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________________ ८५. बउसा णं-पुच्छा। गोयमा ! सव्वद्धं । एवं जाव कसायकुसीला। ८५. *घणां बकुश नीं पूछा कीधां, जिन भाखै सर्व काल । एवं जाव कषायकुशीलज, बहु वचने करि न्हाल ।। सोरठा ८६. बकुस आदि संवादि, सर्व काल बहु सासता । एक-एक बकुशादि, बहुस्थितिक नां भाव थी। ८७. निग्रंथ बहु वच पुलाक नी परि, समयो एक जघन्य । उत्कृष्ट अंतर्मुहर्त अद्धा, न्याय पुलाक ज्यूं जन्य ।। ८८. बहु वच स्नातक बकुश तणी परि, सदा काल ते जोय । केवलज्ञानी पृथक कोड़ थी, ओछा कदेय न होय ।। ८९. शत पणवीसम देश छठा नं, च्यारसौ एकावनमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशाल । ८६. बकुशादीनां तु स्थितिकालः सर्वाद्धा, प्रत्येक तेषां बहुस्थितिकत्वादिति। (वृ. प. ९०७) ८७. नियंठा जहा पुलागा। ८८. सिणाया जहा बउसा । (श. २१४२९) ढाल:४५२ निर्ग्रन्थों में अन्तर १. पुलाक में प्रभु ! केतलो, काल अंतरो जेह ? पुलाक थइ कितै अद्धा, फुन पुलाक है तेह ? २. श्री जिन भाख जघन्य थी, अंतर्मुहूर्त जेह । उत्कृष्ट काल अनंत मुं, अंतर इकवचनेह ।। वा०-- जघन्य थकी अंतर्मुहूर्त रही नै वली पुलाक हीज हुवै । उत्कृष्ट थकी। वली अनंत कालपणे पाम ते काल नों अनंतपणों हीज काल थी नियम करतो कहै १. पुलागस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ ? तत्र पुलाकः पुलाको भूत्वा कियता कालेन पुलाकत्वमापद्यते? (व. प. ९०७) २. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं। वा.-जघन्यतोऽन्तर्मुहूतं स्थित्वा पुनः पुलाक एव भवति, उत्कर्षत: पुनरनन्तेन कालेन पुलाकत्वमाप्नोति, कालानन्त्यमेव कालतो नियमयन्नाह (वृ. प. ९०७) ३. अणंताओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ कालओ, ४. इदमेव क्षेत्रतोऽपि नियमयन्नाह- (वृ.प. ९०७) ३. काल थकी अंतर हुवै, अवसर्पिणी अनंत । उत्सर्पिणी अनंत ही, भाखी श्री भगवंत ।। ४. तेह अनंतो काल फुन, क्षेत्र थकी पहिछाण । मिणतां छतांज मान थी, सुणियै तेह सुजाण ।। ५. परावर्त-पुद्गल अर्द्ध, देश ऊण अवलोय । इक यावत निग्रंथ ने, इक वच अंतर होय ।। वा०-खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियटै देसूणं एवं जाव नियंठस्स--खेत्तओ कहितां क्षेत्र थकी, अवड्ढे कहितां अपगत अर्द्ध ते गयो छै अर्द्ध ते अर्द्ध मात्र, पो० कहिता पुद्गलपरावर्त ते अर्द्ध पुद्गलपरावर्त पूर्ण पिण हुई ते माटै आगल कहै छै ५. खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियट देसूर्ण । एवं जाब नियंठस्स। (श. २५१४३०) वा.-'खेत्तओ' इति, स चानन्तः कालः क्षेत्रतो मीयमानः किमान: ? इत्याह-'अवड्ढ' मित्यादि, 'अपार्द्धम्' अपगतार्द्धमर्द्धमात्रमित्यर्थः, अपार्दोऽप्यर्द्धत: *सय : रे मुनिवर ! जीव दया व्रत पालो श० २५, उ.६, ढा० ४५१,४५२ १५१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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