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४३. पुव्वपडिवण्णए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नत्थि ।
जइ अत्थि जहण्णणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा,
उक्कोसेणं सयपुहुत्त । (श. २५१४४९) ४४. सिणायाणं-पुच्छा।
गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिय
नत्थि । जइ अस्थि ४५. जहण्णे णं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं
अट्ठसतं ।
४३. पर्वप्रतिपन्न आश्रयी जोय, कदा हवै कदाच न होय । जो है तो जघन्य इक बे त्रिण जानी,
उत्कृष्ट पृथक सय मानी ।। ४४. स्नातक पूछयां कहै जिनदेव,
पड़िवज्जता थका आश्रयी भेव । जो कदाच हुवै कदाच न होय, जो है तो इतरा जोय ।। ४५. जघन्य एक दोय तीन सुवट, उत्कृष्ट एक सौ अठ। ए क्षायिक श्रेणि तणां मुनि जाण,
इक समय लहै केवलनाण ।। ४६. पूर्वप्रतिपन्न आश्रयी जोड़, जघन्य थकी पृथक कोड़।
होय उत्कृष्टा पिण पृथक कोड़, केवलनाणी जोड़ ।। निर्ग्रन्थों में अल्पवहुत्व ४७. हे प्रभु ! एह पुलाक नैं पेख, बकुश नैं फुन लेख ।
प्रतिसेवनाकुशील ने फेर, कषायकुशील सुमेर ।। ४८. निग्रंथ नै स्नातक ने निहाल, कुण-कुण थी सुविशाल ।
अल्प तथा बहु अथवा तुल्य, तथा विशेष अधिक अमूल्य ? ४९. श्री जिन भाखै सर्व थी थोड़ा, निग्रंथ मुनि नां जोड़ा ।
निग्रंथ उत्कृष्ट थी अवलोय, पृथक सत मुनि होय ।।
४६. पुव्वपडिवण्णए पडुच्च जहणणं कोडिपुहत्तं, उक्को
सेण वि कोडिपुहत्तं । (श. २५५४५०)
५०. तेहथी पुलाक संख्यातगुणां छै,
___ अंतर्मुहूर्त में इतरा कह्या छ । उत्कृष्ट थकी पृथक हजार, लब्धि फोड़वता धार ।। ५१. तेहथी स्नातक संख्यातगुणां छै, ए केवलज्ञानी थुण्या छ ।
उत्कृष्ट पृथक कोड़ उदार, स्नातक नियंठे सार ।।
४७. एएसि णं भंते ! पुलाग-बउस-पडिसेवणाकुसील
कसायकुसील४८. नियंठ-सिणायाण कयरे कयरेहितो अप्पा वा ?
बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? ४९. गोयमा! सब्वत्थोवा नियंठा,
'सव्वत्थोवा नियंठ' त्ति तेषामुत्कर्षतोऽपि शतपृथक्त्वसङ्खयत्वात्,
(व. प ९०८) ५०. पुलागा संखेज्जगुणा, __'पुलागा संखेज्जगुण' त्ति तेषामुत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वसङ्ख्यत्वात्,
(व. प. ९०८) ५१. सिणाया संखेज्जगुणा,
'सिणाया संखेज्जगुण' त्ति तेषामुत्कर्षतः कोटीपृथक्त्वमानत्वात्,
(वृ. प. ९०८) ५२. बउसा संखेज्जगुणा
'बउसा संखेज्जगुण' त्ति तेषामुत्कर्षत: कोटीशत
पृथक्त्वमानत्वात्, (वृ. प. ९०८,९०९) ५३. पडिसेवणाकुसीला संखेज्जगुणा,
५२. बकुश तेहथी संख्यातगुणा छै, ए मुनि इतरा कह्या छ ।
जघन्य उत्कृष्ट पृथक सौ कोड़, ए छठे गुणठाणे जोड़ ।।
५३. तेह थकी प्रतिसेवना ताय, संखेजगुणा कहिवाय । प्रतिसेवणाकुशील पिण इष्ट,
पृथक सौ कोड़ जघन्य उत्कृष्ट ।।
सोरठा ५४. कह्यो इहां वृत्तिकार, प्रतिसेवनाकशील जे।
उत्कृष्टा अवधार, पृथक शत कोड़ज कह्या ।। ५५. बकुश पिण उत्कृष्ट, पृथक कोड़ शत आखिया ।
ते किम बकुश थी इष्ट, संखगुणा प्रतिसेवना ।। ५६. बकुश ने शत कोड़, पृथकपणुंज आखियो ।
तास मान इम जोड़, बे त्रिण आदिक कोड़ शत ।। ५७. प्रतिसेवना जोड़, पृथक कोड़ शत मान जे ।
जे चिहुं षट शत कोड़, संखगुणा इम वृत्ति में ।।
५४,५५. 'पडिसेवणाकुसीला संखेज्जगुण' त्ति, कथमेतत् तेषामप्युत्कर्षतः कोटीशतपृथक्त्वमानतयोक्तत्वात् ?,
(व. प. ९०९)
५६,५७. किन्तु बकुशानां यत्कोटीशतपृथक्त्वं तद्विवादि
कोटीशतमानं प्रतिसेविनां तु कोटीशतपृथक्त्वं चतुःषट्कोटीशतमानमिति न विरोधः, (व. प. ९०४)
१५१ भगवती जोर
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