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संसारी जीव के चौदह प्रकार
२३. जीव संसार - समापन्ना जी, कतिविध हे भगवान ? जिन कहै चवद भेदे कह्या जी, सांभल तूं घर कान ।।
२४. सूक्ष्म अपर्याप्ता कला जी, बादर अपजत्तगा वलि जी,
सूक्ष्म पर्याप्त ताम | बादर पजत्तगा आम ||
वा० -सूक्ष्म अपर्याप्तो किन कहिये - सूक्ष्म नाम कर्म नां उदय थकी अन अपर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी सूक्ष्म अपर्याप्त कहिये । इम हिज सूक्ष्म नाम कर्म नां उदय थकी अन पर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी सूक्ष्म पर्याप्त कहिये | बादर नाम कर्म नां उदय थकी अनें अपर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी बादर अपर्याप्त कहिये । बादर नाम कर्म नां उदय थकी अन पर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी बादर पर्याप्त कहिये । ए च्यारूद जीव रा भेद पृथ्वी आदि एकेंद्रिय नां जाणवा ।
२५. वेइंदिय अपजतगा बलि जी बेदियाज पर्याप्त । एवं तेइंदिया जीव छै जी, इम चउरिदिया प्राप्त ।।
वा०
-बेंइंद्री नाम कर्म नां उदय थकी अनैं अपर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी बेइंद्रिय अपर्याप्त कहिये । बेइंद्रिय नामकर्म नां उदय थकी अनैं पर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी बेइंद्रिय पर्याप्त कहिये । तेइन्द्रिय नाम कर्म नां उदय est अने अपर्याप्त नामकर्म नां उदय थकी इन्द्रिय अपर्याप्त कहिये। तेइन्द्रिय नाम कर्म नां उदय थकी अने पर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी तेइन्द्रिय पर्याप्त कहिये । चउरिद्रिय नामकर्म नां उदय थकी अन अपर्याप्त नाम कर्म नां उदय थकी चउरिद्रिय अपर्याप्त कहिये । चउरिद्री नाम कर्म नां उदय थकी अन पर्याप्त नामकर्म नां उदय थकी चउरिद्रिय पर्याप्त कहिये । २६. असनी पंचिद्रिय अपज्जता जी असन्नी पंचेंद्री पर्याप्त । सन्नी पंचिद्रिय अपजत्तगा जी, सन्नी पं. पजत्तगा प्राप्त ।।
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२७. हे प्रभु ! ए चवदश विधा जी, जीव संसारिक पेख । जघन्योत्कृष्टज जोग नां जी, कुण-कुण जाव विशेख ||
वा० - जघन्य ते थोडुं अनै उत्कृष्ट ते घणूं तेहने जघन्योत्कृष्ट कहिये । हिव जोग किण नै कहिये ? वीर्य अन्तराय नां क्षयोपशम थकी तथा क्षायक थकी ऊपनी वीर्य शक्ति ते कायादि परिस्पन्द- चंचलता लक्षण ते जोग कहिये । ते जघन्य तथा उत्कृष्ट भेद थी चवदै जीव रा भेद संघाते जोड्यां २८ प्रकारे अल्पबहुत्वादिक जीव स्थानक विशेष थकी ह्व, ते कहै छै जघन्य तथा उत्कृष्ट जोग ते कुणकुण थकी थोड़ा हुवै तथा घणां हुवै तथा तुल्य हुवै तथा विशेष अधिक हुवे ? इम प्रश्न पूछ्ये-२८. जिन कहे थोड़ा सर्व थी जी, सूक्ष्म एकेंद्रिय तास । अपर्याप्तो छै तेहनों जी, जघन्य जोग सुविमास ।।
लय: पंथीड़ो बोले अमृतवाणी
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संसारसमावन्नगा जीवा
२२. कतिविहाणं भते ! पण्णत्ता ?
गोयमा ! चोद्दसविहा संसारसमावन्नगा जीवा तं जहा -
पण्णत्ता,
२४. १ सुहुमा अप्पज्जत्तगा २. सुहुमा पज्जत्तगा ३. बादरा अप्पज्जत्तगा ४. बादरा पज्जत्तगा
वा. - ' सुहुम' त्ति सूक्ष्मनामकर्मोदयात् 'अपज्जत्तग' ति अपर्याप्तका अपर्याप्त नाम कमाएवमितरे तद्विपरीतत्वात् 'बायर' त्ति बादरनामकर्मोदयात्, एते च चत्वारोऽपि जीवभेदाः पृथिव्याद्ये केन्द्रियाणां, (बृ. प. ८५३)
२५. ५. बेइंदिया अप्पज्जत्तगा ६. बेइंदिया पज्जत्तगा ७. तेइंदिया अप्पज्जत्तगा ८ तेइंदिया ९. चउरिदिया अप्पज्जत्तगा १०. चउरिदिया
पज्जत्तगा
पज्जत्तगा
तस्य
वा. कोसगस्स जोगस्थ ति जपन्यीनिकृष्टः काञ्चिद्व्यक्तिमाश्रित्य स एव च व्यक्त्यन्तरापेक्षयोत्कर्ष:- उत्कृष्टो जघन्योत्कर्ष: योगस्य दीर्यान्तरायक्षयोपशमादिसमुत्वकायादि परिस्पन्दस्य एतस्य च योगस्य चतुर्दशजीवस्थानसम्बन्धान्योत्कर्ष भेदाच्चाष्टाविंशतिविधस्वरूपबहुत्वादि जीवस्थानविशेषाद्भवति ५३)
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२६. ११. असणिपंचिदिया अप्पज्जत्तगा १२. असण्णिपंचिदिया पज्जत्तगा १३. सणिपंचिदिया अप्पज्जत्तगा १४. सण्णिपंचिदिया पज्जत्तगा । (बा. २५२) २७. एतेसि णं भंते! सविहाणं संसारसमावण्णगाणं जीवागं जम्कोसमस्स जोगस्स परे कवरेहितो जाव (संपा.) बिसेसाहियावा ?
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२८. गोयमा ! १. सम्वत्थोवे सुहुमस्स अपज्जत्तगस्स जहणए जोए
श० २५, उ० १, ढा० ४३३ ५
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