________________
२६. से नूणं भंते ! असंखेज्जे लोए अणंताई दवाई
आगासे भइयव्वाइं? 'आगासे भइयव्वाई' ति भक्तव्यानि' भर्त्तव्यानि धारणीयानीत्यर्थः,
(वृ. प. ८५६) २७. पृच्छतोऽयमभिप्रायः ---कथमसंख्यातप्रदेशात्मके लोका
काशेऽनन्तानां द्रव्याणामवस्थानं ? (व. प. ८५६) २८. हंता गोयमा ! असंखेज्जे लोए अणंताई दव्वाई आगासे भइयव्वाइं।
(श. २५।२१)
२९. 'हंता' इत्यादिना तत्र तेषामनन्तानामप्यवस्थानमा
वेदितम्, आवेदयतश्चायमभिप्रायः--(वृ. प. ८५६) ३०,३१. यथा प्रतिनियतेऽपवरकाकाशे प्रदीपप्रभापुद्गलपरिपूर्णेऽप्यपरापरप्रदीपप्रभापुद्गला अवतिष्ठन्ते
(वृ. प. ८५६)
लोक में अनन्त द्रव्यों का अवगाह २६. *हे प्रभु ! तेह निश्चै करी रे,असंख प्रदेशिक लोक माय। द्रव्य अनंता आकाश रे, भरिवू धारिवू थाय ?
सोरठा २७. इहां पृच्छक अभिप्राय, असंख प्रदेशिक लोक नां । ___ आकाशे किम थाय, रहिवू अनंत द्रव्य नुं । २८. *जिन कहै हंता गोयमा ! रे, असंख प्रदेशिक लोक माय। जाव भरिवू धारिवू हुवै रे, निसुणो तेहनु न्याय ।।
सोरठा २९. ते लोकाकाश विषह, तेह अनंता द्रव्य न ।
रहिवू आख्यू जेह, ते जिन नुं अभिप्राय ए। ३०. जिम प्रतिनियत तास, ओरा नां आकाश में ।
दीपक प्रभा प्रकाश, पुद्गल प्रतिपूर्ण अपि ।। ३१. अपर-अपर फुन जोय, दीपकप्रभा तणां जिक ।
पुद्गल तिष्ठ सोय, प्रत्यक्ष ही अवलोकिय ।। ३२. तिण प्रकार विधिहीज, जे पुद्गल परिणाम नां ।
समर्थपणां थकीज, असंख प्रदेशिक लोक मे ।। ३३. तेहिज-तेहिज ताम, प्रदेश विष जे द्रव्य न ।
तथाविध परिणाम बस करिने रहिवा थकी ।। ३४. अनंत नों पिण सोय, रहिव छ ते द्रव्य न ।
इण न्याये करि जोय, विरुद्ध नहीं ए वचन में ।।
वा० --अणंताई दवाइं आगासे भइयव्वाई ! हंता गोयमा ! -इहां गोतम पूछयो -असंख्यात प्रदेशात्मक लोक में जीव, परमाणु आदिक अनंता द्रव्य आकासे भइयवाई-आकाश नै भरिवो हुदै, आकाश नै धरिवो हुवै ? आगासे इहां सप्तमी विभक्ति छ, ते छठी विभक्ति नां अर्थ नं विष छ। बले ए प्रश्न काकु पाठ पूछचो । काकु पाठ किणन कहिय ? वक्रोक्ति नै कहियं , इहां वक्रोक्ति इम छै—इहां पृच्छक नों ए अभिप्राय-असख्यात प्रदेशात्मक लोकाकाश नै विषे अनंता द्रव्य नों रहिवो किम हुवै ? ए वक्रोक्ति प्रश्न । उत्तर-हां गोतम ! असंख्यात प्रदेशात्मक लोकाकाश नै विषे अनंता द्रव्य नों अवस्थान छै, इसो का ते उत्तर देणहार नों ए अभिप्राय जिम प्रतिनियत अपवरक आकाश नै विषे दीवा नी प्रभा नां पुद्गल परिपूर्ण छता पिण अपर-अपर प्रदीप प्रभा नां पुद्गल रहै, तथाविध पुद्गल परिणाम समर्थपणां थकीज । इम असंख्यात लोक छै, ते पिण तेहिज-तेहिज प्रदेश नै विषे द्रव्य नां तथाविध परिणाम वसे करी अवस्थान थकी अनंता द्रव्य नों पिण अवस्थान छ, पिण विरोध नथी।'
असंख्यात लोक नै विषे अनंत द्रव्य नों अवस्थान कह्यो, तेह एकेक प्रदेश नै विषे चयउपचयादिवंत हुवै । एतला माटै कहै छै* लय : कामणगारो छ कूकड़ो १. टीका के जिस पाठ को आधार मानकर वातिका लिखी गई है, वह २९ से ३४ तक की गाथाओं के सामने उद्धृत है। इसलिए यहां उसे नहीं लिया गया
३२. तथाविधपुद्गलपरिणामसामर्थ्यात् एवमसङ्ख्यातेऽपि लोके
(वृ. प. ८५६) ३३,३४. तेष्वेव तेष्वेव प्रदेशेषु द्रव्याणां तथाविधपरि
णामवशेनावस्थानादनन्तानामपि तेषामवस्थानमविरुद्ध मिति ।
(वृ. प. ८५६)
वा०-असङ्ख्यातलोकेऽनन्तद्रव्याणामवस्थानमुक्तं, तच्चैकैकस्मिन् प्रदेशे तेषां चयापचयादिमद्भवतीत्यत आह
(वृ. प ८५६)
श०२५, उ०२, ढ०४१३४ १३
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org