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चत्वारिंशत्तम शतक
सन्नी पंचेन्द्रिय महायुग्मों में उपपात आदि की प्ररूपणा १६. कृतयुग्म कृतयुग्म जे, सन्नी पंचेंद्रिय भंत ! किहां थकी ए ऊपजै ? उत्तर दे अरिहंत || १७. ऊपजवो चि गति थकी, जे चि गति रं मांहि । संख वर्षा जिके, असंख वर्षां ताहि ।। १८. पर्याप्ता अपर्याप्ता, सन्नी पंचेंद्रिय मांय । ए च्यारूं ही ऊपजै, कोई निषेध १९. जाव अनुत्तरविमान थी, सन्नी आवी नें जे ऊपजै, इहां लगे विषे च्यारूं गति नां आवी ऊपजै । च्यारूं गति में विख्यात वर्षांप से मरी ऊपने अने असंख्यात वर्षायुक्त पिण मरी ऊपजै । पर्याप्ता काल करी पिण ऊपजै । अपर्याप्ता पिण मरी ऊपजै । सन्नी पंचेंद्रिय ने विषे सर्व ऊपजै । किहांई थकी पिण मरी ऊपजवा रो निषेध नहीं है जाव अनुत्तरविमान थकी ।
नहि थाय ॥ पंचेंद्रिय मांय ।
कहिवाय ||
वा० - सन्नी पंचेंद्रिय नैं
२०. परिमाण अनैं अपहार जे अवगाहन अवधार । असन्नी पंचेंद्रिय आच्यूँ तिमज विचार ।।
२१. वेदनीय वर्जी करी, सप्त कर्म
प्रकृत ।
तेह तणां ते बंधगा, अथवा अबंधगा कथित ॥
वा० -इहां वेदनीय ने बंध विधि प्रत विशेषे करी कहिस्यै इम करी वेदनीय वर्ज्यो । इम तिहां उपशांत मोहादि सात कर्म नीं अबंधक हीज छै। शेष तो वली यथासंभव बंधगा हुवै इति ।
२२. वेदनीय नां बंधगा, बारम गुणठाणा लगै,
अबंधगा ते नांय । सन्नी पंचेंद्री कहाय ॥
वा० - तेरमे चवदमें गुणठा सन्नी पंचेंद्रिय न कहिये ते तो नोसन्नीनोअसन्नी छे, अणिदिया है । अन तेह थकी उलीकानी बारमा गुणठाणा लगे सन्नी पंचेंद्रिय छै, ते सर्व वेदनीय नां बंधक हीज छै, पिण अबंधक नथी ।
'इहां तेरमें, चवदमें गुणठाणे सन्नी पंचेंद्रिय नथी कह्या । अन व्यवहार नय करी केवली में जीव रो भेद एक चवदमों कहै छै । ते पूर्व सन्नी पंचेंद्रियपणां नीं अपेक्षा करी कहे छ । जिम यथाख्यात चारित्र नों साहरण कह्यो । अप्रमादी रो साहरण तो हुवै नथी, पिण प्रमादी नों साहरण कियां पछँ यथाख्यात चारित्र पायो, तिणरी अपेक्षाय यथाख्यात नों साहरण कह्यो । तथा पुलाक नियंठा नों धणी काल करे तो उत्कृष्ट आठमें देवलोक जाय, एहवं का पिण पुलाक में तो मरै नथी । पुलाक लब्धि फोड़ी ते वेला पुलाक नियंठो हुंतो आवी तत्काल मूओ । ते पूर्वं पुलाक अनुभव्यो, तेहनों अपेक्षाय पुलाक में काल
ते अनेर नियं
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१६. कडजुम्मकडजुम्मसष्णिपंचिदिया णं भंते! कओ उववज्जंति ?
१७. उववाओ चउसु वि गईसु । संखेज्जवासाउयअसंखेज्जवासाउय
१८. पज्जत्ता- अपज्जत्तएसु य न कओ वि पडिसेहो
१९. जाव अणुत्तरविमाणत्ति ।
२१. वेय गिज्जबज्जाणं सत्तण्हं पगडीणं बंधगा वा अबंधगा
ता
२०. परिमाणं अवहारो ओगाहणा य जहा असण्णिपंचिदियाणं ।
वा० 'वेयणिज्जवज्जाणं सत्तण्हं पगडीणं बन्धगा वा अबन्धगा वत्ति, इह वेदनीयस्य बन्धविधि विशेपेण बध्यतीतिकृत्वा वेदनीयवर्णानामित्युक्तं तत्र चोपशान्तमोहादयः सप्तानामवन्धका एव शेषास्तु यथासम्भवं बन्धका भवन्तीति । (बृ. प. ९७३)
२२. वेयणिज्जस्स बंधगा, नो अबंधगा ।
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वा०-- 'वेय णिज्जस्स बन्धगा तो अबन्धग' त्ति, केवलित्वादाऽपि सञ्जिपञ्चेन्द्रियास्ते च वेदनीयस्य बन्धका एव नाबन्धकाः । (वृ. प. ९७३ )
श० ४०, ढा० ४९४ ४२७
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