्णलेशी अभवसिद्धियो रे हां, ___ एकेंद्रिय शत पिण आम । दशम एकेंद्रिय शत इहां रे हां, थयो संपूर्ण ताम ।। ॥इति ३३॥१०॥ ५८. इम नीललेशी अभवसिद्धिको रे हां, एकेंद्रिय शत आय। शत ग्यारम एकेंद्रिय इहां रे हां, थयो संपूर्ण ताय ।। ॥इति ३३॥११॥ ५४. एवं जहेव भवसिद्धीयसतं उद्देसगा। भणियं, नवरं-नव ५५. चरिमअचरिमउद्देसगवज्ज, सेसं तहेव । (श. ३३।५९) ५६. 'चरमअचरमउद्देसगवज्ज' ति अभवसिद्धिकानामचरमत्वेन चरमाचरमविभागो नास्तीतिकृत्वेति । (व. प. ९५४) ५७. एवं कण्हलेस्सअभवसिद्धीयएगिदियसतं पि । (श. ३३।६०) ५८. नीललेस्सअभवसिद्धीयएगिदिएहि वि सतं । (श. ३३॥६१) *लय : केदारो ३५४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९. काउलेस्सअभवसिद्धीयसतं । एवं चत्तारि वि अभव सिद्धीयसताणि नव-नव उद्देसगा भवति । ६०. एवं एयाणि बारस एगिदियसताणि भवंति । (श. ३३।६२) ५९. कापोतलेशी अभवसिद्धिक नों रे हां, शतक बारमों सोय । इम चिहुं शत अभवसिद्धिक नां रे हां, ___नव-नव उद्देशा होय ॥ इति ॥३३॥१२॥ ६०. इम ए द्वादश पिण इहां रे हां, एकेद्रिय शत होय । शत तेतीसम में विषे रे हां, अंतर ए अवलोय ।। ए बार शतक अवांतर तेतीसम शतकार्थ तिण में प्रथम आठ अवांतर शतक नां ग्यारेनयार उद्देशा । इम ए ८८ अनै छहला ४ अवांतर शतक अभव्यसिद्धिक, तेहनां नव-नव उद्देशा । इम ए ३६ । ए तेतीसम शतक नां सर्व १२४ उद्देशा रूप तेतीसम शतकार्थ संपूर्ण ॥३३॥ ६१. ढाल च्यार सौ ऊपर रे हां, चार असीमी एह । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे हां, 'जय-जश' गण गुणगेह ॥ श० ३३, ढा०४८४ ३५५ Jain Education Intemational Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तम शतक Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ४८५ १. तेतीसम शत ने विषे चढतीसम तेहीज हिव, २. इम संबंध कर एहनां शतक सहित तगु घुर अर्थ, दूहा एकेंद्रिय आख्यात | भगांतर करि जात ।। बार अवांतर जेह | आगल कहिये एह ॥ एकेन्द्रिय जीवों की विग्रह गति ( क ) ३. कतिविध हे भगवंतजी एकेंद्रिय आख्यात ? ! जिन कहै पंच प्रकार जे एकेंद्रिय अवदात || ४. पृथ्वी जाव वनस्पति, एवं ए पिण च्यार । भेद करी भणिवा इहां जाय वनस्पति धार ॥ 1 * श्रेणी शत चउतीसम सांभलो रे ।। (ध्रुपदं ) ५. अपज्जत सूक्ष्म पृथ्वीकाइया रे, आ रत्नप्रभा नां जेह । पूर्व नां परिगंत विषे भगवंतजी रे ! चतुस्त्रिशत्तम शतक ६. आ रत्नप्रभा मही नैं पश्चिम तणें रे, समुद्धात करि तेह। चरिमांतेज प्रयोग | जे उपजवा जोग । अपज्जत सूक्ष्म जे पुढचीपणे रे, ७. हे प्रभु ! तेह केतला समय नैं रे, विग्रह करि उपजंत ? जिन कहै एक दुति समय विग्रह करी रे, ऊपजवूं तसुत || वा० - इहां लोकनाड़ो ने आलंकी ने जाणवो एक समयो जेहन विषे छेतिका एकसमयिका कहिये ते एक समय करी। हिवं विग्गहेणं पाठ नों अर्थ कहे छे -विग्रह कहितां वक्र गति ने विषे ते वक्र नों संभव थकी गतिहीज विग्रह तेह विग्रह गति करी ऊपजे अथवा विग्रह कहितां विशिष्ट ग्रह - विशिष्ट स्थान प्राप्ति हेतुभूत गति विग्रह तेणे करी तिहां ऊपजै । * लय : कार्यं सुधार हो चतुर हुवं जिको जी १. त्रयस्त्रिशशते एकेन्द्रियाः प्ररूपिताश्चतुस्त्रिशच्छतेऽपि भङ्गचन्तरेण त एवं प्रयन्ते ( वृ. प. ९५४ ) २. इत्येवं संबन्धेनायातस्य च द्वादशशतोपेतस्यास्येदमादिसूत्रम् - ( वृ. प. ९५४) तं जहा ३. कइविहा णं भंते ! एगिंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा एगिंदिया पण्णत्ता, ४. विकाइया पाव वणस्सइकाइया । एवमेते चक्कएणं भेदेणं भाणियव्वा जाव वणस्सइकाइया । (म. २४/१) भंते ! ५. अपसाविकाइए गं इमीसे रणभावी पुरथिमिल्ने मिमोह समोहमित्ता ६. जे भविए इमी रमणभाए पुरवीए पण्यस्थिमिल्से चरिमंते पकाइयत्ताए उववज्जिए ७. से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेण उववज्जेज्जा । (प. २४५२) वा० - इदं च लोकनाडी प्रस्तीर्थ भावनीयं, 'एगसमइएण व' त्ति एक समयो यत्रास्त्य सावेकसामयिकस्तेन 'विमषति विव-गतीच तस्य सम्भवाद् गतिरेव विग्रहः, विशिष्टो वा ग्रहो विष्टिस्थानप्राप्तिहेतुभूता गतिविग्रहस्तेन (बृ. प. ९५६) श० ३४, अन्तर श० १, उ० १, ढा० ४८५ ३५९ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. से केणठेणं भंते ! एवं वृच्चइ–एगसमइएण वा दुसमइएण वा जाव उववज्जेज्जा। ९. एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-उज्जुयायता सेढी, एगओवंका, ८. किण अर्थे प्रभुजी ! इम आखियो रे, ___ एक समय करि जेह। दोय समये करिनै यावत वली रे, ___ विग्रह करि उपजेह ? ९. जिन कहै इम निश्चै करि गोयमा ! रे, श्रेणि परूपी सात । उजु-आयता सेढी धुर कही रे, एगओवंका ख्यात ।। १०. दुहओवंका ने एगओखहा रे, दुहओखहा जाण । चक्रवाल ने अधचक्रवाल ही रे, ए सप्त श्रेणि पहिछाण ।। सोरठा ११. मरण स्थान अपेक्षाय, उत्पत्ति स्थानक - विषे । समणि हुवै ताय, ते ऋजु-आयता श्रेणि तब ।। १२. तिण करि जातो जेह, ते एक समय नी गति हुवै । तिणसू एम कहेह, एक समय करि ऊपजै ।। १०. दुहओवंका, एगओखहा, दुहओखहा, चक्कवाला, अद्धचक्कवाला। ११,१२. उज्जुआयताए सेढीए उववज्जमाणे एगसमएण विग्गहेणं उववज्जेज्जा। तत्र 'उज्जुआययाए' त्ति यदा मरणस्थानापेक्षयोत्पत्तिस्थानं समश्रेण्यां भवति तदा ऋज्वायता श्रेणिर्भवति, (वृ. प. ९५६) वा० उज्जु जिवार मरणस्थान अपेक्षाये उत्पत्तिस्थान सम श्रेणि करी हुवै तिवारै उज्जु-आयता श्रेणि हुवै । तिण करिक जातां एक समय नी गति हुवै ते उज्जु-आयता कहिये। सोरठा १३. तथा जिवारे जेह, मरण-स्थान छै तेहथी। उत्पत्ति-स्थान विषेह, एक प्रतरे विश्रेणि ह्र ।। १४. तिका एक थी जोय, वक्र श्रेणि कहिये अछ । दोय समय थी सोय, उत्पत्ति स्थानक ऊपजै ।। १३,१४. एगओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। यदा पुनर्मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानमेकप्रतरे विश्रेण्यां वर्त्तते तदैकतोवक्रा श्रेणिः स्यात् समयद्वयेन चोत्पत्तिस्थानप्राप्तिः स्यादित्यत उच्यते---'एगओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहणमित्यादि, (वृ. प. ९५६,९५७) वा०-तथा जिवारे मरण-स्थानक थकी उत्पत्ति स्थानक एक प्रतर विश्रेणि में वर्त छ, ते एक थी वक्र श्रेणि हुवे। समय बिहुं करी उत्पत्ति-स्थानक प्रतै पामवो हुवे, एतला माटै एगओवंका कहिये । १५. मरण-स्थान थी जान, उत्पत्ति-स्थानक अधस्तन । अथवा उपरितन मान, प्रतर विषे विश्रेणि है। १६. वक्र श्रेणि तब बेह, समय तीन करिने तिको। उत्पत्ति-स्थानक लेह, दुहओवका ते कही ।। १५,१६. दुहओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। यदा तु मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानमधस्तने उपरितने वा प्रतरे विश्रेण्यां स्यात्तदा द्विवक्राश्रेणि: स्यात् समयत्रयेण चोत्पत्तिस्थानावाप्तिः स्यादित्यत उच्यते'दुहओवंकाए' इत्यादि, (वृ. प. ९५७) वा०—जिवार वली मरणस्थान थकी उत्पत्तिस्थान अधस्तन अथवा उपरितन प्रतर नै विषे विश्रेणि हुवे तिवार, दोय वक्र श्रेणि हुवे । एतला मार्ट दुहओवंका कहिये। १७. एक पास नभ तास, एक थकी खहा तिका । बिहु पास आकाश, ते दुहओखहा कही ।। एगओखहा दुहओखहा ३६० भगवतो जोड़ Jain Education Intemational Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. चक्र आकार अर्द्ध विचार, चक्रवाल छठी कही । सप्तमी || चक्र आकार, अद्ध-चक्कवाला १९. * ऋजु - आयता श्रेणि हुवे यदा रे, मरण-स्थान थी जेण । उत्पत्ति स्थानक सम श्रेणि हुवै रे, ते ऋजु-आयत दीर्घ श्रेण ॥ २०. ते ऋजु आयत श्रेणि करि जावतो रे, एक समय नीं जाण । विग्रह गति करिने जे ऊपजै रे, ते ऋजु आयत पहिछाण ॥ २१. मरण स्थानक थी उत्पत्ति स्थानके रे, ते इक पासे व २२. ते इक पासे व वर्त्ते इक प्रतरे विश्रेण । श्रेणि हुवै रे, ते एगओवंका कहेण ।। श्रेणि करी रे, ऊपजतो थको जीव । दो समय विग्रह करि ऊपजै रे, ते एगओवंका कहीव ।। २३. मरण-स्थान थी उत्पत्ति स्थान ही रे, तल तथा ऊपर लेह | प्रतर विषे जे विश्रेणि करी रे, जीव ऊपजै तेह || २४. ए बिहु व गति श्रेणि करी रे, ऊपजतो थको जह। तीन समय विग्रह करि ऊपजे रे, ए दुहओवंका कहेह || २५. ति अर्थे करि हे गोयमा ! रे, जाव ऊपजे जीव । इक बे तीन समय विग्रह करी रे, उत्पत्ति एम कहीव ।। २६. अपज्जत्त सूक्ष्म ए पृथ्वी हे प्रभु ! रे, रत्नप्रभा पृथ्वी नै विषेह | पूर्व नां चरिमंत विषे जिको रे, समुद्घात करि जेह ॥ २७. आ रत्नप्रभा पृथ्वी तेहने विषे रे, पश्चिम नैं चरिमंत । पज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपणे रे, ऊपजवा जोग्य जंत ॥ २८. हे प्रभु ! तेह केतला समय में रे, विग्रह करि उपजेह ? जिन है एक समय विग्रह करी रे, तथा दोय समय विग्रह || २९. शेष तिमज कहिवो यावत जिको रे, तिण अर्थे करि ताम । यावत विग्रह करि ऊपजै रे, द्वितीय आलावो आम || *लय : कार्य पुत्रा हो चतुर हुवं जिको जी Oi चक्कवाल उज्जुआयता F एगओवंका ऽ D अद्धचक्कवाल दुओका २५. से तेणट्ठेणं गोयमा ! जाव उववज्जेज्जा । (श. ३४ | ३ ) २६. अपज्जत्तासुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रणप्पा पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता २७. जे भविए इमी से रयणप्पभाए पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिते पत्ता हुमपुढविका इयत्ताए उववज्जित्तए, २८. से भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! एगसमइएण वा २९. सेसं तं चैव जाव से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ – एगसनइएणं वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गणं उववज्जेज्जा । श० ३४, अन्तर श. १, उ० १, ढा० ४८५ ३६१ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. एवं अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइओ पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता बाद र पुढविकाइएस ३१. पच्च थिमिल्ले चरिमते अपज्जत्तएसु उववाएयव्वो, ३२,३३. ताहे तेसु चेव पज्जत्तएसु । ३४-३८. एवं आउक्काइासु चत्तारि आलावगा सुहुमेहि अपज्जत्तएहि, ताहे पज्जत्तहिं, बादरेहि अपज्जत्तएहि, ताहे पज्जत्तएहि उववाएयव्यो । ३०. इम अपज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वीकाइयो रे, पूर्व नै चरिमंत । समुद्घात मारणांति कराय नैं रे, आयु पूरो करि जंत ।। ३१. पश्चिम नां चरिमंत विषे तिको रे, बादर पृथ्वीकाय । तसु अपजत्त नै विषे उपजाविवो रे, ए तृतीय आलावो ताय ।। ३२. तेहिज अपज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वी रे, पूर्व नैं चरिमंत । समुद्घात मारणांति कराय ने रे, आयु पूरो करि जंत ॥ ३३. पश्चिम नां चरिमंत विषे तिको रे, बादर पृथ्वीकाय । तसु पर्याप्ता विषे उपजाविवो रे, ए तुर्य आजावो ताय ।। ३४. इम अपज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय नैं रे, सूक्ष्म जे अपकाय । अपर्याप्त नै विष उपजाविवो रे, प्रथम आलावे आय ।। ३५. इम अपज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय नैं रें, सूक्ष्म जे अपकाय । पर्याप्त नै विषे उपजाविवो रे, द्वितीय आलावो कहाय ।। ३६. इम अपजत्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय नैं रे, बादर जे अपकाय । अपर्याप्त नै विषे उपजाविवो रे. ___ए तृतीय आलावो ताय ।। ३७. इम अपज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय ने रे, बादर जे अपकाय। पर्याप्त नै विषे उपजाविवो रे, तुर्य आलावो ताय ।। ३८. च्यार आलावा इम अपकाय में रे, पृथ्वी उपजै तास । पूर्व कह्या तेहिज संक्षेप थी रे, कहियै छै सुविमास ।। सोरठा ३९. सूक्ष्म अपज्जत्त जेह, सूक्ष्म अपज्जत्त नै विषे । सूक्ष्म अपज्जत्त तेह, सूक्ष्म पर्याप्तक विषे ।। ४०. सूक्ष्म अपज्जत्त जेह, बादर अपर्याप्त विषे । सूक्ष्म अपज्जत्त तेह, बादर पर्याप्तक विषे ।। ४१. *इमहिज सूक्ष्म पृथ्वीकाइयो रे, सूक्ष्म तेउ संघात । अपज्जत्त अनै पर्याप्त नै विषे रे, उपजाविवो विख्यात ।। *लय : कार्य सुधार हो चतुर हुवै जिको जी ३६२ भगवती जोड़ ४१. एवं चेव सुहुमते उकाइएहि वि अपज्जत्तएहिं ताहे पज्जत्तएहि उववाएयव्वो। (श. ३४१४) Jain Education Intermational Jain Education Intemational Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ४२. सूक्ष्म मही अपज्जत्त, सूक्ष्म तेऊकाय नां। अपज्जत्तपणे उपत्त, प्रथम आलावो ए कह्यो ।। ४३. सूक्ष्म मही अपजत्त, सूक्ष्म तेऊकाय नां । पज्जत्तपणे उपपत्त, द्वितीय आलावो जाणवो ।। हिवं तृतीय चतुर्थ आलावो वा०--सूक्ष्म पृथ्वीकाय नों अपर्याप्तो बादर तेउकाय नां अपर्याप्ता ने विषे ऊपज, ए तीजो आलावो। अने सूक्ष्म पृथ्वी काय नों अपर्याप्तो बादर तेऊकाय नां पर्याप्ता नै विष पिण ऊपज, ए च उत्यो आलावो-ए बिहुं आलावा ४४. अपज्जत्तासुहुमपुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता ४५. जे भविए मणुस्सखेत्ते अपज्जत्ताबादरतेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए, ४६ से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? सेसं तं चेव। ४७. एवं पज्जत्ताबादरतेउक्काइयत्ताए उववाएयव्वो। ४८. वाउक्काइएसु सुहुमबादरेसु जहा आउक्काइएसु उववाइओ तहा उववाएयव्वो। ४४. *अपज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वीकाइयो रे, मही रत्नप्रभा नै विषेह । पूर्व नां चरिमंत विषे तिको रे, ___ समुद्घात करि जेह ।। ४५. मनुष्यक्षेत्र में जे अपर्याप्तो रे, बादर तेऊकाय । तेहपणे ऊपजवा योग्य छ रे, अन्य स्थान बादर तेऊ नांय ।। ४६. हे प्रभु ! तेह केतला समय नै रे, विग्रह करी उपजत ? शेष तिमज पूर्व जे भाखिया रे, तेहनी पर विरतंत ।। ४७. इम अपज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वीकाइयो रे, पज्जत्त बादर तेऊकाय । तेहपणे उपजाविवो विधि करी रे. ए तुर्य आलावो ताय ।। ४८. वाउकाय सूक्ष्म बादर विषे रे, जिम अपकाय विषेह । उपजाव्यो तिमहिज उपजाविवो रे, चिहुं आलाव करेह ।। ४९. एम वनस्पतिकाय विषे अपि रे, चिहुं आलाव जगीस। अपज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वी नां थया रे, एह आलावा बीस ॥ सोरठा ५०. ए बीस आलावा ताहि, अपज्जत्त सूक्ष्म मही जिको। पंच स्थावर रे मांहि, उपजै तेहनां आखिया ।। ५१. पज्जत्त सूक्ष्म महीकाय, बीस स्थानक में ऊपजै । पंच स्थावर रै मांय, कहिय ते आगल हिवे ।। ५२. *पज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक प्रभु रे ! ए रत्नप्रभा मही नै विषेह ? इत्यादिक पूर्ववत जाणवा रे, प्रश्नोत्तर छै जेह ।। *लय : कार्य सुधार हो चतुर हुवै जिको जी ४९. एवं वणस्सइकाइएसु वि । (श. ३४१५) ५२. पज्जत्तासुहुमपुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयण प्पभाए पुढवीए? श० ३४, अन्तर श०१, उ०१, ढा.४८५ ३६३ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. एम पज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वी अपि रे, पूर्व चरिमंत विषेह । समुद्घात मारणांति कराय नैं रे, इम इण अनुक्रमेह ।। ५४. एहिज बीस स्थानक तेहने विषे रे, उपजाविवो विचार । तेवीस स्थानक कहियै छै जुजूआ रे, सांभलजो धर प्यार ।। ५३. एवं पज्जत्तासुहुमपुढविक्काइओ वि पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता एएणं चेव कमेणं ५४. एएसु चेव वीससु ठाणेसु उववाएयव्वो ५५. 'वीससु ठाणेसु' त्ति, पृथिव्यादयः पञ्च सूक्ष्मबादरभेदाद् द्विधेति दश, (वृ. प. ९५७) ५६. ते च प्रत्येक पर्याप्तकापर्याप्तकभेदाद्विशतिरिति । (वृ. प. ९५७) ५७. जाव बादरवणस्सइकाइएस् पज्जत्तएस वि । ५८. एवं अपज्जत्ताबादरपुढविकाइओ वि । सोरठा ५५. मही अपतेऊकाय, वाउ वनस्पति वली। सूक्ष्म बादर ताय, बिहुं भेदे करि दश हवै ।। ५६. ए दश नां पहिछाण, पज्जत्तापज्जत्त द्वि भेद करि । बीस हुवै इम जाण, ए बीस विषे उपजाविवो ।। ५७. *यावत बादर वणस्सइकाय में रे, पज्जत्त विषे उपपात । चरम आलावो एह पिछाणवो रे, ए चालीस आलावा ख्यात ।। ५८. इम अपज्जत्त बादर पृथ्वी अपि रे, बीस स्थानक नै विषेह । उपजाविव करीने जाणवा रे, बीस आलावा जेह । ५९. एम पज्जत बादर पृथ्वी अपि रे, बीस स्थान नैं विषेह । उपजाविवै करिने जाणवा रे, बीस आलावा जेह ।। ६०. इम अपकाय विषे पिण जाणवा रे, चिहं पिण गमा विषह । पूर्वला चरिमंत विषे जिका रे, समुद्घात करि जेह ।। ६१. इत्यादिक जे वक्तव्यता कही रे, एहिज बीस स्थानक नै विषेह । उपजाविवो पूर्वे कह्यो तिण विधे रे, असी आलावा एह ।। वा०-ए पृथ्वी नां ५० अलावा अन अपकायिक ना पिण ८० आलावा--- एवं १६० । सूक्ष्म तेऊ अपज्जत्त वा पज्जत्त ऊपज, तेहनां बीस-बीस आलावा कहै ५९. एवं पज्जत्ताबादरपुढविकाइओ वि। ६०. एवं आउकाइओ वि चउसु वि गमएसु पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए ६१. एयाए चेव वत्तव्वयाए एएसु चेव वीसइठाणेसु उववाएयव्यो। ६२. सुहुमतेउकाइओ वि अपज्जत्तओ पज्जत्तओ य एएसु चेव बीसाए ठाणेसु उबवाएयब्वो। (श. ३४१६) ६२. सूक्ष्म तेऊकायिक पिण वली रे, अपज्जत्त तथा पज्जत्त । एहिज बीस स्थानक तेहने विषे रे, उपजाविवोज तत्थ ।। वा. ए तेउकायिक सूक्ष्म अपर्याप्ता ना २० अनै सूक्ष्म पर्याप्त ना २० ए बे भेद जीवस्थानक ना ४० आलावा थया । एवं सर्व २०० आलावा थया। हिवै अपज्जत्त बादर तेऊ ए मनुष्यक्षेत्र में समुद्घात करी ए रत्नप्रभा पृथ्वी नां पश्चिम चरिमंते पृथ्वीपणे ऊपजे ते । ६३. अपज्जत्त बादर तेऊकायिको रे, हे भगवंतजी ! तेह। मनुष्यक्षेत्र छै ए तेहने विषे रे, समुद्घात करि जेह ।। ६४. ए रत्नप्रभा पृथ्वी तेह. विषे रे, पश्चिम नै चरिमंत । अपज्जत्त सूक्ष्म महीकायिकपणे रे, ऊपजवा योग्य हुँत ।। ६३. अपज्जत्ताबादरते उक्काइए णं भंते ! मणुस्सखेत्ते समोहए, समोहणित्ता ६४. जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तासुहुमपुढविक्काइयत्ताए उववज्जित्तए, ६५. से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? सेसं तहेव जाव से तेणठेणं । ६६. एवं पुढविक्काइएसु चउविहेसु वि उववाएयब्बो एवं आउकाइएसु चउविहेसु वि, ६५. हे प्रभु ! तेह केतला समय में रे, विग्रह करि उपजंत ? शेष तिमज पूर्ववत जाव ही रे, तिण अर्थे इम हंत ।। ६६. इम पृथ्वी च्यारेइ नै विषे रे, उपजाविवो पिछाण । इम अप नां चिहुं भेद विषे वली रे, उपजाविवो सुजाण ।। *लय : कार्य सुधार हो चतुर हुवै जिको जी ३६४ भगानी जोर Jain Education Intemational Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. तेउकाइएसु सुहमेसु अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु य एवं चेव उववाएयव्वो। (श. ३४१७) ६८. अपज्जत्ताबादरते उक्काइए णं भंते ! मणुस्सखेत्ते समोहए, समोहणित्ता ६९. जे भविए मणस्सखेत्ते अपज्जत्ताबादरते उक्काइयत्ताए उववज्जित्तए, ७०. से णं भंते ! कतिसमइएणं ? सेसं तं चेव । एवं पज्जत्ताबादरतेउक्काइयत्ताए वि उववाएयव्यो । ७१. वाउकाइयत्ताए य वणस्सइकाइयत्ताए य जहा पुढविकाइएसु तहेब चउक्कएणं भेदेणं उववाएयबो। ६७. तेऊकायिक अपज्जत्त नै विषे रे, पर्याप्तक विषेह । इमहिज पूर्ववत उपजाविवो रे, वारू विधि करि जेह ।। वा०-हिवै अपज्जत्त बादर तेऊ मनुष्यक्षेत्र में समुद्घात करी मनुष्यक्षेत्रे अपज्जत्त बादर तेऊपणे ऊपजे ते। ६८. अपज्जत्त बादर तेऊकायिको रे, हे भगवंतजी ! तेह । मनुष्यक्षेत्र छै ए तेहने विषे रे, समुद्घात करि जेह ।। ६९. मनुष्यक्षेत्र में विषेज ते वली रे, अपज्जत्त बादर जाण ।। तेऊकायपणे ते जीवड़ो रे, ऊपजवा योग्य पिछाण ।। ७०. हे प्रभु ! तेह केतला समय में रे, शेष तिमज कहिवाय । एम पज्जत्त बादर तेऊपणे रे, उपजाविवोज ताय ।। ७१. वायुकायपणे वणस्सइपणं रे, जिम महीकाय विषेह । आख्यो तिमज चिहुं भेदे करी रे, उपजाविवो विधेह ।। वा०--हिवं पर्याप्त बादर तेउ ना २० आलावा । ७२. एम पज्जत्त बादर तेऊ अपि रे, समयक्षेत्र समुद्घात । तेह करावी बीस स्थानक विषे रे, उपजाविवो विख्यात ।। ७३. जिमहिज बादर अपज्जत्त तेऊ नों रे, उपजायो छै जान । इम सर्वत्र बादर तेऊ तणां रे, अपज्जत्त पज्जत्त पिछान ।। ७४ समयक्षेत्र विषे उपजाविवो रे, कराविवो समुद्घात । ए चालीस आलावा जाणवा रे, सर्व दोयसौ चालीस ख्यात ।। ७५. असी आलावा वाऊकाय नां रे, एवं सर्वज ताय । तीनसौ बीस आलावा जाणवा रे, हिव वनस्पति नां आय ।। ७६. असी आलावा वनस्पति तणां रे, पृथ्वीकायिक जेम । तिमज भेद चिहुं करी उपजाविवा रे, तसु चरम आलावो एम ।। ७७. जाव पर्याप्त बादर वणस्सइ रे, हे भगवंतजी ! तेह । ए रत्नप्रभा ने पूर्व चरिमंत विषेरे, समुद्घात करि जेह ।। ७२. एवं पज्जत्ताबादरतेउकाइयो वि समयखेत्ते समोहणा वेत्ता एएसु चेव वीसाए ठाणेसु उववाएयव्वो। ७३. जहेब अपज्जत्तओ उबवाइओ एवं सव्वत्थ वि बादरतेउकाइया अपज्जत्तगा य पज्जत्तगा य ७४. समयखेत्ते उववाएयव्वा समोहणावेयव्वा वि । ७५,७६. बाउक्काइया वणस्सइकाइया य जहा पुढविक्काइया तहेव चउक्कएणं भेदेणं उववाएयव्वा ७८. आ रत्नप्रभा पृथ्वी छ तेहनै रे, पश्चिम नैं चरिमंत । पज्जत्तक बादर वनस्पति तणां रे, ऊपजवा योग्य जंत ।। ७७. जाव---- (श. ३४८) पज्जत्ताबादरवणस्सइकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता ७८. जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चथिमिल्ले चरिमंते पज्जत्ताबादरवणस्सइकाइयत्ताए उव वज्जित्तए, ७९. से णं भंते ! कतिसमएणं? सेसं तहेव जाव से तेणठेणं। (श. ३४।९) ७९. हे प्रभु ! तेह केतला समय नै रे, विग्रह करि उपजेह ? शेष तिमज कहिवो पूर्व परै रे, यावत तिण अर्थेह ।। वा०---ए च्यारसो आलावा पूर्व नां चरिमंत नै विषे अनै समयक्षेत्र में समुदघात करी पश्चिम नै चरिमते अनै समयक्षेत्रे ऊपजै, तेहना कह्या । हिवै पश्चिम नैं चरिमंते समुद्घात करी पूर्व नै चरिमते ऊपज ते कहै छ८०. अपज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वीकाइयो रे, मही रत्नप्रभा नै विषेह । पश्चिम नां चरिमंत विषे प्रभु ! रे, समुद्घात करि जेह ।। ८०. अपज्जत्तासुहमपृढ विक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता ८१. जे भविए इमोमे रयणप्पभाए पुढबीए पुरथिमिल्ले चरिमते अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइयत्ताए उवबज्जित्तए ८१. ए रत्नप्रभा पृथ्वी छै तेहने रे, पूर्वे नैं चरिमंत । __ अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीपणे रे, ऊपजवा योग्य हुंत ।। श०३४, अन्तर श०१,०१, ढा० ४८५ ३६५ Jain Education Intemational Education International Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२. से णं भंते ! कइसमइएणं ? सेसं तहेव निरवसेस । ८२. हे प्रभ ! तेह केतला समय नै रे, विग्रह करि उपजत । शेष तिमज हि समस्तपणे करी रै, कहिवो सर्व उदंत ।। ८३. इम जिमहिज पूर्व चरिमंत विषे रे, सर्व पदे समुद्घात । पश्चिम चरिमंत अनें समयक्षेत्र में रे, वलि उपजाविवो अवदात ।। ८४. समुद्घात जे समयक्षेत्र करी रे, पश्चिम चरिमंत विषेह । बलि समयक्षेत्र माहै उपजाविवो रे, तिणज आलावा करेह ।। ८३. एवं जहेव पुरथिमिल्ले चरिमंते सव्वपदेसु वि समोहया पच्चथिमिल्ले नरिमंते समयखेत्ते य उववाइया, ८४, जे य समयखेत्ते समोहया पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उबवाइया, एवं एएणं चेव कमेणं पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य समोहया पुरथिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववाएयव्वा तेणेव गमएण। ८५, एवं एएणं गमएणं दाहिणिल्ने चरिमंते समोहयाणं उत्तरिल्ले चरिमंते समयखेत्तं य उववाओ। ८५. इम ए दक्षिण नां चरिमंत विषे रे, __ वलि समयखेत समुद्घात । उत्तर चरिमंत वले समयक्षेत्र में रे, कहिवू तसु उपपात ।। वा.-इहां पिण ४०० आलावा । ५६. इमहिज उत्तर नां चरिमंत विषे रे, वलि समयखेते समुद्घात । दक्षिण चरिमंत अने समयक्षेत्र में रे, तिणहिज आलावे करि उपपात ।। वा०-इहां पिण ४०० आलावा । एवं सर्व १६०० । ८७. शत चउतीसम देश प्रथम तणों रे, च्यार सय पिच्यासीमी ढाल । भिक्ष भारीमल ऋषिराय प्रसाद थी रे, 'जय-जश' मंगलमाल । ८६. एवं चेव उत्तरिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य समोहया दाहिणिल्ले चरिमंते समयखेत्त य उववाएयव्वा तेणेव गमएणं । (श. ३४११०) ढाल : ४८६ एकेन्द्रिय जीवों की विग्रह गति (ख) दूहा १. प्रभु ! अपज्जत सूक्ष्म पृथ्वी, सक्करप्रभा मही जेह। पूर्व नां चरिमंत विषे, समुद्घात करी तेह ॥ २. सक्करप्रभा पृथ्वी तणां, पश्चिम चरिमंतेह। अपज्जत्त सूक्ष्म महीपणे, योग्य ऊपजवा जेह ।। १. अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइए णं भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता २. जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए? ३. एवं जहेव रयणप्पभाए जाव से तेणठेणं अपण ३. जिमहिज रत्नप्रभा विषे, आख्यो उदंत जेह। ___ तिमहिज कहिवो छै इहां, यावत तिण अर्थेह ॥ ४. इम इण अनुक्रमे करी, जाव पर्याप्त जेह। सूक्ष्म तेऊ ने विषे, ऊपजै त्यां लग लेह ।। ४. एवं एएणं कमेणं जाव पज्जत्तएसु सुहुमतेउकाइएसु । (श. ३४.११) ३६६ भगवतो जाड़ Jain Education Intemational Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. अपज्जत्त सूक्ष्म मही प्रभु ! सक्करप्रभा नां जेह । पूर्व नां चरिमंत विषे, समुद्घात करि तेह ।। ६. जेह समयक्षेत्रज विषे, अपज्जत्त बादर जेह । तेऊकायपण जिको, योग्य ऊपजवा तेह ।। ७. प्रभु ! तेह केतला समय ने, विग्रह करि उपजत ? एम प्रश्न पूछा थकां, भाक्ष श्री भगवंत ।। ८. दोय समय करिक तथा, तीन समय करि ताम । विग्रह करिने ऊपज, उत्तर ए अभिराम ।। ९. इहां सक्करप्रभा तणां, पूर्व चरिमंत थकीज । ऊपजतां मनुक्षेत्र में, तमु समश्रेणी नहींज ।। १०. ते माटै इक समय करि, नहीं तेहY उपपात । विग्रह बे त्रिण समय करि, उपजवं आख्यात । ११. दोय समय विग्रह तसु, वक्र समय इक जोय । तीन समय विग्रह तसु, वक्र समय बे होय ।। *जिनेश्वर ! धन्य-धन्य तुम्ह ज्ञान, संसय तिमर निवारवा जी, जाणक ऊगो भान । जिनेश्वर धन्य धन्य तुम्ह ज्ञान ।। (ध्रुपदं) १२. किण अर्थ इम आखियै जी? तब भाख जगनाथ । इम निश्च करि गोयमा ! म्है श्रेणि परूपी सात ।। ५. अपज्जत्तासुहमपुढविक्काइए णं भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता ६. जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्ताबादरतेउक्काइयत्ताए उववज्जित्तए, ७. से णं भंते ! कतिसमइएणं-पुच्छा। गोयमा ! ८. दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेण उववज्जेज्जा। (श. ३४।१२) ९. इह शर्कराप्रभापूर्वचरमान्तान्मनुष्यक्षेत्रे उत्पद्यमानस्य समणिर्नास्तीति । (वृ. प. ९५७) १०,११. 'एगसमइएण' मितीह नोक्तं, 'दुसमइएण' मित्यादि त्वेकबक्रस्य द्वयोर्वा सम्भवादुक्तमिति । (व. प. ९५७) १२. से केणठेणं? एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-- १३. उज्जुयायता जाव अद्धचक्कवाला। १४. एगओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। १५. दुहओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा । १६. से तेणठेणं । एवं पज्जत्तएसु वि बादरतेउक्काइएसु । १७. सेसं जहा रयणप्पभाए। १३. उज्जु-आयता आदि दे जी, जाव अर्द्धचक्रवाल । इतरा लगे कहीजिय जी, पूर्वली पर न्हाल ।। १४. एक वक्र श्रेणी करी जी, जीव उपजतो जान । दोय समय विग्रह करी जी, उपजै तेह पिछान ॥ १५. दोय वक्र श्रेणी करी जी, उपजतो थको जेह । तोन समय विग्रह करी जी, उपजै जंतु तेह । १६. तिण अर्थे इम आखियै जी, इम पज्जत्त बादर तेऊ माय । अपर्याप्त सूक्ष्म मही जी, तसु उपजवू थाय ।। १७. शेष विस्तारज एहनों जी, जिम रत्नप्रभा नं विषेह । आख्यो तिम कहिवो इहां जी, वारू विधि करि लेह ।। १८. वलि जिके पिण जाणवा जी, बादर तेऊ विख्यात । अपज्जत्त फुन पर्याप्ता जी, करि समयक्षेत्रे समुद्घात ॥ १९. जे दूजी पृथ्वी तणें जी, पश्चिम चरिमंत विषेह। पृथ्वीकायिक नां जिके जी, चिहुं भेद विषे उपजेह ।। २०. आऊकायिक नां वली जी, च्यारूं भेद विषेह । तेजस्कायिक नां इहां जी, बे भेद विषे उपजेह ।। २१. वायुकायिक नां वली जी, च्यारूं भेद विषेह । वनस्पतिकायिक तणां जी, चिहुं भेद विषे उपजेह ।। २२. ते पिण इमहिज जाणवा जी, दोय समय विग्रहेण । तथा तीन समय विग्रह करी जी, उपजाविवा कहेण ॥ *लय : धीरज जीव धरै नहीं रे १८. जे वि बादरतेउकाइया अपज्जत्तगा य पज्जत्तगा य समयखेत्ते समोहणित्ता १९. दोच्चाए पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते पुढवि काइएसु चउबिहेसु, २०. आउक्काइएसु चउव्विहेसु तेउकाइएसु दुविहेसु, २१. वाउकाइएसु चउव्विहेसु, वणस्सइकाइएसु चउब्विहेसु उववज्जति, २२. ते वि एवं चेव दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववाएयव्वा । श० ३४. अन्तर श०१, उ०१, ढा०४८६ ३६७ Jain Education Intemational Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. बादरतेउक्काइया अपज्जत्तगा य पज्जत्तगा य जाहे तेसु चेव उबवज्जति २३. बादर तेऊ अपज्जत्ता जी, वलि पज्जत्तगा तेह । जद बादर तेऊ अपज्जत्त विषे जी, वा पज्जत्त विष उपजेह ।। २४. तद जेहिज रत्नप्रभा विषे जी, तिमहिज समयो एक । बे समय तीन समये करी जी, विग्रह भणिवो पेख ।। २५. शेष जिम रत्नप्रभा विषे जी, आख्यो छै अधिकार । तिमज समस्तपणे करी जी, कहि सहु विस्तार ।। २६. जिम सक्करप्रभा पृथ्वी विष जी, वक्तव्यता आख्यात । इम यावत तल सप्तमी जी, पृथ्वी लग अवदात ।। २४. ताहे जहेव रयणप्पभाए तहेव एगसमइय-दुसमइय तिसमइयविग्गहा भाणियव्वा, २५. सेसं जहेव रयणप्पभाए तहेव निरवसेस । २६. जहा सक्करप्पभाए वत्तब्बया भणिया एवं जाव अहेसत्तमाए भाणियव्या। (श. ३४।१३) २७. अथ सामान्येनाध:क्षेत्रमूर्वक्षत्रं चारित्याह---- (व. प. ९५७) २८. अपज्जत्तासहुमपुढविक्काइए ण भते ! अहेलोयखेत्त नालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए, समोह णित्ता वा० ... 'अहोलोयखेत्तनाली' ति अधोलोकलक्षणे क्षेत्रे या नाडी-वसनाडी साऽधोलोकक्षेत्रनाडी तस्या:, (वृ. प. ९६०) २९. जे भविए उढलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, वा०-एवमूर्ध्वलोकक्षेत्रनाड्यपीति, (वृ. प. ९६०) दूहा २७. अथ सामान्य करी वली, अधःक्षेत्र अथवाज । उर्द्ध क्षेत्र में आश्रयी, करै प्रश्न ऋषिराज ।। २८. *प्रभु ! अपज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वी जी, अधोलोक क्षेत्र ख्यात । असनाड़ी नां बाहिरला जी, क्षेत्र विषे समुद्घात ।। वा० - अहोलोयखेत्तनालीएत्ति-अधोलोक लक्षण क्षेत्र नै विषे जिका नाड़ी तिका अधोलोक क्षेत्रनाड़ी तेहना बाहिर ना क्षेत्र विषे मारणांतिक समुद्घात कर, करी नैं। २९. ऊर्द्धलोक खित्तनाड़ी नां जी, बाहिर क्षेत्र विषेह । अपज्जत्त सूक्ष्म महीपणे जी, योग्य उपजवा जेह ।। वा०-उड्ढलोयखेत्तनालीएत्ति उर्द्धलोक लक्षण क्षेत्र नै विषे जिका नाड़ी तिका उर्द्धलोक क्षेत्रनाड़ी, तेहना बाहिर ना क्षेत्र नै विषे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपणे जे ऊपजवा योग्य छै ते । ३०. हे प्रभुजी ! ते केतला जी, समय तणे सुविचार । विग्रह करीने ऊपजै जी? गोयम प्रश्न उदार ।। ३१. जिन भाखै त्रिण समय नै जी, तथा च्यार समयेण । विग्रह करिने ऊपजै जी, आगल न्याय कहेण ।। ३२. प्रभु ! किण अर्थे इम आखियै जी, तीन समय विग्रहेण । तथा च्यार समय विग्रह करी जी, ऊपज इम प्रश्नेण ? ३३. जिन भाखै अपर्याप्ता जी, सूक्ष्म पृथ्वी जेह । अधोलोक खित्तनाड़ी नां जी, बाहिर क्षेत्र विषेह ।। ३४. तिहां समुद्घात करिनै मरी जी, उर्द्धलोक क्षेत्र मांय । त्रस नाड़ी ना बाहिरला जी, क्षेत्र विषे कहिवाय ।। ३५. अपज्जत्त सूक्ष्म महीपण जी, एक प्रतर अनुश्रेण । तिहां उपजवा योग्य छै जी, ते उपजै तीन समय विग्रहेण ।। सोरठा ३६. सूक्ष्म मही अपज्जत्त, अधोलोक खित्तनाड़ी थी। बाहिर पासे तत्थ, पूर्वादिक दिशि में मरी ।। ३०. से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? ३१. गोयमा ! तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा। (श. ३४११४) ३२. से ये णठेणं भते ! एवं वृच्चइ-तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा? ३३. गोयमा ! अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइए णं अहेलोय खेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते ३४. समोहए, समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते ३५. अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइयत्ताए एगपयरंसि अणुसेडिं उववज्जित्तए, से णं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। ३६-३९. 'तिसमइएण व' त्ति, अधोलोकक्षेत्रे नाड्या बहिः पूर्वादिदिशि मृत्वकेन नाडीमध्ये प्रविष्टो द्वितीये समये ऊर्व गतस्तत एकप्रतरे पूर्वस्या पश्चिमायां वा *लय: धीरज जीव धरै नहीं रे ३६८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदोत्पत्तिर्भवति तदाऽनुश्रेण्या गत्वा तृतीयसमये उत्पद्यत इति, (बृ. प. ९६०) ४०. जे भविए विसेदि उववज्जित्तए, से णं चउसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। ४१. से तेणठेणं जाव उववज्जेज्जा। ३७. एक समय करि जेह, पेठो नाड़ी ने विषे । बीजा समय विषेह, ऊंचो गयो तठा पछै ।। ३८. एक प्रतर में तेह, जे पूर्व दिशि नै विषे । अथवा पश्चिम विषेह, तसु ऊपजवू कै यदा।। ३९. तब करिनै अनुश्रेण, तृतीय समय जइ ऊपजै । इह विधि त्रिण समयेण, विग्रह करिने ऊपजै॥ ४०. *जे भविक विणि उपजवा जी, च्यार समय नै तेह । विग्रह करिने ऊपजै जी, तिण अर्थे वच एह ॥ ४१. तिण अर्थे करि गोयमा ! जी, यावत उपजे तेह । विग्रह च्यार समय तणी जी, भाखी इम सूत्रेह ।। वा०-जे अधोलोक त्रस नाडि थी बाहिर मरी ऊर्द्धलोक त्रस नाडि बाहिर विश्रेणि ते विदिशि में ऊपज ते च्यार समय की विग्रह गति जाणवी । अत्र वृत्तिकार का -- जे भविक जिवारै नाडि थी बाहिर वायव्यादि दिशि नै विषे मूओ तिवारै एक समये करी पश्चिम दिशि नै विषे तथा उत्तर दिशि ने विषे गयो, बीजे समये नाडि नै विषे पेठो, त्रीजे समये ऊंचो गयो, चउथे समये अनुश्रेणि जाई ने पूर्व दिशि मे ऊपज । इहां वृत्ति में चउथे समये अनुश्रेणि ऊपज, इम कां । अने सूत्रे चउथे समये विश्रेणि ऊपजवू कां । इण न्याय ए वृत्ति नी वारता किम मिल ? इहां कोई पूछ- जो सप्तम पृथ्वी विदिशि नै विषे मरी ब्रह्मलोके विदिशि ने विषे ऊपजे ते पंच समय नी गति करिक ऊपजै। ते पंच समय नी विग्रह गति किम न कही ? इति प्रश्न । एहनों उत्तर-उत्पात नां अभाव थकी सूत्रे पंच समया न कह्या, एहवू न्याय दीस छ। बलि कोई अनेरो न्याय हुसी तो ते पिण बहुश्रत जाणे । जो पंच समय नी विग्रह गति स्थाप तो बिचला तीन समय अनाहारक हुवे। अने पन्नवणा पद १८ में छद्यस्थ जीव उत्कृष्ट बे समय अनाहारक कह्या । बे समय अनाहारक तो च्यार समय नी विग्रह गति नै विषे बिचले बे समय हवै । ते मार्ट पंच समय नी विग्रह गति किम मिल ? अनै तीन समय अनाहारक पिण किम हुवै ? अथवा तीन समय नी विग्रह गति नै विषे तीजे समय ऊपज । तिहां प्रथम, द्वितीय, समय अनाहारक हुदै । तीजे समय आहारक हुदै । इम अनाहारकपणं उत्कृष्ट बे समय रहै। ४२. इम पज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वीपणे जी, एवं यावत ताय । पज्जत्त सूक्ष्म तेऊपणे जी, ऊपजवू कहिवाय ।। ४३. अपज्जत्त सूक्ष्म मही प्रभुजी ! अधोलोक रै मांहि । इत्यादिक यावत तिको जी, समुद्घात करि ताहि ॥ ४४. समयक्षेत्र नै विषे जिको जी, अपज्जत्त बादर जाण । तेऊकायपण तिको जी, ऊपजवा योग्य माण ।। ४५. हे प्रभुजी ! ते जीवड़ो जी, किता समय नैं जाण । विग्रह करिने ऊपजै जी? हिव भाखै जगभाण ।। ४६. दोय समय विग्रह करी जी, तथा तीन समयेह । विग्रह करिने ऊपज जी, किण अर्थे प्रभु ! तेह ? *लय : धीरज जीव घर नहीं रे वा०-'चउसमइएण व' त्ति यदा नाड्या बहिर्वायव्यादिविदिशि मृतस्तदैकेन समयेन पश्चिमायामुत्तरस्यां वा गतो द्वितीयेन नाड्या प्रविष्टस्तृतीये ऊध्वं गतश्चतुर्थेऽनुश्रेण्यां गत्वा पूर्वादिदिश्युत्पद्यत इति, इदं च प्रायोवृत्तिमङ्गीकृत्योक्तं, अन्यथा पञ्चसामयिक्यपि गतिः सम्भवति, यदाऽधोलोककोणादूर्वलोककोण एवोत्पत्तव्यं भवतीति, भवन्ति चात्र गाथाः'सुत्त चउसमयाओ नत्यि गई उ परा विणिहिट्ठा । जुज्जइ य पंचसमया जीवस्स इमा गई लोए ॥१॥ जो तमतमविदिसाए समोहओ बंभलोगविदिसाए । उववज्जइ गईए सो नियमा पंचसमयाए ॥२॥' (व. प. ९६०, ९६१) छउमत्थअणाहारए णं भंते ! छउमत्थअणाहारए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा ! जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो समया। (पण्णवणा १८९८) ४२. एवं पज्जत्तासुहुमपुढविकाइयत्ताए वि, एवं जाव पज्जत्तासुहुमतेउकाइयत्ताए। (श. ३४।१५) ४३. अपज्जत्तासुहमपुढविक्काइए णं भंते ! अहेलोग जाव (स.पा.) समोहणित्ता ४४. जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्ताबादरतेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए, ४५. से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! ४६. दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उबवज्जेज्जा । (श. ३४।१६) से केणठेणं? श० ३४, उ०१, ढा०४८६ ३६९ Jain Education Intemational Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. जिन कहै इस निश् करी जी, म्है श्रेणि परूपी सात । ऋजुआयत यावत कही जी, अधचक्कवाल विख्यात || ४८. एक वक श्रेणि करी जी ऊपजतो अवधार दोष समय विग्रह करी जी, ऊपजे तेह तिवार॥ ४९. दोय व श्रेणी करी जी, ऊपजतो धको जीव । त्रिण समय विग्रह करि ऊपज जी, तिण अर्थेज कहीव || ५०. एम पज्जत्त बादर तिको जी, तेउ विषे पिण ताहि । पूर्व विधि उपजाविवो जी, समयक्षेत्र रे मांहि ॥ ५१. वायू वनस्पतिपर्णं जी, चउक्क भेद करि छाण । उपजाव्यो जिम अपपणे जी, तिम उपजावियो जाण || ५२. इम अपज्जत्त सूक्ष्म मही तणों जी, जेम गमो आख्यात | इम पज्जत सूक्ष्म महीनों अपि जी, कहियो छ अवदात || उपजाविवो जगीस | जी, कह्या आलावा चालीस || ५४. अधोलोक क्षेत्र नाहि ने जो, बाहिरला क्षेत्र विषेह | समुद्घात मारणांतिकी जी, कियो अंत समयेह ॥ ५५. इम बादर महो नैं विषे अपि जी, अपज्जत्त नैं अवधार । अथवा पर्याप्त जो कहिवो सर्व विचार ॥ ५६. इम अप चविध ने अपि जो, भणिवो सूक्ष्म तेककाय में जी, द्विविध नं तिमहीज। इमहीज || ॥ ५३. तिमज बीस स्थानक विषे जी, ए अपजत पज्जत्त पृथ्वी तणां ५७. पर्याप्त बलि समयक्षेत्र विषे , जाणवो जो तिको जो ५८. लोक क्षेत्र नादि में जो अपज्जत सूक्ष्म महीपण जो, ५९. हे प्रभुजी ! ते जीवड़ो जी, विग्रह करिनें ऊपजै जी ? ६०. दोय समय विग्रह करी जी बादर तेऊकाय । समुद्घात करि ताय ॥ बाहिरला क्षेत्र विषेह जोग्य ऊपजवा जेह ॥ किता समय नैं जाण । तब भाखे जगभाण ॥ वा विग्रह त्रिण समयेह । उपजै जंतू जेह ॥ अर्थ इत्पादिक ख्यात । वा च्यार समय विग्रह करी जी, ६१. प्रभु ! कि अर्चे आखिये जो जिम रत्नप्रभा नैं विषे कह्यं जी, तिम कहिवी श्रेणिज सात' ॥ ६२. इम यावत' अपज्जत प्रभुजी ! बादर तेजकाय । समयक्षेत्र विषे तिको जी, समुद्धात करि ताय ॥ ६३. लोक क्षेत्र नाड़ि ने जो बाहिर क्षेत्र विषेह | अपज्जत सूक्ष्म महीपणं जी, योग्य ऊपजवा जेह ॥ १. ढाल ४८६ गाथा ५७ से ६१ तक की जोड़ का संवादी पाठ अंगसुत्ताणि भाग २ में नहीं है । २. 