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________________ ५९. अचरम नारक स्यूं प्रभु! आयु कर्म वाध्यो पूछेह कं । जिन भाखे सुण गोयमा ! प्रथम तृतीय भंग पावे बेह के || सोरठा द्वितीय भंग पावे नथी । नरकायु फुन बांधस्यै || ६०. धुर भंग प्रसिद्ध पिछाण, अचरम नारक जाण, ६१. जिम दूजो भंग नांय, तिमज तु नहि पाय, ६२. पूर्वे बांध्यो सोय, अबंध ६३. *सर्व पदे पण नारके, वलि बांधस्यै जोय, अचरम माटे तृतीय इम ।। इम हिज प्रथम तृतीय भंग दोय के । नवरं मिथदृष्टि विषे तीजो भांगो कहिवो सोय के ।। 1 अचरम नारक नें विषे । ते चरम शरीरके ॥ काल बांधे नथी । सोरठा ६४. पूर्व पद आख्यात, तिण अनुसारे न्याय जे शेष पदे अवदात, कहिवुं सर्व विचार नैं || ६५. * इम जावत थणियकुमार नैं, तेजू लेश्या ने विषे, ६६. शेष सर्व पद में विषे ऊ वाउ सर्व स्थानके, ६७. वे ते चउरद्रिय में विषे अत्र पृथ्वी अप वणरसई मांहि कं ॥ तीजो भांगो कहिये ताहि के || प्रथम तृतीय भंग पावे दोष के पहिलो तीजो भांगो होय कै ॥ महज पहिलो तोजो जान के। नवरं इतरो विशेष छे, सांभलजो धोता सुविधान के ॥ 1 ६८. सम्यक्त्व समुचय ज्ञान में, आभिनिबोधिक नै श्रुत ज्ञान कै । ए च्यारू ही स्थानके, भंग तृतीय भाखै भगवान के || ६९. पंचेंद्रिय नियंत्र नं मिश्रदृष्टि में तोजो भंग के । शेष पदे सह स्थानके, प्रथम तृतीय ने भंग प्रसंग के ७०. मनुष्य ने मिश्रदृष्टि विषे, अवेदक अकसाई मांय कै । तीजो भांगो जाणवो, श्री जिन बच वर निर्मल न्याय के । ७१. अशी मे केवली, अजोगी त्रिहुं पूछवा नांय कै । शेष पदे सह स्थानके, प्रथम तृतीय में भंग कहाय के । वा०-- इहां अचरम मनुष्य नो अधिकार छे। अने अलेशी अजोगी केवली ए तीनूं चरम मनुष्य छ। ते मार्ट ए तीनूं न पूछवा । ७२. वाणव्यंतर नैं ज्योतिषी, वैमानिक वली अचरम न्हाल के । आख्या है जिस नारकी, तिमहिज कहिया न्याय विद्याल के ।। ७३. नाम गोत्र अंतराय ए, ज्ञानावरणी जिम आख्यात कै । तिमहिज ए कहियो सह, सेवं भंते! स्वाम सुजात के || *लय: बलिहारी जावां Jain Education International ५९. अचरिमे ण भते ! नेरइए आउयं कम्म कि बंधी पुच्छा । गोयमा ! पढम ततिया भंगा । ६०. तत्र प्रथम: प्रतीत एव द्वितीयस्त्वचरमत्वान्नास्ति, अचरमस्य हि आयुधोऽवश्यं भविष्यत्यन्यथाऽचरमत्वमेव न स्यात्, ६१. एवं चतुर्थोऽपि, ६२. तृतीये बनाया दुस्तदबन्धकाले पुनग्रस्यरथचरमत्वादिति, (बु.प. ९३०) ६२. एवं सत्यपदे विरइया पढमततिया भंगा, नवरं सम्मामिच्छत्ते ततिओ भंगो । (वृ. प. ९३७) (बृ. प. ९३८) ६४. शेषपदानां तु भावना पूर्वोक्तानुसारेण कर्त्तव्येति । (बू प. ९३०) पुढविक्काइ आउ काइय वणस्सइकाइयाणं तेउलेस्साए ततिओ भंगो । ६५. एवं जाव शणियकुमाराणं ६६ सेसेसु पदेसु सव्वत्थ पढम ततिया भंगा । तेउकाइयवाउवकाइयाणं सव्वत्थ पढम-ततिया भंगा । ६७. बेइंदिय-ते इंदिय- चउरिदियाणं एवं चेव, नवरं ६८. सम्मत्ते ओहिनाणे आभिणिबोहियनाणे सुयनाणेएएसु चउसु वि ठाणेसु ततिओ भंगो । ६९. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं सम्मामिच्छत्ते ततिओ भंगो । सेसपदेसु सव्वत्थ पढम-ततिया भंगा। ७०. मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेदए असाइम्मि य भिंगो ७१. अलेस्स केबलनाण-अजोगी य न पुच्छिज्जंति । सेसपदेसु सव्वत्थ पढम-ततिया भंगा। ७२. वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । ७३. नामं गोयं अंतराइयं च जहेव नाणावर णिज्जं तहेव निरवसेसं । (श. २६।५५) सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ । For Private & Personal Use Only (२६।२६) श० २६, उ० ११, ढा० ४७२ २७५ www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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