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________________ ४६. लोगागाससेढीओ एवं चेव । एवं अलोगागाससेढोओ वि। (श. २५।८६) ४६. * लोकाकाश श्रेणि पिण इमहिज, _ अलोकाकाश नी श्रेणी जी। ते पिण इणहिज रीते कहिणी, द्रव्य थकी ए लेणी जी ।। ४७. हे भगवंतजी ! सगली श्रेणी, प्रदेशार्थपणें कहावत जी । स्यूं कडजुम्मा एवं चेवज, इम जाव ऊंची नीची आयत जी ।। ४७. सेढीओ ण भते ! पदेसट्टयाए कि कडजुम्माओ? एवं चेव । एवं जाव उड्ढमहायताओ। (श. २५।८७) ४८. लोगागाससेढीओ णं भंते ! पदेसट्टयाए-पुच्छा । ४८. लोकाकाश नी श्रेणी प्रभजी! प्रदेश अर्थपणेहो जी। स्यूं कडजुम्मा इत्यादिक पृच्छा ? हिव जिन उत्तर देहो जी ।। ४९. कदाचित ते है कडजुम्मा, तेओगा नहिं होई जी। कदाचित है द्वापुरयुग्मा, कलिओगा नहिं कोई जी ।। वा० ... लोकाकाश नी श्रेणि प्रदेश थकी कदा कडजुम्मा, कदा द्वापुरयुग्मा। तेहनों न्याय इम छै-रुचक अर्थ थकी आरंभी न जे पूर्व दिशि अर्द्धलोक अथवा रुचकार्द्ध थकी आरंभी नै जे दक्षिण दिशि अर्धलोक तेह पश्चिम अर्धलोक करिक तथा उत्तर अर्धलोक करिक तुल्य एतला माटे पूर्व पश्चिम श्रेणि बली दक्षिण उत्तर श्रेणि समसंख्य आकाश प्रदेश नी छ, तेह काइक श्रेणि कृतयुग्म हुवे, कांइक श्रेणि द्वापुरयुग्म है, पिण नहीं त्योज प्रदेश, नहीं कलियोग प्रदेश, निश्च तिण प्रकार करिक असद्भाव स्थापना करिके । दक्षिण पूर्व नां रुचक प्रदेश थकी पूर्व दिशे जे लोकार्द्ध श्रेणि तेहनां प्रदेश सौ १०० मान हुवे। अथवा जे अपर दक्षिण रुचक नां प्रदेश थकी पश्चिम दिशे लोकार्द्ध श्रेणि तेहनां पिण प्रदेश १०० परिमाण हुवै । वलि ते २०० सौ नं च्यार-च्यार अपहर करी पूर्व पश्चिम जे लोक नी श्रेणि नै कृतयुग्मपणों हुवै तथा दक्षिण पूर्व नां रुचक प्रदेश थकी दक्षिण दिशे जिको अन्त्य प्रदेश, तेह थकी आरंभी पूर्व दिशे लोकार्द्ध श्रेणि ते ९९ प्रदेश प्रमाण हुवै । वलि जे पश्चिम दक्षिण नां रुचक प्रदेश थकी दक्षिण दिशे जिको अन्त्य प्रदेश, तेह थकी आरंभी नै पश्चिम दिशे लोकाद्धं श्रेणि तेह पिण ९९ प्रदेश प्रमाण हुवै । वलि ते बिहुँ ९९ भेला कियां च्यार-च्यार अपहरवं करि पूर्व पश्चिम जे लोक नीं श्रेणि नै द्वापरयुग्मपणों हुवे। इम अनेरी पिण लोक नीं श्रेणि नै विषे भावना करवी। ५०. इमहिज पूर्व पश्चिम लांबी, दक्षिण उत्तर लंबी जी। ते पिण कडजुम्म द्वापुरजुम्मा, व्योज कल्योज नै थंभी जी ।। ५१. ऊर्द्ध अधो आयत नी पृच्छा? जिन कहै कडजुम्म त्यांही जी। नहिं तेओगा न द्वापरजुम्मा, कलियोगा पिण नांही जी।। ४९. गोयमा ! सिय क डजुम्माओ, नो तेओयाओ, सिय दावरजुम्माओ, नो कलियोगाओ। वा.