'एवं जाव' यह पाठ अंगसुत्ताणि भाग २ में नहीं है । ३७० भगवती जोड़ ४७. एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - उज्जुयायता जाव अद्धचक्कवाला । ४८. एगओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमदए विमा ४९. का दीए उमाने म बिग्महे जेवा से ते ५०. एवं पज्जत्तएसु वि बादरते उकाइएस वि वायव्वो । ५१. वाउक्काइय वणस्स इकाइयत्ताए चउक्कएणं भेदेणं जहा आउक्काइयत्ताए तहेव उववाएयव्वो । १२. एवं जहा अपामाय गमो भणिओ पत्तागमास वि एवं भाणि ५३. तब बसाए ठाणेसु उदवाएपम्बो (. २४/१७) ५४. अहेलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए ? ५५. एवं बादरपुढविकाइयस्स वि अपज्जत्तगस्स पज्जत्तगस्स य भाणियध्वं । ५६. एवं आउक्काइयस्स चउब्विहस्स वि भाणियव्वं । मनाइयस्स दुहित एवं पेय (प्र. ३४०१८) ६२. अपज्जत्तावादरते उक्काइए णं भंते! समयखेत्ते समोहए, समोहणित्ता १२. जे एनोरतनामी वाहिले ते विकासा Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. हे प्रभुजी ! ते जीवड़ो जी, किता समय नं जाण । विग्रह करिनें अपने जी? तब भाखे जगभाण ॥ ६५. दोय समय विग्रह करी जी, वा विग्रह त्रिण समयेह | वा च्यार समय विग्रह करी जी, उपजै जंतू जेह ॥ ६६. प्रभु ! कि अर्थ इम आखिये जी ? अर्थ इत्यादिक ख्यात । जिम रत्नप्रभा में विषे कहां जी, तिम कहियो श्रेणिज सात | जी ! बादर तेऊकाय । समुद्घात करि ताय । ६७. इम यावत अपज्जत्त प्रभु समयक्षेत्र विषे तिको जो ६८. लोक क्षेत्र नाड़ि ने जी बाहिरले क्षेत्रेह अपज्जत सूक्ष्म तेऊपणं जी, योग्य उपजवा जेह ॥ ६९. हे प्रभुजी ! ते जीवड़ो जी, किता समय नैं ताय । विग्रह करिने अपने जी ? शेष तिमज कहिवाय ॥ ७०. हे प्रभुजी ! अपर्याप्तो जा, बादर तेऊकाय । समयक्षेत्र विषे तिको जी समुद्धात करि ताय ।। ७१. समयक्षेत्र विषे तिको जी, अपज्जत्त बादर जाण । तेऊकायपणे तिको जी, योग्य उपजवा जाण ॥ ७२. हे प्रभुजी ! ते जीवड़ो जी, किता समय में ताय । विग्रह करिने अपने जी ? तब भाखे जिनराय || ७३. एक समय विग्रह करी जी, वा दोय समय विग्रहेण । वा तीन समय विग्रह करी जी, ऊपजवूज कहेण || ७४. प्रभु ! किण अर्थ इम आखिये जी, अर्थ इत्यादिक ख्यात । जिमहिज रत्नप्रभा विषे जी, तिम कहिवी श्रेणिज सात ।। ७५. इणहिज रीते जाणवो जी, पर्याप्त बादर जेह | ।। । तेऊकायपणें अपि जी, पूर्वली पर लेह ॥ ७६. वायू वनस्पति विषे जी, जिम महिकाय विषेह । उपजाव्यो तिम उपजाविवो जी, चिहुं भेदे करि एह ।। ७७. एम पज्जत बादर तिको जी, एहिज स्थानक नैं विषे जी, ७८. वायू वनस्पति वली जी, तेउकाय पिण ताम | उपजाविवोज आम ।। जिम पृथ्वी नों जीव पूर्वे उपजान्यो तिको जी, तिपहिज रीत कहीव ।। ७९. प्रभु ! अपज्जत्त सूक्ष्म मही जी, इहां पिण लोक क्षेत्र बस नाड़ । करि समुद्धात तिण वार ॥ बाहिरला क्षेत्र विषेह । योग्य उपजवा जेह || विग्रह करि उपजंत ? जाण लेणी मतिमंत ॥ तसु बाहिरला क्षेत्र में जो ८०. अधोक्षेत्र जे नाड़ि ने जी, अपज्जत्त सूक्ष्म महीपणे जी, १. हे प्रभु! ते कति समय में जो इत्यादिक सहु वारता जी, १. अंगसुत्ताणि भाग २ में प्रस्तुत पाठ 'पज्जत्त है । ६४. से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! ६५. दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गणं उववज्जेज्जा । ( . २४.१९) अट्ठो जहेव रयगप्पभाए तब सत्त ६६. ? सेढीओ । ६७. एवं जाव (श. ३४।२० ) अपज्जत्तावादरते उकाइए णं भंते ! समयखेत्ते समोहए, समोहणित्ता ६८. जे भविए उड्ढलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते पज्जत्ता सुहुमतेउका इयत्ताए उववज्जित्तए, ६९. से णं भंते ! सेसं तं चेव । (श. ३४०२१) ७०. अपयत्ताबादरउक्काइए गं भते समय समोह महत्ता ७१. जे सिमखेतं पण्यत्तायादरतेनकाइयत्ताए उत ७२. से मंत्र इसमइए विग्ग उवा ? गोयमा ! ७३. एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेण उववज्जेज्जा । (श ३४/२२ ) ७४. से कणट्ठणं ? अट्ठो जब रयणप्पभाए तहेव सत्त सेढीओ । ७५. एवं पज्जत्ताबादरतेउकाइयत्ताए वि । ७६. वाउकाइएसु वणस्सइकाइएसु य जहा पुढविक्काइसु उववाइओ तहेव चउक्कएणं भेदेणं उववाएयव्वो । ७७. एवं पत्तावादका विएएस व ठाणेसु उववायव्वो । ७८. वाउक्काइय वणस्सइकाइयाणं जहेव पुढविकाइयत्ते उववाओ तहेव भाणियव्वा । (श. ३४।२३ ) उद्धोगत ७९. अपत्ताविकाए भंते नासी बाहिरि मोह मोहत्ता ८०. जे भविए अहेलोग खेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपामविकासाए उत्तिए, ८१. से णं भंते ! कइसमइएणं ? श० ३४, उ० १, ढा० ४८६ ३७१ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. इम उर्द्धलोक क्षेत्र नाड़ि में जी, बाहिरला क्षेत्र विषेह । मारणांतिक समुदघात नै जी, कीधा छतांज जेह ।। ५३. अधोलोक क्षेत्र नाड़ि में जी, बाहिरला क्षेत्र विषेह । ऊपजतां तेहिज गमो जी, कहिवो समस्तपणेह ।। ८४. जाव बादर वनस्पतिकाइयो जी, पर्याप्तक पिछाण । बादर वणस्सइ पज्जत्त विषे जो, उपजाविवो सूविहाण ।। ८५. देश चउतीसम धुर तणों जी, चिहुं सय छियासीमों ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी जी, 'जय-जश' मंगलमाल । ८२. एवं उड्ढलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहयाणं ५३. अहेलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते उववज्जंताणं सो चेव गमओ निरवसेसो भाणियव्वो ८४. जाव बादरवणस्स इकाइओ पज्जत्तओ बादरवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु उववाइओ। (श. ३४॥२४) ढाल : ४८७ लोक के चरमान्त की अपेक्षा से एकेन्द्रिय जीवों की विग्रह गति १. अपर्याप्तक सूक्ष्म मही, प्रभु ! लोक नां तेह । पूर्व नां चरिमंत विषे, समुद्घात करि जेह ।। २. जेह जीव फुन लोक नां, पुव चरिमंत विषेह । ___ अपज्जत्त सूक्ष्म महीपणे, योग्य उपजवा जेह ।। ३. ते प्रभु! कितला समय में जी, विग्रह करि उपजंत? एम प्रश्न पूछयां छता, उत्तर दै अरिहंत ।। ४. एक समय विग्रह करी, तथा दोय समयेह । तथा तीन वा चिहुं समय, विग्रह करि उपजेह ।। ५. किण अर्थे प्रभु ! इम का, एक समय विग्रहह । यावत उपजै जीवड़ो, हिव जिन उत्तर देह ।। ६. इम निश्च म्है गोयमा ! श्रेणि परूपी सात । ऋजुआयता जाव फुन, अधचक्कवाल विख्यात ।। ७. ऋजुआयता श्रेणि करि, ऊपजतां नै आम । एक समय विग्रह करी, तेह ऊपजै ताम ।। ८. एक थकी वक्र श्रेणि करि, ऊपजतां ने ताय । दोय समय विग्रह करी, उपजै इम कहिवाय ।। ९. बिहुं भेदे वक्र श्रेणि करि, उपजतां ने तेह । ___अनुश्रेणि इक प्रतर में, योग्य उपजवा जेह ।। १०. तेह जोव त्रिण समय में, विग्रह करि उपजत । अथ कहियै चिहुं समय ने, विग्रह करि जे हुत ।। १. अपज्जत्तासुहुमपुढविक्काइए णं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमते समोहए, समोहणित्ता २. जे भविए लोगस्स पुरथिमिल्ले चेव चरिमंते अपज्जत्तामुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, ३. से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! ४. एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा । (श. ३४१२५) ५. से केण→णं भंते ! एवं वुच्चइ–एगसमइएण वा जाव उववज्जेज्जा? ६. एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-उज्जुआयता जाव अद्धचक्कवाला। ७. उज्जुआयताए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। ८. एगओवं काए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। ९. दह ओवंकाए मेढीए उववज्जपणे जे भविए एग पयरंसि अणुसेढिं उववज्जित्तए, १०. से णं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। ३७२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. जे भविए विसेदि उववज्जित्तए, से णं चउसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा से तेणट्टेणं जाव उववज्जेज्जा। ११. जे भविक विश्रेणि ऊपजै, च्यार समय नैं तेह । विग्रह करिने ऊपज, तिण अर्थे वच एह ।। _ *जिन वच सांभलो रे ।। (ध्रुपदं) १२. इम अपज्जत्त सूक्ष्म मही रे, लोक तणां पहिछाण । पूर्व नां चरिमंत विषे रे, करि समुद्घात तज प्राण के ।। १३. तेह जीव जे लोक नां रे, पूर्व नैंज चरिमंत । अपज्जत्त पज्जत्त विषे वली रे, सूक्ष्म मही विषे मंत कै ।। १४. सूक्ष्म अप अपज्जत्त विषे रे, पर्याप्ता नै विषेह । सूक्ष्म तेउ अपज्जत्त विषे रे, पज्जत्त विषे फन लेह के ।। १५. सूक्ष्म वाउ अपज्जत्त विषे रे, पज्जत विषे सुविचार । बादर वाउ अपज्जत्त विषे रे, पज्जत्त विषे अवधार के ।। १६. सूक्ष्म वणस्सइ अपज्जत्त विषे रे, पज्जत्त विषे उपजेह । ए बार ही स्थानक विषे रे, कहिवा इण अनुक्रमेह के ।। १२. एवं अपज्जत्तासुहुमपुढ विकाइओ लोगस्स पुरत्थि मिल्ले चरिमंते समाहए, समोहणित्ता १३. लोगस्स पुरथिमिल्ले चेव चरिमंते अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु सुहुमपुढविकाइएसु १४. अपज्जत्तएम पज्जत्तएसु सुहुमआउकाइएसु, अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु मूहुमतेउक्काइएसु, १५. अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु सुहुमवाउकाइएसु, अपज्जत्त एसु पज्जनए सु बादरवाउका इएसु, १६. अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु सुहुमवणस्सइकाइएस, अपज्जत्तएसु पज्जनए सु य बारससु वि ठाणेस एएणं चेव कमेण भाणियव्वो। १७. सुहमपुढविकाइओ पज्जत्तओ एवं चेव निरवसेसो बारससु वि ठाणेसु उववाएयव्वो । १७. सूक्ष्म पृथ्वीकाइयो रे, पर्याप्तक छै जेह । इमज समस्तपणे उपजाविवो रे, बारै ही स्थान विषेह के ।। १८. इम इण आला करी रे, जाव सूक्ष्म वणस्सइ पज्जत्त । सूक्ष्म वणस्सइ पर्याप्ता विषे रे, कहिवू ऊपजवू तत्थ के ।। वा० --इहां लोंक नै चरिमाते बदर पृथ्वीकायिक १ अपकायिक २ तेजस्कायिक ३ वनस्पतिकायिक ४ नहीं छ। अने सूक्ष्म तो पांचेइ पिण छ । वले बादर वायुकायिक छ । ए षट नों पर्याप्तक १ अपर्याप्तक २ बिहुं भेदे करि एवं १२ स्थानक अनुसरवा इति । इहां लोक ना पूर्व चरिमांत थकी पूर्व चरिमात नै विषे ऊपजता थका ने एक समयादि चतुः समय पर्यत गति संभव, अनुश्रणि विश्रेणि नां संभव थकी। १९. अपर्याप्तक सूक्ष्म मही रे, हे प्रभु ! लोक नां तेह। पूर्व नां चरिमांत विषे रे, समुद्घात करी जेह के ।। २०. जेह जीव वलि लोक में रे, दक्षिण नै चरिमंत । अपज्जत्त सूक्ष्म मही विषे रे, योग्य उपजवा हंत के ।। २१. हे प्रभुजी ! ते जीवड़ो रे, किता समय मैं जाण । विग्रह करिनै ऊपजै रे? भाखै तब जगभाण के। २२. बे समय नै विग्रह करी रे, वा विग्रह त्रिण समयेह । वा चिहुं समये विग्रह करि ऊपजै रे, प्रभु ! किण अर्थे वच एह कै ? २३. जिन कहै इम निश्च करी रे, म्है श्रेणि परूपी सात ॥ ऋजुआयता जाव हो रे, अधचक्कवाल विख्यात कै ।। २४. तिहां एक थी वक्र श्रेणि करी रे, ऊपजतो थको जीव । बे समय विग्रह करि ऊपज रे, अर्थ अनुप अतीव के ।। १८ एवं एएणं गमएणं जाव सुहमवणस्सइकाइओ पज्जत्तओ सुहुमवणस्स इकाइएस पज्जत्तएस चेव भाणियब्वो। (श. ३४।२६) वा.-इह च लोकचरमान्ते बादरा: पृथ्वीकायिका कायिकतेजोवनस्पतयो न सन्ति सूक्ष्मास्तु पञ्चापि सन्ति बादरवायुकायिकाश्चेति पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्वादश स्थानान्य नुसतव्यानीति, इह च लोकस्य पूर्वचरमान्तात्पूर्वचरमान्ते उत्पद्यमानस्यैकसमयादिका चतुःसमयान्ता गति: संभवति, अनुश्रेणिविश्रेणिसम्भवात्, (वृ. प. ९६१) १९. अपञ्जत्तासुहमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता २०. जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता सुहुमपुढविकाइएसु उववज्जित्तए, २१. से णं भते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! २२. दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेण उववज्जेज्जा। (श. ३४।२७) से केणठेण भंते ! एव वुच्चइ ? २३. एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-उज्जुयायता जाव अद्धचक्कवाला। २४. एगओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, *लय : सीता सुंदरी रे श० ३४,१०१, ढा०४८७ ३७३ Jain Education Intemational Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. बिहं थी वक्र श्रेणि करी रे, ऊपजतो थको मंत । जे भविक एक प्रतर विषेरे, अनूश्रेणि उपजत कै ।। २६. तेह जीव विण समय में रे, विग्रह करि उपजेह । अथ च्यार समय करि ऊपज रे, कहियै छै हिव तेह के। २७. जे योग्य विश्रेणि ऊपजवा रे, च्यार समय ने ताय । विग्रह करीनै ऊपज रे, तिण अर्थे इम वाय के ।। २५. दुहओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे जे भविए एग पयरंसि अणमेदि उववज्जित्तए, २६. से णं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। वा० ...पूर्व नां चरिमांत थकी बलि दक्षिण नां चरिमांत नै विषे ऊपजता थका नै द्वयादि सामयिकी हीज गति, अनुश्रेणि ना अभाव थकीज । इम अन्यत्र पिण विश्रेणि गमन इति: २८. इम इण आलावे करी रे, मुओ पूर्व चरिमंत । दक्षिण चरिमंत उपजाविवो रे, जाव चरम पाठ हिव हंत के ।। २९. सुक्ष्म वणस्सइकाइयो रे, पर्याप्तो छै जेह । सूक्ष्म वणस्सइकाय नां रे, पज्जत्त विषे उपजेह के ।। ३०. ए सर्व विष बे समयिको रे, त्रिण सामयिक अवधार । अथवा वलि चिहं समय नों रे, विग्रह भणिवो विचार के।। ३१. अपर्याप्तक सुक्ष्म महो रे, हे प्रभु ! लोक नां जोय । पूर्व नां चरिमंत विषे रे, समुदघात करि सोय के ।। ३२. लोक तणां वलि जाणवा रे, पश्चिम चरिमंत विषह । अपज्जत्त सूक्ष्म महीपणे रे, योग्य उपजवा जेह कै।। ३३. हे प्रभ ! केतला समय ने रे, विग्रह करि उपजंत? जिन भाखै इक समय नै रे, विग्रह करिने हंत के ।। ३४. तथा दोय समय विग्रह करी रे, तथा विग्रह त्रिण समयेह । तथा चिहुं समय विग्रह करि ऊपजे रे, किण अर्थ वच एह कै? २७. जे भविए विमेदि उबवज्जित्तए, से णं च उसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। से तेणठेणं गोयमा ! वा० - पूर्वचरमान्तात्पुनर्दक्षिणचरमान्ते उत्पद्य - मानस्य द्वयादिसामयिक्येव गतिरनुश्रेणे रभावात्, एवमन्यत्रापि विश्रेणिगमन इति। (बृ. प. ९६१) २८ एवं पाणं गमएणं पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए दाहिणिल्ले चरिमंते उववाएयव्वो जाव २९. सुहुमवणम्सइकाइओ पज्जत्तओ सुहुमवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु चेव । ३०. सब्वेमि दुसमइओ तिसमइओ चउसमइओ विग्गहो भाणियब्वा । (श. ३४।२८) ३१. अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता ३२. ज भविए लोगस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता सुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, ३३. से ण भंते । कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? गोयमा ! एगसमइएण वा ३४. दूसम इएण वा तिसमइएण वा च उसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा । (श. ३४.२९) से केणठेणं? ३५. एवं जहेव पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहया पुरत्थि मिल्ले चेव चरिमंते उववाइया ३६. तहेव पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहया पच्चथिमिल्ले चरिमते उववाएयव्वा सव्वे । (श. ३४।३०) ३५. इम जिमज पूर्व चरिमांत विषे रे, समुद्घात करि ताम । ___ फुन निश्चै पूर्व चरिमांत में रे, उपजाव्यो छै आम के । ३६. तिमज पूर्व चरिमांत विषे रे, समुद्घात करि सोय । पश्चिम ना चरिमांत विषे र, उपजाविवो सहु जोय के ।। वा-इहां पूर्व दिशि नै विषं तो मूओ अन पश्चिम दिशि न विषे ऊपनों । तिहां एक समय नीं विग्रह पिण कही ते समश्रेणि मार्ट । अनै दक्षिण तथा उत्तरे ऊपज, तिहां एक समय नीं विग्रह न हुवै ते वक्रपणा माट। ३७. अपर्याप्तक सूक्ष्म मही रे, हे प्रभु ! लोक नां तेह । पूर्व नां चरिमंत विषे रे, समुद्घात करि जेह कै॥ ३८. जे वलि लोक तणां जिके रे, उत्तर चरिमंत विषह । अपज्जत्त सूक्ष्म महीपणे रे, योग्य उपजवा जेह कै ।। ३९. ते प्रभु ! केतला समय में रे, विग्रह करि उपजत ? एम प्रश्न पूछयां थकां, भाखै तब भगवंत कै ।। ४०. इम जिम पूर्व चरिमंत विषे रे, समुद्घात करि जीव । दक्षिण नै चरिमांत विषे रे, उपजाव्यो छ अतीव के ।। ४१.तिम पूर्व नै चरिमंत विषे रे, समुद्घात करि ताम । उत्तर नां चरिमंत विषे रे, उपजाविवो छै आम के ।। ३७. अपज्जत्तामहुमपुढविक्काइए णं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले दरिमते समोहए, ममोहणित्ता ३८. जे भविए लोगस्म उतरिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता सुहमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, ३९. से णं भंते ! ४०. एवं जहा पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहयओ दाहि णिल्ले चरिमंते उववाइओ ४१. तहा पुरथिमिल्ले समोहयओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएयव्वो। (श. ३४।३१) ३७४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण नां चरिमत विषे मरी च्यारूं दिशि नै विर्ष ऊपजै तेहनों अधिकार कहै छ ४२. अपर्याप्तक सूक्ष्म मही रे, हे प्रभु ! लोक नां जेह । दक्षिण नां चरिमंत विषे रे, समुद्घात करि तेह कै।। ४३. लोक तणां वलि जाणवा रे, दक्षिण नै चरिमंत । अपज्जत्त सूक्ष्म महीपणे रे, योग्य उपजवा हुंत के ? ४४. इम जिम पूर्व चरिमंत विषे रे, समुद्घात करि ताम । फून पूर्व नैज चरिमंत में रे, उपजाव्यो छ आम कै ।। ४५. तिमज दक्षिण चरिमंत विषे रे, समुद्घात सलहीज । फून दक्षिण नैज चरिमंत में रे, सहु उपजाविवो तिमहीज के ।। ४६. जाव सूक्ष्म वणस्सइ पर्याप्तो रे, सूक्ष्म वणस्सइ पज्जत्त विषेह । दक्षिण नां चरिमंत विषे रे, उपजाविवो चित देह के ।। ४७. इम दक्षिण नां चरिमंत विषे रे, समुद्घात करि सोय । पश्चिम नां चरिमंत विषे रे, उपजाविवो अवलोय के। ४८. णवर बे समय न जाणवो रे, कुन त्रिण समय नै ताय । च्यार समय विग्रह वली रे, शेष तिमज कहिवाय के।। ४९. दक्षिण नां चरिमत विषे रे, समुद्घात करि ताम । उत्तर नां चरिमंत विषे रे, उपजाविवो छै आम के ।। ५०. कह्यो जिमहिज स्वस्थानक विषे रे, तिमज विग्रह समयो एक । बे त्रिण च्यार समय तणों रे, विग्रह कहिवो विशेख के ।। ५१. जे पूर्व चरिमंत ऊपजै रे, जिम उपज पश्चिम विषेह । तिमहिज बे समये तथा, त्रिण वा चउ समयेह के ।। वा० --इहां दक्षिण नै चरिमत मरी पूर्व चरिमाते ऊपज । ते जिम दक्षिण चरिमते मरी पश्चिम चरिमते उपजाव्यो तिम दक्षिण चरिमते मरी पूर्व चरिमते उपजाववो। तिमहिज कहिवं बे त्रिण च्यार समय नी विग्रह सभवै । हिवै पश्चिम चरिमंते मरो च्यारूं दिशि नै विषे ऊपजे तेहनों अधिकार कहै छ - ५२. पश्चिम चरिमंत विषे मरी रे, फून पश्चिम चरिमंतेह । ऊपजता ने जाणवू रे, जिम स्वस्थान विषेह के ।। वा० --जिम पूर्व नै चरिमते मरी पूर्व चरिमते ऊपज ते स्वस्थाने एक बे तीन च्यार समय नी विग्रह कही, तिम इहा पिण पश्चिम चरिभाते ऊपजै । ते एहनां स्व स्थानक विषे पिण ए, बे, तीन च्यार समय नी विग्रह कहिवी। ५३. उत्तर नां चरिमांत विषे रे. ऊपजतां नै ख्यात । एक समय नों विग्रह नथी, शेष तिमज अवदात ।। वा०- इहां पश्चिम चरिमते मरी उत्तर चरिमंते ऊपजतां एक समय नीं विग्रह नथी शेष तिमहिज । ५४. पूर्व नां चरिमंत विषे रे. ऊपजतां अवलोय । जिम स्वस्थानक आखियो रे, तिमहिज कहिवो सोय ।। ४२. अपज्जत्तासुहमपुढविक्काइए णं भंते ! लोगस्स दाहिणिले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता ४३. जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चेव चरिमंते अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए ? ४४. एवं जहा पुरथिमिल्ले समोहयओ पुरथिमिल्ले चेव उबवाइओ ४५. तहेब दाहिणिल्ले समोहए दाहिणिल्ले चेव उववाए यव्वो, तहेव निरवसेस ४६. जाव सुहमवणस्सइकाइओ पज्जत्तओ सुहमवणस्सइ काइएसु चेव पज्जत्तएसु दाहिणिल्ले चरिमंते उबवाइओ, ४७. एवं दाहिणिल्ले समोहयओ पच्चथिमिल्ले चरिमते उववाएयव्वो, ४८. नवरं-दुसमइय-तिसमइय-चउसमइयविग्गहो, सेस तहेव । ४९. एवं दाहिणिल्ले समोहयओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएयव्यो ५०. जहेव सट्ठाणे तहेव । एगसमइय-दुसमइय-तिसमइय चउसमइयविग्गहो। ५१. पुरथिमिल्ले जहा पच्चत्थिमिल्ले, तहेव दुसमइय तिसमइय-चउसमइयबिग्गहो । ५२. पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते समोहयाणं पच्चथिमिल्ले चेव उववज्जमाणाणं जहा सट्टाणे । ५३. उत्तरिल्ले उववज्जमाणाणं एगसमइओ विग्गहो नत्थि, सेसं तहेव । ५४. पुरथिमिल्ले जहा सट्टाणे श० ३४, उ० १, टा० ४८७ ३७५ Jain Education Intemational Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० - इहां पश्चिम चरिमंते मरी पूर्व चरिमांत ऊपजतां समश्रेणि मार्ट एक समय नीं पिण विग्रह कही । ५५. दक्षिण नां चरिमंत एक समय विग्रह नवो विषे रे रे, शेष वा० - इहां पश्चिम चरिमंते मरी दक्षिण चरिमंते ऊपजतां एक समय नीं विग्रह नथी शेष तिमज । उत्तर नें चरिमांते मरी व्यारूं दिशि ने विशे ऊपलं, तेहनों अधिकार कहे थे ५६. उत्तर न परिमांत विषे रे समुद्धात करि तेह उत्तर विषे उपजतां थकां रे, जिम स्वस्थान विषेह || वा० - इहां स्वस्थान मा एकादि समय नीं विग्रह पिण हुवे । ५७. उत्तर नें चरिमंत में रे, समुद्घात करि सोय । पूर्व ऊपजतां थकां रे इमहिज कहियो जोव के ५८. णवरं इतरो विशेष छे रे, एक समय नों जाण । विग्रह तेहने छे नथी रे, बुद्धि स्यूं कीजो पिछाण के || ५९. उत्तर नां चरिमांत विषे रे, समुद्धात करी जेह ॥ दक्षिण उपजतां थकां रे जिम स्वस्थान विषेह के । वा० -इहा समश्रेणि मार्ट जिम स्वस्थान विषे कह्यो, तिम एकादि समय नीं विग्रह कहिवी | १. इम उत्पाद ऊपजतां तिमज रे, ६०. उत्तर नैं चरिमांत विधे पश्चिम नां चरिमांत विषे रे, ६१. एक समय नो तेहने रे, समुद्धात करि ताय । ऊपजतां नें कहाय के ।। विग्रह कहिये नांय | शेष तिमज कहिवो सह रे, जाव चरम पाठ हिव आय के || ६२. सूक्ष्म वणम्मइकाइयों रे, पर्याप्तक पहिचान | । सूक्ष्म वणस्सइ पज्जत्त विषे रे, कहिवूं पूर्ववत जाण के || ६३. चउनीसम देश पुर तणों रे, प्यार सव में सित्यासीमीं ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय जय' मंगलमाल के || ३७६ ते एकेद्रिय ज हिब, एकेन्द्रिय जोवों के स्थान २. बादर पृथ्वीकाय नां किहो परुया हे प्रभु ! भगवती जोड़ ने ताय । कहिवाय ॥ ढाल : ४८८ चूहा करी, एकेंद्रिय स्थानादिक पर्याप्तानो भावे तब आख्यात | अवदात || स्थान । भगवान || ५५. दाहिणिले एगसमइओ विग्गहो नत्यि, सेसं तं चेव । ५६. उत्तरिल्ले समोहयाणं उत्तरिल्ले चेव उववज्जमाणाणं जहा सट्टा ५७. उत्तरिल्ले समोहयाणं पुरथिमिल्ले उववज्जमाणाणं एवं चेव, ५८. नवरं - एगसमइओ विग्गहो नत्थि । ५९. उत्तरले समयागं दाहिणिले उपवजमाणा जहा सहाणे, ६०. उत्तरिल्ले समोहयाणं पच्चत्थिमिल्ले उववज्जमाणाण ६१. एमसमझलो विग्गहो नत्यि से तहेब जाय · ६२. सुहुमवणस्सइकाइओ पज्जत्तओ सुहुमवणस्सइकाइएस पज्जत्त एसु चेव । (श. ३४/३२) १. एवमुत्पादमधिकृत्यै केन्द्रियप्ररूपणा कृता, अथ तेषामेव स्थानादिप्ररूपणायाह ( वृ. प. ९६१ ) २. कहिणं भंते! बादरपुढविक्काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पष्णता ? गोयमा ! Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते ३. जिहां बादर पृथ्वी रहे, स्वस्थानक कहिये तमु, एह पोता नों स्थान | आथवी जान ॥ ४. आठूं पृथ्वी नैं विषे, जेम स्थान पद बीजा विषे, ५. रत्नप्रभा नें आदि दे, यावत सूक्षम जाण । वनस्पति नांछे जिके, पज्जत्त अपज्जत्त पिछाण || ६. ते सगला ही एकविध, कहिवाय । स्वस्थानादि जे ताय ।। प्रकृत पनवणा मांय । आरुयूँ जिम कहिवाय ॥ ओघ थकी विचार *लय: धूमचूमा पधारो म्हारो करिकै ७. अविशेष कहितां जिके, जेम तास पर्याप्ता, अपज्जत्त ८. नानात्व भेद रहित ते, जेह आकाश प्रदेश में, ९. तिहिज गगन प्रदेश में अनापत्ता न अर्थ १०. धुर उपपात करी वलि, ए. ए. वृत्ति विषे वृत्ति विषे समुद्घात स्वस्थानक करिनं जिके, सर्व ११. ऊपजवा सन्मुख प्रति कहियै छै मारणांतिक आदि प्रति १२. अर्थ वले स्वस्थान नुं, कहिये छै जिहां रहे ते समणाउसो अर्थ तनु, हे श्रमण आयुष्मन एकेन्द्रिय जीवों के कर्मप्रकृति का बन्ध और वेदन विशेष रहितज पिण तेह पर्याप्ता अपर्याप्ता जोय । जिम जोय ॥ आधारजभूत | सूत ॥ पिण ख्यात । विख्यात ।। जेह । करि लोक वह उपपात । समुदघात ।। स्थान । "हो प्रभु ! देवदयाल जी, म्हांनं भिन्न-भिन्न भेद बताय हो लाल । हो प्रभु ! ज्ञान दिवाकरू, ! जाण ॥ थारा वचनामृत सुखदाय हो लाल ।। (ध्रुपदं ) १३. हे भगवंत ! अपर्याप्ता काइ, सूक्ष्म पृथ्वीकाय हो लाल । कर्मप्रकृति तसु केतली कांइ, आप कही जिनराय हो लाल ? १४. जिन भावं गुण गोयमा ! अष्ट कर्मप्रकृति कही ताय हो लाल । ज्ञानावरणी आदि दे कांइ, यावत ही अंतराय हो लाल ।। १५. एम चउक्क भेदे करी, जिम एकेंद्रिय शत मांय हो लाल । यावत बादर वणस्सइ कांइ, पज्जत भणी कहिवाय हो लाल ॥ १६. अपर्याप्ता सूक्ष्म मही, किती कर्मप्रकृति बांधत हो लाल ? जिन कहै सतविधबंधका, अष्टविधबंधक पिण हुंत हो लाल ।। ३. सहाणेणं सट्टाणेणं' ति स्वस्थानं यत्रास्ते बादरपृथिवीकायिकस्तेन स्वस्थानेन स्वस्थानमाश्रित्येत्यर्थः (बृ. प. ९६१) ४. अट्ठसु पुढवीसु जहा ठाणपदे 'जहा ठाणपदे' त्ति स्थानपदं च प्रज्ञापनाया द्वितीयं पदं ( वृ. प. ९६१ ) ५. जाव सुहुमवणस्सइकाइया जे य पज्जत्तगा जे य अपज्जतगा ६. ते सव्वे एगविहा 'एगविह' त्ति एकप्रकारा एवं प्रकृतस्वस्थानादिविचारमधिकृत्योघतः (बृ. प. ९६१) ७९. अविसेसमणाणत्ता 'अविसेसमणाणत' त्ति अविशेषाः विशेषरहिता यथा पर्याप्तकास्तथैवेतरेऽपि 'अणाणत्त' त्ति अनानात्वा :- नानात्ववर्जिताः येष्वेवाधारभूताकाश प्रदेशेष्वेके तेष्वेवेतरेऽपीत्यर्थः (बु.प. ९६१) १०- १२. सब्बलोग रियावन्ना पण्णत्ता समणाउसो ! (२४०२३) 'परियावन्नति उपपातसमुद्घातस्वस्थानैः सर्वलोके वर्त्तन्त इति भावना, तत्रोपपातउपपाताभिमुख्यं समुद्धात इह मारणान्तिकादि स्वस्थानं तु यत्र ते आसते । (बु. प. ६५१) १२. विकाइया भये कति कम्पपगडीओ पण्णत्ताओ ? १४. गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहानाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं । सु १५. एवं चक्कर मे जहेव एगिदियसए भेदेणं जाव बादरवणस्स इकाइयाणं पज्जत्तगाणं । (२४०३४) कति १६. विक्काइमा णं भंते! कम्मप्पगडीओ बंधति ? गायमा ! सत्तविहबंधगा वि, अट्ठविहबंधगावि श० ३४, श० १, ढा० ४८८ ३७७ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. जेम एकेंद्रिय शतक में कांइ, आख्यूँ तिम कहिवाय हो लाल । जाव पज्जत्त बादर वणस्सइ कांइ, कहिं इहां लगताय हो लाल || १८. अपर्याप्ता सूक्ष्म मही किती कर्मप्रकृति वेदेह हो लाल । जिन भाखे सुण गोयमा !, चव कर्मप्रकृति वेदै तेह हो लाल ॥ १९. ज्ञानावरणी आदि दे, जिम एकेंद्रिय विषे उक्त हो लाल । जाव पुरिसवेद वध्य लगै, इम बादर वनस्पति पज्जत्त हो लाल । एकेंद्रिय में उपपात २०. एकेंद्रिय भगवंत जी! कांइ, किहां थकी उपजत हो लाल ? स्यूं नारकि थी ऊपजे ?, जिम पनवण पदव्युत्त्रंत हो लाल ।। २१. छठा पद में आखियो कांइ, पृथ्वी नों उत्पात हो लाल । तेम इहां पिण आखवूं कां वर जिन वचन विख्यात हो लाल ।। एकेंद्रिय में समुद्यात २२. हे प्रभुजी ! एकेंद्रिय तणे कांइ, किती कही समुद्घात हो लाल ? जिन कहै चिहुं धुर वेदना, जाव वैक्रिय चोथी ख्यात हो । २३. एकेंद्रिय रं मांय, वाउकाय पेक्षाय, २४. एकेंन्द्रिय नैं हीज, सोरठा समुद्घात वैकिय वैक्रिय कही । बादर पर्याप्तके || भंग करिने हिवे । सांभलो ॥ परूपतोज कहीज, चित्त लगाई तस अन्य एकेन्द्रिय जीवों के कर्मबन्ध का अल्पबहुत्व २५. *हे भगवंत । एकेंद्रिया, स्यूं तुल्यस्थितिका जेह हो लाल । तुल्य विशेष अधिक जिको कोइ, कर्मप्रकृति बांधेह हो लाल ? सोरठा २६. तुल्यस्थितिका समान आयु २७. तुल्य माहोमांहि अपेक्षया । तसु । सोय, महोमांहि होय, इतरै आयू तुल्य अपेक्षाय, पूर्वकाल बद्ध कर्म नीं । अपेक्षाय करि ताय, बांध विशेषाधिक कर्म ॥ वा०डितीया कड़ियां मांहोमांहिनी अपेक्षाये सरीखा आउसावंत है जिके 'तुल्लविसेसाहिय रुम्म परेति' एहनों अर्थ-स्य कहितो परस्पर अपेक्षाये 'तुल्य सरीखो अनं विशेषाधिक ते असंख्येय भागादिके करी अधिक पूर्वकाल बद्ध कर्म अपेक्षाये अधिकतर ते तुल्य विशेषाधिक कर्म ज्ञानावरणादि *लय : घूमघूमालो घाघरो म्हांरी ३७८ भगवती जोड़ १७. जहा एगिदियसएसु जाव पज्जत्ताबादरवणस्सइकाइया । (श. ३४।३५) णं भते ! कति मढवाइया कम्म पगडीओ वेदेति ? गोयमा ! चोट्स कम्मध्यमडीओ वेदेति तं जहा १९. गाव १८. २१. वज्झ । पज्जत्तगाणं । २०. एगिदिया णं भंते ! कओ उववज्र्ज्जति कि नेरइएहितो उववज्जति ? जहा वस्तीए (प. ६००२) उवाओ , जहा एविदिवसएस जाय पुरिसवेदएवं जाव बादरवणस्सइकाइयाणं (श. ३४ | ३६) (श. ३४ । ३७ ) तं जहा २२. एगिदियाणं भंते ! कइ समुग्धाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि समुग्धाया पण्णत्ता, वेदणारा जावे। (श. ३४.३०) २३. समुद्घा वेबसाए' तिक्तता कायिकानाश्रित्येति । ( वृ. प. ९६१ ) २४. एकेाने भयन्तरेण प्रतिपादवाह (बृ. प. ९६१ ) २५. एगिदिया णं भंते! कि तुल्लद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकति ? वा० 'एगिदिया 'मित्यादि 'तुइय त्ति तुपस्थितिका: परस्परापेक्षया समानयुष्का इत्यर्थ 'विमेाहियं कम्म परेंत ति परम्परापेतुरवे विशेष असंख्येयभागादिनाऽधिकं पूर्वकालबद्धकमपियाऽधिकतर तुल्य Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषाधिक 'कर्म' ज्ञानावरणादि 'प्रकुर्वन्ति' बध्नन्ति । (वृ. प. ९६१) २८. तुल्लट्ठितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? पकरेंति-बांध । एतले तुल्य आउखावंत एकेंद्रिय छ तिके परस्पर नी अपेक्षाय करिके तो तुल्य अने पूर्व काल नां बंध्या कर्म नी अपेक्षाये विशेष अधिक ते अतिही अधिक कर्म बांधे, एह संभव छ । ए प्रथम भंग १। २८. तथा तुल्य आउखावंत जिके कांइ, एकेंद्रिया छै जेह हो लाल । वेमात्र विशेष अधिक जिके, इसा कर्म प्रत बांधेह हो लाल । सोरठा २९. तुल्यस्थितिका जेह, वेमात्र विशेषाधिक जिके । कर्म प्रत बांधेह, वेमात्र विशेषाधिक कवण ? ३०. वेमात्र एह पिछाण, अन्योअन्य अपेक्षया । विषम अछै परिमाण, ते आगल ओलखाविय ।। ३१. केहनों पिण अवलोय, असंख्येय भाग रूप जे । __ अन्य तणों वलि होय, संख्येयज भाग रूप जे ।। ३२. जे विशेष कहिवाय, तेणे करी अधिक जे । पूर्वकाल बद्ध ताय, कर्म अपेक्षा करि जिको।। वा० --इहां ए परमार्थ-तुल्य आउखावंत छ जिके परस्पर नी अपेक्षाये बेमात्र अनै पूर्वकाल बद्ध कर्म नी अपेक्षाये विशेषाधिक ते अति ही अधिक कर्म प्रत बांध, एहवं जणाय छ । ए द्वितीय भंग २ । ३३. *अथवा विमात्रज स्थितिका काइ, जीव एकेद्रिया जेह हो लाल । तुल्य विशेष अधिक जिके कांइ, कर्म प्रतै बांधेह हो लाल ? ___ सोरठा ३४. विषम मात्र जे होय, स्थिति आउखो जेहनों । विमात्र स्थिति ते जोय, विषम आउखावंत ते ।। २९. तथा तुल्यस्थितयः 'वेमायविसेसाहियं' ति (वृ. प. ९६१) ३०. विमात्र:--अन्योऽन्यापेक्षया विषमपरिमाण : (वृ. प. ९६१) ३१. कस्याप्यसंख्येयभागरूपोऽन्यस्य संख्येयभागरूपो (व. प. ९६१) ३२. यो विशेषस्तेनाधिकं पूर्वकालबद्धकर्मापेक्षया यत्तत्तथा २ (वृ. प. ९६१) ३३. वेमायद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? ३४. तथा 'वेमायटिइय' त्ति विमात्रा-विषममात्रा स्थिति:-आयुर्वेषां ते विमात्रस्थितयो विषमायुष्का इत्यर्थः (वृ. प. ९६१) ३५. 'तुल्लविसेसाहिय' ति तथैव, (वृ. प. ९६१) ३५. तुल्य माहोमांहि अपेक्षाय, पूर्वकाल बद्ध कर्म नीं। अपेक्षाय करि ताय, विशेषाधिक बांधै कर्म ।। वा० -- इहां ए परमार्थ- परस्पर बरोबर आउखो नहीं ते विमात्र आउखावत छना परस्पर नी अपेक्षाये तुल्य अनै पूर्वकाल बद्ध कर्म नी अपेक्षाये जे विशेषाधिक कर्म बांध । ए तृतीय भंग ३ । ३६. *अथ वेमात्रजस्थितिका कांइ, विषम आउखावंत हो लाल । विमात्र विशेषाधिक जिके काइ, कर्म प्रतै बांधत हो लाल? ३६. वेमायट्ठितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? सोरठा ३७. विषम आउखावंत, माहोमाहि अपेक्षया । सम आयु नहि हुँत, तेह विमात्रज स्थितिका ।। ३८. ए विषम आउखावंत, अन्योअन्य अपेक्षया । वेमात्राये मंत, बांधै कर्म तिके वही ।। *लय : घूमघूमालो घाघरो म्हारी श० ३४,०१,डा०४८८ ३७९ Jain Education Intemational Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. गोयमा ! अत्थेगइया तुल्ल द्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति, ४१. अत्थेगइया तुल्ल द्वितीया वेमायविसे साहियं कम्म पकरेंति, ३९. पूर्वकाल नां जाण, बद्ध कर्म तास अपेक्षया । विशेष अधिक पिछाण, बांध कर्म जे जीवड़ा । (ए चतुर्थ भंग) ४०. *जिन कहै केतला एक जे कांइ, तुल्य स्थितिका जेह हो लाल । तुल्य विशेषाधिक जिके कांइ, कर्म प्रतै बांधेह हो लाल । ४१. जीव केतलाइक वली कांइ, तुल्यस्थितिका जेह हो लाल । विषम मात्र विशेषाधिक जिके कांइ, कर्म प्रत बांधेह हो लाल ।। ४२. केतलाइक जे जीवड़ा, विषम मात्र आयुवंत हो लाल । तुल्य विशेषाधिक जिकै काइ, कर्म प्रतै बांधत हो लाल ।। ४३. जीव केतलाइक वली कांइ, विषम मात्र आयुवंत हो लाल । विमात्र विशेषाधिक जिके काइ, कर्म प्रतै पकरत हो लाल ।। ४४. ते किण अर्थे प्रभु ! इम कह्य, केई तुल्यस्थितिका जोव हो लाल । जाव विमात्र विशेष अधिक जिके, कांइ बांधै कर्म अतीव हो लाल । ४५. जिन भाखै एकेन्द्रिया कांई, आख्या चिहुंविध जन्न हो लाल । केई समआउखावंत जे, अनैं समकाले ही उत्पन्न हो लाल ।। ४६. जाव केतलाइक वली कांइ, विषम आउखावंत हो लाल । अने विषम काले ते ऊपनां कांइ, एतला लगै कहंत हो लाल ।। ४२. अत्थेगइया वेमायद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति, ४३. अत्थेगइया वेमायद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति । (श. ३४।३९) ४४. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया तुल्ल द्वितीया जाव वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति ? ४५,४६. गोयमा ! एगिदिया चउम्विहा पण्णत्ता, तं जहा----अत्थेगइया समाउया समोववनगा, अत्थेगइया समाउया विसमोववनगा, अत्थेगइया विसमाउया समोववन्नगा, अत्थेगइया विसमाउया विसमो ववन्नगा। ४७. तत्थ णं जे ते समाउया समोववनगा ते णं तुल्ल द्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति । ४७. तिहां समआउखावंत हो, सम काले ऊपनां जेह हो लाल । ते तुल्यस्थितिका जाणवा, तुल्य विशेषाधिक कर्म बांधेह हो लाल ।। सोरठा ४८. सम-आउखावंत, समकाले हिज ऊपनां । ए तुल्यस्थितिका हुंत, समान आयु ते भणी ।। ४९. समान उत्पन्न करेह, माहोमांहि अपेक्षया । समान योगपणेह, कर्म समानज ते करै ।। ५०. फुन पूर्व कर्म अपेक्षाय, सम अथवा जे हीन प्रति । तथा अधिक जे ताय, करै कर्म प्रति जीवड़ा। ५१. जो अधिक कर्म पकरेह, तदा विशेषाधिक अपि । मांहोमांहि करि तेह, तुल्य विशेषाधिक कह्या ।। ५२. पिण विशेषाधिक न कहाय, इण कारण थो इम कह्यो । तुल्य विशेष अधिकाय, कर्म प्रत बांधे तिको । ५३.*तिहां सम आउखावंत ही, विषम काले ऊपनां जेह हो लाल । ते तुल्यस्थितिका जाणवा, विमात्र विशेषाधिक कर्म बांधेह हो लाल ।। *लय : घूमघूमालो घाघरो म्हारी ४८,४९. 'समाउया समोववन्नग' त्ति समस्थितयः सम कमेवोत्पन्ना इत्यर्थः, एते च तुल्यस्थितयः समोत्पन्नत्वेन परस्परेण समानयोगत्वात्समानमेव कर्म कुर्वन्ति, (वृ. प. ९६१) ५०. ते च पूर्वकर्मापेक्षया समं वा हीनं वाऽधिकं वा कर्म कुर्वन्ति, (वृ. प. ९६१) ५१. यद्यधिकं तदा विशेषाधिकमपि तच्च परस्परतस्तुल्यविशेषाधिक (व. प. ९६१,९६२) ५२. न तु विशेषाधिकमेवेत्यत उच्यते तुल्यविशेषाधिकमिति, (वृ. प. ९६२) ५३. तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा ते णं तुल्ल द्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । ३८० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ५४. जे समआउखावंत, विषम काल करि अपना । जे भणी ॥ ते तुपस्थितिका हंत, समान आयु भाव थी। कर्म ॥ ५५. ते विषमोत्पन्न करेह, योग विषम नां करें एकेंद्रिय जेह विमात्र विशेषाधिक ५६. *तिहा विषम आउखावंत ही, समकाले ऊपनां जेह हो लाल । विमात्रस्थितिका जाणवा, तुल्य विशेषाधिक कर्म बांधेह हो लाल ।। सोरठा ५७. जे विषम आउखावंत, समकाले करि ऊपनां । विमात्रस्थितिका त विषम आउ छै ते भणी | ५८. ते करेह, समान योगपणां थकी । विशेषाधिक कर्म । सम उत्पन्न करे एकेंद्रिय जेह, तुल्य ५९. *तिहां विषम आउखावंत जे कांइ, ऊपनां विषम कालेह हो लाल । ते विमात्रस्थितिका जाणवा, विमात्र विशेषाधिक कर्म करेह हो लाल ।। सोरठा ६०. जे विषम आयुखावंत, विषम काल करि अपना । ते विमानस्थितिका त, विषम आयु छे ते भणी । ६१. ते विषमोत्पन्न करेह, जोग विषम नां भाव थी । करै एकेंद्रिय जेह, विमात्र विशेषाधिक कर्म ॥ ६२. *ति अर्थ यावत कर विमात्र विशेषाधिक कर्म हो लाल । सेवं भंते! स्वामजी जाव विचरं गोतम धर्म हो लाल ।। " 7 ६३. शत चउतीसम र आखियो, क्यारसी में अठपासीम हाल हो लाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराम थी, सुख 'जय जय' हरष विशाल हो लाल ।। इति ३४।१।१ *लय : घूमघूमालो घाघरो म्हांरी ५४, ५५ तथा ये समायुषो विषमोपपन्नकास्ते तुल्यस्थितयः विषमोपपन्नत्वेन च योगवैषम्याद्विमात्रविशेषाधिक कर्म कुर्वन्तीति २ (बृ. प. ९६२ ) ५६. तत्थ णं जे ते माद्वितीया विसमाउया समोववन्नगा ते गं विसेसाहियं कम्म करेंति । ५७, ५८. तथा ये विषमायुषः समोपपन्नकास्ते विमात्रस्थितयः समोत्पन्नत्वेन च समानयोगत्वात् तुल्यविशेषाधिकं कर्म कुर्वन्तीति ३, ( वृ. प. ९६२) ५९. तत्थ णं जे ते विसमाउया विसमोववन्नगा ते णं माद्वितीया मायसेसाहियं क्रम्मं परैति । ६०,६१. तया ये विषमापन्नास्ते विमानस्थितयो विषमोत्पन्नत्वाच्च योगवैषम्येण विमात्रविशेषाधिकं कुर्वन्तीति । (बु.. ९६२) ६२. से गोवमा ! जाव वैमासिक पकरेंति । (म. २३४०) सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरति । (श. ३४।४१ ) ० ३४, श० १, डा० ४८८ ३८१ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १. प्रथम उद्देशे अर्थ थी, आरूपो अप क्रम द्वितीय उद्देश ते, अनंतरोपपत्रक एकेन्द्रिय जीवों के २. कतिविध हे भगवंतजी ! एकेंद्रिया परूपिया ? जिन ढाल : ४८९ अति अनंतरोत्पन्न अधिकार । धार || *लय इन्द्र कहै नमिराय नें ३८२ भगवती जोड़ प्रकार, स्थान आदि अनंतरोत्पन्न कहै पंच ताय । जाव ३. पृथ्वीकायिक आदि दे द्विपद भेद करि जिम एकेंद्रिय शत विषे, बादर तरुकाय ॥ वा० अनंत एकेन्द्रिय अधिकारी अनंतशेप में पर्याप्तकपणं नां अभाव थकी अपर्याप्ता थका ने सूक्ष्म अर्न बादर ए दोनूंह पद नों भेद जिम एकेंद्रिय शतक नैं विषे यावत वादर वनस्पतिकायिक कह्या एतला लगे कहिवो । धार । प्रकार ।। ४. हे भगवंत ! किहां कह्या, बादर पृथ्वीकाय नां ५. जिन कहै स्व स्थानक करी, * जोजो रे ज्ञान जिनेंद्र नौं । (धुपदं अनंतरोत्पन्न ताह्यो रे । स्थानक तेह बतायो रे ? पृथ्वी आठ विषेहो रे । रत्नप्रभा ने आदि दे, तिम ठाग पदे का हो रे । ६. जिम पावण ने बीजे पदे, आयो तिम कहिवायो रे । जिम यावत द्वीप समुद्र विषे, पाठ इहां लग आयो रे ।। ७. इहां अनंतरोपपन जिके, बादर पृथ्वीकायो रे । तेनां स्थानक आखिया, इम भाखे जिनरायो रे ।। प. उपपाते करिने जिके, सर्व लोक ने मांह्यो रे । वाटे वहितां पामिये मध्यवर्ती गति करि जायो रे ।। वा० -उपपाते करी सर्व लोक नैं विषे किम तत्रोत्तरं—उपपात सन्मुख करी अपांतराल गति प्रवृत्ति थकी इत्यर्थः । ९. तथा मारणांतिक समुद्घात करि, सर्व लोक ₹ मांह्यो रे । पूठला भव नीं अपेक्षया वृत्ति विषे इस वायो रे ।। वा० - तथा समुद्घात एतले - मारणांतिक समुद्घाते करी सर्व लोक नैं विषं उपपात अने मारणांतिक समुद्घात - ए बिहुं करी अतिबहुपणां थकी सर्व लोक नै विषे व्यापी नै रहे । इहां इसी स्थापनाये करीनें भावना करवी - २. कइविहा गं भंते! अणंतरोववन्नगा एगिंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा अणतरोववन्नगा एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा - बादरवणस्स इकाइया य । २. विकाइया मामेदो जहा एमिडिया (म. २४/४२) वा० 'दुवामेदो' सि अनन्तरोपपन्नन्द्रियाधिकारादनन्तरोपपन्नानां च पर्याप्तकत्वाभावादपर्याप्तकानां सतां सूक्ष्मा बादराश्चेति द्विपदो भेदः, (बु. प. ९६३) ४. कहि णं भंते ! अणंतरोववन्नगाणं बादरविकाइया ठाणा पत्ता? ५. गोयमा ! सद्वाणेण अट्ठसु पुढवीसु तं जहा रयणप्पभाए जहा ठाणपदे ( प. २१) ६. दो समु ७. एत्थ अतरोपवनगाणं दादरपुढ विकाइवान णं ठाणा पण्णत्ता, ८. उववाएणं सव्वलोए । वा० उदवाएणं सव्वलोए समुन्याएवं सम्यलोए ति कथम् ? 