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________________ ३३. * पूर्व पड़िवज्या आश्रयी जोय, कदा हुवै कदा नहीं होय । जो तो जघन्य इक वे विण सार, उत्कृष्ट पृथक हजार ।। सोरठा ३४. गया काल नां जेह, पुलाक सहु भेला गिण्यां । पूर्व - प्रतिपन्न तेह, उत्कृष्ट उत्कृष्ट पृथक सहस्र है ॥ ३५. *वकुश है भगवंतजी ! सोय, एक समय किता होय ? जिन कहै पड़िवजता थका जान, ए वर्तमान आश्रयी मान ।। ३६. कदाच हुवै कदाच न होय, जो हुवै तो इम अवलोय । जघन्य एक तथा बे तथा तीन, उत्कृष्ट पृथक सौ चीन ।। वा० वर्तमान समय किवारे बकुशपणां प्रति पड़िवजे किवारै न पड़िवजे । जो पड़िवर्ज तो जघन्य एक तथा बे तथा त्रिण, उत्कृष्ट पृथक सौ एक समय समकाले बकुश प्रत पड़िवजे । ३७. पूर्व पड़िया आश्रयी जघन्य, पृथक सौ को सुमन्य । उत्कृष्ट पिन ते पृथक सौ कोड़, इम पढिसेवणा जोड़ || वा० इहां पूर्व पड़ियज्या से अतीत काले बहुज्ञपणां प्रति पडिवच्या ते लेखवितो तेहनों विरह नथी । जघन्य पृथक सौ कोड़ हुवै पिण तेहथी ओछा न हुवै । उत्कृष्ट पि पृथक सौ कोड़ पामियै । बे, त्रिण मांडी नव नैं पृथक संज्ञा कहिये । ३८. कषायशील तणीं करो पृच्छा, जिन कहै सुण धर इच्छा । परिवजताज थका पहिचान, ए वर्तमान आथयो जान || ३९. कदाच हुवै कदा हुवै नांय, जो हुवै तो इम कहिवाय । जघन्य एक तथा वे तथा तीन, उत्कृष्ट पृथक सहस्र चीन ॥ ४०. पूर्वप्रतिपन आश्रयी जोड़, जघन्य पृथक सहस्र कोड़ उत्कृष्ट पृथक सहल कोड़ पाय, हिवे निसुणो तेहनों न्याय ॥ aro - कषायकुशील पूर्वप्रतिपन्न जघन्य थकी कोड़ सहस्र पृथक उत्कृष्ट थकी पिण कोड़ सहस्र पृथक । इहां कोइ एक पूछस्यै - सर्व संजत नैं कोड़िसहस्र पृथक सांभलिये छे। अने इहां तो एकहीज कषायकुशील ने तेह मान को तिवारी पुलाकादि मान तेहथी अधिक हुवं । इहां विशेष किम नहीं ? इहां उत्तरकापशील ने जेह को सहस्र पृथक कहा, तेह दोय सत आदि कोहि सहस्र रूप इम कल्पी ने पुलाक, बकुशादि संख्या तिहां प्रवेश कीर्ज तिवारे समस्त संजम मान जे कह्यं, तेह थकी अधिक नहीं ते मार्ट विशेष नहीं । ४१. निग्रंथ पूछयां कहै जिनराय, पड़िवजता थका आश्रयी ताय । कदाच हवे कदाच न होय, जो हुवे तो इतरा जोय ॥ ४२. जघन्य एक दोय तीनज इष्ट, एकसी ने बासठ उत्कृष्ट । ते मांहे एकसौ आठ क्षपक नां, मुनि चउपन श्रेणि उपशम नां । *लय पुण्यवन्तो जीव Jain Education International ३२ पुण्यपडिए पक्व सिप अस्थि, सिय न जइ अत्थि जहणेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा उक्कणं सहस्तं । (श. २५/४४६ ) ३५. बउसा णं भंते ! एगसमएणं पुच्छा । गोयमा ! पडिवज्जमाणए पहुच्च ३६. सिय अस्थि, सिय नत्थि । जइ अत्थि जहणणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं । ३७. पुव्व पडिवण्णए पडुच्च जहणेणं कोडिसयपुहत्तं, उक्कोण व कोडिसपुहतं एवं पविणाकुसीले (श. २५/४४७) वि । - ३८. सायकुसीला पुच्छा गोवमा ! पडियमाणए पहुण्य ३९. सिय अस्थि, सिय नत्थि । जइ अत्थि जहणेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं सहस्रपुहत्तं । ४०. पुयपडिए पहुच जहले कोडिसहसपुहतं, उनकोसे व कोडसहसपुहतं ( . २५४४८) । वा० ननु सर्व संयतानां कोटीसहस्रपृथक्त्वं श्रूमते, इह तु केवलानामेव कषायकुशीलानां तदुक्तं ततः पुलाकादिमानानि ततोऽतिरिच्यन्त इति कथं न विरोध: ? उच्यते, कषायकुशलानां यत् कोटीसहस्रपृथक्त्वं तद्विशादिकोटीसहस्ररूपं कल्पयित्वा लवकुशादिसंख्या तर प्रवेश्यते ततः समस्तसंयतमानं यदुक्तं तन्नातिरिच्यत इति (इ. प. ९०८ ) ४१. नियंठाणं पुच्छा । गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नत्थि । जइ अत्थि For Private & Personal Use Only ४२. जो एक्की वा दो वा तिमि वा उक्को चउप्पन्न बावट्ठ सतं अट्ठसयं खवगाणं, उवसामगाणं । - श० २५, ३० ६, डा० ४५२ १५५ www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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