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________________ ६३. 'विसेदि' ति विरुद्धा विदिगाश्रिता श्रेणी यत्र तद्विश्रेणि, इदमपि क्रियाविशेषणम् । (वृ. प. ८६८) ६२. अनुश्रेणी जिम होय, तिण रीते गति प्रवत । तेहने कहिये सोय, अनुश्रेणी गति अर्थ ए। ६३. विदिशि आश्रिता श्रेण, जेह विषे छै तेहने । विश्रेणीज कहेण, क्रिया विशेषण एह पिण। ६४. जिम विश्रेणी होय, तिमहिज जे गति प्रवत्त । विश्रेणी गति सोय, परमाणू नी ए नथी ।। ६५. वृत्ति विषे ए ख्यात, अनुश्रेणी विश्रेणि न । ___अर्थ अन्य हिव थात, कहिय छै ते सांभलो ।। ६६. अनुकूलपणे सुजोय, सप्त श्रेणि पूर्वे कही। तिण करि गमनज होय, अनुश्रेणी कहिये तसु ।। ६७. विगत श्रेणि सुविचार, जे सातूंई श्रेणि विण । गमन हुवै ते धार, तास विश्रेणि कहीजिये ।। ६८. अनुश्रेणि नं जोय, वलि विश्रेणी शब्द हैं । अर्थ कदा इम होय, ते पिण जाणे केवली ।। ६९. अनूश्रेणि गति होय, परमाणू पुद्गल तणीं। विश्रेणी नहि कोय, प्रश्न हिवै दुप्रदेशि न । ७०. *दोय प्रदेशियो खंध प्रभुजी ! प्रवत्तँ गति अनुश्रेणी जी । अथवा विश्रेणी गति प्रवत ? जिन कहै इमहिज केणी जी ।। ७१. एवं जाव अनंतप्रदेशिक, खंध लगै अवदातो जी। ते अनुश्रेणी गतिज प्रवत्त, विश्रेणि गति नहिं थातो जी।। ७२. नेरइया अनुश्रेणि गति स्यू प्रवत्त, के विश्रेणि गति प्रवर्ततो जी? एवं चेव पूर्ववत कहिवो, इम जाव वैमानिक हुँतो जी ।। ७०. दुपएसियाणं भंते ! खंधाणं अणुसेढि गती पवत्तति ? विसेदि गती पवत्तति ? एवं चेव । ७१. एवं जाव अणंतपदेसियाणं खंधाणं । (श २५।९३) ७२. नेरइयाणं भंते ! कि अणसेटिं गती पवत्तति ? विसेढि गती पवत्तति? एवं चेव। एवं जाव वेमाणियाणं । (श. २५।९४) ७३,७४. अनुश्रेणिविश्रेणिगमनं नारकादिजीवानां प्रागुक्तं, तच्च नरकावासादिषु स्थानेषु भवतीतिसम्बन्धात्पूर्वोक्तमपि नरकावासादिकं प्ररूपयन्नाह (व. प.८६८) सोरठा ७३. गति अनुश्रेणि विशेण, कही नारकादिक तणीं। तेहनां स्थान कहेण, नरकावासादिक विषे । ७४. इण संबध थी आत, नरकावासादिक कथन । पूर्व पिण आख्यात, परूपणा तेहनींज फुन ।। आवास नारक और देवों के ७५. *रत्नप्रभा पृथ्वी विषे प्रभुजी ! केतला लक्ष कहायो जी? नारक ने रहिवा नां आवासा, नरकावासा ए ताह्यो जी ।। ७६. इम जाव प्रथम शत पंचमुदेशे, आख्या तिम इहां भणवा जी। जाव अनुत्तर विमान लगै जे, पूर्व कह्या तिम थुणवा जी ।। सोरठा ७७. ए नरकावासादि द्वादश अंग प्रभाव थी। जाणे धर अहलादि, जे छद्मस्थ मनुष्य पिण ।। ७८. ते माटै हिव ताय, द्वादश अंग परूपणा। गोयम प्रश्न सुहाय, उत्तर दे भगवंत तसु ।। *लय : चतुर विचार करी ने देखो ७५. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता? ७६. गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एवं जहा पढमसते पंचमुद्देसए (सू. २१२-२१५) जाव अणुत्तरविमाणत्ति। (श. २५९५) ७७,७८. इदं च नरकावासादिक छमस्थैरपि द्वादशाङ्गप्रभावादवसीयत इति तत्प्ररूपणायाह (व. प. ८६८) ४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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