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७२. उत्कृष्ट अद्धा अंतमुंह, तसु एतलाज प्रमाण थी पिण, ७३. * स्नातक पूछघां श्री जिन भाखे
आखियो निर्ग्रथनं । एहथी नहीं छं धनुं । अंतर्मुहुर्त जघन्य ।
उत्कृष्ट अद्धा देश ऊण जे, पूर्व कोड़ि सुजन्य ॥
सोरठा
७४. आऊखा नैं अंत.
थाकते ।
अंतर्मुहूर्त वर केवल उपजंत, अंतर्मुहतं जघन्य इम ॥ साधिक अठ वर्षे लहै ।
७५. कोड़ पूर्व स्थिति जास,
केवलज्ञान प्रकाश, देश ऊण ७६. इक वचने करि काल हिव बहुवचने म्हाल,
पुम्बकोड़ि इम ॥ पुलाक प्रमुख नों
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अद्धा तेनुं ॥
आयो कहिये
७७. काल की प्रभु ! घणां पुलाका, रहे जपन्य समय इक श्री जिन भाखं
काल केतलो इष्ट ? अंतर्मुहूतं उत्कृष्ट ॥
यतनी
७८. कहूं एक समय नों न्याय, जेह एक पुलाक नों ताय । कह्यं अंतर्मुहूर्त्त काल, तेहनां चरम समय विषे न्हाल ॥ ७९. पुलाकपणुं अनेरो पामेह, जघन्यपणां नीं वंछा विषेह ।
थयो दोनं पुलाक नों भाव, एक समय विषे इण न्याय ।। ८०. प्रथम पुलाक नुं जोय, जे चरम समय अवलोय ।
द्वितीय पुलाक नौ तेह, ओ तो प्रथम समय कहां जेह ॥ ८१. हम एक समय रे मांय, दोय पुलाक कहिवाय । प्राकृत भाषा मांय, दोन पिन बहुवचने कहाय ॥
सोरठा
उत्कृष्ट,
२. अंतर्मुह यद्यपि घणां पुलाक नों। इक काले ते इष्ट, पृथक सहस्र जे पामियं ॥ ८३. ते अंतर्मुहूर्त्त थकीज, तास काल नों बहुत्व पिण । अंतर्मुहूर्त हीज, तेहिज बहु नीं स्थिति विषे ॥ ८४. इक पुलाक स्थिति जोय, अंतर्मुहूर्त काल जे
तेहची महत्तर होय, अंतर्मुहूर्त बहू तनुं ॥
वा०--- इहां घणां पुलाक जघन्य थकी एक समय ते किम ? एक पुलाक नों जे अंतर्मुहूर्त काल तेहनां अंत समय नैं विषे अनेर पुलाकपणुं पाम्यो इम जघन्यत्व विवक्षा नै विषे दोय पुलाक नों एक समय नैं विषे सद्भाव थयो, द्वित्व नै विषेज जघन्य पृथक हुवै । उत्कृष्ट थकी अंतर्मुहूर्त - यद्यपि पुलाक उत्कृष्ट थी एकदा सहस्र पृथक परिमाण पामियं ते अंतर्मुहूर्तपणां थकी तेहनां काल नों बहुत्व, तो पिण तेह अंतर्मुहूर्त तेहि ते काल । केवल घणां नीं स्थिति नैं विषे जे अंतर्मुहूर्त्त ते एक पुलाक स्थिति अंतर्मुहूर्त थकी महत्तर जाणवुं । एतले एक पुलाक नां अंतमुहूर्त काल की पणा पुलाक नुं अंतर्मुहुर्त मोटो जावं ।
*लय: रे मुनिवर ! जीव दया व्रत पालो
१५० भगवती जोड़
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७२. 'उक्कोसे अंतोमुहुत्त' ति निर्ग्रन्थाद्वाया एतत्प्रमाणत्वादिति । (बृ. प. ९०६)
७३. सिणाए- पुच्छा ।
गोवमा ! जो अंतगत उपो देगा पुष्कोडी | (म. २५०४२७)
७४. 'जने अंतगृहतं ति आयुष्कान्तिमेतहूर्ते केवलोत्पत्तावन्त स्यादिति ।
जघन्यतः स्नातककालः
(बृ. प. ९०६)
७६. गुलाकादीनामेकत्वेन कासमानमुक्त अथ पृथक्त्वेनाह(बृ. प. ९०६)
७७. पुलाया णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होंति ? गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुतं । (श. २५४२८ )
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वा०-- ' जहन्नेणं एक्कं समयं ति, कथम् ? एकस्य पुलाकस्य योऽन्तर्मुहूर्त्तकालस्तस्यान्त्यसमयेऽन्यः पुलाकत्वं प्रतिपन्न इत्येवं जपन्वत्वविवक्षायां द्वयोः पुलाकयोरेकत्र समये सद्भावो द्वित्वे च जघन्यं पृथक्त्वं भवतीति । 'उबको अंतोमुहूर्त' ति यद्यपि पुलाका उत्कर्षत एकदा सहस्रपृथक्त्वपरिमाणा: प्राप्यन्ते तथाऽप्यन्तत्वात्तदद्वावा महुत्वेऽपि तेषामन्तर्मुहुर्तमेव तत्काल केवल बहूनां स्थितौ यदन्त तदेकपुलाकस्थित्यन्त महतमहत्तरमित्यवसेयं, (बृ. प. ९०६,९०७)
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