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ढाल : ४७१
दूहा १. प्रथम उद्देशक नै विषे, जीवादिक पणवोस ।
स्थानक द्वार इग्यार करि, आख्या अधिक जगीस ।।
१. प्रथमोद्देशके जीवादिद्वारे एकादशकप्रतिबद्धन्वभिः पापकर्मादिप्रकरणर्जीवादीनि पञ्चविंशति
जीवस्थानानि निरूपितानि (व. प. ९३४) २. द्वितीयेऽपि तथैव तानि चतुर्विशतिनिरूप्यन्ते
(वृ. प. ९३४)
३. अणंतरोववन्नए णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं कि बंधी-पुच्छा तहेव ।
४. गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी, पढम-बितिया भंगा।
(श. २६/२९)
२. द्वितीय उद्देशे पिण तेहिज, कहियै पद चउवीस ।
धुर पद जीव तणों तिहां, कहिवो नहीं जगीस ।। अनन्तरोपपन्नक : बन्ध-अबन्ध
*प्रश्नोत्तर परवरा, बंधी शतक में द्वितीय उदेश ।। (ध्रुपदं) ३. प्रथम समय नां ऊपनां, तिके नारक हे भगवान ! पापकर्म स्यं बांधियो?
- तिमहिज चिहुं भंग प्रश्न पिछान ।। ४. जिन कहै कोइक नारकी, गोयम प्रथम द्वितीय भंग दोय। बांध्यो बांधे बांधस्यै, बांध्यो बांधे नहिं बांधस्यै सोय ।।
सोरठा ५. पापकर्म पूछेह, ते मोह कर्म अपेक्षया ।
प्रथम समय नों जेह, अनंतरोत्पन्न नारकी ।। ६. मोह लक्षण अघ वादि, अबंधपणं नहि छै तिहां ।
सूक्ष्मसंपरायादि, मोह अबंधक छै जिहां ।। ७. ते सूक्ष्मसंपरायादि, नारक विषे हवै नहीं ।
तिण कारण संवादि, चरम भंग बे नहिं तिहां ।। ८. *जे सलेशी नारकी, प्रभु ! प्रथम समय उत्पन्न ।
पापकर्म स्यूं बांधियो? गोयम इत्यादि प्रश्न कथन्न ।। जिन कहै धुर भंग बे हवै, गोयम ! इम सगल अवलोय। कृष्ण लेश्यादिक पद विषे,
गोयम ! प्रथम द्वितीय भंग दोय ॥ वा० लेश्यादि पद नै विषे सामान्य थकी नारकादिक नै पिण हुवे जे पद प्रथम समयोत्पन्न नरकादि नै अपर्याप्तकपण करी न हवं ते पद प्रथम समयोत्पन्न नैं न पूछणा ते देखाड़तो थको कहै छै--
५,६. इहाद्यावेव भङ्गो अनन्तरोपपन्ननारकस्य मोहलक्षणपापकर्माबन्धकत्वासम्भवात्, तद्धि सूक्ष्मसम्परायादिषु भवति, तानि च तस्य न संभवन्तीति ।
(वृ. प. ९३५)
८ सलेस्से णं भंते ! अणंतरोववन्नए नेरइए पावं कम्म
कि बंधी-पुच्छा। ९. गोयमा ! पढम-बितिया भंगा । एवं खलु सव्वत्थ
पढम-बितिया भंगा,
१०. नवरं इतरो विशेष छ, गोयम ! मिश्रदष्टि मन जोय ।
वचन जोग नहि पूछवा, गोयम ! प्रथम समय नहि होय ।।
वा०-प्रथम उद्देशके समुच्चय नारकी नै मिश्रदृष्टि १, मन जोग २, वचन जोग ३-ए त्रिहं बोल कह्या छ । इहां ए न कहिवा। यद्यपि नारकी ने ए त्रिहुं पद छ तो पिण प्रथम समयोत्पन्नपणे करी ते नारकी नै ते त्रिहुं बोल नहीं। *लय : जीवा ! तूं तो भोलो रे प्राणी इम
वा. - लेश्यादिपदेषु, एतेषु च लेश्यादिपदेषु सामान्यतो नारकादीनां संभवन्त्यपि, यानि पदान्यनन्तरोत्पन्ननारकादीनामपर्याप्तकत्वेन न सन्ति तानि तेषां न प्रच्छनीयानीति दर्शयन्नाह
(वृ. प. ९३५) १०. नवरं सम्मामिच्छत्तं मणजोगो वइजोगो य न पुच्छिज्जइ।
वा.--तत्र सम्यग्मिथ्यात्वाद्युक्तत्रय यद्यपि नारकाणामस्ति तथाऽपीहानन्तरोत्पन्नतया तेषां तन्नास्तीति न पृच्छनीयं, एवमुत्तरत्रापि।
(वृ. प ९३५)
श०२६, उ०२. ढा० ४७१ २६७
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