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________________ वा. अन्यथा चरमत्वमेव न स्यादिति, एवमन्य त्रापि विशेषोऽवगन्तव्य इति, (व. प. ९३७) ३०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाब विहरइ। (श. २६।४९) वा०—अन्यथा चरमपणुं हीज न हुवै। इम अन्यत्र स्थानके पिण विशेष जाणवू । ३०. सेवं भंते ! स्वामजी, बंधी शतक नों दशम उद्देश के । अर्थ थकी ए आखियो, जिन वच श्रद्धा मिटिय कलेश कै ।। षविशतितमशते दशमोद्देशकार्थः ॥२६॥१०॥ अचरम : बन्ध-अबन्ध ३१. फुन जे तेहिज भव पामस्यै, ते अचरम नारक हे भगवान ! के । पापकर्म स्यूं बांधियो ? इत्यादिक जे प्रश्न पिछान के ।। ३२. जिन कहै कोइक नारकी, जिमहिज प्रथम उदेशे ख्यात कै। तिमहीज सर्वत्र स्थानके, भणवा बे धुर भंग संजात के । ३३. जाव तिथंच पंचेंद्रिय, तिहां लगै कहि अधिकार के । हे प्रभु ! अचरम मनुष्य स्यूं, पापकर्म बंध ? प्रश्न प्रकार के । ३१. अचरिमे णं भंते ! नेर इए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा । अचरमो यस्तं भव पुनः प्राप्स्यति, (व. प. ९३७) ३२. गोयमा ! अत्थेगइए एवं जहेव पढमोद्देसए, पढम बितिया भंगा भाणियध्वा सव्वत्थ ३३. जाव पंचिदियतिरिक्खजाणियाणं । (श० २३।५०) अचरिमे णं भंते ! मणस्मे पावं कम्म कि बंधी-- पुच्छा । तत्राचरमोद्देशके पञ्चेन्द्रियतिर्यगन्तेषु पदेषु पापं कर्माश्रित्याद्यो भङ्गको, (वृ. प. ९३७) ३४. गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थे गतिए बंधी बंधइ न बधिस्सइ, ३५. अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बधिस्सइ । (श. २६॥५१) मनुष्याणां तु चरमभङ्गकवर्जास्त्रयो, यतश्चतुर्थश्चरमस्येति, (व. प. ९३७) ३६. सलेस्से णं भंते ! अचरिमे मणुस्से पावं कम्मं कि बंधी? ३४. जिन कहै कोइक बांधियो, बांधै छै वलि बांधस्य तेह के । कोइक बांध्यो बांधे अछ, अनागते नहीं बांधस्यै जेह के ।। ३५. कोइक बांध्यो न बांध, आगमिक फुन बांधस्यै सोय के । पिण चउथो भांगो हुवै नथी, तुर्य भंग मनु चरम में होय कै ।। ३६. सलेशी अचरम मनुष्य स्यूं, पापकर्म प्रति हे भगवान ! के । बांध्यो बांध बांधस्य ? इत्यादिक जे प्रश्न पिछान कै ।। ३७. इमहिज तुर्य भांगा विना, भणवा जे धुर भांगा तीन के । इम जिम प्रथम उदेशके, भाख्यो छै तिम कहि सुचीन कै ।। ३८. नवरं बीस पदे तिहां, जेह विषे कह्या भांगा च्यार के । तेह विष त्रिण भंग इहां, तुर्य भंग विण धुर रा धार कै । सोरठा ३९. कह्या तिहां पद बीस, जीव सलेशी शुक्ल ए। पाक्षिक-शुक्ल जगीस, सम्यकदष्टि पंचमो ।। ३७. एवं चेव तिण्णि भंगा चरमविहूणा भाणियब्वा एवं जहेव पढमुद्देसे, ३८. नवरं-जेसु तत्थ वीससु चत्तारि भंगा तेसु इह आदिल्ला तिणि भंगा भाणियब्वा चरिमभंगवज्जा । ४०. समुच्चय ज्ञानी सोय, मति-श्रुत-ज्ञानी अवधि फुन । मनपज्जव अवलोय, नोसण्णोवउत्ते वली ।। ४१. अवेद ने सकषाय, लोभकषाई चवदमो। सजोगी कहिवाय, मन-जोगी वच काय फुन ।। ४२. सागार में अनागार, बीस पदे भंग चिहुं तिहां । __ इहां अचरम मनु धार, तिणसूं धुर भंग त्रिणज ह ।। ३९. वीससु पएसु'त्ति, तानि चैतानि-जीव १ सलेश्य २ शुक्ललेश्य ३ शुक्ल पाक्षिक ४ सम्यग्दृष्टि ५ (व. प. ९३७) ४०. ज्ञानि ६ मतिज्ञानादिचतुष्टय १० नोसज्ञोपयुक्त ११ (वृ. प. ९३७) ४१. अवेद १२ सकषाय १३ लोभकषाय १४ सयोगि १५ मनोयोग्यादित्रय १८ (वृ. प. ९३७) ४२. साकारोपयुक्तानाकारोपयुक्त १९, २० लक्षणानि, एतेषु च सामान्येन भङ्गकचतुष्कसम्भवेऽप्यचरमत्वान्मनुष्यपदे चतुर्थो नास्ति, चरमस्यैव तद्भावादिति। (वृ. प. ९३७) *लय : हूं बलिहारी जादवां श० २६, उ०१०,११, ढा० ४७२ २७३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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