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________________ ११. एवं जाव थणियकुमाराणं । ते भणी ए त्रिहुं बोल नहीं पूछवा । इम आगल पिण जाणवा । ११. एवं जावत जाणवू, गोयम ! थणियकूमार लगेह । बोल पावै जे एह में, तिके नारकि नीं परै लेह ।। वा०-प्रथम उदेशे समुच्चय नारकी नै ३५ बोल कहा। अने इहां प्रथम समयोत्पन्न नारकी नै मिश्रदृष्टि १, मन जोग २, वचन जोग ३–ए तीन बोल वर्जी शेष ३२ बोल कहिवा। अने प्रथम उद्देशे समुच्चय भवनपति में ३७ बोल कह्या । नारकी में ३५ बोल पावै । ते माहिलो नपुंसक वेद वर्जी ३४ बोल अनै तेजूलेशी १, स्त्री वेद २, पुरुष वेद ३ ए तीन बोल घाल्या । एवं ३७ बोल समुच्चय पावै। ते ३७ बोल माहिलो मिश्रदष्टि १, मन जोग २, वचन जोग ३ --ए तीन बोल वर्जी शेष ३४ बोल प्रथम समयोत्पन्न भवनपति में कहिवा । १२. धुर समय विकलेंद्रिय जीव ने, गोयम ! वचन जोग न भणेह । प्रथम समय नां ऊपनां, तिण वेला वचन न कहेह ।। वा.-समुच्चय बेइंद्री में प्रथम उदेशे ३१ बोल कह्या । ते माहिला वचन जोग वर्जी शेष ३० बोल इहां प्रथम समयोत्पन्न में कहिवा। ते माट वचन जोग वयों। १३. धुर समय पंचेंद्री तिर्यच , गोयम ! मिश्रदष्टि अवधिज्ञान । विभंग जोग मन वच नहीं, ए तो पंच न भणवा जान ।। १२. बेइंदिय-तेइ दिय-चरिदियाणं वइजोगो न भण्णइ । १३. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पि सम्मामिच्छत्तं, ओहिनाणं, विभंगनाणं, मणजोगो, वइजोगो-. एयाणि पंच न भण्णं ति। १४,१५. मणुस्साणं अलेस्स-सम्मामिच्छत्त-मणपज्जवनाण केवल नाण-विभंगनाण-नोसपणोवउत्त-अवेदग-अकसायमणजोग-बइजोग-अजोगि-एयाणि एक्कारस पदाणि न भण्णति । वा - समुच्चय पंचेंद्री तिर्यच में प्रथम उदेशे ४० बोल कह्या । ते माहिला मिश्रदृष्टि १, अवधिज्ञान २, विभंगअज्ञान ३, मन जोग ४, बचन जोग--ए ५ बोल वर्जी शेष ३५ बोल इहां प्रथम समयोत्पन्न में कहिवा । १४. प्रथम समयोत्पन्न मनुष्य ने गोयम ! अलेशी समामिथ्यात । मनपज्जव केवल वली गोयम ! विभंगअज्ञान विख्यात ।। १५. नोसण्णोवउत्त अवेदगे, गोयम ! अकषाई मन जोय । वचन जोग अजोगी वली, गोयम ! पद ग्यारै नहिं होय ।। वा० समुच्चय मनुष्य में प्रथम उदेशे ४७ बोल कह्या । ते माहिला अलेशी आदि ११ बोल बर्जी शेष ३६ बोल इहां प्रथम समयोत्पन्न मनूष्य में कहिवा। १६. वाणव्यंतर नै ज्योतिषी, गोयम! वैमानिक ने ताहि । जिम नारक तिम जाणवा, तिमहिज त्रिण पद भणवा नांहि ।। वा०-समुच्चय व्यंतर में प्रथम उदेशे बोल ३७ क ह्या । ते माहिला मिश्रदृष्टि १, मन जोग २, वचन जोग ३-ए ३ बोल वर्जी शेष ३४ बोल इहां प्रथम समयोत्पन्न व्यंतर में कहिवा । अनै समुच्चय ज्योतिषी में प्रथम उदेशे ३४ बोल कह्या ते माहिला ए ३ बोल वर्जी शेष ३१ बोल इहां प्रथम समयोत्पन्न ज्योतिषी में कहि वा । अन वैमानिक प्रथम समयोत्पन्न में पिण ए तीन बोल न कहिणा । १७. सर्व नै जे शेष स्थानके, इतर जेह थकी शेष स्थान । सर्वत्र दोय भांगा हवे, ए तो प्रथम द्वितीय पहिछाण ।। १८. प्रथम समय नां ऊपनां गोयम ! एकेद्रिय नै जोय । सर्वत्र स्थानक में विषे गोयम ! प्रथम द्वितीय भंग दोय ।। जहा नेर इयाणं १६. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं तहेव ते तिण्णि न भण्णंति । १७. सव्वेसि जाणि सेसाणि ठाणाणि सव्वत्थ पढम बितिया भंगा। १८. एगिदियाणं सव्वत्थ पढम-बितिया भंगा। २६८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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