'उपपान' उपपाताभिमुख्येनापान्तराजमतिवेत्वर्थ: : (बृ. प. ९६३) 1 ९. समुन्याणं सव्वलोए । वा० - समुद्घातेन मारणान्तिकेनेति, ते हि ताभ्यामति बहुत्वात्सर्वलोकमपि व्याप्य वर्त्तन्ते इह विभूतया स्थापनया भावना कार्या Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहां पहिलो एक वक्र जइ जिवार हीज संहरै तिवार हीज ते वक्र देश प्रतं अनेरा पूरै । इम द्वितीय वक्र संहरण विष पिण कहिवू । अन अवक्र ते ऋजुगति करिक ऊपनां छता पिण प्रवाह थकी भावना करवी । अनंतरोत्पन्नकपणों वलि इहां भावी भव प्रतै अपेक्षी नै ग्रहिवो, अपांतराले अनंतरोत्पणां नां साक्षात अभाव थकी अनै मारणांतिक समुद्घात पिण पूठला भव नी अपेक्षाये कहिवो, अनंतरोत्पन्नक अवस्था नै विषे ते समुद्घात ना अभाव थकी। १०. स्व स्थानक करि लोक नै, असंख्यातमें भागो रे । न्याय कहूं छू तेहनों, सुणजो चतुर सुमागो रे ।। सोरठा ११. रत्नप्रभादिक माग, फन विमान जे लोक नै । असंख्यातमें भाग, बादर मही स्व स्थान थी। अत्र च प्रथमवक्रं यदैवैके संहरन्ति तदैव तद्वक्रदेशमन्ये पूरयन्ति, एवं द्वितीयवक्रसंहरणेऽपि अवक्रोत्पत्तावपि प्रवाहतो भावनीयम्, अनंतरोपपन्नकत्वं चेह भाविभवापेक्षं ग्राह्यमपांतराले तस्य साक्षादभावात्, मारणांतिकसमुद्घातश्च प्राक्तनभवापेक्षयाऽनन्तरोपपन्नकावस्थायां तस्यासम्भवादिति । (व. प. ९६३, ९६४) १०. सट्ठाणेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे । ११. सहाणेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे' त्ति, रत्नप्रभादि पृथिवीनां विमानानां च लोकस्यासंख्येयभागवत्तित्वात् । (वृ ए. ९६४) १२,१३. अणंतरोववन्नगसुहुमपुढविक्काइया एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोए परियावन्ना पण्णत्ता समणाउओ! १४. एवं एएणं कमेणं सब्बे एगिदिया भाणियव्वा, सट्टाणाई सब्वेसि जहा ठाणपदे । १२. *अनंतरोत्पन्न छै तिके, सूक्ष्म पृथ्वीकायो रे । ___ एक प्रकारज तेहनों, विशेष रहित कहायो रे ॥ १३. नानात्व भेद रहित ते, व सर्व लोक रै मांह्यो रे । हे श्रमण आउखावंत ! सुणो, इम भाखै जिनरायो रे ।। १४. इम इण अनुक्रमे करी, सर्व एगिदिया भणवा रे । स्व स्थानक करि सर्व नैं, जिम ठाण पदे तिम थुणवा रे॥ १५. ए पृथ्वीकायिक आदि दे, पर्याप्तक पहिछाणी रे । बादर नों ए आखियो, वारू रीत बखाणी रे ।। सोरठा १६. बादर मही नां स्थान, रत्नप्रभादिक नै विषे । बादर अप नां जान, सप्त घनोदधि प्रमुख में ।। १७. बादर तेउ नां ताम, अंतो मानुष्यक्षेत्र में। बादर वाउ नां आम, सत्त घनवाय वलियादि में ।। १५,१६. तेसि पज्जत्तगाणं बादराणं । इह तेषामिति पृथिवीकायिकादीनां, स्वस्थानानि चैवं बादरपृथिवीकायिकानां 'अट्ठसु पुढवीसु तंजहारयणप्पभाए' इत्यादि, बादराप्कायिकानां तु 'सत्तसु घणोदहीसु' इत्यादि। (वृ. प. ९६४) १८. बादर वणस्सइकाय, सप्त घनोदधि आदि में। ए पृथ्व्यादिक ताय, पज्जत्त बादर नों स्थान स्व ।। १९. ऊपजवो समुद्घात ही, स्व स्थानक फुन जेमो रे । तसु पर्याप्त तणां कह्या, अपज्जत्त बादर नां तेमो रे ।। २०. अथवा सूक्ष्म सर्व ने, जिम मही नै कहिवायो रे । तिमहिज कहिवा जाव ही, वनस्पति लग ताह्यो रे ।। १७. बादरतेजस्कायिकानां तु 'अंतोमणुस्सखेत्ते' इत्यादि, बादरवायुकायिकानां पुनः 'सत्तसु घणवायवलएसु' इत्यादि । (वृ. प. ९६४) १८. बादरवनस्पतीनां तु 'सत्तसु घणोदहीसु' इत्यादि । ___ (वृ. प. ९६४) १९. उववाय-समुग्घाय-सट्ठाणाणि जहा तेसि चेव अपज्जत्तगाणं बादराणं । २०. सुहुमाणं सव्वेसि जहा पुढविकाइयाणं भणिया तहेव भाणियब्वा जाव वणस्स इकाइयत्ति । (श. ३४०४३) २१. अणंतरोववन्नगाणं सुहमपुढविक्काइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताआ? गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ। २१. अनंतरोत्पन्न छै जिके, सूक्ष्म मही में स्वामो रे । कर्मप्रकृति कही केतली ? जिन कहै अष्ट तमामो रे ॥ *लय : इन्द्र कहै नमिराय ने श० ३४, ढा० ४८९ ३८३ Jain Education Intemational Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. इम जिम एकेंद्रिय शते, अणंतरोववण्ण उद्देशे रे । भाख्यो तिणहिज रीत तूं, कहि एह अशेषे रे ।। २३. तिमहिज बांधै कर्म नैं, तिमहिज वेदै ताह्यो रे । जाव अणंतरोववण्णगा, बादर वणस्सइकायो रे ।। २४. अनंतरोत्पन्न एकेद्रिया, प्रभु ! किहां थकी उपजेहो रे । जिम कां ओघिक उद्देशके, ' तिमहिज कहि→ एहो रे ॥ २५. अनंतरोववन्न एकेंद्रिया, - प्रभु ! तसु किती समुद्घातो रे ? जिन कहै बे समुद्घात छै, वेदनी कषाय विख्यातो रे ।। २२. एवं जहा एगिदियसएसु अणंतरोववन्नगउद्देसए तहेव (३३।१७-२०) पण्णत्ताओ। २३. तहेव बंधति, तहेव वेदेति जाव अणंतरोववन्नगा बादरवणस्सइकाइया। (श. ३४।४४) २४. अणंतरोववन्नगएगिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति? जहेव ओहिए उद्देसओ (३४।३७) भणिओ तहेव । (श. ३४।४५) २५. अणंतरोववन्नगएगिदियाणं भंते ! कति समुग्घाया पण्णत्ता? गोयमा ! दोन्नि समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा-- वेदणासमुग्घाए य कसायसमुग्घाए य । (श. ३४।४६) सोरठा २६. अनंतरोत्पन्न मांय, मारणांतिक आदि दे। समुद्घात नहिं पाय, ते माटे धुर बे कही ।। २६. समुद्घातसूत्रे-'दोन्नि समुग्घाय' त्ति, अनन्तरोपपन्नत्वेन मारणांतिकादिसमुद्घातानामसम्भवादिति । (वृ, प. ९६४) २७. अणंतरोववन्नगएगिदिया णं भंते ! कि तुल्लट्ठितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंतिपुच्छा तहेव । २८. गोयमा ! अत्थेगइया तुल्ल द्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति, अत्थेगइया तुल्ल द्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति । (श. ३४।४७) २७. *अणंतरोववण्ण एगिदिया, स्यूं तुल्यठितीया भदंतो! रे। कर तुल्य विशेषाधिक कर्म, तिमहिज प्रश्न पूछतो रे ।। २८. जिन कहै केइ तुल्यस्थितिका, तुल्यविशेषाधिक कर्म बांधतो रे। तथा केतलाइक तुल्यस्थितिका, विमात्रविशेषाधिक कर्म करतो रे ।। २९. किण अर्थे भगवंत जी! यावत ही पहिछाणी रे। विमात्र विशेषाधिक कर्म, पकरै तेह अयाणी रे? ३०. जिन कहै अणंतरोववण्णगा, एगिदिया छै तेहो रे । दोय प्रकार परूपिया, आगल तेह कहेहो रे ।। ३१. केई सरीखै आउखै, ते समकाले उपन्ना रे। केई सरीखै आउखै, विषम अद्धा उववन्ना रे ।। ३२. तिहां सम आउखावंत जिके, ऊपना सम कालेहो रे । ते तुल्यस्थितिका जाणवा, तुल्यविशेषाधिक कर्म करेहो रे ।। सोरठा ३३. धुर समयोत्पन्न जास, पर्याय जे आश्रयी। समय मात्र स्थिति तास, अनंतरोत्पन्न ते भणी ।। ३४. एक समय उपरंत, परंपरोत्पन्न जे हवै। अनंतरोत्पन्न मंत, सम आयु इक समय स्थिति ।। ३५. सम काले उपपन्न, एकहीज समया विषे । उत्पत्ति स्थान प्रपन्न, ते माटै ए तुल्य स्थितिक ।। २९. से केणटेणं जाव वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति? ३०. गोयमा ! अणंतरोववन्नगा एगिदिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा३१. अत्थेगइया समाउया समोववन्नगा, अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा। ३२. तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा ते णं तुल्ल द्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । ३३. ये समायुषः अनन्तरोपपन्नकत्वपर्यायमाश्रित्य समयमात्र स्थितिका: वृ. प. ९६४) ३४,३५. तत्परतः परम्परोपपन्नकव्यपदेशात् समोप पन्नका: एकत्रैव समये उत्पत्तिस्थान प्राप्तास्ते तुल्यस्थितयः (वृ. प. ९६४) लय : इन्द्र कहै नमिराय नै ३८४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. सम उपपन्नपणेह, जे सम जोग थकी जिके। तुल्य विशेष अधिकेह, कर्म प्रते बांधे तिके ॥ वा० - इहां अनंतरोत्पन्नकपणुं एक समय स्थितिक मार्ट सम आयु सम स्वितिक मार्ट तुपस्थितिका कहा। अने समकाले अपना ते माहोमांनीं अपेक्षाये समजोगपणां थकी तुल्य कर्म बांधे। अने पूर्व काल बद्ध कर्म नीं अपेक्षया विशेषाधिक कर्म बांधे, ते मार्ट ए प्रथम भांगे तुल्य विशेषाधिक कर्म बांध एवं कहां तु विशेषाधिक कर्म तेनो न्याय एवं जगाव छे । ३७. *तिहां सम आउखावंत जिके, ते तुपस्थितिका जाणवा, विमात्र विशेषाधिक कर्म करेहो रे ।। सोरठा ३८. तिमज समायुवंत, विषम काल करि ऊपनां । विग्रह गति करि जंत, समयादिक भेदे करी ॥ ३९. इम पाया उत्पत्ति स्थान, अपनों विषम कालेहो रे । तुपस्थितिक पिण जीव ते । विषम काल करि ऊपनां ॥ बली विग्रह पिग तिके । बंधपण वो जे वांधे विमान विशेषाधिक कर्म ।। 1 आयु उदय पिछान, ४०. अद्धा विषमपणेह, वा०-विषमस्थितिका समकाले ऊपनां ए तीजो भांगो अने विषम ए अंतिम बे भांगा अनंतरोत्पन्नकपणां स्थितिका विषम कालपर्णे करी ऊपनां ए चउथो भांगो । अनंतरोत्पन्न ते प्रथम समय नां ऊपनां नं न संभव, नैं विषे विषम स्थिति नां अभाव थकी । वलि ए बे भांगा जाणवा मात्र हीज इति । ४१. "ति अर्थे करि इम को, जाव विमात्र विशेषाधिक जाणी रे । कर्म बांधे ते जीवड़ा, सेव भते! सेवं भंते! माणी रे ॥ ।। इति ३४।१।२।। सोरठा ४२. द्वितीय उसे अर्थ, उद्देशे अनंतरोत्पन्न आखिया । तृतीय उद्देश तदर्थ परंपरोत्पन्न हिव कहे ।। परंपरोत्पन्नक एकेन्द्रिय जीवों के प्रकार, स्थान आदि ४३. *कतिविध हे भगवंतजी ! परंपरोत्पन्न जेहो रे । एगिदिया जे आंखिया ? जिन कहै पंच विधेहो रे ।। *लय : इन्द्र कहै नमिराय नं १६. समोपपन्नकत्वेन समयोगत्यात् गुत्यविशेषाधिक कर्म प्रकुर्वन्ति (बृ. प. ९६४) ३७. तत्थ णं जे ते समाज्या विसमोववन्नगा ते णं तुल्लद्वितीया मायसेसाहिब कम्मं पकरेति । ३८-४०. ये तु समायुषस्तथैव विषमोपपन्नका विग्रहगत्या समयादिभेदेनोत्पत्तिस्थानं प्राप्तास्ते तुल्यस्थितयः आयुष्कोदयवैषम्येणोत्पत्तिस्थानप्राप्तिकालवैषम्यात् विग्रहेऽपि च बन्धकत्वाद् विमात्रविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति, (बृ. प. ९६४ ) वा० - विषमस्थितिकसम्बन्धि त्वन्तिमभङ्गद्वयमनन्तरोपपन्नकाना न संभवत्यनन्तरोपपन्नकत्वे विषमस्थितेरभावात् एतच्च गमनिग्रामात्रमेवेति, (बृ. प. ९६४) ४१. से तेजाव वेमायवितेसाहियं कम्म परेति । (श. ३४(४८) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (. २४९४९) ४३. कइविहा णं भंते ! पण्णत्ता ? गोयमा ! पण्णत्ता, परंपरोववन्नगा एगिंदिया पंचविहा परंपरोववन्नगा एगिदिया तं जहा श० ३४, ढा० ४८९ ३८५ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. पुढविक्काइया, भेदो चउक्कओ जाव वणस्सइकाइयत्ति। (श. ३४/५०) ४४. पृथ्वीकायिक आदि दे, ___ जाव चउक्क भेद करि कहिवा रे । जाव वनस्पतिकायिका, एतला लगेज लहिवा रे ।। ४५. परंपरोत्पन्न अपज्जत्ता, प्रभु ! सूक्ष्म पृथ्वी जंतो रे । ए रत्नप्रभा पृथ्वी तणां, पूर्व नै चरिमंतो रे ।। ४६. समुद्घात मारणांतिकी, करै करीनै जेहो रे । जेह भविक जे जीवड़ा, योग्य ऊपजवा तेहा रे ।। ४७. रत्नप्रभा पृथ्वी तणां, जाव पश्चिम चरिमतो रे । अपज्जत्त सूक्ष्म महीपणे, जेह ऊपजे जंतो रे ॥ ४८. इम इण अभिलापे करी, जिम कह्यो प्रथम उद्देशो रे । जाव लोक चरिमांत ही, इहां लगै सुअशेषो रे ।। ४५. परंपरोववन्नगअपज्जत्तासुहमपुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते ४६,४७. समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्प भाए पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तासृहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए? ४८, एवं एएणं अभिलावेणं जहेब पढमो उद्देसओ (३४।२-३२) जाव लोगचरिमंतो त्ति । (श. ३४१५१) ४९, कहि णं भंते ! परंपरोववन्नगबादरपूढविक्काइयाणं ठाणा पण्णत्ता ? ५०. गोयमा ! सट्ठाणेणं अट्ठसु पुढवीसु । ४९. हे भगवंत ! किहां कह्या, परंपरोत्पन्न जानो रे। पर्याप्तक बादर जिके, पृथ्वीकाय नां स्थानो रे? ५०. जिन कहै स्व स्थाने करी, पृथ्वी अष्ट विषेहो रे। इत्यादिक पूर्वे को, तिमहिज कहिवं तेहो रे ।। ५१. इम इण अभिलापे करी, जिम प्रथम उद्देशे सारो रे । जाव तुल्यस्थितिका प्रमुख जे, सेवं भंते ! बे वारो रे।। ॥इति ३४११॥३॥ ५२. इम शेष पिण अष्ट उद्देशका, जाव अचरम लगेहो रे। णवरं इतरो विशेष छै, सांभलजो चित देहो रे ।। ५३. अनंतर नां उद्देशका, अनंतर सरीखा कहिवा रे। परंपर नां उद्देशका, परंपर सरीखा लहिवा रे ।। ५४. चरम अने अचरम अपि, एवं चेव कहेहो रे । इम ए ग्यार उद्देशका, प्रथम एकेंद्रि श्रेणि शतकेहो रे ।। ५५. चउतीसम अंतर शत प्रथम, __ च्यार सय नै नय्यासीमी ढालो रे । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मगलमालो रे॥ ॥इति ३४।११४-११॥ ५१. एवं एएणं अभिलावेणं जहा पढमे उद्देसए (३४।३३-४१) जाव तुल्लट्ठितीयत्ति । (श. ३४१५२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३४।५३) ५२. एवं सेसा वि अट्ट उद्देसगा जाव अचरिमो त्ति, नवरं५३. अणंतरा अणंतरसरिसा, परंपरा परंपरसरिसा, ५४. चरिमा य अचरिमा य एवं चेव । एवं एते एक्कारस उद्देसगा। (श. ३४।५४) *लय : इन्द्र कहै ममिराय ने * भगवती और Jain Education Intemational Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ norant आदि एकेन्द्रिय के प्रकार, स्थान आदि दूहा २. १. कृष्णलेशी एकेंद्रिया, कतिविध हे भगवंत ? जिन है पंचविधे कह्या, कृष्णलेशी एकेंद्रिय जंत ॥ • भेद चउक्क करिने जिके, कृष्णलेशी एकेंद्री शत मांय । जेम का तिम आखवूं जाव वनस्पतिकाय || ३. कृष्णलेशी अपर्याप्ता, सूक्ष्म मही भदंत ! आ रत्नप्रभा पृथ्वी तणां पूर्व नं चरिमंत || ४. इम इण अभिलापे करो, जिम ओघ उद्देशक जेह | जाव लोक चरिमांत इम, कहिवूं सगळं तेह || ५. सगले ही उपजाविवो, लेश्या कृष्ण विषेह वारू वर उपयोग सूं, न्याय करीने जेह ॥ * जय जय ज्ञान जिनेंद्र नों॥ ( ध्रुपदं ) जिके, कृष्णलेशी ताम । स्थान परूप्या स्वाम ? जिम ओधिक उददेश । सेवं भंते! जिनेश || ढाल : ४९० ६. हे भगवंत ! किहां अपज्जत्त बादर मही तणां ७. इम इण अभिलापे करी, जाव तुल्यस्थितिका लगे, ८. इम इस अभिलापे करी, प्रथम श्रेणि शत जेम तिमहिज ग्यार उद्देशका, ते भगवा धर प्रेम ॥ ।। इति ३४।२।१-११॥ ९. इम नील लेश्या संघात ही तृतीय शतक कहिवाय । इमज कापोत संघात ही, तुर्य शतक एथाय ॥ १०. भवसिद्धिक एकेंद्रिय, संपाते सुविचार | उदार ॥ पंचम शतक कहोजिये, श्री जिन वचन ।। इति ३४६३-५।। ११. प्रभु ! कतिविध कृष्णलेशी जिके, भव्य एकेंद्रिय ताय । इम जिम अधिक उद्देश आयो तिम कहिवाय ॥ १२. कतिविध हे भगवंतजी ! अनंतरोत्पन्न जात । , । कृष्णलेशी भवसिद्धिया, १३. जिमन अनंत रोत्पन्न तणों, आख्यो तिमाहिज रीत सूं १४. कतिविध हे भगवंतजी एगिंदिया आख्यात ? अधिक जेह उद्देश । कहियो सुविशेष ॥ परंपरोत्पन्न जात कृष्णलेशी भवसिद्धिया, एगिंदिया आख्यात ? *लय वैरागे मन वाली : १. कइविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा एगिंदिया पण्णत्ता ? मोयमा | पंचविह कहलेस्सा एविदिया पणत २. भेदो चउक्कओ जहा कण्हलेस्सए गिदियसए जाव areeइकाइयत्ति | (रा. ३४१५५) ३. कहले अपताकाणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले ? ४. एवं एएवं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देसओ (३४/२-३२) जाव लोगरिमतेति । ५. सव्वत्थ कण्हलेस्सु चेव उववाएयव्वो । (श. ३४।५६ ) ६. कहि णं भंते! कण्हलेस्सअपज्जत्ताबादरपुढविक्काइयाणं ठाणा पण्णत्ता ? ७. एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहि (३४।३३-४१ ) जाव तुल्लट्ठइयत्ति । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति । ८. एवं एएवं अभिलावेगं जहेब पह (२४४२-४९) व एक्कारस उगा भागिववा (श. ३४१५९) (श. ३४१५७ ) (श. ३४/५८ ) सेसिय ९. एवं नीललेस्सेहि वि सतं । काउलेस्सेहि वि सतं एवं चेव । १०. भयसिद्धिएगिदिए। (श. ३४/६० ) १२. कइ विहा णं भंते ! अनंतरोववन्ना सिद्धिया एगिंदिया पण्णत्ता ? १३. जहेव अताउ (३४१४२-४९) तब | १४ कनिहा भंते! परंपरोययन्ना सिद्धिया एगिंदिया पण्णत्ता ? ११. कइविहा णं भंते! कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पण्णत्ता ? जहेव ओहिउद्देसओ (३४।१-४१ ) (श. ३४/६१ ) कण्हलेस्सा भव ओहियो (. ३४०६२) कष्टलेस्सा भय ० ३४ ० ४९० ३८७ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १५. जिन कहै पंच प्रकार ही परंपरोत्पन्न पेख कृष्णलेशी भवसिद्धिया, एगिंदिया १६. अधिक नीं पर एहनां जाव वनस्पतिकायिका १७. परंपरोत्पन्नका प्रभु ! भवसिद्धिक अपर्याप्ता, १८. आ रत्नप्रभा पृथ्वी तणां इम इन अभिलापे करी, सुविशेख || कहिवा जे चिहुं भेद । इहां लगै संवेद || कृष्णलेशी सूक्ष्म इत्यादिक अवधार कहियो सुविचार || १९. जिमज अधिक उद्देशको आरूपो तिम कहिवाय । जाव लोक चरिमंत सि अर्थ इहां लग आय || २०. सगले ही कृष्णलेशी जिके, भवसिद्धिका विषेह उपजाविवो विध रीत सूं, पूर्वली पर जेह ॥ २१. प्रभु ! किहां परंपरोववन्नगा, कृष्णलेशी जान | waefae पर्याप्तका, बादर पृथ्वी मां स्थान ? २२. इम इण अभिलापे करी, जिमज ओधिक उद्देश । जाव तुल्यस्थितिका लगे, कहिवो सर्व अशेष ॥ २३. इम इण अभिलापे करी, कृष्णलेशी जेह । भवसिद्धिक एकेंद्रिया, एह विषे पिण लेह ॥ २४. तिमज इग्यार उद्देशका, संयुक्त शत जोय । षष्ठम शत ए आखियो, सप्तम हिव अवलोय || ॥ इति ३४ | ६ || २५. नीललेशी भयसिद्धिया एकेंद्रिय में विषेह । शतक सप्तमूं जाण, अर्थ थकी कहां एह ॥ २६. इम काउलेशो भवसिद्धिय एकेंद्रिय संघात । कहिवो शतकज आठमों, ए अष्टम शत ख्यात ।। २७. जिम भवसिद्धिक संपात ही, भणिया शतक ए च्यार। इम अभवसिद्धिक संघाते अधि ताय । पृथ्वीकाय || २८. वरं चरम अचरम ही, कहिवा नव उद्देशका, २९. एकेंद्रिय श्रेणि शत भला, इम ए आख्या बार । सेवं भंते ! स्वामजी यावत विचरै उदार ॥ इति एकेंद्रिय श्रेणि शतानि एतले बारे अंतर शतक सहित चउतीसम शतक संपूर्ण ॥ ३८८ भगवती जोड भणिवा चिहुं शत धार ॥ वर्जी बिहुं आलाव । शेष तिमज सहु भाव ॥ ।। इति ३४।।७-१२। ३०. ढाल च्यारसौ ऊपरै, सखर नेऊमीं न्हाल | भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय जय' हरष विशाल || ॥ १५. गोयमा ! पंचविहा परंपरोववन्ना कण्हलेस्सा भवसिद्धियागिदिया १६. भेदो चउक्कओ (३४।५१-५४) जाव वणस्स इकाइयत्ति । (रा. ३४१५३) १७. परंपरोलेक्स भव सिद्धि अपज्जामविकाइए! १८. इमीसे रयणप्पभाए अभिलावेगं एवं एएणं १९. जब ओहिओ उसओ (२४०५१) जावलोयचरित त्ति । ए? २०. सव्वत्थ कण्हलेसेसु भवसिद्धिएसु उववाएयव्वो । (श. ३४।६४ ) २१. परंपरोवचन्नाकहस्सभवसिद्धियपत्तावादरवाइया ठाणा पण्णत्ता ? २२. एवं एए अलावे व ओहियो उसओ (३४११२) जाव तुल्लदिवत्ति । २३. एवं एएवं अभिलावेणं कण्हलेस्सभवसिद्धिय एगिदिएहि वि । २४. तव एक्कारसउद्देसगसंजुत्तं छट्ठ सतं । (१.३४१६५) २५. नीलवसितं । २६. एवं काउलेस्सभवसिद्धियएगिदिएहि वि सतं । २७. जहा भवसिद्धिएहि पसारि साणि एवं अभवसिद्धिएहि विचत्तारि सयाणि भाणियव्वाणि, २८. नवरं चरिमरिमला नव उद्देसवा भाषियवा सेसं तं चैव । २९. एवं एयाई बारस एगिदियसेढीसताई | (श. ३४।६६ ) सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ | (श. ३४/६७ ) Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलश - छंद १. जसु वाणि दीपशिखा समो चित भ्रान्ति ध्वान्त निवारणी, गंभीर गृह सम ग्रन्थ अर्थ विषे प्रकाश विशारणी । फुन बुद्धि बल करि देव गुरु प्रतिभा प्रभा दूरी हरी, हवा जु सुगुरु प्रताप थी वर जोड़ रचना शुभ करी ॥ १. यद्गीर्दीपशिखेव खण्डिततमा गम्भीरगेहोपम ग्रन्थार्थप्रचयप्रकाशनपरा सद्दृष्टिमोदावहा । तेषां ज्ञप्तिनिनिजितामरुप्रज्ञाथिया श्रेयस, सूरीणामनुभावतः शतमिद व्याख्यातमेवं मया ॥ १ ॥ (वृ. प. ९५४) श० ३४, डा० ४९० ३८९ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तम शतक Jain Education Intemational Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तम शतक ढाल : ४९१ १. चउतीसम एकेंद्रिया, श्रेणि प्रक्रम करेह । प्राये बहलपणे करी, परूपिया छै एह ।। २. पंचतीसमें तेहिज फुन, राशि प्रक्रम करेह । परूपिय ते सांभलो, आदि अर्थ तसु एह ।। महायुग्म के प्रकार ३. हे भगवंतजी ! केतला, महायुग्म आख्यात ? जिन भाखै सोलै कह्या, महायुग्म अवदात ।। ४. इहां युग्म शब्दे करी, राशि युग्म कहिवाय । ते फुन क्षुलका पिण हुवै, पूर्व का छै ताय ।। १. चतुस्त्रिशशते एकेन्द्रियाः श्रेणीप्रक्रमेण प्रायः प्ररूपिताः, (वृ. प. ९६४) २. पञ्चत्रिशे तु त एव राशिप्रक्रमेण प्ररूप्यन्ते इत्येवंसम्बन्धस्यास्य द्वादशावान्तरशतस्येदमादिसूत्रम् (व. प. ९६४) ३. कइ णं भंते ! महाजुम्मा पण्णत्ता? गोयमा ! सोलस महाजुम्मा पण्णत्ता, तं जहा४. इह युग्मशब्देन राशिविशेषा उच्यन्ते ते च क्षुल्लका अपि भवन्ति यथा प्राक् प्ररूपिताः (वृ. प. ९६५) ५. अतस्तद्वयवच्छेदाय विशेषणमुच्यते (वृ. प. ९६५) ५ ए कारण थी तेहनों, व्यवछेदन मैं काज । ___ एह विशेषण आखियो, महायुग्म ए साज ।। ६. मोटा फुन ते युग्म छै, महायुग्म ते जान । एह विशेषण आखियो, ते षोडश अभिधान ।। ६. महान्ति च तानि युग्मानि च महायुग्मानि, (वृ. प. ९६५) ७. १. कडजुम्मकडजुम्मे, २. कडजुम्मतेओगे, ३. कड जुम्मदावरजुम्मे, ४. कडजुम्मकलियोगे, ७. 'महायुग्म सोले कह्या, धुर कडजुम्मकडजुम्मे, काइ कडजुम्मतेओगे हो लाल । कडयुग्मद्वापरयुग्म ही, वली चतुर्थो कहिये, कांइ कडजुम्म नै कलिओगे हो लाल ।। हिवै कडजुम्म-कडजुम्मे नों अर्थ कहै छै जे राशि सामयिक चतुष्क ते च्यार द्रव्य अपहारे करी अपहरतां थकां च्यार छहई हवं अन तेह राशि नां अपहार समय नै पिण चतुष्क ते च्यार अपहारे करी चतुःपर्यवसित हीज हुवै एह राशि कृतयुग्म-कृतयुग्म इसो कहिये । एतले द्रव्य अपहार नी अपेक्षाये चोकड़ा था। तथा समय पिण चतुष्क अपहरता पिण चोकड़ा था एतले द्रव्य पिण कृतयुग्म, समया पिण कृतयुग्म । ते भणी कडजुम्म-कडजुम्म कहिये । ते निश्चय जघन्य थी सोल रूप हुदै । ए सोल माहे समय-समय च्यार-च्यार द्रव्य अपहार थकी चतुरग्रपणां थकी छेहड़े च्यार हुवै। तेहनां भाव थकी अनै समय नै पिण चतुर संख्यपणां थकी कडजुम्मकडजुम्म कहिये । (१) हिवै कडजुम्म-तेओगे नों अर्थ कहै छैकडजुम्मतेउयत्ति जेह राशि प्रतिसमये च्यार-च्यार अपहारे करी अपहरतां वा०-'कडजुम्मकड जुम्मे'त्ति यो राशि: सामयिकेन चतुष्कापहारेणापह्रियमाणश्चतुष्पर्यवसितो भवति अपहारसमया अपि चतुष्कापहारेण चतुष्पर्यवसिता एव असौ राशि: कृतयुग्मकृतयुग्म इत्यभिधीयते, अपह्रियमाणद्रव्यापेक्षया तत्समयापेक्षया चेति द्विधा कृतयुग्मत्वात्, एवमन्यत्रापि शब्दार्थो योजनीयः, स च किल जघन्यत: षोडशात्मकः, एषां हि चतुष्कापहारतश्चतुरग्रत्वात्, समयानां च चतु: सङ्खचत्वादिति १, 'कडजुम्मतेओए' त्ति, यो राशिः प्रतिसमयं चतुष्कापहारेणापह्रिमाणस्त्रिपर्यवसानो भवति *लय : पातक छानो नहीं रहे श० ३५, उ० १, ढा०४९१ ३९३ Jain Education Intemational Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्समयाश्चतुष्पर्यवसिता एवासावपहिगयमाणापेक्षया व्योज:, अपहारसमयापेक्षया तु कृतयुग्म एवेति कृतयुग्मन्योज इत्युच्यते, तच्च जघन्यत एकोनविशतिः, तत्र हि चतुष्कापहारे त्रयोऽवशिष्यन्ते तत्समयाश्चत्वार एवेति २, एवं राशिभेदसूत्राणि तद्विवरणसूत्रेभ्योऽवसेयानि इह च सर्वत्राप्यपहारकसमयापेक्ष, माद्यं पदं अपहियमाणद्रव्यापेक्षं तु द्वितीयमिति, (वृ. ९६५,९६६) वा०-कृतयुग्मद्वापरे राशावष्टादशादयः, (वृ. प. ९६६) वा०कृतयुग्मकल्योजे सप्तदशादयः (वृ. प. ९६६) थका तीन छेहड़े हुवे। तेहनां समया च्यार शेषहीज एह अपहरता थकांनी अपेक्षाये ज्योज। अपहार समय नी अपेक्षाये तो कृतयुग्म हीज इति कृतयुग्मत्योज कहिय । तेह जघन्य थकी उगणीस । तिहां च्यार नै अपहारै तीन रहै, तेहनां समय च्यारहीज। इमहिज राशि भेद नां सूत्र तेह विवरण सूत्र थकी जाणवो। इहां सगलेई अपहार समय नी अपेक्षाये आद्य पद जाणवो । अनै अपहियमाण द्रव्य अपेक्षा तो बीजो पद इति । (२) हिवै कडजुम्म-दावरजुम्मे नों अर्थ कहै छै-- जे राशि नै समय-समय प्रति च्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां छेहडै दोय द्रव्य हुवै ए द्वापरयुग्म । अनै अपहार समय नै पिण च्यार-च्यार अपहरतां छेहडै च्यार समय हुवै ए समय कृतयुग्म हीज इति ए कृतयुग्म-द्वापरयुग्म कहिये। ते जघन्य थकी अठारै। ते अठारै द्रव्य नै समय-समय च्यार-च्यार द्रव्य अपहरवै शेष २ हुवै । तेहनां समय च्यार हीज । इहां अपहार समया च्यार छै ते भणी समया नै कृतयुग्म कहिये । अनै राशि नां द्रव्य नै च्यार-च्यार अपहरतां छहई ने द्रव्य रह्या ते भणी ए राशि नै द्वापरयुग्म कहिये। ते माटै एहनं नाम कृतयुग्म-द्वापरयुग्म छ। (३) हिवै कडजुम्म-कलिओगे नों अर्थ कहै छै जे राशि नै समय-समय प्रति च्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां छेहडै एक द्रव्य हुवै ए कलिओग। अनै अपहार समय नै पिण च्यार-च्यार अपहरतां छेहड़े च्यार समय हुवै ए समय कृतयुग्म हीज इति ए कृतयुग्म-कलिओग कहियै । तेह जघन्य थकी सतर। ते सतरै द्रव्य नै समय-समय च्यार-च्यार द्रव्य अपहरै छेहडै १ हुवै । तेहनां समय च्यार हीज। इहां अपहार समया च्यार छै ते भणी समया नै कृतयुग्म कहिये। अनै राशि नां द्रव्य नै च्यार-च्यार अपहरतां छेहड़े एक द्रव्य रह्यो ते भणी ए राशि नै कलियोग कहिये। ते माटै एहनुं नाम कृतयुग्म-कलिओग छ। (४) ए कडजुम्म समय पदे करी ४ रूप कह्या । हिवे तेओग समये पदे करी ४ रूप कहै छै८. तेओगकडजुम्मे कह्या, वलि तेओगतेओगे छठो रूपज जाणी हो लाल । तेओगद्वापरयुग्म ही, वलि व्योजकलियोग __कांइ रूप आठमों माणी हो लाल ।। हिवै तेओग-कडजुम्म नों अर्थ कहै छै जे राशि नै समय-समय प्रति च्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां छेहरे च्यार द्रव्य हुवै ए राशि कडजुम्म । अनै अपहार समय नै पिण च्यार-च्यार अपहरतां छेहड़े तीन समय हुवै ए समय तेयोग हीज इति ए तेओग-कडजुम्म कहिय । तेह द्रव्य जघन्य थकी बारै । ते बारै द्रव्य नै प्रथम समय च्यार द्रव्य अपहरै, द्वितीय समय च्यार द्रव्य अपहरै, तृतीय समय च्यार द्रव्य अपहरै-ए अपहार समया तीन तेहन तेओग कहिये । अनै द्रव्य जघन्य थकी बार। तेहनै च्यार-च्यार अपहरवं छेहड़े च्यार द्रव्य रहै ते माटै द्रव्य नी राशि नै कडजुम्म कहिये। ते माट एहनुं नाम तेओग-कडजुम्म छै । (५) हिवं तेओग-तेओग नों अर्थ कहै छैजे राशि नैं समय-समय प्रति च्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां छेहडै तीन द्रव्य ८. ५. तेओगकडजुम्मे, ६. तेओगतेओगे, ७. तेओग दावरजुम्मे, ८. तेओगकलिओगे, वा०-व्योजःकृतयुग्मे द्वादशादयः, एषां हि चतुष्कापहारे चतुरग्रत्वात्तत्समयानां च त्रित्वादिति, वा०-त्योजत्योजराशौ तु पञ्चदशादयः ३९४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-व्योजद्वापरे तु चतुर्दशादय: हवै ए राशि तेओग। अनै अपहार समय नै पिण च्यार-च्यार अपहरतां छेहई तीन समय हुवै ए समय तेओग हीज इति ए तेओग-तेओग कहिये । तेह द्रव्य जघन्य थकी पनरै। ते पनरै द्रव्य नै प्रथम समय च्यार द्रव्य अपहरै, द्वितीय समय च्यार द्रव्य अपहरै, तृतीय समय च्यार द्रव्य अपहरै, ए अपहार समया तीन तेहने तेओग कहिये । अन द्रव्य जघन्य थकी पनरै। तेहनै च्यार-च्यार अपहरवं छेहडै तीन द्रव्य हुवै तिणसू द्रव्य नी राशि नै तेओग कहिये। ते माट एहनुं नाम तेओग-तेओग छ । (६) हिव तेओगदावरजुम्मे नों अर्थ कहै छै जे राशि नै समय-समय प्रति च्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां छेहड़े दोय द्रव्य हुवै ए राशि दावरजुम्म । अनं अपहार समय नै पिण च्यार-च्यार अपहरतां छेहई तीन समय हुवै ए समय तेओग हीज इति ए तेओगदावरजुम्म कहिय । तेह द्रव्य जघन्य थकी चवदै। ते चवदै द्रव्य - प्रथम समय च्यार द्रव्य अपहरै, द्वितीय समय च्यार द्रव्य अपहरै, तृतीय समय च्यार द्रव्य अपहर-ए अपहार समया तीन, तेहन तेओग कहिये। अनं द्रव्य जघन्य थकी चवदै । तेहन च्यारच्यार अपहरवै छेहई दोय द्रव्य हुवै तिणसू द्रव्य नी राशि नै दावरजुम्म कहिये । ते माटै एहन नाम तेओग-दावरजुम्म छ। (७) हिवं तेओगकलियोगे नों अर्थ कहै छै जे राशि ने समय-समय प्रति च्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां छहडै १ द्रव्य हुवै ए राशि कलिओग । अन अपहार समय नै पिण च्यार-च्यार अपहरतां छेहई तीन समय हुवै ए समय तेओग हीज इति ए तेओग-कलिओग कहिये । तेह द्रव्य जघन्य थकी तेरै । ते तेरै द्रव्य नैं प्रथम समय च्यार अपहर, द्वितीय समय च्यार अपहरे, तृतीय समय च्यार अपहर-ए अपहार समया तीन, तेहने तेओग कहिये । अन्य द्रव्य जघन्य थकी १३ । तेहन च्यार-च्यार अपहरवै छेहडै एक द्रव्य हुवै तिणसूं द्रव्य नी राशि नै कलिओग कहिये । ते मार्ट एहनुं नाम तेओग-कलियोग छ। () वा०-त्योजकल्योजे त्रयोदशादयः (व. प. ९६६) ९. द्वापरयुग्मकडजुम्म ही, द्वापरयुग्मतेओगे कांइ दशम रूप अवलोई हो लाल । द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म ही, दावरजुम्मकलिओगे ए रूप बारमो जोई हो लाल ॥ हिव द्वापरयुग्म समय पदे करी ४ रूप कहै छै दावरजुम्म-कडजुम्मे नों अर्थ ९. ९. दावरजुम्मकडजुम्मे, १०. दावरजुम्मतेओगे, ११. दावरजुम्मदाबरजुम्मे, १२. दावरजुम्मकलियोगे, वा०-द्वापरकृतयुग्मेऽष्टादयः (व. प. ९६६) जे राशि ने समय-समय प्रति च्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां छेहड़े च्यार द्रव्य हुवै ए राशि कडजुम्म । अनै अपहार समय नै पिण च्यार-च्यार अपहरतां छेहडै २ समय हुवै ए समय द्वापरयुग्म हीज इति ए द्वापरयुग्म-कडजुम्म कहिये । तेह द्रव्य जघन्य थकी ८। ते ८ द्रव्य में प्रथम समय च्यार द्रव्य अपहरे, द्वितीय समय च्यार द्रव्य अपहरै-ए अपहार समया दो, तेहन द्वापरयुग्म कहिये । अनं द्रव्य जघन्य थकी ८ । तेहनै च्यार-च्यार अपहरवं छेहड़े च्यार द्रव्य हुदै तिणसं द्रव्य नी राशि में कडजुम्म कहिये ते माटै एहनुं नाम द्वापरयुग्मकडजुम्म है। (९) श० ३५, उ०१, ढा० ४९१ ३९५ Jain Education Intemational Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-द्वापरत्योजराशावेकादशादयः (व.प. ९६६) वा०-द्वापरद्वापरे दशादयः (बृ. प. ९६६) वा०-द्वापरकल्योजे नवादयः (वृ. प. ९६६) हिवै द्वापरयुग्म-तेओगे नों अर्थ कहै छ जे राशि नै समय-समय प्रति च्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां छेहडै तीन द्रव्य हवे, ए राशि तेओग। अनै अपहार समय नै पिण च्यार-च्यार अपहरतां छेहड़े २ समय हुवे, ए समय द्वापरयुग्म हीज इति ए द्वापरयुग्म-तेओग कहिये । तेह द्रव्य जघन्य थकी ११। ते ११ द्रव्य नै प्रथम समय च्यार द्रव्य अपहर, द्वितीय समय च्यार द्रव्य अपहरै-ए अपहार समया २, तेहनै दावरजुम्म कहिये । अनै द्रव्य जघन्य थकी ११ । तेहन च्यार-च्यार अपहरवै छेहड़े तीन द्रव्य हुदै तिणसं द्रव्य नी राशि नै तेओग कहिये । ते माटै एहनं नाम द्वापरयुग्म-तेओग छै। (१०) हिवं दावरजुम्म-दावरजुम्मे नों अर्थ कहै छ जे राशि नै समय-समय प्रति च्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां छेहडै २ द्रव्य हुवे, ए राशि दावरजुम्म । अनैं अपहार समय नै पिण च्यार-च्यार अपहरतां छेहडै २ समय हुवै, ए समय द्वापरयुग्म हीज इति ए द्वापरयुग्म-द्वापरयुग्म कहिये । तेह द्रव्य जघन्य थकी १०। ते १० द्रव्य नै प्रथम समय च्यार द्रव्य अपहरै, द्वितीय समय च्यार द्रव्य अपहरै-ए अपहार समया २, तेहन द्वापरयुग्म कहिये । अद्रव्य जघन्य थकी १० । तेहन च्यार-च्यार अपहरवै छेहडै २ द्रव्य हुवै, तिणसू द्रव्य नी राशि नै दावरजुम्म कहियै । ते माटै एहन नाम द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म छ। (११) हिवै दावरजुम्म-कलिओगे नों अर्थ जे राशि नै समय-समय प्रति च्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां छेहडै १ द्रव्य हुदै, ए राशि कलिओग । अनै अपहार समय नैं पिण च्यार-च्यार अपहरतां छेहड़े २ समय हुवे, ए समय द्वापरयुग्म हीज इति ए द्वापरयुग्म-कलिओग कहिये । तेह द्रव्य जघन्य थी ९ । ते ९ द्रव्य नै प्रथम समय च्यार अपहर, द्वितीय समय च्यार अपहरै-ए अपहार समया २, तेहनै द्वापरयुग्म कहिये । अने द्रव्य जघन्य थी ९ । तेहनै च्यार-च्यार द्रव्य अपहरवै छेहडै १ द्रव्य हुदै, तिणसू द्रव्य नी राशि नं कलिओग कहिये । ते माटै एहनुं नाम द्वापरयुग्म-कलिओग छ । (१२) १०. कलिओगकडजुम्म तेरमों, फुन कलिओगतेओग कांइ बोल चवदमों कहिये हो लाल । कलिओगद्वापरयुग्म ही, वलि कलियोगकल्योजे ए रूप सोलमों लहिये हो लाल ।। हिवं कलिओग-कडजुम्मे नों अर्थ कहै छै जे राशि नै समय-समय प्रति च्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां छेहडै ४ द्रव्य हुदै, ए राशि कडजुम्म अनं । अपहार समय नै पिण च्यार-च्यार अपहरतां छेहड़े १ समय हुवै, ए समय कलिओग हीज इति ए कलिओग-कडजुम्म कहिये । तेह द्रव्य जघन्य थी ४ ते ४ द्रव्य नै १ समय में अपहरिय ते अपहार समयो १ माट ते समय नै कलिओग कहिये । अनं द्रव्य ४ छै तिणसूं ते ४ द्रव्य नै कडजुम्म कहिये । ते माटै एहनु नाम कलिओग-कडजुम्म छ । (१३) हिवै कलिओग-तेओगे नों अर्थ कहै छै जे राशि नै समय-समय प्रति च्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां छहडै तीन द्रव्य हुवै ते राशि नै तेओग कहियै । अनै अपहार समय नै पिण च्यार-च्यार अपहरतां ३९६ भगवती जोड़ १०. १३. कलिओगकडजुम्मे, १४. कलियोगतेओगे, १५. कलियोगदावरजुम्मे, १६. कलियोगकलिओगे। (श. ३५॥