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________________ एकेन्द्रिय जीवों के कर्म प्रकृति ११. अपज्जत सूक्ष्म मही तणे जी, कर्मप्रकृति किती नाच ? जिन भाख अठ कर्म नीं जी, प्रकृति तास आख्यात || १२. ज्ञानावरणी पर कहा जी यावत ही अंतराव अपज्जत सूक्ष्म मही तणें जी ए अठ कर्म कहाय ।। १३. अपजत्त बादर मही तणें प्रभु ! कर्म प्रकृति किती रुपात ? जिन भाखे गुण गोयमा जी ! एवं वेव आख्यात | १४. इम इण अनुक्रमे करी जी यावत ही पहिछाण । बादर वणस्सइकाय नां जी, पर्याप्ता लग जाण ।। ' १५. अपज्जत्त सूक्ष्म मही प्रभु ! किती कर्म प्रकृति बांधत ? जिन कहै सप्तविध बंधका जी, अविध बंधक हुंत ॥ १६. सात प्रकारे बांधता जी, आयु कर्म विण जेह | सप्त कर्मप्रकृति प्रत जी बांधे पृथ्वी तेह | १७. अष्ट प्रकारे बांधता जी प्रतिपुर्ण पहिचाण । आठ कर्मप्रकृति प्रतै जी, बांध तेह अयाण || १८. अपज्जत सूक्ष्म पृथ्वी प्रभु ! किती कर्म प्रकृति बांधे ? महि सत अठ बंधका जी, इम सगलाइ कहेह || १९. जाव पर्याप्त हे प्रभुजी ! बादर वणस्सइकाय । कर्म प्रकृति बांध केतली जी ? जिन कहै इमज बंधाय ॥ २०. अपजस सूक्ष्म मही प्रभु! किती कर्मप्रकृति वेदंत ? जिन कहै प्रकृति कर्म नीं जी, चउदय वेद त ।। २१. ज्ञानावरणी आदि दे जी, जाव अंतराय पेख श्रोतेंद्रिय वध्य तेहनें जी, ए मति ज्ञानावरणी विशेख || वा. - श्रोतेंद्रिय वध्य ते श्रोतेंद्रिय हणवा योग्य एतले श्रोतेंद्रिय नों आवरण | श्रोतेंद्रिय आवा न दें एहवूं कर्म छं जेहने ते श्रोतेंद्रिय वध्य कहिये ए मतिज्ञानावरण विशेष । २२. चक्षुइंद्रिय वध्य वली जी, जेह कर्म नैं प्रताप । चक्षु आवा दे नहीं, ए चक्षुदर्शणावरण स्थाप ॥ २३. इम घ्राणेंद्रिय वध्य वली जी, जिभ्येंद्रिय वध्य तास । अचक्षुवर्णण तणों जी, आवरण एह विमास ॥ - १. अंगसुतणि भाग २ शतक ३३ के सूत्र ६, ८, १० और ११ की जोड़ नहीं है । संभवतः जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में उक्त पाठ नहीं था । १४ वीं गाथा में वें ८ सूत्र के अन्तिम भाग की जोड़ है । १० और ११ वें सूत्र में पज्जत सूक्ष्म पृथ्वी यावत् पज्जत्त बादर वनस्पतिकाय के जीवों के होने वाली कर्मप्रकृति का उल्लेख है। जोड़ में पुनः अपज्जत्त पृथ्वी यावत् पाठ की जोड़ है। इसलिए १८ वीं और १९ वीं गाथा के सामने पाठ नहीं दिया गया । ३४६ भगवती जोड़ Jain Education International ११. कति कम्म पगडीओ पण्णत्ताओ ? गोमा अटु कम्मपगडीओ पाओ तं जहा १२. नाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं । (श. ३३१५) १३. अपज्जत्ताबादरपुढविक्काइयाणं भंते ! प्पगडीओ पण्णत्ताओ ? एवं चेव । १४. एवं एएणं कमेणं जाव बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ति । १५. पायाभ ! कति कम्म पगडीओ बंधति ? गोपमा ! विधान १६ सत्त बंधमाणा आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ बंध ति, कति कम्म(३३२७) 1 १७. अट्ठ बधमाणा पडिपुण्णाओ अट्ट कम्मप्पगडीओ बंधंति । (श. ३३।९ ) For Private & Personal Use Only २०. अपत्ताविवाइया भंते! कति कम्म पगडीओ वेदेंति ? गोयमा ! चोइस कम्मप्पगडीओ वेदेति तं जहा२१. नाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं, सोइंदियवज्भं, २२. चक्खिदिवज्भं, २२. पाणिनिि वा० - 'सोइंदियवज्भं' ति श्रोत्रेन्द्रिय वध्यं - हननीयं यस्य तत्तथा मतिज्ञानावरणविशेष इत्यर्थः, ( ( वृ. प. ९५४ ) www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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