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चंदपन्नत्ती उपंग डावी साथल । श्री उपासगदशा अंग, सूरपन्नत्ती उपंग जीमणो कटि प्रदेश श्री अंतगड अंग, निरावलिया उपंग डावो कटि प्रदेश | श्री अनुत्तरोववाई अंग, कप्पवडिसिया उपंग जीमणी भुजा । श्री प्रश्नव्याकरण अंग, पुष्फिया उपंग डावी भुजा । श्री विपाक अंग, पुप्फचूलिया उपंग कंठ नैं स्थानक छ । श्री दृष्टिवाद अंग, वण्हिदशा उपंग मस्तक ने स्थानक छँ । संघ की स्तुति
सार ।
१६. तप बारे भेदे कह्यो का नियम अभिग्रह अभ्युत्थानज आदि दे कांइ, प्रवर विनय अवधार ।। १७. पूर्व भाख्या एतला, ते संघ-समुद्र नीं वेल । जल वृद्धि अर्थ एहनों कांइ, एह अनोपम खेल १८. विजयंत जे सर्वदा कांड, ज्ञान रूपियो
||
जेह |
विमल विस्तीर्ण उदक छे कांइ, संघ-समुद्र विषेह || १९. हेतु कहितां अर्थ ने कांड, साधण अर्थे बहु कारण नां शततिके कांइ, वेग कल्लोलज २०. एहवो श्री संघ रूपियो कांइ, समुद्र अधिक रसाल । गांभीर्यादिक गुण करी कांइ, विस्तीरण सुविशाल ॥
वा० - तत्रनियमविणयवेलो-तप, नियम, विनय हीज वेल जल वायु वृद्धि अवसर नै विषे प्रवृत्ति नां सरीखापणां थकी ते तथा । जयति सया णाणविमलविपुलजलो जीतवा योग्य जीपवै करीन विशेष जय पामै सदाकाल ज्ञान ईज विमल ने निर्मल विपुल ते विस्तीर्ण जल छै जे संघ-समुद्र नैं तिण प्रकार करिकै सेनामा पापणां की तथा हेतुविपुलवेगो-हेतु नो सैकडों इष्ट अर्थ साधन नैं विषे अनैं अनिष्ट अर्थ निराकरण नै विषे लिंग ते चिह्न सैकडां तिके ही विपुल ते मोटो वेग ते कल्लोल आवर्त्तादिक पाणी जे संघ-समुद्र नैं वांछित अर्थ जे प्रश्न तेहनां साधन सरीषापणां थकी ते संघ-समुद्र | संघसमुद्दोगुण विसालो - संघ समुद्र ते जिन वचन रूप समुद्र गंभीरपणां नां सरीषापणां थकी अथवा साधर्म्यपण साख्यात ईज कहै छै-गंभीरपणांदिक गुणे करी विशाल विस्तीर्ण थकी ते गुण नां बहुलपणां थकी जे ते संघ-समुद्र इति गाथार्थः ।
२१. विरति आदि जे गुण अछे कांइ, संघ अव्रत आज्ञा बाहिरे कांड संघ न २२. एह भगवती अर्थ धी कांइ, पंचम
समाप्त ।
ढाल पांचसयमी कही कोई आख्या वच ए आप्त ॥
४५६ भगवती जोड़
भूर । पूर ।।
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कहीजे
कहिये
अंग
तास ।
।
जास ||
१६,१७. तवनियमविणयवेलो,
१८. जयति सदा नागमो
१९. हेतुसत विपुल वेगो,
२०. संघसमुद्दो गुणविसालो ||२||
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वा०-- 'तवे' त्यादि गाथा, तपोनियमविनया एव देला जलवृत्तिरवसरवुद्धिसाधर्म्यादिस्य तथा 'जयति' जेतव्यजयेन विजयते 'सदा' सर्वदा ज्ञानमेव विमलं निर्मलं विपुलं विस्तीर्णं जलं यस्य स तथा अस्तित्वसाधर्म्यात्स तथा हेतुमतानि इष्टानिष्टायेंसाधननिराकरणयोतितानि तान्देव विपुलोमहान् वेग :- कल्लोलावर्त्तादिरयो यस्य विवक्षितार्थक्षेपसाधनसाधर्म्यास तथा संघसमुद्र' जनप्रवचनदधिभात्, अथवा साधर्म्य साक्षादेवाहगुणैः गाम्भीर्यादिभिविशालोविस्तीर्णस्तद्बहुत्वाद्यः स तथेति गाथार्थः । (. प. ९७९)
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