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जघन्यमल्पतरमुत्कृष्टं च बहुतरमिति ।
(वृ.प. ९१८) ५१. परिहारविसुद्धिया जहा पुलागा ।
५४. सुहुमसंपराया जहा नियंठा ।
(श. २५.५४८)
५०. जघन्य मान ए जोय, पृथक बे त्रिण कोड़ सौ ।
उत्कृष्टा अवलोय, हुवै अष्ट नव कोड़ शत ।। ५१. *बहुवचन विशुद्धपरिहारो जी, गो०,
पुलाक जेम विचारो जी, गो० । पड़िवजतां अवधारो जी, गो०,
पूर्वप्रतिपन्न सारो जी, गो० । 1. कदाचित ह कदाचित नहीं है,
जो है तो इम होय । बहुवचन ।।
सोरठा ५२. पड़िवजतां अवधार, ह तो इक बे त्रिण जघन्य ।
उत्कृष्टा सुविचार, पृथक शत पहिछाणियै ।। ५३. पूर्वप्रतिपन्न पेख, ह तो इक बे त्रिण जघन्य ।
फुन उत्कृष्ट विशेख, पृथक सहस्र बखाणियै ।। ५४. *बहु सूक्ष्मसंपराया जी, गो०,
निग्रंथ जेम कहाया जी. गो० । पड़िवजतां सुखदाया जी, गो०,
पूर्वप्रतिपन्न पाया जी, गो० । कदाचित ह कदाचित नहीं है,
है तो इम अवलोय ।। बहु सु० ।।
सोरठा ५५. पड़िवजतां वर्तमान, जघन्य एक बे तीन ह।
उत्कृष्टा पहिछाण, इकसौ बासठ ऊपर ।। ५६. इको बासठ मांय, इकसौ अष्टज क्षपक नां ।
फून चोपन मुनिराय, उपशम श्रेणि तणां हुवै॥ ५७. पूर्व-प्रतिपन्न पाय, जघन्य एक बे तीन ह ।
उत्कृष्टो कहिवाय, पवर पृथक शत दशम गुण ।। ५८. *बहुवच अहक्खाय सुजन्नो जी, जिन०,
इम पूछयां कहै भगवन्नो जी, गो० । पड़िवजतांज सुमन्नो जी, गो०,
सिय अस्थि सिय नत्थि पन्नो जी, गो। उत्कृष्ट इक सौ बासठ होवै,
उपशम क्षपक अमंद ।। बहुवच० ।। ५९. पूर्व-प्रतिपन्न माणी जी, गो०,
___ जघन्य थकी जे जाणी जी, गो० । पृथक कोड़ पिछाणी जी, गो०,
वर केवलधर नाणी जी, गो० । उत्कृष्टा पिण पृथकज कोडि,
विदेहक्षेत्र जिन वृंद ।। पूर्वप्रतिपन्न० ॥ *लय : माता सुत नै भाख जी
५८. अहक्खायसंजया णं-पुच्छा।
गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अत्थि सिय नत्थि । जइ अत्थि जहणणं एकको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं बाबठ्ठ सयं-अठ्ठत्तरसयं खवगाणं, चउप्पण्णं उवसामगाणं ।
५९. पुवडिवण्णए पडुच्च जहण्णेणं कोडिपुहत्तं,
उक्कोसेण वि कोडिपुहत्तं। (स. २५२५४९)
२०० भगवती जोड
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