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२६. जिन भाखै स्व स्थान ने, अंतर आश्रयी इष्ट ।
जघन्य थकी इक समय छै, काल असंख उत्कृष्ट ।।
वा०-स्व स्थान ते आपणे स्थाने परमाणु परमाणु नै भावईज तेहनै विषे वर्त्तता थका नै जे अंतर चलन नै व्यवधान निश्चलत्व भवन लक्षण ते स्व स्थान अंतर कहिय । ते आश्रयी नै जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यातो काल । एतल चलित परमाणु छै ते अचलित थई ते अचलितपणे एक समय रही वली चलित हवं, ते जघन्य एक समय अंतर निश्चलपणों जघन्य काल लक्षण जाणवू । अनैं चलित परमाणु छ ते अचलित थई ते अचलितपणे असंख्यातो काल रहीन फेर कंपै--ए उत्कृष्ट असंख्याता काल नों अंतर इहां निश्चलपणों उत्कृष्ट काल लक्षण।
२६. गोयमा ! सट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णणं एक्कं समयं,
उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं ।। ___ वा. -'सट्ठाणंतरं पडुच्च' त्ति स्वस्थानंपरमाणोः परमाणुभाव एव तत्र वर्तमानस्य यदन्तरं ....चलनस्य व्यवधान निश्चलत्वभवनलक्षणं तत्स्वस्थानान्तरं तत्प्रतीत्य 'जहन्नेणं एककं समयं' ति निश्चलताजघन्यकाललक्षणं 'उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं' ति निश्चलताया एवोत्कृष्टकाललक्षणं, तत्र जघन्यतोऽन्तरं परमाणुरेक समयं चलनादुपरम्य पुनश्चलतीत्येवं, उत्कर्षतश्च स एवासङ्ख्य यं कालं क्वचित्स्थिरो भूत्वा पुनश्चलतीत्येवं दृश्यमिति,
(वृ. प. ८८६) २७. परट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं।
(श. २५।२०३) वा.---'परट्ठाणंतरं पडुच्च' त्ति परमाणोर्यत्परस्थाने-द्वषणुकादावन्तर्भूतस्यान्तरं चलनव्यवधानं तत्परस्थानान्तरं तत्प्रतीत्येति 'जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं' ति, परमाणपुद्गलो हि भ्रमन् द्विप्रदेशादिकं स्कन्धमनुप्रविश्य जघन्यतस्तेन सहेकं समयं स्थित्वा पुनर्धाम्यति ।
(वृ. प. ८८६)
२७. पर स्थानक नै आश्रयी, जघन्य समय इक जाण ।
उत्कृष्ट काल असंख ही, तास न्याय इम माण ।।
वा०--परमाणु जे पर स्थाने बे प्रदेशिकादिक नै विषे अंतरभूत ने अंतर चलन नै व्यवधान ते पर स्थान अंतर । ते आश्रयी जघन्य एक समय, उत्कृष्टो असंख्यातो काल । ते परमाणु पुद्गल भमतो द्विप्रदेशिकादिक खंध माहै प्रवेश करीनै जघन्य थकी ते खंध संघाते एक समय अचलित रही नै बली चल--- परमाणु हुवे । ए जघन्य एक समय खंध नै विषे एक समय अकंपपर्ण रह्यो ते जघन्य काल । अनै वलि उत्कृष्ट असंख्यातो काल ते जे परमाणु द्वि प्रदेशिकादिक खंध माहै पंसी नै ते संघाते असंख्यातो काल अचलित रही नै वली भ्रमण कर ...... परमाणु हुवे। ए खंध नै विषे निश्चलपण असंख्यातो काल रह्यो ते उत्कृष्ट अंतर। २८. जे परमाण निरेज नै, अंतर केतलो काल?
अचलित नै कितो अंतरो? दाखै ताम दयाल ।। . २९. स्व स्थान अंतर आश्रयी, जघन्य समय इक माग ।
उत्कृष्ट आवलिका तणों, असंख्यातमों भाग ।।
वा. निरेज परमाणु स्व स्थान अंतर आश्रयी जघन्य एक समय ते परमाणु परमाणुभाव नै विषे ईज वर्त्ततो पिण द्विप्रदेशियादिक नै विषे मिल्यो नथी। ए परमाणु निश्चल छतो चलित थई एक समय चलितपणे रही वलि निश्चल हुदै, स्थिर हुवै ए जघन्य थकी एक समय अनै उत्कृष्ट आवलिका नों असंख्यातमों भाग। ते निश्चल छतो परमाणु चलित हुवै ते आवलिका नों असंख्यातमों भाग ताई चलितपणे रही वलि निश्चल हुवे, ए उत्कृष्ट काल । ३०. पर स्थानांतर आश्रयी, जघन्य समय इक जोय ।
उत्कृष्ट काल असंख ही, न्याय पूर्ववत होय ।।
वा० - पर स्थानांतर आश्रयी जघन्य एक समय ते निश्चल छतो ते स्थानक थकी चलित द्विप्रदेशादिक स्कंध नै विषे एक समय रही वली निश्चल ईज रहै परमाणुपणे । उत्कृष्ट असंख्याता काल नों अंतर ते निश्चल छतो परमाणु ते स्थानक थकी द्विप्रदेशादिक खंध नैं विष असंख्यातो काल रही जुदो थई परमाणुपण वली निश्चल रहै, इम असंख्यातो काल जाणवो।
२८. निरेयस्स केवतियं कालं अंतरं होइ ?
गोयमा ! २९. सट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णणं एक्कं समय, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं ।
वा.-'निरेयस्से' त्यादि, निश्चल: सन् जघन्यत: समयमेकं परिभ्रम्य पुननिश्चल स्तिष्ठति, उत्कर्षतस्तु निश्चल: सन्नावलिकाया असंख्येयं भाग चलनोत्कृष्टकालरूपं परिभ्रम्य पुननिश्चल एव भवतीति स्वस्थानान्तरमुक्त, . (वृ. प. ८८६,८८७)
३०. परट्ठाणतरं पडुच्च जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज काल।
(श. २५/२०४) वा. --परस्थानान्तरं तु निश्चल सन् ततः स्वस्थानाच्चलितो जघन्यतो द्विप्रदेशादौ स्कन्धे एक समयं स्थित्वा पुननिश्चल एव तिष्ठति, उत्कर्षतस्त्वसङ्खयं यं कालं तेन सह स्थित्वा पृथग् भूत्वा पुनस्तिष्ठति ।
(वृ. प. ८८७)
श० २५, उ० ४, ढा० ४४२ ८५
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