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________________ १८. ते तुर्य सुषम- दुषमार, बे कोड़ाकोड़िज उदधि । फुन पंचम सुषमार, सागर कोड़ाकोड़ि त्रिण || १९. छठो सुषम-ग्रुपमार चिहूं कोड़ाकोडिज उदधि । उत्सपिणी धार, ए दधि कोड़ाकोड़ि नव ॥ २०. इम अवसपिणी जोड़, प्रथम द्वितीय तृतीय अरे । दधि नव कोड़ाफोड़, कहिये छे लेखो तसु । २१. प्रथम सुषम-सुषमार, हिं कोड़ाकोडिज उदधि । द्वितीय सुषम अर धार, सागर कोड़ाकोड़ि त्रिण ॥ २२. तृतीय सुषम दुपमार वे कोड़ाकोडिज उदधि । अवसप्पिणी नां धार, ए दधि कोड़ाकोड़ि नव ।। २३. तृतीय अरे में छह, ऋषभ जन्म चारित्र फुन । केवल प्रथम कहेह, छेदोपस्थापनी चरित नहीं ।। २४. कोड़ाकोड़ अठार-सागर नों ऊणा दहां विचार, अल्प भणी अंतरो । बंधा नथी । ए वा. इहां उत्सपिणीनों चोथो अरो २ कोड़ाकोड़ि सागर नो, पंचमो अरो ३ कोड़ाकोड़ि सागर नों, छठो अरो ४ कोड़ाकोड़ि सागर नों, ए नव कोड़ाकोड सागर छेदोपस्थापनी चारित्र नथी लेखव्यो, परंतु जे चउथा अरा नैं विषे चवीसमा तीर्थंकर हुवै तेनां तीर्थ में छेदोपस्थापनी हुवे । तठा पर्छ छेदोपस्थापनीं नों विरह । ते भणी चरम तीर्थंकर नां तीर्थं लगे छेदोपस्थापनी चारित्र रहे । ते वर्ष नव कोड़ाकोड़ि सागर में ऊणा हुवै ते वर्ष अल्पपणां थी वंछया नथी । अन अवसर्पिणीनां प्रथम, द्वितीय, तृतीय अरा नां नव कोड़ाकोड़ सागर थया । तेहमें पिण छेदोपस्थापनी चारित्र गिण्यो नथी । परंतु इहां तीजा अरा ने आदितीर्थकर ने तीचे पानी चारित्र हवे ते वर्ष पण नव कोड़ाकोड़ सागर में घटया । ते पिण अल्पपणां थी ऊणपणों लेखव्यो नथी । इम अठार कोड़ाकोड़ सागर केतला एक वर्ष ऊणां छेदोपस्थापनी चारित्र नों उत्कृष्ट अंतर जाणवूं । २५. * परिहारविशुद्ध सुवासी जी, जिनवर०, पूछयां वाण प्रकाशी जी, जिनवर० । अंतर जघन्य विमासोजो, गोयमजी, वर्ष सहस्र चउरासी जी, गोयमजी। उत्कृष्टो सागर अष्टादश, कोटाकोड़ कहाय ॥ परिहार० ॥ गीतकछंद २६. अवसप्पणी दुषमार पंचम, दुषमदुषमा फुन वही । उत्सप्पणी धुर दुषमदुषमा, द्वितीय फुन दुषमा मही ॥ २७. इक इक अरो इकवीस सहस्रज, वर्ष सहस्र चउरासी । परिहार अंतर जघन्य थी ए, न्याय जिन वच वासी ॥ वा० - ए अवसर्पिणीनां पंचमा अरा नै विषे वीर निर्वाण पर्छ चउसठ *लय : माता सुत नं भाखे जी १९६ भगवती जोड़ Jain Education International वा० - 'उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ' त्ति विलोपियां चविशतितमविनतीचे छेदोपस्थापनीयं प्रवर्तते ततश्च सुषमदुष्यमादिसमाजये क्रमेण द्वित्रिचतुः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणे अतीते अवसप्पिण्याश्चैकान्तसुषमादित्रये क्रमेण चतुस्त्रिद्विसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणे अतीतप्राये प्रथमजिनती छेदोपस्थापनीयं प्रवर्त्तत इत्येवं यथोक्तं छेदोपस्थापनीवस्यान्तरं भवति, यह विचिन पूर्वते वन पूर्वसूत्रेऽतिरिष्यते तदस्यस्यान्न विवक्षितमिति, (बु. प. ९१०) २५. परिहारविद्धिवाणं पुच्छा गोयमा ! जहणेणं चउरासीइं वाससहम्साई, २६.२७ अवसादृष्यमेकादुष्पि कान्तदुष्यमा दुष्यमयोः प्रत्येकमेव ह प्रमाणत्वेन चतुरशीभिति तत्र प परिहारविशुद्धिक न भवतीतिकृत्वा जघन्यमन्तरं तस्य यथोक्तं स्यात्, (बु. ९१८) वा०यश्वान्तिमजिनानन्तरो दुमाया परिहार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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