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________________ | २८. एवं जावत जाणवुं, जाणबुं पद्मलेशी पर्यंत सर्वत्र ए पंच लेश में, प्रथम द्वितीय भंग हुंत ॥ सोरठा २९. कृष्णादिक जे पंच लेश्यावंतज जीव जे तृतीय तुर्य जे संच, ए बिहं भंग न संभवे ॥ ३०. वर्त्तमान में तास, मोह कर्म नों क्षय नथी । उपशम पिण नहि जास, तिणसूं बे भंग चरम नहीं ॥ ३१. द्वितीय भंग फुन तास, कृष्णादि लेशी तिको। कालांतरे विमास, क्षपक विषे नहि बांधस्यै ॥ ३२. *शुक्ल लेश्या नें वलि, जिम सलेशी मांय । प्यार भांगा का तिम चिह्नं पूर्ववत न्याय || पाप कर्म पिछान । स्यूं बांध्या बांधे बांधस्थे ? इम पूछा जान ॥ ३४. जिन कहै बांध्या अतीत ही, न वांधे वर्तमान । अनागते नहि बांधस्यै तुर्य भंग ए जान ॥ ३३. अलेशी प्रभु! जीव जे 1 , सोरठा ३५. एह अजोगी साव, तुर्य हीज भांगो तसु । लेश्या तणें अभाव, बंधक तणां अभाव थी । पाक्षिक द्वार ३६. * कृष्णपाक्षिक प्रभु ! जीव जे, पाप कर्म पूछेह । जिन भाखे सुण गोयमा ! प्रथम द्वितीय भंग बेह || सोरठा ३७. वर्त्तमान कालेह, अबंध तणां अभाव थी । कृष्णपाक्षिक ने जेह, दोय भंग छेहला नथी || ३५. घुर भंग अभव्य विषेह, शिवगामी भव्य ने विषे । द्वितीय भंग पावेह, पिण छेला वे भंग नयी ॥ ३९. * शुक्लपाक्षिक नीं पूछा कियां भाखं भगवान । भांगा प्यार भणोजियै, वर न्याय प्रधान || सोरठा ४०. प्रश्न समय बंध तास, तेह अपेक्षा भंग धुर । पूर्व बांध्यां जास, वर्तमान बांधे वलि ।। ४१. अंतररहित कहेह, समय आगामिक में विये । वलियांधस्य जेह, प्रथम भंग इण न्याय है ॥ ४२. बांध्या बांधताय, आगामिक नहि बांधस्थे । ए द्वितीय भंग नुं न्याय, क्षपकथेणि प्राप्ती विषे ॥ *लय : सीता दे रे ओलंभड़ा Jain Education International २८. एवं जात्र पम्हलेस्से । सव्वत्थ पढम-बितियभंगा । २९. कृष्णलेश्यादिपञ्चकयुक्तस्य त्वाद्यमेव भङ्गकद्वयं, (इ.प. ९२९) ३०. तस्य हि वर्त्तमानकालिको मोहलक्षणपापकर्मण उपशमः क्षयो वा नास्तीत्येवमन्त्यद्वयाभावः, (पु.प. ९२९) कृष्णाविण्यात भन्त्स्यतीत्येतस्य (बृ. प. ९२९) ३२. सुक्कले से जहा सलेस्से तहेव चउभगो । (श. २६ ३) ३१. द्वितीयस्तु तस्य संभवति कालान्तरे क्षपकत्वप्राप्ती न सम्भवादिति, ३३. अलेस्से णं भंते ! जीवे पाव कम्म कि बंधी पुच्छा 1 ३४. गोयमा ! बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ । (श. २६/४) ३५. अलेश्य :- अयोगिकेवली तस्य च चतुर्थ एव, लेश्याभावे बन्धकत्वाभावादिति । (बृ. प. ९२९) ३६. कण्हपक्खिए ण भंते ! जीवे पावं कम्मं पुच्छा । गोमा ! अत्थेगतिए बंधी, पढम-बितिया भंगा । (म. २६०५) ३७. कृष्णपाक्षिकस्याद्यमेव भङ्गकद्वयं भावस्य तस्याभावात्, वर्तमाने बन्धा(बृ. प. ९५९) ३९. सुक्कपक्खिए णं भंते ! जीवे पुच्छा । गोयमा ! चउभंगो भाणियव्वो । ( श For Private & Personal Use Only (श. २६/६ ) ४०, ४१. स हि बद्धवान् बध्नाति भन्त्स्यति च प्रश्नसमयापेक्षयाऽनन्तरे भविष्यति समये १ । ४२. तथा बद्धवान् बध्नाति न भन्त्स्यति क्षपकत्वप्राप्ती २। (बृ. प. ९२९) श० २६, उ० १, ४०४६९ २४७ www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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