१) वा०-कल्योजकृतयुग्मे चतुरादयः (वृ. प. ९६६) वा०-कल्योजन्योजराशी सप्तादयः (व. प. ९६६) Jain Education Intemational Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह १ समय हुवै, ए समय कलिओग हीज इति ए कलिओग-तेओग कहिये । ते द्रव्य जघन्य थी ७ ते ७ द्रव्य नैं एक समय में च्यार अपहरियै ते अपहार समयो १ मार्ट ते समय नै कलिओग कहियँ । अनं द्रव्य जघन्य थी ७ | तेह एक समय में च्यार अपहरतां छेहड़े तीन द्रव्य हुवै, तिणसूं द्रव्य नी राशि नैं तेओग कहिये । ते मार्ट एहनुं नाम कलिओग- तेओग छँ । (१४) हिये कलिभोग दारजुम्मे नों अर्थ जे राशि ने समय-समय प्रति व्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां छेड़े दो द्रव्य हुवै, ए राशि दावरजुम्म । अनैं अपहार समय नैं पिण व्यारन्च्यार अपहरतां छेड़े एक समय हुए समय कलिलोग ही इति ए कवियोग द्वापरयुग्म कहिये । ते द्रव्य जघन्य थी ६ ते ६ द्रव्य नैं एक समय में च्यार अपहतां ते अपहार समयो एक माटे, ते समय नैं कलिओग कहिये । अने द्रव्य जघन्य थी ६ । तेहन एक समय में च्यार अपहरतां छेहड़े दो द्रव्य हुवै, तिणसूं द्रव्य नी राशि में दावरजुम्म कहिये ते मार्ट एहनुं नाम कलिभोग-दावरजुम्म (१५) हिवै कलिओग- कलिओगे नों अर्थ जे राशि नैं समय-समय प्रति च्यार व्यार द्रव्य अपहरतां छहड़े एक द्रव्य हु, ए राशि कलिओग। अने अपहार समय नै पिण च्यार व्यार अपहरतां छेड़े एक समय हुवै, ए समय कलिओग हीज इति ए कलिओग- कलिओग ते ५ द्रव्य तेनैं एक समय में च्यार अपहरतां अनं द्रव्य जघन्य थी ५ । तेहनैं एक समय में तिणसूं द्रव्य नी राशि नै कलिओग कहिये । (१६) । कहियै । ते द्रव्य जघन्य थी ५ एक समय मा कलियोग कहिये व्यार अपहरतां छेड़े एक द्रव्य हुवै, ते माह नाम कलिगलिग ए सोल रूप नै विषे जघन्य द्रव्य नां उदाहरण कह्या । हिव मध्यम द्रव्य नां उदाहरण कहे है- बत्तीस द्रव्य ने इक बत्तीस द्रव्य नै कडजुम्मकडजुम्म कहिये, ते किम ? इक समय च्यार व्यार द्रव्य अपहरतां आठ समया लागे । ते आठ समय नां दो चोकड़ा में छेड़े च्यार मार्ट ए समय नैं प्रथम पद कडजुम्म कहिये । अन बत्तीस द्रव्य नां आठ चोकड़ा हुवै। तिणमें छेहड़े च्यार द्रव्य माटै ए द्रव्य द्वितीय पदे जुम्म कहिये । इम आठ अपहार समया पिण कडजुम्म अनै बत्तीस द्रव्य पिण जुम्म, भणी ए प्रथम रूप कडजुम्मकडजुम्म हुवै । (१) ३५ द्रव्य नैं इक इक ते आठ समय नां दोय अन कडजुम्म तेओग नैं विषे ३५ द्रव्य ते किम ? समय च्यार च्यार द्रव्य अपहरतां आठ समया लागे । चोकड़ा में छेड़े च्यार माटै प्रथम पद कडजुम्म कहिये । अने ३५ द्रव्य नां आठ चोकड़ा हुवे । छेड़े तीन द्रव्य रहे तिणसूं ए राशि ने द्वितीय पदे तेओग कहियँ । ते मार्ट ए द्वितीय रूप कडजुम्म - तेओग हुवै । (२) अ जुम्म - द्वापरयुग्म नै विषे ३४ द्रव्य हुवै, ते किम ? ३४ द्रव्य नैं इक इक समय च्यार च्यार द्रव्य अपहरतां आठ समया लागे । ए अपहार आठ समय नां दो चोकड़ा में छेहड़े च्यार मार्ट प्रथम पद कडजुम्म कहिये । अ ३४ द्रव्य नां ८ चोकड़ा हुवै, छेहड़े दो द्रव्य रहे । तिणसूं ए राशि ने द्वितीय पदे द्वापरयुग्म कहिये । तेाटै तृतीय रूप कडजुम्म द्वापरयुग्म हुवै । (३) या० - कल्योजद्वापरे षडादयः (बृ. प. ९६६) वा० --- कल्योजकल्योजे तु पञ्चादय इति । (वृ. प. ९६६ ) श० ३४, उ० १, ढा० ४९९ ३९७ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनं कम्म कलियोग ने दिये २३ द्रव्य हवे ते किम ? ३३ ने इक इक समय च्यार च्यार द्रव्य अपहरतां आठ समया लागे । ए आठ समय नां दोय चोकड़ा में छेड़े प्यार मार्ट प्रथम पद कडजुम्म कहिये । अनं तेतीस द्रव्य नां आठ चोकड़ा हुवे । छेहड़े एक द्रव्य रहे, तिणसूं ते द्रव्य नैं द्वितीय पदे कलियोग कहिये । ते मार्ट ए चतुर्थी रूप कडजुम्म कलिओग हुवै । ( ४ ) तेओग : ग- कडजुम्म नै विषे अठावीस द्रव्य हुवै। तेहने इक इक समय च्यारच्यार द्रव्य अपहरतां सात समया लागे । ए अपहार सात समय नों एक चोकड़ो । छेहड़े तीन समय माटै ए समय ने प्रथम पदे तेओग कहिये । अनं २८ द्रव्य नां सात चोकड़ा में छेड़े प्यार द्रव्य हुवै। ते भणी ए राशि नै द्वितीय पदे कडजुम्म कहियेति एतेगड पांच रूप जावो (५) तेयोग- तेयोग नै विषे ३१ द्रव्य हुवै। तेहने इक इक समय व्यार-च्यार द्रव्य अपहरतां सात समया लग ए अपहार सात समय नों एक चोकड़ा में छेहड़े तीन समय मार्ट ए समय ने प्रथम पद तेओग कहिये । अने ३१ द्रव्य नां पिण सात चोकड़ा हुवे । छेहड़े तीन रहे ते भणी ए द्रव्य नी राशि नैं द्वितीय पदे तेओग कहिये तिणं एतेोग-जोग छठो रूप जागो। (९) अनं तेओग - द्वापरयुग्म ने विषे ३० द्रव्य हुवै। तेहने इक इक समय च्यार च्यार द्रव्य अपहरतां सात समया लागे । ए अपहार सात समय नां एक चोकड़ा में छेड़े तीन समय मार्ट ए समय ने प्रथम पद तेओग कहिये । अन ३० द्रव्य नां पिण सात चोकड़ा हुवै छेहड़े दो रहै ते भणी ए द्रव्य नीं राशि नैं द्वितीय पदे द्वापरयुग्म कहिये तिणसूं ए तेओग-द्वापरयुग्म सातमो रूप जाणवो । ( ७ ) । अन तेओग कलिओग ने विषे २९ द्रव्य हुवे तेहने इक इक समय च्यार व्यार द्रव्य अपहरतां सात समया लागे । ए अपहार सात समय नों एक चोकड़ो । छेड़े तीन समय मार्ट ए समय प्रथम पद तेयोग कहिये । अन २९ द्रव्य नां सात चोकड़ा हुवै, छेहड़े एक द्रव्य रहे । ते भणी द्रव्य नी राशि नैं द्वितीय पदे कलिग पहिये तिगतेयोग-कलिओग आठमो रूप जागो । (5) द्वापरयुग्म - कडजुम्म नैं विषे २४ द्रव्य हुवै। तेहने इक इक समय च्यारच्यार द्रव्य अपहरतां छह समया लागे । ए अपहार छह समय नों एक चोकड़ो । छेहड़े दोय समय मार्ट ए समय ने प्रथम पद द्वापरयुग्म कहिये । अने २४ द्रव्य नां छह चोकड़ा हुवै, छेहड़े व्यार द्रव्य माटै ए द्रव्य नी राशि ने ए द्वितीय पद कडजुम्म कहियँ । तिणसूं द्वापरयुग्म - कडजुम्म ए नवमो रूप जाणवो । (९) अनं द्वापरजुम्म - तेओग ने विषे २७ द्रव्य हुवै। तेहने इक इक समय च्यार च्यार द्रव्य अपहरतां छह समया लागे । ए अपहार छह समय नों एक चोकड़ो। छेहड़े दो समय मार्ट ए समय ने प्रथम पद द्वापरयुग्म कहिये । अन २७ द्रव्य नां छह चोकड़ा हुवै, छेहड़े तीन द्रव्य माटै द्रव्य नों राशि नैं द्वितीय पदे तेओग कहिये । तिणसूं द्वापरयुग्म तेओग ए दशमो रूप जाणवो । (१०) द्वापरयुग्म - द्वापरयुग्म नै विषे २६ द्रव्य हुवै। तेहने इक इक समय च्यार व्यार द्रव्य अपहरतां छह समया लागे । ए अपहार छह समय नों एक चोकड़ो । छेहड़े दो समय मार्ट ते समय ने प्रथम पद द्वापरयुग्म कहिये । अने २६ द्रव्य नां छह चोकड़ा हुवै । छेहड़े दोय द्रव्य मार्ट ए द्रव्य नी राशि नैं ३९८ भगवती जोड Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पदे द्वापरयुग्म कहिये । तिणसूं ए इग्यारमो रूप द्वापरयुग्म द्वापरयुग्म जागवी (११) अनं द्वापरयुग्म - कलिओग नै विषे २५ द्रव्य हुवै। तेहने इक इक समय च्यार - च्यार द्रव्य अपहतां छह समया लागे । ए अपहार छह समय नों एक चोकड़ो। छेहड़े दो समया मार्ट ते समय नैं प्रथम पद द्वापरयुग्म कहिये । अ २५ द्रव्य नां छह चोकड़ा हुवै। छेड़े एक द्रव्य मार्ट ए द्रव्य नी राशि ने द्वितीय पदे कलियोग कहिये । तिणसूं ए बारमो रूप द्वापरयुग्म - कलियोग (१२) अन कलियोग- कडजुम्म विषे २० द्रव्य हुवै । तेनें इक इक समय व्यारच्यार द्रव्य अपहरतां पांच समया लागे । ए अपहार समय नों एक चोकड़ो । छेड़े एक समय मार्ट ते समय ने प्रथम पद कलिओग कहिये । अनं २० द्रव्य नां पांच चोकड़ा में छेड़े प्यार द्रव्य मार्ट ए द्रव्य नी राशि नैं कहिये तिगां ए तेरमो रूपको द्वितीय पदे कडजुम्म (१३) अ कलिओग- तेओग नैं विषे २३ द्रव्य हुवै। तेहने इक इक समय च्यारच्यार द्रव्य अपहरतां पांच समया लागे । छेहड़े एक समय मार्ट ए अपहार समय नों एक चोकड़ो। छेहड़े एक समय मार्ट ते समय नै प्रथम पद कलिओग कहिये । अनं २३ द्रव्य नां पांच चोकड़ा हुवै। छेहड़े तीन द्रव्य मार्ट ते द्रव्य नीं राशि ने द्वितीय पदे तेओग कहिये । तिणसूं ए चवदमो रूप कलियोग- तेयोग (१४) अन कलियोग द्वापरयुग्म नैं विषे २२ द्रव्य हुवे । तेहने इक इक समय च्यारच्यार द्रव्य अपहरतां पांच समया लागे । पांच समय नों एक चोकड़ो । छेहड़े एक समय मार्ट ते समय नैं प्रथम पद कलिओग कहिये । अनं २२ द्रव्य नां पांच चोकड़ा हुवे । छेड़े बे द्रव्य मार्ट ते द्रव्य नी राशि नैं द्वितीय पदे द्वापरयुग्म कहिये । तिणसूं ए पनरमो रूप कलियोग- द्वापरयुग्म जाणवो। (१५) अन कलियोग- कलियोग नै विषे व्यार व्यार द्रव्य अपहरतां पांच समया लागे प्रथम पद । छेहड़े एक समय मार्ट ते समय नैं २१ द्रव्य नां पांच चोकड़ा हुवे मैं द्वितीय पदे कलिओग कहिये जाणवो । (१६) । १. समय १२ ४८ २. समय १२ ५१ ३. समय १२ इम आगल पिण कहिवो तेहनीं आमना यंत्र थकी जाणवी - ५० ४. समय १२ ४९ ५ समय ११ ४४ २१ द्रव्य हुवे । तेहने इक इक समय 1 ते पांच समय नों एक चोकड़ो । कलिओग- कलिओग कहिये । अन द्रव्य माटे ते द्रव्य नी राशि सोलमो रूप कलियोग- कलियोग समय १६ ६४ समय १६ ६७ समय १६ ६६ समय १६ ६५ समय १५ ६० छेहड़े एक तिणसूं ए समय २० ८० समय २० ८३ समय २० ८२ समय २० ८१ समय १९ ७६ समय २४ ९६ कडजुम्मकडजुम्म समय २४ ९९ कम्म ग समय १४ ९८ कडजुम्म द्वापरयुग्म समय २४ ९७ कडजुम्म कलिओग समय २३ ९२ तेयोग - - कडजुम्म ० ३५, उ० १, दा० ४९१ ३९९ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. समय ११ ४७ ७. समय ११ ४६ ८. समय ११ ४५ ९. समय १० ४० १०. समय १० ४३ ११. समय १० ४२ १२. समय १० ४१ १३. समय ९ ३६ १४. समय ९ ३९ १५. समय ९ ३८ १६. समय ९ ३७ समय १५ ६३ समय १५ ६२ समय १५ ६१ समय १४ ५६ समय १४ ४०० ५९ समय १४ ५८ समय १४ ५७ समय १३ ५२ समय १३ समय १९ ७९ समय १९ ७८ समय १९ ७७ समय १८ ७२ समय १८ ७५ समय १८ ७४ भगवती जोड़ समय २३ ९५ तेयोग- तेयोग समय २३ ९४ योगाम समय २३ ९३ तेयोग- कलिओग समय २२ समय २२ ९१ द्वापरयुग्म ओग समय २२ समय १५ ७३ समय १७ ६८ समय १७ ५५ ७१ समय १३ ५४ समय १७ ७० कलियोग द्वापरयुग्म समय २१ समय १३ ५३ समय १७ ६९ ७ ८५ कलियोग- कलियोग ११. कि अर्थ प्रभु ! इम कहां सोलस जे महाजुम्मा कांड आप परूप्या स्वामी हो लाल । जुम्मकडजुम्मे प्रथम यावत ही कवियोगे कांइ भाखो अंतरजामी हो लाल ? ९० द्वापरयुग्म - द्वापरयुग्म समय २२ द्वापरयुग्म कडजुम्म ८९ द्वापरयुग्मयोग समय २१ ८४ कलियोग- कडजुम्म समय २१ १२. जिन क ह राशि प्रतं चि अपहार करीनें ८७ कलियोग तेओग समय २१ कांइ अपहरतां थकां अवगम्म हो लाल । च्यार छेड़े हुवे जेहनें वलि ते राशि तणां जे अपहार समय पण कडजुम्म हो लाल ।। सेतं कडजुम्मकडजुम्मे || १ || १३. जे राशि प्रतं चउनके करो, अपहारे करि अपहरतां कोइ लेहड़े तीन सुजाणी हो लाल । अपहार समय से राशिनां जुम्म त कहिये कडम्म त्र्योज पिछाणी हो लाल ।। से ॥२॥ १४. जे राशि प्रतं चक्के करी, अपहारे करि अपहरतां छेहड़े दोय सुगम्मं हो लाल । अपहार समय ते राशि नां, कडजुम्म ह्वै तसु कहियै कडजुम्म-दावरजुम्मं हो लाल ॥ से तं कडजुम्म-दावरजुम्मे ||३|| ११. से केणट्ठेणं भंते ! एवं वृच्चइ - सोलस महाजुम्मा पण्णत्ता, तं जहा -- कडजुम्मकडजुम्मे जाव कलियोगकलियोगे ? १२. गोयमा ! जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेवि कडजुम्मा, सेत्तं कडजुम्मजुम्मे १ । १२. जेणं रासी बडवणं अवहारेणं अहीरमाणे तिपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कम्मा २। १४. जे परासी चक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जतिए, जेणं तस्म राहिस्थ अवहारसमा कडजुम्मा, सेत्तं कडजुम्मदावरजुम्मे ३ । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. जे राशि प्रतं चउनके करी, अपहारे करि अपहरतां कां छेड़े एक सुयोगे हो लाल । अपहार समय ते राशि नां कडजुम्म ह्वै तसु कहियै कां कडजुम्म नें कलियोगे हो लाल ।। से तं कडजुम्म कलिओगे || ४ || १६. जे राशि प्रति चउक्के करी, अपहारे करि अपहरतां कां छेड़े प्यार सुहोई हो । अपहार समय ते राशि नां तीन हुवै तसु कहिये कां तेओग कडजुम्म जोई हो लाल ॥ सेतं तेोगजुम्मे ॥ ५ ॥ - १७. जे राशि प्रतै चउक्के करी, अपहारे करि अपहरतां कां छेड़े तीन सुधारी हो लाल । अपहार समय पिण राशि नां, तीन हुवे तसु कहिय कांइ तेओग योज विचारी हो लाल || सेतं तेओग - तेओगे || ६ || १८. जे राशि प्रत चउक्के करी, अपहारे करि अपहरतां कां छेड़े दोय विमासं हो लाल । अपहार समय ते राशि नां, तीन हुवै तसु कहिये कांइ त्र्योज-दावरजुम्म तासं हो लाल ।। सेतं तेजोय दायर ||७|| १९. जे राशि प्रतं चक्के करो, अपहारे करि अपहरतां his छेड़े एक प्रकाश हो लाल । अपहार समय ते राशि नां, तीन हुवै तसु कहिये योजकस्योज विमासं हो लाल । से तं तेओगे -कलिओगे ||८|| २०. जे राशि प्रचक्के करी, अपहारे करि अपहरतां कांइ छेड़े च्यार सुगम्मे हो लाल । अपहार समय से राशि नां, दोय हवं तसु कहिये दावरजुम्मकडजुम्मे हो लाल ।। से तं दावरजुम्मकडजुम्मे ||९|| २१. जे राशि प्रतं चपके करी, अपहारेकरी अपहरतां बेहरे तीन सुयोगे हो लाल । अपहार समय ते राशि नां, दोय हुवै तसु कहिये दावरजुम्म तेयोगे हो लाल ।। से तं दावरजुम्म - तेओगे || १० || २२. जे राशि प्रतं चउनके करी, अपहारे करि अपहरतां कां बेहद सुगम्मं हो लाल । अपहार समय पिण राशि नां, दोय हुवै तसु कहिये कांइ दावरजुम्म द्वापरजुम्मं हो लाल ॥ से तं दावरजुम्म-दावरम् ।।११।। १५. जे षं रासी चउक्कएवं अवहारेणं अवहीरमाणे एनपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया जुम्मा तं योगे ४ । १६. जे गं रासी चक्करण अवहारेण अवहारमा पठ पज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया योगा से भीगक ५ । 1 १०. जे रासी चउक्कएणं अवहारेण अबहीरमाणे तिपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगा, सेत्तं तेओगतेओगे ६ । १८. जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दोपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेयोगा, सेत्तं ते ओगदावरजुम्मे ७ । १९. गं रासी उनकएणं अवहारेणं अहीरमाणे एगपज्जवसिए जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगा, सेत्तं तेओगकलियोगे ८ । २०. जेणं रासी उपकरणं भवहारेण अवहीरमाणे चउपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया दाबरजुम्मा, सेत्तं दाव९ । २१. जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा, सेतं दावरजुम्मतेयोए १० । २२. जे गं रासी उनका अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा से दायर ११ । श० ३५, उ० १, ढा० ४९१ ४०१ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. जे राशि प्रते चउक्के करी, अपहारे करि अपहरतां अपहार समय ते राशि नां, दोय हुवे त कोइ छेड़े एक प्रयोगे हो लाल । कहिये कांइ दावरजुम्म कलिओगे हो लाल ।। सेतं दावरजुम्म कलिओगे ।। १२ ।। २४. जे राशि प्रतै उक्के करी, अपहारे करि अपहतां अपहार समय से राशि नां एक हवे त कहिये ais कलियोगे - जुम्मे हो लाल ॥ सेकसि ॥ १३॥ २५. जे राशि प्रतै चउक्के करी, अपहारे करि अपहरतां काइह तीन सुयोगे हो लाल । अपहार समय से राशि नां, एक हुने त कहिये कां कलिओगे-योगे हो लाल ।। से तं कलिओग-तेओगे || १४ || कांइ छेहड़े च्यार सुगम्मे हो । २६. जे राशि प्रतै चउक्के करी, अपहारे करि अपहरतां छेड़े दोय सुगम्मं हो लाल । अपहार समय से राशि नां एक हवे त कहिये काइ कलिओगडापरजुम्मं हो लाल ।। से से कलि-दादरम् ||१५|| २७. जे राशि चक्के करी, अपहारे करि अपहतां his छेड़े एक सुयोगे हो लाल । अपहार समय पिण राशि नां, एक हवे तर कहिये कां कलिओग-कलिओगे हो लाल || से तं कलिओग- कलिओगे ॥१६॥ २८. तिण अर्थे करि गोयमा ! यावत ही कलियोगजकविओोग लगे कहिबाई हो लाल । हिव एकेंद्रिय आश्रयी पूछे गोयम गणधर "कां सांभलजी चित ल्याई हो लाल ।। (क) एकेन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा २९. जुम्मकडजुम्म एकेंद्रिया, प्रभु ! किहां थकी ऊपजे स्यूं नारकी थी आख्यातं हो लाल ? ग्यारम प्रथम उद्देशे छै जिम उत्पल उद्देशके कांइ आख्यूं तिम उपपातं हो लाल ।। ३० हे प्रभुजी ! ते जीवड़ा एक समय करि कितरा, कांह ऊपजे छे ते प्राणी हो लाल ? जिन भावं सोलं तथा कांड संख तथा असंख्याता, वा अनंत ऊपजे आणी हो लाल ।। ४०२ भगवती जोड ३१. हे भगवंत ! ते जीवड़ा समय-समय अपहरतां, कां कि काल अपहरिय हो लाल ? एह प्रश्न पूछतां जिन भाखे सुण गोयम ! तसु उत्तर इम उच्चरियै हो लाल ।। २३. जे सी करणं अवहारेणं अहीरमाने एमपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया दायरमा सेन्तं दावम्मलियो १२ । २४. जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कनियोगात्तं कलि १२ । २५. जे शसी जनहारे अहीरमा तिपज्जबसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कवियोगा, मेत्तं कवियोग १४ । २६. जे रासी उक्कणं अग्रहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा, तं कलियोमदावरमे १५ । २७. जेणं रासी चक्कणं अवहारेण अवहीरमाणे एमपज्जवसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा, सेत्तं कलियोगकलिओगे १६ ।। २८. से तेणट्ठेणं जाव कलिओगकलिओगे | २९. जुम्म गिदिया वज्जति - किं नेरइएहितो ? (११२) वहा उपवाओ। ( स. २५०२) भते ! को उब जहा उप्पलुद्देसए (श. ३५।३) ३०. ते णं भंते! जीवा एगसमएणं केवइया उवविज्जति ? गोयमा ! सोलस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्र्ज्जति । (श. ३५/४ ) ३१. ते णं भंते! जीवा समए समए पुच्छा । गोयमा ! Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. ते णं अणंता समए समए अवहीरमाणा-अवहीरमाणा अणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहरंति, णो चेव णं अवहिया सिया। वा०-'जहा उप्पलुद्देसए' त्ति उत्पलोद्देशक:एकादशशते प्रथमः, इह च यत्र ववचित्पदे उत्पलो देशकातिदेशः क्रियते तत्तत एवावधार्य, (वृ. प. ९६७) ३३. उच्चत्तं जहा उप्पलुद्देसए। (श. ३५।५) ३४. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधगा? अबंधगा? गोयमा ! बंधगा, नो अबंधगा। ३५. एवं सम्वेसि आउयवज्जाणं । आउयस्स बंधगा वा अबंधगा वा। (श. ३५॥६) ३२. तेह अनंता जीवड़ा समय-समय अपहरतां, कांइ अपहरतांज कहाई हो लाल । अनंत अव-उत्सप्पिणी लगै अपहरियै तो निश्चे, काइ अपहरिया नहिं जाई हो लाल ।। बा०-जहा उप्पलुद्देसए ति --उत्पल उद्देशके एकादशमशतके प्रथमउद्देशके जिम कह्यो तिम कहिवं । बलि इहां किहांइक जे पद नै विषे उत्पल उद्देशक थकी अतिदेश कीजिये तेहीज जाणवो। ३३. ऊंचपणों जिम ग्यारमा शतक तणों जे जाणी, _ कांइ उत्पल प्रथम उद्देश हो लाल । तेह विषे जे दाखियो तिमज इहां पिण कहिवं, ___कांइ वारू रीत अशेष हो लाल ।। ३४. हे भगवंत ! ते जोवड़ा ज्ञानावरणी कर्म नां स्यं, तेह बंधगा थाई हो लाल । अथवा तेह अबंधगा? जिन कहै तेह, ___बंधगा पिण अबंधगा छै नांही हो लाल ।। ३५. इम सहु कर्म आयु वर्जी आयु तणां बंधगा, ते बंधकाल में कहिये हो लाल । अथवा तेह अबंधगा बंधकाल विण तेहिज, कांइ अबंधगा जे लहिये हो लाल ।। ३६ हे प्रभुजी ! ते जीवड़ा ज्ञानावरणी केरा, ____ कांइ वेदक प्रमुखज भणिय हो लाल ? जिन कहै गोयम ! वेदगा पिण अवेदगा ते नहीं है, इम सर्व कर्म नै थुणिय हो लाल ।। ३७. हे भगवंत ! ते जीवड़ा स्यं सातावेदक छ, दुःख असाता वेदे हो लाल ? जिन कहै सातावेदगा तथा असाता वेदै, इम कहिये ते बिहं भेदे हो लाल ॥ ३८. इम निश्चै उत्पल उद्देशक तणी अनुक्रमे परिपाटी, कांइ कहिवी सर्व पिछाणी हो लाल । सर्व कर्म नों उदय छै पिण अणउदय नहीं है, एकेंद्रिय माट जाणी हो लाल । ३९. कर्म छहूं ना उदोरगा कडजुम्म-कड जुम्म एकेद्रिय, अणउदी रक नाही हो लाल। वेदनी आयु बे कर्म नां हुवै उदीरक अथवा, अणउदीरगा पिण थाई हो लाल ।। ४०. हे भगवंत ! ते जीवड़ा कृष्णलेशी स्यं कहिये ? इत्यादिक प्रश्न उच्चरिये हो लाल। जिन कहै कृष्णलेशी तथा नील तथा कापोतज, तेजुलेशी कहियै हो लाल ॥ ४१. समदृष्टि पिण ते नहीं मिश्रदष्टि पिण नाहीं, कांइ मिथ्यादष्टि कहिये हो लाल । ज्ञानी नहीं अज्ञानी हवै निश्चै दोय अज्ञानी, __मति श्रत अज्ञानज लहिये हो लाल ।। ३६. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स-पुच्छा। गोयमा ! वेदगा, नो अवेदगा। एवं सब्वेसि । (श. ३५७) ३७. ते णं भंते ! जीवा कि सातावेदगा? असाता वेदगा? गोयमा ! सातावेदगा वा असातावेदगा वा । ३८. एवं उप्पलुद्देसगपरिवाडी। सव्वेसि कम्माणं उदई, नो अगुदई। ३९. छण्हं कम्माणं उदीरगा, नो अणुदीरगा। वेदणिज्जाउयाणं उदीरगा वा अणु दीरगा वा । (श. ३८) ४०. ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा-पुच्छा । गोयमा ! कण्हलेस्सा वा, नीललेस्सा वा, काउलेस्सा वा, तेउलेस्सा वा। ४१. नो सम्मदिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी, मिच्छादिट्ठी। नो नाणी, अण्णाणी-नियमं दुअण्णाणी, तं जहामइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य । श० ३५, उ० १, ढा० ४९१ ४०३ Jain Education Intemational Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी। सागारोव उत्ता वा, अणागारोवउत्ता वा। (श. ५३६९) ४३. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा कतिवण्णा ? जहां उप्पलुद्देसए (११३१७-२८) सव्वत्थ-पुच्छा। ४४. गोयमा ! जहा उप्पलुद्देसए ऊसासगा वा, नीसासगा वा, नो उस्सासनीसासगा वा । ४५. आहारगा वा अणाहारगा वा। नो विरया, अविरया, नो विरया रया। सकिरिया, नो अकिरिया । ४६. सत्तविहबंधगा वा अढविहबंधगा वा । आहारसण्णो वउत्ता वा जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वा । ४२. मनजोगी पिण ते नहीं वचनजोगी पिण नाही, इक कायजोगी कहिवाई हो लाल । सागरोवउत्ता है तथा अनाकार-उपयुक्तज ते, जीव एकेद्रिय थाई हो लाल ।। ४३. हे प्रभुजी ! ते जीव नां शरीर केतले वर्णे ? कांइ जिम उत्पल-उद्देशे हो लाल । शत ग्यारम उद्देशके आख्यो तिमहिज कहि, सह स्थाने प्रश्न अशेषे हो लाल ।। ४४. जिन भाखै सुण गोयमा ! जिम उत्पल-उद्देशे, कांइ आख्यो तिम वर्णादि हो लाल । उस्सासवंत वा निःस्वासगा अथवा नहीं उस्सासज, ___कांइ नहिं निःस्वास संवादि हो लाल ।। ४५. आहारक वा अनाहारका विरती तेह नहीं है, ___ कांइ जेह अविरती जाणी हो लाल । विरताविरति नहीं तथा क्रिया-सहित कहीजै, पिण क्रिया-रहित न ठाणी हो लाल ।। ४६. आयु वर्जी सप्तविध-बंधगा तथा अष्टविध-बंधक, ते आयु-बंध ने कालं हो लाल । आहारसन्नावउत्ता तथा जाव परिग्रहसंज्ञा उपयुक्त वीर वच न्हालं हो लाल ।। ४७. क्रोधकषाई ते हवं यावत लोभकषाई, कांइ इत्थि वेद न पावै हो लाल । पुरुषवेदगा पिण नथी हुवै नपुंसवेदगा, श्री जिनवर इम फुरमावै हो लाल ।। ४८. इत्थिवेद-बंधका तथा पुरिस-वेदगा बांध, वा वेद नपुंस-बंधगा हो लाल । सन्नी नहीं असन्नी अछ तेह सइंदिया कहिये, काइ अणिदिया न संधगा हो लाल ।। ४९. कडजुम्म-कडजुम्म एगिदिया हे प्रभु ! काल थकी जे, ___ कांड कितो काल ते होई हो लाल ? जिन भाखै सुण गोयमा ! जघन्य थकी तसु अद्धा, ___ कांइ एक समय अवलोई हो लाल । ५०. उत्कृष्ट काल अनंत ही जेह अनंती कहिये, काइ अवसप्पिणी लग लहियै हो लाल । अनंती वली उत्सप्पिणी वनस्पति नो अद्धा, कांइ काल एतलो रहिये हो लाल ।। ५१. संवेध तसु भणवो नथी जे उत्पल-उद्देशे, उत्पल ने संवेध आख्यो हो लाल । ते संवेध इहां नथी तास न्याय वृत्तिकारे, कांइ वृत्ति विषे इम दाख्यो हो लाल ।। ४७. कोहकसायी वा जाव लोभकसायी वा । नो इत्थि वेदगा, नो पुरिसवेदगा, नपुंसगवेदगा। ४८. इत्थिवेदबंधगा वा पुरिसवेदबंधगा वा नपुंसगवेद बंधगा वा । नो सण्णी, असण्णी। सइंदिया, नो अणिदिया। (श. ३५०१०) ४९. ते णं भंते ! कडजुम्मकडजुम्मएगिदिया कालओ केव चिरं होति? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, ५०. उक्कोसेणं अणतं कालं--अणता ओसप्पिणि उस्सप्पिणीओ, वणस्सइकाइयकालो। ५१. संवेहो न भण्णइ, ४०४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-संवेहो न भण्णति इति । संवेध न भणवो उत्पल उद्देशक नै विषे उत्पल जीव नों उत्पाद विचारयो । वली तेहनै विषे पृथ्वीकायादि अन्य काय नों अपेक्षा करिकै संवेध संभवै । अन इहां एकेद्रिय नै कडजुम्म-कड जुम्म विशेषण नै उत्पाद अधिकार वली ते परमार्थ थी अनंताहीज ऊपजै वली ते अनंता नीकलवा ना असंभव थकी संवेध न संभवै। अनैं जे सोलस बत्तीसादि एकेंद्रिय नै विषे उत्पाद कह्यो ए त्रसकाय थकी जे तेहनै विषे ऊपज तेहनों अपेक्षा करिकै हीज इति वलि नहीं पारमार्थिक, अनंता नों समय-समय तेहनै विषे उत्पाद थकी। वा०-'संवेहो न भन्नइ' त्ति, उत्पलोद्देशके (११०२९) उत्पलजीवस्योत्पादो विवक्षितस्तत्र च पृथिवीकायिकादिकायान्तरापेक्षया संवेद्यः संभवति इह त्वेकेन्द्रियाणां कृतयुग्मकृतयुग्मविशेषणानामुत्पादोऽधिकृतस्ते च वस्तुतोऽनन्ता एवोत्पद्यन्ते तेषां चोद्वत्तेरसम्भवात्सवेद्यो न संभवति, यश्च षोडशादीनामेकेन्द्रियेषूत्पादोऽभिहितोऽसौ त्रसकायिकेभ्यो ये तेषुत्पद्यन्ते तदपेक्ष एव न पुन: पारमाथिकः, अनन्तानां प्रतिसमयं तेषूत्पादादिति । (व. प. ९६७) ५२. आहारो जहा उप्पलुद्देसए (११।३५) नवरं निव्वाघाएण छद्दिसिं, ५३. वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि, सिय चउदिसि, सिय पंचदिसि, सेस तहेव । ५४. ठिती जहण्णणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई । समुग्घाया आदिल्ला चत्तारि । ५५. मारणंतियसमुग्घातेणं समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति । उब्वट्टणा जहा उप्पलुद्देसए (१११३९) । (श. ३५।११) ५२. आहार उत्पल-उद्देशके आख्यो छै जिम कहिवो, कांइ णवरं इतो विशेखज हो लाल । निरव्याघात करी इहां षट दिशि तणोंज कहिवो, __ए लोक मध्य संपेखज हो लाल ।। ५३. व्याघात आश्रयी नै वलि कदाचित त्रिण दिशि नों.. कांइ आहार पूर्ववत लेही हो लाल । कदाचित चिहं दिशि तणों कदाचित पंच दिशि नों, काइ शेष तिमज कहिवेही हो लाल ।। ५४. स्थिति जघन्य इक समय नी उत्कृष्ट सहस्र बावीसज, कांइ वर्ष तणी ए आखी हो लाल । समुदघात चिहुं आदि नी तेजस आहारक केवल, कांइ ए तीन नहीं दाखी हो लाल ।। ५५. मारणांतिक समुद्घाते करो समोहया पिण मरणे, कांइ तेह मरै छै जीवा हो लाल । असमोहया पिण ते मरै उद्वर्तन जिम उत्पल उद्देशे जेम कहीवा हो लाल ।। ५६. अथ सहु प्राणा हे प्रभु ! यावत सगला सत्वा, कडजुम्म-कृतयुग्म तिवारै हो लाल । एकेंद्रियपणे पूर्व ऊपनां? हंता गोयम ! बहुवारे, अथवाज अनंती वारे हो लाल ।। ५७. कडजुम्म-तेओग एके दिया हे भगवंत ! किहां थी, ___ काइ उपजै छै ते प्राणो हो लाल । ऊपजवो उपपात ते तिमहिज सगलो कहिवो, कांइ पूर्ववत पहिछाणी हो लाल ।। ५८. प्रभु ! एक समय किता ऊपजै ? जिन कहै एगुणवीसा, कांइ संख असंख अनंता हो लाल । शेष कडजुम्म-कडजुम्म जिम जाव अनंती वारे, कांइ ऊपनों पूर्व मंता हो लाल ।। ५९. कडजुम्म-दावरजुम्म एगिदिया हे भगवंत ! कहां थी, कांइ उपजै छै ते आणी हो लाल ? उपपात जिम पूर्वे का तिमहिज सगलो कहिवो, कांइ विधि सेती सह जाणी हो लाल ।। ५६. अह भते ! सव्वपाणा जाव सब्वसत्ता कडजुम्म कडजुम्मएगिदियत्ताए उववन्नपुव्वा ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अणतखुत्तो। (श. ३५।१२) ५७. कडजुम्मतेओयएगिदिया णं भंते ! कओ उव वज्जति ? उववाओ तहेव (३५॥३)। (श. ३५।१३) ५८. ते णं भंते ! जीवा एगसमए-पुच्छा। गोयमा ! एकूणवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जति, सेसं जहा कड जुम्मकडजुम्माणं जाव अणंतखुत्तो। (श. ३५।१४) ५९. कडजुम्मदावरजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओहितो उववज्जति ? उववाओ तहेव । (श. ३५।१५) श० ३५, उ० १, ढा०४९१ ४०५ Jain Education Intemational ation Intermational Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं-पुच्छा। गोयमा ! अट्ठारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणता वा उववज्जति, सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो। (श. ३५।१६) ६१. कडजुम्मकलियोगएगिदिया णं भंते! कओहितो उववज्जति ? उववाओ तहेव । ६२. परिमाणं सत्तरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा ___ अणंता वा, सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो। (श. ३५।१७) ६३. तेयोगकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओहितो उव वज्जति उववाओ तहेव। ६४. परिमाणं बारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जति, सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो। (श. ३५।१८) ६०. इक समय प्रभु ! ते किता ऊपजै ? जिन भाख अष्टादश, वा संख असंख अनंता हो लाल। शेष तिमज कहिवो सहु जाव अनंती वारज, कांइ पूर्व उप्पन्न भ्रंता हो लाल । ६१. कडजुम्म-कल्योज ए गदिया प्रभु ! किहां थकी उपजै छ ? इत्यादिक प्रश्न संपेखो हो लाल । उपपात जिम पूर्वे का तिमहिज सगलो कहिवो, काइ विधि सेती सुविशेखो हो लाल ।। ६२. परिमाण तसु इम जाणवू सतरै वा संख्याता, अथवाज असंख अनंता हो लाल । शेष तिमज कहिवो सह जाव अनंती वारज, पूर्व काले उपजता हो लाल ।। ६३. तेओग-कडजुम्म एगिदिया प्रभ ! किहां थकी ऊपज छ ? __इत्यादिक प्रश्न विचारो हो लाल । उपपात जिम पूर्वे को तिमहिज सगलो कहिवो, काइ विधि सेती अवधारी हो लाल ।। ६४. तास परिमाणज इह विधे द्वादश वा संख्याता, अथवाज असंख अनंता हो लाल । शेष तिमज कहिवो सह जाव अनंती वारज, पूर्व काले उपजता हो लाल ।। ६५. तेओग-त्र्योज एगिदिया प्रभु ! किहां थकी उपजै छ ? इत्यादिक प्रश्न पूछंता हो लाल । उपपात जिम पूर्वे का तिमहिज सगलो कहिवं, काइ विध सेती बुद्धिवंता हो लाल ।। ६६. तास परिमाणज इह विधे पनर तथा संख्याता, अथवाज असंख अनंता हो लाल । शेष तिमज कहिवो सह जाव अनंती वारज, पूर्व काले उपजता हो लाल।। ६७. इम निश्चै सोले महाजुम्म विषे एक गमो जाणेवो, णवरं परिमाण मझारी हो लाल । नानापणुं कहिवं अछै आगल ते कहिय छ, कांइ सांभलजो नर नारी हो लाल ।। ६८. तेओग-दावरजुम्म विषे परिमाणं चउदश वा, कांइ संख्याता जे जीवा हो लाल । अथवा असंख्याता ऊपजै तथा अनंता उपजै, कांइ सप्तम जुम्मे अतीवा हो लाल । ६९. तेओग-कलिओग नै विषे परिमाणं तेरस वा, कांड संख्याता जे प्राणी हो लाल । अथवा असंख्याता ऊपज तथा अनंता उपज, अष्टम जुम्मे बखाणी हो लाल॥ ६५. तेयोयतेयोयएगिदिया णं भंते ! कओहितो उव वज्जति ? उववाओ तहेव । ६६. परिमाणं पन्नरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा, सेसं तहेव जाव अणं तखुत्तो। ६७. एवं एएसु सोलससु महाजुम्मेसु एक्को गमओ, नवरं-परिमाणे नाणत्तं ६८. तेयोयदावरजुम्मेसु परिमाणं चोद्दस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जति । ६९. तेयोगकलियोगेसु तेरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जति । ४०६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. दावरजुम्मकडजुम्म विषे परिमाणं अठ अथवा, कांड संख्याता सुविचारी हो लाल । अथवा असंख्याता ऊपजे तथा अनंता उपर्ज, कांइ नवम जुम्मे दिलधारी हो लाल ।। ७१. दावरजुम्मन्योज ने विधे परिमाणं एकादश अथवा संख्याता कहिये हो लाल । अथवा असंख्याता ऊपजे तथा अनंता उपजे कां दशम जुम्मे इम लहिये हो लाल ।। ७२. दावर दावरजुम्म विषे परिमाणं दस अथवा कांइ संख्याता अवलोई हो लाल । अथवा असंख्याता अपने तथा अनंता उपजे एकादशम जुम्मे जोई हो लाल ।। ७३. दावरजुम्मकलिओग में परिमाण नव अथवा, sis संख्याता कहिवाई हो लाल । अथवा असंख्याता अपने तथा अनंता उपजं द्वादशमा जुम्म मांही हो लाल ।। परिमाणं हि अथवा, कां संख्याता सुविचारी हो लाल । अथवा असंख्याता ऊपजै तथा अनंता उपजे, कां ७४. कलिग डम्म ने विषे कांइ तेरस में जुम्म धारी हो जाय ।। ७५. कलियोग योज विये वली परिमाणं सत्त अथवा, को संख्याता पहिचाणी हो लाल । अथवा असंख्याता ऊपजै तथा अनंता उपजै, कां जुम्म दशमें जाणी हो लाल ।। ७६. कलिओगदावर जुम्म विषे परिमाणं पट अथवा, sis संख्याता ते सलहियै हो लाल । अथवा असंख्याता अपने तथा अनंता उपजै, नरस में जुम्म कहिये हो लाल ।। ७७. कलिओग- कल्योज एगिंदिया हे भगवंत ! किहां थी, कांड उपजे छे ते जीवा हो लाल । उपपात जिम पूर्वेको तिमहिज सगलो कहिवो, कांइ वर जिन वचन सदीवा हो लाल || ७८. परिमाणं तेनुं इहविधे पंच तथा संख्याता, अथवाज असंख अनंता हो लाल । शेष तिमज कहिवो सहु जाव अनंती वारे, कांइ उपनों भ्रमण करता हो लाल ।। ७९. सेवं भंते ! स्वामजी शत पणतीसम फेरो, कां प्रथम उद्देशक वारू हो लाल । ढाल च्यार सौ एकाणुमी कही भिक्षु भारीमाल ऋषिराय, कis 'जय जश' संपति चारू हो लाल ।। ।। इति ३५।१।१।। ७०. ७१. मेसु अवाना वा अ वा अनंता वा उववज्जंति । एक्कारस वा असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्र्ज्जति । ७२. दामाद मा असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्जंति । संखेज्जा वा ७३. दरम्याने नववा संजा वा असं वा अनंता वा उववज्जति । संखेज्जा ७४. कलियोगकडजुम्मे चत्तारि वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्जंति । ७५. कलिययोगे सत्त वा संजा या वा अनंता वा उववज्जति । ७६. कलियो छ वा मज्जा वा वा अगंता वा उववज्जति । (श. ३५।१९ ) ७९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । वा ७७. कलियोगकलियोगए गिंदिया णं भंते! कओ उबवज्जंति ? उववाओ तहेव । ७८. परिमाणं पंच वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्जंति से तहेव जाव अनंतखुत्तो । (स. २२:२० ) (. २०२१) शि० ३५, उ० १. ढा० ४९१ ४०७ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल:४९२ (ख) एकेन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा दहा १. पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? १. द्वितीय उद्देशक हिव कहै, प्रथम समय भगवंत ! कडजुम्म-कडजुम्म एकेंद्रिया, किहां थकी ऊपजंत? वा०-एकेंद्रियपणे करी उत्पत्ति नै विषे पहिलो समय छै जेहन ते प्रथम समय, तेहीज कृतयुग्म-कृतयुग्म ते प्रथम समय कृतयुग्म-कृतयुग्म, एकेंद्रिय हे भगवन ! किहां थकी ऊपजै? इति प्रश्न । वा०-'पढमसमयकडजुम्म-कडजुम्मएगिदिय' त्ति, एकेन्द्रियत्वेनोत्पत्तौ प्रथमः समयो येषां ते तथा ते च ते कृतयुग्मकृतयुग्माश्चेति प्रथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मास्ते च ते एकेन्द्रियाश्चेति समासोऽतस्ते । २. जिन भाखै तिमहीज जे, इम जिमहीज विचार । प्रथम उद्देशक नै विषे, आख्या अर्थ उदार ।। ३. तिमहिज सोलै वार जे, कहिवं द्वितीय उद्देश । तिमज सह पूर्वोक्त जे, सोल राशि करि एस ।। ४. णवरं ए दश णाणत्ता, अवगाहना सुमाग । जघन्योत्कृष्ट आंगुल तणों, असंख्यातमें भाग ।। २. गोयमा ! तहेव, एवं जहेव पढमो उद्देसओ (३५॥३-२०) ३. तहेव सोलसखुत्तो बितिओ भाणियव्वो, तहेव सव्वं, वाo---ते उद्देशक नै विषे बादर वनस्पति नी अपेक्षा अवगाहना मोटी कही। अनैं इहां प्रथम समय उत्पन्नपणे करी अवगाहना अल्प कही, ए नानापणों । इम अन्य पिण स्व बुद्धि करी विचारी कहिवू १। ४. नवरं-इमाणि दस नाणत्ताणि-१. ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्ज इभागं, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं । वा०-तत्रावगाहनाद्योद्देशके बादरवनस्पत्यपेक्षया महत्युक्ताऽभूत् इह तु प्रथमसमयोत्पन्नत्वेन साऽल्पेति नानात्वम्, एवमन्यान्यपि स्वधियोह्यानोति । (वृ. प. ९६८) ५. २. आउयकम्मस्स नो बंधगा, अबंधगा। ६. ३. आउयस्स नो उदीरगा, अणुदीरगा। ५. प्रथम समय छै ते भणी, आयु कर्म नां जाण । तेह बंधगा छै नथी, अबंधगा पहिछाण ।। ६. आयु कर्म तणां जिके, उदीरगा छै नांहि । ___ अनुदीरका छै तिके, तृतीय णाणत्तो ताहि ।। ७. नहीं उस्सासका जिके, नहिं निःस्वासजवंत । उस्सास-नि:सासगा नहि, तुर्य णाणत्ते मंत ।। ८. आयु वर्जी सप्त-विध-बंधग ते कहिवाय । अष्ट कर्म नां बंधगा, तेह नहीं छै ताय ।। ९.हे भगवंत ! प्रथम समय, कडजुम्म-कडजुम्म सोय। एकेद्रियाज काल थी, काल केतलो होय ? १०. जिन भाखै सुण गोयमा! एक समय संपेख । स्थिति विषे पिण इमज ही, कहिवो समयो एक ।। ११. समुद्घात बे आदि नां, समोहया सुविचार । तेह प्रत नहि पूछवा, असंभव थी अवधार ।। १२. उद्वर्तना न पूछवा, प्रथम समय रै माय । नीकलवो नहिं ते भणी, उद्वर्त्तन नहिं थाय ।। ७. ४. नो उस्सासगा, नो निस्सासगा, नी उस्सास निस्सासगा। ८. ५. सत्तविहबंधगा, नो अट्ठबिहबंधगा। __(श. ३५।२२) ९. ते णं भंते ! पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदियत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? १०. गोयमा ! ६. एक्कं समयं । ७. एवं ठिती वि। ११. ८. समुग्धाया आदिल्ला दोन्नि। ९. समोहया न पुच्छिज्जति । १२. १०. उध्वट्टणा न पुच्छिज्जइ, ४०८ भगवती जोड़ Jain Education Intenational Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. जे तिमज कहियो सहू, विशेष रहित विचार । सोलं ही गमक विषे, जाव अनंती वार ॥ शत पणतीसम पेख | दाख्या जिन वच देख ॥ ।। इति ३५।१।२। १४. सेवं भंते! स्वाम जी, द्वितीय उद्देशक अर्थ ए. *सूरीजन सांभलिये महाजुम्मा | (ध्रुपदं ) १५. अप्रथम समय कडजुम्म कम्मज एगिदिया भगवंत ! किहां थकी उपने छे आवी ? गुणवंत रे || वा० - इहां अप्रथम कहितां प्रथम समय वर्ज ने समय जेहने एकेंद्रियपण ऊपना नैं दोय आदि समय तेहीज कृतयुग्म कृतयुग्म एकेंद्रिय हे भगवन ! किहां थकी ऊपजै ? इत्यादि । , महा जुम्मा, १६. जिन कहै ए सामान्य करी ने एकेंद्रिय आख्यात | प्रथम उद्देशे सो तिमहिज कहिवो विख्यात रे ।। १७. जाव कलियोग-कलियोग लगे, जे जाव अनंती वार । अपनों से भंते! स्वामी, ए तृतीय उद्देश उदार रे ।। ।।३५।१।३।। १८. चरम समय कडजुम्मकडजुम्मज, एकेंद्रिया भगवंत ! किहां थकी उप आवी ? गोयम प्रश्न सुतंत रे ।। वा० - इहां चरम समय शब्दे करी एकेंद्रिय नैं मरण समय विचारयो । तेह परभव नां आउखा थकी पहिला हीज समय नैं विषे वर्त्तमान ते चरम समय संख्याये करी । एतले चरिम समय ते मरिवा नुं समय वांछघो। ते मरण समय माटे परभव नुं प्रथम समय जाणवूं । कृतयुग्म कृतयुग्म एकेंद्रिय हे भगवन ! किहां थकी ऊपजै ? १९. इम जिम प्रथम समय एकेंद्रिय उद्देशक आख्यात | तिम चरम समय एकेंद्रियोद्देशक, कहिवो ए अवदात || वा० - तिहां अधिक उद्देशक अपेक्षाये दस नानात्व कह्या । इहां पिण तेह तिमज कहिवा प्रथम समय अन चरम समय नैं समान स्वरूपपणां थकी । २०. णवरं देवा ऊपजै नांही, चरम समय एकेंद्रिय मांय । तेजोलेश्या न संभवे ते माटै, तेजोलेशी एकेंद्रिय न पूछाय ॥ २१. शेष तिमज कहियो सगलोही, सेवं भंते! स्वाम । पणतीसम शत तुर्य उद्देशक अर्थ अनोपम आम ॥ ।।३५।१।४।। *लय आधाकर्मी थानक मांहि १२. से सब सव्वं निरवसेस सोलस व गम जा तो। (श. ३५।२३ ) (. ३५२४) १४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । १५. अपढमसमय कडजुम्मएगिदिया णं भंते! कओ उववज्जंति ? बा०-- 'अपढमसमय कडजुम्मकडजुम्मएगिंदिय' त्ति इहाप्रथमः समयो येषामेकेन्द्रियत्वेनोत्पन्नानां द्वघादयः समयाः, ( वृ. प. ९६८ ) १६. एसी जहा पढमुद्देसो सोलसहि वि जुम्मेसु तहेव नेयब्यो १७. जाय कलियोगकलियोगता जाव अनंतवृत्ती (म. २५/२५ ) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ३५।२६) १८. चरिमसमय जुम्मम्मएनिदिया णं भंते! जो उववज्जंति ? बा० चरमसम्म जुम्मएगिदिय' ति इह परमसमयशब्देनकेन्द्रियाणां मरणसमयो विवक्षितः स च परभवायुषः प्रथमसमय एव तत्र च वर्तमानाश्चरमसमयाः सङ्ख्यया च कृतयुग्मकृतयुग्मा ये एकेन्द्रियास्ते तथा (बृ. प. ९६९) १९. एवं जब पदमसमपसओ, वा०-- तत्र हि अघिकोद्देशकापेक्षया दश नानात्यान्युक्तानि इहापि तानि तथैव समानस्वरूपत्वात् (बृ. प. ९६९ ) २०. नवरदेवा न उचचजयंति वेठलेस्सा न पुष्यि ज्जंति, २१. सेसं तव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. २५।२७) (स. ३५।२० ) श० ३५, उ० १, ढा० ४९२ ४०९ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. अचरम समय कडजुम्म-कडजुम्म, एकेद्रिया भगवंत! किहां थकी ऊपजै छै आवी? इत्यादिक सुवतंत ।। वा०-अचरम कहितां नहीं छै चरम समय उत्तर लक्षण जेहन ते अचरम एतले भव नां छहला समय बिना जे समया ते अचरिम समया इहां वांछया। तेहिज कृतयुग्म-कृतयुग्म संख्या विशेष एकेद्रिय हे भगवन ! किहां थकी ऊपजै ? इत्यादि। २३. जिम अपढम उद्देशके आख्यो, विशेष रहित तिम कहिवो। सेवं भंते ! पंचमुद्देशक, अर्थ अनोपम लहिवो ।। वा०-अप्रथम समय उद्देशो ते तीजा उद्देशा नों नाम छ। तीजा उद्देशा नं पहिला ओघ उद्देशा नी भलावण छै ते माट पहिलो ओघ उद्देशो, तीजो अनैं पांचमो-ए तीन उद्देशा एक सरीखा छै। ते भणी ए तीन नै विषे १० णाणत्ता नथी। ॥३५॥१॥५॥ २२. अचरिमसमयकडजम्मकडजम्मएगिदिया गं भंते ! कओ उववज्जति? वा०-'अचरमसमयकडजम्मकडजुम्मएगिदिय' त्ति न विद्यते चरमसमय उक्तलक्षणो येषां तेऽचरमसमयास्ते च ते कृतयुग्मकृतयग्मै केन्द्रियाश्चेति समासः । (वृ. प. ९६९) २३. जहा अपढमसमयउद्देसो तहेव निरवसेसो भाणितब्बो। (श. ३५।२९) सेवं भंते ! सेवं भते !त्ति । (श. ३५।३०) २४. पढमपढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? वा०-'पढमपढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिय' त्ति, एकेन्द्रियोत्पादस्य प्रथमसमययोगाद्ये प्रथमाः प्रथमश्च समयः कृतयुग्मकृतयुग्मत्वानुभूतेर्येषामेकेन्द्रियाणां ते प्रथमप्रथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाः । (व. प. ९६९) २५. जहा पढमसमयउद्देसओ तहेव निरवसेसं । (श. ३५।३१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाब विहरइ। (श. ३५५३२) २६. पढमअपढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? २४. प्रथम समय कडजुम्म-कडजुम्म, एकेद्रिया भगवंत ! किहां थकी ऊपजै छै आवी? जिन भाखै सुण संत ।। वा०-पढम-पढम समय कहितां एकेद्रिय उत्पाद नै विषे प्रथम समय जोग थकी प्रथम । वली प्रथम समय कृतयुग्म-कृतयुग्मत्व अनुभूति जे एकेंद्रिय नै ते प्रथम-प्रथम समय कृतयुग्म एकेंद्रिय हे भगवन ! किहां थकी ऊपजै? इत्यादि। २५. जिम प्रथम समय उद्देशके आख्यो, कहिवो तिमज विशेष रहीत । सेवं भंते ! यावत विचरै, षष्ठमुद्देश संगीत ।। ॥३५॥१॥६॥ २६. पढम-अपढम समय कडजुम्म ___कडजुम्म एकेंद्रिया भगवंत ! किहां थकी ऊपजे छै आवी? उत्तर दै अरिहंत ॥ वा०-पढम कहिता एकेंद्रिय उत्पाद नै प्रथम समय जोग थकी प्रथम कहिये वली जे अपढम कहितां अप्रथम समय कृतयुग्म-कृतयुग्मत्व अनुभूति जेह एकेद्रिय नै ते प्रथम-अप्रथम समय कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेंद्रिया कहिवा । इहां एकेंद्रियपणे उत्पाद प्रथम समयवर्तीपणां नै विषे जेहन जेह विवक्षित संख्यानुभूति नै अप्रथम समयवर्तीपणुं तेह प्राग्भव संबंधी नां तेह प्रतै आश्रयी जाणवो । एतल एकेंद्रिय उत्पाद में प्रथम समयवर्तीपणे छते ते एकेंद्रिय नै जे कृतयुग्म-कृतयुग्म रूप संख्यानुभूति नों अप्रथम समयवर्तीपणों ते प्रथम-अप्रथम समय एकेद्रिय हे भगवन ! किहां थकी ऊपजै? इत्यादि । २७. जिम प्रथम समय उद्देशके आख्यो, तिमहिज कहिवो ताम । सेवं भंते ! अर्थ अनोपम, सप्तमुद्देशक आम ।। ॥३५॥१७॥ वा०–'पढमअपढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिय' त्ति, प्रथमास्तथैव येऽप्रथमश्च समयः कृतयुग्मकृतयुग्मत्वानुभूतेर्येषामेकेन्द्रियाणां ते प्रथमाप्रथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मकेन्द्रियाः, इह चैकेन्द्रियत्वोत्पादप्रथमसमयत्तित्वे तेषां यद्विवक्षितसङ्ख्यानुभूतेरप्रथमसमय वत्तित्वं तत्प्राग्भवसम्बन्धिनी तामाश्रित्येत्यवसेयम्, (व. प. ९६९) २७. जहा पढमसमयउद्देसो तहेव भाणियव्बो। (श. ३५॥३३) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श. ३५४३४) ४१० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. प्रथम चरिम समय कडजुम्म जुम्म एकेंद्रिया भगवंत | किहां की ऊपजे से आवी ? जिन भाखं सुण संत ॥ वा०- पढग चरिम समय कहितां प्रथम ते विवक्षित संख्यानुभूति ने प्रथम समयवर्त्तीणां थकी अन चरम समया ते मरण समयवर्ती परिशाटस्था । एतले कृतयुग्मादि संख्या विशेष नों तो प्रथम समय अनं एकेंद्रिय नां भव नुं चरिम समय । इहां चरिम शब्दे मरण समय वांद्र्य ते मार्ट परभव नां आउखा नूं ए प्रथम समय जाणवं । इति प्रथम चरम समया तेहिज कृतयुग्म कृतयुग्म एकेंद्रिय हे भगवन ! किहां थकी ऊपजै ? २९. चरम उद्देश विषे जिम आख्यो, तिमहि कहियो सेवं भंते! स्वामी, अष्टमुद्दे ॥३५।