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होज्ज' त्ति मथिकरणकाले बहोलॊकस्य व्याप्तत्वेन स्तोकस्य चाव्याप्ततयोक्तत्वाल्लोकस्यासंख्येयेषु भागेषु स्नातको वर्तते, लोकापूरणे च सर्वलोके वर्तत इति ।
(वृ. प. ९०७,९०८)
असंख्यातमें भागवत्ति केवली शरीरादिक नों तेतलो मानपणां थकी असंख्यातमें भाग का । तथा घणां असंख्याता भाग नै विषे हवं ते मंथकरण काल नै विष घणों लोक व्याप्यो हुदै, थोड़ो अव्याप्यो रहै। तिण करिके कहो लोक ने पणा असंख्याता भाग में विषे स्नातक बत्तै। तथा सर्व लोक ने विषे हवं ते लोक ने पूर नै सर्वलोक में वर्त। निर्ग्रन्थों द्वारा लोक को स्पर्शना २३. पुलाक लोक नैं हे भगवंत ! स्यूं संख्यातमें भाग फर्शत ?
के असंख्यातमें भाग फर्शह? इत्यादिक प्रश्न उत्तर एह ।। २४. इम जिम अवगाहना कही सोय, भणवी तिमज फर्शना जोय ।
क्षेत्र नी परै फर्शना कहिवी, जाव स्नातक लग लहिवी ।।
वा०-स्पर्शना क्षेत्र नी परै कहिवी । एतलो विशेष - क्षेत्र ते अवगाह्यो तेतलो हीज अनै स्पर्शना तो अवगाढ नी तथा तेहन पास व तेहनी पिण हुवै इति विशेष। निर्ग्रन्थ किस भाव में २५. पुलाक हे भगवंत जी ! सोय, किसा भाव विषे होय ।
श्री जिन भाखै क्षयोपशम भावे, पुलाक चरित्त कहावे ।। २६. एवं जाव कषायकुशील, निग्रंथ पूछयां सुमील ।
उपशम भाव विषे अवलोय, तथा क्षायिक भावे होय ।।
२३. पुलाए णं भंते ! लोगस्स कि संखेज्जइभागं फुसइ ?
असंखेज्जइभागं फुसइ? २४. एवं जहा ओगाहणा भणिया तहा फुसणा वि भाणियव्वा जाव सिणाए।
(श. २५।४४२) वा.-स्पर्शना क्षेत्रवन्नवरं क्षेत्र अवगाढमात्रं स्पर्शना त्ववगाढस्य तत्पार्श्ववर्तिनश्चेति विशेषः।
(वृ. प. ९०८)
२५. पुलाए णं भंते ! कतरम्मि भावे होज्जा?
गोयमा ! खओवसमिए भावे होज्जा। २६. एवं जाव कसायकुसीले । (श. २५४४४३)
नियंठे-पुच्छा। गोयमा ! ओवसमिए वा खइए वा भावे होज्जा।
(श. २५४४४)
सोरठा २७. इग्यारम गुणठाण, उपशम चारित्र पाइये ।
ते निग्रंथ पिछाण, उपशम भाव विषे हुवै ।। २८. फुन बारम गुणठाण, क्षायिक चारित्र है तिहां ।
निग्रंथ तेह पिछाण, क्षायिक भावे चरण तसु ।। २९.* स्नातक पूछयां कहै जगस्वाम, क्षायिक भावे पाम । ___क्षायिक चारित्र तास कहीजै, तेह विषे वर्तीजै ।। निग्रंथों का परिमाण ३०. पुलाक हे भगवंत जी ! सोय, एक समय किता होय ?
जिन कहै पड़िवजता थका तेह.ते वर्तमान आश्रयी जेह ।। ३१. कदाचित ह कदा नहीं होय, जो हुवै तो इम अवलोय ।
जघन्य एक तथा बे तथा तीन, उत्कृष्ट पृथक सौ चीन ।
२९. सिणाए-पुच्छा।
गोयमा ! खइए भावे होज्जा।
(श. २६।४४५)
३०. पुलाया णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा?
गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च ३१. सिय अत्थि, सिय नत्थि । जइ अस्थि जहण्णेणं एक्को
वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं ।
सोरठा ३२. पड़िवजता वर्तमान, जघन्य एक बे त्रिण हुवै ।
उत्कृष्टा पहिछान, हुवै पृथक सौ ते कदा।।
वा०–वर्तमान समय किवार पुलाकपणां प्रति पड़िवज किवार न पड़िवज । जो पड़िवज तो जघन्य एक तथा बे तथा त्रिण, उत्कृष्ट पृथक सो एक समय समकाले पुलाक प्रतै पड़िवजे । *लय : पुण्यवन्तो जीव
१५४ भगवती जोड़
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