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वा० पंचमा पद [५२] नैं विषे का ते इम-जीवपज्जवा णं भंते ! कि संखेज्जा अनंता ? गोयमा ! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अनंता इत्यादि । द्रव्य करिकै द्रव्य थकी जीव एक द्रव्य, अनै क्षेत्र थकी ते जीव द्रव्य असंख्यात प्रदेशावगाढ, एक-एक जीव ने असंख्यात प्रदेश अवगाढपणां थकी । अने काल थकी आदि अंत रहित । अनं भाव थकी ज्ञानादिक रूप जीव नां अनन्ता अगुरुलघु पर्याय अन अजीव द्रव्य पिण इमहीज । द्रव्य थकी परमाणु एक द्रव्य, अनै क्षेत्र थकी एक प्रदेश अवगाढईज । काल जघन्य स्थिति एक समय अनैं मध्यम स्थिति दोय आदि समय अने उत्कृष्ट स्थिति संख्याती उत्सप्पिणी अवसप्पिणी । अने भाव थकी वर्ण, गंधादि रूप अनंती पर्याय । इम द्विप्रदेशिकादिक खंध नैं पिण जाणवो । इति पत्रवणा वृत्तौ ।'
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तथा उत्तराध्येन अठावीसमें पज्जवा ने ओलखाया ते कहै छगुणाणमास दवं एगदम्बसिया गुणा ।
लक्खणं पज्जवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे ||२८|६||
गुण रूपादिक नों आश्रय — आधार द्रव्य छँ । एतले जेहने विषे गुण उपजै, उपजी नै रहै अने विलय हुवै, तेहने द्रव्य कहिये, ए प्रथम पद नों अर्थ कह्यो ।
एगदव्वस्तिआ गुणा – एक द्रव्य नैं विषे आश्रिता कहितां रह्या गुण रूपादिक एतले द्रव्य नैं विषे गुण रह्याए दूजा पद नों अर्थ । लक्खणं पज्जवाणं तु -पर्याय नां लक्षण ते आगल कहिये छे तु शब्द विशेषण नै अर्थे । उभओ अस्सिया भवेद्रव्य अनं गुण ए बिहुं नैं विषे रह्या हुवै । उत्तराध्ययन की तेरमी गाथाए का. -
एगतं च पुहत्तं च संखा संठाणमेव च ।
उत्तर
संजोगा य विभागा य, पज्जवाणं तु लक्खणं ।। २८ ।१३ हिये पर्याय तो लक्षण कहिये एमत्तं एकपणुं भिन्न परमाणुजादिक मैं विषे पिण जे एक ए घटादिक इम एहवी प्रतीति नों हेतु च शब्द नों अर्थ, ते आगलो पद तेहनी अपेक्षाय छ । तेहनें समुच्चय कहिये । पुहत्तं च ए एह थकी जे जुओ, ते पृथकपणुं । च समुच्चय । संखा - संख्या एक बे त्रिण इत्यादि । संठाण - संस्थान परिमंडलादिक आकार । एव ते पूर्णे च समुच्चय, संजोगा य ए अंगुलियादि मिल्या होवे ते संजोग, अन विभागा य तेहिज जूआपणुं थावुं ते विभाग । च शब्द थी नवा पुराणादिकपणुं ग्रहितुं । पज्जवाणं- -ए पर्याय नुं लक्खणं --- असाधारण लक्षण जाणिवो । तु पूर्णे ।
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सोरठा
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४. पज्जब विशेष रूपात तेह तणां अधिकार थी। अथ आगल अवदात, काल विशेष कहीजिये ॥
काल पद
*जय जय वाणी जिन तणीं । (ध्रुपदं ) ५. इक आवलिका ने विषे प्रभु ! स्ं समया संख्यात ? असंख्यात समया हुवै, कै समय अनंता थात ? ६. जिन भाखे सुण गोयमा ! नहीं हूँ समय संख्यात । असंख्याता समया हुवै, अनंत समय नहि थात || १. प्रज्ञापनावृत्ति में उक्त वार्तिक का संवादी प्रमाण नहीं मिला । *लय : खुसामदी दातार नीं
९६ भगवती जोड़
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४. विशेषाधिकारात्कालविशेषसूत्रम् (बृ. प. ९
५. आवलिया णं भंते ! कि संखेज्जा समया ? असंखेज्जा समया ? अनंता समया ?
६. गोयमा ! नो संखेज्जा समया, असंखेज्जा समया, नो अनंता समया । (श. २५/२४७ )
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