SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्ग्रन्थ में कल्प ११. "हे भगवंत ! पुलाक सुजोय, स्यूं स्थितकल्पे होय रे निग्रंथ निहालो । के अस्थिकल्प विषे अवलोय, जिन कहै बिकल्पे होय रे । निग्रंथ निहालो || सोरठा १२. प्रथम चरम जिन संत, स्थितकल्प कहिये तसु । अस्थितकल्पज त जिन बावीस विदेह मुनि ।। 1 वा -इहां वृत्तिकार कह्य – प्रथम- पश्चिम तीर्थकर नां साधु अचेलकादि दस पद नैं विषे स्थित हीज हुवै, तेहनों अवश्य पालन करवा थकी ते स्थितकल्प कहिवाय तेहमें पुलाक होय । मध्यम तीर्थकर नां साधु ए कल्प में स्थित अन 1 अस्थित बेहूं होय, इति अस्थितकल्प कहिवाय । तेहमें पिण पुलाक होय । १३. * एवं जावत स्नातक जाणी, अस्थितकल्पे माणी रे । अथवा जिनकल्पादि तीन प्रकार, हिवै तसु प्रश्न उदार रे ।। १४. हे भगवंत ! पुलाक स्यूं एह स्पं जिनकल्प विपेह रे ? के स्थविरकल्प विषे ते पाय ? के कल्पातीत विषे भाय रे ? ।। १५. प्रभु कहै जिनकल्पेन होय, स्थविरकये हुये सोय रे । कल्पातीत विषे हुवे नाहि, धारो विमल न्याय दिल मांहि रे ।। सोरठा १६. छद्मस्थ जिन आचार, तेह सरीखुं कल्प तसु । से जिणकल्पे सार स्थविरकल्प अन्य मुनि तणों ॥। १७. ए बिहं कल्प थकीज, अन्य विषेज रह्या जिके । कल्पातीत कहीज, एह शब्द नो अर्थ है । १८. *कुरा पूछयां जिन कहै सोय, जिनकल्पे ते होय रे । अथवा स्थविरकल्प विषे लहिये, कल्पातीत विषे नहीं कहिये रे ।। १९. पविणाकुशील महिज जाणो वकुश जेम पिछाणो रे । जिनकल्पे स्थविरकल्पेह, कल्पातीत विषे न कहेह रे ।। २०. कषायकुतील तणी हिव पृच्छा, जिन कहै सुण धर इच्छा रे 1 तथा स्थविरकल्पी उदारू रे ।। हूँ जिनकल्पविषे ए वारू, * लय : समजू नर विरला Jain Education International ११. पुजाए कि ठिक होला ? अट्टिक होना ? गोयमा ठिपकये जायकवा होज्जा | वाक्यादिषु दशसु पदेषु प्रथमपश्चिमतीर्थङ्करसाधवः स्थिता एव अवश्यं तत्पालनादिति तेषां स्थितिकल्पस्तत्र वा पुलाको भवेत्, मध्यमतीर्थमाधवस्तु तेषु स्थिताश्वास्थिताश्वेत्य स्थित कल्पस्तेषां तत्र वा पुलाको भवेत्, (बृ. प. ०९४) (श. २५/२९९ ) १३. एवं जाव सिणाए । १४. पुलाए णं भंते ! कि जिणकप्पे होज्जा ? थेरकप्पे होता ? कपातीते होना ? १५. गोयमा ! नो जिणकप्पे होज्जा, थेरकप्पे होज्जा, तो पाती होना (श. २५/३०० ) १५. बउसे गं पुच्छा । गोवमा ! जिणले वा होया पेरकप्पे वा होता, नो कृप्पातीते होज्जा । १९. एवं पडिसेवणाकुसीले वि। (श. २५/३०१ ) २०. सायमीले णं पुच्छा । गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा, थेरकप्पे वा होज्जा, For Private & Personal Use Only श० २५, उ० ६, ढा० ४४५ १११ www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy