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वलि स्कन्ध नां अवयव ते प्रदेश हुवै, तिमज समय स्कन्धवर्ती समया प्रदेश हुवै अनै द्रव्य हुवै हिवं एहनों उत्तर कहै छ-परमाणुओं ने परस्पर सापेक्षपणां थकी स्कन्धपणों युक्त छ, पर अद्धा समया नै परस्पर सापेक्षपणों नहिं जे भणी अद्धा समया प्रत्येकपणां ने विषे अथवा काल्पनिक स्कन्धपणा नै विष पिण वर्तता छता जुई-जुई वृत्तिवालाज हुवै । एतले ते भेला नहिं थाय तत्स्वभावपणां थकी ते माटै अन्योन्य अपेक्षा रहित हुवै। अन्योन्य अपेक्षा रहितपणां थकी ते वास्तव स्कन्ध नै निपजावणहारा नहीं, तेह थकी एहमें प्रदेशार्थपणों नहीं।
अथ द्रव्य थकी प्रदेश अनंतगुणा, ए किम ? एहनों उत्तर कहै छै—अद्धा समय द्रव्य थकी आकाश प्रदेश नै अनंतगुणपणां थकी। इहां प्रेरक कहै-क्षेत्र नां प्रदेश अनै काल नां समया ए बिहु नै अनंतपणे छते समान कहिय एतले क्षेत्र नां प्रदेश अन काल नां समया ए बिहुँ नों अंत नथी इम अनंतपणां थकी बिहुं समान छते पिण स्यूं कारण आश्रयी नै आकाश-प्रदेश अनंतगुणा अनै काल नो समया तेहन अनंतमें भागवर्ती हैं। हिवं एहनों उत्तर --आदिरहित अंतरहित एक आकाश नी श्रेणि विषे एक-एक प्रदेश नै अनुसारि थकी तिरछी लांबी श्रेणि ने कल्पना करिकै ते श्रेणि थकी पिण एक-एक प्रदेश अनुसार करिके हीज ऊद्धं, अधो, आयत श्रेणि नी रचना करी आकाश-प्रदेश नों धन निपजाविय अन काल समय नी श्रेणि नै विषे तेहीज श्रेणी हुवै वली घन नहीं हुवै ते कारण थकी काल नां समया थोड़ा हुवै।
ते प्रदेश थकी पजवा अनंतगुणां एहवी भावना जिण कारण करिके एक-एक आकाश-प्रदेश रै विषे अनंता-अनंता अगुरुलघु पजवा जाणवा ।
तथाहि-यथा स्कन्धो द्रव्यं सिद्धं स्कन्धावयवा अपि यथा प्रदेशाः सिद्धा: एवं समयस्कन्धवत्तिन: समया भवन्ति प्रदेशाश्च द्रव्यं चेति, अत्रोच्यते, परमाणनामन्योऽन्यसव्यपेक्षत्वेन स्कन्धत्वं युक्तं, अद्धासमयानां पुनरन्योऽन्यापेक्षिता नास्ति, यतः कालसमया: प्रत्येकत्वे च काल्पनिकस्कन्धाभावे च वर्तमाना: प्रत्येकवृत्तय एव तत्स्वभावत्वात् तस्मात्तेऽन्योऽन्यनिरपेक्षाः अन्योऽन्यनिरपेक्षत्वाच्च न ते वास्तवस्कन्धनिष्पादकास्ततश्च नैषां प्रदेशार्थतेति,
अथ द्रव्येभ्यः प्रदेशा अनन्तगुणा इत्येतत्कथम् ?, उच्यते, अद्धासमयद्रव्येभ्य आकाशप्रदेशानामनन्तगुणत्वात, नन क्षेत्रप्रदेशानां कालसमयानां च समानेऽप्यनन्तत्वे किं कारणमाश्रित्याकाशप्रदेशा अनन्तगुणाः कालसमयाश्च तदनन्तभागवत्तिन: ? इति, उच्यते, एकस्यामनाद्यपर्यवसितायामाकाशप्रदेशश्रेण्यामेकैकप्रदेशानुसारतस्तिर्यगायतश्रेणीनां कल्पनेन ताभ्योऽपि चैककप्रदेशानुसारेणैवोर्द्ध वाधआयतश्रेणीविरचनेनाकाशप्रदेशघनो निष्पाद्यते, कालसमयधण्यां तु सैव श्रेणी भवति न पुनर्घनस्तत: कालसमयाः स्तोका भवन्तीति,
प्रदेशेभ्योऽनन्तगुणाः पर्याया इति, एतद्भावनार्थ गाथा"एत्तो य अणंतगुणा पज्जाया जेण नहपएसम्मि । एक्केक्कंमि अणंता अगुरुलहू पज्जवा भणिया ॥१॥
(वृ. प. ८७०-८७२) १०६. 'जीवा पोग्गल समया दव्व पएसा य पज्जवा चेव । थोवा णता णंता विसेसअहिया दुवेऽणंता ॥
(वृ. प. ८६९,८७०)
१०६. जीव पुद्गल नैं काल नां समया,
द्रव्य प्रदेश पजवा उदंतो जी। थोड़ा अनंत अनंतगुणा छ, विसेसाहिया दोय अनंतो जी ।।
आयुष्य कर्म के बंधक-अबंधक आदि जीवों का अल्पबहुत्व १०७. हे प्रभु ! जीव – आयु कर्म नां, बंध अबंधग मांडो जी।
कवण-कवण थी अल्प बहु तुला, विशेष अधिक कहायो जी।। १०८. जिम बहु वक्तव्यता पद तीजे, आख्यो तेम कहीजे जी।
जाव आयु कर्म तणां अबंधगा, विसेसाहिया लीजे जी ।। १०९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! शत पणवीसम केरो जी।
तृतीय उद्देशक अर्थ थकी ए, आख्यो सखर सुमेरो जी ।। ११०. ढाल च्यारसौ अष्टतीसमी, आसाढी पूनम आखी जी। भिक्खु भारीमाल ऋषिराय प्रसा',
'जय-जश' संपत्ति राखी जी ।। पंचविंशतितमशते ततीयोद्देशकार्थः ॥२५॥३॥
१०७. एएसि णं भंते ! जीवाणं, आउयस्स कम्मस्स बंध
गाणं अबंधगाणं? १०८. जहा बहुवत्तव्वयाए (प. ३।१७४) जाव आउयस्स
कम्मस्स अबंधगा विसेसाहिया। (श. २५।१०१) १०९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. २५१०२)
५२ भगवती जोड़
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