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३२. सामाइयसंजए णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं,
गीतकछद ३१. इक भव विषे बे वार आवै, द्वितीय पिण बे वार ही। फुन इक भवे इक वार ए,
इहविध कां वृत्तिकार ही ॥ वा० ... इहां सूक्ष्मसंपराय पहिले, दूजे भवे च्यार-च्यार वार कही अनं तीजे भवे क्षपक श्रेणि आवै ते माट एक वार -इम एक विकल्पहीज कां । पिण इम नथी का प्रथम भवे च्यार वार द्वितीय भवे बे वार, इग्यारमें गुणठाणे जातां आवतां दशमें आवे ते माट। अनै तीजे भवे तीन वार, इग्यारमें गुणस्थान जातां आवतां दशमों बे वार आवै । अनै तेहिज भवे अपकश्रेणि च. तिवारै दशमों आवै-इम एक भव में दोन श्रेणि चढे तिवारै ए विकल्प हुवै । पिण वृत्तिकार ए विकल्प नथी का । बलि परिहारविशुद्धि में एक विकल्प कही नै इत्यादि का तिम इहां इत्यादि पिण नथी का ते माटै एक भव में उपशम, क्षपक बे श्रेणि न चढे, एहवं वृत्तिकार नों पिण अभिप्राय जणाय छै। अने पन्नवणा ना टबा में कह्य-कर्म ग्रंथ ने अभिप्राये तो एक भव में उपशमश्रेणि, क्षपकश्रेणि बिहुं आवै अन आगम ने अभिप्राये एक भव में उपशमश्रेणि आवै तो वलि तिण भव में क्षपकणि नहीं आवै एहवं कां ।'
(ज. स.) संयत का काल ३२. *प्रभु ! सामायिक संजमी सा० !
हुवे काल थकी कितो काल हो ? नि० ! श्री जिन भाख जघन्य थी गो०!
एक समय तसु न्हाल हो स० ! वा० प्रतिपत्ति समय अनंतरहीज मरण थकी जघन्य थकी एक समय, इम वृत्तिकार का ते पंडित विचारी जोयजो।
भगवती शतक १२, उदेशा ९, सू. १८० धर्मदेव नी स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट देश ऊण कोड़ि पूर्व कही। तेहy अर्थ वृत्तिकार कह्य जे अंतर्मुहत्त अवशेष आयु छत चारित्र प्रत अंगीकार कर तेहनी अपेक्षाये जघन्य अंतर्मुहूर्त जाणवं । इण न्याय सामायिक चारित्र केतलो काल रहै ? तिहां जघन्य एक समय कह्य। ते दशमां थी नवमें गुणस्थान आवी एक समय रही मरै ते सामायिक चारित्र जघन्य एक समय काल थकी संभवै । अथवा सामायिक चारित्रवंत प्रथम गुणस्थान आबी तखिण शंका मेटी निशंक थई सम्यक्त्व अनै सामायिक चारित्र बिहं समकाले फरसी एक समय रही मरण पामै, इण न्याय पिण जघन्य एक समय संभव।
वलि जीवाभिगम - विषे कह्य-मनुष्य स्त्री काल थकी केतलु काल रहै ? तेहर्नु उत्तर क्षेत्र आश्रयी जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन पल्प पृथक कोड़ पूर्व अधिक । पूर्वे सात भव कोड़ पूर्व नै आउखै पाली में देवकुरु प्रमुख क्षेत्र मां ३ पल्य नै आउखै काज, तिवारै त्रिण पल्य पूर्व कोड़ि पृथक्स अधिक था। अनै धर्मचरण आश्रयी जघन्य एक समय उत्कृष्टो देश ऊण पूर्व कोड़ि। इहां एक समय का ते पिण संजमी प्रथम गुणस्थान आवी तत्खिण शंका मेटो चारित्र फरस ते एक समय रही मरण पामै इहां पिण ए न्याय संभवै । वृत्ति में ए न्याय नथी कह्यो।
वा०-'सामाइय' इत्यादी सामायिकप्रतिपत्तिसमयसमनन्तरमेव मरणादेकः समयः,
(व. प. ९१७)
मणुस्सित्थी णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुवकोडीपुहत्तमभहियाई । धम्मं चरणं पडुच्च जहण्णणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। (जीवाजीवाभिगम २२५४)
१९० भगवती जोड़
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