१२।। ३०. पढम अचरिम समय कडजम्म विशेष रहोतं प्रतीत || कडम्म एकेंद्रिया भगवंत ! किहां थकी अपने छे आवी ? स्वाम कहै सुण संत || वा०-- प्रथम अचरिम समय कहितां प्रथम तिमहिज अचरिम समय तो एकेंद्रिय उत्पाद अपेक्षाये प्रथम समयवर्ती दहां विवक्षित चरमत्व निषेध न ते प्रथम समयवर्त्ती नै विषे विद्यमानपणां थकी । एतले इहां अचरिम शब्दे एकेंद्रिय ऊपजवानों प्रथम समय वांछ्यो ते एक नै चरमपणों न हुवै ते भणी प्रथम समय मैं अचरिम समय कह्यं । अने इहां अचरिम शब्दे छेहला समय विना अन्य सर्व समय नैं अचरिम कहै तो बीजे उद्देशे अवगाह्नादिक १० णाणत्ता कह्या । तेह समपणुं कह्यं ते न हुव ते भणी | अचरिम समय शब्दे इहां प्रथम एक समय जाणवूं । ते प्रथम अचरिम समय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेंदिय हे भगवन ! किहां थकी ऊपजै ? ३१. प्रथम उद्देश विधे जिम आयो, तिमज विशेष रहीत। सेवं भंते! यावत विचरै, नवम उद्देश वदीत || ।।३५।१।६॥ ३२. चरम चरिम समय कउजुम्म कजुम्म एकेंद्रिया भगवंत ! कहां की ऊपजे से आयो ? जिन भाखे सुण संत || वा० - चरिम चरिम समय कहितां चरिमते विवक्षित संख्यानुभूति चरम समयवर्त्तीपणां थकी । अन चरम समय ते पूर्वोक्त स्वरूप ते परभव नुं चरम समयवर्त्ती इति । चरम-चरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेंद्रिय हे भगवन ! किहां थकी ऊपजै ? इत्यादि । " ३३. चोचे उद्देश विषे जिम आयो तिमहिज कहिवो एह सेवं भंते ! अर्थ अनोपम, दशम उद्देशक लेह ॥ ।।३५।१।१०।। २.म्म्मए गिदिया पं भते ! कओ उबवण्जंति ? वा०-- ' पढमचरमसमय कड जुम्मकडजुम्मएगिदिय' त्ति, प्रथमाश्च ते विवक्षितसङ्ख्यानुभूतेः प्रथमसमयवत्तित्वात् चरमसमयाश्च मरणसमयवत्तिनः परिशास्था इति प्रथमचरमसमयास्ते च ते कृतयुग्मकृतवेति विग्र (बृ. प. ९६९) २९. जहा रिस तहेब निरवसे सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ३०. परिजुम्मकडजुम्मए गिदिया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? (३५/३५) (m. 22144) वा०—'पढमअचरमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिय' त्ति, प्रथमास्तथैव अचरमसमयास्त्वे केन्द्रियोत्पादापेक्षा प्रथमसमयवर्तिन इह विवक्षिताश्चरमत्वनिषेधस्य तेषु विद्यमानत्वात् अन्यथा हि द्वितीयो कोक्तानामवगाहनादीनां यदिह समत्वमुक्तं तन्न स्यात् (वृ. प. ९६९ ) ३१. जहा बीओ उद्देसओ' तहेव निरवसेसं । (श. ३५।३७ ) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (न. २५/३०) ३२. चरिमचरिमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? २३. जहा उद्देओ सहेब निरवसे सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । वा० 'चरमचरमसम्यक जुम्मनए गिदिय ति चरमाश्वते विवक्षितसानुभूतेश्वरमसमयवत्तित्वात् चरमसमयाश्च प्रागुक्तस्वरूपा इति चरमचरमसमयाः शेषं प्राग्वत् (बु. १.९६९) (. १५०३९) (श. ३५/४० ) १. जोड़ में प्रथम उद्देशक विधे जिम आयो' के सामने जहा बीओ उद्देसओ पाठ की संगति नहीं बैठती । पर अंगसुत्ताणि में 'पढम उद्देसओ' पाठान्तर में रखा है। इसलिए यहां मूल का पाठ लिया गया है । श० ३५, उ० १, ढा० ४९२ ४११ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ण ३४. चरिमअचरिमसमयकड जुम्मकडजुम्मएगिदिया भंते ! कओ उववज्जति ? ३४. चरिम-अचरिम समय कडजुम्म कडजुम्म एकेद्रिया भगवंत ! किहां थकी ऊपज छ आवी ? उत्तर दै अरिहंत ।। वा०-वरिम तिमहीज अचरिम समय ते पूर्वोक्त युक्ति थकी एकेंद्रिय उत्पाद अपेक्षाये प्रथम समयवर्ती जेह । एतले इहां पिण अचरिम शब्दे एक प्रथम समय वांछचो ते चरिम-अचरिम तेहीज कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेद्रिय हे भगवन ! किहां थकी ऊपजै? इत्यादि। ३५. जिम प्रथम उद्देश कह्यो तिम कहिवो, निरविशेषपणे एह । सेवं भंते ! यावत विचरै, ग्यारमुद्देशक जेह ।। ॥३५॥१॥११॥ ३६. इम एणे अनुक्रम करी ने, कह्या उद्देश इग्यार । ते उद्देशक नों स्वरूप- निर्धारण, अर्थे कहिये सार ।। ३७. पहिलो तीजो पंचमो गमो, ती सरीखा थाय । अवगाहनादिक जे दश णाणत्ता, ए तीनूं उद्देशा में नाय ।। वा० ----'चरमअचरमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिय' त्ति, चरमास्तथैव अचरमसमयाश्च प्रागुक्तयुक्तेरेकेन्द्रियोत्पादापेक्षया प्रथमसमयवत्तिनो ये ते चरमाचरमसमयास्ते च ते कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाश्चेति विग्रहः, (वृ. प. ९६९) ३५. जहा पढमसमयउद्देसओ तहेव निरवसेस । (श. ३५।४१) सेव भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति । (श ३५४४२) ३६. एवं एए एक्कारस उद्देसगा। उद्देशकानां स्वरूपनिर्धारणायाह- (व. प. ९६९) ३७. पढमो ततिओ पंचमो य सरिसगमा, 'पढमो तइओ पंचमो य सरिसगमय' त्ति, कथम् ? यत: प्रथमापेक्षया द्वितीये यानि नानात्वान्यवगाहनादीनि दश भवन्ति न तान्येतेष्विति, (वृ. प. ९६९) ३८ सेसा अट्ट सरिसगमा, नवरं 'सेसा अट्ट सरिसगमग' त्ति, द्वितीयचतुर्थषष्ठादयः परस्परेण सदृशगमा: पूर्वोक्तेभ्यो विलक्षणगमाद्वितीयसमानगमा इत्यर्थः, विशेषं त्वाह (वृ. प. ९६९) ३९. चउत्थे अट्ठमे दसमे य देवा न उववज्जति । तेउलेस्सा नत्थि । (श. ३५४४३) ३८. द्वितीय तुर्य षष्ठम इत्यादिक, शेष ए अष्ट उद्देश । ए आई एक सरीखा, णवरं इतरो विशेष ।। ३९. चउथे आठमें दशमें उद्देशे, सुर उपजवो नांहि । ते माटै नहीं तेजुलेश्या, ए प्रथम शतक कह्य ताहि ।। ___ वा०-चोथा उद्देशा नै विषे चरिम समय कडजुम्म-कडजुम्म एकेद्रिया कह्या, ते चरिम शब्दे मरण समय का ते परभव नों प्रथम समय जाणवू । अनै आठमें उद्देशे पढम चरिम समय कां । इहां पढम समय ते कहजुम्म-कडजुम्मादि राशि नों प्रथम समय अनै चरिम समय कहितां मरण समय ते परभव नुं प्रथम समय जाणवू । अनैं दशम उद्देशे चरिम-चरिम समय का ते चरिम कहितां कडजुम्म-कडजुम्म आदि राशि नुं चरम समय । अनै दूजे चरम समय श द मरण समय ते परभव नुं प्रथम समय । ए तीनूं उद्देशा नै विषे देवता न ऊपजे, ए पाठ नुं अर्थ वृत्ति अनुसारे कह्यो। ॥इति पंचत्रिंशशते प्रथमं अन्तरशतम्।। ४०. कृष्णलेशी कडजुम्म-कडजम्मज एकेद्रिया भगवंत ! किहां थकी ऊपजै छै आवी? गोयम प्रश्न सुतंत ।। ४१. जिन भाखै उपजवो तिमहिज, इम जिम ओधिक उद्देश । आख्यो तिम कहि णवरं ए, नानात्व भेद विशेष ।। ४२. ते प्रभु ! जीवा कृष्णलेशी छै? तब भाखै जिनराय । हंता गोतम ! कृष्णलेशी छै, वलि शिष्य पूछ ताय ।। ४०. कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? ४१. गोयमा ! उववाओ तहेब, एवं जहा ओहिउद्देसए, (३५।३-२०) नवरं इमं नाणत्तं । (श. ३५।४४) ४२. ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? हंता कण्हलेस्सा। (श. ३।४५) ४१२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. ते णं भंते ! कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिदियत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? ४४. गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतो मुहुत्तं । एवं ठिती वि। ४३. ते कृष्णलेशी कडजुम्म-कडजुम्म प्रभु ! एगिदिया इम जोय । काल थको रहै काल केतलो ? गोयम प्रश्न ए होय ।। ४४. जिन कहै जघन्य थकी इक समयो, अंतर्मुहुर्त उत्कृष्ट । स्थिति विषे पिण इमज जाणवो, हिव तसु न्याय सुइष्ट ।। वा०-- इहां कृष्णलेशी कडजुम्म-कडजुम्म एगिदिया जघन्य थकी एक समयो रहै। अनै एक समय पछी कृतयुग्म-कृतयुग्म मेटी कृतयुग्म-तेओगादिक अनेरी संख्या हुवै ते माट। जघन्य एक समय कृष्णलेशी कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेंद्रिया हुवै । इमज उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त काल थकी रहै । अनैं कृष्ण लेश्यावंत नीं स्थिति पिण कृष्णलेश्या नों काल कह्यो तिम जाणवो। ४५. शेष तिमज जाव वार अनंती, इम सोलै ही जुम्मा जाण । सेवं भंते ! द्वितीय अंतर शत, प्रथम उद्देशक माण ॥ वा० - जहन्नेणं एक्कं समयं' त्ति जघन्यत एकसमयानन्तरं सङ्खचान्तरं भवतीत्यत एक समयं कृष्णलेश्यकृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रिया भवन्तीति । 'एवं ठिईवि' त्ति कृष्णलेश्यावतां स्थितिः कृष्णलेश्याकालबदबसेयेत्यर्थ इति । (वृ. प. ९७०) ४५. सेसे तहेव जाव अणंतखुत्तो। एवं सोलस वि जुम्मा भाणियव्वा। (श. ३५।४६) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३५।४७) ४६. पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया भंते ! कओ उववज्जति ? णं ४७. जहा पढमसमयउद्देसओ, नवरं- (श. ३५॥४८) ४६. हे भगवंतजी ! प्रथम समय जे, कृष्णलेशी कडजुम्म-कडजुम्म । एगिदिया किहां थकी ऊपजै ? हिव जिन कहै अवगम्म ।। ४७. प्रथम उद्देश विषे जिम आख्यो, तिमहिज कहिवो ताय । णवरं इतरो विशेष अछै ते, सांभलजो चित ल्याय ।। ४८. हे प्रभुजी ! ते कृष्णलेशी छ ? तब भाखै जिनराय । हंता कृष्णलेशी शेष तिमहिज, सेवं भंते ! सेवं भंते ! ताय ।। ४९. इम जिम पूर्वे जे आख्यो छै, ओधिक शतक विषेह । एकादश उद्देशा भणिया, वारू विधि सूं जेह ॥ ४८. ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? हंता कण्हलेस्सा, सेसं तहेव । (श. ३५।४९) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३५१५०) ४९. एवं जहा ओहियसए (३।२२-४३) एक्कारस उद्देसगा भणिया तहा कण्हलेस्ससए वि एक्कारस उद्देसगा भाणियब्बा। ५०. पढमो तइओ पंचमो य सरिसगमा, सेसा अट्ट वि सरिसगमा, नवरं५१. चउत्थ-अट्ठम-दसमेसु उववाओ नत्थि देवस्स । (श. ३५१५१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३५१५२) ५०. पहिलो तीजो नैं पंचमुद्देशक, गमा सरीखा तीन । शेष आठही गमा सरीखा, णवरं विशेष सुचीन ।। ५१. चउथो अष्टम नै दशम विषे, जे सुर नों नहिं उपपात । सेवं भंते ! शत पणतीसम, द्वितीय अंतर शत ख्यात ।। पणतीसमसए वितीयं एगिदियमहाजुम्म सय समत्तं । ५२. इम नीललेशी संघाते पिण शतकज, शत कृष्णलेशी नै सरीष । ग्यार उद्देशा तिमहिज कहिवा, सेवं भंते ! जगदीश ।। पणतीरामसए ततीयं एगिदियमहाजुम्म सयं समत्तं । ५२. एवं नीललेस्सेहि वि सतं कण्हलेस्ससतसरिसं, एक्कारस उद्देसगा तहेव । (श. ३५१५३) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ३५१५४) ५३. इम काउलेशी संघाते पिण शतकज, ___शत कृष्णलेशी नै सरीष । सेवं भंते ! शत पणतीसम, शत अंतर तुर्य जगीस ।। पणतीसमसए चउत्थं एगिदियमहाजुम्म सयं समत्तं । ५३. एवं काउलेस्सेहि वि सतं कण्हलेस्ससतसरिसं । (श. ३५।५५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ३५१५६) श० ३५, उ० १, ढा० ४९२ ४१३ Jain Education Intemational Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. भवसिन्द्रिय काङजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओ उक्वज ति? ५५. जहा ओहियसतं तहेव, नवरं- एक्कारससु वि उद्देसएसु । (श. ३५५७) ५४. भवसिद्धिक कडजम्म-कडजम्मज, एगिदिया भगवंत! किहां थकी ऊपजै छै आवी ? इत्यादिक सुउर्वत ।। ५५. ओधिक शतक विष जिम आख्यं, तिमहिज कहिवं ताय । णवरं इग्यार उद्देश विषे जे, पूछवं ते कहिवाय ।। ५६. अथ प्रभु ! सघला प्राणी यावत, सर्व सत्व छ जेह । भवसिद्धिक कडजम्म-कडजम्मज, पूर्व ऊपना एकेंद्रीपणेह ? ५७. जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ए, शेष निमज अवगम्म । सेवं भंते ! एह पंचमो, एगिदिय शत महाजुम्म ।। ५६. अह भंते ! राब्वे पाणा जाव सब्वे सत्ता भवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्मएगिदियत्ताए उववन्नपुब्वा ? ५७. गोयमा ! णो इणठे समठे, सेसं तहेव । (श. ३५१५८) सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति। (श. ३५।५९) वा...सर्व जीव में अभव्य पिण आया ते अभय तिके भवसिद्धिक एकेंद्रियपण पूर्वे ऊपनां नहीं, तिणसं नो हणठे समठे कह्यो । पणतीसमसए पंचमं एगिदियमहाजुम्म सयं समत्तं । णं ५८. कण्हलेस्सभवगिद्धियकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया भंते ! को उबदज्जति ? ५९. एवं कण्हलेस्सभवसिद्धियएगिदिएहि वि सतं बितिय सतकण्हलेस्ससरिसं भाणियब्वं । (श. ३५२६०) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३५५६१) ५८. कृष्णलेशी भवसिद्धिक कड जमा _ कडजम्मागिदिया भगवंत । किहां थकी ऊपजै छै आवी ? इत्यादिक सउदंत ।। ५९. एवं कृष्णलेशी भवसिद्धिक, एकेंद्रिय शत ही संघात । कृष्णलेशी द्वितीय शत सदश, ___ कहिवं सेवं भंते ! जगनाथ ।। पणतीसमसए छठें एगिदियमहाजुम्म सयं समत्तं । ६०. एवं नीललेशी भवसिद्धिक, एगिदिएहि संघात । शतक जाणवू सेवं भंते ! सप्तम अंतर शत ख्यात ।। पणतीसमसए सत्तमं एगिदियमहाजुम्भ सयं समत्तं । ६१. इम कापोतलेशी भवसिद्धिक, एगिदिएहि संघात । तिमहिज एकादश उद्देशा, संयुक्त शत विख्यात ।। ६२. इम ए चिहुं भवसिद्धिक शत कह्या,, च्यारूं ही शतक विषेह । सर्व प्राणी जाव पूर्व उपनां, इम पूछ्यो गुणगेह ।। ६३. जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ए, सेवं भंते ! स्वाम। अंतर शत ए अष्टज आख्या, शत पणतीसम आम ।। पणतीसमसए अट्ठभं एगिदियमहाजुम्मं सयं समत्तं । ६४. जिम भवसिद्धिक संघाते चिहुं शत, एह कह्या छ ताय । इम अभवसिद्धिक संघाते पिण चिहुं शर, लेश्या सहित कहिवाय ।। ६५. सर्व प्राण ऊपनां नों प्रश्नज, तिमहिज करिवो तेह । श्री जिन तेहनों उत्तर आख्यो, अर्थ समर्थ न एह ।। पणतीसमसए नवमाओ बारसपज्जत्तं एगिदियमहाजुम्माई सयाई समत्ताई। ६०. एवं नीललेस्सभरसिद्धियएगिदिएहि वि सतं । (श. ३।६२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३५१६३) ६१. एवं काउलेस्लभवसिद्धियएगिदिएहि वि तहेव एक्का रसउद्देसगसंजुत्तं सतं। ६२. एवं रयाणि चत्तारि भवसिद्धिएसु सताणि । चउसु वि सएसु सब्वे पाणा जाव उववन्नपुव्वा ? ६३. नो इणढें गमछे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३५॥६४) (श. ३५१६५) ६४. जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि सताई भणियाई एवं अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि सताणि लेस्सासं जुत्ताणि भाणियव्वाणि । ६५. सव्वे पाणा तहेव नो इणठे समझें। ४१४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ६६. इम ए द्वादश एकेंद्रिय नां भंते ! सेवं भंते! सेवं महायुग्म शत होय । गोयम वचन सुजोय ॥ इति पैंतीसमो शतक बारे अंतर शतक सहित अर्थ थकी संपूर्ण । ६७. शत पैंतीस ढाल च्यार सौ बाणूमी पहिछाणं । भिक्षु भारीमाल ऋषिराम प्रसावे, 'जय जय' हरष कल्याणं ॥ गीतक छन्द १. महाजुम्म सय तीसमांनीं जोड़ अति रलियामणी । गुरुदेव नीं शुभ दृष्टि अरु सिद्धान्त नय अनुसारणी || २. अति चतुर नर पिण नयन युगल पसे' न वस्तु विलोकियं । गुरुकृपा आगम-नयन रूपज दृष्टि युग उपढौकिय || || पंचत्रिशत्तमशते द्वादशान्तरशतकार्थः ॥ १. बिना ६६. एवं एवाई वारस एनिदियमहाजुमा भति सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति । (म. ३५६७) (स. २४/६७) १,२. व्याख्या शतस्यास्य कृता सकष्टं टीकाऽल्पिका येन न चास्ति चूणिः । मन्दैकनेत्रो बत पश्यताद्वा दृश्यान्यष्टं मुखतोऽपि ॥ श० ३५, उ० १, ढा० ४९३ ४१५ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षत्रिंशत्तम शतक Jain Education Intemational Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्त्रिंशत्तम शतक ढाल : ४९३ १. पञ्चत्रिशे शतै सङ्खयापदैरेकेन्द्रियाः प्ररूपिताः, षट्त्रिंशे तु तैरेव द्वीन्द्रियाः प्ररूप्यन्ते (वृ. प. ९७०) २. कडजुम्मकडजुम्मबेंदिया णं भंते ! कओ उव वज्जति? ३. उववाओ जहा वक्कंतीए (प. ६।८६) ४. परिमाणं सोलस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उबवज्जति। ५. अवहारो जहा उप्पलुद्देसए (११।४) ६. ओगाहणा जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्को सेणं बारस जोयणाई। १. शत पेंतीसम महायुग्म, एकेद्रिय आख्यात । छत्तीसम महायुग्म करि, बेइंद्रिय अवदात ।। द्वोन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा २. कडजम्म-कडजम्म बेइंदिया, किहां थकी भगवान! उपजै? प्रश्न इत्यादि जे, कहिवो सर्व पिछान ।। ३. ऊपजवं जिम पन्नवणा, षष्टम पद व्युत्क्रत । __ तेह विषे जिम आखियो, कहिवू तेम उदंत ॥ ४. तसु परिमाणज सोल वा, संख्याता वा सोय । असंख्यात वा ऊपजे, त्रस माटे अवलोय ॥ ५. उत्पल-उद्देशक विषे, जिम आख्यो अपहार । तिमहिज कहि छै इहां, वारू अर्थ विचार ।। _ *गुणिजन ! अर्थ छतीसम शतक नां ।। (ध्रुपदं) ६. अवगाहना जघन्य थो, आंगुल नों अवधार हो । असंख्यातमों भाग छ, उत्कृष्ट योजन बार हो । ७. एवं जिम एकेंद्रिय, महायुग्म नां जेह हो । प्रथम उद्देश विषे का , तिमहिज कहिवू तेह हो ।। ८. णवरं इतरो विशेष छ, धुर लेश्या त्रिण जोय हो । अने देव नहिं ऊपज, सम्यक् दृष्टी होय हो । ९. अथवा मिथ्यादृष्टि हुवै, मिश्रदृष्टि हुवै नाय हो । ज्ञानी हुवै अथवा वली, अज्ञानी कहिवाय हो ।। १०. मनजोगी कहियै नहीं, वचजोगी हवै सोय हो। अथवा कायजोगी हवै, बेंद्रि में जोग दोय हो । ११. ते प्रभु ! कडजुम्म-कडजुम्म, जीव बेइंद्रिय जाण हो। कितो काल रहै काल थी? । भाखो श्री जगभाण हो ।। १२. श्री जिन भाखै जघन्य थी, एक समय अवलोय हो। उत्कृष्टो इम आखियै, संख्यातो काल सोय हो ।। *लय : सीता ओलखाव सोका भणी ७. एवं जहा एगिदियमहाजुम्माणं पढमुद्देसए (३५।६-१०) तहेव, ८. नवरं-तिण्णि लेस्साओ, देवा न उववज्जति । सम्मदिट्ठी वा ९. मिच्छदिट्ठी वा, नो सम्मामिच्छादिट्ठी। नाणी वा अण्णाणी वा। १०. नो मणजोगी, वइजोगी वा कायजोगी वा। (श. ३६।१) ११. ते णं भंते ! कडजुम्मकडजुम्मबेंदिया कालओ केवच्चिरं होंति ? १२. गोयमा ! जहणणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं संखेज्ज कालं । श० ३६, उ० १, ढा० ४९३ ४१९ Jain Education Intemational Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. 'जहन्नेणं एक्कं समयं' ति समयानन्तरं संख्यान्तरभावात्, (वृ. प. ९७२) १४. ठिती जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई। १५. आहारो नियम छद्दिसि । तिण्णि समुग्धाया, सेसं तहेव १६. जाव अणंतखुत्तो। एवं सोलससु वि जुम्मेसु । (श. ३६०२) १७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३६॥३) १८. पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मāदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? सोरठा १३. समयो एक जघन्न, एक समय पाछै तिको। तेओगादि प्रपन्न, अन्य संख्या नां भाव थी ।। १४ *स्थिति जघन्य थी जेहनी, एक समय नी लेह हो । उत्कृष्ट द्वादश वर्ष नी, न्याय विचारी कहेह हो ।। १५. षट दिशि नों आहार नियम थी, अस नाड़ी में होय हो। समुद्घात त्रिण आदि नीं, शेष तिमज अवलोय हो । १६. जाव अनंती वार ही, पूर्व ऊपनों पेख हो । इम सोल ही जुम्मा विषे, कहिवो जिन वच देख हो । १७. बेइंदिय महायुग्म जे, शतक विषे अभिराम हो। प्रथम उद्देशक अर्थ थी, सेवं भंते ! स्वाम हो ।। ॥इति ३६११॥ १८. प्रथम समय भगवंतजी ! ___ कडजुम्म-कङजुम्म जान हो। बेंदिया किहां थी ऊपजै ? प्रश्न इत्यादि पिछान हो । १९. एवं जिम एकेंद्रिय, महायुग्म अवदात हो। __ प्रथम समय उद्देशके, नाणत्ता दश आख्यात हो । २०. तेहिज दश फुन नाणत्ता, कथन इहां पिण ताय हो। एकादशमों नाणत्तो, आगल ए कहिवाय हो ।। २१. मनजोगी नहिं छै तिके, वचजोगी पिण नाय हो । कायजोगी कहिये तसु, ए इग्यारमों थाय हो । २२. शेष जेम वेइंद्रिय तणं, प्रथम उद्देश विषेह हो। आख्यं तिम कहिदूंज छै, सेवं भंते ! कहेह हो । २३. इम ए पिण जिम एकेद्रिय, महायुग्म नै विषेह हो। ग्यार उद्देशा आखिया, तिमहिज कहिवा एह हो ।। २४. णवरं तुर्य उद्देशके, अष्टम दशम विषेह हो। सम्यक्त्व ने वलि ज्ञान नै, कहिवा नहीं छै जेह हो। २५. जिमहिज एकेंद्रिय विषे,सम्यक्त्व ज्ञान न होय हो। तिम बेइंद्रिय त्रिहुं उद्देशके, सम्यक्त्व ज्ञान न कोय हो। २६ पहिलो तीजो पंचमो, गमा एक सरीस हो। शेष अष्ट गमा जिके, एक सरीसा जगीस हो।। इति प्रथम अन्तर शतक । ॥इति ३६।१।२-११॥ १९. एवं जहा एगिदियमहाजुम्माणं पढमसमयउद्देसए। दस नाणत्ताई २०. ताई चेव दस इह वि। एक्कारसमं इमं नाणत्तं--- २१. नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी। २२. सेसं जहा बेंदियाणं चेव पढमुद्देसए। (श. ३६।४) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३६३५) २३. एवं एए वि जहा एगिदियमहाजुम्मेसु एक्कारस उद्देसगा तहेव भाणियब्बा, २४,२५. नवरं-चउत्थ-अट्ठम-दसमेसु सम्मत्त-नाणाणि न भण्णंति । २६. जहेव एगिदिएसु पढमो तइओ पंचमो य एक्कगमा, सेसा अट्ठ एक्कगमा। (श. ३६५६) *लय : सीता ओलखावै सोकां मणी ४२० भगवती जोड़ dain Education International Jain Education Intemational Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्म_दिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? २८. एवं चेव । कण्हलेस्सेसु वि एक्कारसउद्देसगसंजुत्तं सतं, २९. नवरं-लेस्सा, संचिट्ठणा जहा एगिदियकण्हलेस्साणं । (श. ३६७) ३०. एवं नीललेस्सेहि वि सतं । (श. ३६८) ३१. एवं काउलेस्सेहि वि । (श. ३६।९) २७. कृष्णलेशी भगवंतजी ! __ कडजुम्म-कडजुम्म तेह हो । बेइंदिया किहां थकी, उपज इत्यादि जेह हो ? २८. इमहिज जे निश्चै करी, कृष्णलेशी नै विषेह हो । ग्यार उद्देश संयुक्त ही, कहिवू शतक सुलेह हो ।। २९. णवरं लेश्या संचिट्ठणा, स्थिति' जिम आख्यात हो । एकेंद्री कृष्णलेशी शते, कहिवू ते अवदात हो । वा० --लेश्या १, संचिट्ठण-रहिवो २, स्थिति ३-जिम एकेंद्रिय कृष्णलेशी शतक नै विषे कह्या तिम कहिवू । इति द्वितीय अंतर शतक । ॥इति ३६॥२॥ ३०. इम नील लेश्या संघात ही, ____ ग्यार उद्देश संयुक्त हो। कहिवो शतकज तीसरो, अर्थ थकी ए उक्त हो । इति तृतीय अंतर शतक । ॥इति ३६॥३॥ ३१. इम कापोत लेश संघात ही, ग्यार उद्देश संयुक्त हो। कहिवो शतकज चतुर्थो, अर्थ अनोपम उक्त हो । इति चतुर्थ अंतर शतक। ॥इति ३६॥४॥ ३२. भवसिद्धिक कडजम्म-कडजुम्म, बेइंद्रिया भगवंत हो! किहां थकी आवी ऊपजै? प्रमुख पूर्ववत मंत हो ।। ३३. एवं भवसिद्धिया अपि, च्यार उद्देशा विचार हो । तिणहिज पूर्व गमे करी, अर्थ जाणवा सार हो । ३४. णवरं सघला ही प्राणिया, पूर्व ऊपनां ताहि हो। जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, सहु भव्यपणें हुआ नांहि हो । ३५. शेष तिमज जे आखिया, ___ ओघिक शतकज च्यार हो । तिमहिज कहिवा छै इहां, सेवं भंते ! सार हो । इति पंचम से अष्टम अंतर शत । ॥इति ३६॥५-८॥ ३२. भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मबेंदिया णं भंते ! ३३. एवं भवसिद्धियसता वि चत्तारि तेणेव पुव्वगमएणं नेयव्वा, ३४. नवरं-सव्वे पाणा ? णो तिणठे समठे । ३५. सेसं तहेव ओहियसताणि चत्तारि। (श. ३६।१०) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३६।११) १. अंगसुत्ताणि में 'ठिती' को पाठान्तर में लिया गया है। श० ३६, ढा० ४९३ ४२१ dain Education Intemational Jain Education Intemational For Privat Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. जहा भवसिद्धियसताणि चत्तारि एवं अभवसिद्धिय सताणि चत्तारि भाणियवाणि, ३७. नवरं-सम्मत्त-नाणाणि सव्वेहिं नत्थि, सेसं तं चेव । ३८. एवं एयाणि बारस बेंदियमहाजुम्मसताणि भवति । (श. ३६।१२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ३६।१३) ३६. जिम भवसिद्धिक जीव नां, च्यार शतक आख्यात हो। एवं अभवसिद्धिक तणां, चिहुं शत भणवा विख्यात हो। ३७. णवरं इतरो विशेष छ, सम्यक्त्व अथवा ज्ञान हो। नथी सर्वथा अभव्य में, शेष तिमज पहिछान हो ।। ३८. इम ए बेइंद्रिय महाजुम्म, बारै अंतर-शत होय हो। सेवं भंते ! ए बेंद्रिय, महायुग्म शत जोय हो ।। इति नवम से द्वादश अन्तर शतक । इति बेंद्रिय महायुग्म शता समाप्ता। ए छत्तीसमों शतक अर्थ थकी संपूर्ण । ॥इति ३६१६-१२॥ ३९. ढाल च्यार सय ऊपर, व्याणमी कहिवाय हो। भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष सवाय हो । गोतक छन्द १. षटत्रिशमो द्वींद्रिय महाजम्मा करी शत शोभतो। वर बार अंतरशतक नां परिवार परिवरियो छतो।। २. इम सप्तत्रिशम अष्टत्रिश एकोनचत्वारिंशमा। त्रि-चतुर-सन्निपंचेंद्रि महाजुम्म तिमज अंतर शत गमा ।। षत्रिंशत्तमशते द्वादशान्तरशतकार्थः।। ४२२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तम शतक अष्टत्रिंशत्तम शतक एकोनचत्वारिंशत्तम शतक चत्वारिंशत्तम शतक Jain Education Intemational Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तम शतक ढाल : ४९४ त्रोन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा दूहा १. कडजुम्म-कडजुम्म तेइंदिया, किहां थकी भगवंत ! उपजै छै आवी करी, इत्यादिक सउदंत ? २. इम तेइंद्रिय ने विषे, करिवा शतकज बार । शतक बेंद्रिय सारिखा, णवरं विशेष धार ।। ३. अवगाहना जघन्य थी, आंगुल तणोंज चीन । __ असंख्यातमों भाग है, उत्कृष्ट गाऊ तीन ।। ४. स्थिति जघन्य थी इक समय, उत्कृष्टी अवधार । __ एगुणपचास निशि दिवस, शेष तिमज सुविचार ।। ५. सेवं भंते ! स्वाम जी, तेइंद्रिय महाजुम्म । द्वादश अंतर शत सहित, अर्थ थकी अवगम्म ।। इति तेंद्रिय महायुग्म शता समाप्ता। बारै अंतर शत सहित सप्ततीसम शत संपूर्ण ।। ॥इति ३७११-१२॥ १. कडजुम्मकडजुम्मतेंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? २. एवं तेंदिएसु वि बारस सता कायव्वा बेंदियसत सरिसा, नवरं३. ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्को सेणं तिण्णि गाउयाई। ४. ठिती जहण्णणं एक्कं समय, उक्कोसेणं एकूणवण्ण राइंदियाई, सेसं तहेव । (श. ३७।१) ५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ३७१२) अष्टत्रिंशत्तम शतक चतुरिन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा _ *अब नहिं वीसरूं । म्हारै हृदय वस्या हो जिन वैन, अब नहिं वीसरूं । एतो श्री जिन साचा सैन, अबै नहिं वीसरूं । एतो प्रभु-वच अंतर-नैन, अबै नहिं वीसरूं । तिणसं चित माहै पामै चैन, अब नहिं वीसरूं ।।(ध्रपदं) ६. चउरिद्रिय संघात ही, इम शत करिवा बार । णवरं इतो विशेष छै, सांभलजो धर प्यार ।। *लय : अब नहिं वीसरूं ६. चउरिदिएहि वि एवं चेव बारस सता कायव्वा, नवरं श० ३७,३८ ढा० ४९४ ४२५ dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. ओगाहणा जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई। ८. ठिति जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा । ७. अवगाहना जघन्य थी, आंगुल तणोंज धार । असंख्यातमों भाग ही, उत्कृष्ट गाऊ च्यार ।। ८. स्थिति जघन्य थो इक समय, समय अनंतर तास । अन्य संख्या योजादि हवै, उत्कृष्टी षट मास ।। ९. शेष जेम बेइंद्रिय नैं, आख्यो तिम कहिवाय । सेवं भंते ! चरिद्रिय, महायुग्म शत थाय ।। इति चरिंद्रिय महायुग्म शता समाप्ता। बारै अंतर शत संयुक्त अर्थ थी अडतीसम शतका) संपूर्ण । ॥ति ३८॥१-१२॥ ९. सेसं जहा बेंदियाणं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ३८।१) (श. ३८२) एकोनचत्वारिंशत्तम शतक असन्नी पंचेन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा १०. कृतयुग्म-कृतयुग्म जे, असन्नी पंचेंद्रिय भंत ! किहां थकी ए ऊपज ? इत्यादिक स्वतंत ।। ११. जिम बेइंद्रिय ने कह्यं , असन्नी विष पिण तेम । करिवा द्वादश शतक हो, णवरं विशेष एम ।। १२. अवगाहना जघन्य थी, आंगुल नों अवधार । असंख्यातमों भाग है, उत्कृष्ट योजन हजार ।। १३. संचिट्ठणा जघन्य थी, एक समय लग जोड़ । उत्कृष्ट थकीज एतली, पृथक पूर्व कोड़ ।। १४. स्थिति जघन्य थी इक समय, पूर्व कोड़ उत्कृष्ट । शेष जेम बेइंद्रिय, आख्यो तिमहिज इष्ट ।। १५. सेवं भंते ! स्वामजी, असन्नी पंचेंद्रीय । महायुग्म द्वादश शता, गुणचालीसम कहीय ।। इति असन्नी पंचेंद्रिय महाजुम्म शता समाप्ता । इति बार अंतर शत संयुक्त गुणचालीसम शतकार्थ संपूर्ण ।। ॥इति ३६४१-१२॥ १०. कडजुम्मकडजुम्मअसण्णिपंचिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? ११. जहा बेंदियाणं तहेव असण्णिसु वि बारस सता कातव्वा, नवरं-- १२. ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्को सेणं जोयणसहस्सं । १३. संचिट्ठणा जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं पुव्व कोडीपुहत्तं । १४. ठिती जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं पुवकोडी, सेसं जहा बेंदियाणं । (श. ३९।१) १५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ३९।२) ४२६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तम शतक सन्नी पंचेन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा १६. कृतयुग्म कृतयुग्म जे, सन्नी पंचेंद्रिय भंत ! किहां थकी ए ऊपजै ? उत्तर दे अरिहंत || १७. ऊपजवो चि गति थकी, जे चि गति रं मांहि । संख वर्षा जिके, असंख वर्षां ताहि ।। १८. पर्याप्ता अपर्याप्ता, सन्नी पंचेंद्रिय मांय । ए च्यारूं ही ऊपजै, कोई निषेध १९. जाव अनुत्तरविमान थी, सन्नी आवी नें जे ऊपजै, इहां लगे विषे च्यारूं गति नां आवी ऊपजै । च्यारूं गति में विख्यात वर्षांप से मरी ऊपने अने असंख्यात वर्षायुक्त पिण मरी ऊपजै । पर्याप्ता काल करी पिण ऊपजै । अपर्याप्ता पिण मरी ऊपजै । सन्नी पंचेंद्रिय ने विषे सर्व ऊपजै । किहांई थकी पिण मरी ऊपजवा रो निषेध नहीं है जाव अनुत्तरविमान थकी । नहि थाय ॥ पंचेंद्रिय मांय । कहिवाय || वा० - सन्नी पंचेंद्रिय नैं २०. परिमाण अनैं अपहार जे अवगाहन अवधार । असन्नी पंचेंद्रिय आच्यूँ तिमज विचार ।। २१. वेदनीय वर्जी करी, सप्त कर्म प्रकृत । तेह तणां ते बंधगा, अथवा अबंधगा कथित ॥ वा० -इहां वेदनीय ने बंध विधि प्रत विशेषे करी कहिस्यै इम करी वेदनीय वर्ज्यो । इम तिहां उपशांत मोहादि सात कर्म नीं अबंधक हीज छै। शेष तो वली यथासंभव बंधगा हुवै इति । २२. वेदनीय नां बंधगा, बारम गुणठाणा लगै, अबंधगा ते नांय । सन्नी पंचेंद्री कहाय ॥ वा० - तेरमे चवदमें गुणठा सन्नी पंचेंद्रिय न कहिये ते तो नोसन्नीनोअसन्नी छे, अणिदिया है । अन तेह थकी उलीकानी बारमा गुणठाणा लगे सन्नी पंचेंद्रिय छै, ते सर्व वेदनीय नां बंधक हीज छै, पिण अबंधक नथी । 'इहां तेरमें, चवदमें गुणठाणे सन्नी पंचेंद्रिय नथी कह्या । अन व्यवहार नय करी केवली में जीव रो भेद एक चवदमों कहै छै । ते पूर्व सन्नी पंचेंद्रियपणां नीं अपेक्षा करी कहे छ । जिम यथाख्यात चारित्र नों साहरण कह्यो । अप्रमादी रो साहरण तो हुवै नथी, पिण प्रमादी नों साहरण कियां पछँ यथाख्यात चारित्र पायो, तिणरी अपेक्षाय यथाख्यात नों साहरण कह्यो । तथा पुलाक नियंठा नों धणी काल करे तो उत्कृष्ट आठमें देवलोक जाय, एहवं का पिण पुलाक में तो मरै नथी । पुलाक लब्धि फोड़ी ते वेला पुलाक नियंठो हुंतो आवी तत्काल मूओ । ते पूर्वं पुलाक अनुभव्यो, तेहनों अपेक्षाय पुलाक में काल ते अनेर नियं १६. कडजुम्मकडजुम्मसष्णिपंचिदिया णं भंते! कओ उववज्जंति ? १७. उववाओ चउसु वि गईसु । संखेज्जवासाउयअसंखेज्जवासाउय १८. पज्जत्ता- अपज्जत्तएसु य न कओ वि पडिसेहो १९. जाव अणुत्तरविमाणत्ति । २१. वेय गिज्जबज्जाणं सत्तण्हं पगडीणं बंधगा वा अबंधगा ता २०. परिमाणं अवहारो ओगाहणा य जहा असण्णिपंचिदियाणं । वा० 'वेयणिज्जवज्जाणं सत्तण्हं पगडीणं बन्धगा वा अबन्धगा वत्ति, इह वेदनीयस्य बन्धविधि विशेपेण बध्यतीतिकृत्वा वेदनीयवर्णानामित्युक्तं तत्र चोपशान्तमोहादयः सप्तानामवन्धका एव शेषास्तु यथासम्भवं बन्धका भवन्तीति । (बृ. प. ९७३) २२. वेयणिज्जस्स बंधगा, नो अबंधगा । वा०-- 'वेय णिज्जस्स बन्धगा तो अबन्धग' त्ति, केवलित्वादाऽपि सञ्जिपञ्चेन्द्रियास्ते च वेदनीयस्य बन्धका एव नाबन्धकाः । (वृ. प. ९७३ ) श० ४०, ढा० ४९४ ४२७ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करिवो कह्यो। तिम सन्नीपणुं अने पंचेंद्रियपणुं पूर्व नी अपेक्षाय केवली में चवदमो जीव रो भेद उपचारे करी कहियै । तथा अनुयोगद्वारे (सू. १६,१७) आवश्यक जाणवा वाला नां शरीर नै जाणकशरीर द्रव्य आवश्यक कह्यो। आवश्यक नों जाण हुस्यै तेह भविकशरीर द्रव्य आवश्यक कह्यो । जिम ए घृत नों घड़ो मधु नों घड़ो तो तथा घृत नों घड़ो मधु नों घड़ो हुस्यै तिम सन्नीपणुं भाव पंचेंद्रियपणुं पूर्व हुतो ते माट जीव नों भेद चवदमों केवली में कहिये । तथा वाटे वहितां नैं तथा प्रथम समय नां ऊपनां अपर्याप्ता नै भावे इंद्रिय छ पिण द्रव्य इंद्रिय नथी । तिणसं तिणनै अणिदियो कहिये । तिम केवली रे चवदमो जीव रो भेद सन्नी १, पंचेंद्रिय २, पर्याप्तक ३–ए तीन भेद में सन्नीपणुं प्रथम भेद तो नथी। पिण इंद्रिय द्रव्य रूप तो छ अनै पर्याप्तापणुं पिण छ । तिणसू चवदमो भेद कहियै । जिम हस्ती नों कान प्रमुख एक देश नों नाश थयु तो पिण तेहन हस्तीज कहिये । तिम केवली रै सन्नीपणुं नथी पिण द्रव्येद्रियपणु अनै पर्याप्तकपणुं छ। ते माटै केवली में चवदमों जीव रो भेद परंपराई कहै छ, एहवू न्याय पिण संभव ।' (ज. स.) २३. मोहनीय नां वेदगा, अवेदगा वा जेह । वेदै दशमा गुण लगै, ग्यारम बारम न वेदेह ।। वा०-सूक्ष्मसंपराय ताइ वेदक, आगले गुणठाणे अवेदक । ते माटै कह्य वेदक पिण अवेदक पिण। २४. शेष सातूंइ कर्म नां, वेदग ते कहिवाय । पिण अवेदगा नहिं हवै, निमल विचारो न्याय ।। वा०-शेष सातूं कर्म ना वेदग हुवै पिण अवेदग नथी। जे निश्च इग्यारमें, बारमें गुणठाणे सन्नी पंचेंद्रिय छ ते मोहणी विना सातूंई कर्म नां वेदग छ, तिणसूं शेष सातुंई कर्म नां वेदग कह्या। अनै केवली हीज च्यार कर्मप्रकृति नां वेदक हुवै । तेह भावे इंद्रिय नां व्यापार रहितपण थकी पंचेंद्रिय नथी । २५. छै सातावेदगा तथा, असातावेदगा होय । सन्नी पंचेंद्रिय तणां, स्वरूपपणां थी जोय ।। २३. मोहणिज्जस्स वेदगा वा अवेदगा वा, वा०-'मोहणिज्जस्स वेयगा वा अवेयगा व' ति मोहनीयस्य वेदका: सूक्ष्मसम्परायान्ता:, अवेदकास्तूपशान्तमोहादयः, (व. प. ९७३) २४. सेसाणं सत्तण्ह वि वेदगा, नो अवेदगा। वा०-'सेसाणं सत्तण्हवि वेयगा नो अवेयग' त्ति ये किलोपशान्तमोहादयः सज्ञिपञ्चेन्द्रियास्ते सप्तानामपि वेदगा नो अवेदकाः, केवलिन एव चतसृणां वेदका भवन्ति ते चेन्द्रियव्यापारातीतत्वेन न पञ्चेन्द्रिया इति । (वृ. प. ९७३) २५. सायावेदगा वा असायावेदगा वा। 'सायावेयगा वा असायावेयगा ब' त्ति, सञ्जि पंचेन्द्रियाणामेवंस्वरूपत्वात् (वृ. प. ९७३) २६. मोहणिज्जस्स उदई वा अणुदई वा, 'मोहणिज्जस्स उदई वा अणुदई व' त्ति, तत्र सूक्ष्मसम्परायान्ता मोहनीयस्योदयिनः उपशान्तमोहादयस्त्वनुदयिनः . (वृ. प. ९७३) २७. सेसाणं सत्तण्ह वि उदई, नो अणुदई । २६. मोहनीय नां उदयि है, दशमा गुण. लग थाय । अथवा अणउदयी हुवै, ग्यारम बारम उदयी नाय ।। २७. शेष सातूई कर्म नां, उदयी ते कहिवाय । पिण अणउदयी छै नथी, निसुणो एहनों न्याय ।। वा०–मोहनीय विना शेष सात कर्म नां उदयी पिण अणउदयी नथी। पूर्वे वेदगा कह्या, इहां उदयी कह्या । ते वेदगा में अनै उदयि में स्यूं फेर ? तेहनों उत्तर-वेदकपणों अनुक्रम करिक अथवा उदीरणा करणे करी उदय पाम्यां नों भोगविवू । अनै उदय ते अनुक्रम उदय आयां नों भोगविवू, ए एक बोल हीज हुवे, पिण उदीरणा करणे करी भोगविवं एहनै विषे नथी। २८. नाम गोत्र नां उदीरका, अणउदीरका नाय । शेष छह कर्म उदीरका, अणउदीरका वा कहाय ।। वा०-नाम, गोत्र नां उदीरक, पिण अनुदीरक नहीं। नाम, गोत्र अकषाय पर्यंत । संज्ञी पंचेंद्रिय सगलाहीज पिण उदीरक हुवे, पिण अनुदीरक वा०-'सेसाणं सत्तण्हवी' त्यादि, प्राग्वत्, नवरं वेदकत्वमनुक्रमेणोदीरणाकरणेन चोदयागतानामनुभवनम् उदयस्त्वनुक्रमागतानामिति । (व. प. ९७३) २८. नामस्स गोयस्स य उदीरगा, नो अणुदीरगा, सेसाणं छह वि उदीरगा वा अणुदीरगा वा। वा०-'नामगोयस्स उदीरगा नो अणुदीरग' त्ति, नामगोत्रयोरकषायान्ताः सज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सर्वेऽप्यु ४२८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं शेष यह कर्म उदीरका पिन अनुदापि हुने ते शेष छह नों यथासंभव उदीरक अनुदीरक जिम जे भणी ए उदीरणाविधि छै तिम कहे छ -- छठा गुणठाणा लग सामान्य करिकै समुच्चय आठ कर्म उदीरें अन आउखा नीं शेष आवलिका छतै आउखा वर्जी सात कर्म उदीरें । अनेँ अप्रमत्तादि आगले प्यार गुणाने वेदनी आवर्जी में छह कर्म ते उदीरे तथा सूक्ष्मसंचराव छेहली आवलि पोता नां काल नां शेष थका मोहनीय, वेदनीय, आउखो वर्जी पंचकर्म उदीरे। अने उपशांतमोहे पिण एह पंच ने उदीरें। क्षीणमोह कषाय शेष आवलि पोता नां काल नां शेष थका नाम गोत्र उदीरं । तेरमें सजोगी पिण नाम - गोत्र नै उदीरे । अजोगी अनुदीरक हीज हुवै इति । 7 7 3 ताय । २९. कृष्णश्वाई है तथा जान शुक्लश्याई होय । समदृष्टि वा मिच्छदिट्ठी तथा मिधदृष्टि सोय ॥ ३०. ज्ञानी वा अज्ञानी हवे, मनजोगी सोय ॥ अथवा वचजोगी हुने वा कायजोगी पिण होय ॥ ३१. उपयोग ने वर्णादिक, उस्सासवंतज आहारगा बोल एतला, एकेंद्रि जिम कहिवाय ।। ३२. विरति वा अविरती वा विरताविरती होय । किरिया सहित ते हुवै, क्रिया रहित नहि कोय || ३३. हे प्रभुजी ! ते जीवड़ा, स्यूं सात कर्म बांधत ? के अठ वा षटविधबंधगा, वा इकविधबंधगा हुंत ? ३४. जिन कहै सात प्रकार नां, तेह बंधगा थाय । यावत इकविधबंधना, कर्म एक बंधाय ॥ ३५. हे भगवंत! ते जीवड़ा, स्यूं आहार संज्ञा उपयुक्त जाय परिग्रह-संज्ञा उपयुक्त छे, के नोसन्नोवउता उक्त ? ३६. जिन भाखे सुण गोयमा ! आहारसन्नोवउत्ताय । नाव नोसंज्ञा उपयुक्त छे, हिव सर्व पूछा कहिवी ताय ॥ ३७. फोधकपाई जाव ते, लोभकषाई धार । अथवा अकाई हुवै, हर्ब, लीजो न्याय विचार | ३८. इन्दिगाते हुवे वा पुरिसवेदगा अथवा नपुंसवेदगा, अवेदगा वा ३९. इथिवेद-बंगा तथा, होय । जोय ॥ बांधत हुंत ॥ होय । वा पुरिसवेद वा नपुंसवेद-बंधगा हवं, अथवा अबंधगा ४०. सन्नी तेह हुवे अच्छे पिण असन्नी नहि इंद्रिय सहित हुवे तिके, अणिदिया नहि कोय ॥ ४१. संचिट्ठणा जघन्य थी, एक समय अवलोय । उत्कृष्ट पृथकसौ पृथकसी उदधि, जाभेरी उदधि, जाफेरी ते जोय ॥ वा०-- कृतयुग्म कृतयुग्म सन्नी पंचेंद्रिय नै अवस्थिति जघन्य थकी एक समय समय पर्छ तेओगा नीं अन्य संख्या नां सद्भाव थी। उत्कृष्ट थकी सागरोपम सत पृथक्त्व जारी । जेह भणी एह थकी आगल संज्ञी पंचेंद्रिय न हुवै । 1 दीरका:, 'सेसाणं न उदीरगा वा अणुदीरगाव' विशेवाणां परणामपि यथासम्भवमुदी रकारादीरकाश्च यतोऽयमुदीरणाविधिः प्रमत्तानां सामान्येनाटानां आवलिकावशेषायुष्कास्तुत एवायुर्वसप्तानामुदीरका:, अप्रमत्तादयस्तु चत्वारो वेदनीयायुर्वजनां षण्णां तथा सूक्ष्मसम्पराया आवलिकायां स्वाद्वायाः शेषायां मोहनीयवेदनीयानां पञ्चानामपि उपशान्तमोहास्तूक्तरूपाणां पञ्चानामेव क्षीणकषायाः पुनः स्वाद्वाया आवलिकायां शेषायां नामगोत्रयोरेव योगिनोऽप्येतयोरेव अयोगिनस्त्वनुदीरका एवेति । ( वृ. प. ९७३ ) सम्मट्टी वा २९ ले जाव सुक्कलेस्सा वा मिच्छादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिट्ठी वा । ३०. नाणी वा अण्णाणी वा । मणजोगी वइजोगी कायजोगी । ३१. उवओगो, वण्णमादी, उस्सासगा वा नीसासगा वा, आहारगा य जहा एगिंदियाणं । २३. ते ३२. विरया य अविरया य विरयाविरया य । सकिरिया, नो अकिरिया । (श. ४०1१ ) जीवा कि सत्तविहबंधना ? अहि गंगा ? बिबंधना ? एमविहबंधना वा ? २४. गोमा ! सत्तविहबंधना वा जाब एविधा वा (प्र. ४०1२) ३५. ते णं भंते! जीवा कि आहारसण्णोवउत्ता जाव परिगणोबत्ता ? नोसोउला ? ३६. गोयमा ! आहारसण्णोवउत्ता जाव नोसण्णोवउत्ता वा । सव्वत्थ पुच्छा भाणियव्वा ३७. कोहकसायी वा जाव लोभकसायी वा, अकसायी वा । ३०. इरपीवेदना वा पुरिसवेदगा या नपुंसनवेदगा वा अवेदगा वा । ३९. इत्थवेदबंधगा वा पुरिसवेदबंधगा वा नपुंसगवेदबंधगा वा अबंधगा वा । ४०. सण्णी, नो असण्णी । सइंदिया, नो अणिदिया । 