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४७. तत्थ णं परिमंडला संठाणा किं संखेज्जा–पुच्छा ।
गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता । ४८. वट्टा संठाणा एवं चेव । एवं जाव आयता।
४७. परिमंडल संठाण तिहां स्य, संख्यातादिक होई जी?
जिन कहै संख असंख नहीं छ, अनंत तिहां अवलोई जी।। ४८. त्यां वट्ट संठाण अनंता इमहिज, एवं जावत जाणी जी।
आयत लगैज कहिवो विध सं, पूर्ववत पहिछाणी जी। ४९. तिम वलि इक-इक संठाण संघाते, पंच-पंच उच्चरिवा जी।
जिमज हेठला जाव आयत लग, विध पूर्वली वरिवा जी। ५०. एवं यावत अधोसप्तमी, कल्प' विषे पिण एमो जी।
यावत ईषत-प्रागभार पृथ्वी लग कहिवो तेमो जी ।। ५१. पणवीसम नों तृतीय देश ए, चिहुं सौ पैंतीसमी ढालो जी।
भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशालो जी ।।
४९. एवं पुणरवि एककेकेणं संठाणेणं पंच वि चारेयव्वा
जहेब हेट्ठिल्ला जाव आयतेणं । ५०. एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं कप्पेसु वि जाव ईसीपब्भाराए पुढवीए।
(श. २५१५०)
ढाल : ४३६
दूहा
१. अथ संस्थानान्येव प्रदेशतोऽवगाहतश्च निरूपयन्नाह
(वृ. प. ८६०)
१. अथ संठाण तणांज जे, प्रदेश शिष्य पूछेह ।
फून आकाश प्रदेश नं, अवगाही रहै तेह ।। वृत्त संस्थान के प्रदेश और आकाश-प्रदेश २. हे प्रभु ! वट्ट संठाण ते, किता प्रदेशिक होय? किता प्रदेश प्रत वलि, अवगाही रह्यं सोय?
वा -अथ पूर्वे आदि नै विषे परिमंडल का । वलि इहां किण कारण थकी ते परिमंडल तजिवै करी वृत्त आदि अनुक्रम करिकै निरूपण करिये ? तेहनों उत्तर -वृत्त आदि च्यार संठाण एक-एक सम संख्या विषम संख्या प्रदेश नां सरीखापणां थकी तेहनै पूर्व कहियं अन परिमंडल नै एहना अभाव थकी पर्छ विचारिय । तथा सूत्र नी विचित्र गति ते मारी जाणवी।
३. जिन कहै वट्ट संठाण ते, दाख्या दोय प्रकार । घनवृत्त सम सहु दिश थकी, मोदकवत अवधार ।।
२. वट्टे णं भंते ! संठाणे कतिपदेसिए कतिपदेसोगाढे पण्णत्ते?
वा.—'वट्टे ण' मित्यादि अथ परिमण्डलं पूर्वमादाबुक्तं इह तु कस्मात्तत्त्यागेन वृत्तादिना क्रमेण तानि निरूप्यन्ते ? उच्यते, वृत्तादीनि चत्वार्यपि प्रत्येक समसंख्यविषमसंख्यप्रदेशान्यतस्तत्साधातेषां पूर्वमुपन्यासः परिमण्डलस्य पुनरेतदभावात्पश्चाद् विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरिति,
(वृ. प. ८६१) ३. गोयमा ! वट्टे संठाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाघणवट्टे य, 'घणवट्टे' त्ति सर्वतः समं घनवृत्तं मोदकवत्
(बृ. प. ८६१) ४. पतरवट्टे य। 'पयरवट्टे' त्ति बाहल्यतो हीनं तदेव प्रतरवृत्तं मण्डकवत्,
(वृ. प. ८६१) ५. तत्थ णं जे से पतरवट्टे से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा
ओयपदेसिए य, 'ओयपएसिए' त्ति विषमसंख्यप्रदेशनिष्पन्न ।
(वृ. प. ८६१) १. जोड़ में 'शशिमंडल जिम' रखा गया है। संभव है
जयाचार्य को प्राप्त वृत्ति में शशिमंडलवत् पाठ था।
४. प्रतरवृत्त दूजो कह्यो, बाहल्य जाडपणेह । हीण हवे ते जाणवो, शशि-मंडल जिम एह ।।
५. प्रतरवृत्त ते द्विविधे, ओज प्रदेशिक धार । विषम संख्य प्रदेश करि, नीपनों तेह विचार ।।
२२ भगवती जोड़
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