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________________ सोरठा ३९. वर उपशम चरित उचित्त, उपशम भाव विषे हवै । क्षायिक चरण पवित्त, क्षायिक भावे ते हुवै ॥ संयत का परिमाण ४०. सामायिक सुखदाई जी, जिन०, एक समय के थाई जी ? जिन । जिन उत्तर वरदाई जी, जिन०, पड़िवजतां ते थाई जी, गो० । जेम कषायकुशील कह्यो तिम, ए पिण कहिवो सार ।। सामायिक० ।। ४०. सामाइयसंजया णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा? गोयमा ! पडिवज्जमाणए य पडुच्च जहा कसायकुसीला तहेव निरवसेसं । (श. २१५४७) ४४. छेदोवढावणिया-पुच्छा। गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अत्थि सिय नत्थि । जइ अत्थि जहण्णणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं । सोरठा ४१. सामायिक अवलोय, पड़िवजतां ने आश्रयी । कदाचित ते होय, कदाचित नहिं व तिके ।। ४२. जो है तो इम जाण, जघन्य एक बे त्रिण हुवै । उत्कृष्टा पहिछाण, पृथक्त्व सहस्र है इक समय ।। ४३. पूर्वप्रतिपन्न जोड़, जघन्य अने उत्कृष्ट पिण । पृथक सहस्रज कोड़, विदेह क्षेत्र में शाश्वता ।। ४४. *छेदोपस्थापनी भावै जी, जिन०, पूछयां जिन फुरमावै जी, गो० । पड़िवजतांज कहावै जी, गो०. सिय है सिय नहि थावै जी, गो० । है तो जघन्य एक बे त्रिण ह्व, पृथक सौ उत्कृष्ट ।। छेदोप० ।। ४५. पूर्वप्रतिपन्न सारो जी, गो०, ते आश्रयी अवधारो जी, गो० । कदा हुवै सुखकारो जी, गो०, हुवै नहीं किणवारो जी, गो० । है तो जघन्य अनैं उत्कृष्ट ही, कोड़ पृथक सौ इष्ट ।। पूर्वप्रतिपन्न ।। सोरठा ४६. वृत्ति विषे इम जोड़, उत्कृष्ट छेदोपस्थापनी । कह्या पृथक सौ कोड़, धुर जिन तीर्थ आश्रयी ।। ४७. जघन्य कह्या छै जेह, तेह सम्यग प्रकार करि । नथी जाणियै तेह, न्याय पृथक सौ कोड़ नों।। ४८. दुःषम अंते देख, दश क्षेत्र इक-इक विषे । इक मुनि समणी एक, सांभलियै छै वीस इम ।। ४९. के इक इम कहै ताय, ए पिण जे धुर जिन तणां । तीर्थ काल अपेक्षाय, जघन्य पृथक सौ कोड़ है ।। ४५. पुव्वपडिवण्णए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि । जइ अत्थि जहण्णेणं कोडिसयपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिसयपुहत्तं। ४६. इहोत्कृष्ट छेदोपस्थापनीयसंयतपरिमाणमादितीर्थकर तीर्थान्याश्रित्य संभवति, (व. प. ९१८) ४७. जघन्यं तु तत्सम्यग् नावगम्यते, (वृ. प. ९१८) ४८. यतो दुष्षमान्ते भरतादिषु दशसु क्षेत्रेषु प्रत्येक तद्वयस्य भावाद्विशतिरेव तेषां श्रूयते, (वृ. प. ९१८) ४९,५०. केचित्पुनराहुः --- इदमप्यादितीर्थकराणां यस्तीर्थ कालस्तदपेक्षयव समवसेयं, कोटी शतपृथक्त्व च *लय : माता सुत ने भाख जी श०२५, उ०७, ढा०४६० १९९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education Intemational
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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