1 ४१. हि एक्कं समयं उक्कोसेणं सागरीचमतं सातिरेगं । वा० संचिणा जहन्ने एक्के समय' ति, कृतयुग्मकृतयुग्म सञ्ज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां जघन्येनावस्थितिरेकं समयं समयानन्तरं सङ्ख्यान्तरसद्भावात्, 'उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं' ति यत इतः परं सञ्ज्ञिपञ्चेन्द्रिया न भवन्त्येवेति, ( वृ. प. ९७३ ) श० ४०, ढा० ४९४ ४२९ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. आहारो तहेव जाव नियमं छद्दिसि । ४२. आहार तिमहिज जाणवो, जाव नियम थी ताहि । षट दिशि तणों लियै तिको, ह तस नाड़ी मांही ।। ४३. स्थिति जघन्य थी जेहनी, समयो एक कहीस । पछै तेओगादिक हुवै, उत्कृष्ट उदधि तेतीस ।। ४४. समुद्घात षट आदि नी, सप्तम केवल नांहि । तेह केवली में हुवै, सन्नी न कहिये ताहि ।। ४३. ठिती जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। ४४. छ समुग्घाया आदिल्लगा। 'छ समुग्घाया आइल्लग' त्ति सज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामाद्याः षडेव समुद्घाता भवन्ति सप्तमस्तु केवलि नामेव ते चानिन्द्रिया इति। (व. प. ९७३) ४५. मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति । ४६. उव्वट्टणा जहेव उववाओ, न कत्थइ पडिसेहो जाव अणुत्तरविमाणत्ति। (श. ४०१३) ४७. अह भंते ! सब्वे पाणा जाव अणंतखुत्तो। ४५. मारणांतिक समुद्घाते करी, समोहत थका मरंत । असमोहया पिण मरै, भाखै इम भगवंत ।। ४६. जिम उपपातज आखियो, उव्वदृणा तिम जान । निषेध किहांई छै नथी, जाव अनुत्तरविमान ।। ४७. अथ सहु प्राणी हे प्रभु ! जाव अनंती वार । पूर्व ऊपनां जीवड़ा, कड जुम्म-कडजुम्म मझार ।। ४८. इम सोल ही जुम्म विषे, कहिवं अर्थ संपेख । जाव अनंत वार ऊपनां, णवरं इतरो विशेख ।। ४९. परिमाण बेइंद्रिय नों कह्यो, तिम कहिवो सेवं भंत ! शत चालीसम अर्थ थी, प्रथम उद्देशक तंत ।। प्रथम अन्तरशते प्रथमोद्देशकार्थ ॥४०॥११॥ ४८. एवं सोलससु वि जुम्मेसु भाणियब्बं जाव अणंतखुत्तो, नवरं४९ परिमाणं जहा बेइंदियाणं, सेसं तहेब । (श. ४०।४) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ४०।५) ५०, पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? ५१. उववाओ, परिमाणं आहारो जहा एएसि चेव पढमोद्देसए। ५२. ओगाहणा बंधो वेदो वेदणा उदयी उदीरगा य ५३. जहा बेंदियाणं पढमसमइयाणं, ५०. प्रथम समय कडजुम्म फून, कडम्म हे भगवंत ! सन्नी पंचेंद्रिय तिके, किहां थकी उपजत ? ५१. ऊपजवो परिमाण फुन, आहार तास सुविचार । जिम एहनों हिज आखियो, प्रथम उद्देश मझार ।। ५२. अवगाहना नैं बंध फुन, वेद वेदना जान । उदयी अने उदीरगा, ए षट बोल पिछान ।। ५३. जिम बेइंद्रिय जीव नां, प्रथम समयिका तेह । आख्यो तिम कहिवो इहां, वारू विधि करि जेह ।। ५४. कृष्णलेशी वा जाव ते, शुक्ललेश वा होय । शेष जेम बेइंद्रिया, प्रथम समय में जोय ।। ५५. जाव अनंत वार ऊपनां, णवरं इतरो विशेख । ___ स्त्री अथवा पु-वेदगा, वा नपंस-वेदगा पेख ।। ५६. सन्नी ते असन्नी न है, शेष तिमज सह आय । इम सोलै ही जुम्म विषे, परिमाण तिमहिज ताय ।। ५७. सेवं भंते ! स्वामजी, शत चालीसम सोय । द्वितीय उद्देशक अर्थ थी, आख्यो ए अवलोय ।। प्रथम अन्तरशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥ ४०॥१२॥ ५८. एम इहां पिण जाणवा, तिमहिज ग्यार उद्देश । प्रथम तृतीय पंचम गमा, एक सरीखा कहेस ।। ५९. शेष आठ उद्देश गम, एक सरीष कहेस । चउत्थ अठम दशमा विषे, न करवो कोइ विशेष ॥ ४३० भगवती जोड़ ५४. तहेव कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा । सेसं जहा बेंदियाणं पढमसमइयाणं ५५. जाव अणंतखुत्तो, नवरं-- इथिवेदगा वा पुरिस वेदगा वा नपुंसगवेदगा वा, ५६. सण्णिणो नो असणिणो, सेसं तहेव । एवं सोलससु वि जुम्मेसु परिमाणं तहेव सव्वं । ५७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ४०७) ५८. एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा तहेव, पढमो तइयो पंचमो य सरिसगमा, ५९. सेसा अट्ठ वि सरिसगमा। चउत्थ-अट्ठम-दसमेसु नत्थि विसेसो कायव्वो। (श ४०८) Jain Education Intemational Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. सेवं भंते । ! स्वामजी, पंचेंद्रिय चालीसम महाजुम्म । अवगम्म || प्रथम अंतर शत आखियो, प्रथम अन्तरगते तृतीयादि उद्देशकार्यः ||४०|१।३ - ११ ।। चत्वारिंशत्तमते प्रथम अन्तरशतकार्थः । ६१. ढाल च्यार सय ऊपरं, पौराणमी कहिवाय भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय जय' हरष सवाय ॥ , ढाल : ४९५ कृष्णलेश्वी आदि सम्नोपंचेन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा! चूहा एस || १. कृष्णलेश उजुम्मकडजुम्म सन्नी किहां थकी ए ऊपजे ? तिमहिज २. जिमहिज प्रथम उद्देश में तिमहिज ए कहिवो अछे ३. बंध वेदवो उदयी फुन, उदीरणा नै बंधक संज्ञा कषाय वलि, वेद बंधगा ४. ए जिम बेंद्रिय नैं कह्या, तिमहिज कहिवा सोय । कृष्णशो में वेद त्रिण, वेद रहित नहि होय ॥ ५. संचिट्टणा जघन्य थो. एक समय कहिवाय । उत्कृष्ट उदधि तेतीस नीं, अंतर्मुहूर्त अधिकाय ॥ वा० - इहां उत्कृष्ट थकी तेतीस सागरोपम अंतर्मुहूर्त्त अधिक अवस्थान । सातवीं पृथ्वी नै विषे उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागर छ । अनं अंतर्मुहूर्त अधिक ते पाछला भवनों । स्वाम पंचेंद्रिय कहियो कहिवो ताम || सन्नी नं आख्यात | णवरं विशेष विशेष ६. एवं स्थित पिण जाणवी, णवरं स्थिति अंतर्मुहूर्त अधिक जे नहि कहिवी , मा०स्थिति में विये पूर्व भव संबंधी अंतर्मुह अधिक नको जाव ७. शेष जेम एहनांज नं, प्रथम आयो तिम कहियो इहां, ८. इम सोलं ही जुम्म विषे द्वितीय अंतर शत नों प्रथम *रे भवियण ! 2 रे भविवण! जिन वच महाजयकारी, *लय : रे भवियण ! जिण आज्ञा सुखकारी ख्यात || लेश | उद्देश अनंती सेवं भंते ! विषेह । छे तेह || ॥ मकार । बार ॥ स्वाम । उद्देशक अभिराम ॥ महायुग्म अधिकारी । । रे भवियण ! चालीसमो त भारी ।। ६०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । णं १,२. कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसणिपंचिदिया भंते! कओ उववज्जति ? तहेव पढमुद्देसओ सण्णीणं, नवरं ३. बंध- वेद- उदइ- उदीरण-लेस्स- बंधग-सण्ण-कसायवेदबंधगा य ४. एवाणि जहा दिवाणं कण्हलेस्साणं वेदोतिषि अवेदगा नत्थि | (प्र. ४०/९) J ५. संाि जहणजे एक्कं समयं उस्को तेत्तीस सागरोदमाई तोहुतममहियाई वा० - 'उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमन्महियाई' ति इदं कृष्णलेश्याऽवस्थानं सप्तमपृथिष्टस्थिति पूर्वभयपर्यन्तवसनं च कृष्णापरिणाममाश्रित्येति । (बृ. प. ९७५) ६. एवं ठिती वि, नवरं - ठितीए अंतोमुहुत्तमम्भहियाई न भण्णंति । ७. सेसं जहा एएसि तो। ८. एवं सो चेव पढमे उद्देसए जाव (श. ४० | १० ) (स. ४०.११) विजुम्मे सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । श० ४०, ढा० ४९५ ४३१ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? ९. पढम समय कृष्णलेशी कडजुम्म-कडजुम्म, सन्नी पंचेंद्रिया भदंत ! किहां थकी ऊपजै छै आवी ? इत्यादिक सुवतंत ।। १०. जिम प्रथम समय उद्देशक आख्यूं, कहिवू तिमज विशेष रहीत । णवरं प्रभु ! कृष्णलेशी यावत ? जिन कहै हंता प्रतीत ।। ११. शेष तिमज कहिवू सगलोई, इम सोल ही युग्म विषेह । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ए द्वितीय उद्देशक कहेह ॥ १०. जहा सण्णिपंचिंदियपढमसमयउद्देसए तहेव निरवसेसं, नवरं (श. ४०।१२) ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? हंता कण्हलेस्सा, ११. सेसं तं चेव । एवं सोलससु वि जुम्मेसु । (श. ४०।१३) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ४०११४) १२. एवं एए वि एक्कारस उद्देसगा कण्हलेस्ससए । पढम ततिय-पंचमा सरिसगमा, १३. सेसा अट्र वि सरिसगमा। (श. ४०।१५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ४०।१६) १४. एवं नीललेस्सेसु वि सतं, नवरं-संचिट्ठणा जहण्णेणं एक्कं समयं, १२. इम ए पिण इग्यार ही उद्देशा, कृष्णलेशी शतक नै विषेह । पहिलो तीजो नै वलि पंचमो, ए सरीषा गमा कहेह ।। १३. शेष अष्ट पिण गमा सरीषा, सेवं भंते ! सेवं भंत ! ___शत चालीसम द्वितीय अंतर शत, कृष्णलेशी नों ए हुंत ।। चत्वारिंशत्तमशते द्वितीय अंतरशतकार्थः । १४. इम नीललेश्या विषे पिण शत कहिवो, णवरं इतरो विशेख । संचिट्टणा अवस्थान जघन्य थी, समयो एक संपेख ।। १५. उत्कृष्ट थी दश सागर कहिये, पल्य तणों सुविचार । असंख्यातमों भाग अधिक फुन, इम स्थिति विषे पिण धार ॥ वा० - संचिट्ठणा कहितां अवस्थान जघन्य थकी एक समय, उत्कृष्ट थकी १० सागरोपम पल्योपम नों असंख्यातमों भाग अधिक ते किम ? पंचमी पृथ्वी नै ऊपरले पाथड़े दश सागरोपम पल्योपम असंख्येय भाग अधिक आउखो संभवै । तिहां नील लेश्या हुवै ते माटै उत्कृष्ट थकी इसो कहवू । जेह इहां पूर्व भव नों छेहलो अन्तमहतं ते पल्योपम असंख्येय भाग नै विषे पेठो ते माटै भेदे करी न कह्यो । इम अनेरै स्थानके पिण कहिवो इति । १५. उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमब्भहियाई। एवं ठिती वि । वा० --'उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमब्भहियाई' ति, पञ्चमपृथिव्या उपरितनप्रस्तटे दश सागरोपमाणि पल्योपमासंख्येयभागाधिकान्यायुः संभवन्ति, नीललेश्या च तत्र स्यादत उक्तम्-'उक्कोसेण' मित्यादि, यच्चेह प्राक्तनभवान्तिमान्तमहतं तत्पल्योपमासंख्येयभागे प्रविष्टमिति न भेदेनोक्तं, एवमन्यत्रापि, (वृ. प. ९७५) १६. एवं तिसु उद्देसएसु, सेसं तं चेव। (श. ४०।१७) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ४०।१८) १६. इम प्रथम तृतीय पंचम तीनं उद्देशे, शेष तिमज सेवं भंत ! शत चालीसम तृतीय अंतर शत, नीललेशी नों ए हुंत । चत्वारिंशत्तमशते तृतीय अंतरशतकार्थः । १७. इम कापोतलेश शतक पिण कहिवो, णवरं इतरो विशेख। संचिट्ठणा अवस्थान जघन्य थो, समय एक संपेख ।। १८. उत्कृष्ट थी त्रिण सागर कहिये, पल्य तणों वलि जेह । असंख्यातमों भाग अधिक फुन, वालुकप्रभा ऊपरलै पत्थडेह ।। १७. एवं काउलेस्ससतं पि, नवरं-संचिट्ठणा जहण्णेणं एक्कं समयं, १८. उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमब्भहियाई।। 'उक्कोसेणं तिन्नि सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमब्भहियाई' ति यदुक्तं तत्तृतीयपृथिव्या उपरितनप्रस्तटस्थितिमाश्रित्येति । (वृ. प. ९७५) ४३२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. स्थिति विषे पिण इमहिज कहियो, प्रथम तृतीय पंचम उद्देशेह । ए तीन उद्देशा विषे इम कहिवो, शेष तिमज सेवं भंते! लेह ॥ चत्वारिंशत्तमशते चतुर्थ अंतरशतकार्थः । ॥ इति ४० ४ ॥ २०. इम तेजोलेश्या विषे पिण शत कहियो, णवरं इतरो विशेष । संचिणा अवस्थान जघन्य थी, समयो एक संपेख ।। २१. उत्कृष्ट थी वे सागर कहिये, पस्य तणों वलि इष्ट । असंख्य भाग अधिक ते, द्वितीय कल्प सुरायु उत्कृष्ट ।। २२. स्थिति विषे पण इमहिज गवरं, नोसन्नो उत्ता साधु नीं पेक्षाय । प्रथम तृतीय पंचम तीनूं गमा विषे, शेष तिमज सेवं भंते ! ताय ॥ चत्वारिंशत्तमशते पंचम अंतरशतकार्थः । २३. जिम तेजुलेश्या नों शतक कह्यो छै, पद्मलेश्या शतक पिण तेम । वरं इतरो विशेष कह्यो छे, सांभलजो धर प्रेम ॥ २४. संचिणा अवस्थान जपन्य थी, एक समय कहिवाय । उत्कृष्ट दश सागरोपम नीं अंतर्मुहूर्त अधिकाय ।। वा० - इहां उत्कृष्ट थकी दश सागरोपम अंतर्मुहूर्त अधिक ते किम ? पंचमा ब्रह्म नामा देवलोक नां देवतां नां आउखा प्रतै आश्रयी ने कहा । तिहां पदम लेश्याये एलोज आउखो हुवे अंतर्मुहूर्त्त ते पूर्व भव अंतिमवर्त्ती । 1 २५. स्थिति विषे पण इमहिज कहिं णवरं इतरो विशेष पूर्व भवनों अंतर्मुहुर्त न भणवो, शेष तिमज संपेख ॥ २६. इम ए पांच शतक विषे जे जिम कृष्णलेश्या शतक विषे मंत । गमो कह्यो तिमहिज जाणवो, जाब अनंततो सेवं भंत ! चत्वारिंशत्तमशते षष्ठ अंतरशतकार्थः । २७. शुक्ललेशी शतक जिम अधिक शत तिम नवरं चिणा स्थित । जिम कृष्णलेशी शतक विषे कही तिम, कहिवो एह उचित ।। 2 बा०-- शुक्ल लेश्या शतक नैं विषे संचिट्टणा अन स्थिति जिम कृष्णलेशी शतक मैं विधे कही तिम कहिनी एतले तेतीस सागरोपम अंतर्मुहुर्त अधिक १९. एवं ठितीवि । एवं तिसु वि उद्देसएसु, सेसं तं चैव । (स. ४०।१९) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ४०।२० ) २०. एवं तेउलेस्सेसु वि सतं, नवरं - संचिट्ठणा जहणणेणं एक्कं समयं २१. उक्कोसेणं दो सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमम्भहियाई । 'दो सागरोवमाई' त्यादि यदुक्तं तदीशानदेवपरमायुराश्रित्येत्यवसेयं, (बु. प. ९७५) २२. एवं ठितीवि, नवरं - नोसण्णोवउत्ता वा । एवं तिसु वि उद्देसु तं चैव । (श. ४०३२१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । (श. ४०३२२) २२. जहा तेउले तहा पम्लेस्ससतं पि नवरं " २४. संचिणा जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं दस सागरोवमाई अंतीमुत्तममहियाई । वा० - ' उक्कोसेणं दस सागरोवमाई' इत्यादि तु यदुक्तं तद्ब्रह्मलोकदेवायुराश्रित्येति मन्तव्यं तत्र हि पद्मयताच्चायुर्भवति, अन्तर्मुहतं प्रभवाय सानवर्त्तीति, (बृ. प. ९७५) २५. एवं द्विती नबरं अंतोन भगति से तं चेव । 7 २६. एवं एएस पंचसु सतेसु जहा कण्हलेस्ससते गमओ तहा नेयव्वो जाव अनंतखुत्तो । (स. ४०।२३) (स. ४०.२४) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । २७. सुक्कले ससतं जहा ओहिमसतं, नवरं - संचिट्ठणा ठिती य जहा कण्हलेस्ससते, वा० - शुक्ललेश्याशते - 'संचिट्टणा ठिई य जहा कन्हलेस्सए' ति यस्त्रित्सागरोपमाथि सान्तर्मुहर्त्तानि श० ४०, ढा० ४९५ ४३३ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यर्थः। शुक्ल लेश्या नों अवस्थान ए पूर्व भव नों छहलो अंतर्मुहूर्त अनै अनुत्तरायु आश्रयी नैं जाणवो अन स्थिति तेतीस सागरोपम नी जाणवी। शुक्ललेश्याऽवस्थानमित्यर्थः, एतच्च पूर्वभवान्त्यान्तमुहूर्तमनुत्तरायुश्चाश्रित्येत्यवसेयं, स्थितिस्तु त्रय स्त्रिशत्सागरोपमाणीति, (वृ. प. ९७५) २८. सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो। (श. ४०।२५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श.४०।२६) २८. शेष तिमज जाव अनंतखुत्तो, सेवं भंते ! सेवं भंत ! चालीसम शत विषे अर्थ थी, सप्तम अंतर शत तंत ।। चत्वारिंशत्तमशते सप्तम अन्तरशतकार्थः । इति चालीसमा रो सप्तम अंतर शत ए प्रथम शतक समुच्चय अनं ६ लेश्या संघाते ६ शतक एवं ७ शतक कहा। हिवै भवसिद्धिक ना ७ शतक कहै छ। तिहां प्रथम शत भवसिद्धिक कडजम्म-कडजुम्म, कृष्णलेशी भवसिद्धिक कडजुम्म-कडजुम्म जाव शुक्ललेशी भवसिद्धिक कडजुम्म-कडजुम्म ए सातमों शतक कहै छै२९. भवसिद्धिक जे कडजुम्म-कडजुम्म, सन्नी पंचेंद्रिय भंत ! किहां थकी ऊपज छै आवी? इत्यादिक सुवतंत ।। ३०. जिम पहिलो सन्नी शत आख्यो, जाणवो तिम संपेख । भवसिद्धिक आलावे करी ने, णवरं इतरो विशेख ॥ ३१. प्राण सर्व प्रभु ! उपनां पूर्वे ? अर्थ समर्थ न एह । शेष तिमज कहिवो सेवं भंते ! , अष्टम अंतर शत लेह ।। चत्वारिंशतम शते अष्टम अंतरशतकार्थः । ३२. कृष्णलेशी भवसिद्धिक कडजुम्म-कडजुम्म, सन्नी पंचेंद्रिय भंत ! किहां थकी ऊपजै छै आवी ? कहिये तास उदंत ।। ३३. इम एणे अभिलाप करी जिम, ओघिक कृष्णलेशी शत ख्यात । तिमहिज कहिवो सेवं भंते ! नवम अंतर शतक समाप्त ।। चत्वारिंशत्तमशते नवम अन्तर शतकार्थः । ३४. इम नीललेशो भवसिद्धिक विषे पिण, कहिवो शतक सुजोय । सेवं भते! सेवं भंते ! दशम अंतर शत होय ॥ चत्वारिंशत्तमशते दशम अंतरशतकार्थः। ३५. इम जिम ओघिक सन्नी पंचेंद्रो नां, सप्त शतक आख्यात । इम भवसिद्धिक संघाते पिण जे, कहिवा शतकज सात ।। २९. भवसिद्धीयकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? ३०. जहा पढम सण्णिसत्तं तहा नेयव्वं भवसिद्धीयाभिलावेणं, नवरं (श. ४०।२७) ३१. सव्वे पाणा ? नो तिणठे समठे, सेसं तं चेव । (श. ४०।२८) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श.४०।२९) ३२. कण्हलेस्सभवसिद्धीयकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? ३३. एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहियकण्हलेस्ससतं । (श. ४०।३०) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श. ४०।३१) ३४ एवं नीललेस्सभवसिद्धीए वि सतं। (श. ४०।३२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श.४०।३३) ३५. एवं जहा ओहियाणि सण्णिपंचिदियाणं सत्त सताणि भणियाणि, एवं भवसिद्धीएहि वि सत्त सताणि कायवाणि, ३६. नवरं-सत्तसु वि सतेसु सव्वे पाणा जाव नो तिणठे समठे, सेसं तं चेव । (श. ४०।३४) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श. ४०।३५) ३६. णवरं सातूंई शतक विषे पिण, पूर्व उपनां सह प्राण ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ए, शेष तिमज सेवं भंते! जाण ।। इति सप्त भवसिद्धिक संपूर्ण। इति चालीसम शते चतुर्दश अंतर शतक अर्थ थकी संपूर्ण ॥४०॥११-१४॥ चत्वारिंशत्तमशते एकादशादि शतकार्थः । ३७. अभवसिद्धिक कडजुम्म-कडजुम्म जे, सन्नी पंचेंद्रिय भंत ! किहां थकी ऊपजै छै आवी ? गोयम प्रश्न सूतंत ।। ३८. ऊपजवो तिमहिज कहिवो छै, वर्जी अनुत्तरविमान । नवग्रोवेयक तांइ अभवसिद्धिक, तेहथी ऊपजै आन ।। ३७. अभवसिद्धीयकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया ___भंते ! कओ उववज्जति ? ३८. उववाओ तहेव अणुत्तरविमाणवज्जो। ४३४ भगबती जोड़ Jain Education Intemational Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. परिमाणं अवहारो उच्चत्तं बंधो वेदो वेदणं उदओ उदीरणा य जहा कण्हलेस्ससते । ४०. कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा। नो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी। ४१. नो नाणी, अण्णाणी, एवं जहा कण्हलेस्ससते, ४२. नवरं-नो विरया, अविरया, नो विरयाविरया । ४३. संचिट्ठणा ठिती य जहा ओहिउद्देसए । ४४. समुग्धाया आदिल्लगा पंच । उब्वट्टणा तहेव अणुत्तर विमाणवज्ज। ४५. सव्वे पाणा ? नो तिणठे समठे, सेसं जहा कण्ह लेस्ससते ४६. जाव अणंतखुत्तो। एवं सोलससु वि जुम्मेसु । (श. ४०।३६) ___ सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ४०।३७) ३९. परिमाण आहार नै ऊंचपणों बंध, वेद वेदना जाण । उदय उदीरणा जिम कृष्णलेशी, शतक विषे तिम आण ॥ ४०. कृष्णलेशी जाव शुक्ललेशी वा, सम्यकदृष्टि न होय । मिथ्यादष्टि अभव्य हवै छ, मिश्रदष्टि नहिं कोय ।। ४१. ज्ञानी नहीं में अज्ञानी है, एवं जिम अधिकार । कृष्णलेशी शत विषे का जे, कहिवं तिम सुविचार ।। ४२. णवरं इतरो विशेष अभव्य ते, विरतिवंत नहिं होय । निश्चै अविरती अभव्य हुवै छै, विरताविरति नहिं कोय ।। ४३. संचिटणा रहिवो फुन स्थिति, जिम ओधिक उद्देश । ओधिक आख्यो तिम कहिवं विधि सेती, जिन वच न्याय अशेष ।। ४४. समुदघात पंच आदि तणां है, उवट्टणा तिमहीज । पंच अनुत्तरविमान वर्जी ने, अवेयके उत्पत्ति हीज ।। ४५. सर्व प्राण प्रभु ! पूर्वे ऊपनां? अर्थ समर्थ न एह । शेष जेम कृष्णलेशी शतक विषे, आख्यो तिमज कहेह ।। ४६. जाव अनंती वार ऊपनों, इम सोले ही युग्म विषेह । सेवं भंते ! सेवं भंते ! प्रथम उद्देशो एह ।। इति चालीसम शत अभवसिद्धिक नों १५ मों अंतरशत तेहनों प्रथमोद्देशकार्थः ॥४०॥१५॥१॥ ४७. पढम समय अभवसिद्धिक कडजुम्म-कडजुम्म, सन्नी पंचेंद्रिय भंत! किहां थकी ऊपज छै आवी ? उत्तर तास कहंत ।। ४८. जिम सन्नी प्रथम समय में उद्देशे, आख्यो तिमज उदंत । णवरं एतलो विशेष कह्यो छै, सांभलजो धर खंत ॥ ४९. सम्यक्त्व मिश्रदृष्टि नै ज्ञान, फून सर्व ठिकाण नांही । शेष तिमज कहिवो सेवं भंते !, ए द्वितीय उद्देश कहाई रे ।। इति पनरमअंतरशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥४०॥१५॥२॥ ५०. इम इहां पिण ग्यार उद्देशा करिवा, प्रथम तृतीय पंचक गम एक । शेष आढूही एक सरीषा, गमा जाणवा उवेख ।। इति प्रथम अभवसिद्धिक महायुग्म शत संपूर्ण । इति पनरमों अंतर शतक संपूर्ण। चत्वारिंशत्तमशते पञ्चदश अन्तरशतकार्थः । ५१. कृष्णलेशी अभवसिद्धिक कडजुम्म-कडजुम्म, सन्नी पंचेंद्रिय भंत ! किहां थकी ऊपजै छै आवी ? इत्यादिक सुवतंत ।। ५२. जिम एहनेज ओधिक शतके का, कृष्णलेशी शतक पिण तेम । णवरं इतरो विशेष अछ ते, सांभलजो धर प्रेम ।। ५३. हे प्रभु ! कृष्णलेशी ते जीवा ? तब भाखै जिनराय । हां गोतम! ते कृष्णलेशी छ, हिवै स्थिति संचिट्रण आय ।। ४७. पढमसमयअभवसिद्धीयकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिं दिया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? ४८. जहा सण्णीणं पढमसमयउद्देसए तहेव, नवरं तहेव। ४९. सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं नाणं च सव्वत्थ नत्थि, सेसं (श. ४०।३८) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ४०।३९) ५०. एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा कायव्वा पढमतइय-पंचमा एक्कगमा, सेसा अट्ठ वि एक्कगमा। (श. ४०/४०) ५१. कण्हलेस्सअभवसिद्धीयकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचि दिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? ५२. जहा एएसि चेव ओहियसतं तहा कण्हलेस्ससयं पि, नवरं (श. ४०।४२) ५३. ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा? हंता कण्हलेस्सा । ठिती, संचिट्ठणा य श. ४०, ढा० ४९५ ४३५ Jain Education Intemational Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहेव ५४. जिम कृष्णलेशी शतक विषे कह्य तिम, .. ५४. जहा कण्हलेस्ससते, सेसं तं चेव। (श. ४०/४३) स्थिति संचिटणा तेम । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ४०।४४) शेष तिमज सेवं भंते ! स्वामी, सोलम अंतर शत एम ।। इति द्वितीय महायुग्म शतकार्थ संपूर्ण । इति चालीसम शते. सोलमो अंतर शतकार्थ । चत्वारिंशत्तमशते षोडश अन्तरशतकार्थः । ५५. इम षट लेश्या संघाते षट शत, करिवा विधि सं लेख । ५५. एवं छहि वि लेस्साहि छ सता कायव्वा जहा कण्हजिम कृष्णलेशी शत विषे कह्यो तिम, लेस्ससतं, नवरंणवरं इतरो विशेख ॥ ५६. संचिटणा में स्थिति दोनई, जिमज ओधिक शतकेह । ५६. संचिट्ठणा ठिती य जहेव ओहियसते तहेव भाणियव्वा, आख्यो तिमहिज कहिवो णवरं, इतरो विशेष कहेह ।। नवरं५७. शुक्लले श्या में विषे उत्कृष्टज, इकतीस सागर जाण । ५७. सुक्कलेस्साए उक्कोसेणं इक्कतीसं सागरोवमाई अंतर्महत अधिक कहीजै, न्याय सहित जिन वाण ।। अंतोमुहुत्तमब्भहियाई। बा०-उत्कृष्ट थकी इकतीस सागरोपम अंतर्मुहर्त अधिक नवमों अवेयक __वा० ---सुक्कलेस्साए उक्कोसेणं एक्कतीसं सागरोआश्रयी नै कह्य । जिहां देव नों एतलोज आउखो अन शुक्ललेश्या पिण हुवे । वमाइं अंतोमुत्तमभहियाई' ति यदुक्तं तदुपरितनअभव्य उत्कृष्ट थकी तिहांज ऊपज । देवपण अंतर्मुहर्त ते पूर्वभव अन्त्य जाणवो । प्रैवेयकमाश्रित्येति मन्तव्यं, तत्र हि देवानामेतावदे वायुः शुक्ललेश्या च भवति, अभव्याश्चोत्कर्षतस्तत्रैव देवतयोत्पद्यन्ते न तु परतोऽपि, अन्तर्मुहतं च पूर्वभवावसानसम्बन्धीति । (वृ प. ९७५) ५८. इमहिज स्थिति कहिवी पिण णवरं, ५८. ठिती एवं चेव, नवरं-अंतोमुहुत्तं नत्थि जहण्णगं, अंतर्महूर्त कहिवो नाय। इकतीस सागर नवम ग्रेवेयक, जघन्य स्थिति तिमज कहिवाय ।। ५९. सगलैई सम्यक्त्व ज्ञान नहीं है, ५९. सव्वत्थ सम्मत्त-नाणाणि नत्थि । विरई विरयाविरई विरति विरताविरती नाही। अणुत्तरविमाणोववत्ति-एयाणि नत्थि । अनुत्तरविमाणे ऊपजवो नहीं छै, अभवसिद्धिक ने त्यांही॥ ६०. सगलाई प्राणी पूर्वे ऊपनां ? अर्थ समर्थ न एह । ६०. सव्वे पाणा? नो तिणटठे समठे। (श. ४०।४५) सेवं भंते ! सेवं भंते !, तहत्ति सत्य वच जेह ।। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ४०।४६) ६१. इम ए सप्त अभवसिद्धिक शत, महायुग्म शतक होय । ६१. एवं एयाणि सत्त अभवसिद्धीयमहाजुम्मसताइं भवंति। ए इकवीस सन्नी महायुग्मज, शतक थया इम सोय ।। (श. ४०।४७) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ४०१४८) एवं एयाणि एक्कवीसं सण्णिमहाजुम्मसताणि। चत्वारिंशत्तमशते सप्तदशादि अन्तर शतकार्थः । ६२. सगलाइ इक्यासी महायुग्म शत, थया संपूर्ण सोय । ६२. सव्वाणि वि एकासीतिमहाजुम्मसताई। एह चालीसम शतक कह्यो छ, अर्थ थकी अवलोय ।। (श. ४०।४९) वा०-पैतीसमां शतक नै विषे एकेंद्रिय महायुग्म नां १२ अन्तर शतक । छतीसमां शतक नै विषे बेंद्रिय महायुग्म ना १२ अन्तर शतक-एवं २४ । संतीसमां शतक नै विषे तेंद्रिया नां १२ अन्तर शतक-एवं ३६ । अड़तीसमां शतक नै विषे चउरिद्रिय महायुग्म नां १२ अन्तर शतक-एवं ४८ । गुणचालीसमां शतक नै विषे असन्नी पंचेंद्रिय महायुग्म नां १२ अन्तर शतक-एवं ४३६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०। चालीसमा शतक नै विषे सन्नी पंचेंद्रिय महायुग्म नां २१ अन्तर शतकएवं ८१ । इम सर्व महायुग्म नां ८१ अन्तर शतक जाणवा । ६३. च्यार सय ने पिच्याणूमी ए आखी, महायुग्म शत ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराम प्रसादे, 'जय जश' मंगलमाल ॥ चालीसमों शतक अर्थ पकी संपूर्ण ॥४०॥ गीतक धन्य १. संज्ञी जु पंचेंद्रिय विषे महायुग्म वर्णन युक्त ही । इकवीस अन्तर शतक युत चालीसमों शत व्यक्त ही ॥ २. तसु जोड़ घर मन को अति सारल्य युत रचना करी । कविता रु बनिता सरलता संयुक्त ई सह मन हरी ॥ शि० ४०, हो० ४९५ ४३७ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचत्वारिंशत्तम शतक Jain Education Intemational Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचत्त्वारिंशत्तम शतक ढाल : ४९६ १. चालीसम शत आखियो, महायुग्म अधिकार । अथ शत इकतालीस में, राशीजुम्म उदार ।। राशियुग्म के प्रकार २. राशियुग्म प्रभ ! केतला? जिन कहै च्यार सूजोग । राशीजुम्मा दाखिया, कडजुम्म जाव कलियोग ।। ३. युगल वाचक छ जुम्म रव, पिण इहां नहीं छै एह । राशि 'रव करी विशेषिय, राशि रूप जुम्म एह ।। ४. राशि रूप छै युग्म ए. पिण द्वितीय रूप इहां नांहि । तिण कारण थी आखिया, राशीजुम्मा ताहि ।। वा०-युग्म शब्द युगल वाचक पिण छ । इह कारण थकी एह इहां राशि शब्दे करी विशेषिय । तिवारै राशि रूप युग्म, पिण द्वितीय रूप युग्म नहीं इति राशियुग्म । २. कति णं भंते ! रासीजुम्मा पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि रासीजुम्मा पण्णत्ता, तं जहाकडजुम्मे जाव कलियोगे। (श. ४११) वा०-'रासीजुम्म' त्ति युग्मशब्दो युगलवाचकोऽप्यस्त्यतोऽसाविह राशिशब्देन विशेष्यते ततो राशिरूपाणि युग्मानि न तु द्वितयरूपाणीति राशियुग्मानि, (व. प. ९७८) ५. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-चत्तारि रासीजुम्मा पण्णत्ता, तं जहा-कडजुम्मे जाव कलियोगे? ६. गोयमा ! जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए, सेत्तं रासीजुम्मकडजुम्मे । ७. एवं जाव जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं एगपज्जवसिए, सेत्तं रासीजुम्मकलियोगे। ५. किण अर्थे प्रभ ! आखिया, रासीजुम्मा च्यार। यावत कलियोगे लगे, आखो जी जगतार? *रासीयुग्म शतक जिन आखियो । (ध्रुपदं) ६. जिन कहै जेह राशि छै तेहन,. चिहुं अपहारे करि अवगम्मो जी। अपहरतां थकां च्यार छेहड़े हुवै, ते राशियुग्मकडजुम्मो जी।। ७. इम यावत जेह राशि छ तेहने, चिहुं अपहारे करि सुप्रयोगो जी। अपहरतां थकां एक छेहड़े हुवै, ते राशियुग्मकलियोगो जी ।। ८. ते तिण अर्थे करि हे गोयमा ! जाव कल्योज कहीज जी। नारकि आदि तणीं पूछा हिवै, वारू अर्थ लहीज जी ।। राशियुग्मकृतयुग्मज २४ दण्डकों में उपपात आदि की प्ररूपणा ९. राशियुग्मकृतयुग्मज नारकी, प्रभु ! किहां थकी उपजतो जी ? ऊपजवो जिम पन्नवण नै विषे, छठे पद व्युत्क्रतो जी। * लय : केकई रे कुकला केलवे ८. से तेणट्टेणं जाव कलियोगे। (श. ४१।२) ९. रासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति? उववाओ जहा वक्कंतीए । (प. ६७०-८०)। (श. ४१६३) श० ४१, उ० १, ढा० ४९६ ४४१ Jain Education Intemational Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. ते प्रभु! जीवा एक समय विषे, किता ऊपजे एहो जी ? जिन कहै चिहुं जठ द्वादश सोल वा संख असंख उपहो जी ।। ११. हे भगवंतजी ! ते प्रभु! जीवड़ा, अंतर - सहित उपजतो जी ? अथवा अंतर-रहितज ऊपजै, तेह निरन्तर हुंतो जी ? १२. श्री जिन भावे गोयम! ऊपर्ज, अंतर सहित पिण जेहो जी । तथा निरंतर पिण ते ऊपजै, ते अंतर-रहित कहेहो जी ।। १३. अंतर - सहितज ऊपजता थका, जघन्य थकी इम जोयो जी । एक समय नों अंतर जाणवो, पछे ऊपजै सोयो जी ॥ १४. वलि उत्कृष्टो जो अंतर हुवै, असंख समया जाणी जी । अंतर करिने उपने छे तिके, वारू जिनवर वाणी जी ।। १५. बलि निरंतर उपजतां थकां जघन्य थकी इम जोयो जो । दो समय लग उपजै छै तिके, पछै न ऊपजै कोयो जी ।। १६. उत्कृष्ट थकी जे असंच समय लगे अनुसमय अवलोयो जी। विरह-रहित निरंतर ऊपजे, त्रिण पद एकार्थ होयो जी ॥ 2 वा० - अनुसमय १. अविरहिय २. निरंतर ३. - ए तीनूं पद नूं एक अर्थ जाणवूं । १७. ते प्रभु! जीवा हे भगवंतजी, जेह समय कडजुम्मो जी । तेह समय में तेजगा हुवे ? बलि पूछे अवगम्मो जी ॥ १८. जेह समय मे तेओगा हुवै, ते समय कडजुम्मा होयो जी ? जिन कहै एह अर्थ समर्थ नहीं, न्याय विचारी जोयो जी ॥ १९. जेह समय में कडजुम्मा हुवे, ते समय दावरजुम्म होयो जी । जेह समय द्वापरजुम्मा हुवै, ते समय कडजुम्मा जोयो जी ? जिन कहै एह अर्थ समर्थ नहीं || जुम्मा हुवे ते समय कल्पोज कहायो जी। २०. जे समय में जे समय में कलिओगा हुवै, ते समय कडजुम्म थायो जी ? जिन है एह अर्थ समर्थ नहीं || २१. हे प्रभु! जीवा ते किम ऊपजै ? जिन कहै दे दृष्टंतो जी। प्लवक कूदणहारो जीव ते, प्लवमान कूदंतो जी ॥ २२. इम जिम उपपात शतक में आखियो, तिमहिज कहिवो तेहो जी । यावत पर प्रयोग करी जिको, नस्थि ऊपर्ज जेहो जी ॥ २३. ते प्रभु ! जीवा स्ं आत्म वशे करी, उपजे छे अवधारो जी ? तथा आत्मना अयश करी तिको, ऊपजं नरक मझारो जी ? ४४२ भगवती मोड़ जीवा एमसमएम केवइया १०. ते णं भंते ! उववज्जंति ? गोयमा ! चत्तारि वा अट्ठवा बारस वा सोलस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति । (म. ४१/४) ११. ते णं भंते ! जीवा किं संतरं उववज्जंति ? निरंतरं उववज्जंति ? १२. गोयमा ! संतरं पि उववज्जंति, निरंतरं पि उववज्जंति । १३. संतरं उववज्जमाणा जहणेणं एक्कं समयं, १४. उक्कोसेणं असंखेज्जे समए अंतरं कट्टु उववज्जति । १५ निरंतरं उववज्जमाणा जहणेणं दो समया, १६. नकोसे असंखेच्या समया अणुसमयं अविरहिय निरंतरं उववज्जति । (श. ४१०५) 'अणुसमय' मित्यादि पदत्रयमेकार्थम् (बृ. प. ९७८ ) " १७. ते णं भंते ! जीवा जं समयं कडजुम्मा तं समयं तेयोगा ? १८. जं समयं तेयोगा तं समयं कडजुम्मा ? नो तिणट्ठे समट्ठे । (श. ४१०६) १९. जं समयं कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा ? जं समयं दावरजुम्मा तं समयं कडजुम्मा ? नो तिणडे समट्ठे । (श. ४१/७ ) २०. जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलियोगा ? जं समयं कलियोगा तं समयं कडजुम्मा ? नो तिणट्ठे समट्ठे । (श. ४१/८ ) २१. ते णं भंते ! जीवा कहि उववज्जंति ? गोषमा से जहानागए पए पवमाणे, २२. एवं जहा उपासते (२१५) जाय नो परप्ययोगेणं उववज्जंति । (म. ४१०९) २३. ते णं भंते ! जीवा कि आयजसेणं उववज्जंति ? आयअजसेणं उववज्जंति ? Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २४. जश हेतू जश जाण, संजम तिण करि ऊपजै । तथा असंजम माण, अयश तणों हेतू तिको । वा०-आयजसेणंति-आत्मसंबंधि यश-जशहेतुपणां थकी। जश-संयम आत्मजश तेणे आत्मयशे करी। २५. *जिन कहै आत्मयश-संजम करी, नहिं ऊपजै छै जेहो जी । आत्मअयश-असंयम करि तिको, ऊपजै नरक विषेहो जी ।। २६. जो आत्मअयश करी ने ऊपज, तो स्यं निजजश करि उपजीव जी ? कै उपजीव रे आत्मअयश करी ? ए गोयम प्रश्न कहीवै जी ।। वा०—आत्म-यश ते आत्म-संजम प्रति उपजीव-आश्रय धारण कर के आत्म-अयश ते आत्म-असंयम प्रति उपजीव - आश्रय धारण करै ? वा०-'आयजसेणं' ति आत्मनः सम्बन्धि यशो यशो हेतुत्वाद्यशः-संयमः आत्मयशस्तेन, (व. प. ९७८) २५. गोयमा ! नो आयजसेणं उववज्जंति, आयअजसेणं उववज्जति । (श. ४१।१०) २६. जइ आयअजसेणं उववज्जंति-कि आयजसं उवजीवंति ? आयअजसं उवजीवंति ? २७. जिन कहै आत्मयश संजम प्रतै, ते उपजीव नांही जी। आत्मअयश-असंजम प्रति तिको, उपजीवै छै त्यांही जी ।। वा०-इहां सर्व नै हीज आत्मअयश तेहिज उत्पत्ति । ते उत्पत्ति नै विषे सर्व नै पिण अविरतपणां थकी। २८. जो उपजीवै आत्म-अयश करी, तो स्यं जीवा तेहो जी। सलेशी के अलेशी अछै? इम गोयम पूछेहो जी ।। २९. श्री जिन भाखै गोयम ! सांभले, सलेशी ते होयो जी। पिण अलेशी जेह हवै नहीं, ए जिन उत्तर जोयो जी ।। ३०. जो सलेशी हुवै ते जीवड़ा, तो स्यूं किरिया-सहीतो जी ? के क्रिया-रहित हुवे ते जीवड़ा? गोयम प्रश्न वदीतो जी ।। ३१. श्री जिन भाखै क्रिया-सहित ते, पिण क्रियारहित न होयो जी। एम सुणी नैं गोयम जाणता, वलि पूछ अवलोयो जी ।। ३२. जो क्रिया-सहित छ तो तिणहिज भवे, सीझै बूझै जेहो जी। यावत अंत करै सहु दुख तणों, अर्थ समर्थ न एहो जी ।। वा०—'आयजसं उवजीवंति' त्ति 'आत्मयशः' आत्मसंयमम् 'उपजीवन्ति' आश्रयन्ति विदधतीत्यर्थः, (वृ. प. ९७८,९७९) २७. गोयमा! नो आयजसं उवजीवंति, आयअजसं उवजीवंति । (श. ४१।११) वा०-इह च सर्वेषामेवात्मायशसैवोत्पत्तिः उत्पत्ती सर्वेषामप्यविरतत्वादिति । (व.प. ९७९) २८. जइ आयअजसं उवजीवंति -कि सलेस्सा ? अलेस्सा? २९. गोयमा ! सलेस्सा, नो अलेस्सा। (श. ४१।१२) ३०. जइ सलेस्सा कि सकिरिया ? अकिरिया ? ३१. गोयमा ! सकिरिया, नो अकिरिया । (श. ४१०१३) ३३. राशिजुम्मकडजुम्म असुर प्रभु ! किहां थकी उपजेहो जी? जिमज नारकी आख्या तिमज ए, निरवशेषपणें कहेहो जी ।। ३४. एवं जाव तिर्यंच-पंचेंद्रिया, णवरं वणस्सइकायो जी। जाव असंख अनंत वा ऊपज, शेष तिमज कहिवायो जी ।। ३२. जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति ? नो तिणठे समठे। (श. ४१।१४) ३३. रासीजुम्मकडजुम्मअसुरकुमारा णं भंते ! कओ उववज्जति ? जहेव नेरतिया तहेव निरवसेसं । ३४. एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिया, नवरं-वणस्सइ काइया जाव असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जति, सेसं एवं चेव। ३५. मणुस्सा वि एवं चेव जाव नो आयजसेणं उववज्जंति, आयअजसेणं उववज्जति। (श. ४१०१५) ३६. जइ आयअजसेणं उववज्जति--किं आयजसं उव जीवंति ? आयअजसं उवजीवंति ? ३५. मनुष्य तिके पिण इमहिज जाणवा, जाव इहां लग हंतो जी। आत्म-जशे करि नैं ऊपज नहीं, निज अजश करी उपजतो जी।। ३६. जो आत्म-अयश करी ते ऊपज, तो स्यूं आत्म-अयश प्रति तेहो जी। उपजीवै आश्रय धारण करै, कै उपजीवै निज अयशेहो जी ।। *लय केकई रे कुकला केलवै श. ४१, डा० ४९६ ४३ Jain Education Intemational cation International Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. गोयमा ! आयजसं पि उवजीवंति, आयअजसं पि उवजीवंति। (श. ४१०१६) ३८. जइ आयजसं उवजीवंति कि सल्लेसा? अलेस्सा ? गोयमा ! सलेस्सा वि अलेस्सा वि । (श. ४१।१७) ३९. जइ अलेस्सा कि सकिरिया ? अकिरिया ? ३७. जिन कहै आत्मयश प्रति पिण तिके, उपजीवै मन प्राणी जी। आत्मअयश प्रति पिण उपजीवता, अमल न्याय चित आणी जी ।। वा०-इहां मनुष्य आत्म-जश ते संजम प्रति पिण उपजीव ते आश्रय धारण करै । अन आत्म-अयश प्रति पिण उपजीव ते असंयम प्रति धारण करै । एतले मनुष्य संजम रूप आश्रय प्रति पिण धारण कर ते असंजम प्रति पिण अंगीकार करी रहै। ३८. जो आत्म-यश प्रति उपजीवै अछ, तो स्यं सलेशी होयो जी ? तथा अलेशी हवे ते मानवी? जिन कहै बिहं ही होयो जी ।। ३९. जो अलेशी हवे ते मानवी, तो स्यं किरिया-सहीतो जी। अथवा क्रिया-रहित हुवै तिके ? गोयम प्रश्न पुनीतो जी ।। ४०. जिन कहै क्रिया-सहित हुवै नहीं, क्रिया-रहित ते होई जी। चवदम गुणठाणे इरियावही, क्रिया न लागै कोई जी ।। ४१. किरिया-रहित हुवै जो ते मनु, तो तिणहीज भव सीझता जी। यावत अंत करे सहु दुख तणों? जिन कहै अंत करता जी ।। ४२. जो सलेशी हुवे ते मानवी, तो क्रिया-सहित के क्रिया-रहीतो जी ? जिन कहै क्रिया-रहित हुवै नहीं, हुवै छै क्रिया-सहीतो जी॥ ४३. क्रिया-सहित हवै जो ते मनु. तो तिणहिज भव सोझता जी । यावत अंत करै सहु दुख तणों ? गोयम प्रश्न पूछता जी ।। ४४. जिन कहै केइक सीझ तिण भवे. जाव कर अंत त्यांही जी। केइक तिण भव करि सीझे नहीं, जाव करै अंत नांही जी। ४०. गोयमा ! नो सकिरिया, अकिरिया। (श. ४१।१८) ४१. जइ अकिरिया तेणेव भवग्गहणणं सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति ? हंता सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति । (श.४१।१९) ४२. जइ सलेस्सा कि सकिरिया ? अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया, नो अकिरिया । (श. ४१।२०) ४३. जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति ? ४४. गोयमा ! अत्थेगइया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति, अत्थेगइया नो तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति । (श. ४१।२१) ४५. जइ आयअजसं उवजीवंति कि सलेस्सा ? अलेस्सा? गोयमा ! सलेस्सा, नो अलेस्सा। (श. ४११२२) ४६. जइ सलेस्सा कि सकिरिया ? अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया, नो अकिरिया। (श. ४११२३) ४५. जो आत्म-अजश प्रति उपजीव, तो स्यू सलेशी के अलेशी जी ? श्री जिन भाखै अलेशी नहीं, है छै तेह सलेशी जी ॥ ४६. जो सलेशी तो स्यूं क्रिया-सहित छै, के क्रियारहित कहायो जी? श्री जिन भाखै क्रिया-सहित लै, क्रिया-रहित न थायो जी ।। ४७. जो क्रिया-सहित तो सोझै तिणहिज भवे, जाव करै दुख अंतो जी? जिन कहै एह अर्थ समर्थ नहीं, विरति विना न सीझतो जी। ४८. व्यंतर ज्योतिषी ने वैमानिका, कहिवा नारकि जेमो जी। सेवं भंते ! शत इकताल में, प्रथम उद्देशक एमो जी ।। ॥इति ४१११ ॥ ४९. ढाल च्यार सय ऊपर जाणवी, छिन्नमी पहछाणो जी। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसाद थी, 'जय-जश' हरष कल्याणो जी॥ ४ भगवती जोड़ ४७. जइ सकिरिया तेणेव भगग्गहणेणं सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति ? नो इणठे समठे । ४८. वाणमंतर जोइसियवेमाणिया जहा नेरइया । (श. ४१०२४) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ४१।२५) Jain Education Intemational Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राशीयुग्म त्र्योज राशिवाले २४ दण्डकों में उपपात आदि की प्ररूपणा ढाल : ४९७ १. राशियुग्म ओग ते, कहां पकी जे अपने ? २. कहियो इमज उद्देशको त्रिण वा सत म्यारे पनर, या संख हा नारकि हे भगवंत इत्यादिक सुवृर्तत ॥ परिणामेह | णवरं उपजेह ॥ ३. इमहिज अंतर-सहित जे कहियो वलि गोयम श्री वीर नैं प्रश्न करे असंख ४. * ते जीव प्रभु ! जेह समय तेओगा, तेह समय कटजुम्मा कहेह ? जेह समय कडजुम्मा हुवै छै, तेह समय तेओगाह ? जिन कहै अर्थ समर्थ ए नांही ॥ ५. जेह समय में हुवै तेओगा, तेह समय दावरजुम्मा होय ? जेह समय हुने दायरजुम्मा तेह समय तेओगा जोय ? जिन कहै अर्थ समर्थ ए नांही ॥ ६. एवं कल्योज साथ पिण कहिवो, पूर्व जेम शेष तिमज भणवो सुविचार । जाय वैमाणिया लगे जाणवूं णवरं विशेष इतो अवधार राशियुग्म शत अर्थ अनोपम ॥ ७. उपपात सर्व विषे जिम आरूपो, पत्रवण छठे पदे को तेम । सेवं भंते ! शत एक चालीसम, जेह समय कटजुम्मा हुवे छे । धर प्रेम ॥ * लय आ अनुकम्मा जिन आज्ञा में द्वितीय उद्देश अर्थका एम ॥ ।। इति ४१।२ ।। राशियुग्म द्वापरयुग्म राशि वाले २४ दंडकों में उपपात आदि की प्ररूपणा ८. राशियुग्म - द्वापरयुग्म नेरइया, किहां थकी उपजै भगवान ? एवं चैव उद्देशक कहिवो णवरं विशेष इतो पहिचान || 3 ९. परिमाणं दोय तथा षट वा दश, अथवा संख्याता तथा असंख्यात । तिर्यंच मनुष्य थी आय ऊपजै, कहिवो संवेध विचारी बात ।। १०. ते प्रभु जीवा जे समय द्वापरजुम्म ते समय कडजुम्मा होय ? तेह समय दावरजुम्मा जोय ? जिन है अर्थ समर्थ ए नांही ॥ १. रासीजुम्म ओयनेरइया उववज्जंति ? णं भंते ! को २. एवं चेव उद्देसओ भाणियव्वो, नवरं - परिमाणं तिष्णि वा सत्त वा एक्कारस वा पन्नरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जति । ३. संतरं तव । (श. ४१।२६ ) ४. ते णं भंते! जीवा जं समयं तेयोगा तं समयं कडजुम्मा ? जं समयं कडजुम्मा तं समयं तेयोगा ? नो इषडे सम (श. ४१।२७ ) ५. जं समयं तेयोया तं समयं दावरजुम्मा ? जं समयं दावरजुम्मा तं समयं तेयोया ? नो इणट्ठे समट्ठे । ६. एवं कलियोगेण वि समं, सेसं तं चैव जाव वेमाणिया नवरं ७. उववाओ सव्वेसि जहा दक्कतीए ( प. ६।७०-९८ ) । (श. ४१।२८ ) (श. ४१/२९ ) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ८. रासीजुम्मदावर मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति ? एवं चेव उद्देसओ, नवरं - ९. परिमाणं दो वा छ वा दस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति, संवेहो । १०. ते णं भंते ! जीवा जं समयं दावरजुम्मा तं समयं कडजुम्मा ? जं समयं कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा ? णो इट्ठे समट्ठे । श० ४१, ढा० ४९७ ४४५ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. एवं तेयोग संघात ही कहिवो, इम कल्योज साथ पिण मंत । शेष कोजिम प्रथम उद्देशे, जाव वैमानिक सेवं भंत ! ॥इति ४१३॥ राशियुग्म कल्पोज राशि वाले २४ बंडकों में उपपात आदि की प्ररूपणा १२. राशियुग्म - कलियोग नारकी, किहां थकी उपजै भगवान ? एह उद्देश जाणवूं, णवरं विशेष इतो पहिछान || १३. परिमाण एक वा पंच तथा नव, तेर वा संख तथा असंख्यात । नारकी ने विषे आवी ऊपजे, संवेध कहियो विचारी सुवात ।। १४. ते प्रभु ! जीवा जे समय कलिओगा, तेह समय कडजुम्मा होय ? जेह समय कडजुम्मा हुवै छै, तेह समय कलिओगा जोय ? जिन कहै अर्थ समर्थ ए नांही ॥ १५. एवं योज संघाते पिण कहिवा, इम द्वापरजुम्मा संघाते पिण हंत । शेष कोजिम प्रथम उद्देगे, जाय विमाणिया सेयं भंत ! ।। इति ४१।४ ।। कृष्णलेश्यी आदि राशियुग्म कृतयुग्मज २४ दंडकों में उपपात आदि की प्ररूपणा १६. कृष्णलेशी राक्षिजुम्मकडजुम्म नारकी, , किहां थको उपजे भगवंत ? ऊपजवूं जिम धूमप्रभा में आयो तिम कहियूँ विरतंत ॥ १७. शेष विस्तारज प्रथम उद्देशे, असुर नें का तेम कहिवाय । एवं यावत वाणव्यंतर नैं, वारू जिन वच नां लही न्याय || १८. मनुष्य ने पिण कहिवो नारकि नीं पर, आत्म- अयश प्रति उपजीवेह | इम नह भणयो कृष्णलेशी तेह || सोरठा अलेशी अक्रिया तिण भव सी, १९. 'इहां मनुष्य अवदात, आत्म-असंजम उपजीवे आख्यात, आश्रय प्रति धारण २०. असंजम अविरति जाण, तेह तेह प्रते धारण धुर व्यारूं गुणठाण, देश अविरती २१. छठे अविरति नांय, हिंसादिक करि तिको । करें ॥ करें। पांचू पिण सर्वविरति सुखदाय, कृष्णलेश त्यां पिण २२. संजम उपजीवेह, इम न कह्यो किण कृष्णादिक लेशेह, अविरति रूप नहीं ४४६ भगवती जोड़ पंचमी ॥ तणीं । अछे || कारणे । तिहां ॥ ११. एवं तेयोएण वि समं, एवं कलियोगेण वि समं, सेसं जहा पढमुद्देस जाव वेमाणिया । (४१०३१) सेवं भंते ! सेवं भंते । ति (श. ४१०३२) भंते ! १२. रासीजुम्मकलिओगनेरइया णं उववज्जंति ? एवं चेव, नवरं-१३. परिमाणं एक्को वा पंच वा नव वा तेरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा उववज्जंति, संवेहो । (स. ४१३३) १४. ते णं भंते! जीवा जं समयं कलियोगा तं समयं कडजुम्मा ? जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलियोगा ? नो इणट्ठे समट्ठे । कओ १५. एवं योग व समं एवं दानरजुम्मेष विराम, सेसं जहा पढमुद्देसए जाव वेमाणिया ! सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ४१/३४) (श. ४१/३५ ) १६. कहलेसम्ममा भक उववज्जंति ? उववाओ जहा धूमप्पभाए, १७. सेस जहा पहए। असुरकुमाराणं तब एवं जाव वाणमंतराणं । १८. मणुस्साण वि जहेव नेरइयाणं आयअजसं उवजीवंति अलेस्सा, अकिरिया तेणेव भदव्य सिज्यंति एवं न भाणियव्वं, Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. कृष्ण नील कापोत, भावे लेश्या प्रमत्त में। अशुभ जोग ए होत, पिण नहिं अविरति रूप ए।। २४. तथा छठे कृष्णादि, ते तो संजम छै नथी। सर्वविरति संवादि, ते संजम छठे गुणे ॥ २५. धुर बे चारित्र मांहि, वलि कषायकुशील में । लेश्या षट कही ताहि, पणवीसम शत भगवती ।। २६. धुर त्रिहुं लेश्या मांहि, च्यार ज्ञान जिन दाखिया। सतरम पद में ताहि, ततिय उद्देशे पन्नवणा ॥ २५. (भगवती २५।५०२,३७६) २७. कृष्ण लेश नां ताहि, अध्यवसाय असंख है । मनपज्जव रै मांहि, मंद अध्यवसाय कह्या वृत्तौ ।। २६. कण्हलेस्से णं भंते ! जीवे कतिसु णाणेसु होज्जा? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होज्जा। (पण्णवणा १७।११२) २७. ननु मनःपर्यवज्ञानमतिविशुद्धस्योपजायते, कृष्णलेश्या संक्लिष्टाध्वसायरूपा ततः कथं कृष्णलेश्याकस्य मन:पर्यवज्ञानसंभव: ? उच्यते, इह लेश्यानां प्रत्येकासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि, तत्र कानिचित् मन्दानुभावान्यध्यवसायस्थानानि प्रमत्तसंयतस्यापि लभ्यन्ते । (पण्णवणा व. प. ३५७) २९. (भगवती १।३४) ३०. (भगवती १।३४) ३१. (भगवती १६।२३,२४) ३२. (उत्तरज्झयणाणि २२१३७,३८) (भगवती १५।१४८) (भगवती ३३१८६-२४२) ३३. (भगवती ५।८०) (णाया. १।१६।२६) ३४. (निसीहज्झयणं १५।६५) २८. इण कारण अवलोय, भाव लेश ए जाणवी । क्रिया आरंभी सोय, छठे गुणठाणे वलि ॥ २९. आत्मारंभी जोय, वलि पर-आरंभी कह्या । उभयारंभी सोय, असुभ जोग नै आश्रयी । ३०. ए छठे गुणठाण, धुर शत प्रथम उद्देशके। ते मा पहिछाण, भावे माठी लेश ए। ३१. आहारक तनु निपजाय, प्रमाद आश्रयी अधिकरण । सोलम शतके वाय, प्रथम उद्देशे जिन कह्यो । ३२. अशुभ वचन रहनेम, बोल्यो राजमती भणी। ' सीहो रोयो तेम, वलि मुनि वैक्रिय रूप करि ।। ३३. अयमुत्ते जल मांहि, प्रत्यक्ष तिराई पातरी। नागसिरी नैं ताहि, धर्मघोष नां मुनि निदी ।। ३४. प्रभु ! छद्मस्थपणेह, शीतल तेजू फोड़वी । नशीत सूत्र विषह, हस्तकर्मादिक कार्य बहु ।। ३५. इत्यादिक अवलोय, आज्ञा विण कार्य अशुभ । अशुभ जोग ए जोय, लेश्या पिण ए अशुभ है। ३६. तिणसू प्रमत्त विषेह, अशुभ ध्यान लेश्या असुभ । असुभ जोग आवेह, प्रायश्चित छै तेहनों। वा०-इहां सूत्रे कृष्णलेशी मनुष्य आत्म-अयश ते असंजम प्रति उपजीव कहिता आश्रय धारण कर इम का । अशुभ जोग, अशुभ ध्यान, अशुभ लेश्या छठे गूणठाणे आवै ते तो दोष छै । ते अशुभ लेश्या संयम नहीं ते माट माठी लेश्या संजम धारण न करै । अथवा जिम अप्रमत्त नै मनपर्यवज्ञान उपजै, पछै प्रमत्त हव तो तेहनै विषे पिण मनपर्यवज्ञान पावै। तिम संजम लेती वेला भली लेश्या ईज हुवै पिण कृष्णादिक माठी लेश्या न हुवै । ते भणी कृष्णादिक माठी लेश्या वरत ते वेला संजम प्रति धारण न करै, अंगीकार न करें। अनै संजम आदरियां पछै कृष्णादिक माठी लेश्या आवै तेहनों दंड छ । इण न्याय कृष्णलेशी श० ४१, ढा० ४९७ ४४७ Jain Education Intemational Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ते मनुष्य संजम प्रति अंगीकार न करें, कृष्णलेश्या व ते वेलां पर छोड़ दीक्षा न लेवे दीक्षा लेवे तिण वेलां तो सातमो गुणठाणो सात गुणठाणे कृष्णादिक तीन माठी लेश्या नथी । तिण वेला तो शुभ जोग, शुभ ध्यान, शुभ लेश्या ईज हुवं । अने दीक्षा लियां पर्छ छठा गुणठाणा नीं स्थिति देश ऊणी कोड़ पूर्व री छ । तिण में अशुभ जोग, अशुभ लेश्या अनेक वार आवै छ, तेहनों दंड छे' (ज.स.) ३७. शेष को जिम प्रथम उद्देगे तिमहिज कहियो सेवं भत ! एक पालीसम शतक अर्थ थी, पंचमुद्देशक में विरतंत ॥ ।। इति ४१।५ ।। ३५. कृष्णलेशी तेयोगा संघाते पिण, इमहिज उद्देशक अवलोय । सेवं भंते ! सेवं भंते ! षष्ठमुद्देशक अर्थ सुजोय ॥ ।। इति ४१।६।। ३९. कृष्णलेशी द्वापरयुग्म साथ पिण, इमहिज उद्देशक कहिवाय । सेवं भंते ! सेवं भंते सप्तमुद्देशक अर्थ सोभाय ॥ ॥ इति ४१।७ ॥ ४०. कृष्णलेसी कलियोग साथ पिण, इमहिज उद्देशक सुवृतंत । परिमाण संवेध जिम अधिक उद्देशे, आयो तिम कहियो सेवं भंत ! ४१. जिम कृष्णलेशी साथे च्यार उद्देशा, निरवशेष उद्देशक ४२. नारकी नों उपपात जेम ए, वालुकप्रभा विषे कहिवाय । शेष तिमज सेवं भंते ! स्वामी, द्वादश एह उद्देशक आय || ।। इति ४१।६-१२ ।। इम नील लेश संघात पिण च्यार । भगवा, गवरं विशेष इतो अवधार ॥ इति ४११८ ॥ ४३. इम प्यार उद्देश कापोत साथ पिण, जिम रत्नप्रभा ने विषे का ंतिम छै, शेष तिमज सेवं भंते! विख्यात ॥ ।। इति ४२।१३-१६॥ ४४. तेजुलेश राशियुग्म कडयुग्मज असुरकुमारा हे भगवंत ! किहां की ऊपजे छे आवी ? इत्यादि इमहिज कहियो उदंत ४५. वरं जेहनें विषे तेजुलेश्या छ, तेहने विषे कहिवूं धर खंत । इम ए पिण कृष्णलेश सरीखा, करिवा णवरं नारकि उपपात । प्यार उद्देशा करिया सेवं भंत ! ।। इति ४१।१७-२० ।। ४६. इम पद्म लेश्या संघाते पिण करिवा, ४४८ भगवती जोड़ पिण तीन दंडक विषे पद्म लेश्या छे, प्रवर उद्देशा च्यार उदार । ते किसा- किसा दंडक अवधार ।। ३७. सेसं जहा पढमुद्देसए । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । ३८. कण्हलेस्सतेयोएहि वि एवं चेव उद्देसओ । (श. ४१/३६ ) (श. ४१।३७ ) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । ३९. कण्हले सदावरजुम्मेहिं एवं चेव उद्देसओ । ४४. उसी (श. ४१/३८ ) (श. ४१ ३९ ) ४०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । ओएहि वि एवं नेत्र उद्देस परिमाणं संवेहो य जहा ओहिएसु उद्देसएसु । (श. ४१ । ४२ ) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ४१०४३) ४१. जहा कण्हलेस्सेहि एवं नीललेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा भाणियव्वा निरवसेसा, नवरं ४२. नेरइयाणं उववाओ जहा वालुयप्पभाए, सेसं तं चैव । (श. ४१/४४ ) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ४१०४५) ४३. काउलेसेहिवि एवं चैव चत्तारि उसमा कायच्या, नवरं - नेरइयाणं उववाओ जहा रयणप्पभाए, सेसं तं चैव । (. ४१/४६) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ४१/४७ ) (श. ४१/४०) (म. ४१०४१) कओ उववज्जंति ? एवं चेव, कम्मरकुमारा गंभ ४५. नवरं - जेसु तेउलेस्सा अत्थि तेसु भाणियव्वा । एवं एए वि कण्हलेस्सासरिसा चत्तारि उद्देसगा कायव्वा । (श. ४१/४८ ) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ४१०४९) ४६. एवं पम्हलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. पंचेंद्रिय तिर्यंच मनुष्य वैमानिक, एह विषे पद्म लेश्या कहाय । शेष दंडक पद्म लेश्या नहीं छै, सेवं भंते । सेवं भते । ताय ॥ ।। इति ४१।२१-२४ ॥ ४८. जिम पच लेश्या नो कला प्यार उद्देशा, इम शुक्ल न करवा उद्देशा च्यार । वरं मनुष्य नों गमो जिम अधिक उद्देशे, शेष तिमज कहिं अवधार ।। ४९. इमलेश्या विधे चउवीस उद्देशा अने अधिक उद्देशा प्यार। सर्व अठावीस हुवै उद्देशा, सेवं भंते ! सेवं भंते ! सार ।। ।। इति ४१।२५ २८ ॥ हिवै भवसिद्धिक २८ उद्देशा कहै छै - भवसिद्धिकराशियुग्म - कृतयुग्मज २४ दंडकों में ५०. भवसिद्धिकराशियुग्म - कडजुम्म नारकि, किहां थकी ऊपजे भगवान ? जिम अधिक पहिला च्यार उद्देशा, आख्या छै पूर्व जे जान ॥ ५१. तिमज विशेष रहितपणे सहु, कहिवा एह उद्देशा च्यार । सेवं भंते ! सेवं भंते ! इम कहि गोतम करै अंगीकार ।। ।। इति ४१ । २६-३२ ॥ ५२. कृष्णलेशी भवसिद्धिक राशिजुम्म जुम्म नारकि हे भगवंत ! किहां थकी ऊपजै छे आवी ? इत्यादिक गोयम प्रश्न सुतंत ॥ ५३. जिम कृष्णलेशी विषे हुवे प्यार उद्देशा, तिम ए पि कृष्णलेगी भवसिद्धिक संपात । पार उद्देशा करिया विधि सूं, श्री जिन वचन विमल अवदात || ।। इति ४१।३३-३६ ॥ ५४. इस नीललेशी भवसिद्धिक संघाते, करिवा च्यार उद्देशा सोय । इम कापोतलेशी भवसिद्धिक संघात ही, प्यार उद्देशा करिया जोय || ।। इति ४१३७-४४ ।। ५५. तेजुलेशी भवसिद्धिक संघात ही, प्यार उद्देशा अधिक सरीस । श्री जिन वयण सुविश्वावीस || ।। इति ४१।४५-५२ ॥ पद्मलेशी संघात हि च्यार उद्देशा, ४७. पंचिदियतिरिक्खजोणियाण मनुस्साण वेमाणियाण य एएसि पम्हलेस्सा, सेसाणं नत्थि । (श. ४१०५०) (. ४१५१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ४८. जहा पहलेस्साए एवं गुक्कलेस्साए वि बतारि उद्देसगा कायब्वा, नवरं मणुस्साणं गमओ जहा ओहिउस से तं चैव । ४९. एवं एए चारि सबै , स्सासु चडवीस उसगा, जोहिया अट्टानी उसमा भवति । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति । (श. ४१।५२ ) (. ४१०५३) ५०. भवसिद्धियरासीजुम्मक उजुम्मनेरइया ரர் भंते ! कओ उववज्जंति ? जहा ओहिया पढमगा चत्तारि उद्देगा ५१. तहेव निरवसेसं एए चत्तारि उद्देगा । (४१०४४) (श. ४१/५५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ५२. कण्हलेसभवसिद्धिपरासी जुम्मकडजुम्मनेर या णं भंते ! कओ उववज्जंति ? ५३. जहा कण्हलेस्साए चत्तारि उद्देगा भवंति तहा इमे वि भवसिद्धिहस्सेहि विनतारि उद्देगा (श. ४१।५६ ) कायव्वा । ५४. एवं नीललेस्सभवसिद्धिएहि वि चत्तारि उद्देगा (श. ४१।५७ ) एवं काउलेस्सेहि विचत्तारि उद्देगा । कायव्वा । (श. ४१/५८ ) ५५. सेउलेखेहि चित्तारि उमा ओसिरिसा पहलेसेहि विपतरि उगा (श. ४१।५९ ) (श. ४१०६०) श० ४१, ढा० ४९७ ४४९ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. शुक्ल लेश्या संघाते पिण च्यारज, अधिक सरीषा उद्देशा हुंत । इमपि भवसिद्धिक संघाते, अष्टवीस उद्देशा सेवं भंत ! ।। इति ४१।५३-५६ ॥ हि अभवसिद्धिक नां २८ उद्देशा कहे - अभवसिद्धिक राशियुग्म कृतयुग्मज २४ दंडकों में ५७. अभवसिद्धिक रासीजुम्मकडजुम्म नारकि किहां थकी ऊपजं भगवंत ? कहिवो, वरं विशेष इतो इहां हुंत ॥ जेम प्रथम उद्देशो कह्यो तिम ५८. मनुष्य ने नारकि सरीवा जाणवा शेष तिमज सेवं भंते ! स्वाम । इम ए च्यारूं ही युग्म विषे जे, च्यार उद्देशक कहिवा आम || ।। इति ४१।५७-६० ॥ ५९. कृष्णशो अभवसिद्धिकराशियुग्म कडजुम्म नारकि हे भगवंत ! किहां थकी ऊपजै छै इत्यादिक ? इमहिज च्यार उद्देशा हुंत ।। ।। इति ४१।६१-६४ ।। ६०. इम नीललेशी अभवसिद्धिक साथ पिण, च्या उद्देशा कहिवा विचार । एवं कापोत लेश्या संघाते पिण, प्यार उद्देशा ते अवधार ॥ ।। इति ४१।६५-७२ ॥ ६१. एवं तेजुलेश्या ने संघाते पिण, प्यार उद्देशा करिया चारू । एवं पद्म लेश्या संघाते पिण, करिवा च्यार उद्देशा वारू || ।। इति ४१।७३-६० ।। ६२. शुक्ललेशी अभवसिद्धिक संघाते, इम च्यार उद्देशा कहिवा जगीस । पुर प्यार उद्देशा तो अभव अधिक नां पट लेखा नां चिहुं चिहुं इम अठवीस ६३. ए अटवीसूं हो अभवसिद्धिकन, उद्देशक ने विषेज कहेसा । मनुष्य नारकी ने गये करि सेवं भवे! इम ए पिण अटयोस उद्देशा || ।। इति ४१६१८४ ॥ ६४. च्यार सौ नै सत्ताणूमी ढाल कही ए, ४५० भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, भगवती जोड़ ओधिक ने भव अभव उद्देश | 'जय जय' संपति हरप विशेष || ५६. सुक्कलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा ओहियसरिसा । एवं एए नि भवसिद्धिएहि वि अट्ठावीस उद्देगा भवंति । (श. ४१/६१ ) (श. ४१/६२ ) सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति । ५७. अभवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? जहा पढमो उद्देसगो, नवरं 1 ५६. मणुस्सा नेरया य सरिसा भाणियव्या से तहेब । (श. ४१/६३ ) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा । (श. ४१/६५) ५९. कहलेसमभवसिद्धिपरासी जुम्मकडजुम्मनेरवा भंते ! कओ उववज्जंति ? एवं चेव चत्तारि उद्देगा। (. ४१.६६) ६०. एवं नवसिद्धिपरासी जुम्मकडम्मरयागं मसारि उद्देशना । (प्र. ४१/६७) काउलेस्सेहि विचार मा (श. ४१/६८ ) ६१. तेउलेस्सेहि विचत्तारि उद्देगा । पहले विसारि उद्देगा। ( न. ४१०६४) (स. ४१६९) (म. ४१०७०) ६२. सुक्कले सअभवसिद्धिएहि वि चत्तारि उद्देसगा । ६३. एवं एएसु अट्ठावीसाए वि अभवसिद्धिय उद्देसएसु मणुस्सा नेरइयगमेणं नेयव्वा । (श. ४१७१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (. ४११०२) Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ४९८ दूहा १. अठवीस उद्देश ओधिक तणां, भवसिद्धिक अठवीस । अठावीस अभव्य तणां, कह्या चोरासी जगीस ।। २. हिव समदृष्टी आदि नां, अष्टवीस अठवीस । कहियै छै उद्देसगा, आख्या जे जगदीश ।। सम्यक्दृष्टि राशियुग्मकृतयुग्मज २४ दंडकों में *राशियुग्म शत श्री जिन भाख्यो ।। [ध्रुपदं] ३. सम्यकदृष्टि राशिजुम्म-कडजुम्म प्रभु ! नेरइया जेह कहेसो। किहां थकी ऊपजै छै आवो, आख्यो इम जिम प्रथम उद्देशो ।। ४. इम च्यारूं ही युग्म विषे जे, च्यार उद्देशा तंतो। भवसिद्धिक ने सरिषा करिवा, सेवं भंते ! सेवं भंतो! ।। ३. सम्मदिट्ठीरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ?एवं जहा पढमो उद्देसओ। ४. एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा भवसिद्धियसरिसा कायव्वा । (श. ४१।७३) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ४११७४) ५. कण्हलेस्ससम्मदिट्ठीरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? ६. एए वि कण्हलेस्ससरिसा चत्तारि बि उद्देसगा कायव्वा। ७. एवं सम्मदिट्ठीसु वि भवसिद्धियसरिसा अट्टावीसं उद्देसगा कायव्वा। (श ४११७५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। (श. ४१७६) ५. कृष्णलेशी समदृष्टि राशिजुम्म-कडजुम्म नारकि भंतो! किहां थकी ऊपजै छै आवी ? इत्यादिक सुवृतंतो ।। ६. ए पिण कृष्णलेशी नै सरीषा, च्यार उद्देशा करिवा । समदृष्टी नां आठ उद्देशा, इण रीते उच्चरिवा ।। ७. इम समदृष्टि विषे पिण भवसिद्धि सरीषा. करिवा अठवीस उद्देश। सेवं भंते ! सेवं भंते! यावत विचरै गणेशं । ॥ इति ४११८५-११२॥ हिवै मिथ्यादृष्टि नां २८ उद्देशा कहै छै मिथ्यादृष्टि राशियुग्मकृतयुग्मज २४ दंडकों में ८. मिथ्यादष्टि राशिजुम्म-कडजम्म, नेरइया हे भगवंतो! किहां थकी ऊपजै छै आवी ? इम इहां पिण सुवतंतो ।। ९. मिथ्यादृष्टि अभिलापे करि, अभव्यसिद्धिक सरीषं । अठावीस उद्देशा करिवा, सेवं भंते ! जगदीशं ।। ॥२८, एवं सर्व १४०॥ ॥ इति ४११११३-१४० ॥ हिवै कृष्णपाक्षिक नां २८ उद्देशा कहै छै कृष्णपाक्षिक राशियुग्मकृतयुग्मज २४ दंडकों में १०. कृष्णपाक्षिक राशिजुम्म-कडजम्म, नेरइया हे भगवंतो! किहां थकी ऊपजै छै आवी ? इत्यादिक सुवतंतो ।। ८. मिच्छादिट्ठीरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं एत्थ वि ९. मिच्छादिट्ठीअभिलावेणं अभवसिद्धियसरिसा अट्ठावीस उद्देसगा कायव्वा । (श. ४१७७) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. ४१७८) १०. कण्हपक्खियरासीजुम्मकडजुम्मनेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति? *लय : पर नारी नों संग न कीज श० ४१, ढा० ४९८ ४५१ dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. इम अभवसिद्धिक ने सरीषा, करिवा उद्देशा अठवीसं । सेवं भंते! सेवं भंते ! जिन वच परम जगीसं ।। ॥ २८ एवं सर्व १६८ ॥ ।। इति ४१।१४१-१६८।। हिव शुक्लपाक्षिक नां २८ उद्देशा कहै छै - १२. शुक्लपाक्षिक राशिजुम्मकडजुम्म, नेरइया हे भगवंत ! किहां थकी ऊपजे छे आवी ? छै आवी ? इम इहां पिण हुंत ॥ १३. भवसिद्धिक ने सरीषा हूँ ए, अठावीस सर्व एकसौ छिन्नंं उद्देशा है, इम राशियुग्म ॥२८ एवं सर्व १६ उद्देशा ।। ।। इति ४१-१६६-१६६ ॥ हिदेहला उद्देशा नो हलो बोल कहै - १४. जाव शुक्ललेशी शुक्लपाक्षिक, यावत जो किया सहित हवं ते, ता तिण भव सी १५. यावत अन्त करें सह दुक्ख नों, तिणहिज भव जिन कहे अर्थ समर्थ ए नाहीं, सेवं भंते! १६. ढाल च्यारसौ अष्टने कमी प्रश्नोत्तर सुखदायो । भिक्षु भारीमाल ऋषिराम प्रसादे 'जय जय' हरष सवायो । " राशिजुम्म कलियोग वैमानीको | दुहा १. ए जिन वन उत्तर गुणी, श्री विनय सहित श्री वीर नों, वचन अहंताणी को अपूर्वता *लय धन-धन भिक्खु स्वाम ४५२ भगवती जोड उद्देशा एहो । शतकेहो || ढाल : ४९९ तहतीको ।। में भदंतो ! सेवं भंतो || *ए तो जयकारी जिनचंद्र, जास उत्तम करणी || ( ध्रुपदं ) २. भगवंत गोतम ताम, श्रमण भगवंत भणी । महावीर प्रति आम, तास जग कोति घणी । कीति पणी जी हिं तीर्थ धणी, तसु तीन बार प्रदक्षिण धुणी । गोयम गणधार । करें अंगीकार ॥ ११. एवं एत्य व अभवसिद्धियसरिसा अट्ठावीस उद्देगा (. ४१७९) (श. ४१/८० ) कायव्वा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । १२. सुक्कपक्खियरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जयि ? एवं एत्थ वि । १२. सिरसा अट्ठावीस उद्देगा भवंति भवसिद्धियसरिसा । एवं एए सव्वे वि छन्नउयं उद्देसगसयं भवति रासीजुम्मस १४. जाव सुक्कलेसमुक्पविरासम्म कलियोग वेमाणिया जाव - जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिज्यंति। (श. ४१/८१) १२. अंत करेंति ? मो इटुडे समडे । (रु. ४११०२) (. ४११८३) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । २. भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. दक्षिण पासा थीज, प्रदक्षिण त्रिण गोयम हरण धरीज, करें होय हुसियारं जी अति सुखकारं वंदं वच स्तुति ए तो जयकारी जिनचंद्र, पंच शिव ४. नमस्कार शिर नाम, वदे इहविध इहिज हे जिन स्वाम ! तिमज मुझ वच वच जानी जी मुझ मन मानी, ए तो जयकारी जिनचंद्र, ५. एह संदेह रहीत, वांछी घर प्रीत हैं सत्य वाणी तुम्हारी गुणखाणी ॥ प्रभू पूरणज्ञानी ॥ जिनजी जाचा जी, वच सहु साचा, बार । हसियारं ॥ करि सारं । नेतारं ॥ प्रभूजी ! तुझ अहो जिनजी ! ६. इच्छित प्रतिच्छित छेह, अर्थ कहो तुम्ह एह, साचा सब ही जी, इम गोयम कही, वलि विशेष करि वांछ्या आछा । ए तो जयकारी जिनचद्र, सुधामृत तुझ वाचा ।। अहो भगवंत ! वही । तेह साचा सब ही । वानी । जानी । ७. श्रमण प्रवर भगवंत, वीर प्रति चित वच स्तुति वदंत, वली शिर नैं शिर नैं नामी जी, आनंद पामी, अपूर्व वचनवंता जिनही । ए तो जयकारी जिनचंद्र, अरिहंत भगवंत सही || धामी । नामी । वाचा । जाचा । इम विनय करी गोयम स्वामी । ए तो जयकारी जिनचंद्र तणां शिष्य शिवगामी || ८. संजम तप करि सार, आत्म प्रतिभावंता । श्री गोयम गणधार, इसी विधि विचरंता । विचरता जी कांइ धर खंता, परलोक तणीं अधिक चिता। ए तो जयकारी जिनचंद्र तणां शिष्य जयवंता ।। ९ शत राशिजुम्म श्रिष्ठ, समाप्त थयो भारी । च्यार सय नव-नेऊमी हितकारी जी भिक्षू भारी, भारीमाल राय ए तो जयकारी गणिराज 'सुजय जश' गीतक एंव ढाल हितकारी। गणि नेतारी । वृद्धिकारी ॥ कृपया २. गुरु भिक्षु भारीमाल अरु ऋषिराम गुरु अनुग्रहे गुणज्ञान गौरव पामिये शिष्य १. शत एकचत्वारिशमा में राशियुग्म तसु भाव भेद विवेद कीधो सुगमरीत्योद्वर्णनं ॥ विवर्णनं । संमुदा । सर्वदा || २. तो याहि पाहि करे करेला बंदसि ४. नमसति, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी- एवमय भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! ५. असंदिद्धमेयं भते ! इच्छ्रियमेयं भंते ! पडिच्छ्रियमेयं भंते ! ६. इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते ! सच्चे णं एसमट्ठे, जेणं तुब्भे वदह त्ति कट्ट् अपुब्ववयणा खलु अरहंता भगवंतो, ७. समणं भगवं महावीरं बंदति नम॑सति, वंदित्ता नमंसित्ता ८. संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । (श. ४१/८४ ) श० ४१, हा० ४९९ ४५३ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ५०० भगवती सूत्र का स्वरूप दूहा १. सव्वाए भगवईए अद्वतीसं सतं सयाणं (१३८) १. सुण्या मावती में भला, सर्व शतक सुविचार । इकसी में अडतीस जे, अर्थ उदग्ग उदार' ।। २. प्रथम बतीसज शतक में, अंतर शतक न कोय । ते माटे इक-एक हिज, शतक तिके अवलोय ।। ३. तेतीसम थी सात शत, तेह विषे अवलोय । बार-बारै अंतर शतक, ए चोरासी होय ।। ४. फुन चालीसम शतक में, अंतर शत इकवीस । इकतालीसम एकहिज, सह इकसौ अड़तीस ।। ५. इकसौ अड़ती शतक नां, सर्व उद्देशा देख । उगणीसौ पणवीस जे, कहिवा सिद्धत देख ।। ६. हिवै भगवती सूत्र नों, कहियै छै परिमाण । श्रोता चित दै सांभलो, वर वचनामृत जाण ।। * सुगुण जन सुणिय जी, कै स्थिर चित शुणिय जी। हो जी म्हारा जयवंता जिनराज तणां वच वारू जी। चमत्कृत चारू जी ।। (ध्रुपदं) ७. लक्ष चोरासी पद भला कांइ, पद नों मान पिछाण । विशिष्ट संप्रदाई करो काइ, परंपरा करि जाण ।। ८. प्रवर प्रधानज ज्ञान छै कांई, तिणे करीने जेह। देखे छै जे केवली, पद तिणे परूप्या एह ।। २. आद्यानि द्वात्रिंशच्छतान्यविद्यमानावान्तरशतानि ३२। (वृ. प. ९७९) ३. त्रयस्त्रिशादिषु तु सप्तसु प्रत्येकमवान्तरशतानि द्वादश ८४ । (वृ. प. ९७९) ४. चत्वारिशे त्वेकविंशतिः २१, एकचत्वारिंशे तु नास्त्य वान्तरशतम् १, एतेषां च सर्वेषां मीलनेऽष्टत्रिंशदधिकं शतानां शतं भवति । (वृ. प. ९७९) ५. उद्देसगाण एगुणविंशतिसताणी पंचविसइअहियाणी (१९२५)। ६. अथ भगवत्या व्याख्याप्रज्ञप्त्या: परिमाणा भिधित्सया गाथामाह (वृ. प. ९७९) ९. सूत्र स्वरूपज दाखियो, हिव कहिय अर्थ स्वरूप । भाव अभाव अनंत ही कांइ, आख्या अधिक अनूप ।। ७,८. चुलसीइ सयसहस्सा, पदाण पवरबरनाणदंसीहि । 'चुलसी' त्यादि, चतुरशीतिः शतसहस्राणि पदानामत्राङ्ग इति सम्बन्धः, पदानि च विशिष्टसम्प्रदायगम्यानि, प्रवराणां वरं यज्ज्ञानं तेन पश्यन्तीत्येवंशीला ये हे प्रवरज्ञानदर्शिनस्त: देवलि भिरित्यर्थः प्रज्ञप्तानीति योगः, (वृ. प. ९७९) ९. इदमस्य सूत्रस्य स्वरूपमुक्तमथार्थस्वरूपमाह (वृ. प. ९७९) भावाभावमणता, पण्णत्ता एत्थमंगम्मि ।।१।। १०. 'भावाभावमणंत' त्ति 'भावा-जीवादय: पदार्थाः अभावाश्च'-त एवान्यापेक्षया भावाभावाः, (वृ. प. ९७९) ११. अथवा भावा-विधयोऽभावा--निषेधाः (वृ. प. ९७९) १२. अथवा भावाभाविषयभूतैरनन्तानि भावाभावानन्तानि (वृ. प. ९७९) १०. जीवादिक नव जाणवा कांइ, जेह पदार्थ भाव । तेहिज अन्य अपेक्षया कांइ, अभाव तास कहाय ।। ११. अथवा करिवो कार्य नों कांइ, कहियै तेहनों भाव । कार्य जेह निषेधवो कांइ, अभाव तेह कहाव ।। १२. अथवा भावाभाव जे काइ, विषयभूत पहिछाण । तिणे करीने जाणवा कांइ, जे अनंत परिमाण ।। १. भगवती जोड़ की ढाल ५०० एवं ५०१ के सामने जो पाठ उद्धृत किया है, वह भगवती का मूल अंश नहीं है। परिशिष्ट के रूप में है इसलिए इसमें सूत्र संख्या का क्रम नहीं है। यह पाठ अंगसुत्ताणि भाग २ पृष्ठ १०४५,१०४८ पर उपलब्ध है। *लय : पायल वाली पवमणी ४५४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. चउरासी शत सहस्र पद कांड, तास परूप्या ए प्रत्यक्ष पंचम अंग विषे कांइ, वारू गुण नां १४. अंग ते प्रवचन रूप जे कांइ, परम पुरुष नां अवयव छै तेहविषे कांइ, पद चोरासी १५. प्रवचन रूपज जाणवो कांइ, परम तेनां अवयय अंग विषे कांड पद आगमपुरुष दिट्टिवाओ वियाग अणुत्तरोववाइयदसाओ srafs सियाओ उवासंगदाओ सूरपण्णत्ती विपण्णत्ती ठाण जीवाजीवाभिगमे आयारो ओवाइयं ताम । धाम ॥ दक्ष । लक्ष ।। प्रत्यक्ष । पुरुष चोरासी लक्ष ॥ दिसाव पुष्पबूलियाओ पण्हावागरणाई पुफियाओ अंतगड साओ निरयावलियाओ मामकहानी चंदपण्णत्ती समवाओ पण्णवणा सूपगडो रायपसेणिय आगम पुरुष की परिकल्पना ato- - द्वादश अंग प्रवचन रूप तो परम पुरुष । अन तेहनां अंग अवयव भगवती । तेहने विषे चोरासी लक्ष पद । श्री आचारांग अंग, उबवाई उपंग जीमणो पग । श्री सूयगडांग अंग, रायप्रश्रेणि उपंग डावो पग । श्री ठाणांग अंग, जीवाभिगम उपंग जीमणी जंघा । श्री समवायंग अंग, पन्नवणा उपंग डावी जंघा । भगवती अंग, जंबूद्वीपपन्नत्ती उपंग साथल जीमणी । श्री ज्ञाता अंग. १३. चतुरशीतिः शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि 'अत्र' प्रत्यक्षे पञ्चमे इत्यर्थः । (बृ. प. ९७९) १४. प्रवचनपरमपुरुषावयव इति' (यू. प. ९७९) 'अङ्गे श० ४१, ढा० ५०० ४५५ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I चंदपन्नत्ती उपंग डावी साथल । श्री उपासगदशा अंग, सूरपन्नत्ती उपंग जीमणो कटि प्रदेश श्री अंतगड अंग, निरावलिया उपंग डावो कटि प्रदेश | श्री अनुत्तरोववाई अंग, कप्पवडिसिया उपंग जीमणी भुजा । श्री प्रश्नव्याकरण अंग, पुष्फिया उपंग डावी भुजा । श्री विपाक अंग, पुप्फचूलिया उपंग कंठ नैं स्थानक छ । श्री दृष्टिवाद अंग, वण्हिदशा उपंग मस्तक ने स्थानक छँ । संघ की स्तुति सार । १६. तप बारे भेदे कह्यो का नियम अभिग्रह अभ्युत्थानज आदि दे कांइ, प्रवर विनय अवधार ।। १७. पूर्व भाख्या एतला, ते संघ-समुद्र नीं वेल । जल वृद्धि अर्थ एहनों कांइ, एह अनोपम खेल १८. विजयंत जे सर्वदा कांड, ज्ञान रूपियो || जेह | विमल विस्तीर्ण उदक छे कांइ, संघ-समुद्र विषेह || १९. हेतु कहितां अर्थ ने कांड, साधण अर्थे बहु कारण नां शततिके कांइ, वेग कल्लोलज २०. एहवो श्री संघ रूपियो कांइ, समुद्र अधिक रसाल । गांभीर्यादिक गुण करी कांइ, विस्तीरण सुविशाल ॥ वा० - तत्रनियमविणयवेलो-तप, नियम, विनय हीज वेल जल वायु वृद्धि अवसर नै विषे प्रवृत्ति नां सरीखापणां थकी ते तथा । जयति सया णाणविमलविपुलजलो जीतवा योग्य जीपवै करीन विशेष जय पामै सदाकाल ज्ञान ईज विमल ने निर्मल विपुल ते विस्तीर्ण जल छै जे संघ-समुद्र नैं तिण प्रकार करिकै सेनामा पापणां की तथा हेतुविपुलवेगो-हेतु नो सैकडों इष्ट अर्थ साधन नैं विषे अनैं अनिष्ट अर्थ निराकरण नै विषे लिंग ते चिह्न सैकडां तिके ही विपुल ते मोटो वेग ते कल्लोल आवर्त्तादिक पाणी जे संघ-समुद्र नैं वांछित अर्थ जे प्रश्न तेहनां साधन सरीषापणां थकी ते संघ-समुद्र | संघसमुद्दोगुण विसालो - संघ समुद्र ते जिन वचन रूप समुद्र गंभीरपणां नां सरीषापणां थकी अथवा साधर्म्यपण साख्यात ईज कहै छै-गंभीरपणांदिक गुणे करी विशाल विस्तीर्ण थकी ते गुण नां बहुलपणां थकी जे ते संघ-समुद्र इति गाथार्थः । २१. विरति आदि जे गुण अछे कांइ, संघ अव्रत आज्ञा बाहिरे कांड संघ न २२. एह भगवती अर्थ धी कांइ, पंचम समाप्त । ढाल पांचसयमी कही कोई आख्या वच ए आप्त ॥ ४५६ भगवती जोड़ भूर । पूर ।। कहीजे कहिये अंग तास । । जास || १६,१७. तवनियमविणयवेलो, १८. जयति सदा नागमो १९. हेतुसत विपुल वेगो, २०. संघसमुद्दो गुणविसालो ||२|| वा०-- 'तवे' त्यादि गाथा, तपोनियमविनया एव देला जलवृत्तिरवसरवुद्धिसाधर्म्यादिस्य तथा 'जयति' जेतव्यजयेन विजयते 'सदा' सर्वदा ज्ञानमेव विमलं निर्मलं विपुलं विस्तीर्णं जलं यस्य स तथा अस्तित्वसाधर्म्यात्स तथा हेतुमतानि इष्टानिष्टायेंसाधननिराकरणयोतितानि तान्देव विपुलोमहान् वेग :- कल्लोलावर्त्तादिरयो यस्य विवक्षितार्थक्षेपसाधनसाधर्म्यास तथा संघसमुद्र' जनप्रवचनदधिभात्, अथवा साधर्म्य साक्षादेवाहगुणैः गाम्भीर्यादिभिविशालोविस्तीर्णस्तद्बहुत्वाद्यः स तथेति गाथार्थः । (. प. ९७९) - Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १. वृत्तिकार इहविध कह्य ू, नमस्कार कीधो तिको, कहियै हि पुस्तकलिपिकार का नमस्कार २. नमो गोतमादिक नमो ढाल : ५०१ प्रतै, गणधर जे गुणगेह भगवती भावश्रुत, विवाहपन्नत्ती ३. द्वादश अंग प्रतं नमो, अंग गणिपिटक गणपति नी पेटी तिके, ते गणि चरण सहीत || एह ॥ रीत ४. ज्ञानवती ए भगवती, प्रवचन परम पुरुष नां पद तणों, वर्णक हिव *गुणिजन नमो स्वाम सुखदाया, पुस्तक लेखक पेख । विशेख ॥ रूप शोभाय । कहियाय || नमो वर्धमान जिनराया । तास वचन सुध मन थी सरध्यां, जयानंद सुख पाया ।। (ध्रुपदं ) ५. मनहर कुर्म जिसा अभिरामज, पद रूड़े संस्थानं । अमलित कोरंट बिट सरीषा, वारू ६. भगवई श्रुतदेवता एहवी, मुक मति तिम रूप आवरण तणों जे नाश करो भगवती की उद्देश- विधि नो , *लय बीस विहरमाण : तास ', ।। ७. प्रज्ञप्ती नैं विषेज धुर नां, आठ शतक नां देखें । दोय-दोय उद्देश करीजं, गवरं इतो विमेखं । यथा शतक विषे घुर दिवसे आठ उद्देश करे । बीजे दिवसे दोष उद्देशा, कोर्जे तास उद्देगं ॥ ९. नवमा शतक थकी मांडी ने जितलं जितो प्रवेयं । तितलो एक दिवस में विधि सूं, तेह उद्देश करेयं ॥ १०. उत्कृष्ट थकी शतक इक दिवसे, मम शत बे दिन्नं । जघन्य को शत तीने दिवसे, कीजें थकी ११. एवं यावत वीसम शत लग णवरं बखानं । । पहिचानं । सुविधानं ॥ गोसालो जे एक दिवस करि कीजें उद्देश देखें || १२. जेहने विषे रह्यो इक दिवसे कीधों जो उद्देश करें अनुज्ञा एषं ॥ तो एक हिज आंबिल करिनें, ते १३. जो इक दिन नीं स्थिति करी सके नहीं, उद्देश जन्म || इतो विशेषं । इतो ते से अंबिल करी अनुज्ञा, कीजें तास सभायं || १४. इकवीसम बाबीसम नं, तेवीसम शतक प्रहं । एक-एक दिवसे करीनें, ते कीर्ज उद्देश १५. क्यारवीसमां शतक प्रतं पुन, बिदिवसे करि तेनां प्रवर उद्देशा पटपट, कोर्ज उद्देश इक दिन में वांच्यो नांयं । जेह ॥ जाणं । माणं ॥ १. 'मी गोमा गणहराण' मित्यादयः पुस्तकलेखक( वृ. प. ९८० ) कृता नमस्काराः । २. णमो गोयमाईण गणहराणं, णमो भगवईए विवाहपणतीए, २. मोबास गहिस्स ५. कुम्मनुसंठिया, अमल कोरेटर्बेटकासा । ६. सुयदेवया भगवई, मम मतितिमिरं पणासेउ || १ || ७. पणती आइमाण अहं सपाणं दो दो उद्देगा तिनबरं ८. चउत्थे सए पढमदिवसे अट्ठ बितियदिवसे दो उद्देसगा उद्दिसिज्जति । ९ नवमाओ सताओ आरद्धं जावइयं जावइयं ठवेति तातियं तावतियं उद्दिस्रियंति १०. उक्कोसेणं सतं पि एगदिवसेणं, मज्झिमेणं दोहि दिवसेहि सतं, जहणेणं तिहि दिवसेहि सतं । ११. एवं जाव वीसतिमं सतं, नवरं – गोसालो एगदिवसेणं उज्जति १२. जदि ठियो एगेण चेव आयंबिलेणं अणुण्णवति । १३. अहणं ठितो आयंबिलेणं छट्ठेणं अणुण्णवति । १४. एकवीस तेवीसतिमा सताई एक्कदिव सेणं उज्जिति। १५. नीति सदोहि दिवसे उगा श० ४१, ढा० ५०१ ४५७ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. पंचवीसतिमं दोहिं दिवसेहि छ-छ उद्देसगा। १७. बंधिसयाई अट्ठसयाई एगेण दिवसेण, १८. सेढिसयाई बारश एगेण, १९. एगिदियमहाजुम्मसयाई बारस एगेणं, २०. एवं बंदियाणं बारस, २१ तेंदियाण बारस, २२. चउरिदियाणं वारस एगेण, १६. पंचवीसमां शतक प्रत जे, बिहुं दिवसे करि देख । ___ तास उद्देशा षट-षट विधि सूं, कीजै उद्देश पेखं । १७. बंधी शत षटवीसम आदिक, अष्ट शतक अदधारं । इक दिन करी उद्देश करोज, वारू न्याय विचारं ।। १८. सेढी शतक तणां अंतर शत, द्वादश जे कहिवायं । इक दिन करी उद्देश करीजै, ए चउतीसम तायं ।। १९. एकद्रिय महायुग्म शतक नां, अंतर शत जे बारं । इक दिन करी उद्देश करीज, ए पैतोसम सारं ।। २०. इम बेइंद्रिय शत नां आख्या, अंतर शत जे बारं । इक दिन करी उद्देश करीजै, ए छत्तीसम सारं ।। २१. इम तेइंद्रिय शत नां आख्या , अंतर शत जे बारं । इक दिन करी उद्देश करीज, ए सैंतीसम सारं ।। २२. इम चरिंद्रिय शतक विषे जे, अंतर शत जे बारं । इक दिन करो उद्देश करीज, ए अड़तोसम सारं ।। २३. इम असण्णि-पंचेंद्रिय शतके, अंतर शत जे बारं । इक दिन करी उद्देश करीजै, ए गुणचालीसम सारं ।। २४. सन्नीपंचेंद्रिय महाजुम्म शतके, अंतर शत इकवीसं । इक दिन करी उद्देश करीजै, चालीसम सुजगोस ।। २५. शत इकतालीसम राशिजुम्म, अंतर शत नहिं तासं । इक दिन करी उद्देश करीज. अर्थ अनोपम जासं ।। २६. विकसित कमल अछै तसु हाथे, नाश कियो अंधकारं । एहवी जे श्रुत-अधिपति देवी, मुझ ने द्यो बुद्धि सारं ।। २७. बुध पंडित अरु विबुध देव नित्य, कियो तसु नमस्कार । श्रुतदेवता गणधरवाणी, करूं प्रणाम उदारं ।। २८. जेह प्रसादे ज्ञानज सीख्यू, प्रवचनदेवी अन्नं । शांति तणी कारक तसु प्रणमू, ए लेखक तणों वचन्नं ।। भगवती सूत्र के शतक और उद्देशक २३. असण्णिपंचिदियाणं बारस, २४. सण्णिपंचिदियमहाजुम्मसयाई एक्कवीसं एगदिवसेणं उद्दिसिज्जंति, २५. रासीजुम्मसतं एगदिवसेणं उद्दिसिज्जति । २६,२७. वियसियअरविंदकरा, नासियतिमिरा सुयाहिया देवी। मझ पि देउ मेहं, बुहविबुहणमंसिया णिच्च ॥१॥ २८. सुयदेवयाए पणमिमो, जीए पसाएण सिक्खियं नाणं । अण्णं पवयणदेविं, संतिकरि तं नमसामि ।।२।। २६. शत इकसौ अड़तोस ए, तास उद्देशा सार । उगणीसौ पणवीस वर, कहियं तसु अधिकार ।। ३०. *प्रथम शतक थी अष्टम शत लग, दश-दश कह्या उद्देशं । नवम दशम शत चउतिस-चउतिस, सखर उद्देश विशेषं ।। ३१. ग्यारम शतके बार उद्देशा, बारम शतके जाणं । तेरम शत अरु चवदम शतके, दश-दश उद्देश माणं ।। ३२. एकसरो गोसाल पनरमों, सोलम चउद उद्देशा। सतरम शतके सतर उद्देशा, जिन वच हरष हमेशा ।। ३३. शत अठारम फुन उगणीसम, वीसम शते वदीतं । प्रवर उद्देशा दश-दश कहिये, श्री जिन वचन प्रतीतं ।। *लय : बीस विहरमाण सदा ४५८ भगवती जोड़ Jain Education Interational Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. शत इकवीसम असी उद्देशा, शत बावोसम साठं। तेवोसमें पचास उद्दशा, जिन वचने गहघाट ।। ३५. चउवीसम चउवीस उद्देशा, शत पणवीसम बारं । आगल पांचं शते उदेशा, कहिये ग्यार-इग्यारं ।। ३६. इकतीसम अठवीस उद्देशा, बत्तीसम अठवीसं । आगल अंतर शतक उद्देशा, कहियै तेह जगीसं ।। ३७. तेतोसम अंतर शत द्वादश, इकसौ चउवीस उद्देशा। इमहिज चउतीसम सेढी शत, वर जिन वचन विशेषा ।। ३९. पैतीसम थी गुणचालीमें शत, अंतर बारस बारं । एक-एक शत नां उद्देशा, इकसो बत्ती सारं ।। ३९. चालोसम शतके इम कहिये, अंतर शत इकवीसं । उद्देशा बेसौ इकतीसज, जिन वच विश्वावीस ।। ४०. इकतालोसम अंतर शत नहि, इकसौ छिन्नं उद्देशा। उगणीसौ पणवीस उद्देशा, जिन वच हरष विशेषा ।। ४१. प्रथम शतक थी बत्तीसम लग, अंतर शतक न कोई। इकतालीसम चरम शते फुन, अंतर शत नहिं होई ।। ४२. तेतीसम थी गुणचाली लग, ए सप्त शते सुजगीसं । द्वादश-द्वादश अंतर शतकज, ए सर्व चौरासी दीसं ।। ४३. फून चालीसम शतक विषे जे, अंतर शत इकवीसं । ____ सर्व एकसौ पंच अनोपम, अंतर शतक कहीसं ।। ४४. धुर बत्तीस चरम इक शतकज, ए तेतीसू जाणी। अंतर शतक नहीं छै यांमें, प्रवर न्याय पहिछाणी ॥ ४५. तेतीसम थी चालीसम लग, अंतर शत इकसौ पंच। इक सय पंच अने तेतीसज, इक सय अडतीस संचं ।। वा.-प्रथम बत्ती शतक अनै राशिजुम्म इकतालीसमों शतक-ए तेतीस शत विषे अंतर शतक नहीं । अनैं तेतीसमां थी गुणचालीसमा लग-ए सात शतक नै विष बार-बार अंतर शतक । इम बार नै सात गुणा कियां चौरासी अंतर शतक हवै । अन चालीसमा शतक नै विष २१ अंतरशतक छ, ते चौरासी में घाल्या एकसौ पंच अंतर शतक हुवै । अन एकसौ पंच अंतर शत मिलायां सर्व एकसौ अड़तीस शतक हुदै । इहां तैतीसमां थी चालीसमां लगे ए आठ शतक नै विषे १०५ अंतर शत लेखविया, पिण ए मूलगा आठ न लेखविया । ते अंतर शतक ना पेटा में आया, तिणसूं सर्व एकसौ अड़ती शतक जाणवा । जोड़ समापन मंगल ४६. भिक्ष स्वाम भरत में प्रगट्या, भारीमाल ऋषिराया। तास प्रसादे जोड़ करंतां, 'जय-जश' हरष सवाया ।। ४७. सतरै सै बयांस्य' वर्षे, भिक्षु जन्म विचारं । संवत अठारै सै वर्षे आठे, द्रव्य दीक्षा दिल धारं ।। १. श्रावणादि क्रम से १७८२ और चत्रादि क्रम से १७८३ श०४१, ढा० ५.१ ४५९ Jain Education Intemational Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. पन साल श्रद्धा शुद्ध पानी, भेषधारयां ने संवत अठारे सतरोत्तरे जे भाव चरण पित ४९ जिन आज्ञा में धर्म बताई, सावध निरवद्य साठे सप्त पोहर संथारो, भिक्षू जन ५०. अठतरे वर्ष भारिमालजो, अणसण घरि उगणी आठे वर्ष परभव, रायचंद ५१. तास प्रसादे 'जय-जश' गणपति, सूत्र भगवती घणां हर्ष थी जोड़ करी ए, न्याय ५२. संवत उगणीसे वर्ष चउवोसे, पोस तिथि दशम रविवार त दिन ५३. मुनि इकबीस अज्जा नेऊ वर, च्यार जोड़ भगवती नीं संपूरण, अधिक हर्ष ५४. सतसठ संत गणी सुखदायक, इक सय सर्व दोयसौ नैं बत्तीसज, संत सत्यां ५५. ढाल पंच सय एक अनोपम, सूत्र भिक्षु भारिमाल ऋषिराम प्रसादे, तीर्थ प्रयुक्त स्रोत निर्देश प्रतिबोधी ॥ अधिकाया । । सूत्र शुक्ल बीदासर ४६० छोड़ी। जोड़ी ।। सोधी । । ऋषिराया ।। केरी । वृत्ति हेरी ॥ पक्ष सारं । सुखकारं । नां था । गहघाटं ॥ पैंसठ अज्जा । वर लज्जा | भगवती जोड़ | दूहा १. ए जोड़ भगवती नीं रची सूत्र वृत्ति संपेख । २. अन्य सिद्धांत तणां टबो धर्मसी यंत्र फुन, अबलोकी सुविशेख | वली, न्याय मेल्या इण ठाम । अर्थ कह्या अभिराम ॥ पिण मिलतो जाण । किहां संकोची वाण ॥ 'जय - जश' आनन्द कोडं । afe कनिज बुद्धि थकी, ३. अर्थ कियो फुन शब्द नों ते विस्तारयो किहां अल्प नों, ४. कहां बेराग्य बधायवा, उपदेश्यो अधिकाय । किहांइक चोज लगाय ने व्याख्यानादि कहाय ॥ ५. किहां कह्यो तुक मेलवा, किहां अनुमाने लेह । किहां बहुवच त्यां इकवचन संग्रह या शब्देह ॥ ६. किहांइक भांगा बुद्धि थकी, केइक यंत्र बणाय । सूत्र तणों अनुसार ले, आख्यो छे अधिकाय ॥ नियंठा ७. गमा णाणत्ता संजया, वलि सूक्ष्म चरचा में वली, मेल्या न्याय ८. इत्यादिक इण जोड़ में, मिलतो जाण । दाख्यो अणमिलतो जू आयो हुने, ज्ञानी व ते प्रमाण ।। ९. बलि कोडक पंडित प्रबल हूं, आगम जे विरुद्ध वचन है सूत्र थी, ते कार्ड १०. विग उपयोगे विरुद्ध वच, जे आयो हुवे अहो त्रिलोकीनाथजी, तसु म्हारै भगवती जोड़ देख दीजो न्हाल | विशाल । उदार । बार || अजाण । नहि ताण || Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. म्हैं तो म्हारी बुद्धि थकी, आख्यो छै शुद्ध जाण । श्रद्धा न्याय सिद्धांत नां, दाख्या शुद्ध पिछाण ।। १२. पिण छद्मस्थपणां थकी, कहिये बारंबार । प्रभु सिकार अर्थ प्रति, तेहिज छै तंत सार ।। १३. अणमिलतो जु आयो हुवै, मिश्र आयो है कोय । शंका सहित आयो हुवै तो, मिच्छामिदुक्कडं मोय ॥ शतक-उद्देशक यंत्र शतक मूल | शतक उत्तर | उद्देशा | | शतक मूल | शतक उत्तर | उद्देशा له له الله و و و و و ~ ०.०1GMAKWUN.GRAM الله ~ 35aararanManasamarr بسم ~ ه ه الله ~ الدم ~ اللع ه ه ه ~ لله ~ الله WWWWWW ~ الله ~ ه ه ه ه » » शतक मूल ४१ शतक उत्तर ९७ उद्देशा १९२५ श्री पंचमांगे ९७ लघु शतक । ३३ मां थी ३९ मां ताई १२-१२ अंतर शतक जाणवा । अनै ४० मां शतक में २१ अंतर शतक । ते सर्व मिली १०५ थया । पिण तेहमा बृहत शतक भेला गिण्या । बृहत शतक न्यारा करिये, तिवार १०५ मां थी ८ काढ्यां ९७ अवशेष रह्या, ते लघु शतक जाणवा। अनै बृहत शतक ४१ । ९७ लघु शतक अनँ ४१ बृहत शतक -ए सर्व मिली १३८ शतक थया । सर्व उद्देशा १९२३ । पनरमां शतक रो १ गिण्या १९२४ । अर्ने ३१ वां शतक ना २८ उद्देशा गिण्यां १९२४ उद्देशा हुवै । मतांतरे ३१ वां शतक रा २९ उद्देशा कहै । तेहनों १ उद्देशो बलि गिण तो १९२५ सर्व उद्देशा हुवै । ॥ इति भगवती नी जोड़ ॥ श०४१, ढा०५०१ ४६१ Jain Education Intemational Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ० नियंठा नी जोड़ ० संजया नी जोड़ Jain Education Intemational Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियंठा नीं जोड़' बृहा चढाय । जाय ।। मिट भेव ॥ १. अनंत चोबीसी हूं नमूं, मस्तक हाथ संजम पालुं निरमलो, व्यं विधन सर्व २. नेयठा संजया निरमला, भाव्या भाख्या भगवंत देव | सूत्र भगोती सार है. सतक पचीस में ३. राजग्रही नगरी पूछघो गोतम स्वाम नेयठा संजया किण विधे, भाखो भगवंत नाम ॥ ४. नेवठा संजया तेहूनां छतीस - छतीस दुवार । विवरा सुध परगट करूं, ते सुणज्यो सुणज्यो विस्तार || मझे, ढाल : १ (देशी डाभ मूंजादिक नीं डोरी ) १. पण्णवण वेद राग कल्प चरण, पडिसेवणा नाम तीर्थ लिंगकरण । दसमो शरीर क्षेत्र में काल, तेरमो गति पदवी थित रसाल ॥ २. संयम मानकरी अल्पा बहुत विचार, पनरमो निकासे पज्जवा दुवार । योग उपयोग कषाय लेस, बीसमो परिणाम थित कहेस ॥ ३. कर्म बंधे वेदे उदेरे, उवसंपज्जणा सन्ना आहार भव फेरे । आगरिसथित अंतर समुद्घात खेत, ४. हिवं नेयठां फूसणा भाव पूर्व प्रज्या अल्पबहुत समेत ॥ आण रा भेद ते सुणजो उमेद | पुलाग बुकस पडिसेवणा कुसीलकसाय, निग्रंथ स्नातक कह्यो जिणराय ॥ ५. यां छहूं ₹ ₹ इ महाव्रत पंच, मांहे कर्म तणों छे संच । खेत-धान ज्यूं कहीजे पुलाग, बुकस बल्हे पढ़ो ज्यूं लाग ॥ ६. पडिसेवणा ते साल- ढिग कीधो, कषायकुशील ते उफल लीधो । निग्रंथ नेयठो ते छड़िया चावल जेम, स्नातक धोय उजल कीधो एम ॥ सगलेइ सरीबो, तुस फीको । कचरा करने कचरो अलगो कोधां धान चोखो, ते किविध खाए जोखो || ७. धान-कण १. भगवती सूत्र के पचीसवें शतक में 'नियंठा' एवं 'संजया' का प्रकरण है। जयाचार्य ने भगवती की जोड़ का निर्माण करते समय पचीसवें शतक की भी विस्तृत जोड़ की है। जयाचार्य की अन्य रचनाओं में दो स्वतन्त्र रचनाएं हैं- १. नियंठा नीं जोड़, २. संजया नीं जोड़। इनका आधार भी भगवती का पचीसवां शतक ही है । जयाचार्य ने ये दोनों जोड़ें मुनि अवस्था में वि० सं० १८७९ में लिखीं । पचीसवें शतक से सम्बन्धित होने के कारण इन दोनों रचनाओं को परिशिष्ट में दिया गया है । नियंठा नीं जोड़, ढा० १ ४६५ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. हूं नियंठा महाव्रत पांच, ते तो कदेय न खाए आंच । __ मोहकर्म रूप कचरो छै भारी, सेव उभा रहै अणाचारी ।। ९. महाव्रत ऊजलो जोव, तिण सं लागे मुगत री नींव । बिगड़ियो जीव दोष लगावै, मोहकर्म वसे गोता खावै ।। १०. जिण-जिण नेयठे कषाय पावै, कषाय बस कर्म लगावै । जिण नेयठे मोह मरोड़ी, तिहां खपी पाप नी कोड़ी ।। ११. खेतादिक छहूं ठामे धान, कचरा रो जुदो छ मान । फस कचरो ते न्यारो कीधो, धान चोखों करे लेखो लोधो ।। ११. ज्यं छहं नेयठा पांच महाव्रत रूडा, ते कदेय न थाए कड़ा। कर्म रूप कचरो अलगो होय जाय, जब स्नातक निरमल थाय ।। १३. हिवै पहिलो पण्णवण दुवार, तेहनों सांभलजो विसतार। पांच-पांच भेद छहूं रा कीजे, सूत्र देख निरणो कर लोजे ।। १४. पुलाग में वेद पावै दोय, पुरुष कृतनपुंसक होय । बुकस पडिसेवणा में तीन पावै, तिहां स्त्री वेद पिण थावै ।। १५. कषायकुशोल में वेद तीन, अवेदी हवे तो उपसंत खोण । __ निग्रंथ उपसम खीणवेदी, सनातक खीणवेदी अवेदी ।। १६. पहला च्यार नियंठा कहीजे सरागी, निग्रंथ उपसंत खीण वीतरागी । सनातक खीण वीतरागी सूरो, दोन गुणठाणा गुण कर पूरो ।। १७. पुलाग में कल्प तीन कहीजे, ठि अट्टि नै थिवर भणीजे । ठि-कल्पी पेहला छेहला नै बारे, अट्रि-कल्पो दोयां रै बिचाले ।। १८. बुकस पडिसेवणा में कल्प च्यार, जिनकल्पी इधक विचार । कषायकुसोल में पांच पावै, कल्पातीत इधको थावै ।। १९. निग्रंथ सनातक में तीन कल्प वदीत, ठि अढि नै कल्पातीत । ए कह्यो चोथो कल्प दुवार, हिवं आगै सुणो विसतार ।। १०. पुलाक बुकस पडिसेवणा में चारित्र दोय पावै, समायक छेदोपस्थापनी थावे । कषायकुसील में चारित च्यार विख्यात, निग्रंथ स्नातक में जथाख्यात ।। १. पडिसेवणा दुवार छठो कह्यो, ते खंध आश्री जाण । दोष लगावै न लगावै विवरो कह्यो, ते जाणं चतुर सुजाण ।। ढाल : २ (देशी: रे भवियण ! जिण आगन्या सुखकारी) १. पुलाग नेयठो कह्यो जिणेशर, मूल-उत्तर-गुण दोष लगावै । ते असुभ जोग आश्री जाणो. पिण लेस्या तो सूध पावै ।। रे भवियण ! राखो जिन परतीत । भगवंत भाख्यो ते सत जाणो, आप छांदे म करो अनीत ।। (ध्रपदं) ४६६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखो । । २. बुकस उत्तर गुण नै दोष लगाये, दस पचखाणां में पंच महाव्रत मूल थी नहीं खंड, भगवंत भाख्यो लेखो || ३. पटिसेवणाकुसील नेवठो तीजो मूल उत्तर गुण दोष लगावे तीनांइ में लेश्या तीन-तीन कही छै, दोष उसुभ जोग आश्री थावे ॥ ४. कषायकुसील अपडिसेवी को छं, तिण रो पेटो छ भारी । दोष नहीं लगावै ते च्यार गुणठाणा, सुभ जोग लेश्या सुखकारी ॥ ५. छठो गुणठाणी पिण अडियो ते सुभ जोग आधी जाणो । आश्री असुभ जोग रो कथन न दीस, कड़ी म करो ताणो ॥ ६. आयारंभी परारंभी तदुभयारंभी, असुभ जोग आश्री कहीजै ।। प्रमादी साधू ने प्रभु को छे, स्थाय होया में धरीजं ॥ कह्यो ७. बले प्रमादी साधू छठे गुणठाणे, सुभ जोग आश्री साचो । अणारंभी कायों अरिहंते, रह्यो ग्यान ध्यान में उद्देशो जोय राचो ॥ लोजे । । ८. ए भगोती सूत्र पहले सत बंधे, पहलो सुभ जोग आश्री दोष न लागे, चोथे ९. चोथे नेयठे लेश्या छह कही छे, तिण ने नेयठे न्याय मेलीजे ॥ वले को अपडिसेवी । १०. के वले च्यार ग्यान कह्या तिण मांहे. तिण रो न्याय हिरदा में वेवी ॥ खधारी कह पायकुसील नेवठो, अपडिसेवी कह्यो ताहि । ददमस्थ भगवंत देव न चूकै च्यार ग्यान मांहि || ११. इम अनेक कपट त्यां कर-कर लोकां नै, झूठी बातां धरावं । जाये || लागो । प्रश्न पूछयां जाव जयातय नावे, भाषा बोलो बोली फिर १२. च्यार ग्यान थकां भगवंत नहीं चूके, किंचत मात्र पाप न सूत्र नो नाम ले-ले झूठ बोले, भेखधारयां बगायो ठागो || १३. कदे आचारंग से नाम से ने कहे से, किंचत मात्र न सेव्यो पाप । कुपात्र ने बचायां धर्म कहे छे, स्वार खोटी सरधा री थाप ॥ १४. प्रमाद ने व्रत साधू आहार कीया में सर से भेषधारी । साधु नदी उतरीयां में पाप कहै छे, प्रभु सूधी पूगा दुखकारी ॥ १५. भगवंत आहार कीयो छदमस्थपणां में, केवली थका दिन कीधो आहार | बजे नदीयां अनेक उतरीया जेणां सूं, तिनमें पाप कह भेखधार ॥ १६. ये कहता भगवंत पाप न सेव्यो छदमस्थपणां रे काल । आहार नदी में पाप कह नै, कांय दीयो शिर आल ।। १७. तिल बताया नै लेश्या सीखाई, वले कह्या नीपनां तिल सात । तिने कां थकां ति सावज सेव्यो हृदमस्थपणां री छे बात ।। १८. असंयती गोसालो कुपातर तिण ने लबध फोड़ी ने बचायो । ते पिण छदमस्थपणां थी जाणो, पिण केवलीयां नहीं सरायो || १९. पाप नहीं जागो तिहां पाप बताओ, पाप लागो तिहां कहो नांही । इसड़ी अंधी सरधा मत राखो विचार करो घट मांही ॥ २०. नच्चा कहतां जाणी प्रभु पाप न करता, करावता पिण नांही । पाप करें तिनं भलो न जाये को आचारंग मांही ॥ २१. ए तो आचार छे सर्व साधा से, भगवंत से पिण इम जाणो । किंचित मात्र पाप न लागो कह ने, कांय बूडो कर-कर ताणो ॥ २२. दमस्थ चूके छे सात प्रकारे, कह्यो ठाणांग सातमे ठाणे । लब्धि फोरणी भगोती में वरजी, तिण रो न्याय समदिष्टी विद्वा ॥ नियंठा नीं जोड़, डा० २ ४६७ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. आहारीक लबध फोरयां जगन तीन जाणो, उतकृष्टी लागे क्रिया पांच । पन्नवणा पद छतीस में भाख्यो, खोटी मत करो खांच ।। २४. विद्या-जंघाचारण लबध फोड़े, आलोयां आराधक होय । सूत्र भगोती रै सतक बीस में, नवमें उद्देशे जोय ।। २५. सावद्य किरतब में नही जिन आग्या, निरवद्य में आगन्या दीधी । आग्या मांहे पाप आग्या बारे धर्म कहे, त्यां खांच गला में लीधी ।। २६. कषायकुशील नेयठे दोष न थापो, वले चूका कहो गोतम साम । त्यांमें पिण कषायकुशील नेयठो, भगवंत ज्यूं कह्या अमाम ।। २७. चउनाणी नैं चोथे नेयठे, गोतम सामी भगवान । त्यांनं झूठ लागो नैं चूका कहो छो, थारै लेखे थांमे नहीं ग्यान ।। २८. भगवंत में अपडिसेवी कहो छो, तो अपडिसेवी गोतमजी पिण आछा । च्यार ग्यान दोयां – सरीखा, तो यांने किणविध जाणो थे काचा ।। २९. चकै ते तो छदमस्थपणां सूं, वले मोहकर्म उदे जाणो । त्यांरै दोष लगावण रो थाप नहीं छै, उतम गुण एम पिछाणो ।। ३०. सुभ जोग आश्री कषायकुशील नेयठो, अपडिसेवी कहीजै ताय । भगवंत रा वचन साचा कर लेणा, पहला उदेशा रै न्याय ।। ३१. निग्रंथ सनातक दोनूं अपडिसेवी, मोहकर्म उपसमोयो खपायो । पाप रो अंस त्यार नहीं लागै, भाख गया जिणरायो ।। ३२. कषायकुशील नेयठो ओलखावण, जोड़ कीधी सहर पीपाड़ । समत अठारे गुण्यासीये वरसे, भाद्रवा बिद तीज सोमवार ।। दूहा १. पुलाक बुकस पडिसेवणा, दोय तथा तीन ग्यान । कषायकुसील निग्रन्थ में दोय तीन च्यार छ, आग केवलग्यान प्रधान ।। २. पुलाक वालो भण जघन तो, नवमा पूर्व नी तीजी वत्थु लग ताय । उतकष्टो नव पूर्व भणे, भाख गया जिणराय ।। ३. बुकस पडिसेवणा कषायकुसोल निग्रंथ, जघन आठ प्रवचन जाण । उतकृष्ट ऊला' दोय दस पूर्व भण, दोय' चवदै पूर्व पिछाण ।। ४. सनातक सूत्रवतिरित्त छै, त्यांरै भारी केवलनाण । आठमो दुवार तीर्थ कह्यो, तिणरी सुणो पिछाण ।। ढाल :३ (देशी: आ अणुकंपा जिन आज्ञा में) १. पेहला तीन नेयठा तीर्थी कह्या जिण, छेहला में तीर्थ पावै च्यार । तीर्थी अणतोर्थी प्रत्येकबुद्ध, बले तीर्थंकर देव विचार ।। __यां छहूं नेयठां रो निरणो कीजो ॥ (ध्रुपदं) १. बकुस, प्रतिसेवना २. कषायकुशील, निग्रंथ ४६८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. द्रव्य लिंग आश्री तीन लिंग कह्या जिण, सलिंग अनलिंग ग्रीहीलिंग कहवाय । भावलिंग आश्री सलिंगी निश्चै, छहूं नेयठा नैं कह्या जिणराय ।। ३. उदारीक तेजस कारमण शरीर, पुलाक निग्रंथ सनातक में जाणो । बुकस पडिसेवणा में वेक्रे री भजना, कषायकुशील ने तीन चार पांच पिछाणो ॥ ४. पुलाक जनम छता आश्री कर्मभूमी, साहरण तिणरो न कह्यो जिणराय । पांच नेयठा जन्म छता आश्री कर्मभूमी, साहरण आश्री अढी द्वीप रै मांय || ५. पुलाक जनम आश्री अवसर्पिणी ने चोथे आरे, छता आश्री तीजे चौथे पंचमे आरे । उत्सर्पिणी ने जनम आश्री बीजे तीजे चोथे, छता आश्री तीजे चोथे कोइ न सहारे ॥ ६. बुकस पडिसेवणा कषायकुसील अवसर्पिणी नैं, जनम छता आश्री तीजे चोथे पांचमे आरे । उत्सर्पिणी ने जन्म बीजे तीजे चोथे छता आश्री तीजे चोथे, आगे 'पुलाक नीं परे पिण साहरण सारे ॥ ७. पुलाक बुक्स पडिसेवणा कषायकुशील, जघन तो पेहले देवलोके जाये । उतकष्टो सहसार दोय अच्चू नें अणुत्तर, निग्रन्थ अणुत्तर स्नातक मोख सिधाये || ८. पुलाकबुक्स पडिसेवणा आराधक हुवै तो, च्यांखंद पदवी मोटकी पाव । इंद्र सामानिक तावतोसग लोकपाल, कषायकुसोल पांच अहमिंद्र इधकी था ।। ९. निग्रंथ अहमिंद्र सनातक मोख, ए तो आराधक रो लेखो बतायो । विराधक हुआ पेहले देवलोके, पदवो रहित बहु गोता खायो ॥ १०. आउ जघन प्रतक पल च्यार नेयठा, उत्कृष्टो सागर अठारे दोय बावीस ने तेतीस । निग्रंथ जघन उतकष्टो पामै तेती सागर, सनातक सिद्ध हुवे जगदीस || ११. च्यार नेयठा थानक असंख्या दोयां रो एक-एक, सर्व थोड़ा निग्रंथ स्नातक थानक विख्याता । पुलाक बुकस पडिसेवणा कषायकुशील, अनुक्रमे असंख्याता - असंख्याता ॥ १२. पुलाक पुलाक मांहोमां छठाणवड़ीया, पुलाक कषायकुशील सूं पिण छठाणवड़ीया । बाकी च्यारां सूं अनंतगुण हीणा, त्यारां पज्जवा अनंतगुण अधिक उघड़ीया ॥ १३. बुकस पुलाक सूं अनंतगुण इधको, बुकस पडिसेवणा कषाय सूं छठाण । नियंठो सनातक सूं अनंतगुण होणो, मोहकर्म अलगो हुआं पज्जवा पिछाण || १४. डिसेणा पुलाग सूं अनंतगुण इधका, पडिसेवणा बुकस कषाय सूं छठाण । नेयठा सनातक सूं अनंतगुण हीण, त्यां मोहकर्म नीं कीधी हाण || १५. कषाय पुलाक बुकस पडिसेवणा छठाणवड़ीया, या सनातक सूं अनंतगुण हीणा । नेया ने सनातक मांहोमां तुला, बाकी च्यारां सूं अनंतगुण इधिक प्रवीणा ॥ १६. पुलाक कषायकुसोल चारित रा जघन पज्जवा, मांहोमां तुला सर्व थोड़ा कहंता । पुलाक उतकष्टा चारित पज्जवा अनंतगुणा छै, बुक्स पविणा जघन पज्जवा तुला अनंता ॥ १७. तिसूं बुक्स पडिसेवणा कषायकुशील, अनुक्रमे उतकष्ट अनंत अनंता । निग्रंथ सनातक मांहोमां तुला, अनंतगुण पज्जवा इधिक कह्या भगवंता ।। १८. ए पनरै दुवार कह्या परमेस सोलमें तीन-तीन छहूं में जोग । सनातक सजोगी तथा अजोगी हुवै, सतर में सगले होय दोय-दीय उपयोग || नियंठा नीं जोड़, ढा० ३ ४६९ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. तीन नेयठा कषाय संजल नी चोकड़ो, चोथे च्यार तीन दोय अथवा एक । निग्रंथ में उपशंत खीण कही छ, सनातक में खोण सुध विवेक ।। २०. तीन नेयठा भली तीन लेस्या, कषायकुशील माहे छहूं पावै । तिण रो तो पेटो भारी घणों छै, पांच गुणठाणां तिण माहे आवै ।। २१. निग्रंथ सनातक में शुकल-लेश्या, सनातक तथा अलेसी होयो । उगणीसमों लेश्या दुवार कह्यो छ, बीसमो परिणाम दुवार जोयो।। २२. विरधमान हायमान में अवठोया, च्यारूं नेयठा तीन परिणाम । निग्रंथ सनातक विरधमान अवठोया, तानां रो थित सुणो हिवै ताम ॥ २३. च्यारूं नेयठा जघन एक समा री, उत्कृष्टी अंतरमुहूर्त दोयां रो। अवठीयां री उत्कृष्टी सात समा री, परिणाम थित ओलख लीजो त्यांरो । २४. निग्रंथ में विरधमान जघन उत्कृष्टी अंतरमुहर्त अवठोया, जघन एक समो उतकष्टी अंतरमुहूर्त जोड़ । सनातक विरधमान जघन उतकष्टो अंतरमुहर्त, अवठीया जघन अंतरमुहूर्त उतकष्टो देश ऊणो पूर्व कोड़ ।। २५. पुलाक सात कर्म बांधै आऊ वर्जी ने, बुकस पडिसेवणा बांध सात आठ । कषायकुशील आठ सात षट बांधे, आग सातावेदनी बंधै पुन थाट ।। २६. सनातक मैं तथा अबंध कह्यो छ, ए इकवीसमो कह्यो बंध दुवार । च्यार नेयठा नियमा आठ वेद, निग्रंथ सात सनातक च्यार ।। २७. पुलाक छह कर्म उदीरै वेदनी आऊ वर्जी, बुकस पडिसेवणा पिण षट तथा आठ सात । कषायकुशील एवं तथा पांच उदीर, वेदनी मोहणी आऊ वर्जी विख्यात ।। २८. निग्रंथ पांच तथा दोय उदीरे, सनातक नाम गोत्र तथा नहीं उदीरै । हिव उवसंपज्जणा चोवोसमों दुवार, निज गुण छांडी नै और में जाय फेरै ।। २९. पुलाकपणों छांडी हुवै कषायकुशील असंजमी, बुकसपणो छांडी पडिसेवणा थाय । वले कषाय असंजम संजमासजम में, मोहकर्म वस गोता खाय ।। ३०. पडिसेवणा छांडी बुकस कषायकुसील में, वले असंजम संजमासंजम में जावै । कषायकुशीलपणों छांडी पडिसेवणा सहित च्यारा में, पुलाक निग्रंथ में इधको थावै ।। ३१. निग्रंथपणों छांडी नै सनातक में जावै, वले कषायकुशील असंजम में कहीजै । सनातकपणों सिद्ध गति सिधावै, त्यां आत्म कार्य सगलाई सोझै ।। ४७० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १. पुलाक निग्रंथ सनातक संज्ञा नहीं, और तीनां में भजना धार । पांच नेयठा आहारीक छ, सनातक भजना विचार ।। २. पांच नेयठां जघन भव एक है, पुलाक निग्रंथ तीन भव जाण । विचे तीन नेयंठा भव आठ है, सनातक पोहचे निरवाण ।। ढाल : ४ (देशी : जगत-गुरु त्रिशला नंदन वीर) १. पांच नेयठा भव आसरी, जघन आवै एक बार विचार । उतकष्टो पुलाक तोन निग्रंथ दोय छ, बिचला तीन प्रत्येक सौ-सौ बार ।। मुनीसर नियंठा मुख धार ।। (ध्रुपदं) २. सनातक एक भव आसरी, जघन उतकष्टो एक बार । पांच नेयठा घणां भवां आसरी आवै, त्यांरो सुणो विस्तार ।। ३. जघन दोय-दोय वेला जाणजो, उतकष्टो पुलाक वेला सात । बिचला तीन प्रतक सहंस वेला जाणजो, निग्रंथ पांच वेलां विख्यात ।। ४. जघन उतकष्टी थित पुलाग नी जी, अंतरमुहर्त जोड़ । च्यारां री जघन एक समा तणी, उतकष्टी देश ऊणी पूर्व कोड़ ।। ५. निग्रंथ री जघन एक समा तणी, उतकष्टी अंतरमुहूर्त जाण । सनातक री जघन अंतरमुहर्त तणी, उतकष्टी देश ऊणी पूर्व कोड़ पिछाण ।। ६. घणां पुलाग आसरी थित, जघन एकसमो जाण । पेहला रो समो छेहलो रह्यो, दुजा रो पहलो लागो आण ।। ७. उतकष्टी अन्तर्महुर्त तणी, छहूं निग्रंथ आश्री पिण इम जाण । च्यार नेयठा सदा काल छ, घणां काल आश्री पिछाण ।। ७. आंतरो पड़े पांच नेयठा तणों, जघन अन्तरमुहर्त जोय । उत्कष्ट अर्ध पुद्गल तणों, सनातक आंतरो नहीं कोय ।। मुनीसर एक जीव आसरी जोय ।। ९. घणां पुलागां आसरी, आंतरो जघन समो एक । उतकष्टो संख्याता वरसां तणों, घणां जीवां आसरी देख ।। १०. च्यार नेयठा घणां जीवां आसरी, आंतरो नहीं छ तास । निग्रंथ जघन एक समा तणों, उतकष्टो छह मास ।। ११. पुलाक में समुद्घात तोन छ, वेदनी कषाय मारणंती जोय । बुकस पडिसेवणा में पांच छै. वेके तेजस बधी दोय ।। १२. कषायकुशील में छह कही, आहारीक बधी साख्यात । निग्रंथ में एको नहीं जी, सनातक में केवल-समुदघात ।। १३. छहूं नेयठा लोक ने असंख्यातमें भागे होय । तथा सनातक सर्व लोक में, समुदघात आसरी सोय । १४. छहूं नेयठा लोक नों जी, फर्श असंख्यातमो भाग । सनातक तथा सर्व लोक में जी, फर्श आकाश प्रदेश लाग ।। १५. च्यार नेयठा खयोपसम भाव छ, उपशम क्षायक निग्रंथ । सनातक क्षायक भाव छ, पछै मुगत सिधावै संत ।। नियंठा नी जोड़, ढा० ४ ४७१ Jain Education Intemational Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. छहं नेयठा वर्तमान प्रज्या आसरी, सिय अस्थि सिय नस्थि जाण । हो तो जघन एक दोय तीन हुवै, उतकष्टा ऊला तीन प्रतक सौ पिछाण ।। १७. कषायकुसील वाला प्रतक सहस हुवे, एक सौ बासठ निग्रंथ एन । उपसमश्रेणी चोपन कह्या, एक सौ आठ सनातक चैन । १८. पूर्व प्रज्या आश्री जी, पुलाक निग्रंथ दोय । सिय अत्थि सिय नत्थि होवै तो, जघन एक दोय तीन होय ।। १९. उतकष्टा पुलाक प्रतक सहंस जाणजो, निग्रंथ प्रतक सौ भाल । सनातक जघन उतकष्टा कह्या जी, प्रतक कोड़ संभाल ।। २०. बुकस पडिसेवणा जघन उत्कष्ट थी, प्रतक सौ कोड़ विचार । कषायकुसील प्रतक सहस कोड़ है, जघन उतकष्टा धार ।। २१. सर्व थोड़ा निग्रंथ कह्या जी, तिण सूं पुलाक संख्यात । सनातक संख्यातगुणा कह्या, बुकस संख्यातगुणा विख्यात ।। २२. तिण सूं संखेजगुणा पडिसेवणा रा, संखेजगुणा कषायकुशील रा जाण । ए छतीसू इ दुवार प्रभु कह्या जी, ज्ञानी वचन प्रमाण । २३. भगोती सूत्र शतक पचीसमें जी, छठे उदेशे भाव । जोड़ कीधी नेयठा तणी जी, चतुरां रै चित चाव ।। २४. समत अठारे गुण्यासीये जी, भाद्रवा बिद छठ गुरुवार । भव-जीवां ने समझायवा, जोड़ कोधी सहर पीपाड़ ।। ॥ इति नियंठा नी जोड़॥ ४७२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. इत्तर उत्कष्टो १. संजया कहै, समायक संजया भगवंत किणविध सुण वच्छ गोतम ! जिण २. पांच परुपीया, छेदोपस्थापनी परिहारविशुद्ध सुखमसंपराय कह्यो, वले जथाख्यात ३. समायक चारित्र रा भेद दोय छै, इत्तरीय आव ते तो बावीस तीर्थंकर नें, वले महाविदेह मझम को कारण साढा छह मास विमास || ५. छेदोपस्थापनीय नां दो भेद छं, अतिचार सहित ऋषभ महाबोर र वार । तेवीसमा रा आव चोवीसमा मझे, स्वारे नहीं अतिचार ।। ६. तप करवा पेठो नैं तपकर नोकल्यो, ए पडिहारविसुध रा दोय भेद । अठार वरसां लग जाणजो, तप करें उमेद ॥ जघन दिन सात नों, नौं, छह मास आण , ए दोष भेद छे, जाण । ॥ ७. संकिले समाणे पड़तो उपशम श्रेणी यो विसुधमाण ए क्षपक श्रेणी चडतोविख्यात । सुखमसंपराय नां, हिवे आगे सुणां जयाख्यात ।। ८. जथाख्यात नां दोय भेद छद्मस्थ केवली तथा उपसंत नैं खोण पण्णवण दुबार पिछाण || तथा अवेदी हुवे तो उपसंत खोण । उपसंत खीण वेदी प्रवीण ॥ है, ए पेहलो ९. सामायक छेदोपस्थापनी ने वेद तीन है, परिहारविशुद्ध में वेद दोय छे, आगे संजया नीं जोड़ बहा का ? ढाल : १ भाखो आछी वचन रीत अमोल | अडोल ॥ सूर । गुणपूर ॥ आव । ने चित चाव ॥ च्यार मास । (देशी राधा प्यारी हे लेवो नीं झखोलो ठंडा नीर नों) सुध पाले ने धारे ते ऊधरे, १. प्यार संजया सरागी का जयाख्यात उपसंत में खीण, जिणंद मोरा हो । आग्या सहीत पुरुष प्रवीण, जिणंद मोरा हो । भलो ज्ञान बतायो जिणराज नों || ( ध्रुपदं ) २. द्विकल्पी पहला बेहला तीर्थकर तगां अट्टिकल्प बावीसां नां जाण । जिन थिवरकल्पी ने कल्पातीत छै, समायक में पांचू कल्प पिछाण || ३. छेदोप० परिहारविसुद्ध में, ट्टि जिन थिवर कल्प वदीत । सुखमपराय ने जथाख्यात में, ट्रि अट्ठि नं कल्पातीत || ४ दोय चारित्र में नेयंठा ऊला च्यार छे, दोयां में कषायकुशील होय । जथाख्यात चारित मांहे जिन कह्या, निग्रंथ सनातक ५. दोय संजया मूलगुण उत्तरगुण मझे, दोष लगावे से तीन संजया दोष लगावे नहीं, ए पडिलेवणा छठो दुबार कहवाय ॥ दोय ॥ ताय । संजया नीं जोड़, ढा १ ४७३ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. च्यारूं चारित में च्यार भांगा कह्या, च्यारूंइ ग्यान विचार । जथाख्यात माहे इमहीज छै, तथा केवलज्ञान श्रीकार ।। ७. च्यार संजया भणे जघन प्रवचन माता तणां, उत्कष्ट चवदै पूर्व तहतीक । पडिहारविशुद्ध जघन नवमा पूर्व नी तीजी वत्थू, उतकष्ट देश ऊणो दश पूर्व ठीक ।। ८. तथा जथाख्यात सूत्रवतिरित्त छ, हिवै तीनां में तीर्थ पावै च्यार । तीर्थी अणतीर्थी प्रतेकबुद्ध तीर्थंकर, एक तीर्थी होवै छेदोप० परिहार ।। ९. च्यार संजया द्रव्य लिंग आसरी, सलिंग अनलिंग ग्रीहोलिंग विचार । ___ भावलिंग आश्री सलिंगी कह्या, द्रव्य भाव लिंग आश्री सलिंगी परिहार ।। १०. दोय चारित्र शरीर तीन च्यार पांच छ, आहारीक त्यां वेके शरीर । छेहला तीन चारित में शरीर तीन छ, हिवै खेत्र दुवार इग्यारमो कहै वीर ।। ११. तीन संजया जनम छता आसरी पनरे खेत्रे, साहरण अढी द्वीप मांहि । छेदोप० एवं पिण दस खेत्र में कह्या, परिहार दस खेत्रे पण साहरण नांहि ।। १२. समायक जनम छता आसरी, अवसर्पणी ने तीजे चोथे पांचमे आरे । उत्सपिणी नैं जन्म आश्री बोजे तीजे चोथे कह्यो, छता आश्री तोजे चोथे साहरण सारे ।। १३. छेदोप० जनम छता आश्री, अवसर्पिणी तणे तीजे चोथे पांचमे आरे ताम | उत्सपिणी ने जन्म आश्री बीजे तीजे चोथे कह्यो, छता आश्री तीजे चोथे साहरण सगले ठाम ।। १४. परिहारविशुद्ध अवसपिणी जन्म आसरी तीजे चौथे, छता आश्री तीजे चोथे पंचम काल । उत्सपिणी जन्म आश्रो बीजे तीजे चोथे कह्यो, छता आश्री तोजे चोथे भाल ।। १५. सुखमसंपराय जथाख्यात परिहार ज्यू, पिण छै महाविदेह खेत्र मझार । साहरण आश्री अढी द्वीप में, बारमो कह्यो काल दुवार ।। १६. पेहला दोय चारितवाला जघन थी, उपजै सुधर्म देवलोक । उत्कष्ट अनुत्तरविमाण में, पछै वेगा पोहचै गति मोख ।। १७. जघन सुधर्म उत्कृष्ट आठमें, परिहारविसुद्ध चारित्रीयो जाय । सुखम जघन उत्कृष्ट अनुत्तरविमाण में, जथाख्यात जघन सर्वार्थसिद्ध उत्कष्ट मोख मांय ।। १८. समायक छेदोपणी चारित बेहूं, पावै पांच पदवी बखाण । इन्द्र सामानीक लोकपाल नी, तावतीसक अहमिंद्र जाण ।। १९. परिहारविशुद्ध च्यार अहमिद्र विना, सुखम जथाख्यात अहमिंद्र अमोल । आराधक हुआं ए पदवी लहै, विराधक अनेरे ठामे नहीं तोल ।। २०. तीन संजया जघन थित दोय पल तणी, उतकष्टो तेती-तेती सागर संजया दोय । परिहार अठारे सागर तणी, आगे जघन उत्कृष्ट तेती सागर होय ।। २१. असंख्याता थानक च्यारू चारित तणां, जथाख्यात रो थानक एक । सर्व थोड़ो थानक जथाख्यात रो, असंख्यातगुण सुखमसंपराय नां देख ।। २२. असंख्यातगुणां परिहारविसुद्ध नां, सामायक छेदोप० माहोमां तुला सोय । परिहारविशुद्ध सू असंखगुणा, ए संयम-थानक अल्पाबहुत जोय ।। २३. ए चवदै दुवार इम जाणजो, पनरमों निकासे पज्जवा दुवार । पांच चारित रा पज्जवा अनंत छ, ते सांभलजो विस्तार ।। -० ४७४ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. सामायक सामायक छठाणवड़ीया, सामायक सं छेदोप० परिहार छठाण । सुखम० जथाख्यात सूं अनंतगुण हीण छ, इम छेदोप० परिहार विशुद्ध सू पिण जाण ।। २. सुखमसंपराय सू सुखम० छठाणवडीया, तीनां तूं अधिक जथाख्यात सूं हीण । तुला जथाख्यात जथाख्यात सू, च्यारां सं अनंतगुण अधिक प्रवीण ।। ३. जघन सामायक छेदोपणी चारित तणां, पजवा सर्व थोड़ा तुला माहोमांय । जघन परिहारविशुद्ध नां अनंतगुणा, अनंतगुणा उत्कृष्ट परिहार कवाय ।। ४. उत्कृष्ट सामायक छेदोपणी चारित तणां, मांहो मां तुला अनंतगुण जाण । तिण सं सुखमसंपराय नां जघन अनंतगुणा, तेहीज उत्कृष्ट पजवा अनंतगुणा बखाण ।। ५. यां सगलां सूं पजवा जथाख्यात नां, जघन उत्कृष्टा कह्या जिणराय । अनंतगुणा ए जाणजो, ए कह्यो पनरमो पज्जवा दुवार ।। ढाल : २ (देशी : विनय रा भाव सुण सुण गूंजे) १. पांचं संजया तीन योगी, जथाख्यात तथा अजोगी। दोय उपयोग सागार मणागार, सुखमसंपराय एक सागार ।। २. सामायक छेदोपणी रै माय, च्यार तीन दोय एक कषाय । च्यार हवे तो संजल नी जाण, तीन हवै तो क्रोध नी हाण ।। ३. दोय हुवै तो मान लोभ पावै, एक हुवै तो लोभ कहावै । परिहारविशुद्ध में संजल नी च्यार, सुखमसंपराय लोभ विचार ॥ ४. जथाख्यात अकसाई होय, उपसंत अने खीण दोय । ए अठारमो कषाय दुवार, हिवं लेस्या रो सुणो विचार ।। ५ दोय संजया छह लेस्या कहीजे, परिहारविशुद्ध भली तीन लीजे । सुखम० जथाख्यात शुकल कहेसी, जथाख्यात तथा अलेसी । ६. तीन संजया तीन परिणाम, वृध हयमान अवठीया ताम । सुखम० वधमान हयमान, जथाख्यात वृधमान अवठोया जाण ।। ७. तीन संजया तीन परिणामां री ताय, थित जघन एक समो कहवाय । उत्कृष्टा अंतरमुहूर्त दोयां री आखी, सात समा अवठीयां री भाखी । ८. सुखम० वृध हयमान जघन समो एक, उत्कृष्टी अंतरमुहूर्त देख । जथाख्यात वृधमान अंतरमुहूर्त जोड़, अवठीया जघन समो उत्कृष्ट देश ऊणो पूर्व कोड़ ।। ९. तीन संजया सात आठ कर्म नों बंध, जथाख्यात सातावेदनी तथा अबंध । सुखमसंपराय छह कर्म बंधाय, मोहणी आउखो बर्जी ताय ।। १०. च्यार संजया आळं कर्म वेदै, जथाख्यात सात मोह भेदै । तथा अघातीया वेदै कर्म च्यार, ए बावीसमों वेद दुवार । ११. तीन संजया कर्म सात आठ उदेरै, तथा वेदनी आऊ वर्जी छह खेरै । सुखमसंपराय पिण छह उदेरै, तथा मोहणी वर्जी पंच बिखेरै ।। १२. जथाख्यात पांच इम होय, तथा नाम गोत उदीरै दोय । तथा अणउदेरचा तूट सोय, तेवीसमो दुवार उदेरणा जोय ।। संजया नी जोड़, ढा०२ ४७५ Jain Education Intemational Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. सामायकपणों छांडी च्यारां में जाय, छेदोप० सुखम० असंयमी थाय । तथा संजमासंजम में जावै, छेदोप० एवं पिण परिहार थावे ।। १४. परिहारपणों छोड़ी पावै दोय, छेदोप० असंयम होय । सुखमसंपराय छांडी सामायक थाय, छेदोप० जथाख्यात असंयम में जाय ।। १५. जथाख्यात छांडी पावै तीन, सुखम० असंयम मोक्ष प्रवीण । तीन संजया सन्नानोसन्नोवउत्ता, आगै नोसन्ना भगवंता॥ १६. च्यार संजया करै आहार, जथाख्यात भजना विचार । दोय संजया जघन भव एक, उतकष्टा आठ विशेष ।। १७. परिहार. सुखम० जथाख्यात, जघन एक भव थात । उतकष्टा तीन विचारो, ए सतावीसमो भव दुवारो ।। १८. पाचूं संजया एक भव आश्री जोय, जघन एक बार आवै सोय । उतकष्टा सामायक प्रतक सौ बार, छेदोप० एक सौ बीस वार विचार ।। १९. परिहार० तीन सुखम० च्यार, जथाख्यात आवै दोय वार । घणां भवां आश्री जघन दोय वार, हिवै पांचं उतकष्टा धार ।। २०. सामायक बोहीतर सौ वेला आवै, छेदोप० नव सौ साठ वेला थावै । परिहार० सुखम. सात नव ख्यात, पांच वार आवे जथाख्यात ।। २१. थित एक जीव आश्री पांचां री, जघन एक समो कही ज्यांरी । सामायक छेदोप० जथाख्यात नी उत्कृष्टी, नव वर्ष ऊणी पूर्व कोड़ पुष्टी ।। २२. गुणतीस वर्ष ऊण कोड़ पूर्व परिहार०, सुखम० अंतरमुहूर्त सार। घणां जीवां आश्री सामायक जथाख्यात, सदा काल रहै साख्यात ।। २३. छेदोप० जघन अढी सौ वर्ष होय, उत्कष्टो पचा लाख कोड़ सागर जोय । जघन देस ऊणो दोय सौ वर्ष परिहार, उत्कष्टो देश ऊणो दोय पूर्व कोड़ सार ।। २४. सुखमसंपराय जघन समो एक, उतकष्टो अंतरमुहूर्त देख । ए घणां जीवां आश्री जाण, गुणतीसमो थित दुवार पिछाण ।। १. पांच संजया जघन आंतरो, अंतरमुहूर्त मात । उतकष्टो देश ऊणो अर्द्धपुद्गल तणों, एक जीव आश्री कहात ॥ २. घणां जीवां आश्री आंतरो, सामायक जथाख्यात रो नाहि । छेदोपस्थापनी नों जघन आंतरो, तेसठ सहंस वर्ष नों त्यांहि ।। ढाल : ३ (देशी धीज कर सीता सती रे लाल) १. आंतरो कह्यो तेसठ सहस वर्ष नों रे, तो पांचमे आरे आंतरो केम रे, सुगण नर । जघन तेसठ सहंस सू ओछो नहीं रे लाल, कोई पूछा करै एम रे, सुगण नर । झीणो ज्ञान जिनराज नों रे लाल ।। (ध्रुपदं) २. ते कह्यो दस खेत्रां आसरी रे, छेदोपस्थापनी चारित नों सोय रे। एक भरत आश्री मत जाणजो रे लाल, ए न्याय धारी लीजो जोय रे ।। ४७६ भगबती जोड़ Jain Education Intemational Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. गुण विण भेख में चारित सुध नहीं पाल्यां विरहो पड़े ४. नामगो सेठ रो रहे पुत्र नहीं रे, रे लाल, सूं रे, चारित हुवै पाल्यां रूड़ी रीत रे । आ जिण मारग नीं रीत रे ॥ दास सूं नामगो मत देख रे 1 ज्यू सुध साधां तूं विरहो मत जाणजो रे लाल, असाधां सूं विरहो विशेष रे ।। ५. उतकष्टो विरहो अठारे कोड़ाको सागर तणों, ए छेदोपस्थापन नों संभाल रे । छह आरा बिचला लीया रे लाल, उतकृष्टो परिहारविसुध इम भाल रे ।। ६. जवन परिहार चौरासी सहंस वर्ष रो रे, सुखम० जघन समो उतकष्टो छ मास रे । पण जीव आधी कह्यो आंतरो रे लाल, ए तीसमो दुवार विमास रे || ७. समुद्घात छह समायक छेदोप० में रे, वेदनी कषाय मारणंती परिहार रे । सुखमसंपराय समुद्घात को नहीं रे लाल, जथाख्यात केवल श्रीकार रे ।। ८. च्यार संजया लोक नें असंख्यात में भाग छै रे, प्यार फर्णे लोक नों भाग असंख्यातमों रे लाल, जथाख्यात एवं तथा सर्व लोक फर्शो सोय रे ॥ ९. च्यार संयम में क्षय उपसम भाव छे रे, जथाख्यात उपसम तथा क्षायक भाव रे । सुनो पॅतीसमों द्वार पित चावरे ॥ सिय अस्थि सिय नत्वि सोय रे । हो तो एक दो तीन जघन थी रे लाल, उतकष्टा न्यारा-न्यारा होय रे ॥ ११. प्रतक सहंस सामायक में छेदोपनी रे, एक समे प्रतक सौ परिहार रे ० जथाख्यात एक सौ बासठ कह्या रे लाल, सुखम० उपसम श्रेणि चोपन खपक एक सौ आठ सार रे ।। १२. पूर्व प्रज्या आश्री समायक तणां रे, जघन उतकष्टा प्रतक सहंस कोड़ रे । जथाख्यात प्रतक कोड़ जाणजो रे लाल, हि वर्तमान पूर्व प्रज्या आसरो रे लाल, १०. पांच पारित प्रतमान प्रज्या आसरी रे जथाख्यात असंख्यात में तथा सर्व लोय रे । और तीन चारित सिय अस्थि सिय नत्थी जोड़ रे || १३. छेदोप जघन उतकष्ट प्रतक सौ कोड़ छे रे, o ० परिहार जपन उत्कष्ट प्रतक हजार रे । सुखमसंपराय प्रतक सौ जाणजो रे लाल, सुणो छतीसमो अल्पाबहुत दुबार रे ॥ १४. सर्व थोड़ा सुखमसंपराय न रे, परिहारविसुध संसेजगुणां जान रे । संजगुण जाख्यात संखेजगुणां छेदोप० नां रे लाल, त्या सूं संखेजगुणां सामायक रा बखाण रे ।। भाद्रवा बिद इग्यारस मंगलवार रे। लाल, मुरधर देश में शहर पीपाड़ रे ।। ॥ इति संजया नीं जोड़ ॥ १५. संवत अठारे गुण्यासीये रे, जोड़ कीधी संजया तभी रे संजया नीं जोड़, ढा० ३ ४७७ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशापुरुर्ष जयाचार्य छोटा कद, छरहरा बदन, छोटे-छोट हाथ-पांव, श्यामवर्ण, दीप्त ललाट, ओजस्वी चेहरा- यह था जयाचार्य का बाहरी व्यक्तित्व । अप्रकंप संकल्प, सुदृढ़ निश्चय, प्रज्ञा के आलोक से आलोकित अंतःकरण, महामनस्वी, कृतज्ञता की प्रतिमूर्ति, इष्ट के प्रति सर्वात्मना समर्पित, स्वयं अनुशासित, अनुशासन के सजग प्रहरी, संघ व्यवस्था में निपुण, प्रबल तर्कबल और मनोबल से संपन्न, सरस्वती के वरदपुत्र, ध्यान के सूक्ष्म रहस्यों के मर्मज्ञ- यह था उनका आंतरिक व्यक्तित्व । तेरापंथ धर्मसंघ के आद्यप्रवर्तक आचार्य भिक्षु के वे अनन्य भक्त और उनके कुशल 'भाष्यकार थे। उनकी ग्रहण-शक्ति और मेघा बहुत प्रबल थी। उन्होंने तेरापंथ की व्यवस्थाओं में परिवर्तन किया और धर्मसंघ को नया रूप देकर उसे दीर्घायु बना दिया। उन्होंने राजस्थानी भाषा में साढ़े तीन लाख श्लोक प्रमाण साहित्य लिखा। साहित्य की अनेक विधाओं में उनकी लेखनी चली। उन्होंने भगवती जैसे महान् आगम ग्रंथ का राजस्थानी भाषा में पद्यमय अनुवाद प्रस्तुत किया। उसमें ५०१ गीतिका हैं। उसका गंथमान है साठ हजार पद्य प्रमाण । ० जन्म-१८६० रोयट (पाली मारवाड़) ० दीक्षा- १८६९ जयपुर ० युवाचार्य पद - १८९४ नाथद्वारा आचार्य पद-१९०८ बीदासर ० ० स्वर्गवास - १९३८ जयपुर Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -मानायूमधायmanावनमार्थवादपायमोजीfanमरामगोयाकिमिकाकीधीएलेगोखमीप्रमुखकरिसीमनोभवनमारसंगम मनाalamकपनाजीस्टीanामायणमयसाजी विमदिनविपिनयिकरिशमीयोकोरीमागगी कीचीगावकयाकयाविशेषणपदमा विमादा " दादाजीमजीवनामध्यरनीदा-सीमापोजीकपीएमजोय विमारे अधकटीजीय यानाकरे2 दिवगतमागालालवानररमादिमाटाजेदवानरव जापानककालारिमादि-माविवस्मोमिनीपोमियोकरायकरसादिकनातागोतानातकदिवाय मर्कटमसकहरममाटोलवतएममुकपनमकमर 3RD नामनायायकरमानवपलनसुकन्याजीऊपनीपूर्जट जोगपुरुषयकपनोजी-राजनरकटेटनसमाधिरदीतए-सपवनयुसरदीaaaनामपितरकारीमा नाकाम eemCents पायनमन-नागनापुरूषणजीएनजीसयरकपनाजीमयचलिमर पासमटीकालकरीकालसरस्नानाध्याएकरसागर यायपजनकमना पीएeaamnnaun कारनामाजीजाशनसीवार सजीaपिलानाजीएमयनंतीवार मेवेनगोलमकर कपणेटमanaaमहावीरजीवागरेकशि शिनाएगी ऊपनवालामातसुकपनाकरियविग Lavaalaatमारवारसदेशकमानमानी बसायममीमानसिकतारीमानकविण्यचीजेदसमयसोयरे वानरऊकटमीमको नेहसमयमेजोयरे नारकनरकटियनी AALIविना दे वीजीवनी एकारणलोयरे किमकहियेनारकपणे निरायवनतसुजोयरे वीरनामागोपन नामधिकार अरमाकविरातिमनसंगारे विचार किलकाशिणसमस्याममा बाजागोन्दालरेकदियतेदनेकपना क्रियानिष्टशकालरेविsaणदीपजवाना जरा मलयात्रीमियकामनाम प दाकिसरमगवंत याकार्यसमय विएसमयम्पनीलेदरमशकालनसमयश्क कियानिटामापरवजनाममय बाबदाई गारमनी-अंतर दिववीकरीनुमेहीलामजी गोरामधासदामा क मानिनवागरे धमाकपनीमेश्याeaaaamनिमsanोसार जीनाममप नामक नागनरामजी-धनाजागनिसदिएविसर्थसमाज नागवा देवावरजोरजेपरवेदना असतानासनविनदी एदवी-बाराकाकर नदनीकाटालान अर्थविन प्रथमतली हितीचमनुष्यलेदविपदमादिमिकायम नेवारीजी नगद नामविधसरकप यकसनवतेज समय गोलायलादिक तेयामयेनारकीनधीपकारण नारकीपाकिमक जनकटदाउपजनदीगो निदानामजन्मविष तमामसनिमित्यवायचिदनादिककरी 3 दिवालिदानियवनको श्रमतगत श्रीमहावीरस्वाभीमकवानसदिकनारकीय Talataniमादिककरिषजीयोनागसणीजनयेप सादिकेसनकारीयोवलिसम्माम्मी कप-जताम्तीनेनरके कपनाजकदिये कियाका निष्टाकानएनिमायनेदधीकपजवाना melanमोना लागणीवर नेह दिवसाची तिकीखनादिक करिसोय कटाकुने नेकपनाकदीजिएससनेमातरमसनों समादी नरकमाननापदिसोममयकपजवानागा मसाजनलोय सफलसेवाविजेदना देवश्वविदितसार पूर्वमिजदिकसुरनिकट कीक्षकमी बटिव एकियाकान- य जसमयकपनीरनिष्टांकालाकियाकासनिष्टाकालनासमयएको दारमनी-दवानामनिधसमस्नेकपनेaana जिनकदेवनागोयमा-अमरकफोत्रानगोय कियाकाल मौजेसमदिनसमयनिष्कासनोमायविककासालेदयकीकपरवाना सदिनविदाथकी नीकलनेदसीलनपजिनक देदवासी शनिको जानकारअन गोय तेदनकपनोंक दिये झोडगा दिवदेष जिम नक्सपिलानसश्सासमातकामजाना विसरमनजीउमजनाएटदोरवारीमलिदिमधीपलयद मनिक्षेकरिया पारावरोष जरदीतपूर्वतीपरे जावयीना कपनवालागास ऊपमान दियपिमान या मामलनिमन्दानगोदिशतिरादिजरीवस्त्रमलिनोविज्ञानगी सुखसुमाईका सयदिनदेसगवतजी करतोयवेलकमहकमोरीयो शीलरहितएसोय पतिमा रीतसमेतपजिनकदवानपजेएनवदेगी एयरामनायाmauष्टिलावू सेवनले विशेषज्यानगोतमविवरनाsaaरम-सुरेश दोयमानगममीयाची मानानकिकाननगमतीजमातादेममयजेटासपस्वस्तिमासवधना शिवीकाऽयाऽमदिनकदिदीवनस्यनिवजायजामनुपनादमकलगवनम्मतिदासदारियाण 14- Pावधनीमानसरुजकत्वदासयनिकरमागरकानयनतमा.जावयानसविनयी सर्वक्षनरदोदयरुनकत्सबदायवेवापाडयानीमसमयकारटाकायचलाय कायनमसाग वीकाशिकलादिग्देवानेशकुरतावरी नायिनी मादिश्मीanमयानादिवियगतिकनिटोक्नसतिश्रमादिर याबीनयनानदा समया गोवियविमूढसारथिवी विधऊपनापूयसनादेश दिलायसमययनादापिकनाजाणवा तीराममयमधर-खुद्दोगसवनीबीकी नियमादिक मादिरसुदामन Halasanacancinयकालकनकरितदरेज गंदवाया म कया दिनलिवियदकरितादिश्वनस्पतिमा यसमयमवमवेशनां सता दया gaumaan अबERSamastisanानमारकर TanianR.पतालsaukaraamana HTRमयसावित autnaksमहिमधारयnamaA RSmalnnar हायसनाचारदिवानांतर सनियमनाकाटार RaindianR-यसम्म कर करganaMEIGAR IRRयाकल्या Raoरीजात्मसमभाममममय माताकामायनी Bamarikanmalaनासंबर witDAR कारयाग कटासागरकोरिटममयम सर्णिली माता कायसागर (Raisionममममममममममयधिक जानकी (55यकराराका सन्म य उन्कर ama मरammaraatmसामन व मास थकीकदिदि-रा/ 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