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________________ ३३. आदि सहित अंत सहित कदाचित, कदा सादि अनंत कहीतो जी । आदि रहित अंत रहित कदाचित, कदा आदि रहीत अंत रहीतो जी ।। सोरठा ३४. शुलक प्रतर आसन, अर्ध अधो लांबी जिका। श्रेणि आश्रयी जन्न, सादि सअंतज प्रथम भंग ।। ३५. लोकांत अवधि बकीज, आरंभी ने सर्व दिशि । अलोक मांहि कहीज, आदि सहित अंत रहित फुन ॥ ३६. तृतीय अनादिज संत, ते लोकांतज श्रेणि तणों ने अंत, तेही बच्चा वा० - पहिली कानी रा अलोक थी लेखवियं तो आदि रहित अनैं लोकांत नैं समीप जे अलोक नीं श्रेणि छँ तिहां अलोक नीं श्रेणि नों अंत कहिये । इम आदि रहित अंत सहित तीजो भांगो हुवै । ३७. कदा अनादि अनंत, लोक तजी ने श्रेणि जे। तास अपेक्षा हुंत, तुर्य भंग इहविध कह्यो । ३८. * पूर्व पश्चिम आयत ने वलि, दक्षिण उत्तर आयत जी । ए बिहं मांहि एवं चैव कहिये, नवरं विशेष कहावत जी ॥ ३९. सादि सवंत प्रथम भंग न है. शेष तीन भंग होई जी । कदा सादि अंत रहित इत्यादिक शेष तिमज ए तीनोंई जी ।। निकट जे। भी हुई ।। सोरठा ४० अलोक में अवलोय, तिरछी सादिपर्णे पिण जोय, अंत ४१. ते माटे अवलोव प्रथम भंग शेष तीन भंग होय, कहिया पूर्वी परं ॥ ४२. * ऊंची नीची आयत लांबी, जिम कह्यो ओधिक मांह्यो जी । तिम हिज भंग च्यारूई भगवा, ए अलोकाकाश कहायो जी ॥ ४३. हे भगवत जी ! सगली श्रेणि, ते द्रव्य अर्थपणेहो जी। ४० स्यूं कउजुम्मा तथा तेओगा, इत्यादि पृच्छा करेहो जी ? ४४. श्री जिन भा कडजुम्मा हूँ, तेजगा नाहि कहावत जी । नहि द्वापरम्य नहीं कलियोगा इम जाव ऊंची नीची आयत जी ॥ Jain Education International श्रेणी नां तिहां । सहितपणुं नथी । नहि इहां। सोरठा ४५. कडजुम्माज कहीज, वस्तु स्वभाव भी हां। कहिवो फुन इमहीज, सगला स्थानक नै विषे ॥ *लय: चतुर विचार करी ने देखो भगवती जोड़ ३३. गोयमा ! सिय सादीयाओ सपज्जवसियाओ, सिय सादीयओ अपज्जवसियाओ, सिय अणादीयाओ सपज्जवसियाओ, सिय अणादीयाओ अपज्जवसियाओ । ३४. 'सिय साईयाओ सपज्जवसियाओ' त्ति प्रथमो भङ्गक: शुक्लप्रतरप्रत्यासत्ती यतश्रेणीराबित्यावसेयः, ( वृ. प. ८६७ ) ति द्वितीयः ३५. सिय साइया अपयसियाओ स च लोकान्तादवधे रम्य सर्वतोऽसेव ३६. 'सिय अणाईयाओ ( वृ. प. ८६७) सपज्जवसियाओ' त्ति तृतीय:, स च लोकान्तसन्निधौ श्रेणीनामन्तस्य विवक्षणात् । ( वृ. प. ८६७) ३७. "सिय पाईपाओ अपनवविवाओ' ति चतुर्थ स च लोकं परिहृत्य याः श्रेणयस्तदपेक्षयेति । (4.4.450) ३८. पापडाताओ हिरावताओ य एवं व नवरं ३९. नो सादीयाओ सपज्जवसियाओ, सिय सादीयाओ अपज्जवसियाओ । सेसं तं चेव । ४०, ४१. 'नो साईयाओ सपज्जवसियाओ' त्ति अलोके तिर्यक श्रेणीनां सादित्वेऽपि सयवसितत्वस्याभावान्न प्रथमो भङ्गः, शेषास्तु त्रयः संभवन्त्यत एवाह(बु.प. ०६७) ४२. उमाताओ जहा ओहियाओ तब मंगो (श. २५०८५ ) ४३. सेढीओ णं भंते! दव्वट्टयाए कि कडजुम्माओ, तेओयाओ - पुच्छा | ४४. गोममा ह नोवाल नो दावरम्मा, नो कवियोगाल एवं जाव उड् महायताओ । ४५. 'जुम्मा' ति कथं? वस्तुस्वभावात् एवं सर्वा अपि, (बु. प. ८६७) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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