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________________ ४३. अलेशी में केवली, अजोगी नहीं पूछवा तीन कै । ए त्रिण चरम विषेज है, शेष तिमहिज कहिवाज सुचीन के।। ४३. अलेस्से केवलनाणी य अजोगी य-एए तिण्णि वि न पुच्छिज्जति, सेसं तहेव । 'अलेस्से' इत्यादि, अलेश्यादयस्त्रयश्चरमा एव भवन्तीतिकृत्वेह न प्रष्टव्याः । (वृ. प. ९३७) ४४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिए जहा नेरइए। (श. २६१५२) ४५. अचरिमे णं भंते ! नेरइए नाणावरणिज्जं कम्मं किं बंधी पुच्छा। ४६. गोयमा ! एवं जहेव पाव, नवरं-मणुस्सेसु सकसाईसु लोभकसाईसु य पढम-बितिया भंगा, ४७. पापकर्मदण्ड के सकषायलोभकषायादिष्वाद्यास्त्रयो भङ्गका उक्ता इह त्वाद्यो द्वावेव, (वृ. प. ९३७) ४८. यत एते ज्ञानावरणीयमबद्धवा पुनर्बन्धका न भवन्ति, (वृ. प. ९३७) ४९. कषायिणां सदैव ज्ञानावरणबन्धकत्वात्, (वृ. प. ९३७) ५०. चतुर्थस्त्वचरमत्वादेव न भवतीति, (वृ. प. ९३७) ४४. वाणव्यंतर ने ज्योतिषी, वैमानिक ए त्रिण न ताम के । जेम को छै नारकी, तिमहिज ए त्रिण कहिवा तमाम के ।। अचरम के संदर्भ में आठ कर्म : बन्ध-अबन्ध ४५. स्यं प्रभु ! अचरम नारकी, ज्ञानावरणी कर्म विचार के । बांध्यो बांध बांधस्य ? इत्यादिक जे प्रश्न उचार कै ।। ४६. जिन कहै पापकर्म कह्य, तिमहिज नवरं मनुष्य विषेह के । सकषाई लोभकषाय में, प्रथम द्वितीय भंग पावै बेह के ॥ सोरठा ४७. पापकर्म दंडकेह, सकसायी लोभ-कषाइ में । धुर भंग त्रिण तिहां लेह, इहां आदि धुर भंग बे ।। ४८. सकसाई लोभकसाइ, ज्ञानावरणी कर्म में । अणबांधी ने ताहि, पुनः बंधगा नहिं हुवै ।। ४९. सकसाई अवलोय, ज्ञानावरणी कर्म नां । सदा बधगा होय, तृतीय भंग नहिं ते भणी ।। ५०. तुर्य भंग फुन तास, अचरमपणां थकीज ते । सकसाई ने जास, निश्चै करिक है नहीं। ५१. *शेष अठार पद विषे, चरम भंग विण भांगा तीन कै । शेष तिमज कहिवो सह, जावत वैमानिक लग चीन के ।। ५२. दर्शणावरणी कर्म पिण, कहिवं समस्तपणे इमहीज के । ज्ञानावरणी नीं पर, वारू श्री जिन वच सलहीज के।। वेदनी सगले स्थानके, भंग प्रथम द्वितीयो कहिवाय कै । जावत वैमानिक लगै, तृतीय तुर्य भंग पावै नांय कै॥ सोरठा ५४. कर्म वेदनी ताहि, अबंधका थइ नैं वली । तसु बंधग है नांहि, तृतीय भंग नहिं ते भणी ।। ५५. तुर्य भंग अवलोय, अजोगो ने ईज है। ते माटै ए जोय, भंग चतुर्थो पिण नथी ।। ५६. 'नवरं मनुष्य विषे इहां, अलेशी न केवली जोय के । अजोगी ए त्रिहुं नथी, ए तीन अचरम नहिं होय कै॥ ५७. स्यूं प्रभु ! अचरम नारकी, कर्म मोहणी बांध्यो सोय कै। बांधै नै फुन बांधस्यै ? इत्यादिक पूछा अवलोय के ।। ५८. जिन भाखै सुण गोयमा! पापकर्म जिम पूरव ख्यात के। तिमहिज कहि सर्व ही, जाव वैमानिक लग अवदात ।। ५१. सेसा अट्ठारस चरमविहूणा, सेसं तहेव जाव वेमाणियाणं । ५२. दरिसणावरणिज्ज पि एवं चेव निरवसेसं । ५३. वेयणिज्जे सब्वत्थ वि पढम-बितिया भंगा जाव वेमाणियाणं, 'वेयणिज्जे सव्वत्य पढमबीय' त्ति, तृतीयचतुर्थयोरसम्भवात्, (व. प. ९३७) ५४. एतयोहि प्रथमः प्रागुक्तयुक्तेनं संभवति । (वृ. प. ९३७) ५५. द्वितीयस्त्वयोगित्व एव भवतीति। (व. प. ९३७) ५६. नवरं-मणुस्सेसु अलेस्से केवली अजोगी य नत्थि । (श. २६१५३) ५७. अचरिमे णं भंते ! नेरइए मोहणिज्ज कम्मं किं बंधी -पुच्छा । ५८. गोयमा! जहेव पावं तहेव निरवसेसं जाव वेमाणिए । (श. २६।५४) *लय : हूं बलिहारी जादवां २७४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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