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________________ ४३. पूर्वे जे बद्धवान, नहिं बांधे ग्यारम गुणे । प्रश्न समय ए जान, पड़ी बांधस्य तृतीय भंग ।। ४४. पूर्वे जे बद्धवान, क्षपकपणे बांधै नथी। प्रश्न समय ए जान, अनागते नहिं बांधस्यै ।। वा० -जो कृष्णपाक्षिक न बांधस्यै एहने संभव थकी इम एहन द्वितीय भंग वांछयो तो शुक्लपाक्षिक नै अबंधकपणां नै अवश्य संभव थकी प्रथम भंग किम हुवै ? एहनों उत्तर कहै छ-पृच्छा अनंतर अनागत काल नै विषे अबंधकपणां नां अभाव थकी प्रथम भंग हुवं । वलि को छ वृद्धे-इहां साक्षेपसपरिहारस आक्षेप ते प्रश्न सहित, परिहार कहितां उत्तर । वृद्ध इम कहैबंधी शतक नै कृष्णपाक्षिकादिक नै दूजो भांगो जो हुवे तो शुक्लपाक्षिकादिक नै प्रथम भंग किम हुवै ? इति आक्षेप कहितां प्रश्न । हिव एहनों परिहार कहितां उत्तर कहै छै प्रतिपच्छा अनतर काल आश्रयी नै शुक्लपाक्षिकादि नै प्रथम भंग हुवै। अनै कृष्ण पाक्षिकादि नैं विशेष-रहित काल आश्रयी ने द्वितीय भंग हुवै इति। ४३. तथा बद्धवान् न बध्नाति चोपशमे भन्त्स्यति च तत्प्रतिपाते ३ (व. प. ९२९) ४४. तथा बद्धवान्न बध्नाति न च भन्स्यति क्षपकत्व इति ४, (वृ प. ९२९) वा०-ननु यदि कृष्णपाक्षिकस्य न भन्स्यतीत्यस्यासम्भवाद्वितीयो भङ्गक इष्टस्तदा शुक्लपाक्षिकस्यावश्यं सम्भवात्कथं तत्प्रथमभङ्गक: ? इति, अत्रोच्यते, पृच्छानन्तरे भविष्यत्कालेऽबन्धकत्वस्याभावात् उक्तं च वृद्धैरिहसाक्षेपपरिहारं ..... "बधिसयबीयभंगो जुज्जइ जइ कण्हपक्खियाईणं । तो सुक्कपक्खियाणं पढमो भंगो कहं गेज्झो ?॥१२॥ उच्यतेपुच्छाणंतरकालं पइ पढमो सुक्कपक्खियाईणं । इय रेसि अवसिठं काल पइ बीयओ भंगो ॥२॥ (वृ०प० ९२९,९३०) ४५. सम्मद्दिट्ठीणं चत्तारि भंगा, सम्यग्दृष्टेश्चत्वारोऽपि भङ्गाः शुक्लपाक्षिकस्येव भावनीयाः, (व.प. ९३०) ४६. मिच्छादिट्ठीणं पढम-बितिया, सम्मामिच्छादिट्ठीणं एव चेव । (श. २६७) ४७,४८. मिथ्यादृष्टिमिश्रदृष्टीनामाद्यो द्वावेव, वर्तमान काले मोहलक्षणपापकर्मणो बन्धभावेनान्त्यद्वयाभावात्, (व. प. ९३०) दृष्टि द्वार ४५. *समदृष्टि में विष हवे, च्यारूंई भंग । शुक्लपाक्षिक जिम जाणवू, वर न्याय सुचंग ।। ४६. मिथ्यादण्टि नै विषे, प्रथम द्वितीय बे भंग। समामिथ्यादृष्टि इमज ही, तसु न्याय सुचंग ।। ___ सोरठा ४७. मिथ्या मिश्रज दृष्ट, तेह विषे धुर भंग बे। मोह लक्षण तसु इष्ट, प्रश्न समय अघ बंध तसु।। ४८. तिण कारण थी तास, अंतिम बे भांगा नथी । धुर बे भंग विमास, बुद्धिवंत न्याय विचारियै ।। ज्ञान द्वार ४९. 'ज्ञानवंत ज्ञानी विषे, च्यारूं ही भंग । समदृष्टि जिम जाणवो, वारू न्याय सुचंग ।। ५०. आभिनिबोधिक ज्ञान जे, जाव मनपर्याय । ए चिहुं नाणी नै विषे, च्यारूं भंग कहाय ।। ५१. केवलज्ञानी नै विषे, इक चरम सुभंग । अलेशी ज्यू जाणवो, वर न्याय सुअंग ।। सोरठा ५२. वर्तमान कालेह, वलि अनागत काल में । बंध अभावपणेह, चरम भंग इक ते भणी ।। ४९. नाणीणं चत्तारि भंगा। ५०. आभिणिबोहियनाणीणं जाव मणपज्जवनाणीणं चत्तारि भंगा। ५१. केवलनाणीणं चरिमो भंगो जहा अलेस्साणं । (श. २६८) ५२. 'केवलनाणीणं चरिमो भंगो' त्ति वर्तमाने एष्यत्काले च बन्धाभावात् । (व. प. ९३०) *लय : सीता दे रे ओलंमड़ा २४८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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