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३७. गोयमा ! आयजसं पि उवजीवंति, आयअजसं पि उवजीवंति।
(श. ४१०१६)
३८. जइ आयजसं उवजीवंति कि सल्लेसा? अलेस्सा ?
गोयमा ! सलेस्सा वि अलेस्सा वि । (श. ४१।१७) ३९. जइ अलेस्सा कि सकिरिया ? अकिरिया ?
३७. जिन कहै आत्मयश प्रति पिण तिके, उपजीवै मन प्राणी जी। आत्मअयश प्रति पिण उपजीवता,
अमल न्याय चित आणी जी ।। वा०-इहां मनुष्य आत्म-जश ते संजम प्रति पिण उपजीव ते आश्रय धारण करै । अन आत्म-अयश प्रति पिण उपजीव ते असंयम प्रति धारण करै । एतले मनुष्य संजम रूप आश्रय प्रति पिण धारण कर ते असंजम प्रति पिण अंगीकार करी रहै। ३८. जो आत्म-यश प्रति उपजीवै अछ, तो स्यं सलेशी होयो जी ?
तथा अलेशी हवे ते मानवी? जिन कहै बिहं ही होयो जी ।। ३९. जो अलेशी हवे ते मानवी, तो स्यं किरिया-सहीतो जी।
अथवा क्रिया-रहित हुवै तिके ? गोयम प्रश्न पुनीतो जी ।। ४०. जिन कहै क्रिया-सहित हुवै नहीं, क्रिया-रहित ते होई जी।
चवदम गुणठाणे इरियावही, क्रिया न लागै कोई जी ।। ४१. किरिया-रहित हुवै जो ते मनु, तो तिणहीज भव सीझता जी।
यावत अंत करे सहु दुख तणों? जिन कहै अंत करता जी ।। ४२. जो सलेशी हुवे ते मानवी,
तो क्रिया-सहित के क्रिया-रहीतो जी ? जिन कहै क्रिया-रहित हुवै नहीं,
हुवै छै क्रिया-सहीतो जी॥ ४३. क्रिया-सहित हवै जो ते मनु. तो तिणहिज भव सोझता जी ।
यावत अंत करै सहु दुख तणों ? गोयम प्रश्न पूछता जी ।। ४४. जिन कहै केइक सीझ तिण भवे. जाव कर अंत त्यांही जी।
केइक तिण भव करि सीझे नहीं, जाव करै अंत नांही जी।
४०. गोयमा ! नो सकिरिया, अकिरिया।
(श. ४१।१८) ४१. जइ अकिरिया तेणेव भवग्गहणणं सिझंति जाव
सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति ? हंता सिझंति जाव
सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति । (श.४१।१९) ४२. जइ सलेस्सा कि सकिरिया ? अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया, नो अकिरिया ।
(श. ४१।२०)
४३. जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव
सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति ? ४४. गोयमा ! अत्थेगइया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति
जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति, अत्थेगइया नो तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति ।
(श. ४१।२१) ४५. जइ आयअजसं उवजीवंति कि सलेस्सा ? अलेस्सा?
गोयमा ! सलेस्सा, नो अलेस्सा। (श. ४११२२)
४६. जइ सलेस्सा कि सकिरिया ? अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया, नो अकिरिया।
(श. ४११२३)
४५. जो आत्म-अजश प्रति उपजीव,
तो स्यू सलेशी के अलेशी जी ? श्री जिन भाखै अलेशी नहीं, है छै तेह सलेशी जी ॥ ४६. जो सलेशी तो स्यूं क्रिया-सहित छै,
के क्रियारहित कहायो जी? श्री जिन भाखै क्रिया-सहित लै,
क्रिया-रहित न थायो जी ।। ४७. जो क्रिया-सहित तो सोझै तिणहिज भवे,
जाव करै दुख अंतो जी? जिन कहै एह अर्थ समर्थ नहीं, विरति विना न सीझतो जी। ४८. व्यंतर ज्योतिषी ने वैमानिका, कहिवा नारकि जेमो जी। सेवं भंते ! शत इकताल में, प्रथम उद्देशक एमो जी ।।
॥इति ४१११ ॥ ४९. ढाल च्यार सय ऊपर जाणवी, छिन्नमी पहछाणो जी। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसाद थी,
'जय-जश' हरष कल्याणो जी॥ ४ भगवती जोड़
४७. जइ सकिरिया तेणेव भगग्गहणेणं सिझंति जाव
सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति ? नो इणठे समठे ।
४८. वाणमंतर जोइसियवेमाणिया जहा नेरइया ।
(श. ४१०२४) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. ४१।२५)
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