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६०. एएसि णं भंते ! सामाइय-छेओवढावणिय
परिहारविसुद्धिय-सुहुमसंपराय-अहक्खायसंजयाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? [सं. पा] विसेसाहिया वा?
६१. गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहमसंपरायसंजया, परिहार
विसुद्धियसंजया संखेज्जगुणा,
संयत का अल्पबहुत्व ६०. प्रभु ! सामायिक सुखदायो जी, जिन०,
छेदोपस्थापनी ताह्यो जी, जिन० । परिहार सूक्ष्मसंपरायो जी, जिन०,
वलि चारित्र अहक्खायो जी, जिन। कुण-कुण थकी जाव प्रभु ! कहिये,
- विशेष अधिक विचार ।। प्रभु ! सामायिक० ॥ ६१. तब भाख जिनरायो जी, गो०,
सहु थी थोड़ा थायो जी, गो० । मुनि सूक्ष्मसंपरायो जी, गो०,
दशम गुणे दीपायो जी, गो० । तेह थकी परिहारविशुद्धक,
संखगुणा अधिकार ।। तब भाखै० ॥ ६२. तेह थकी अहक्खायो जी, गो०,
संखगुणा शोभायो जी, गो० । छेदोपस्थापनी ताह्यो जी, गो०
संखगुणा कहिवायो जी, गो० । तेह थकी सामायिक मुनि बहु,
संखगुणा ऋषिराय ।। तेह थकी। वा०-सर्व थी थोड़ा सूक्ष्मसंपराय संयती ते काल नां स्तोकपणां थकी, वलि निग्रंथ तुल्यपण करी शत पृथक प्रमाणपणां थकी १ । तेहथी परिहारविशुद्धक संयत संख्यातगुणा तेहनों काल घणों ते माट। बलि पुलाक तुल्यपणे करी तेहनै सहस्र पृथक मानपणां थकी २ । तेहथी यथाख्यात संयत संख्यातगुणा, तेहनै कोटि पृथक प्रमाणपणां थकी ३ । तेहथी छेदोपस्थापनीक संयत संख्यातगुणा, कोटि शत पृथक मानपण करी तेहनै कह्या माटै ४। तेहथी सामायिक संजत संख्यातगुणा, तेहनै कषायकुशील तुल्यपण करी कोटि सहस्र पृथक मानपण करी तेहन क ह्या माट ५।
६२. अहक्खायसंजया संखेज्जगुणा, छेओवट्ठावणियसंजया
संखेज्जगुणा, सामाइयसंजया संखेज्जगुणा ।
वा०-'सव्वत्थोवा सुहुमसंपरायसंजय' त्ति स्तोकत्वातत्कालस्य निर्ग्रन्थतुल्यत्वेन च शतपृथक्त्वप्रमाणत्वात्तेषां, 'परिहारविसुद्धियसंजया संखेज्जगुण' त्ति तत्कालस्य बहुत्वात् पुलाकतुल्यत्वेन च सहस्रपृथक्त्वमानत्वात्तेषाम्, 'अहक्खायसंजया संखेज्जगुण' त्ति कोटीपृथक्त्वमानत्वात्तेषां, 'छेदोवट्ठावणियसंजया संखेज्जगुण' त्ति कोटीशतपृथक्त्वमानतया तेषामुक्तस्वात्, 'सामाइयसंजया सखेज्जगुण' त्ति कषायकुशीलतुल्यतया कोटीसहस्रपृथक्त्वमानत्वेनोक्तत्वातेषामिति ।
(वृ. प. ९१८,९१९)
सोरठा ६३. संयत पंच प्रकार, षट तीसे द्वारे करी ।
आख्यो प्रभु अधिकार, ग्रहण करै सुगुणा गुणी ।। ६४. धुर बे चरित्त उदार, छठा थी नवमा लगे ।
मुनि विशुद्धपरिहार, षष्टम सप्तम गुण हुवे ।। ६५. वलि दशमें गुणठाण, संपराय-सूक्ष्म कह्यो ।
यथाख्यात फुन जाण, ऊपरलै गुणठाण चिहुं ।। ६६. पणवीसम शत पेख, सप्तमुद्देशक देश ए ।
अर्थ थकी सुविशेख, आख्यो अधिक घमंड' करि' ।। १. गौरव २. श्रीमज्जयाचार्य रचित कृतियो में दो कृतियां हैं-'नियंठा नी जोड़' एवं 'सजया नी जाड़' । भगवती सूत्र के २५ वें शतक से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें प्रस्तुत ग्रन्थ के परिशिष्ट में रखा गया है ।
श०२५, उ०७, ढा० ४६० २०१
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