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यदोत्पत्तिर्भवति तदाऽनुश्रेण्या गत्वा तृतीयसमये उत्पद्यत इति,
(बृ. प. ९६०)
४०. जे भविए विसेदि उववज्जित्तए, से णं चउसमइएणं
विग्गहेणं उववज्जेज्जा। ४१. से तेणठेणं जाव उववज्जेज्जा।
३७. एक समय करि जेह, पेठो नाड़ी ने विषे ।
बीजा समय विषेह, ऊंचो गयो तठा पछै ।। ३८. एक प्रतर में तेह, जे पूर्व दिशि नै विषे ।
अथवा पश्चिम विषेह, तसु ऊपजवू कै यदा।। ३९. तब करिनै अनुश्रेण, तृतीय समय जइ ऊपजै ।
इह विधि त्रिण समयेण, विग्रह करिने ऊपजै॥ ४०. *जे भविक विणि उपजवा जी, च्यार समय नै तेह ।
विग्रह करिने ऊपजै जी, तिण अर्थे वच एह ॥ ४१. तिण अर्थे करि गोयमा ! जी, यावत उपजे तेह ।
विग्रह च्यार समय तणी जी, भाखी इम सूत्रेह ।।
वा०-जे अधोलोक त्रस नाडि थी बाहिर मरी ऊर्द्धलोक त्रस नाडि बाहिर विश्रेणि ते विदिशि में ऊपज ते च्यार समय की विग्रह गति जाणवी । अत्र वृत्तिकार का -- जे भविक जिवारै नाडि थी बाहिर वायव्यादि दिशि नै विषे मूओ तिवारै एक समये करी पश्चिम दिशि नै विषे तथा उत्तर दिशि ने विषे गयो, बीजे समये नाडि नै विषे पेठो, त्रीजे समये ऊंचो गयो, चउथे समये अनुश्रेणि जाई ने पूर्व दिशि मे ऊपज । इहां वृत्ति में चउथे समये अनुश्रेणि ऊपज, इम कां । अने सूत्रे चउथे समये विश्रेणि ऊपजवू कां । इण न्याय ए वृत्ति नी वारता किम मिल ?
इहां कोई पूछ- जो सप्तम पृथ्वी विदिशि नै विषे मरी ब्रह्मलोके विदिशि ने विषे ऊपजे ते पंच समय नी गति करिक ऊपजै। ते पंच समय नी विग्रह गति किम न कही ? इति प्रश्न । एहनों उत्तर-उत्पात नां अभाव थकी सूत्रे पंच समया न कह्या, एहवू न्याय दीस छ। बलि कोई अनेरो न्याय हुसी तो ते पिण बहुश्रत जाणे । जो पंच समय नी विग्रह गति स्थाप तो बिचला तीन समय अनाहारक हुवे।
अने पन्नवणा पद १८ में छद्यस्थ जीव उत्कृष्ट बे समय अनाहारक कह्या । बे समय अनाहारक तो च्यार समय नी विग्रह गति नै विषे बिचले बे समय हवै । ते मार्ट पंच समय नी विग्रह गति किम मिल ? अनै तीन समय अनाहारक पिण किम हुवै ? अथवा तीन समय नी विग्रह गति नै विषे तीजे समय ऊपज । तिहां प्रथम, द्वितीय, समय अनाहारक हुदै । तीजे समय आहारक हुदै । इम अनाहारकपणं उत्कृष्ट बे समय रहै। ४२. इम पज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वीपणे जी, एवं यावत ताय ।
पज्जत्त सूक्ष्म तेऊपणे जी, ऊपजवू कहिवाय ।। ४३. अपज्जत्त सूक्ष्म मही प्रभुजी ! अधोलोक रै मांहि ।
इत्यादिक यावत तिको जी, समुद्घात करि ताहि ॥ ४४. समयक्षेत्र नै विषे जिको जी, अपज्जत्त बादर जाण ।
तेऊकायपण तिको जी, ऊपजवा योग्य माण ।। ४५. हे प्रभुजी ! ते जीवड़ो जी, किता समय नैं जाण ।
विग्रह करिने ऊपजै जी? हिव भाखै जगभाण ।। ४६. दोय समय विग्रह करी जी, तथा तीन समयेह ।
विग्रह करिने ऊपज जी, किण अर्थे प्रभु ! तेह ? *लय : धीरज जीव घर नहीं रे
वा०-'चउसमइएण व' त्ति यदा नाड्या बहिर्वायव्यादिविदिशि मृतस्तदैकेन समयेन पश्चिमायामुत्तरस्यां वा गतो द्वितीयेन नाड्या प्रविष्टस्तृतीये ऊध्वं गतश्चतुर्थेऽनुश्रेण्यां गत्वा पूर्वादिदिश्युत्पद्यत इति, इदं च प्रायोवृत्तिमङ्गीकृत्योक्तं, अन्यथा पञ्चसामयिक्यपि गतिः सम्भवति, यदाऽधोलोककोणादूर्वलोककोण एवोत्पत्तव्यं भवतीति, भवन्ति चात्र गाथाः'सुत्त चउसमयाओ नत्यि गई उ परा विणिहिट्ठा । जुज्जइ य पंचसमया जीवस्स इमा गई लोए ॥१॥ जो तमतमविदिसाए समोहओ बंभलोगविदिसाए । उववज्जइ गईए सो नियमा पंचसमयाए ॥२॥'
(व. प. ९६०, ९६१)
छउमत्थअणाहारए णं भंते ! छउमत्थअणाहारए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा ! जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो समया।
(पण्णवणा १८९८)
४२. एवं पज्जत्तासुहुमपुढविकाइयत्ताए वि, एवं जाव
पज्जत्तासुहुमतेउकाइयत्ताए। (श. ३४।१५) ४३. अपज्जत्तासुहमपुढविक्काइए णं भंते ! अहेलोग जाव
(स.पा.) समोहणित्ता ४४. जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्ताबादरतेउकाइयत्ताए
उववज्जित्तए, ४५. से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ?
गोयमा ! ४६. दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उबवज्जेज्जा ।
(श. ३४।१६) से केणठेणं?
श० ३४, उ०१, ढा०४८६ ३६९
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