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सम्पादकीय
जैन आगमों में आकार में सबसे बड़ा और प्रकार में तत्त्वविद्या और दर्शन का विशाल ग्रन्थ है भगवती। भगवती सूत्र का मूल नाम विआहपण्णत्ती-व्याख्याप्रज्ञप्ति रहा है। इसके वैशिष्टय को सूचित करने के लिए विशेषण के रूप में इसके साथ भगवती शब्द प्रयुक्त हुआ। ऐसा प्रयोग समवायांग [८४।११] में उपलब्ध है। कालान्तर में विआहपण्णत्ती शब्द का प्रयोग कम हुआ और भगवती शब्द अधिक प्रचलित हो गया। यह द्वादशांगी में पांचवा अंग है। इसमें महावीर-वाणी का संकलन है । वर्तमान में उपलब्ध आगमों का आधार पांचवें गणधर आर्य सुधर्मा द्वारा संकलित द्वादशांगी को माना जाता है। भगवती के आकार के बारे में अनेक परम्पराएं हैं। ये परम्पराएं विभिन्न कालखण्डों में प्रचलित हुई, इस दृष्टि से भगवती का निश्चित ग्रन्थमान बताना कठिन है। संक्षिप्त और बिस्तृत पाठ तथा प्राचीन एवं अर्वाचीन आदर्शों के कारण यह अन्तर रहा है। इसे सापेक्ष दृष्टि से ही समझा जा सकता है।
भगवती सूत्र के व्याख्या ग्रन्थों में नियुक्ति, चूणि और वृत्ति का उल्लेख मिलता है। वर्तमान में इसकी कोई नियुक्ति उपलब्ध नहीं है। चूणि मिलती है, पर वह मुद्रित नहीं है । इसके बृत्तिकार अभयदेव सूरि हैं। उन्होंने अपनी वृत्ति में मूल टीका और चूर्णिकार का अनेक बार उल्लेख किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अभयदेव सूरि के सामने कोई दूसरी टीका थी, जो वर्तमान में अनुपलब्ध है । चूणि और वृत्ति के बाद भगवती पर कोई विशद व्याख्या लिखी गई है तो वह है राजस्थानी पद्यों में उसका भाष्य । 'भगवती जोड़' के नाम से प्रसिद्ध उस भाष्य के रचनाकार हैं तेरापन्थ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य । जयाचार्य ने अपने भाष्य में वृत्ति का खुलकर उपयोग किया है । वृत्ति के साथ उन्होंने अन्य आगमों, ग्रन्थों तथा धर्मसी के यन्त्र का भी यत्र तत्र उपयोग किया है । अनेक स्थलों पर उन्होंने अपनी ओर से ग्रन्थ की विस्तृत समीक्षाएं की हैं और कुछ सन्दों में वृत्तिकार के अभिमत की आलोचना भी की है। कुल मिलाकर यह स्वीकार किया जा सकता है कि 'भगवती जोड़' में जयाचार्य के ज्ञान और अनुभवों की प्रौढता, स्वाध्यायी मनोवृत्ति, विलक्षण स्मृति और मौलिक सूझबूझ का पूरा उपयोग हुआ है। इस ग्रन्थ को राजस्थानी वाङ्मय का अद्वितीय ग्रन्थ माना जा सकता है।
जयाचार्य के परिनिर्वाण की शताब्दी को निमित्त बनाकर जय-साहित्य के प्रकाशन की योजना बनी। उस योजना के तहत वि. स. २०३८ [ईस्वी सन् १९८१] में 'भगवती जोड़' का प्रथम खण्ड प्रकाशित होकर आया। प्रस्तुत ग्रन्थ जोड़ का सातवां या अन्तिम खण्ड है । प्रथम छह खण्डों में भगवती के चौबीस शतकों की जोड़ प्रकाशित हुई। सातवें खण्ड में अवशेष २५ से ४१ तक कुल १७ शतकों का समावेश है । इनमें कुछ शतक बड़े हैं तो कुछ शतक बहुत छोटे हैं। कुछ शतकों में अन्तर शतक भी हैं। कई शतकों एवं अन्तर शतकों का वर्णन अति संक्षिप्त है। इन शतकों में कुछ शतकों की विषयवस्तु साधना और तत्त्वज्ञान दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है, वहां कुछ शतक गणितीय आंकड़ों की भाषा में निबद्ध हैं। प्रत्येक शतक की विषय वस्तु का सारसंक्षेप यहां दिया जा रहा है।
भगवती के २५वें शतक में बारह उद्देशक हैं । लेश्या, द्रव्य, संस्थान, कृतयुग्म आदि, पर्यव, निर्ग्रन्थ, श्रमण, ओघ, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि-इन बारह उद्देशकों की व्याख्या ४३३ से ४६८ तक ३६ ढालों में गुम्फित की गई है।
इस शतक की जोड़ में कहीं अत्यन्त संक्षिप्त विवरण दिया गया है तो कुछ विषयों को पूरे विस्तार के साथ विवेचित किया गया है। उनमें छठे और सातवें उद्देशक की विषय वस्तु विस्तृत होने पर भी रोचक और उपयोगी है। छह प्रकार के निर्ग्रन्थों और
च प्रकार के श्रमणों-संयतों का वर्णन सहज रूप में बहुत हृदयग्राही है। तात्त्विक विवेचन को भी इतनी आकर्षक प्रस्तुति दी गई है कि पाठक की जिज्ञासा बढ़ती रहती है। ढाल संख्या ४४४ से ४५२ तक नौ ढालों में निर्ग्रन्थ का विवेचन है। ढाल संख्या ४५३ से ४६० तक आठ ढालों में श्रमणों का विवेचन है। निर्ग्रन्थ और श्रमण के लिए लोकभाषा में नियंठा और संजया शब्द अधिक प्रचलित हैं। इसका कारण है छठे और सातवें उद्देशकों की विषय वस्तु के आधार पर दो स्वतन्त्र थोकड़ों का निर्माण । नियंठा और संजया नाम से प्रसिद्ध इन थोकड़ों को अनेक साधु-साध्वियां और श्रावक-श्राविकाएं कंठस्थ करते रहे हैं । जयाचार्य ने 'भगवती जोड़' की रचना करने से बहुत पहले नियंठा और संजया की जोड़ें लिखी थीं। संभवतः उस समय उनके सामने समग्र भगवती की जोड़ लिखने का लक्ष्य नहीं था। अन्य आगमों की जोड़ रचते-रचते भगवती जैसे विशालकाय आगम पर ध्यान केन्द्रित हुआ हो। उस समय तक जोड़ की रचना शैली काफी परिष्कृत हो चुकी थी। शैलीगत द्विरूपता से बचने के लिए उन्होंने नियंठा और संजया वाले
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