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प्रकरण को भी छोड़ा नहीं। इसी कारण उक्त प्रकरणों की दोहरी जोड़ें हो गईं। भगवती से सम्बन्धित होने के कारण पूर्व रचित जोड़ को प्रस्तुत ग्रन्थ के परिशिष्ट में दिया गया है।
निर्ग्रन्थों और श्रमणों के प्रकारों का विवेचन होने के बाद ४६१ से ४६७ तक सात ढालों में प्रतिसेवना, आलोचना के दोष, आलोचक एवं आलोचनादायक की अर्हता, सामाचारी, प्रायश्चित्त और बारह प्रकार के तप का वर्णन है। ४६८ वीं ढाल में नैरयिक आदि २४ दण्डकों तथा भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के पुनर्भव सम्बन्धी संक्षिप्त विवरण के साथ २५वें शतक का सातवां उद्देशक पूरा होता है।
भगवती का २६ वां शतक बन्धी शतक के नाम से प्रसिद्ध है। प्रस्तुत शतक में जीव के पापकर्म-बन्ध की चर्चा अतीत, वर्तमान और भविष्य काल के आधार पर की गई है। इस चर्चा को लेश्या, पाक्षिक, दृष्टि, अज्ञान, ज्ञान, संज्ञा, वेद, कषाय, उपयोग और योग के सन्दर्भ में विस्तार के साथ प्रस्तुति दी गई है। यह विवरण ४६९वीं ढाल में आ जाता है। ४७० ढाल में २४ दण्डकों के बन्ध-अबन्ध की संक्षिप्त चर्चा को यन्त्रों के द्वारा विस्तार से समझाया गया है। ४७१ और ४७२ वीं ढाल में भी इसी प्रसंग को अन्य संदर्भो में चचित किया गया है।
भगवती के २७ वें शतक में केवल दो सूत्र हैं और २८ वें शतक में आठ सूत्र हैं। जयाचार्य ने इन दोनों शतकों का गुम्फन एक ढाल में कर दिया । मुद्रण की सुविधा के लिए इसका सम्पादन करते समय इस ढाल को दो भागों में बांट दिया। ढाल ४७३ (क) में २७ ३ शतक की १७ गाथाएं हैं और ढाल ४७३ (ख) में २८वें शतक की ५८ गाथाएं हैं । दोनों शतकों को एक साथ रखकर ढाल की संख्या एक भी रखी जा सकती थी, जैसा कि आगे के कुछ शतकों में किया गया है। इसका २९वां शतक ढाल संख्या ४७४ में गुम्फित है। इन तीनों शतकों में भी पापकर्म से सम्बन्धित विवेचन है।
भगवती के तीसवें शतक में क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी इन चार समवसरणों को २४ दंडकों के सन्दर्भ में व्याख्यात किया गया है। ११ उद्देशकों में संदृब्ध इस शतक की जोड़ छह ढालों में है। समुच्चय जीव और २४ दंडकों में निरूपित समवसरणों को यन्त्रों के द्वारा और अधिक स्पष्टता से आलेखित किया गया है। जोड़ और यन्त्रों को तुलनात्मक दृष्टि से पढने पर शतक की विषयवस्तु अच्छी तरह समझ में आ जाती है।
भगवती के ३१वें एक ३२वें शतक में चार प्रकार के क्षुल्लक युग्म कृतयुग्म, व्योज, द्वापर युग्म और कलियोग का वर्णन है। ३१वें शतक को २८ उद्देशक हैं, पर इनका वर्णन इतना संक्षिप्त है कि इन्हें मात्र दो ढालों में समेट लिया गया। दो उद्देशकों वाला ३२वां शतक १७ गाथाओं की एक छोटी-सी ढाल में सिमटा हुआ है । इन दोनों शतकों में एक प्रकार से गणित के आधार पर युग्मों का निर्धारण किया गया है । ३३वें शतक में एकेन्द्रिय जीवों का अनेक विवक्षाओं के साथ वर्णन है। इस शतक में अवान्तर शतकों की भी व्यवस्था है।
३४वें शतक में एकेन्द्रिय जीवों की विग्रहगति के सन्दर्भ में प्रश्न उपस्थित कर उनकी सात प्रकार की विग्रह गति बताई गई है-ऋजुआयत, एगओवंका, दुहओवंका, एगओ खहा, दुहओ खहा, चक्रवाल और अर्ध चक्रवाल। रेखांकन के द्वारा उक्त सातों प्रकार की विग्रहगति को स्पष्टता से समझाया गया है। १२ अवान्तर शतकों वाला प्रस्तुत शतक ६ ढालों में पूरा होता है। इसमें एकेन्द्रिय जीवों का अनेक दृष्टियों से विवेचन किया गया है।
३५वें से ४०वें शतक तक छह शतकों में महायुग्मों के सन्दर्भ में एकेन्द्रिय से लेकर सन्नी पंचेन्द्रिय तक के जीवों का वर्णन है। प्रथम पांच शतकों में प्रत्येक शतक में बारह-बारह अवान्तर शतक हैं। छठे शतक में २१ अवान्तर शतक हैं। कुल मिलाकर अवान्तर शतकों की संख्या ८१ होती है। ढाल संख्या ४९१ और ४९२ में ३५वां शतक है। ३६वां शतक ४९३ वीं ढाल में समाहित है। ३५ से ४० तक चार शतकों की जोड़ ४९४ और ४९५ वीं ढाल में है।
भगवती का ४१वां शतक पूर्ववर्ती शतकों की विषयवस्तु से ही सम्बन्धित है। इसमें क्षुल्लक युग्म और महायुग्म के स्थान पर राशियुग्म की विवक्षा की गई है। राशियुग्म कृतयुग्मज आदि के सन्दर्भ में २४ दंडकों के उपपात आदि की प्ररूपणा की गई है। ढाल संख्या ४९६ से ४९८ तक तीन ढालों में प्रस्तुत शतक के १९६ उद्देशकों की विषय वस्तु को संदृब्ध किया गया है। ढाल संख्या ४९९ का सम्बन्ध भी इसी शतक से है, फिर भी उसे समग्र ग्रन्थ का उपसंहार माना जा सकता है।
'भगवती जोड़' की ५००वी ढाल में भगवती सूत्र का स्वरूप वर्णित है। यह वर्णन जिस सूत्र पाठ के आधार पर किया है, वह किसी शतक का हिस्सा नहीं है । ४१वें शतक की सम्पूर्ति के बाद दिए गए परिशिष्ट पाठ में सूत्र संख्या नहीं है । इस विलक्षणता के आधार पर एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आगमों की विभिन्न वाचनाओं के समय आवश्यकता समझकर भगवती के स्वरूप का निर्धारण किया गया है । यह कार्य कब हुआ? और किसने किया? अन्वेषण का विषय है। इसी प्रकार आगमपुरुष की परिकल्पना में जयाचार्य ने जो बार्तिक लिखा है, वह और संघस्तुति का प्रसंग भी उत्तरकालीन प्रतीत होता है।
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