-'लोगागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए' इत्यादी स्यात् कृतयुग्मा अपि स्यात् द्वापरयुग्मा इत्येतदेवं भावनीयं - रुचकार्डादारभ्य यत्पूर्व दक्षिण वा लोकार्द्ध तदितरेण तुल्यमतः पूर्वापरश्रेणयो दक्षिणोत्तरश्रेणयश्च समसङ्ख्यप्रदेशाः ताश्च काश्चित् कृतयुग्मा: काश्चिद् द्वापरयुग्माश्च भवन्ति न पुनस्त्योजप्रदेशा: कल्योजप्रदेशा वा, तथाहिअसदभावस्थापनया दक्षिणपूर्वाद रुचकप्रदेशात्पूर्वतो यल्लोकश्रेण्यर्द्ध तत्प्रदेशशतमानं भवति, यच्चापरदक्षिणाद्रुचकप्रदेशादपरतो लोकश्रेण्यद्धं तदपि प्रदेशशतमान, ततश्च शतद्वयस्य चतुष्कापहारे पूर्वापरायतलोकश्रेण्याः कृतयुग्मता भवति, तथा दक्षिणपूर्वाद्रुचकप्रदेशाद्दक्षिणो योऽन्त्यः प्रदेशस्तत आरभ्य पूर्वतो यल्लोकश्रेण्यर्द्ध तन्नवनवतिप्रदेशमानं, यच्चापरदक्षिणायताद्रुचकप्रदेशाद्दक्षिणो योऽन्त्यः प्रदेशस्तत आरभ्यापरतो लोकश्रेण्यर्द्ध तदपि च नवनवतिप्रदेशमान, ततश्च द्वयोर्नवनवत्योर्मीलने चतुष्कापहारे च पूर्वापरायतलोकश्रेण्या द्वापरयुग्मता भवति, एवमन्यास्वपि लोकश्रेणीषु भावना कार्या, (वृ. प ८६७) ५०. एवं पाईणपडीणायताओ वि, दाहिणुत्तरायताओ वि । (श. २५।८८) ५१. उढमहायताओ णं भंते ! पदेसट्टयाए- पुच्छा। गोयमा! कडजुम्माओ, नो तेयोगाओ, नो दावर जुम्माओ, नो कलियोगाओ। (श. २५।८९) वा. तिरियाययाउ कडबायराओ लोगस्ससंखसंखा वा। सेढीओ कडजुम्मा उड्ढमहेआययमसंखा ।। (व. प. ८६७) ५२. अलोगागाससेढीओ णं भंते ! पदेसट्ठयाए-पुच्छा । बा०-लोक नै तिरछी लांबी श्रेणि कृतयुग्मा वलि द्वापरयुग्मा हुवै । वलि श्रेणि संख्यात प्रदेश की तथा असंख्याता प्रदेश नी हुवै । अनै ऊंची, नीची, लांबी श्रेणि कृतयुग्माईज हुदै । वलि ते श्रेणि असंख्यात प्रदेशनीज हवं । ५२. अलोकाकाश नी श्रेणी प्रभुजी ! प्रदेश-अर्थपणेहो जी। स्यूं कडजुम्मा इत्यादि पृच्छा ? हिव जिन उत्तर देहो जी ।। ५३. कदाचित कडजुम्मा जावत, कदा कलियोगा कहावत जी। ___ इमहिज पूर्व पश्चिम लांबी, इम दक्षिण उत्तर आयत जी । *लय : चतर विचार करी नै देखो ५३. गोयमा ! सिय कडजुम्माओ जाब सिय कलि योगाओ। एवं पाईणपडीणायताओ वि। एवं दाहिणुत्तरायताओ वि। श०२५, २.३, डा०४३८४१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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